________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 २-योग 156 औपपांतिक में इसका विस्तार मिलता है। वहाँ इसके निम्नलिखित प्रकार मिलते हैं(१) निर्विकृति विकृति का त्याग। (2) प्रणीत रस-परित्याग- स्निग्ध व गरिष्ठ आहार का त्याग / (3) आचामाम्ल- आम्ल-रस मिश्रित भात आदि का आहार / (4) आयामसिक्थ भोजन- ओसामण में मिश्रित अन्न का आहार / (5) अरस आहार- हींग आदि से संस्कृत आहार / (6) विरस आहार- पुराने धान्य का आहार / (7) अन्त्य आहार- वल्ल आदि तुच्छ धान्य का आहार / (8) प्रान्त्य आहार-- ठण्डा आहार। (8) रुक्ष आहार। इस तप का प्रयोजन है स्वाद विजय / इसीलिए रस-परित्याग करने वाला विकृति, सरस व स्वादु भोजन नहीं खाता / विकृतियाँ नो हैं---- (2) दही, (7) मधु, (3) नवनीत, (5) मद्य और ___ (4) घृत, () माँस / 2 . (5) तेल, इनमें मधु, मद्य, माँस और नवनीत—ये चार महा विकृतियाँ हैं।' जिन वस्तुओं से जीभ और मन विकृत होते हैं—स्वाद-लोलुप या विषय-लोलुप बनते हैं, उन्हें 'विकृति' कहा जाता है / पण्डित आशाधरजी ने इसके चार प्रकार बतलाए हैं (1) गो-रस विकृति- दूध, दही, घृत, मक्खन आदि / .(2) इक्षु-रस विकृति- गुड़, चीनी आदि। (3) फल-रस विकृति- अंगूर, आम आदि फलों के रस / (4) धान्य-रस विकृति- तैल, मांड आदि / 4 १-औपपातिक, सूत्र 19 / २-स्थानांग, 9 / 674 / ३-(क) स्थानांग, 4 / 1 / 274 / / (ख) मूलाराधना, 3 / 213 / ४-सागारधर्मामृत, टीका 5 / 35 /