SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ गौतम ने जो उत्तर दिया उसका समर्थन स्थानांग से भी होता है। उत्तरवर्तीसाहित्य में भी यह अर्थ बराबर मान्य रहा है / इसका विसंवादी प्रमाण समन जैन-वाड़मय मैं कहीं भी नहीं है। इसलिए• सामञफलसुत्त का यह उल्लेख कि थामण्य का फल पूछने पर 'भगवान् महावीर ने चातुर्याम-संवर का व्याकरण किया' २-काल्पनिक सा लगता है। बुद्ध का प्रकर्ष और शेष तीर्थङ्करों व तीर्थिकों का अपकर्ष दिखाने के लिए बौद्ध भिक्षओं ने एक विशिष्ट शैली अपनाई थी। पिटकों में स्थान-स्थान पर वह देखने को मिलती है। इसीलिए उस शैली पर आधारित संवादों की यथार्थता की दृष्टि से बहुत महत्व नहीं दिया जा सकता। जैन आगमकारों को शैली इससे भिन्न है। पहली बात तो यह है कि उन्होंने अन्य तीर्थिकों के सिद्धान्त का उल्लेख किया, किन्तु उसके प्रवर्तक या प्ररूपक का उल्लेख नहीं किया। इससे उसका मूल ढूँढने में कठिनाई अवश्य होती है, पर उनके अपकर्ष-प्रदर्शन का प्रसंग नहीं आता। दूसरी बात-भगवान् महावीर का प्रकर्ष और अन्य तीथिकों का अपकर्प दिखलाने वाली शेली आगमकारों ने नहीं अपनाई। तीसरी बात-बौद्ध-भिक्षुओं ने पिटकों को जो साहित्यिक रूप दिया, वह जैन-साधुओं ने आगमों को नहीं दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिटकों को साहित्यिक रूप मिला, उससे वे बहुत सरस और मनोरम बन गए / आगम उतने सरस नहीं बन पाए। आगम वीर-निर्वाण की सहस्राब्दी के पश्चात् लिखे गए और पिटक बुद्ध-निर्वाण के पाँच सौ वर्ष बाद / फिर भी दोनों का निष्पक्ष अध्ययन करने वाला व्यक्ति इसी निष्कर्ष पर पहुंचे बिना नहीं रहता कि पिटकों में जितना मिश्रण और परिवर्तन हुआ है, उतना आगमों में नहीं हुआ। उत्तराध्ययन में चार वादों का उल्लेख है-(१) क्रियावाद, (2) अक्रियावाद, (3) विनयवाद और (4) अज्ञानवाद / / इन चारों में विभिन्न अभ्युपगम-सिद्धान्तों का समावेश हो जाता है, इसीलिए १-स्थानांग, 5 // 1 // 395 / २-दीघनिकाय (पढमो भागो), सामञफलंसुत्तं, पृ० 50 : निगण्ठो नातपुत्तो सन्दिट्टिकं सामञफलं पुट्ठो समानो चातुयामसंवरं ब्याकासि। ३-मझिम निकाय, 2 / 1 / 6 उपालि-सुत्तन्त ; 2 / 1 / 8 अभयराजकुमार-सुत्तन्त / ४-उत्तराध्ययन, 18 / 23 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy