________________ खण्ड 1, प्रकरण : 4 . आत्म-विद्या-क्षत्रियों की देन उन्होंने नाना योग-चर्याओं का चरण किया था।' हठयोग प्रदीपिका में भगवान् ऋषभ को हठयोग-विद्या के उपदेष्टा के रूप में नमस्कार किया गया है। जैन आचार्य भी उन्हें योग-विद्या के प्रणेता मानते हैं / इस दृष्टि से भगवान् ऋषभ 'आदिनाथ', 'हिरण्यगर्भ' और 'ब्रह्मा'--इन नामों से अभिहित हुए हैं। ऋग्वेद के अनुसार हिरण्यगर्भ भूत-जगत् का एकमात्र पति है। किन्तु उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वह 'परमात्मा' है या 'देहधारी' ? शंकराचार्य ने बृहदारण्यकोपनिषद् में ऐसी ही विप्रतिपत्ति उपस्थित की है-किन्हीं विद्वानों का कहना है कि परमात्मा ही हिरण्यगर्भ है और कई विद्वान् कहते हैं कि वह संसारी है / यह संदेह हिरण्यगर्भ के मूल स्वरूप की जानकारी के अभाव में प्रचलित था। भाष्यकार सायण के अनुसार हिरण्यगर्भ देहधारी है / 6 आत्म-विद्या, संन्यास आदि के प्रथम प्रवर्तक होने के कारण इस प्रकरण में हिरण्यगर्भ का अर्थ 'ऋषभ' ही होना चाहिए। हिरण्यगर्भ उनका एक नाम भी रहा है / ऋषभ जब गर्भ में थे, तब कुबेर ने हिरण्य की वृष्टि की थी, इसलिए उन्हें 'हिरण्यगर्भ' भी कहा गया।' कर्म-विद्या और आत्म-विद्या कर्म-विद्या और आत्म-विद्या—ये दो धाराएं प्रारम्भ से ही विभक्त रही हैं / मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वशिष्ठ—ये सात ऋषि ब्रह्मा के मानस-पुत्र हैं। १-श्रीमद्भागवत, 5 / 5 / 25 : नानायोगचर्याचरणो भगवान् कैवल्यपति ऋषभः / २-हठयोग प्रदीपिका : __श्री आदिनाथाय नमोस्तु तस्यै, येनोपदिष्टा हठयोगविद्या। ३-ज्ञानार्णव, 122 : योगिकल्पतरं नौमि, देव-देवं वृषध्वजम् / ४-ऋग्वेद, 10 / 10 / 12131 : हिरण्यगर्भः ? समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् / स सदाधारपृथिवीं चामुतेमा कस्मै देवाय हविषा विधेम // ५-बृहदारण्यकोपनिषद्, 1 / 4 / 6, भाज्य, पृ० 185 : अत्र विप्रतिपद्यन्ते-पर एव हिरण्यगर्भ इत्येके / संसारोत्यपरे / ६-तैत्तिरीयारण्यक, प्रपाठक 10, अनुवाक 62, सायण भाष्य / ७-महापुराण, 12 / 95 : सैषा हिरण्यमयी वृष्टिः धनेशेन निपातिता। विभो हिरण्यगर्भत्व मिव बोधयितुं जगत् //