________________ 192 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . (8) निपन्न सोया हुआ न धर्म-शुक्ल और न आर्त्त-रौद्र किन्तु चिन्तन-शून्य दशा (E) निपन्न-निपन्न सोया हुआ आर्त रौद्र ध्यान / ' अमितगति ने कायोत्सर्ग के चार ही प्रकार माने हैं -(1) उत्थित-उत्थित, (2) उत्थित-उपविष्ट, (3) उपविष्ट-उत्थित और (4) उपविष्ट-उपविष्ट / 2 (1) जो शरीर से खड़ा है और धर्म-शुक्ल ध्यान में लीन है, वह शरीर से भी उन्नत है और ध्यान से भी उन्नत है, इसलिए उसका कायोत्सर्ग'उत्यित्त-उत्थित' कहलाता है। (2) जो शरीर से खड़ा है और आर्त्त-रौद्र ध्यान में लीन है, वह शरीर से उन्नत किन्तु ध्यान से अवनत है, इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उत्थित-अविष्ट' कहलाता है। (3) जो शरीर से बैठा है और धर्म-शुक्ल ध्यान में लीन है, वह शरीर से अवनत है किन्तु ध्यान से उन्नत है, इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उपविष्ट-उत्थित' कहलाता है / (4) जो शरीर से बैठा है और आर्त्त-रौद्र ध्यान में लीन है, वह शरीर और ध्यान दोनों से अवनत है ; इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उपविष्ट-उपविष्ट कहलाता है। कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और सोते-तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है / फिर भी खड़ी मुद्रा में उसका प्रयोग अधिक हुआ है / अपराजित सूरि ने लिखा है कि कायोत्सर्ग करने वाला व्यक्ति शरीर से निस्पृह होकर खम्भे की भाँति सीधा खड़ा हो जाए। दोनों बाहों को घुटनों की ओर फैला दे। प्रशस्त-ध्यान में निमग्न हो जाए। शरीर को न अकड़ा कर खड़ा हो और न झुका कर ही। समागत कष्टों और परीषहों को सहन करे / कायोत्सर्ग का स्थान भी एकान्त और जीव-जन्तु रहित होना चाहिए। कायोत्सर्ग के उक्त प्रकार शरीर-मुद्रा और चिन्तन-प्रधाह के आधार पर किए गए हैं, किन्तु प्रयोजन की दृष्टि से उसके दो ही प्रकार होते हैं-चेष्टा कायोत्सर्ग और अभिभव कायोत्सर्ग / १-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1459, 1460 / २-अमितगति, श्रावकाचार, 8 / 57-61 / ३-योगशास्त्र, 3 पत्र 250 / ४-मूलाराधना, 21116, विजयोदया पृ० 278,279 : तत्र शरीरनिम्पृहः, स्थाणुरिवोर्ध्वकायः, प्रलम्बितभुजः, प्रशस्तध्यानपरिणतोऽनुन्नमितानतकायः, परीषहानुपसर्गाश्च सहमानः, तिष्ठन्निर्जन्तुके कर्मापायाभि लाषी विविक्ते देशे। ५-आवश्यक, नियुक्ति, गाथा 1452 : सो उसग्गो दुविहो चिट्ठए अभिभवे य नायव्वो। भिक्खायरियाइ पढमो उवसग्गभिमुंजणे बिइओ //