________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन रहा हूँ। दैत्यराज ! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चले जाओ। इन्द्र की यह बात सुन दैत्यराज बलि दक्षिण-दिशा में चले गए और इन्द्र उत्तर दिशा में।" पद्मपुराण में भी बताया गया है कि असुर लोग जैन-धर्म को स्वीकार करने के बाद नर्मदा के तट पर निवास करने लगे। इससे स्पष्ट है कि अर्हत् का धर्म, उत्तर भारत में आर्यों का प्रभुत्व बढ़ जाने के बाद, दक्षिण भारत में विशेष बलशाली बन गया / असुरों का उत्तर से दक्षिण की ओर जाना भी उनकी तथा द्रविडों की सभ्यता और संस्कृति की समानता का सूचक है। असुर और आत्म-विद्या आर्य-पूर्व असुर राजाओं की पराजय होने के बाद आर्य-नेता इन्द्र ने दैत्यराज बलि, नमुचि और प्रह्लाद से कहा- "तुम्हारा राज्य छीन लिया गया है; तुम शत्रु के हाथ में पड़ गए हो फिर भी तुम्हारी आकृति पर कोई शोक की रेखा नहीं, यह कैसे ?' 3 इस प्रश्न के उत्तर में असुर राजाओं ने जो कहा वह उनकी आत्म-विद्या का ही फलित था। विरोचनकुमार बलि ने इन्द्र को इस प्रकार फटकारा कि उसका गर्व चूर हो गया। बलि ने इन्द्र से कहा- "देवराज ! तुम्हारी मूर्खता मेरे लिए आश्चर्यजनक है / इस समय तुम समृद्धिशाली हो और मेरी समृद्धि छिन हो गई है। ऐसी अवस्था में तुम मेरे सामने अपनी प्रशंसा के गीत गाना चाहते हो, यह तुम्हारे कुल और यश के अनुरूप नहीं है।" १-महाभारत, शान्तिपर्व, 225 // 37 : एवमुक्तस्तु दैत्येन्द्रो बलिरिन्द्रेण भारत / जगाम दक्षिणामाशामुदीची तु पुरन्दरः // २-पद्मपुराण, 13 / 412 : नर्मदासरितं प्राप्य, स्थिता दानवसत्तमाः / ३-(क) महाभारत, शान्तिपर्व, 227 / 15 : शत्रुभिवर्तमानीतो, हीनः स्थानादनुत्तमात् / वैरोचने ! किमाश्रित्य, शोचितव्ये न शोचसि ? // (ख) वही, 226 / 3 : बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद्, द्विषतां वशमागतः। श्रिया विहीनो नमुचे ! शोचस्याहो न शोचसि ? // (ग) वही, 222 / 11 : बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद्, द्विषतां वशमागतः / श्रिया विहीनः प्रह्लाद !, शोचितव्ये न शोचसि ? // .