________________ 342 / उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पिता-पुत्र का ही मुख्य प्रसंग है और अन्त में पुत्र के उपदेश से पिता सत्य-धर्म के अनुष्ठान में उद्यत हो जाता है। ___ महाभारत के इन अध्यायों के सूक्ष्म अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि पिता ब्राह्मणधर्म की बात पुत्र को समझाता है और उसे वेद का अध्ययन करने, गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने, पितरों की सद्गति के लिए पुत्र पैदा करने तथा यज्ञों का अनुष्ठान करने के लिए प्रेरित करता है और तदनन्तर वानप्रस्थ-आश्रम को स्वीकार करने की बात कहता है / किन्तु पुत्र इन सबका निरसन करता है। निरसन-काल में वह जो तथ्य प्रस्तुत करता है, वे श्रमण-परम्परा सम्मत प्रतीत होते हैं / वह कहता है (1) संन्यास के लिए काल की कोई इयत्ता नहीं होनी चाहिए। (2) मध्यम वय में धर्माचरण करना चाहिए। . (3) किए हुए कर्मों का भोग अवश्यम्भावी है। (4) यज्ञ अकरणीय हैं। (5) हिंसायुक्त पशु-यज्ञ तामस यज्ञ हैं। (6) त्याग, तपस्या और सत्य ही शान्ति के मार्ग हैं। (7) त्याग के समान कोई सुख नहीं है। (8) सन्तान पार नहीं उतार सकती। (9) धन और बन्धु त्राण नहीं हैं। (10) आत्मा का अन्वेषण करो। महाभारत के इन अध्यायों के श्लोक तथा जातक के कुछेक श्लोक उत्तराध्ययन के श्लोकों से बहुत समानता रखते हैंउत्तराध्ययन महाभारत हस्तिपाल जातक अध्ययन 14 शान्ति० अ० 175 सं० 506 जाईजरामच्चुभयाभिभूया बहिविहाराभिनिविद्वचित्ता। संसारचक्कस्स विमोक्खणट्ठा वळूण ते कामगुणे विरत्ता // 4 // अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे पुत्ते पडिटप्प गिहंसि जाया ! / भोच्चाण भोए सह इस्थियाहिं आरणगा होह मुणी पसत्था // 9 // 1