________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उनके हेतु 26 उत्तराध्ययन में इन विषयों पर बहुत व्यवस्थित विवेचन किया गया है। वह आध्यात्मिक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक भी है। परम्परागत एकता श्रमण-परम्परा का मूल उद्गम एक है, इसलिए अनेक सम्प्रदाय होने पर भी मूलतः वह अविभक्त है / श्रमण-परम्परा का उद्गम भगवान् ऋषभ से हुआ है / जयघोष ब्राह्मण ने निर्ग्रन्थ विजयघोष से पूछा-धर्म का मुख क्या है ? विजयघोष ने उत्तर दिया-धर्म का मुख काश्यप ऋषभ है।' ___ श्रीमद्भागवत के अनुसार वे श्रमणों का धर्म प्रकट करने के लिए अवतरित ___ उन्होंने राजा नमि की पत्नी सुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया। इस अवतार ने समस्त आसक्तियों से रहित रह कर, अपनी इन्द्रियों और मन को अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूप में स्थिर होकर समदर्शी के रूप में जड़ों की भाँति योगचर्या का आचरण किया। इस स्थिति को महर्षि लोग परमहंस-पद कहते हैं / निरन्तर विषय-भोगों की अभिलाषा के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्म-लोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होने वाले आत्म-स्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार है / ब्रह्माण्डपुराण के अनुसार महादेव ऋषभ ने दस प्रकार के धर्म का स्वयं आचरण * १-उत्तराध्ययन, 25 / 14,16 / २-श्रीमद्भागवत, 5 / 3 / 20 : धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततार। ३-वही, 27 / 10 : नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुर्योवैचचार समग् जडयोगचर्याम् / यत् पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः // ४-वही, 5 / 6 / 16 / नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुहबुद्धेः। लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोकमाख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै /