Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्भचक पूजातिशय प्रारत श्रीपाल चरित्र (लेखक-श्री १०८ प्राचार्य सकलकीतिजी महाराज) [ ग्रन्थ -८] अनुतादिका श्री १०५ गणिनी प्रायिकारत्न विदूषी सम्यग्ज्ञान शिरोमणी सिद्धान्त विशारद धर्म प्रभाविका श्री विजयामती माताजी (श्री १०८ प्राचार्य महावीर कीतिजो परम्पराय) सम्पादक प्रबन्ध सम्पादक नाथूलाल जैन "टोंकवाला" महेन्द्र कुमार जैन "बडजात्या" प्रकाशक श्री दिगम्बर जैन विजया ठान्थ प्रकाशन समिति कार्यालय जैन भगवती भवन, ११४-शिल्प कॉलोनी झोटवाड़ा, जयपुर-३०२०१२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित शब्द जिनवाणी का भवन चार स्तम्भों का मेल हे । वे हैं प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरगानुयोग और द्रव्यानुयोग "प्रथमं करणं वरां द्रव्यं नमः ।" इससे प्रकट है । इनमें प्रथम स्थान प्रथमानूयोग को प्राप्त है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार पठनकला में निष्णात होने के लिए 'अ' अक्षर (वर्ग) अनिवार्य है उसी प्रकार अतिगंभीर और विस्तृत सागर समान श्रतसागर का पाग्गामो हान के लिए प्रथमानुयोग का अध्ययन आवश्यक है । वस्तुतः द्वादशाङ्ग में प्रविष्ट होने का यह मुख्य द्वार है या यों कहें कि तत्त्वस्वरूप के विश्लेषण द्वार को कुञ्जी है । जिन लोगों को यह भ्रान्त धारगा है कि यह कोरा कथा--विन्यास है-कहानी है या अतिशयोक्तियों का एकत्रित अखाड़ा है इत्यादि बे महान भ्रान्त है, अज्ञानतम के शिकार हैं और अपनी ज्ञान लघिमा के परिचायक हैं । प्रथमानुयोग, कथारूपी चासनी से लिपटी वह परम अचक औषधि है जो सरलता से अल्प प्रयास से आबालवृद्ध के कण्ठ से उतर कर उदर में पहुँच जाती है और उसके विषय-कषायों जन्य भोषण रोगों का सहज शमन कर स्वास्थ्य प्रदान करती है । प्रज्ञा को सजग बनाती है। चिन्तनशक्ति को प्रदीप्त करती है। धारणाशक्ति को ठोस बनाती है । ध्यान को बल प्रदान करती है। संयम त्याग ओर वैराग्य का मैल जमाती है। मनुष्य को जिनभक्त बना सम्यग्दृष्टि सम्याज्ञानी बना-विषयानुराग त्यागी और सम्यक तपी या चारित्रधारो बना ध्यानी बनाती हैं। जन्म, जरा, मरण के झमेले को दर्शाती और मिटाती है। परमागम के ये चारों अनुयोग एक दूसरे के पूरक हैं । तो भी प्रथमानुयांग देहली का प्रदीप है। जैन सिद्धान्त और दर्शन की गहन तत्बाटवी में सुगमता से प्रवेश कराने का द्वार है या यों कहो कि यह द्रव्यानुयोग तक पहुंचाने के लिए मार्गदर्शक है । प्रथमानुयोग का अर्थ है प्रथम अर्थात मिथ्यादृष्टि या अन्नतिक अव्युत्पन्न श्रोता को लक्ष्य करके जो प्रव्रत हो। इसमें सठ सलाका पुरुषों प्रादि का वर्णन किया जाता है। उसके अध्ययन से जीवन और मरण की कला हमें प्राप्त होती है । कुमरण और कुजन्म से बचने का उपाय अवगत होता है । पुण्य-पाप अर्जन रक्षण और उनके फल दृष्टिगत होते हैं जिससे संसार, शरीर, भोगों से विरक्ति होती है । शुभाशुभ का भेद ज्ञात होता है. क्रमशः अशुभ से शुभ का और शुभ से शुद्ध का प्रादुर्भाव हो किस प्रकार प्रात्मा परमात्मा बन जाता है यह हमें प्राप्त होता हैं प्रथमानुयोग से । हम यदि यह कहें कि प्रथमागुयोग वह पुष्टबीज है जिसके पनपने पर फलने-फूलने पर अन्य अनुयोग भी विस्तार प्राप्त करते हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । प्रस्तुत शास्त्र प्रथमानुयोग सम्बन्धी है। इसमें श्रीपाल कोटिभट का जीवन ही अङ्कित नहीं, अपितु उभयघमै (श्रावक और यति) एवं अनेकान्त सिद्धान्त का भी विशद विश्लेषण है । जिनक्ति और सिद्धभक्ति के मधुर फल का अप्रतिम उदाहरण है। संसारी प्राणो बिभिन्न प्राधि-व्याधियों का शिकार होता है आलित हो शिकारियों से पीरित असहाय Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगीवत यत्र-सत्र शरण खोजता है, उन वस्त मानधों को यह अद्वितीय शरण है । पाठक इसका अध्ययन कर चिरशान्ति प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। प्राचार्य श्री १०८ श्रुतसागरजी महाराज के परमशिष्य श्री १०८ प्राचार्य सकलकीति जी महाराज ने बीसवे तीर्थङ्कर श्रीमुनिसुयतनाथ भगवान के काल में ऊत्पन्न श्रीपाल-मैना का चरित्र वर्णन कर हमें अतीत की निर्मल-सुखद स्मृतिमा का