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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 5 ५-जैन-धर्म-हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में 101 जैन थे। उनमें पहला कल्पक था जिसे बलात् यह पद संभालना पड़ा। कहा जाता है कि इसी मंत्री की विशेष सहायता पा कर सम्राट् नंद ने तुल्यकालीन क्षत्रिय-वंशों के अन्त करने के लिए अपनी सैनिक विजय की योजना की। उत्तरकालीन नन्दों के मंत्री उसी के वंशज थे (वही, 661-3) / नौ नंद का मंत्री शकटाल था। उसके दो पुत्र थे-स्थलभद्र और श्रीयक / पिता की मृत्यु के बाद स्थूलभद्र को मंत्रि-पद दिया गया, पर उसने स्वीकार नहीं किया / वह छठे जिन से दीक्षा लेकर साधु हो गया ( वही, 435-6 ; 663-5 ), तब वह पद उसके भाई श्रीयक को दिया गया। "नंदों पर जेनों के प्रभाव की अनुश्रुति को बाद के संस्कृत नाटक 'मुद्राराक्षस' में भी माना गया है। वहाँ चाणक्य ने एक जैन को ही अपना प्रधान गुप्तचर चुना है। नाटक की सामाजिक पृष्ठ-भूमि पर भी कुछ अंश में जैन-प्रभाव है। ___"खारवेल के हाथीगुंफा लेख से कलिंग पर नन्द की प्रभुता ज्ञात होती है। एक वाक्य में उसे 'नन्द राजा' कहा गया है जिसने एक प्रणाली या नहर बनाई थी, जो 300 वर्ष (या 103 ? ) वर्षों तक काम में न आई / तब अपने राज्य के पाँचवे वर्ष में खारवेल उसे अपने नगर में लाया। दूसरे वाक्य में कहा गया है कि नन्द राजा प्रथम जिनकी मूर्ति (या पादुका), जो कलिंग राजामों के यहाँ वंश-परम्परा से चली आ रही थी, विजय के चिह्न रूप मगध उठा ले गया।" नन्द-वंश को समाप्ति हुई और मगध की साम्राज्यश्री मौर्य-वंश के हाथ में आई। उसका पहला सम्राट चन्द्रगुप्त था। उसने उत्तर भारत में जैन धर्म का बहुत विस्तार किया। पूर्व और पश्चिम भी उससे काफी प्रभावित हुए। सम्राट चन्द्रगुप्त अपने अंतिम जीवन में मुनि बने और श्रुतकेवलो भद्रबाहु के साथ दक्षिण में गए थे। चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार और उनके पुत्र अशोकश्री (सम्राट अशोक) हुए। ऐसा माना जाता है कि वे प्रारम्भ में जैन थे, अपने परम्परागत धर्म के अनुयायो थे और बाद में बौद्ध हो गए। ___ कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं कि वे अन्त तक जैन ही थे। प्रो० कर्न के अनुसार ."अहिंसा के विषय में अशोक के नियम बौद्ध-सिद्धान्तों की अपेक्षा जैन-सिद्धान्तों से अधिक मिलते हैं।"3. १-हिन्दू सभ्यता, पृ० 264-265 / २-अली फैथ ऑफ अशोक (थॉमस) पृ० 31-32,34 / 3-. Indian Antiquery, Vol. V, page 205. His (Ashoka's) ordinances concerning the sparing of animal life agree much more closely with the idieas of historical Jainas then those of the Buddhists.
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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