________________ 314 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ डॉ० घाटगे ने माना है कि जातक का पद्य-भाग गद्य-भाग से ज्यादा प्राचीन है। गद्य-भाग बहुत बाद का प्रतीत होता है। यह तथ्य भाषा और तर्क के द्वारा सिद्ध हो जाता है / यही तथ्य हमें यह मानने के लिए प्रेरित करता है कि उत्तराध्ययन में संग्रहीत कथावस्तु दोनों में प्राचीन है।' ___ उनकी यह भी मान्यता है कि उत्तराध्ययन के पद्यों में उन दोनों के पूर्व-भवों का कोई उल्लेख नहीं मिलता। जब कि उनका संकेत, केवल दोनों के संलाप में है। जातक में उनके पूर्व-भवों का विस्तार से वर्णन है, जिनको हम अर्वाचीन संशोधन नहीं मान सकते और न यही मान सकते हैं कि उनका समावेश बाद में हुआ है / सूक्ष्म निरीक्षण से हमें यह भी पता चलता है कि अनेक स्थलों पर जातक कथावस्तु का वर्ण्य-विषय कथा के साथ-साथ चलता है और व्यवस्थित है, परन्तु जैन-कथावस्तु में ऐसा नहीं है। इसका कारण है कि जन-कथावस्तु की व्यवस्थापना में परिवर्तन-परिवर्द्धन हुआ है जब कि बौद्धकथावस्तु में ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि उन पर लिखी गई टीकाओं ने उनके गद्य-पद्यों की संख्या निर्धारित कर दी और उन्हें अन्तिम रूप से स्थापित कर दिया ताकि उनमें कोई परिवर्तन न हो / यद्यपि जातक का गद्य-भाग उत्तराध्ययन की रचना-काल से बहुत बाद में लिखा गया था, तो भी उसमें पूर्व-भवों का सुन्दर संकलन हुआ है जब कि जेनकथावस्तु में वह छूट गया है। सरपेन्टियर ने १३वें अध्ययन के प्रथम तीन श्लोकों को अर्वाचीन माना है। परन्तु इसके लिए कोई पुष्ट तर्क उपस्थित नहीं किया है। चूर्णि, टीका आदि व्याख्या-ग्रन्थ इस विषय की कोई ऊहापोह नहीं करते। प्रकरण की दृष्टि से भी ये श्लोक अनुपयुक्त नहीं लगते / इन तीन श्लोकों में उनके जन्म-स्थल, जन्म का कारण और परस्पर मिलन का उल्लेख है। दोनों भाई मिलते हैं और अपने-अपने सुख-दुःख के विपाक का कथन करते हैं / ये श्लोक आगे के श्लोकों से संबद्ध हैं। यह सही है कि ये तीन श्लोक आर्या छन्द में निबद्ध हैं और आगे के श्लोक अनुष्टुप, उपजाति आदि विभिन्न छन्दों में निबद्ध हैं। किन्तु छन्दों की भिन्नता से ये प्रक्षिप्त या अर्वाचीन नहीं माने जा सकते / ___उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्ययन की कथावस्तु हस्तिपाल जातक ( संख्या 506 ) से बहुत अंशों में मिलती है। कथा की संघटना और पात्रों का विवरण जैन-कथा के 2. Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. 17, (1935-1936): A few parallels in Jain and Buddhist works, p. 342, by A. M. Ghatage, M. A.. 2. वही, पृ० 342-343 / 3. The Uttaradhyayana Sutra, p. 326.