________________ 346 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन __एक नगर में भार्गव नाम का ब्राह्मण रहता था। उसके पुत्र का नाम सुमति था। वह परम धर्मात्मा था। उसने आत्म-धर्म के मर्म को समझ लिया था। एक दिन पिता ने कहा-"पुत्र ! वेदों को पढ़ कर गुरु की शुश्रूषा कर, गार्हस्थ्य-जीवन बीता कर, यज्ञ आदि कर, पुत्रों को जन्म दे कर संन्यास ग्रहण करना, पहले नहीं।"" ____ सुमति ने कहा-"पिता ! जिन क्रियाओं के लिए आप मुझे कह रहे हैं, मैंने उनका अनेक बार अभ्यास किया है। उसी प्रकार अन्यान्य शास्त्रों तथा नाना प्रकार के शिल्पों का भी मैंने बहुत बार अभ्यास किया है / मुझे ज्ञान प्राप्त हो चुका है / वेदों से मुझे क्या प्रयोजन ?2 "पिताजी ! मैं इस संसार-चक्र में बहुत घूमा। अनेक बार अनेक माता-पिता किए / संयोग और वियोग भी मैंने देखा है। अनेक प्रकार के सुख-दु:ख मैंने अनुभव किए हैं। इस प्रकार जन्म-मृत्यु करते-करते मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ है / मैं अपने लाखों पूर्व-जन्म देख रहा हूँ, मुझे मोक्ष को प्राप्त कराने वाला ज्ञान उत्सन्न हो चुका है। उस ज्ञान को प्राप्त कर लेने के पश्चात् ऋग्, यजु, साम आदि वेदों के क्रिया-कलाप मुझे उचित प्रतीत नहीं. होते। मुझे उत्कृष्ट ज्ञान मिल चुका है, मैं निरीह हूँ, वेदों से मुझे क्या प्रयोजन ? इसी उत्कृष्ट ज्ञान की आराधना से मुझे ब्रह्म की प्राप्ति हो जाएगी।"३ . १-मार्कण्डेय पुराण, 10 / 11,12 : वेदानधीत्य सुमते !, यथानुक्रम मादितः / गुरुशुश्रूषणेव्यग्नो, भैक्षान्नकृत भोजनः // . ततो गार्हस्थ्य मास्थाय चेष्ट्वा यज्ञाननुत्तमान् / इष्टमुत्पादयापत्यमाश्रयेथा वनं ततः // २-वही, 10 / 16,17 : तातैतद् बहुशोभ्यस्तं, यत्वयाद्योपदिश्यते / तथैवान्यानि शास्त्राणि, शिल्पानि विविधानि च // उत्पन्लज्ञानबोधस्य, वेदैः किं मे प्रयोजनम् // ३-वही, 10 / 27,28,29: एवं संसार चक्रेस्मिन्, भ्रमता तात ! संकटे / ज्ञान मेतन्मयाप्राप्तं, मोक्षसम्प्राप्तिकारकम् // विज्ञाते यत्र सर्वोऽयमृग्यजुःसामसंहितः। क्रियाकलापो विगुणो, न सम्यक् प्रतिभाति मे॥ तस्मादुत्पन्नबोधस्य, वेदैः किं मे प्रयोजनम् / गुरुविज्ञानतृप्तस्य, निरीहस्य सदात्मनः //