SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 236 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन सावधान हो जाना चाहिए।" चुलनी ने कहा- "वह अभी बच्चा है। जो कुछ मन में आता है, कह देता है।" राजा दीर्घ ने कहा-"नहीं, ऐसा नहीं है। वह हमारे प्रेम में बाधा डालने वाला है। उसको मारे बिना अपना सम्बन्ध नहीं निभ सकता।" चुलनी ने कहा-"जो आप कहते हैं, वह सही है, किन्तु उसे कैसे मारा जाए ? लोकापवाद से भी तो हमें डरना चाहिए।' राजा दीर्घ ने कहा-"जनापवाद से बचने के लिए पहले हम इसका विवाह कर दें, फिर ज्यों-त्यों इसे मार देंगे।' रानी ने बात मान ली। एक शुभ-वेला में कुमार का विवाह सम्पन्न हुआ। उसके शयन के लिए राजा दीर्घ ने हजार स्तम्भ वाला एक लाक्षा-गृह बनवाया। इधर मंत्री धनु ने राजा दीर्घ से प्रार्थना की- "स्वामिन् ! मेरा पुत्र वरधनु मंत्री-पद का कार्य-भार संभालने के योग्य हो गया है। मैं अब कार्य से निवृत्त होना चाहता हूँ। राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और छलपूर्वक कहा- "तुम और कहीं जा कर क्या करोगे? यहीं रहो और दान आदि धर्मों का पालन करो।" मंत्री ने राजा की बात मान ली। उसने नगर के बाहर गंगा नदी के तट पर एक विशाल प्याऊ बनाई। वहाँ वह पथिकों और परिव्राजकों को प्रचुर अन्न-पान देने लगा। दान व सम्मान के वशीभूत हुए पथिकों और परिव्राजकों द्वारा उसने लाक्षा-गृह से प्याऊ तक एक सुरंग खुदवाई। राजा-रानी को इस सुरंग की बात ज्ञात नहीं हुई। रानी चुलनी ने कुमार ब्रह्मदत्त को अपनी नववधू के साथ उस लाक्षा-गृह में भेजा। दोनों वहाँ गए। रानी ने शेष सभी जाति-जनों को अपने-अपने घर भेज दिया। मंत्री का पुत्र वरधनु वहीं रहा। रात्रि के दो पहर बीते। कुमार ब्रह्मदत्त गाढ़ निद्रा में लीन था। वरधनु जाग रहा था। अचानक लाक्षा-गृह एक ही क्षण में प्रदीप्त हो उठा। हाहाकार मचा / कुमार जागा और दिगमूढ़ बना हुआ वरधनु के पास आ बोला-"यह क्या हुआ? अब क्या करें ?" वरधनु ने कहा-'यह राज-कन्या नहीं है, जिसके साथ आपका पाणिग्रहण हुआ है। इसमें प्रतिबन्ध करना उचित नहीं है / चलो हम चले।" उसने कुमार ब्रह्मदत्त को एक संकेतित स्थान पर लात मारने को कहा। कुमार ने लात मारी। सुरंग का द्वार खुल गया। वे उसमें घुसे। मंत्री ने पहले ही अपने दो विश्वासी पुरुष सुरंग के द्वार पर नियुक्त कर रखे थे। वे घोड़ों पर चढ़े हुए थे। ज्यों ही कुमार ब्रह्मदत्त और वरधनु सुरंग से बाहर निकले त्यों ही उन्हें घोड़ों पर चढ़ा दिया। वे दोनों वहाँ से चले। पचास योजन दूर जाकर ठहरे। लम्बी यात्रा के कारण घोड़े खिन्न होकर गिर पड़े। अब वे दोनों वहाँ से पैदल चले। चलते-चलते वे कोष्ठ-ग्राम में आए। कुमार ने वरधनु से कहा-"मित्र ! प्यास बहुत जोर से लगी है, मैं अत्यन्त परिश्रान्त हो गया हूँ / वरधनु गाँव में गया। एक नाई को साथ ले, वह लौटा / कुमार का सिर मुंडाया, गेरुए
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy