________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पूरे विस्तार के लिए देखिए-पारजीटर : एशिएण्ट इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रेडीशन, पृष्ठ 104 -107 / पार्श (23:1) ये जैन-प मरा के तेईसवें तीर्थङ्कर थे। इनका समय ई० पू० आठवीं शताब्दी है / ये भगवान् महावोर से 250 वर्ष पूर्व हुए थे। ये 'पुरुषादानीय' कहलाते थे / कुमार-अनग केशी (23 / 2) ये भगव न् पार्श्वनाथ की परम्परा के चौथे पट्टधर थे। प्रथम पट्टधर आचार्य शुभदत्त हुए। उनके उत्तराधिकारी आचार्य हरिदत्त सूरि थे, जिन्होंने वेदान्त दर्शन प्रसिद्ध आचार्य 'लोहिय' से शास्त्र र्थ कर उनको पाँच सौ शिष्यों सहित दीक्षित किया। इन नवदीक्षित मुनियों ने सौराष्ट्र, तेलंगादि प्रान्तों में विहार कर जैन-शासन को प्रभावना की। तीसरे पट्टधर आच:य रामु रविजय सूरि थे। उनके समय में विदेशी' नामक एक प्रचारक आचार्य ने उज्जा नगरी में महागज जयसेन, उनकी रानी अनंगसुन्दरी और उनके राजकुमार केशो को दीक्षा किया।' ये ही भगवान् महावीर के तीर्थ-काल में पार्श्व-परम्परा के आचार्य थे। आगे चल कर इन्होंने नास्तिक राजा परदेशी को समझाया और उसे जैन-धन में स्थापित किया / - पूरे विवरण के लिए देखिये-उत्तरज्झयणागि, आमुख पृष्ठ 266-302 / बद्धन (23 / 5) ये चौबीसवें तीर्थङ्कर थे। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था / इनका समय ई० पू० छठी शताब्दी था। जयघोष, विजयघोष (2511) वाराणसी नगरी में जयघोष और विजयघोष नाम के दो भाई रहते थे। वे काश्यपगोत्रीय थे। वे यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह-- इन छः कार्यों में रत थे और चार वेदों के ज्ञाता थे। वे दोनों युगलरूप में जन्मे। जयघोष पहले दीक्षित हा। फिर उसने विजयघोष को प्रत्रजित किया। दोनों श्रामण्य की आराधना कर सिद्ध, वुद्ध, मुक्त हुए। गाग्य (27 / 1) ये स्थविर आचार्य गर्ग गोत्र के थे। जब उन्होंने देखा कि उनके सभी शिष्य अविनोत, उद्दण्ड और उच्छृङ्खल हो गये हैं, तब आत्मभाव से प्रेरित हो, शिष्य समुदाय को छोड़ कर, वे अकेले हो गये और आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे। विशेष विवरण के लिए देखिए-उत्तराध्ययन का 27 वाँ अध्ययन / १-समरसिंह, पृ० 75-76 / २-नाभिनन्दनोद्धार प्रबन्ध, 136 /