SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड 1, प्रकरण : 8 1 -धर्म की धारणा के हेतु 213 कहा-"जिसके लिए लोग तप किया करते हैं वह सब कुछ-प्रचुर धन, स्त्रियाँ, स्वजन और इन्द्रियों के विषय-तुम्हें यहीं प्राप्त हैं, फिर किसलिए तुम श्रमण होना चाहते हो ?" पुत्र बोले-.-"पिता ! जहाँ धर्म की धुरा को वहन करने का अधिकार है, वहाँ धन, स्वजन और इन्द्रिय-विषय का क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं। हम गुण-समूह सम्पन्न श्रमण होंगे, प्रतिबन्ध-मुक्त होकर गाँवों और नगरों में विहार करने वाले और भिक्षा लेकर जीवन चलाने वाले होंगे।'' इस संदर्भ से यह भी फलित होता है कि अर्थ के लिए धर्म नहीं करना चाहिए। वस्तुत: वह काम और अर्थ की प्राप्ति के लिए नहीं है और उनसे संश्लिष्ट भी नहीं है। जहाँ काम और अर्थ से धर्म का संश्लेष किया जाता है, वहाँ वह घातक बन जाता है। अनाथी मुनि ने सम्राट् श्रेणिक से यही कहा था-"पिया हुआ काल-कूट विष, अविधि से पकड़ा हुआ शस्त्र और नियंत्रण में नहीं लाया हुआ वेताल जैसे विनाशकारी होता है, वैसे ही यह विषयों से युक्त धर्म भी विनाशकारी होता है।"२ ___यदि धर्म (मोक्ष-धर्म) समाज-धारणा के लिए होता तो उसका दृष्टिकोण सामाजिक जीवन के महत्वपूर्ण अंग-काम और अर्थ के प्रति इतना विरोधी नहीं होता। और वह है, इससे यह स्वयं प्रमाणित होता है कि मोक्ष-धर्म समाज-धारणा के लिए नहीं है। परिणामवादी दृप्टिकोण धर्म की धारणा का तीसरा हेतु रहा है-'परिणामबादी दृष्टिकोण' / प्रत्येक प्रवृत्ति का निश्चित परिणाम होता है और प्रत्येक क्रिया की निश्चित प्रतिक्रिया होती है। कृत का परिणाम वर्तमान जीवन में भी भुगतना होता है और अगले जीवन में भी। क्योंकि प्राणी कम-सत्य होते हैं-कृत का परिणाम अवश्य भुगतते हैं। उससे बचने का एक मात्र उपाय धर्म है। व्यक्तिगदी दृष्टिकोण ___ धर्म की धारणा का चौथा हेतु रहा है-'व्यक्तिवादी दृष्टिकोण' / प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक जीवन जीता है। फिर भी उसकी आत्मा कभी सामाजिक नहीं बनती। * इसी आशय से चित्र ने ब्रह्मदत्त से कहा था १-उत्तराध्ययन, 14 / 16,17 / २-वही, 2044 / ३-(क) उत्तराध्ययन, 7120 : ___ कम्मसच्चा हु पाणिणो। (ख) वही, 413, 13 / 10 / ४-दशवकालिक, चूलिका 1, सूत्र 18: कडाणं कम्माणं. वेयइत्ता मोक्खो, नस्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइता।
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy