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________________ खण्ड : 2, प्रकरण : 2 प्रत्येक-बुद्ध 365 के शत्रु राजा भी नत हो गए। इसलिए बालक का नाम 'नमि' रखा। युवा होने पर उसका विवाह 1008 कन्याओं के साथ सम्पन्न हुआ। पद्मरथ विदेह राष्ट्र की राज्यसत्ता नमि को सौंप प्रवजित हो गया। एक बार महाराज नमि को दाह-ज्वर हुआ। उसने छह मास तक अत्यन्त वेदना सही। वैद्यों ने रोग को असाध्य बतलाया। दाह-ज्वर को शान्त करने के लिए रानियाँ स्वयं चन्दन घिस रही थीं। उनके हाथ में पहिने हुए कंकण बज रहे थे। उनकी आवाज से राजा को कष्ट होने लगा। उसने कंकण उतार देने के लिए कहा। सभी रानियों ने सौभाग्य-चिह्न स्वरूप एक-एक कंकण को छोड़ कर शेष सभी कंकण उतार दिए / कुछ देर बाद राजा ने अपने मंत्री से पूछा- "कंकण का शब्द क्यों नहीं सुनाई दे रहा है ?" मंत्री ने कहा"राजन् ! उनके घर्षण से उठे हुए शब्द आपको अप्रिय लगते हैं, यह सोचकर सभी रानियों ने एक-एक कंकण के अतिरिक्त शेष कंकण उतार दिए हैं। अकेले में घर्षण नहीं होता। घर्षण के बिना शब्द कहाँ से उठे ?" राजा नमि ने सोचा- "सुख अकेलेपन में है / जहाँ द्वन्द्व है, वहाँ दुःख है।" विचार आगे बढ़ा। उसने सोचा यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊँगा तो अवश्य ही प्रव्रज्या ग्रहण कर लूंगा। उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा थी। राजा इसी चिंतन में लीन हो, सो गया। रात्रि के अंतिम प्रहर में उसने स्वप्न देखा / नन्दीवोष की आवाज से जागा / उसका दाह-ज्वर नष्ट हो चुका था। उसने स्वप्न का चिन्तन किया। उसे जाति-स्मृति हो आई / वह प्रतिबुद्ध हो प्रव्रजित हो गया।' बौद्ध-ग्रन्थ के अनुसार विदेह-राष्ट्र में मिथिला नाम की नगरी थी। वहाँ निमि नाम का राजा राज्य करता था। एक दिन वह गवाक्ष में बैठा हुआ राजपथ की शोभा देख रहा था / उसने देखा एक चील मांस का एक टुकड़ा लिए आकाश में उड़ी। इधर-उधर के गीध आदि पक्षी उसे धेर उससे भोजन छनीने लगे। छीना-झपटी हुई। चील ने मांस का टुकड़ा छोड़ दिया। दूसरे पक्षी ने उसे उठा लिया। गीधों ने उस पक्षी का पीछा किया। उससे छूटा तो दूसरे ने ग्रहण किया। उसे भी उसी प्रकार कष्ट देने लगे। राजा ने सोचा-"जिसजिस पक्षी ने मांस का टुकड़ा लिया, उसे-उसे ही दुःख सहना पड़ा, जिस-जिस ने छोड़ा उसे ही सुख मिला। इन पाँच काम-भोगों को जो-जो ग्रहण करता है, वह दुःख पाता है, जो-जो इन्हें ग्रहण नहीं करता, वह सुख पाता है। ये काम-भोग बहुतों के लिए १-सुखबोधा, पत्र 136-143 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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