SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 543
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 514 514 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति / कम्मं च जाईमरणस्स मूलं दुक्खं च जाईमरणं वयन्ति // 32 // 7 // ___ राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है। दुक्ख हयं जस्स न होइ मोहो मोहो हो जस्स न होइ तहा। तण्हा हया जस्स न होइ लोहो लोहो हो जस्स न किंचणाई // 32 // 8 // जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया है। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया। जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का नाश कर दिया। जे इन्दियाणं विसया मणुन्ना न तेसु भावं निसिरे कयाइ। न याऽमणुन्नेसु मणं पि कुज्जा समाहिकामे समणे तवस्सी // 32 // 21 // समाधि चाहने वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के जो मनोज्ञ विषय हैं, उनकी ओर भी मन न करे-राग न करे और जो अमनोज्ञ विषय हैं, उनकी ओर भी मन न. करे-द्वेष न करे। न कामभोगा समयं उवेन्ति न यावि भोगा विगई उवेन्ति / जे तप्पओसी य परिग्गही य सो तेसु मोहा विगई उवेइ // 32 // 101 // काम-भोग समता के हेतु भी नहीं होते और विकार के हेतु भी नहीं होते / जो पुरुष उनके प्रति द्वष या राग करता है, वह तद्विषयक मोह के कारण विकार को प्राप्त होता है। जिणवयणे अणुरत्ता जिणवयणं जे करेन्ति भावेण / अमला असंकिलिट्ठा ते होन्ति परित्तसंसारी // 36 // 260 // __ जो जिन-वचन में अनुरक्त हैं तथा जिन-वचनों का भाव-पूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असंक्लिष्ट होकर परीत-संसारी (अल्प जन्म-मरण वाले) हो जाते हैं। बालमरणाणि बहुसों अकाममरणाणि चेव य बहूणि। मरिहिन्ति ते वराया जिणवयणं जे न जाणन्ति // 36 // 26 // जो प्राणी जिन-वचनों से परिचित नहीं हैं, वे बेचारे अनेक बार बाल-मरण तथा अकाम-मरण करते रहेंगे।
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy