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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 185 __ मालम्वन-शुक्ल-ध्यान के पालम्बनों की चर्चा 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में की जा चुकी है। क्रम-शुक्ल-ध्यान करने वाला क्रमशः महद् आलम्बन की ओर बढ़ता है। प्रारम्भ में मन का आलम्बन समूचा संसार होता है / क्रमिक अभ्यास होते-होते वह एक परमाणु पर स्थिर हो जाता है। केवली दशा आते-आते मन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। आलम्बन के संक्षेपीकरण का जो क्रम है, उसे कुछ उदाहरणों के द्वारा समझाया गया है / जैसे समूचे शरीर में फैला हुआ जहर डंक के स्थान में उपसंहृत किया जाता है और फिर उसे बाहर निकाल दिया जाता है, उसी प्रकार विश्व के सभी विषयों में फैला हुआ मन एक परमाणु में निरुद्ध किया जाता है और फिर उससे हटाकर आत्मस्थ किया जाता है। ___ जैसे इंधन समाप्त होने पर अग्नि पहले क्षीण होती है, फिर बुझ जाती है, उसी प्रकार विषयों के समाप्त होने पर मन पहले क्षीण होता है, फिर बुझ जाता है-शान्त हो जाता है। ___ जैसे लोहे के गर्म बर्तन में डाला हुआ जल क्रमशः हीन होता जाता है, उसी प्रकार शुक्ल ध्यानी का मन अप्रमाद से क्षीण होता जाता है / ___महर्षि पतंजलि के अनुसार योगी का चित्त सूक्ष्म में निविशमान होता है, तब परमाणु स्थित हो जाता है और जब स्थूल में निविशमान होता है, तब परम महत् उसका विषय बन जाता है। इसमें परमाणु पर स्थित होने की बात है पर यह स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने के क्रम की चर्चा नहीं है। ध्येय-शुक्ल-ध्यान का ध्येय पृथक्त्व-वितर्क-सविचार और एकत्व-वितर्क-अविचारइन दो रूपों में विभक्त है / पहला भेदात्मक रूप है और दूसरा अभेदात्मक / इनका विशेष अर्थ 'ध्यान के प्रकार' में देखें। ध्याता--ध्याता के लक्षण धर्म्य-ध्यान के ध्याता के समान ही हैं। अनुप्रेक्षा-देखिए 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक / लेश्या-शुक्ल ध्यान के प्रथम दो चरणों में लेश्या शुक्ल होती है, तीसरे चरण में वह परम शुक्ल होती है और चौथा चरण लेश्यातीत होता है / १-ध्यानशतक, 70 / २-पातंजल योगसूत्र, 1140 / ३-ध्यापन शतक, 89 / 24
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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