________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 5 -जैन-धर्म हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में 111 चन्देल राज्य के प्रधान खुजराहो नगर में लेख तथा प्रतिमाओं के अध्ययन से जन-मत के प्रचार का ज्ञान होता है। प्रतिमाओं के आधार-शिला पर खुदा लेख यह प्रमाणित करता है कि राजाओं के अतिरिक्त साधारण जनता भी जैन-मत में विश्वास रखती थी।' मालवा अनेक शताब्दियों तक जैन-धर्म का प्रमुख प्रचार क्षेत्र था। व्यवहार भाष्य में बताया है कि अन्य तीथिकों के साथ वाद-विवाद मालव आदि क्षेत्रों में करना चाहिए। इससे जाना जाता है कि अवन्तीपति चन्द्रप्रद्योत तथा विशेषतः सम्राट सम्प्रति से लेकर भाष्य-रचनाकाल तक वहाँ जैन-धर्म प्रभावशाली था। सौराष्ट्र-गुजरात सौराष्ट्र जैन-धर्म का प्रमुख केन्द्र था / भगवान् अरिष्टनेमि से वहाँ जैन-परम्परा चल रही थी। सम्राट सम्प्रति के राज्यकाल में वहाँ जैन-धर्म को अधिक बल मिला था। सूत्रकृतांग चूणि में सौराष्ट्रवासी श्रावक का उल्लेख मगधवासी श्रावक की तुलना में किया गया है। जैन-साहित्य में 'सौराष्ट्र' का प्राचीन नाम 'सुराष्ट्र' मिलता है। __ वल्लभी में श्वेताम्बर-जनों की दो आगम-वाचनाएं हुई थीं। ईसा को चौथी शताब्दी में जब आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में आगम-वाचना हो रही थी, उसी समय आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में वह वल्लभी में हो रही थी। ईसा की पाँचवीं शताब्दी (454) में फिर वहीं आगम-वाचना के लिए एक परिषद् आयोजित हुई / उसका नेतृत्व देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने किया। उन्होंने आचार्य स्कन्दिल की 'माथुरी-वाचना' को मुख्यता दी और नागार्जुन की 'वल्लभी-वाचना' को वाचनान्तर के रूप में स्वीकृत किया। गुजरात के चालुक्य, राष्ट्रकूट, चावड, सोलंकी आदि राजवंशी भी जैन-धर्म के अनुयायी या समर्थक थे। बम्बई-महाराष्ट्र . . सम्राट सम्प्रति से पूर्व जैनों की दृष्टि में महाराष्ट्र अनार्य-देश की गणना में था। उसके राज्य-काल में जैन-साधु वहाँ विहार करने लगे। उत्तरवर्ती-काल में वह जैनों का १-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० 125,126 / २-व्यवहार भाज्य, उद्देशक 10, गाथा 286 : खेत्तं मालवमादी, अहवावी साहुभावियं जंतु। नाऊण तहा विहिणा, वातो य तहिं पतो तव्वो // ३-सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ० 127 : सोरट्ठो सावगो मागधो वा।