________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 57 "जो सब प्रकार को आसक्तियों से छूट कर मुनि वृत्ति से रहता है, आकाश की भाँति निर्लेप और स्थिर है, किसी भी वस्तु को अपनी नहीं मानता, एकाकी विचरता और शान्त-भाव से रहता है, उसे देवता ब्रह्मवेत्ता मानते हैं / ___ "जिसका जीवन धर्म के लिए और धर्म भगवान् श्रीहरि के लिए होता है, जिसके दिन और रात धर्म-पालन में ही व्यतीत होते हैं, उसे देवता ब्रह्मज्ञ मानते हैं। ___ "जो कामनाओं से रहित तथा सब प्रकार के आरंभों से रहित है, नमस्कार और स्तुति से दूर रहता तथा सब प्रकार के बंधनों से मुक्त होता है, उसे ही देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं।" ब्रह्मपुराण के अनुसार शूद्र ब्राह्मण बन जाता है और वैश्य क्षत्रिय हो जाता है / वज्रसूचिकोपनिषद् एवं भविष्यपुराण में भी जातिवाद की आलोचना मिलती है, किन्तु यह दृष्टिकोण वैदिक-संस्कृति की आत्मा में परिपूर्ण रूप से व्याप्त नहीं हो सका। समत्व की भावना व अहिंसा समत्व श्रमण-परम्परा की एकता का मौलिक हेतु है / श्रमण शब्द बहुत प्रचलित रहा है, इसीलिए इस समताप्रधान संस्कृति को 'श्रमण-संस्कृति' कहा जाता है। हमने भी स्थान-स्थान पर श्रमण शब्द का प्रयोग किया है। किन्तु वास्तविक दृष्टि से इसका नाम 'समग-संस्कृति' है। 'समण' शब्द 'सम' शब्द से व्युत्पन्न हैं- "सममणई तेण सो समणो"-जो सब जीवों को तुल्य मानता है, वह 'समण' है / 'जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं, उसी प्रकार सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है'-इस समता की दृष्टि से जो किसी भी प्राणी का वध न करता है, न करवाता है, वह अपनी समगति के कारण 'समण' कहलाता है जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं / न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणो // 3 जिसका मन सम होता है, वह समण है। जिसके लिए कोई भी जीव न द्वेषी होता .है और न प्रिय, वह अपनी सम मनःस्थिति के कारण 'समण' कहलाता है-- . नत्थि य सि कोइ वेसो पिओ व सम्वेस चेव जीवेस। एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पजाओ // 4 १-महाभारत, शान्तिपर्व, 245 / 11-14, 22-24 / २-ब्रह्मपुराण, 223 / 32 / ३--दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 154 / ४-वही, गाथा 155 /