रसपान कराया है । यह ग्रन्य अपने में अनोखा और सिद्धचक्रव्रत के स्वरूप का यथार्थ, अभ्रान्त, प्रामाणिक वर्णन करता है । अन्यत्र ऐसा सुस्पष्ट वर्णन प्राप्त नहीं होता । यह प्राचीन और आर्षपरम्परानुसार विधि-विधान का निरूपक है। ___ इस ग्रन्थ की प्राप्ति हमें पोन्लूरमलै (तमिलनाडु) में हुयी। वहां के श्री समन्तभद्र शास्त्री एवं श्री श्रीधर नैनार के सहयोग से इसकी लिपि (मशिप्रवाल व वन्धलिपि) का वाचन करने का अभ्यास किया। इसकी भाषा संस्कृत है। लिपि ग्रलिपि होने से पर्याप्त श्रम हुआ। परन्तु इसकी सूक्ष्म व्याख्या, पूजन विधि-विधान, राग का विसग से परास्त होना आदि विवरण बड़े ही रोचक, सबल, युक्तियुक्त और पार्षपरम्परा के पोषक हैं। हमारे अधिकांश भाई-बहिनों को यह प्रास्था है कि मदनसुन्दरी ने केवल सिद्धचक्र यन्त्र की पूजा-अभिषेक किया, जिनप्रतिमा का नहीं, उनकी इस संशयात्मक धारणा का निरसन इस के अध्येता को हुए बिना नहीं रहेगा। धर्म के क्षेत्र में सर्वत्र नारी सर्व क्रियाओं में अग्रेसर रही हैं यह निभ्रान्त इससे सिद्ध हो जाता है । अस्तु पाठक-पाठिकाए इससे लाभान्वित होंगे तो हमारे परिश्रम का यथार्थ फल होगा । अवश्य ही इसके अध्येता यथार्थ विधि-विधान, क्रिया-कलाप, ज्ञात कर जिनभक्ति सिद्धभक्तिकर सम्यक्त्व प्राप्तिकर प्रज्ञाचक्षु उन्मीलित करेंगे और संयमपथ के अनुगामी बन आत्म'शोधना कर सकेंगे : मेरा विश्वास है आज की अवला और पतिता नारी समाज मदनमञ्जूषा के जोवन परिचय से अपनो पाशविक प्रवृत्तियों को विषयतषा की दाह को संयम जल के मधुर बिन्दुओं से अभिसिंचित कर शान्त करने में प्रयत्नशील होंगी। मैंनासुन्दरी बी पतिभक्ति, और जिनभक्ति हमें लौकिक जीवन का शृगार और पारलोकी जीवन का अमर आनन्द प्राप्त कराने में समर्थ कारण बनेगी । जीवन की बीहड-कटीली राहों में श्रीपाल का धैर्य हमें संवल प्रदान करेगा। अस्तु, पाठक अवश्य एकाग्रचित से इसका स्वाध्याय, मनन और चिन्तन करेंगे यह पूर्ण आशा है। ग्रन्थलिपि और संस्कृत भाषा होने से अटियाँ रहना स्वाभाविक है । इसके संशोधन में अर्थात व्याकरण सम्बन्धी अटियों के सुधार में व्याकरणाचार्य श्री प्रभाकरजी शास्त्री श्रवणवेलगोल से पर्याप्त सहयोग प्राप्त हुआ । उन्हें हमारा आशीर्वाद है कि उनकी विद्याबुद्धि सच्चे पार्षग्रन्थों में प्रयत हो। यद्यपि हमने शुद्धिकरण का पर्याप्त ध्यान रखा है तो भी अल्पज्ञतावश कहीं न कहीं अक्षर पद मात्रादि का विपर्यया या न्यूनाधिकता रह सकती है। अतः पूज्य गुरुजनों से विनम्र करबद्ध प्रार्थना है कि वे संशोधन करें और भविष्य के लिए मुझे मार्गदर्शन करावें । विद्वजनों से भी मेरा कहना है कि ये सुधार करने और हमें सूचना देवर साबधान होने का अवसर दें। इस वृहद् ग्रन्थ का प्रकाशन "श्री दि. जैन विजयाग्रन्थ प्रकाशन समिति, जयपुर" से हो रहा है यह परम संतोष का विषय है । इस समिति का बैशिट्य यह है कि प्रफ संशोधन विशेष सुन्दर VII Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और सावधान ढंग से होता है। शीघ्र और अधिक साहित्य प्रकाशन की भूख यहाँ नहीं प्रतीत होती । "संतोष का फल मीठा होता है ।" यह कहावत यथार्थ है शुद्धि के ध्यान रखने से इसके विषय और अर्थ का स्पष्टीकरण पूर्णतः हो सकेगा । वर्तमान युगीन मुनि निन्दकों का यह दर्पण है । मुनियों का अविनय करने का कटुफल किस प्रकार मानव को सताता है, प्राणघातक होता है इसके श्रध्यंता को प्रकट हुए बिना नहीं रहेगा। साधु व साधुसंघ निन्दा भवभवान्तर में जीव को दुःखी बनाती है । इन बेचारे रुपये पर धर्म और प्रात्मसुख को बलि चढाने वालों को सन्मार्ग दिखाने वाला दीपक है। गुरु ही विपत्ति में शरण होत हैं ।। आपत्ति के मंडराते मेघों को गुरुवाणीरूपी पवन क्षण भर में तितरवितर कर देती है। आये हुए संकटों को सहन करने की क्षमता का सागर गुरु ही प्रदान करते हैं। वीतराग दिगम्बर साधु निरोहवृत्ति से सर्वोपकारी होते हैं। जो उदरपूर्ति के प्रलोभनों में पड़ गुरुभक्ति, विनय, श्रद्धा और दानादि से दूर हट रहे हैं, उन्हें यह शास्त्र उज्ज्वल प्रकाश और प्रेरणा प्रदान करेगा । गुरुभक्ति की श्रृङ्खला में जोड़ देगा, आगम की राहों पर ला देगा, आर्षमार्ग पर खड़ा करेगा, सही दिशा में