________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 5 १-महावीर कालीन मतवाद धर्म से परिचित थे, किन्तु चार यामों की यथार्थ जानकारी उन्हें नहीं थी। सामञफलसुत्त में उल्लिखित चार याम निर्ग्रन्थ-परम्परा में प्रचलित नहीं रहे हैं। भगवान् पार्श्व के चार याम थे (1) प्राणातिपात-विरमण / (2) मृषावाद-विरमण / (3) अदत्तादान-विरमण / (4) बहिस्तात्-आदान-विरमण / ' भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थों के लिए पाँच महाव्रतों का प्रतिपादन किया था। भगवान् पार्श्व के चौथे उत्तराधिकारी कुमार श्रमण केशी एक बार श्रावस्ती में आए और तिन्दुक-उद्यान में ठहरे। उन्हों दिनों भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी भी वहाँ आए और कोष्ठक-उद्यान में ठहरे। उन दोनों के शिष्य परस्पर मिले। उनके मन में एक तर्क खड़ा हुआ--"यह हमारा धर्म कैसा है ? और यह उनका धर्म कैसा है ? आचार-धर्म को व्यवस्था यह हमारी कैसी है ? और वह उनकी कैसी है ? जो चातुर्यामधर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और यह जो पंच शिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने किया है ..... 'जब कि हम एक ही उद्देश्य से चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ?"2 ___ अपने शिष्यों की वितर्कणा को जान कर उनका संदेह निवारण करने के लिए केशी और गौतम मिले। केशी ने गौतम से पूछा-"जो चातुर्याम-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्य ने किया है और यह जो पंच शिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने किया है। एक ही उद्देश्य के लिए हम चलें हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? मेघाविन् ! धर्म के इन दो प्रकारों में तुम्हें संदेह कैसे नहीं होता ?" केशी के कहते-कहते ही गौतम ने इस प्रकार कहा-"धर्म के परम अर्थ की, जिसमें लाखों का विनिश्चय होता है, सीमा प्रज्ञा से होती है। पहले तीर्थङ्कर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं / अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु वक्र और जड़ होते हैं। बीच के तीर्थङ्करों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं। पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है। चरमवर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार का पालन कठिन है। मध्यवर्ती साधु उसे यथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी वे सरलता से करते हैं।" 3 १-स्थानांग, 4 / 1 / 266 / २-उत्तराध्ययन, 23 / 11,12,13 / ... ३-वही, 23 / 23-27 /