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________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 २-योग 183 अभ्यास करना नितान्त आवश्यक है। उनके अभ्यास से जिसका मन सुसंस्कृत होता है, वह विषम स्थिति उत्पन्न होने पर भी अविचल रह सकता है, प्रिय और अप्रिय दोनों स्थितियों को समभाव से सह सकता है। धर्म्य-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं / इनका उल्लेख हम 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में कर चुके हैं। (10) लेश्या- विचारों में तरतमता होती है। वे अच्छे हों या बुरे एक समान नहीं होते / इस तरतमता को लेश्या के द्वारा समझाया गया है। यह निश्चित है कि धर्म्य-ध्यान के समय विचार-प्रवाह शुद्ध होता है। शुद्ध बिचार-प्रवाह के तीन प्रकार हैं-तेजस् लेश्या (=पीत लेश्या), पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या।। तेजस् लेश्या से पद्म लेश्या विशुद्ध होती है और पद्म लेश्या से शुक्ल लेश्या विशुद्ध होती है / एक-एक लेश्या के परिणाम भी मंद, मध्यम और तीव्र होते हैं / उत्तराध्ययन में मानसिक विशुद्धि का क्रम समझाते हुए बताया गया है "जो मनुष्य नम्रता से बर्ताव करता है, जो चपल होता है, जो माया से रहित है, जो अकुतूहली है, जो विनय करने में निपुण है, जो दान्त है, जो समाधि-युक्त है, जो उपधान (श्रुत अध्ययन करते समय तप) करने वाला है, जो धर्म में प्रेम रखता है, जो धर्म में दृढ़ है, जो पापभीरु है, जो मुक्ति का गवेषक है -जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह तेजोलेश्या में परिणत होता है। ___ “जिस मनुष्य के क्रोध, मान, माया और लोभ अत्यन्त अल्प हैं, जो प्रशान्त-चित्त है, जो अपनी आत्मा का दमन करता है, जो समाधि-युक्त है, जो उपधान करने वाला है, जो अत्यल्प भाषी है, जो उपशान्त है, जो जितेन्द्रिय है-जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह पद्म लेश्या में परिणत होता है। ."जो मनुष्य आत्त और रौद्र---इन दोनों ध्यानों को छोड़कर धर्म और शुक्ल.-इन दो ध्यानों में लीन रहता है, जो प्रशान्त-चित्त है, जो अपनी आत्मा का दमन करता है, जो समितियों से समित है, जो गुप्तियों से गुप्त है, जो उपशान्त है, जो जितेन्द्रिय हैजो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह सराग हो या वीतराग, शुक्ल लेश्या में परिणत होता है।" (11) लिङ्ग- सूदूर प्रदेश में अग्नि होती है, उसे आँखों से नहीं देखा जा सकता, किन्तु धूवा देखकर उसे जाना जा सकता है। इसीलिए धूवा उसका लिङ्ग है। ध्यान व्यक्ति की आन्तरिक प्रवृत्ति है, उसे नहीं देखा जा सकता, किन्तु उस व्यक्ति की सत्य विषयक आस्था देखकर उसे माना जा सकता है, इसीलिए सत्य की आस्था उसका लिङ्ग १-उत्तराध्ययन, 34 / 27-32 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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