________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 6 १-महावीर तीर्थङ्कर थे पर जैन-धर्म के प्रवर्तक नहीं 121 से सम्बन्ध नहीं था। दूसरे प्रसंग से प्राप्त होता है कि वे बुद्धों की परम्परा से जुड़े हुए थे। भगवान् महावीर के सम्बन्ध में यह अनिश्चितता नहीं है। जैन-साहित्य की यह निश्चित घोषणा है कि भगवान महावीर स्वतंत्र-धर्म के प्रवर्तक नहीं, किन्तु पूर्व-परम्परा के उन्नायक थे। वे अहिंसक-परम्परा के एक तीर्थङ्कर थे / भगवान् ने स्वयं कहा है-"जो अर्हत् हो चुके हैं, जो वर्तमान में हैं, जो आगे होंगे, उन सबका यही निरूपण है कि सब जीवों की हिंसा मत करो।"१ भगवान् महावीर के मातृ-पक्ष और पितृ-पक्ष-दोनों भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। भगवान् महावीर स्वयं-बुद्ध थे, इसीलिए उन्हें भगवान् पार्श्व का शिष्य नहीं कहा जा सकता। जैसे भगवान् पार्श्व ने धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन किया था, वैसे ही भगवान् महावीर भी धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक थे। कुमारश्रमण केशी ने गौतम से पूछा था-"लोगों को अन्ध बनाने वाले.तिमिर में बहुत लोग रह रहे हैं / इस समूचे लोक में उन प्राणियों के लिए प्रकाश कौन करेगा।"२ ___ गौतम ने कहा- "समूचे लोक में प्रकाश करने वाला एक मिल भानु उगा है। वह समूचे लोक में प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा।" ___ "भानु किसे कहा गया है"—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम बोले- "जिसका संसार क्षीण हो चुका है, जो सर्वत्र है, वह अर्हत् रूपी भास्कर समूचे लोक के प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा।" 3 ____ भगवान् पार्श्व के निर्वाण के पश्चात् यज्ञ-संस्था बहुत प्रबल हो गई थी। इधर श्रमण परम्परा के अन्यायी और आत्म-विद्या के संरक्षक राजे भी वैदिकधारा से प्रभावित हो रहे थे. जिसका वर्णन हमें उपनिषदों में प्राप्त होता है / वैदिकों की प्रवृत्तिवादी विचारणा से श्रमणों में आचार सम्बन्धी शिथिलता घर कर रही थी। हिंसा और अब्रह्मचर्य जीवन की सहज प्रवृत्ति के रूप में अभिव्यक्ति पा रहे थे। वह स्थिति श्रमणों को घोर अन्धकार.मय लग रही थी। उस स्थिति में श्रमणों की विचारधारा को शक्तिशाली बनाने के लिए तीर्थङ्कर की आवश्यकता थी। भगवान् महावीर से ठीक पहले हमें तीर्थङ्कर के रूप में केवल एक पार्श्व का ही अस्तित्व मिलता है, किन्तु भगवान् महावीर के काल में हम छह तीर्थङ्करों का अस्तित्व पाते हैं / कुछ जैन विद्वान् यह कहते हैं कि एक तीर्थङ्कर जैसो धर्मव्यवस्था करते हैं, वैसी ही दूसरे तीर्थङ्कर करते हैं / किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से इसका बहुत १-बुद्धचर्या, पृ० 53 / २-आचारांग, 1 / 4 / 1 / ३-उत्तराध्ययन, 2375-78 /