________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 41 हुआ। गाँधीजी के आश्रम-धर्म में भी प्रधानतया चातुर्याम-धर्म दृष्टिगोचर होता है।' हिन्दुत्व और जन-धर्म आपस में घुल मिल कर अब इतने एकाकार हो गए हैं कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये जैन-धर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के नहीं / 2 ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत ___ भगवान् पार्श्व के चातुर्याम-धर्म में ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे शब्दों की व्यवस्था नहीं थी। उनकी व्यवस्था में बाह्य वस्तुओं की अनासक्ति का सूचक शब्द था 'बहिस्तात्आदान-विरमण / ' भगवान् महावीर ने इस व्यवस्था में परिवर्तन किया और 'बहिस्तात्आदान-विरमण' को 'ब्रह्मचर्य' और 'अपरिग्रह' इन दो शब्दों में विभक्त कर डाला / ब्रह्मचर्य शब्द वैदिक-साहित्य में प्रचलित था। किन्तु भगवान् महावीर ने एक महाव्रत के रूप में ब्रह्मचर्य का प्रयोग किया। उस रूप में वह वैदिक साहित्य में प्रयुक्त नहीं था / अपरिग्रह शब्द का भी महाव्रत के रूप में सर्व प्रथम भगवान महावीर ने ही प्रयोग किया था। जाबालोपनिषद् (5), नारद परिव्राजकोपनिषद् (3 / 8 / 6), तेजोबिन्दूपनिषद् (1 / 3), याज्यवल्क्योपनिषद् (2 / 1), आरुणिकोपनिषद् (3), गीता (6 / 10), योगसूत्र (2 / 30) में अपरिग्रह शब्द मिलता है, किन्तु ये सभी ग्रन्थ भगवान् महावीर के उत्तरवर्ती हैं। उनके पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थ में अपरिग्रह शब्द का एक महान् व्रत के रूप में प्रयोग नहीं हुआ है। जैन-धर्म का बहुत बड़ा भाग व्रत और अव्रत की मीमांसा है। सम्भवतः अन्य किसी भी दर्शन में व्रतों की इतनी मीमांसा नहीं हुई। चौदह गुणस्थानों-विशुद्धि की भूमिकाओं में अव्रती चौथे, अणुव्रती पाँचवें और महाव्रती छठे गुणस्थान का अधिकारी होता है। यह विकास किसी दीर्घकालीन परम्परा का है, तत्काल गृहीत परम्परा का नहीं। . संन्यास या श्रामण्य संन्यास श्रमण-परम्परा का बहुत ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व रहा है। अजितकेशकम्बल जैसे उच्छेदवादी श्रमण भी संन्यासी थे। वैदिक-परम्परा में संन्यास की व्यवस्था उपनिषद्काल में मान्य हुई है / वैदिक-काल में ब्रह्मचर्य और गृहस्थ-ये दो ही व्यवस्था-क्रम थे / आरण्यक-काल में 'न्यास' ( संन्यास) को मोक्ष का हेतु कहा गया है और वह सत्य, १-पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, भूमिका पृ० 6 / २-संस्कृति के चार अध्याय, पृ० 125 /