________________ खण्ड 1, प्रकरण : 8 . २-धर्म-श्रद्धा 217 मृगापुत्र ने भी संसार को इसी दृष्टि से देखा था-"जैसे घर में आग लग जाने पर उप घर का जो स्वामी होता है, वह मूल्यवान् वस्तुओं को उससे निकालता है और मून्य-हीन वस्तुओं को वहीं छोड़ देता है, उसी प्रकार यह लोक जरा और मृत्यु से प्रज्वलित हो रहा है। मैं आपकी आज्ञा पाकर उसमें से अपने आपको निकाल लूंगा।"१ यह संसार-चक्र अविरल गति से अनन्त काल तक चलता रहता है / आत्मवादी इस परिम्रमण को अपनी स्वतंत्रता के प्रतिकूल मानता है। उसका अन्त पाने के लिए वह धर्म की शरण में आता है / कुमारश्रमण केशो ने इसी आशय से प्रश्न किया था___“मुने ! महान् जल-प्रवाह के वेग से बहते हुए जीवों के लिए तुम शरण, गति, प्रतिष्ठा और द्वीप किसे मानते हो ?" गौतम बोले-"जल के मध्य में एक लम्बा-चौड़ा महाद्वीप है / वहाँ महान् जल-प्रवाह की गति नहीं है।" "द्वीप किसे कहा गया है"-केशी ने गौतम से कहा। गौतम वोले-"जरा और मृत्यु के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है।" २-धर्म-श्रद्धा धर्म की धारणा के आठ हेतुओं का उल्लेख किया जा चुका है। उनके अनुप्रेक्षण से धर्म के प्रति श्रद्धा होती है। जिसे धर्म के प्रति श्रद्धा होती है, वह पौद्गलिक सुखों से विरक्त हो जाता है। विरक्ति को दो भूमिकाएं हैं-(१) अगार-धर्म और (2) अनगारधर्म / प्रारम्भ में सभी लोग गृहस्थ होते हैं / अनगार जन्मना नहीं होता। धर्म की श्रद्धा और वैराग्य का उत्कर्ष होने पर गृहस्थ ही गृहवास को छोड़ कर अनगार बनता है। __भोग और विराग--ये जीवन के दो छोर हैं। जिनमें राग होता है, वे भोग चाहते हैं। जिनका मन विरक्त हो जाता है, वे भोग का त्याग कर देते हैं। ये दोनों भावनाएँ हर युग-मानस को व्याप्त करती रही हैं। ब्रह्मदत्त ने चित्र से कहा था- "हे भिक्षु ! तू नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ नारी-जनों को परिवृत्त करता हुआ इन भोगों को भोग। यह मुझे रुचता है / प्रव्रज्या वास्तव में ही कष्टकर है।" १-उत्तराध्ययन, 19 / 22,23 / २-वही, 1015-15 / ३-वही, 23 / 65-68 / ४-वही, 29 / 3 / 28 ..