________________ 338 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ 'अतः अब मैं हिंसा से दूर रह कर सत्य की खोज करूँगा, काम और क्रोध को . हृदय से निकाल कर दु:ख और सुख में समान भाव रखूगा तथा सबके लिए कल्याणकारी बन कर देवताओं के समान मृत्यु के भय से मुक्त हो जाऊँगा / शान्तियज्ञरतो वान्तो, ब्रह्मयज्ञे स्थितो मुनिः / वाङ्मनःकर्मयज्ञश्च, भविष्याम्युदगायने // 32 // 'मैं निवृत्ति-परायण हो कर शान्तिमय यज्ञ में तत्पर रहूँगा, मन और इन्द्रियों को बस में रख कर ब्रह्मयज्ञ (वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय) में लग जाऊँगा और मुनिवृत्ति से रहूँगा। उत्तरायण के मार्ग से जाने के लिए मैं जप और स्वाध्यायरूप वाग्यज्ञ, ध्यानरूप मनोयज्ञ और अग्निहोत्र एवं गुरुशुश्रूषादिरूप कर्मयज्ञ का अनुष्ठान करूँगा। पशुयज्ञैः कथं हिंस्रर्मादृशो यष्टुमर्हति / अन्तवद्भिरिव प्राज्ञः, क्षेत्रयज्ञैः पिशाचवत् // 33 // 'मेरे-जैसा विद्वान् पुरुष नश्वर फल देने वाले हिंसायुक्त पशुयज्ञ और पिशाचों के समान अपने शरीर के ही रक्त-मांस द्वारा किए जाने वाले तामस यज्ञों का अनुष्ठान कैसे कर सकता है ? यस्य वाङ्मनसी स्यातां, सम्यक् प्रणिहिते सदा / तपस्त्यागश्च सत्यं च, स वै सर्वमवाप्नुयात् // 34 // 'जिसकी वाणी और मन दोनों सदा भली-भाँति एकाग्र रहते हैं तथा जो त्याग, तपस्या और सत्य से सम्पन्न होता है, वह निश्चय ही सब कुछ प्राप्त कर सकता है / नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः / नास्ति रागसमं दुःखं, नास्ति त्यागसमं सुखम् // 35 // संसार में विद्या (ज्ञान) के समान कोई नेत्र नहीं है, सत्य के समान कोई तप नहीं है, राग के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। आत्मन्येवात्मना जात, आत्मनिष्ठोऽप्रजोऽपि वा। आत्मन्येव भविष्यामि, न मां तारयति प्रजा // 36 // 'मैं संतान-रहित होने पर भी परमात्मा में हो परमात्मा द्वारा उत्पन्न हुआ हूँ, परमात्मा में ही स्थित हूँ। आगे भी आत्मा में ही लीन हो जाऊंगा। संतान मुझे पार नहीं उतारेगी। नैतादृशं ब्राह्मणस्याति वित्तं, यथैकता समता सत्यता च / शीलंस्थितिर्दण्ड निधानमार्जवं, ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः // 37 //