________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 2 -योग 147 (11) हस्तिशुण्डि-एक पैर को संकुचित कर दूसरे पैर को उस पर फैला कर, हाथी ___ की सँड के आकार में स्थापित कर बैठना / (12) गोनिषद्या- दोनों जंघाओं को सिकोड़ कर गाय की तरह बैठना। (13) कुक्कुटासन-पद्मासन कर दोनों हाथ को दोनों ओर जाँघ और पिंडलियों के बीच डाल दोनों पंजों के बल उत्थित-पद्मासन की मुद्रा में होना / शयन-स्थान-योग __ सो कर किए जाने वाले स्थानों को 'शयन-स्थान-योग' कहा जाता है। बृहत्कल्प में उसके चार प्रकार मिलते हैं। मृतक शयन ( =शवासन ) और ऊर्ध्व शयन-ये दो प्रकार उत्तरवर्ती ग्रन्थों में मिलते हैं / 2 वे इस प्रकार हैं (1) लगण्ड शयन-वक्र-काष्ठ की भाँति एडियों और सिर को भूमि से सटा कर शेष शरीर को ऊपर उठा कर सोना / ' (2) उत्तानशयन-सीधा लेटना। शवासन में हाथ-पाँव अलग रहते हैं, परन्तु इसमें दोनों पाँव मिले रह कर दोनों हाथ बगल में रहते हैं। (3) अधोमुख शयन-औंधा लेटना / ... (4) एक पार्श्व शयन-दाई और बाई करवट लेटना / एक पैर को संकुचित कर दूसरे पैर को उसके जार से ले जाकर फैलाना और दोनों हाथों को लम्बा कर सिर की ओर फैलाना। १-(क) मूलाराधना, 3 / 224, विजयोदया वृत्ति : हस्तिसुंडी-हस्ति हस्तप्रसारणमिव एकं पादं प्रसार्यासनम् / ..(ख) मूलाराधना दर्पण : हस्तिसुंडी-हस्तिहस्तप्रसारणमिव एकं पादं संकोच्य तदुपरि द्वितीथं पादं प्रसार्यासनम् / २-मूलाराधना, 3 / 225: / / ........... उड्ढमाई य लगंडसायी य / उत्ताणोमच्छिय एगपाससाई य मडयसाई य / / - ३-बृहत्कल्प भाज्य, गाथा 5954, वृत्ति : लगण्डं किल-दुःसस्थितं काष्ठम्, तद्वत् कुब्जतया मस्तकपाणिकानां भुवि लगनेन पृष्ठस्य चालगनेनेत्यथः, या तथाविधाभिग्रह विशेषेण शेते सा लगण्डशायिनी।