________________ 507 खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा-पद अभिक्खणं कोही हवइ पबन्धं च पकुव्वई / मेत्तिज्जमाणो वमइ सुयं लक्ष्ण मज्जई // 11 // 7 // (1) जो बार-बार क्रोध करता है, (2) जो क्रोध को टिका कर रखता है, (3) जो मित्रभाव रखने वाले को भी ठुकराता है, (4) जो श्रुत प्राप्त कर मद रखता है, अवि पावपरिक्खेवी अवि मित्तेसु कुप्पई। सुप्पियस्सावि मित्तस्स रहे भासइ पावगं // 11 // 8 // (5) जो किसी की स्खलना होने पर उसका तिरस्कार करता है, (6) जो मित्रों पर कुपित होता है, (7) जो अत्यन्त प्रिय मित्र की भी एकान्त में बुराई करता है, पइण्णवाई दुहिले यद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति वुच्चई // 11 // 9 // (8) जो असंबद्ध-भाषी होता है, () जो द्रोही है, (10) जो अभिमानी है, (11) जो सरस आहार आदि में लुब्ध है, (12) जो अजितेन्द्रिय है, (13) जो असंविभागी है और . . (14) जो अप्रीतिकर है, वह अविनीत कहलाता है। अह पन्नरस हिं ठाणेहिं सुविणीए त्ति वुच्चई / नीयावत्ती अचवले अमाई अकुऊहले // 11 // 10 // पन्द्रह स्थानों से सुविनीत कहलाता है(१) जो नम्र व्यवहार करता है, (2) जो चपल नहीं होता, (3) जो मायावी नहीं होता, (4) जो कुतूहल नहीं करता, अप्पं चाऽहिक्खिबई पबन्धं च न कुव्वई / मेत्तिज्जमाणो भयई सुयं लद्धं न मज्जई // 11 // 11 // (5) जो किसी का तिरस्कार नहीं करता, (6) जो क्रोध को टिका कर नहीं रखता,