चलाकर अन्तिम लक्ष्य मुक्ति तक पहुँचने का पौष्टिकशुद्ध पाथेय प्रदान करेगा ऐसा मेरा विश्वास है । मिथ्यादर्शनों का किला सत्य की तोपों से चूर-चूर हो जाता है यह है इसका आद्योपान्त आलोडन करें, अध्ययन करें। नारी के गौरव गान का सुरीला नाद भरा है इसमें । शील, संयम, त्यागमूर्ति नारी किस प्रकार स्वयं दोषवत तिल-तिल जलकर पर को प्रकाशित करती है, यह निस्वार्थ भाव नारी का इसमें चित्रित है । वह समयानुसार, विलासिनी, सन्यासिनी, वीराङ्गना धर्मध्वजा बनकर जोवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रीडा कर अन्त में आत्मसाधना कर परमात्मस्वरूप बन जाती है यह शिक्षा प्राप्त करना है तो इसे पढ़े बिना न रहें। मेरा विश्वास है कि संसार के बीहड़, कंटीले दुर्गम, तमसाच्छन्न राहों को पार करने का पराक्रम अवश्य ही इससे प्राप्त होगा । पराधीन जीवन मरण तुल्य है । स्वाभिमानी विपत्तियों की दल-दल में फँसकर भी स्वाभिमान रक्षण में सन्नद्ध रहता है। अपने स्वाधीन व्यक्ति से बुराईयाँ टकरा कर चली जाती हैं अचल से पवन झोकों की भाँति । श्रमं जीवन की ज्योति है । धर्मात्मा जीवन नया के सेवदिया है। धर्म और धर्मात्मा में वात्सल्य है साधना की प्रथम सीढी । मुक्तिरमा के प्रासाद के आरोहण का प्रथम चरण । अतः पाठकगण भक्ति रुचि और अनुराग से पढ़ और सीखें | इस ग्रन्थ की टीका करने में संवस्थ १०५ क्षुल्लिका श्री जयप्रभाजी का सहयोग प्रशंसनीय है। सातवें व आठवें परिच्छेद का अनुवाद पूर्णतः इनका ही है । अन्यत्र भी यत्र-तत्र सहयोग करती रहीं । अतः उन्हें मेरा आशीर्वाद है कि वो जिनवाणी की परमभक्ता हो श्रापपरम्परा का वर्द्धन करें। "क्षु० १०५ श्री विजयप्रभाजी ने प्रेस कापी करने में यथायोग्य सहायता दी है उन्हें भी हमारा आशीर्वाद है अपने सम्यग्ज्ञान की वृद्धि करती रहे । दि. जैन विजयाग्रन्थ प्रकाशन समिति ने इसके प्रकाशन का भार स्वीकार कर आर्षपरम्परा के संवर्द्धन का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । सम्पादक महोदय ने अपने पारिवारिक कार्यों में उलझे रह कर भी ज्ञानवर्द्धन, श्रात्मशोधक इस कार्य में अमूल्य समय अर्पण कर अपनी अटल VITI Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुभक्ति और आर्षपरम्परा आस्था का परिचय दिया है। उन्हें अधिकाधिक आशीर्वाद है कि ज्ञान और विराग का सामञ्जस्य उन्हें प्राप्त हो। श्री नाथूलालजी प्रबन्धसम्पादक तथा अन्यान्य कार्यकर्ताओं को हमारा पूर्णतः आशीर्वाद है वे इसी प्रकार निर्भय हो पागम की सेवा में तनमन अर्पण कर शीघ्र पूर्णज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हों। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में जिन जिन धर्मबन्ध श्रावक-श्राविकाओं ने आर्थिक सहयोग प्रदान कर इस अप्रकाशित अमूल्य ग्रन्थ को प्रकाशित करा जन-जन के हितार्थ सुलभ बनाया है वे सतत इसी प्रकार नश्वर सम्पदा का सदुपयोग कर प्रात्मज्ञान साधक बने यह मेरा आशीर्वाद है । सद्धर्भवृद्धिरस्तु । नमः श्री शान्तिनाथाय, ॐ शान्ति, परमशान्ति ।। म० प्रा० १०५ विजयामति PANN JAAAAD Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका की पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न श्री १०५ विजयामती माताजी का प्रभावशाली साहित्य लेखन किसी कवि ने कहा है साँची तो गङ्गा यह वीतराग वाणी, अविच्छिन्न धारा निज धर्म की कहानी। जामें प्रति ही विमल अगाध ज्ञान पानी। जहाँ नहीं संशयादि पङ्क की निशानी ॥ अर्थात् पङ्क रहित, स्वच्छ मधुर ज्ञान जल से भरी हुई जिनवाणी रूपी गङ्गा में स्नान करने से प्रज्ञानरूपी मल का प्रक्षालन होता है अत: मुमुक्षुगण उसमें मज्जन करे, अवगाहन करें। ___ बन्धनों ! अगर सरोवर के दोनों तरफ सुन्दर तट हैं तो याबालबद्ध सभी सरलता से उसमें प्रवेश कर स्नान कर सकते हैं, तट के बिना सरोवर में प्रवेश कठिन है, इस तथ्य को दृष्टि में रखकर परमपूज्या आयिकारत्त श्री. १०५ गणिती विजयामती माताजी ने प्राचार्य परम्परा से प्राप्त एवं संस्कृत में निबद्ध प्रथमानुयोग की कथानों को सरल सुबोध पौली में लिख कर वह सुन्दर तट तैयार किया है जिससे हम आबालवृद्ध सभी सरलता से 'ज्ञानगङ्गा' में प्रवेशा कर सकते हैं आप ऐसी अनेक कथाएँ लिख चुकी हैं जैसे...