________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 1 १-श्रमण और वैदिक परम्पराएं तथा उनका पौर्वापर्य 3 में ही मिलने लगा था और यद्यपि वैदिकों की प्रामाणिकता में उपनिषदों ने संदेह नहीं किया, किन्तु वैदिक-धर्म के काम्य स्वर्ग को अयथेष्ट बताकर वेदों की एक प्रकार की आलोचना उपनिषदों ने हो शुरू कर दी थी। वेद सबसे अधिक महत्त्व यज्ञ को देते थे। यज्ञों की प्रधानता के कारण समाज में ब्राह्मणों का स्थान बहुत प्रमुख हो गया था / इन सारी बातों की समाज में आलोचना चलने लगी और लोगों को यह संदेह होने लगा कि मनुष्य और उसकी मुक्ति के बीच में ब्राह्मण का आना सचमुच ही ठीक नहीं है / आलोचना की इस प्रवृत्ति ने बढ़ते-बढ़ते, आखिर ईसा से 600 वर्ष पूर्व तक आकर वैदिक-धर्म के खिलाफ खुले विद्रोह को जन्म दिया जिसका सुसंगठित रूप जैन और बौद्ध धर्मों में प्रगट हुआ।" ___डॉ० सत्यकेतु विद्यालंकार ने जैन और बौद्ध-धर्म का नई धार्मिक सुधारणा के रूप में अंकन किया है। उनके शब्दों में-"इस नई धार्मिक सुधारणा ने यज्ञों के रूढ़िवाद व समाज में ऊंच-नीच के भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाकर प्राचीन आर्य-धर्म का पुनरुद्धार करने का प्रयत्न किया / "2 श्रमण-साहित्य के अभिमत पर एक दृष्टि नियुक्ति तथा पुराण ग्रन्थों में ब्राह्मण और वेदों की उत्पति जैन स्रोत से बतलाई गई है / आवश्यक नियुक्ति की व्याख्या को हम एक रूपक मानें तो उसका अर्थ जैन-परम्परा का वैदिक-परम्परा के साथ सामञ्जस्य स्थापित करना होगा और यदि उसे यथार्थ माने तो उसका अर्थ यह होगा कि जैन-परम्परा में भी ब्राह्मण, वेद और यज्ञोपवीत का स्थान रहा है। वैदिक-वाङ्मय के अभिमत पर एक दृष्टि ___डॉ० लक्ष्मण शास्त्री ने कर्म-विपाक, संसार का बंधन और मोक्ष या मुक्ति–इन तोनों कल्पनाओं को वैदिक मानकर जैन और बौद्धों को वैदिक संस्कृति की शाखा मानने का साहस किया, किन्तु सच तो यह है कि कर्म-बन्धन और मुक्ति की कल्पना सर्वथा. अवैदिक है। उपनिषदों के ऋषि श्रमण-संस्कृति से कितने प्रभावित थे या वे स्वयं श्रमण हो थे, इस पर हमें आगे विचार करना है। ___ जैन-धर्म वैदिक-धर्म के क्रिया-काण्डों के प्रति विद्रोह करने के लिए समुत्पन्न धर्म नहीं है और आर्य-धर्म के पुनरुद्धार के रूप में भी उसका उदय नहीं हुआ है। ये सारी धारणाएं सामयिक दृष्टिकोण से बनी हुई हैं। १-संस्कृति के चार अध्याय (द्वितीय संस्करण), पृ० 102 / २-पाटलीपुत्र की कथा, पृ० 67-68 /