________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 1 २-श्रमण-संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व 11 'धर्मान् दिर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुनावततार / ' __ अर्थात् भगवान ऋषभ श्रमणों, ऋषियों तथा ब्रह्मचारियों ( ऊर्ध्वमन्थिनः ) का धर्म प्रकट करने के लिए शुक्ल-सत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए / वैदिक-साहित्य में मुनि का उल्लेख विरल है, किन्तु इसका कारण यह नहीं कि उस समय मुनि नहीं थे। वे थे, अपने ध्यान में मग्न थे / पुरोहितों के भौतिक जगत् से परे वे अपने चिन्तन में लीन रहते थे और पुत्रोत्पादन या दक्षिणा-ग्रहण के कार्यों से भी दूर रहते थे। मुनि के इस विवरण से स्पष्ट है कि वे किसी वैदिकेतर परम्परा के थे। वैदिक जगत् में यज्ञ-संस्थान ही सब कुछ थी। वहाँ संन्यास या मुनि-पद को स्थान नहीं मिला था। वातरशन शब्द भी श्रमणों का सूचक है। तैत्तिरीयारण्यक और श्रीमद्भागवत द्वारा इस तथ्य की पुष्टि होती रही है। श्रमण का उल्लेख बृहदारण्यक उपनिषद् और रामायण आदि में भी होता रहा है। केशी ___ ऋग्वेद के जिस प्रकरण में वातरशन-मुनि का उल्लेख है, उसी में केशी की स्तुति की गई है केश्यग्निं केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी। केशी विश्वं स्वदृशे केशीदं ज्योति रुच्यते // ' यह 'केशी' भगवान् ऋषभ का वाचक है / वातरशन के संदर्भ में यह कल्पना करना कोई साहस का काम नहीं है / भगवान् ऋषभ के केशी होने की परम्परा जैन-साहित्य में आज भी उपलब्ध है। ___ भगवान् ऋषभ जब मुनि बने तब उन्होंने चार मुष्टि केश-लोच किया जबकि . सामान्य परम्परा पाँच-मुष्टि केश-लोच करने की है। भगवान् केश-लोच कर रहे थे, दोनों पार्श्व-भागों का केश-लोच करना बाकी था / तब देवराज शक्रेन्द्र ने भगवान् से १-श्रीमद्भागवत, 5 // 3 // 20 / २-वैदिक कोश, पृ० 383 / ३-बृहदारण्यकोपनिषद्, 4 / 3 / 22 / ४-बालकाण्ड, सगे 14, श्लो०२२: तपसा मुंजते चापि, श्रमणा भुजते तथा / ५-ऋग्वेद, 10 / 11 / 136 / 1 /