पुनर्मिलन, सच्चा कवच, महीपाल चरित्र, जिनदत्त चरित्र इत्यादि । ये सभी कथायें इस प्रकार की हैं, जिससे पाठकगण पापपङ्ग से निकल कर धर्मपथ पर आरूढ़ हो सकें और तत्त्वज्ञान से स्वपर के प्रज्ञान तिमिर का नाश कर सकें। अभी, अापके सामने यह जो "श्रौसिद्धचक्रपूजातिशयप्राप्त श्रीपाल चरित्र" प्रस्तुत किया जा रहा है वह अनेक ऐसी विशेषतानों युक्त है जिससे १३ पंथ, २० पंथ आदि पंथ सम्बFधी सभी झगड़ों का सहज निवारण हो जाता है। श्रावकधर्म और मुनिधर्म दोनों धर्मों को सुन्दर विवेचना इस ग्रन्थ में है। जिन लोगों के मन में यह भ्रान्ति जम गई है कि "पञ्चामृत अभिषेक नहीं करना चाहिए तथा स्त्रियों का शरीर प्रशुद्ध रहता है अत: स्त्रियों को अभिषेक नहीं करना चाहिए" वे इस ग्रन्थ को अवश्य पढे तथा प्राचीन ागम परम्परा को दूषित करने के लिए व्यर्थ का प्रयास आगे न करें। तमिलनाड़ में प्राप्त, ताड़पत्रों पर उत्कीर्ग प्राचीन ग्रन्थ को आधार बनाकर यह कथा आपके सामने उपस्थित की जारही है, इसके रचयिता भट्राच श्री 108 सकलकीति प्राचार्य हैं पुनः इस ग्रन्थ रचना प्रारम्भ में उन्होंने यह भी लिखा है कि मैं इस ग्रन्थ में जो कुछ लिख रहा हूँ यह प्रमाणिक है क्योंकि आचार्य परम्परा से प्राप्त कथानक को ही मै यहाँ उपस्थित कर रहा हूँ। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त पाठकगणों से मेरा विशेष अनुरोध है कि वे बहुत बारीकी से इस शास्त्र का अध्ययन करें और यथार्थता की तलहटी का स्पर्श कर अपनी ज्ञानदृष्टि को प्राञ्जल करें, पवित्र करें। यह ग्रन्थ अमृतघट के तुल्य है, शब्दपरिमित हैं, सीमित हैं पर अंतिगम्भीर है । गागर में सागर ही भरा है। समुद्र का जल तो खारा है पर इस प्रथमानुयोग की गगरी में मौजूद सागर का जल अति मधुर सरस और शीतल, उत्तम औषध के समान है । जन्म, जरा मृत्युरूपी असाध्य रोग का भी निवारण करने वाला है, परम सुखकारी है। - ध्यान रखें कि जिस प्रकार भौतिक विज्ञान के साहित्य को शब्दमात्र से स्मरण कर लेने से काम नहीं चलता उसके वाच्यभूत पदार्थ का ज्ञान ब प्रयोग भी अपेक्षणीय है, उसी प्रकार जिनवाणी के शब्दों को पढ़ने सुनने मात्र से काम नहीं चलता, जीवन सुखकर नहीं बन सकता है। जीवन में उसके उपयोग की आवश्यकता है। जिस प्रकार आप धन कमाने में सब कुछ भूल जाते हैं। उसी प्रकार इन शास्त्रों का स्वाध्याय करते समय सब कुछ भूल जाय, याद रखें एकमात्र चेतना । तभी यह डगमगातो हुई नैया पार हो सकती है। जिनवाणी माता की गोद का प्राश्रय ही इस निकृष्ट काल में विकल्परूपी निशाचरों से हमें बचाने में समर्थ है। कहा भी है जान समान न मान जगत में सुख को कारण । इह परमामृत जन्म जरा मृत्यु रोग निवारण । इस 'श्रीपाल चरित्र' को पढ़ने से विपत्ति में धैर्य धारण करने के प्रति हमारा झकाव होता है तथा धर्म पुरुषार्थ ही हमारे जीवन विकास की कुन्जो है यह बात समझ में पाती है। अनन्य जिनभक्ति का मधुरफल देखकर मन के विचारों को एक नई दिशा प्राप्त होती है, सम्यग्दर्शन की पुष्टि होती है। शील, सदाचार ही जीवन का रस है, यह अनुभव में आता है । संसार, शरीर, भोगों में उदासीनता स्वतः होने लगती है । जिस प्रकार हवा के झोंकों से सघन बादल भी विघटित हो जाते हैं उसी प्रकार इस श्रीपाल चरित्र को पढ़ने से दुःख, शोक, संताप के बादल तत्काल विलीन हो जाते हैं । इस प्रकार मिथ्यात्व का उन्मूलन कर सम्यग्ज्ञान ज्योति को प्राप्त कराने वाला यह ग्रन्थ उपयोगी हो नहीं परमोपयोगी है। फिर वक्ता की प्रमाणता से वचनों में प्रमाणता आती है। इस ग्रन्थ की टीका करने वाली पूज्या माताजो ने जिनवाणी का दूब मन्थन और आलोटन किया है, आपका ज्ञान बहुत गम्भीर और सूक्ष्म है । कठिन से कठिन प्रश्नों का समाधान विद्वज्जन आपके पास सहज प्राप्त कर लेते हैं । आपने. समाधिसम्राट प्राचार्य श्री १०८ महावीरकीति जी महाराज के पास रह कर चारों अनुयोगों का गहन अध्ययन किया था और अापको परम सुयोग्य शिष्या समझ कर प्राचार्य श्री ने अपनी समाधि के समय गणिनी" पद प्रदान किया था । संघस्थ त्यागी पढ़ाने का काम मस्यरूप से पाप हो करती थीं और अभी मो वही ऋम है। आपके । हुए बहुत से मुनि और प्राचार्य प्राज अपनी देशना