________________ 264 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन देखी। वह अत्यन्त विचलित हो गया। उसने उपचार के लिए गारुडिक आदि बुलाए / वैद्य भी आए / उपचार प्रारम्भ हुआ। कुछ भी लाभ नहीं हुआ। तांत्रिक तथा यांत्रिकों ने प्रयास किया। वह भी निष्फल रहा। राजा की आकुलता बढ़ी / यक्ष ने कहा- "इस कुमारी ने साधु की अवहेलना की है। यदि इसका पाणिग्रहण उसी मुनि के साथ किया जाय तो मैं इसे छोड़ सकता हूँ, अन्यथा नहीं।" राजा ने कुमारी के जीवित रहने की आशा से यक्ष की बात स्वीकार कर ली। कुमारी को विवाह के उपयुक्त वस्त्र और आभूषण पहनाए गए। राजा विवाह की समस्त सामग्री ले यक्ष-मन्दिर में पहुंचा। मुनि को वन्दना की और प्रार्थना के स्वरों में कहा-"महर्षे ! मेरी कन्या को स्वीकार करो।" मुनि ने कहा-'राजन् ! मैं मुमुक्षु हूँ। ऐसी बातें यहाँ नहीं करनी चाहिए। जो मुनि एक वसति में स्त्री के साथ भी नहीं रहते, वे भला स्त्री के साथ पाणिग्रहण कैसे करेंगे ? मुनि मोक्ष के इच्छुक होते हैं। वे शाश्वत सुख को चाहते हैं / वे भला स्त्रियों में कैसे आसक्त हो सकते हैं ?" . . कन्या को मुनि-चरणों में छोड़ राजा अपने स्थान पर आ गया। यक्ष का द्वेष उभर आया। उसने मुनि को आच्छन्न कर कभी दिव्य रूप और कभी मुनि रूप बना कर उसे ठगा। वह रात भर ऐसा ही करता रहा। प्रभात हआ। कन्या ने पूर्व-घटित घटना को स्वप्न मात्र माना। वह अकेली अपने पिता के पास पहुंची। रात को सारी बात उनसे कही / यह सुन कर पुरोहित रुद्रदेव ने कहा- "राजन् ! यह ऋषि-पत्नी है। ऋषि के द्वारा त्यक्त होने के कारण वह ब्राह्मण की सम्पति हो जाती है। आप इसे किसी ब्राह्मण को दे दें।" राजा ने उसे ही वह कन्या सौंप दी। वह उसके साथ विषय-भोग करता हुआ रहने लगा। कुछ काल बीता। पुरोहित ने यज्ञ किया। भद्रा को यज्ञ-पत्ती बनाया। उस यज्ञ में भाग लेने के लिए दूर-दूर से विद्वान् बुलाए गए। उन सबके लिए प्रचुर भोजन-सामग्री एकत्रित की गई। उस समय मुनि हरिकेशबल एक-एक मास का तप कर रहे थे। पारणे के दिन वे भिक्षा के लिए घर-घर घूमते हुए उसी यज्ञ-मण्डप में जा पहुँचे।' ___ वह तप से कृश हो गये थे। उनके उपधि और उपकरण प्रान्त ( जीर्ण और मलिन ) थे / उसे आते देख, वे अनार्य (ब्राह्मण) हँसे / जाति-मद से मत्त, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी और अज्ञानी ब्राह्मणों ने परस्पर इस प्रकार कहा "वीभत्स रूप वाला, काला, विकराल और बड़ी नाक वाला, अधनंगा, पांशु-पिशाच १-सुखबोधा, पत्र 173-175 /