________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन सेज्जा दढा पाउरणं मे अस्थि उप्पज्जई भोत्तुं तहेव पाउं। जाणामि जं वट्टइ आउसु ! ति किं नाम काहामि सुएण भन्ते ! // 17:2 // (गुरु के द्वारा अध्ययन की प्रेरणा प्राप्त होने पर शिष्य कहता है) मुझे रहने को अच्छा उपाश्रय मिल रहा है, कपड़ा भी मेरे पास है, खाने-पीने को भी मिल जाता है। आयुष्मन् ! जो हो रहा है, उसे मैं जान लेता हूँ। भन्ते ! फिर मैं श्रुत का अध्ययन करके क्या करूँगा ? जे के इमे पवइए निदासीले पगामसो। भोच्चा पेच्चा सुहं सुबइ पावसमणि त्ति बुच्चई // 17 // 3 // ___ जो प्रवजित होकर बार-बार नींद लेता है, खा-पी कर आराम से लेट जाता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। आयरियउवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए। ते चेव खिसई बाले पावसमणि ति युच्चई // 17 // 4 // जिन आचार्य और उपाध्याय ने श्रुत और विनय सिखाया उन्हीं की निन्दा करता है, वह विवेक-विकल भिक्षु पाप-श्रमण कहलाता है। बहुमाई पमुहरे थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असं विभागी अचियत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई // 17 // 11 // ___ जो बहुत कपटी, वाचाल, अभिमानी, लालची, इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण न रखने वाला, भक्त-पान आदि का संविभाग न करने वाला और गुरु आदि से प्रेम न रखने वाला होता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। विवादं च उदीरेइ अहम्मे अत्तपन्नहा। बुग्गहे कलहे रत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई // 17 // 12 // ___ जो शान्त हुए विवाद को फिर से उभाड़ता है, जो सदाचार से शून्य होता है, जो कुतर्क से अपनी प्रज्ञा का हनन करता है, जो कदाग्रह और कलह में रक्त होता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। दुखदहीविगईओ आहारेइ अभिक्खणं / अरए य तवोकम्मे पावसमणि त्ति वुच्चई // 17 // 15 // जो दूध, दही आदि विकृतियों का बार-बार आहार करता है और तपस्या में रत नहीं रहता, वह पाप-श्रमण कहलाता है। जया सव्वं परिच्चज्ज गन्तव्बमवसस्स ते / अणिच्चे जीवलोगम्मि किं रज्जम्मि पसज्जसि ? // 18 // 12 // जब कि तू पराधीन है इसलिए सब कुछ छोड़ कर तुझे चले जाना है, तब इस अनित्य जीव-लोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ?