________________ खण्ड 2, प्रकरणं : 1 कथानक संक्रमणं 347 - पिता ने कहा- "पुत्र ! तू ऐसी बातें क्यों कर रहा है ? मुझे लगता है कि किसी ऋषि या देवता का शाप तुझे लगा है।"१ पुत्र ने कहा-"पिताजी ! पूर्व-जन्म में मैं एक ब्राह्मण था। परमात्मा के ध्यान में मैं सदा लीन रहता था। आत्म-विद्या के विचार मेरे में पूर्ण विकसित हो चुके थे। मैं साधना में रत था। मुझे लाख जन्मों की स्मृति हो आई। जातिस्मरण-ज्ञान की प्राप्ति धर्म-त्रयी में रहे हुए मनुष्य को नहीं होती। मुझे यह ज्ञान पहले से ही प्राप्त है। अब मैं आत्म-मक्ति के लिए प्रयत्न करूँगा।"२ पिता-पुत्र का संवाद आगे चलता है। पुत्र पिता के समक्ष मृत्यु-दशा का वर्णन उपस्थित करता है। यह संवाद उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्ययन से मिलता-जुलता है / इसमें आत्म-ज्ञान की प्रतिष्ठा और वेद-ज्ञान की निरर्थकता को बहुत ही सुन्दर ढंग से समझाया है। विन्टरनिटज ने माना है कि यह बहुत सम्भव है कि यह संवाद बौद्ध अथवा जैन परम्परा का हो और बहुत काल बाद इसे महाकाव्य और पौराणिक-साहित्य में सम्मिलित कर लिया गया हो / किन्तु मुझे लगता है कि यह बहुत प्राचीन काल से प्रचलित श्रमणसाहित्य का अंश रहा होगा और उसी से जैन, बौद्ध, महाकाव्यकारों तथा पुराणकारों ने इसे ग्रहण कर लिया होगा। नमि-प्रव्रज्या उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन 'नमि-प्रव्रज्या' की आंशिक तुलना 'महाजनक जातक' (सं० 536) से होती है। जैन-कथावस्तु - मालव देश के सुदर्शनपुर नगर में मणिरथ राजा राज्य करता था। उसका कनिष्ठ भ्राता युगबाहु था। मदनरेखा युगबाहु की पत्नी थी। मणिरथ ने कपटपूर्वक युगबाहु को मार डाला। मदनरेखा उस समय गर्भवती थी। उसने जंगल में एक पुत्र को जन्म दिया / उस शिशु को मिथिला-नरेश पद्मरथ ले गया। उसका नाम 'नमि' रखा। पद्मरथ के श्रमण बन जाने पर 'नमि' मिथिला का राजा बना / एक बार वह दाहज्वर से आक्रान्त हुआ। छह मास तक घोर वेदना रही / उपचार चला। दाह-ज्वर को शान्त करने के लिए रानियाँ स्वयं चन्दन घिसतीं। एक बार सभी रानियाँ चन्दन घिस रही थीं। उनके हाथों में पहिने हुए कंकण बज रहे थे। उनकी आवाज से 'नमि' खिन्न १-मार्कण्डेय पुराण, 10 // 34,35 / २-वही, 10 // 37,44 / .. 3-The Jainas in the History of Indian Literature, p. 7...