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________________ 218 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन धर्म में स्थित और उस (राजा) का हित चाहने वाले चित्र मुनि ने पूर्वभव के स्नेहवश अपने प्रति अनुराग रखने वाले काम-गुणों में आसक्त राजा से यह वाक्य कहा-"सब गीत विलाप हैं। सब नृत्य विडम्बना हैं। सब आभरण भार हैं और सब काम-भोग दुःखकर हैं।" मृगापुत्र को भी माता-पिता ने यही समझाने का यत्न किया था-"पुत्र ! तू मनुष्य सम्बन्धो पाँच इन्द्रियों के भोगों का भोग कर। फिर भुक्त-भोगी होकर मुनि-धर्म का आचरण कर।"२ सम्राट श्रेणिक ने अनाथी मुनि को देख कर विस्मय के साथ कहा-"आर्य ! तरुण हो, इस भोग-काल में ही प्रवजित हो गए / चलो, मैं तुम्हारा नाथ बनता हूँ। तुम भोग भोगो, यह मनुष्य-जीवन कितना दुर्लभ है।" 3 उक्त प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि अनुरक्त-मानस ने विरक्त को सदा भोग-लिप्त करने का प्रयल किया है और विरक्त-मानस ने सदा भोग से अलिप्त रहने का प्रयत्न किया है। " यह भोग की अलिप्ति ही अनगार बनने का मुख्य कारण रही है। ३-बाह्य-संगों का त्याग क्यों ? अनगार-जीवन में भोगासक्ति और उसके निमित्तों का भी वर्जन किया जाता है। कुछ लोग ऐसे जीवन को बहुत आवश्यक नहीं मानते थे, किन्तु श्रमण-परम्परा में इसे बहुत महत्त्व दिया गया। जयघोष ने विजयघोष से कहा- "मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं / तू निष्क्रमण कर, जिससे इस संसार-सागर में पड़ रहे आवर्तों से बच जाए।"५ कुछ लोग सोचते हैं कि धर्म की आराधना के लिए आगार और अनगार की भेदरेखा खींचना आवश्यक नहीं। जो ऐसा सोचते हैं उनका मानना है कि विकार से बचने की आवश्यकता है, विषयों-निमित्तों से बचने की आवश्यकता नहीं। एक सीमा तक यह सही भी है। भगवान् ने कहा-"काम-भोग न समता उत्पन्न करते हैं और न विकार। इन्द्रिय और मन के विषय-स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द और संकल्प रागी १-उत्तराध्ययन, 13314-16 / २-वही, 19643 / ३-वही, 2018-11 / ४-वही, 19 / 9 / ५-वही, 2 // 38 //
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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