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________________ 113 खण्ड 1, प्रकरण : 5 6 जन-धर्म का ह्रास-काल ६-जैन-धर्म का ह्रास-काल ईसा की दसवीं शताब्दी तक दक्षिण और बम्बई प्रान्त में जैन-धर्म प्रभावशाली रहा। किन्तु उसके पश्चात् जैन राज-वंशों के शैव हो जाने पर उसका प्रभाव क्षीण होने लगा। इधर सौराष्ट्र में जैन-धर्म का प्रभाव ईसा की बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी तक रहा। कुमारपाल ने जैन-धर्म को प्रभावशाली बनाने के लिए बहुत प्रयत्न किए। किन्तु कुछ समय बाद वहाँ भी जैन-धर्म का प्रभाव कम हो गया। शिथियन, तुरुष्क, ग्रीस, तुर्कस्तान, ईरान आदि देशों तथा गजनी के आक्रमण ने वहाँ जैन-धर्म को बहुत क्षति पहुँचाई। वल्लभी का भंग हुआ उस समय जैन-साहित्य प्रचुर मात्रा में लुप्त हो गया था / 1 प्रभावक चरित्र से ज्ञात होता है कि वि० संवत् की पहली शताब्दी तक क्षत्रिय राजा जन-मुनि होते थे। उसके पश्चात् ऐसा उल्लेख नहीं मिलता / राजस्थान के जैन राज-वंश भी शैव या वैष्णव हो गए। इस प्रकार जो जन-धर्म हिन्दुस्तान के लगभग सभी प्रान्तों में कालक्रम के तारतम्य में प्रभावशाली और व्यापक बना था, वह ईसा की पन्द्रहवीं, सोलहवीं शताब्दी आतेआते बहुत ही सीमित हो गया। इसमें जैन-साधु-संघों के पारस्परिक मतभेदों का भी व्यापक प्रभाव है। साधुओं की रूढ़िवादिता, समयानुसार परिवर्तन करने की अक्षमता, संघ को संगठित बनाए रखने की तत्परता का अभाव, सामुदायिक चिन्तन का अकौशल और प्रचार-कौशल को अल्पता--ये भी जैन-धर्म के सीमित होने में निमित्त बने / यद्यपि शैवों और वैष्णवों से जैन-धर्म को क्षति पहुंची, फिर भी उससे अधिक क्षति विदेशी आक्रमणों, राज्यों तथा आन्तरिक संघर्षों से पहुँची। शंकराचार्य ने जैन-धर्म को बहुत प्रभावहीन बनाया, यह कहा जाता है, उसमें बहुत सचाई नहीं है। श्री राहुल सांकृत्यायन ने बौद्ध-धर्म और शंकराचार्य के सम्बन्ध में जो लिखा है, वही जैन-धर्म और शंकराचार्य के सम्बन्ध में घटित होता है / उन्होंने लिखा है• - "भारतीय जीवन के निर्माण में इतनी देन देकर बौद्ध-धर्म भारत से लुप्त हो गया, इससे किसी भी सहृदय व्यक्ति को खेद हुए बिना नहीं रहेगा। उसके लुप्त होने के क्या कारण थे, इसके बारे में कई भ्रान्तिमुलक धारणाएँ फैली हैं। कहा जाता है, शंकराचार्य १-त्रैविद्यगोळी, मुनि सुन्दर सुरि : विकुत्स्या तुच्छम्लेच्छा दि कुनृपतिततिविध्वस्तानेक वल्लभ्यादि तत्तन्महानगरस्थानेकलक्षणप्रमाणागमादि सहादर्शोच्छेदेन कौतुस्कुतस्तावदज्ञानान्धकूपप्रपतत्प्राणिप्रतिहस्तकप्रायप्रशस्त पुस्तकप्राप्तियोगाः।
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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