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________________ 134 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन - (2) दर्शन की साधना के 8 अंग हैं (1) निःशंकित / (2) निष्कांक्षित। (3) निर्विचिकित्सा। (4) अमूढ़-दृष्टि / (5) उपबृहण / (6) स्थिरीकरण / (7) वात्सल्य / (8) प्रभावना। दर्शन जैन-संघ के संगठन का मूल आधार रहा है। पहला आधार है-आस्था या अभय / एकसूत्रता का मूल बीज आस्था है। स्वसम्मत लक्ष्य के प्रति आस्थावान् हुए बिना कोई भी प्रगति नहीं कर सकता। लक्ष्य के साथ तादात्म्य हो, यह संगठन की पहली अपेक्षा है। अभय भी ऐसी हो अनिवार्य अपेक्षा है। मन में भय हो तो लक्ष्य को पकड़ा ही नहीं जा सकता और पूर्व गृहीत हो तो उस पर टिका नहीं जा सकता। : भगवान महावीर की दृष्टि में सब दोषों का मूल है हिंसा और हिंसा का मूल है भय / कोई व्यक्ति अभय होकर ही अपने लक्ष्य की ओर स्वतंत्र गति से चल सकता है। . ____संगठन का दूसरा आधार है-लक्ष्य के प्रति दृढ़ अनुराग या वैचारिक स्थिरता। जगत् में अनेक संगठन और उनके भिन्न-भिन्न लक्ष्य होते हैं। स्व-सम्मत लक्ष्य के प्रति दृढ़ अनुराग न हो तो मन कभी किसी को पकड़ना चाहता है और कभी किसी को। विचारों में एक अंधड़ सा चलता रहता है। इस प्रकार व्यक्ति और संगठन दोनों ही स्वस्थ नहीं बन सकते। तीसरा आधार है-स्वीकृत साधनों की सफलता में विश्वास / हर संगठन का अपना साध्य होता है और अपने साधन होते हैं। किसी भी साधन से तब तक साध्य नहीं सधता, जब तक साधक को उसकी सफलता में विश्वास न हो। इस साधन से अमुक साधन की सिद्धि निश्चित होगी-ऐसा माने बिना संगठन का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। संगठन का चौथा आधार-स्तम्भ है-अमूढ़-दृष्टि / दूसरे विचारों के प्रति हमारी सद्भावना हो, यह सही है पर यह सही नहीं कि अपनी नीति से विरोधी विचारों के प्रति हमारी सहमति हो। यदि ऐसा हो तो हमारा दृष्टिकोण विशुद्ध नहीं रह सकता और हमारे संगठन और कार्य प्रणाली का कोई स्वतंत्र रूप भी नहीं रह सकता। संगठन के लिए यह बहुत अपेक्षित है कि उसका अनुयायी विनम्र हो पर 'सब समान हैं' इस अविवेक का समर्थक न हो।
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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