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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 37 लिए हैं।' ब्राह्मण संन्यासी मुख्यतया अहिंसा, सत्य, अचौर्य, संतोष और मुक्तता-इन पाँच व्रतों का पालन करते थे / डॉ० जेकोबी का अभिमत है कि जैन-महाव्रतों की व्यवस्था के आधार उक्त पाँच व्रत बने हैं। यह संभावना केवल कल्पना पर आधारित है। इसका कोई वास्तविक आधार नहीं है। यदि हम व्रतों को परम्परा का ऐतिहासिक अध्ययन करें तो अहिंसा आदि व्रतों का मूल ब्राह्मण-परम्परा में नहीं पाएंगे। डॉ. जेकोबी ने बौधायन में उल्लिखित व्रतों के आधार पर यह संभावना को, किन्तु प्रश्न यह है कि उसमें व्रत कहाँ से आए ? इस प्रश्न पर विचार करने से पूर्व संन्यास-आश्रम पर विचार करना आवश्यक है, क्योंकि व्रत और संन्यास का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। वैदिक-साहित्य में सर्व प्राचीन ग्रन्थ वेद हैं। उनमें 'आश्रम' शब्द का उल्लेख नहीं है। ब्राह्मण और आरण्यक ग्रन्थों में भी आश्रमों की चर्चा नहीं है। उपनिषद्-काल में आश्रमों की चर्चा प्रारम्भ होती है / बृहदारण्यक में संन्यास को 'आत्म-जिज्ञासा के बाद होने वाली स्थिति' कहा है। वहाँ लिखा है-'इस आत्मा को ब्राह्मण वेदों के स्वाध्याय, यज्ञ, दान और निष्काम-तप के द्वारा जानने की इच्छा करते हैं। इसी को जान कर मुनि होते हैं / इस आत्म-लोक की ही इच्छा करते हुए त्यागी पुरुष सब कुछ त्याग कर चले जाते हैं, संन्यासी हो जाते हैं। इस संन्यास में कारण यह है-पूर्ववर्ती विद्वान् सन्तान (तथा सकाम कर्म आदि) को इच्छा नहीं करते थे। ( वे सोचते थे ) हमें प्रजा से क्या लेना है, जिन हमको कि यह आत्म-लोक अभीष्ट है। अत: वे पुत्रैषणा, वित्तषणा और लोकैषणा से व्युत्थान कर फिर भिक्षा-चर्या करते थे।"२ ___ इस उद्धरण में "पूर्ववर्ती विद्वान् सन्तान की इच्छा नहीं करते थे और लोकेषणा से व्युत्थान कर फिर भिक्षा-चर्या करते थे"-ये वाक्य निवर्तक-परम्परा की ओर संकेत करते हैं / वेदिक-परम्परा लोकैषणा से विमुख नहीं रही है / उसमें पुत्रैषणा की प्रधानता रही है और यहाँ बताया है कि जो भी पुत्रैषणा है, वह वित्तषणा है और जो वित्तषणा है, वही लोकेषणा है / श्रमण-परम्परा का मुख्य सूत्र है- "लोकेषणा मत करो"-"नो लोगस्सेसणं चरे।"४ भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा--"पहले पुत्रों को उत्पन्न करो, फिर आरण्यक मुनि हो 1-The Sacred Books of the East, Vol. XXII, Introduction p. 24. "It is therefore probable that the Jainas have borrowed their own vows from the Brahmans, not from the Buddhists. २-बृहदारण्यक, 4 / 4 / 22 / 3- वही, 4 / 4 / 22 / ४-आचारांग, 1 / 4 / 1 / 128 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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