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________________ प्रकरण : दूसरा १-श्रमण-संस्कृति के मतवाद श्रमण-संस्कृति की आधारशिला प्राग-ऐतिहासिक काल में ही रखी जा चुकी थी। बुद्ध और महावीर के काल में तो वह अनेक तीर्थों में विभक्त हो चुकी थी। विभाग का क्रम भगवान् ऋषभ से ही प्रारम्भ हो चुका था। उसका प्रारम्भ भगवान् ऋषभ के शिष्य मरीचि से हुआ था। एक दिन गर्मी से व्याकुल होकर उसने सोचा-यह श्रमण-जीवन बहुत कठिन है, मैं इसकी आराधना के लिए अपने आपको असमर्थ पाता हूँ। यह सोच कर वह त्रिदण्डी तपस्वी बन गया। ___ उसने परिकल्पना की-श्रमण मन, वचन और काया इन तीनों का दमन करते हैं। मैं इन तीनों दण्डों का दमन करने में असमर्थ हूँ, इसलिए मैं त्रिदण्ड चिह्न को धारण करूंगा। श्रमण इन्द्रिय मुण्ड हैं। मैं इन्द्रियों पर विजय पाने में असमर्थ हूँ, इसलिए सिर को मुण्डाऊँगा, केवल चोटी रखूगा। श्रमण अकिंचन हैं। मैं अकिंचन रहने में असमर्थ हूँ, इसलिए कुछ परिग्रह रखूगा। श्रमण शील से सुगन्धित हैं। मैं शील से सुगन्धित नहीं हूँ, इसलिए चंदन आदि सुगन्धित द्रव्यों का लेप करूँगा। श्रमण मोह से रहित हैं। मैं मोह से आच्छन्न हूँ, इसलिए छत्र धारण करूँगा। श्रमण पादुका नहीं पहनते, किन्तु मैं नंगे पैर चलने में असमर्थ हूँ, इसलिए पादुका धारण करूंगा। श्रमण कषाय से अकलुषित हैं, इसलिए वे दिगम्बर या श्वेताम्बर हैं। मैं कषाय से कलुषित हूँ, इसलिए गेरुवे वस्त्र धारण करूँगा। __ श्रमण हिंसा-भीरु हैं। मैं पूर्ण हिंसा का वर्जन करने में असमर्थ हूँ, इसलिए परिमित जल से स्नान भी करूंगा और कच्चा जल पीऊँगा भी। इस परिकल्पना के अनुसार वह परिव्राजक हो गया।' १-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 347, 350,359 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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