________________ 447 खण्ड 2, प्रकरण : 6 तुलनात्मक अध्ययन एवमभ्याहते लोके समन्तात् परिवारिते / अमोघासु पतन्तीषु किं धीर इव भाषसे // (शान्तिपर्व 175 / 727717) कथमभ्याहतो लोकः, केन वा परिवारितः / अमोघाः काः पतन्तीह किं नु भीषयसीव माम् // (शान्तिपर्व 175 / 8,2778) मृत्युनाम्याहतो लोको जरया परिवारितः / अहोरात्राः पतन्त्येते ननु कस्मान्न बुध्यसे // (शान्तिपर्व 17516,277 / 6) अमोघा रात्रयश्चापि नित्यमायान्ति यान्ति च / यदाहमेतज्जानामि न मुत्युस्तिष्ठतीति ह। सोऽहं कथं प्रतीक्षिष्ये जालेनापिहितश्चरन् / राश्यां राश्यां व्यतीतायामायुरल्पतरं यदा / गाधोदके मत्स्य इव सुखं विन्देत कस्तदा // (यस्यां रात्र्यां व्यतीतायां न किञ्चिच्छभमाचरेत् / ) तदेव वन्ध्यं दिवसमिति विद्याद् विचक्षणः / / अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्येति मानवम् // (शान्तिपर्व 175 / 10,11,12; शान्तिपर्व (277 / 10,11,12) यस्स अस्स सक्खी मरणेन राज, जराय मेत्तो नरविरियसेछ / यो चापि जज्जा न मरिस्सं कदाचि, पस्सेय्युं तं वस्ससतं अरोगं // (जातक 5067) साखाहि रुक्खो लभते समन्नं, पहीणसाखं पन खानु माहु / पहीणपुत्तस्स ममज्झहोति, वासेठि भिक्खाचरियाय कालो // (जातक 506 / 15) अवमी ब्राह्मणो कामे, ते त्वं पच्चावमिस्ससि / वन्तादो पुरिसो राज, न सो होति पसंसियो // (जातक 509 / 18) सामिषं. कुररं दृष्ट्वा, बध्यमानं निरामिषः / आमिषस्य परित्यागात्, कुररः सुखमेधते // (शान्तिपर्व 1786) इदं वत्वा महाराज एसुकारी दिसम्पति, रष्टुं हित्वान पब्बजि नागो छेत्वा व बन्धनं // " (जातक 506 / 20) करण्डनाम कलिङ्गानं गन्धारानञ्च नग्गजी, निमिराजा विदेहानं पञ्चालानञ्च दुमुक्खो; एते रट्टानि हित्वान पब्बजिंसु अकिञ्चना // (जातक 408 / 5)