________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण सविष था, वह अपने ही दोष से मारा गया। निर्विष सर्प को लोगों ने छोड़ दिया। कहा है भद्दएणेव होयव्वं, पावति भद्दाणि भद्दओ। सविसो हम्मति सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुच्चति // -प्राणी को भद्रक होना चाहिए। भद्रक व्यक्ति को सर्वत्र सुख मिलता है। सर्प सविष होने के कारण मारा जाता है और भेरुंड निर्विष होने के कारण नहीं मारा जाता। नियगुणदोसेहिं संपय-विवयाओ होंति पुरिसाणं / ता उज्झिऊण दोसे, एण्हि पि गुणे पयासेमि // —मनुष्य अपने ही गुणों से संपदाओं को अर्जित करता है और अपने ही दोषों से विपत्तियाँ पाता है / अतः मैं दोषों को छोड़ कर गुणों को प्रकट करूंगा।" चिन्तन आगे बढ़ा। जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। जाति-मद के विपाक का चित्र सामने आया। विरक्ति के भाव उमड़े। साधु के समक्ष धर्म सुना और प्रवजित हो गया। ___ मुनि हरिकेशबल साधु-धर्म को स्वीकार करके घोर तपस्या करने लगे। तपस्या से सारा शरीर सूख गया। एक बार वे वाराणसी पाए / तेंदुक उद्यान में ठहरे। वहाँ 'गंडोतिंदुग' यक्ष का मंदिर था। वह यक्ष मुनि की उपासना करने लगा। एक बार एक दूसरा यक्ष वहाँ आया और गंडीतिदुग यक्ष से पूछा-"आज कल दिखाई नहीं देते ?" उसने कहा-"ये महात्मा मेरे उद्यान में ठहरे हैं। सारा दिन इनकी ही उपासना में बीतता है।" वह आगन्तुक यक्ष मुनि के चरित्र से प्रतिबुद्ध हुआ और बोला-"मित्र ! ऐसे मुनि का सान्निध्य पाकर तुम कृतार्थ हो / मेरे उद्यान में भी कतिपय मुनि ठहरे हैं। चलो, उन्हें वंदना कर आएँ।" दोनों यक्ष वहाँ गए। उन्होंने देखा कि अनेक साधु विकथाएँ कर रहे हैं / कई स्त्री-कथा में, कई जनपद-कथा में आसक्त हैं। उनका मन खिन्न हो गया। वे मुनि हरिकेशबल में अनुरक्त हो गए / कुछ काल बीता। ___ एक बार वाराणसी के राजा कौशलिक की पुत्री भद्रा यक्ष की पूजा करने अपने दासियों के साथ वहाँ आई / यक्ष की पूजा कर वह प्रदक्षिणा करने लगी। अचानक ही उसकी दृष्टि ध्यानलीन मुनि पर जा टिकी। उनके मैले कपड़े, तपस्या से कृश तथा रूप-लावण्य रहित शरीर को देख उसके मन में घृणा हो आई। आवेश में आ उसने मुनि पर थूक डाला। यक्ष ने यह देखा। उसने सोचा-यह पापिनी है। इसने मुनि की अवहेलना की है। वह यक्ष उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया। कुमारी पागल की तरह बकने लगी। दासियाँ ज्यों-त्यों उसे राजमहल में ले गई। राजा ने कुमारी की अवस्था