________________ खण्ड 1, प्रकरण : 4 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि 'गोत्र लेकर चलने वाले जनों में क्षत्रिय श्रेष्ठ हैं / जो विद्या और आचरण से युक्त हैं, वह देव मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं।' "वाशिष्ठ ! यह गाथा ब्रह्मा सनत्कुमार ने ठीक ही कही है, बे-ठीक नहीं कही। सार्थक कही, अनर्थक नहीं / इसका मैं भी अनुमोदन करता हूँ।"१ क्षत्रिय की उत्कृष्टता का उल्लेख बृहदारण्यकोपनिषद् में भी मिलता है। वह इतिहास की उस भूमिका पर अंकित हुआ जान पड़ता है जब क्षत्रिय और ब्राह्मण एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हो रहे थे। वहाँ लिखा है- "आरम्भ में यह एक ब्रह्म ही था। अकेले होने के कारण वह विभूतियुक्त कर्म करने में समर्थ नहीं हुआ। उसने अतिशयता से 'क्षत्र'-इस प्रशस्त रूप की रचना की अर्थात् देवताओं में जो क्षत्रिय, इन्द्र, वरुण, सोम, रुद्र, मेघ, यम, मृत्यु और ईशान आदि हैं, उन्हें उत्पन्न किया। अतः क्षत्रिय से उत्कृष्ट कोई नहीं है। उसी से राजसूय-यज्ञ में ब्राह्मण नीचे बैठ कर क्षत्रिय की उपासना करता है। वह क्षत्रिय में ही अपने यश को स्थापित करता है / " 2 आत्म-विद्या के लिए ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों की उपासना क्षत्रियों की श्रेष्ठता उनकी रक्षात्मक शक्ति के कारण नहीं, किन्तु आत्म-विद्या की उपलब्धि के कारण थी। यह आश्चर्यपूर्ण नहीं, किन्तु बहुत यथार्थ बात है कि ब्राह्मणों को आत्म-विद्या क्षत्रियों से प्राप्त हुई है। आरुणि का पुत्र श्वेतकेतु पंचालदेशीय लोगों की सभा में आया। प्रवाहण ने कहा-कुमार ! क्या पिता ने तुम्हें शिक्षा दी है ? श्वेतकेतु-हाँ भगवन् ! प्रवाहण-क्या तुझे मालूम है कि इस लोक से (जाने पर) प्रजा कहाँ जाती है ? श्वेतकेतु-नहीं, भगवन् ! प्रवाहण--क्या तू जानता है कि वह फिर इस लोक में कैसे आती है ? श्वेतकेतु-नहीं ! भगवन् ! प्रवाहण-देवयान और पितृयान-इन दोनों मार्गों का एक दूसरे से विलग होने का स्थान तुझे मालूम है ? श्वेतकेतु-नहीं, भगवन् ! प्रवाहण-तुझे मालूम है, यह पितृलोक मरता क्यों नहीं है ? श्वेतकेतु-भगवन् ! नहीं। १-दीघनिकाय, 3 / 4, पृ० 245 / २-बृहदारण्यक, 11411, पृ० 286 /