SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 335 चल देती है, उसी प्रकार मनुष्य का मन जब दूसरी ओर लगा होता है, उसी समय सहसा मृत्यु आ जाती है और उसे लेकर चल देती है / अद्यैव कुरु यच्छ यो, मा त्वां कालोऽत्यगादयम् / अकृतेष्वेव कार्येषु, मृत्युः सम्प्रकषति // 14 // 'इसलिए जो कल्याणकारी कार्य हो, उसे आज ही कर डालिए। आपका यह समय हाथसे निकल न जाय, क्योंकि सारे काम अधूरे ही पड़े रह जायेंगे और मौत आपको खींच ले जाएगी। श्वः कार्यमद्य कुर्वीत, पूर्वाह्न चापराह्निकम् / नहि प्रतीक्षते मृत्युः, कृतमस्य न वा कृतम् // 15 // 'कल किया जाने वाला काम आज ही पूरा कर लेना चाहिए। जिसे सायंकाल में करना है, उसे प्रातःकाल में ही कर लेना चाहिए ; क्योंकि मौत यह नहीं देखती कि इसका काम अभी पूरा हुआ या नहीं। को हि जानाति कस्याद्य, मृत्युकालो भविष्यति / अबुद्ध एवाक्रमते, मीनान् मीनग्रहो यथा // 'कौन जानता है कि किसका मृत्युकाल आज ही उपस्थित होगा ? सम्पूर्ण जगत् पर प्रभुत्व रखनेवाली मृत्यु जब किसीको हरकर ले जाना चाहती है तो उसे पहले से निमंत्रण नहीं भेजती है। जैसे मछुए चुपके से आकर मछलियों को पकड़ लेते हैं, उसी प्रकार मृत्यु भी अज्ञात रहकर ही आक्रमण करती है। युवैव धर्मशीलः स्यादनित्यं खलु जीवितम् / कृते. धर्मे भवेत् कीर्तिरिह प्रेत्य च वै सुखम् // 16 // 'अतः युवावस्था में ही सबको धर्मका आचरण करना चाहिए, क्योंकि जीवन निःसन्देह अनित्य है। धर्माचरण करने से इस लोक में कीर्ति का विस्तार होता है और परलोक में भी उसे सुख मिलता है। मोहेन हि समाविष्टः, पुत्रदारार्थमुद्यतः / कृत्वा कार्यमकार्य वा, पुष्टिंमेषां प्रयच्छति // 17 // 'जो मनुष्य मोह में डूबा हुआ है, वही पुत्र और स्त्री के लिए उद्योग करने लगता है और करने तथा न करने योग्य काम करके इन सबका पालन-पोषण करता है। तं पुत्रपशुसम्पन्नं, व्यासक्तमनसं नरम् / सुप्तं व्याघ्रो मृगमिव, मृत्युरादाय गच्छति // 18 //
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy