________________ 466 उत्तराध्ययन एक : समीक्षात्मक अध्ययन 33. भिक्षा-चर्या (30 / 25) अढविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया // 'आठ प्रकार के गोचरान तथा सात प्रकार की एषणाएँ और जो अन्य अभिग्रह हैं, उन्हें भिक्षा-चर्या कहा जाता है।' 34. रस-विवर्जन (30 / 26) खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं / परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं // 'दूध, दही, घृत, आदि तथा प्रणीत पान-भोजन और रसों के वर्जन को रस-विवर्जन तप कहा जाता है।' 35. काय-क्लेश (30 / 27) ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा / उग्गा जहा धरिज्जन्ति कायक्लेिसं तमाहियं // 'आत्मा के लिए सुखकर वीरासन आदि उत्कट आसनों का जो अभ्यास किया जाता है, उसे काय-क्लेश कहा जाता है।' 36. विविक्त-शयनासन (30 / 28) एगन्तमणावाए इत्थीपसुविवज्जिए। सयणासणसेवणया विवित्तसयणासणं // 'एकान्त, अनापात ( जहाँ कोई आता-जाता न हो ) और स्त्री-पशु आदि से रहित शयन और आसन का सेवन करना विविक्त-शयनासन (संलीनता) तप है।' 37. प्रायश्चित्त 30 / 31 आलोयणारिहाईयं पायच्छित्तं तु दसविहं / जे भिक्खू वहई सम्मं पायच्छित्तं तमाहियं // 'आलोचनाह आदि जो दस प्रकार के प्रायश्चित्त हैं, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से पालन करता है, उसे प्रायश्चित्त कहा जाता है।' 38. विनय (30 / 32) अन्मुट्ठाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं / गुरुभत्तिभावसुस्सूसा विणओ एस वियाहिओ // 'अभ्युत्थान (खड़े होना), हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति करना और भावपूर्वक शुश्रूषा करना विनय कहलाता है।'