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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 1 २-श्रमण-संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व 13 है / ' तथा व्रात्य-काण्ड की भूमिका के प्रसंग में उन्होंने लिखा है- "इसमें व्रात्य की स्तुति की गई है / उपनयनादि से हीन मनुष्य व्रात्य कहलाता है। ऐसे मनुष्य को लोग वैदिक कृत्यों के लिए अनधिकारी और सामान्यतः पतित मानते हैं। परन्तु यदि कोई वात्य ऐसा हो जो विद्वान् और तपस्वी हो तो ब्राह्मण उससे भले ही द्वेष करे परन्तु वह सर्व पूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तुल्य होगा।२ वात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को प्रेरणा दी थी। ___ श्री सम्पूर्णानन्दजी ने व्रात्य का अर्थ परमात्मा किया है। श्री बलदेव उपाध्याय भी इसी मत का अनुसरण करते हैं / किन्तु समूचे वाय-काण्ड का परिशीलन करने पर यह अर्थ संगत नहीं लगता। वात्य-काण्ड के कुछ सूत्र वह संवत्सर तक खड़ा रहा / उससे देवों ने पूछा-व्रात्य ! तू क्यों खड़ा है ? _ वह अनावृत्ता दिशा में चला। इससे ( उसने ) सोचा न लौटूंगा।अर्थात् जिस दिशा में चलने वाले का आवर्तन ( लौटना ) नहीं होता वह अनावृत्ता दिशा है / इसलिए उसने सोचा कि मैं अब न लौटूंगा। मुक्त पुरुष का ही प्रत्यावर्तन नहीं होता। तब जिस राजा के घरों पर ऐसा विद्वान् राजा व्रात्य अतिथि ( होकर ) आए। १-अथर्ववेद, 15 // 11 // सायण भाग्य : कञ्चिद् विद्वत्तमं, महाधिकारं, पुण्यशीलं विश्वसंमान्यं ब्राह्मणविशिष्टं व्रात्य मनुलक्ष्य वचन मिति मंतव्यम् / २-वही, 15 / 1 / 1 / 1 / ३-वही,१५३१११११: व्रात्य आसीदीयमान एव स प्रजापति समेरयत् // ४-अथर्ववेदीयं व्रात्यकाण्ड, पृ० 1 / ५-वैदिक साहित्य और संस्कृति, पृ० 229 / ६-अथर्ववेद, 15 // 1 // 3 / 1 / ७-वही, 15 // 1 / 6 / 19: सोऽनावृत्तां दिशमनु व्यऽचलत्ततो नावय॑न्नमन्थत / . .. ८-अथर्ववेदीयं व्रात्यकाण्ड, पृ०.३६ /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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