SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ट 1, प्रकरण : 7 .. २-योग 146 नाभि के पास रखना।' यह मुद्रा वज्रासन जैसी है। शङ्कराचार्य ने पर्यङ्कासन की अवस्थिति इससे भिन्न मानी है। उनके अनुसार घुटनों को मोड़, हाथों को फैला कर सोना 'पर्यङ्कासन' है / यह मुद्रा सुप्तवज्रासन जैसी है / सुप्तवज्रासन को पर्यङ्कासन माना जाए तो वज्रासन को अर्ध-पर्यङ्कासन माना जा सकता है। किन्तु जैन-आचार्यों का मत इससे भिन्न है। वे वज्रासन की मुद्रा को पर्यङ्कासन और अर्ब-वज्रासन ( एक घुटने को ऊपर रख कर बैठने की मुद्रा ) को अर्ध-पर्यङ्कासन मानते हैं / वीरासन शङ्कराचार्य के अनुसार किसी एक पैर को सिकोड़ घुटने को ऊपर की ओर रख कर और दूसरे पैर के घुटने को भूमि में सटा कर बैठना वीरासन है / बृहत्कल्प भाष्य के अनुसार कुर्सी पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उस स्थिति में कुर्सी के बिना स्थित रहना वीरासन है।" १-(क) योगशास्त्र, 4 / 125 : स्याज्जंघयोरधोभागे, पादोपरि कृते सति / पर्यको नाभिगोत्तान-दक्षिणोत्तर-पाणिकः / / (ख) अभितगति श्रावकाचार, 8 / 46 : वुधैरुपर्यधोभागे, जंघयोरुभयोरपि / समस्तयोः कृते ज्ञेयं, पर्यङ्कासनमासनम् // २-पातञ्जल योगसूत्र, 2 / 47, भाज्यविवरण : आजानुप्रसारितबाहुशयनं पर्यङ्कासनम् / ३-बृहत्कल्प भाज्य, गाथा 5953, वृत्ति : अर्धपर्यङ्का यस्यामेकं जानुमुत्पाटयति / ४-पातञ्जल योगसूत्र, 2147, भाज्यविवरण : कुंचितान्यतरपादमवनिविन्यस्तापरजानुकं वीरासनम् / ५-बृहत्कल्प भाष्य, गाथा 5954, वृत्ति : 'वीरासणं तु सीहासणे व जह मुक्कजण्णुक णिविट्ठो / ' वृत्ति-वीरासनं नाम यथा सिंहासने उपविष्टो भून्यस्तपाद आस्ते तथा तस्यापनयने कृतेऽपि सिंहासन इव निविष्टो मुक्तजानुक इव निरालम्बनेऽपि यद् आस्ते / दुष्करं चैतद्, अतएव वीरस्य-साहसिकस्यासनं विरासनमित्युच्यते /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy