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________________ . 212 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन __ अर्थ और काम-ये दोनों समाज-धारणा के मूल अंग हैं। अतः उनको आध्यात्मिक शृङ्खला की कड़ी के रूप में मान्यता नहीं दी गई। वे समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं, ऐसा नहीं माना गया। उन्हीं व्यक्तियों ने उन्हें हेय बतलाया, जो अध्यात्म की भूमिका पर आरूढ़ हुए। समग्र उत्तराध्ययन या समग्र अध्यात्म-शास्त्र में काम और अर्थ की भर्त्सना इसी दृष्टि से की गई / भगवान् ने कहा___ "जो काम से निवृत्त नहीं होता, उसका आत्मार्थ नष्ट हो जाता है। जो काम से निवृत्त होता है, उसका आत्मार्थ सध जाता है।'' . "जैसे किमाक-फल खाने पर उसका परिणाम सुन्दर नहीं होता, उसी प्रकार मुक्तभोगों का परिणाम सुन्दर नहीं होता।"२ भृगुपुत्रों ने अपने माता-पिता से कहा-"यह सही है कि काम-भोग क्षणिक और अल्प सुख देते हैं, किन्तु परिणाम काल में वे चिरकाल तक बहुत दुःख देते हैं और संसार मुक्ति के विरोधी हैं। इसोलिए हम उन्हें अनर्थों को खान मान कर छोड़ रहे हैं।"3 ____काम और धर्म का यह विरोध आध्यात्मिक जगत् में ही मान्य हो सकता है / इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा___ "हे पार्थिव ! आश्चर्य है कि तुम इस अधुदय-काल में सहज प्राप्त भोगों को त्याग रहे हो और अमाप्त काम-भोगों की इच्छा कर रहे हों-इस प्रकार तुम अपने संकल्प से ही प्रताड़ित हो रहे हो।"४ यह अर्थ सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा "काम-भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं / काम-भोग की इच्छा करने वाले उनका सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं / "5 इस संवाद से यह स्पष्ट है कि धर्म काम की उपलब्धि के लिए नहीं, किन्तु उसका अर्थ है काम-वासनाओं का त्याग। __ काम की भाँति अर्थ भी धर्म से सम्बन्धित नहीं है। भगवान् ने कहा-"धन से कोई व्यक्ति इहलोक या परलोक में त्राण नहीं पा सकता।" भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से १-उत्तराध्ययन, 7 / 25,26 / २-वही, 19 / 17 / ३-वही, 14 / 13 / ४-वही, 951 / ५-वही, 9153 / ६-वही, 4 / 5 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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