________________ खण्ट 1, प्रकरण : 7 २-योग सोमदेव सूरी ने वैराग्य, ज्ञानसम्पदा, असंगता, चित्त की स्थिरता, भूख-प्यास आदि की ऊर्मियों को सहना—ये पाँच योग के हेतु बतलाए हैं। ऐसे और भी अनेक हेतु हो सकते हैं पर इसी शीर्षक की प्रथम पंक्ति में निर्दिष्ट चार बातें अनिवार्य रूप से अपेक्षित हैं। ध्यान का महत्व मोक्ष का पथ है-संवर और निर्जरा। उनका पथ है-तप / ध्यान तप का प्रधान अंग है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि ध्यान मोक्ष का प्रधान मार्ग है। वस्त्र, लोह और गीलोभूमि के मल, कलंक और पंक की शुद्धि के लिए जो स्थान जल, अग्नि और सूर्य का है, वही स्थान कर्म-मल की शुद्धि के लिए ध्यान का है / जैसे ईन्धन की राशि को अग्नि जला डालती है और प्रतिकूल पवन से आहत होकर बादल विलीन हो जाते हैं, वैसे ही ध्यान से कर्मों का दहन और विलयन होता है / 3 ऋषिभाषित में बतलाया गया है कि ध्यान-हीन धर्म सिर-हीन शरीर के समान है। जैन-परम्परा में प्राचीन काल से ही ध्यान का इतना महत्व रहा, फ़िर भी पता नहीं ध्यान की परम्परा क्यों विच्छिन्न हुई ? और बाह्य तप के सामने ध्यान क्यों निस्तेज हुआ ? ध्यान की परम्परा विच्छिन्न होने के कारण ही दूसरे लोगों में यह भ्रम बढ़ा कि जैन-धर्म का साधना-मार्ग बहुत कठोर है / यदि ध्यान की परम्परा अविच्छन्न रही होती तो यह श्रम नहीं होता। (6) व्युत्सर्ग - विसर्जन साधना का एक बहुत महत्त्वपूर्ण अंग है। आत्मा अपने आपमें परिपूर्ण है। उसे अपने लिए बाहर से कुछ भी अपेक्षित नहीं है / उसकी अपूर्णता का कारण है—बाह्य का उपादान / उसे रोक दिया जाए व विसर्जित कर दिया जाए तो वह अपने सहज रूप में उदित हो जाती है। वही उसकी पूर्णता है। विसर्जनीय वस्तुएं दो प्रकार की हैं-(१) बाह्य आलम्बन और (2) आन्तरिक वृत्तियाँ / जैन परिभाषा में बाह्य आलम्बन के विसर्जन को 'द्रव्य-व्युत्सर्ग' और आन्तरिक वृत्तियों के विसर्जन को 'भाव-व्युत्सर्ग' कहा गया है।" १-यशस्तिलक, 8140 / २-ध्यानशतक, 97,98 / ३-वही, 101,102 / . ४-इसिभासियाई, 22 / 14 / ५-(क) भगवती, 25 / 7 / 802 / (ख) औपपातिक, 20 /