स भाजीवों का कल्याण कर रहे हैं । .XI Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रापका चातुर्मास सन् १९७७ में पारा (विहार) में हुआ था । उस समय में चन्दा बाईजी के आश्रम में हाईस्कूल में संस्कृत शिक्षिका थी। मेरा उस समय आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत तो था ही। किन्तु अध्ययन-अध्यापन और समाज सेवा का लक्ष्य था, त्याग, वैराग्य वा संयम के प्रति झुकाव नहीं था। आपके चातुर्मास से मुझे बहुत लाभ हुआ, संयम ही जीवन का सार हैं। यह बात समझ में आई। आपके निर्मल ज्ञान, चारित्र, वात्सल्य एवं परमोपकार को भावना को देखकर मैंने यह निश्चय कर लिया कि अब अपना सम्पूर्ण जीवन आपके चरणों में ही व्यतीत करूंगी वस, स्थल में त्यागपत्र देकर मैं संघ में रहने लगी और विद्याध्ययन करतो रही तथा प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द की तपोभूमि पोन्नुरमलै (तमिलनाडू) में मैंने और संघस्थ व. संध्याजो ने आप से ४-१०-१४ गुरुवार को क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण करली। रत्नत्रयरूपी महान् विभूति प्रदान करने वाली दीक्षा एवं शिक्षा गुरुपूज्या माताजी के गुणों का वर्णन हमारे लिए प्रशवय है, क्योंकि आपके गुण सागर के समान गम्भीर और आकाश के समान विस्तृत है। पारसमणि लोहे को सोना बनाता है पर पारस रूप नहीं बनाता है किन्तु पूज्या आर्यिका रत्न १०५ गणिनी विजयामती माताजो बह पारसमणि है जो लोहे को सोना ही नहीं किन्तु पारस बना देतो है । मैंने १२ वर्षों के सान्निध्य से यह अनुभव किया कि पूज्या माताजी अपने शिष्यों की तथा दूसरों की उन्नति देखकर सुनकर अत्यधिक प्रसर होती हैं । दीपक जिस प्रकार स्व पर दोनों को प्रकाशित करता है, चन्दन विषधरों के द्वारा इसे जाने पर भी सुमन्धी ही विखेरता है उसी प्रकार पूज्या माताजी का जीवन है। __ निवृत्ति मार्ग में रहकर अापने साहित्य सृजन का भी महान कार्य किया है । आपकी लेखनी से निःसृत अनेक पुस्तके हमारा ज्ञानवर्धन कर रही हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं(१) प्रात्मवैभव (२) आत्मानुभव (३) प्रात्मचिन्तन (४) तजोमान करो ध्यान (५) पुन. मिलन (६) शीतलनाथ पूजा विधान (७) सच्चा कवच (८) महीपाल चरित्र (8) तमिल तीर्थ दर्पण (१०) कन्दकन्द शतक(११प्रथमानयोग दीपिका (१२) अमतवाणी (१३) तत्व दर्शन प्रौर १४ वा ग्रन्थ है यह "श्रीसिद्धचक्रपूजातिशयप्राप्त श्रीपाल चरित्र-" सभी ग्रन्थों में आगमानुकूल प्रतिपादन मिलता है. सर्वत्र प्रामाणिक युक्तियाँ भी मौजूद हैं जो हमारे अन्दर सम्यग्ज्ञान को जागृत करने में पूर्ण सहायक हैं। अधिक क्या लिखूपापका तप: पुनीत जीवन विलक्षण है, आप रत्नत्रय को साकारमूर्ति स्वरूप हैं कितना गौरव कितनी गरिमा सांचे में ढला हो जीवन जैसे चाहे जितनी सीख लो. प्राध्यात्म की खुली किताब हो तुम । किस भांति करू मैं गुरु वन्दना शब्द परिमित और गुण अमित हैं। तव पद मम हिय में रहे सदा बस यही चाहती हैं निशदिन ।। लेखिका-क्ष १०५ जयप्रभा संघस्थ श्री १०५ गणिनी प्रायिकारत्न विजयामती माताजी । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रस्तुत चरित्र का कथा परिचय" द्रव्य या तत्त्व सनातन है । इनका स्वभाव, गुणधर्म सतत एकसा रहता है । कुछ तो अविवृत ही रहते हैं यथा धर्म, अधर्म, आकाश और काल । कुछ संयोगादि सम्बन्ध कर विकारी हो जाते हैं । मानब मस्तिष्क ही इनको जटिल गुत्थियों को सुलझाने में समर्थ होता है । ये मैत्री करने वाले द्रव्य हैं जीव और पुद्गल । इनका संयोगी व्यापार हैं संसार । संयोग का समाप्त हो जाना मिट जाना अर्थात् दोनों का सर्वथा पृथक्करण हो जाना हो है मुक्ति या मोक्ष । इस मोक्ष होने की कला सिखाने वाला है प्रथमानुयोग अर्थात् महापुरुषों का चरित्र । यद्यपि द्रव्यानुयोग 'द्रव्य' विश्लेषण का ठेकेदार है। किन्तु वह फिल्टर किये-शुद्ध किये गये द्रव्य को ही अपना विषय बनाता हैं । यहाँ इस विषय की चर्चा नहीं करना, अपितु उस कलाकार का परिज्ञान करना है जिससे प्रात्मा-अशुद्ध पर्यायों से निकल शुद्धावस्था में प्रा चमके । प्रस्तुत चरित्र इस कला का सफल निर्देशक है, स्वयं ही यह कला है । इसके नायक हैं श्री श्रीपालकोटीभट महाराज । इसमें