________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 'काल चला जाता है...। मैं भी नाना प्रकार के काम-भोगों को छोड़ कर लोक में अकेली विचरूंगी।' ___ 'काल चला जाता है... / मैं भी सारी आसक्तियों को छोड़ शान्त-चित्त हो लोक में अकेली विचरूंगी।' इस प्रकार उसने इन गाथाओं से जनता को धर्मोपदेश दे अमात्य-भार्याओं को बुलवा कर पूछा---'तुम क्या करोगी ?' 'और आर्ये तुम ?' 'मैं प्रवजित होऊँगी।' 'हम भी प्रव्रजित होंगी।' उसने 'अच्छा' कह राजभवन के स्वर्णागार आदि खुलवाये और फिर 'अमुक स्थान पर बड़ा खजाना गड़ा है' सोने की पाटी पर लिखवा कर घोषणा की कि यह दिया ही है (लेने वाले) ले जायें। फिर उस सोने की पट्टी को ऊँचे खम्भे में बंधवा कर नगर में मुनादी करवा, महान् सम्पत्ति छोड़, नगर से निकल पड़ी। उस समय सारे नगर में खलबली मच गई। लोग सोचने लगे.-'राजा और देवी राज्य छोड़ कर प्रव्रजित होने के लिए चले गए, अब हम क्या करें ?' तब लोग भरे-भराये घर छोड़, पुत्रों को हाथ में ले निकल पड़े। तमाम दुकान खुली की खुली रह गई। लौट कर कोई देखने वाला न था। सारा नगर खाली हो गया। देवी भी तीन-योजन अनुयाइयों को लेकर वहीं पहुँची। हस्तिपाल कुमार ने उसके अनुयाइयों को भी आकाश में बैठ धर्मोपदेश दिया / फिर बारह योजन अनुयाइयों को साथ ले हिमवन्त की ओर चल दिया। 'जब हस्तिपाल कुमार बारह योजन की वाराणसी को खाली करके, प्रवजित होने के लिए, जनता को लेकर हिमाचल चला जा रहा है, तो हमारी क्या गिनती है'-सोच सारे काशी राष्ट्र में खलबली मच गई। आगे चलकर तीस योजन अनुयायी हो गए। वह उन अनुयाइयों को ले हिमालय में प्रविष्ट हुआ / शक्र ने ध्यान लगाकर देखा तो उसे पता चला कि हस्तिपाल कुमार अभिनिष्क्रमण कर निकल पड़ा। उसने सोचा, बड़ी भीड़ होगी। निवासस्थान की व्यवस्था होनी चाहिए। शक्र ने विश्वकर्मा को बुलाकर आज्ञा दी—'जा छत्तीस योजन लम्बा और पन्द्रह योजन चौड़ा आश्रम बनाकर उसमें प्रव्रजितों की आवश्यकताएँ लाकर रख।' उसने 'अच्छा' कह स्वीकार किया और गङ्गा-तट पर रमणीय प्रदेश में उक्त लम्बाई-चौड़ाई का आश्रम बना दिया। फिर पर्णशालाओं में पीढे, आसन आदि बिछाकर प्रवजित की सभी आवश्यकताओं की व्यवस्था की। एक-एक पर्णशाला के द्वार पर एक-एक चंक्रमण-भूमि, रात्रि और दिन के लिए, चूना पुता सहारे का पटड़ा, उन-उन जगहों पर नाना प्रकार के सुगन्धित पुष्पों से लदे हुए पुष्प-वृक्ष, एक-एक चंक्रमण-भूमि के सिरे पर एक-एक पानी भरा कुंआ, उसके पास एक-एक फल-वृक्ष / वह (वृक्ष) अकेला ही सभी प्रकार के फल ला देता था। यह सब देव-प्रताप से हुआ। विश्वकर्मा ने आश्रम का निर्माण कर,