________________ 124 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन हो गया तब उस स्थिति को देख कर भगवान् महावीर को ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत के रूप में स्थान देना पड़ा। भगवान् पार्श्व ने मैथुन को परिग्रह के अन्तर्गत माना था। किन्तु उनके निर्वाण के पश्चात् और भगवान् महावीर के तीर्थङ्कर होने से थोड़े पूर्व कुछ साधु इस तर्क का सहारा ले अब्रह्मचर्य का समर्थन करने लगे कि भगवान् पार्श्व ने उसका निषेध नहीं किया है। भगवान् महावीर ने इस कुतर्क के निवारण के लिए स्पष्टतः ब्रह्मचर्य महाव्रत की व्यवस्था की और महाव्रत पाँच हो गए। सूत्रकृतांग में अब्रह्मचर्य का समर्थन करने वाले को 'पार्श्वस्थ' कहा है / वृत्तिकार ने उन्हें 'स्वयूथिक' भी बतलाया है / 2 इसका तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर के पहले से ही कुछ स्वयूयिक-निर्गन्थ अर्थात् पाश्व-परम्परा के श्रमण स्वच्छन्द होकर अब्रह्मचर्य का समर्थन कर रहे थे। उनका तर्क था कि "जैसे वर्ण या फोड़े को दबा कर पीव को निकाल देने से शान्ति मिलती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ समागम करने से शान्ति मिलती है। इसमें दोष कैसे हो सकता है ? __जसे भेड़ बिना हिलाए शान्त भाव से पानी पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ शान्त-भाव से किसी को पीड़ा पहुँचाए बिना समागम किया जाए, उसमें दोष कसे हो सकता है ? . "जैसे कपिंजल' नाम को चिड़िया आकाश में रह कर बिना हिलाए डुलाए जल पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ अनासक्त-भाव से समागम किया जाए तो उसमें दोष कैसे हो सकता है / "4 भगवान् महावीर ने इन कुतर्कों को ध्यान में रखा और वक्र-जड़ मुनि किस प्रकार अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं, इस और ध्यान दिया तो उन्हें बह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत का रूप देने की आवश्यकता हुई। इसीलिए स्तुतिकार ने कहा है १-स्थानांग, 4 / 266 वृत्ति : मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, न हपरिगृहीता योषिद् भुज्यते। २-सूत्रकृतांग, 113 / 4 / 6,13 / ३-(क) सूत्रकृतांग, 1 / 3 / 4 / 6 वृत्ति : स्वयूथ्या वा। (ख) वही, 113 / 4 / 12 वृत्ति : स्वयूथ्या वा पार्श्वस्थावसन्नकुशीलादयः / ४-सूत्रकृतांग, 1 / 3 / 4 / 10,11,12 /