तत्वार्थ सूत्र की भाँति दस (१०) परिच्छेद हैं । जिनमें क्रमश: जीवन विकास का मार्ग निदिष्ट है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों ही पुरुषार्थों का मणिकाञ्चन समन्वय है और अन्त में मुक्ति का प्रखण्ड अधिनादर है सप्र३ । पारको कि नवरसों का प्रदर्शन किस प्रकार शान्तरस में अबसान पाता है । श्रावक असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, सेवा इन छह कर्मों से उपार्जित पापराशि को किस प्रकार-देवपुजा, गृरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान द्वारा क्षणमात्र में भस्म कर डालता है। पढ़िये मोर स्वयं देखिये, जानिये और अनुभव करिये । स्वयं भोजन किये बिना भूख नहीं मिटती। यहाँ संक्षिप्त कथा परिचय दिया जाता है। यह कथा दस परिच्छेदों में निबद्ध है। प्रथम परिच्छेद में १६१ श्लोक हैं । जिनके द्वारा जम्बूद्वीपस्थ मगधदेश एवं राजगृह नगरी की शोभा का सुन्दर विवरण करते हुए यह दिखाया है कि वहाँ के सभी नरनारी धर्मात्मा शीलवन्त सदाचारी थे, षट् कर्मों को सतत् रुचिपूर्वक करते थे, जिनपूजा प्रतिष्ठा आदि के द्वारा जिनधर्म की प्रभावना में सदा तत्पर रहते थे। स्वर्ग से भी अधिक सुन्दर उस राजगृह नगरी में विपुलाचल पर्वत पर थी १००८ महावीर प्रभु का समवशरण आया और प्रभु को दिव्य ध्वनि से जीवतत्त्व को मुख्यकर समस्त तत्त्वों का एवं गुशास्थान मार्गणास्थान प्रादि का भी संक्षिप्त बान किया गया । पुनः श्रेणिक महाराज ने अनेक प्रश्न किये, जिनमें सिद्धचक्र विधान का लक्षण एवं विधि विधान भी पूछा और उसके उत्तर स्वरूप इस कथा का प्रारम्भ हुआ। दूसरे परिच्छेद में १३७ श्लोक हैं, श्रीपाल चरित्र का प्रारम्भ इसी परिच्छेद से होता है । इस परिच्छेद में अवन्ति देश एवं उज्जयिनी नगरी की विशिष्ट महिमा और राजा प्रजापाल, रानी सौभाग्यसुन्दरी की प्रथम पुश्री सुरसुन्दरी और द्वितीय पुत्रो मदनसुन्दरी (मैंना XII Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरी) का निर्देश है। सुरसुन्दरो ने किसी ब्राह्मण के पास विद्याध्ययन किया था अतः वह यज्ञ, याग, वेद, कोकशास्त्र - गोपुच्छ पूजादि विषयक मिथ्याशास्त्रों में, सोमपान, बलि, मांसभक्षरण, मन्त्र तन्त्रादि का विधान करने वाले ग्रन्थों में, मिध्याप्रपंचों में भी श्रद्धान करने लगी । मदनसुन्दरी ने यमधर मुनिराज के पास धर्म श्रवण किया था, विद्याध्ययन किया था। जिनेन्द्रोक्त - काव्य, छन्द, व्याकरण, धर्मसिद्धान्त आदि का गहन अध्ययन किया था तथा अष्टमूल गुणधारण कर श्रेष्ठ रीति से श्रावकधर्म का पालन करती थी। दोनों पुत्री विवाह योग्य हो गई थीं। पिता के पूछने पर बड़ी पुत्री सुरसुन्दरी ने कहा कि अहिक्षेत्र के अधिपति के पुत्र अरिदमन के साथ मेरा विवाह करो। किन्तु मदनसुन्दरी ने कहा कि हमारे कर्मानुसार जैसा पति मुझे मिलेगा, वह मान्य है आप जिसे उचित समझें, वही मुझे स्वीकार है ऐसा कहकर जिनेन्द्र प्रभु का पञ्चामृत अभिषेक कर गन्धोदक लेकर आई हुई मदनसुन्दरी चली गई। स्वकर्मानुसार जीव को सुखसम्पदा प्राप्त होती है यह बात सुनकर पिता क्रुद्ध हो उठे क्योंकि पिता ने मेरा पालन पोषण कर मुझे सुयोग्य बनाया है ऐसो बात मैनासुन्दरी ने नहीं कही। राजा प्रजापाल वनविहार को गया और सात सौ कुष्ठियों के साथ गलित कुष्ठ से पीडित श्रीपाल को देखा और क्रोधावेश में उसी कुष्ठी के साथ अपनी पुत्री मदनसुन्दरी का विवाह कर दिया। उस परिस्थिति में विलक्षण वर्य को धारण करने वाली अपनी माता, बहन को धैर्य बँधाती है और कर्मानुसार ही सब कुछ होता है ऐसा कहकर संतोष धारण करती है। वह सदा पति की सेवा में तत्पर रहती है । विवाह के बाद नगरवासियों में लोकनिन्दा का पात्र हुआ राजा प्रजापाल भी पश्चात्ताप करने लगा तथा नगर के निकट ही सात मंजिल के महल की व्यवस्था करदो । वहीं पर वे दम्पति एवं सात सौ कुष्ठी भी रहने लगे। पिता ने पुत्री को भरपूर धन सम्पदा भी दहेज में दी किन्तु अपनी भूल से अथवा अहंबुद्धि के कारण लोकनिन्दा का पात्र बन गया । इस प्रकार मदन सुन्दरी के विवाह का समुल्लेख करते हुए दूसरा परिच्छेद समाप्त हो गया । (तृतीय) परिच्छेद में यह बताया है कि मदनसुन्दरी एक आदर्श धमपाना के रूप में पति की उत्तम प्रकार