________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन _ विष्णुपुराण के अनुसार मायामोह ने असुरों को आईत्-धर्म में दीक्षित किया।' त्रयी (ऋग् , यजुः और साम) में उनका विश्वास नहीं रहा / ' उनका यज्ञ और पशुबलि से भी विश्वास उठ गया।३ वे अहिंसा-धर्म में विश्वास करने लगे। उन्होंने श्राद्ध आदि कर्म-काण्डों का भी विरोध करना प्रारम्भ कर दिया।" विष्णुपुराण का मायामोह किसी अर्हत् का शिष्य था। उसने असुरों को अर्हत् के धर्म में दीक्षित किया, यह भी इससे स्पष्ट है। असुर जिन सिद्धान्तों में विश्वास करने लगे, वे अर्हत्-धर्म के सिद्धान्त थे। मायामोह ने अनेकान्तवाद का भी निरूपण किया। उसने असुरों से कहा-"यह धर्म-युक्त है और यह धर्म-विरुद्ध है, यह सत् है और यह असत् है, यह मुक्तिकारक है और इससे मुक्ति नहीं होती, यह आत्यन्तिक परमार्थ है और यह परमार्थ नहीं है, यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य है, यह ऐसा नहीं है और यह स्पष्ट ऐसा ही है, यह दिगम्बरों का धर्म और यह साम्बरों का धर्म है / "6 पुराणकार ने इस कथानक में अर्हत् के धर्म की न्यूनता दिखलाने का यत्न किया है, फिर भी इस रूपक में से जैन-धर्म की प्राचीनता, उसके अहिंसा और अनेकान्तवादी सिद्धान्त और असुरों की जैन-धर्म परायणता-ये फलित निकल आते हैं / विष्णुपुराण में असुरों को वैदिक रंग में रंगने का प्रयत्न किया गया है ; किन्तु ऋग्वेद द्वारा यह स्वीकृत नहीं है। वहाँ उन्हें वैदिक-आर्यो का शत्रु कहा गया है।" असुर और वैदिक आर्य वेदों और पुराणों में वर्णित देव-दानव-युद्ध वैदिक-आर्यो और आर्य-पूर्व जातियों के प्रतीक का युद्ध है। वैदिक-आर्यो के आगमन के साथ-साथ असुरों से उनका संघ १-विष्णुपुराण 3 / 18 / 12 : अर्हतैतं महाधर्म मायामोहेन ते यतः / प्रोक्तास्तमाश्रिता धर्ममाहतास्तेन तेऽभवन् // २-वही, 3 / 18 / 13,14 / ३-वही, 3 // 18 // 27 // ४-वही, 3 // 18 // 25 // ५-वही, 3 / 18 / 28-29 / ६-वही, 3 / 18 / 8-11 ७-ऋग्वेद, 11233174 / 2-3 /