सेवा करती है और पञ्चपरमेष्ठी की भक्ति के बल से तथा श्री सिद्धचक पूजा विधान के बल से पतिदेव एवं समस्त कुष्ठी वर्ग को निरोग कर देती है । वह मैनासुन्दरी पतिदेव को लेकर जिनालय में गई और जिनाभिषेक पूजा के अनन्तर यहाँ विराजमान सुगुप्ताचार्य मुनिराज को अपने अशुभकर्मोदय को बताकर दुःख से मुक्ति का उपाय पूछने लगी। तब मुनिराज ने कहा कि तुम सम्यक्त्व पूर्वक, श्री सिद्धचक्रव्रत का पालन करो, तुम्हारा संकट दूर होगा और पति निरोग होकर राज्य करेगा। पुनः मुनिराज ने श्रावक व्रत का उल्लेख किया । अष्टमूलगुण, पाँच अणव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रत, जलगालन विधि रात्रि मुक्ति त्याग व्रत, दान विधि, दान का फल, देव का स्वरूप, पूज्य पूजक, पूजा एवं पूजा का फल, बदक पालन और अन्त में सल्लेखना प्रादि का एवं श्री सिद्धचक्र व्रत की महिमा, विधि, स्तुति, जाप, यन्त्र निर्माण विधि का भी उल्लेख किया तथा कथित व्रत धारण कर और यथाविधि व्रत का पालन कर प्रभावना के साथ श्री सिद्धचक पूजा विधान कर जिनभक्ति परायणा मैना सुन्दरी ने उत्तम अभीष्ट फल को प्राप्त कर लिया अर्थात् आठवें दिन सब रोग रहिन हो गये । इन्द्र वा कामदेव के समान पति को देखकर मेनासुन्दरी बहुत प्रसन्न हुई । पुत्र के रोग रहित हो जाने का समाचार पाकर श्रीपाल महाराज की माता XIV Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाती है पुत्र श्रीपाल माता का विशेष स्वागत करता है और सास ज्ञात कर मदनसुन्दरी भी स्वागत कर पतिदेव का परिचय पूछती है । तब माता कहती है कि हे पुत्री ! तुम श्रीपाल को चम्पापुरो के सिंहसेन राजा और कमलावती महिषि का पुत्र जानो। पिता सिंहसेन का स्वर्गवास हो जाने पर, बालक श्रीपाल को राजगद्दी पर बैठा दिया गया किन्तु चाचा वीरदमन राज्य सम्हालता था, उसके मन में पाप आ गया और श्रीपाल को मारने का षड़यन्त्र रचने लगा, तब पुत्र की रक्षा के लिये मैं अपने बच्चे को लेकर वाराणसी भाई के घर में आ गई, वहाँ देवयोग से इसको कुष्ट रोग हो गया और परिकरों सहित यह उन में आ गया इस उपाख्यान को सुनकर मदनसुन्दरी को बहुत संतोष हुा । पुनः मदनसुन्दरी के पिता प्रजापाल जब पुत्री को कामदेव के समान सुन्दर रूपधारी पुरुष के साथ देखते हैं तब पुत्री के शील पर संदेह कर बैठते हैं तब मन्त्री ने यथार्थता बताकर संदेह दूर किया तदनन्तर पिता पुत्री मदनसुन्दरी एवं श्रीपाल की अनिशय प्रशंसा करते हैं और सिद्धचक्र की महिमा स्वीकार करते हैं तथा श्रीपाल को राज्य तना चाहते हैं किन्तु वह अस्वीकार कर देता है तब वह प्रजापाल राजा सन्तोष रूप परिणाम से और अधिक प्रभावित होता है और प्रेम से अनेक देश, कोष पुर, ग्राम गजादि से सम्मानित कर घर चला जाता है तथा सिद्धचक्र का प्रभाव कर्पूर की गंध के समान सर्वत्र फैल जाता है । इस तृतीय परिक्छेद में १८२ श्लोक हैं। चतुर्थ परिच्छेद में श्रीपाल का व्यापार हेतु निकल जाना तथा सिद्धचक्र की शपथ पूर्वक पत्नो एवं माता से १२ वर्ष में लौटकर आने का वादा करना, भगकच्छ नगर में पहंचना, घबल सेठ के जहाज अचल होना, ३२ लक्षणधारी श्रीपाल को ले जाना, सेठ द्वारा उस श्रीपाल का स्वागत, एवं श्रीपाल के स्पर्शमात्र से जहाज का चलना, पुन: सागर में वर्बरराज तस्करों का आक्रमण और भोपाल से उनका परास्त होना, उपहार में ७ जहाज पाना, रत्नद्वीप में यानों का पहुँचना एवं सहस्रकूट चैत्यालय का दरवाजा खोलना और विद्याधर कन्या मदनञ्जूषा से श्रीपाल का विवाह होने पर्यन्त कथा का उल्लेख है । इस चतुर्थ परिच्छेद में १६७ श्लोक हैं। पञ्चम परिच्छेद में रत्नहोप में व्यापार कर सेठ का प्रस्थान करना और मदनसञ्जूषा पर आसक्त होना, श्रीपाल को सागर में गिराना और देवों द्वारा सती के शील का रक्षण होना, सागर को हाथों से पार कर श्रीपाल का दलवर्तन पत्तन में पहुँचना, धनपाल राजा की पुत्री गुरामाला से विवाह होना एवं जहाजों का भी दलवर्तन पत्तन पहुँचना एवं राजदरबार में श्रीपाल को देखकर पुनः उसे मरवाने का षड्यन्त्र रचना, श्रीपाल को भाँड पुत्र सिद्ध करना किन्तु मदनमञ्जूषा के द्वारा भेद खोलना प्रादि का वर्णन है। तथा उत्तम क्षमा को धारण करने व वाले श्रीपाल के द्वारा सबको क्षमा करना. धवल सेठ को निमन्त्रण देना, और श्रीपाल पंखा झलना किन्त भय से धवल सेठ का स्वयं मर जाना और श्रीपाल की प्राज्ञानसार । र धवल सेठ के घर अपने ७ यान लेकर शेष वापिस भेजने पर्यन्त कथा का सम्यक् सम्मुलेख है । इस पञ्चम परिच्छेद में २०६ श्लोक हैं.। छटे परिच्छेद में भिन्न भिन्न राज्यों में जाकर चित्रलेखा आदि हजारों कन्याओं से विवाह करना, इसी प्रकरण में गीत नत्यादि करते हुए वाद्यवादन कर राजा का चितरजन XV Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना, कुण्डनपुर, काञ्चनपुर, कङ्कणपुर में समस्या पूरित करना हजारों कन्याओं से विवाह होना, बारहवे वर्ष का लगभग पुर्ण होना, मार्ग में ऊर्जयन्तगिरि पर भक्तिपूर्वक सिद्धचक्र बिधान व्रत करना, माना देशों पर विजय सेना संग्रह, प्रभुत्व स्थापन, उज्जयिनी में प्रिया महल में एकाकी प्रबेश, गुप्तरूप में अपनी माता और प्रिया की वार्ता सुनना तथा मैना का दीक्षा का निर्णय सुनना में आगया माँ कहकर किबाड़ खलबाना, माता का दर्शन, प्रिया मिलन, अपना वैभव दिखाना, मदनसुन्दरी को आठ हजार रानियों में शिरोमरिंग पट्टरानी बनाना तदनन्तर उज्जयिनी पर आक्रमण करना, दुत भेजना, कम्बल धारण कर श्वसुर को आदेश देना तथा आदेश स्वीकृत होने पर पुन: उस कटोर आदेश को रद्द कर हाथी पर चढ़कर वैभव के साथ मिलने का आदेश देना तथा आठ हजार रानियों के साथ राज्य वैभव के सुख भोगना आदि का वर्णन सम्यक् प्रकार किया गया है । इस षष्ठम परिच्छेद में १५० श्लोक हैं। सप्तम परिच्छेद में श्रीपाल महाराज के अन्तस्थल में पिता के वंश और नाम प्रकट करने की महत्वाकांक्षा का होना, चाचा को जीतने के लिए ससैन्य रानियों के साथ चम्पापुर की ओर प्रस्थान करना, मार्ग में अनेक राजाओं को वश में करना, अरिदमन की चम्पानगरी को घेरना, अरिदमन का कोप से लाल होना और युद्ध के लिए सुभटों के साथ प्रस्थान करना, किन्तु मन्त्रियों के कथनानुसार दोनों क मा युः हेग मारे द्वारा बीरदमन का बांघना वीरदमन का लज्जित होना तथा श्रीपाल के द्वारा चाचा वीरदमन से क्षमा याचना करना तथा वैराग्य को प्राप्त हुए वीरदमन का श्री ज्ञानसागर मुनीन्द्र के समीप दीक्षा लेना तथा श्रीपाल के पुण्य महिमा का प्रदर्शन, पितृ राज्य की प्राप्ति एवं राज्याभिषेक पर्यन्त कथानक का उल्लेख है । इस सप्तम परिच्छेद में १४ प्रलोक है। अष्टम परिच्छेद में---चम्पापुरी नगर के वन प्रदेश में अवधिज्ञान श्रुतसागर मुनिराज का प्रागमन, वनपाल के द्वारा समाचार प्राप्त कर श्रीपाल महाराज का प्रजा सहित मनि बन्दना के लिये गमन, ग्रानन्द भेरी बजना वहाँ जाकर गुरुवन्दना कर धर्म श्रवण करना। धर्म क्या है कितने प्रकार का है इत्यादि प्रश्नानसार मनिराज के द्वारा उभयधर्म का उपदेश १२ व्रत, ८ मूलगुण, कन्दमूल त्याग, रात्रि भोजन त्याग, आहार दान विधि, पात्र दाता के गुणों का विवेचन भगवान का पञ्चामत अभिषेक विधान, स्त्री प्रक्षाल विधान का विशद सत्य विश्लेषण, सल्लेखना, ग्यारह प्रतिमा का स्वरूप, भक्ष्याभक्ष्य विचार श्रावक व्रत पालन का फल अच्युत स्वर्ग तक की उपलब्धि एवं सम्यधर्म का माहात्म्य बताया है। नवम सर्ग-धर्म श्रवण कर श्रीपाल माहाराज के द्वारा अपने जीवन में उपस्थित विपतियों का कारण पूछना-कृष्ठो होना, बचपन में राज्य मिलना, फिर राज्य त्याग, मैंना से विवाह, सागर में गिरना आदि का हेतु एवं सबिस्तार पूर्वभव पूछना पुनः गुरुदेव द्वारा यथार्थ सकारण हेतु निरुपण करना इत्यादि, वर्णन इस परिच्छेद में है । आचार्य श्री ने बताया कि तुम श्रीपाल पूर्व भव में श्रीकान्त राजा थे और पट्टरानी मैनासुन्दरी तुम्हारी श्रीमती रानी थी। सुगुप्ताचार्य से गृहति व्रत को श्रीकान्त ने भी कुसंगति में पड़कर छोड़ दिया था उस त भङ्ग का फल राज्य त्याग है । सात सौ सुभटों के साथ अबधिज्ञानी मुनि को कुष्ठो कहने XVI Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से कोड हुअा अर्थात् तुम कुष्ठी हुए पुनः कुछ दिनों के बाद किसी तपस्वी मुनिराज को तालाब में डालकर फिर निकाल लेने से इस भव में तदनुसार तुम्हारा भी समुद्र में पतन हुना तेरकर समुद्र पार कर गये, मुनिराज को चाण्डाल कहने से तुम चाण्डाल बनाये गये । पुनः वह श्रीकान्त राजा श्रीमती रानी के द्वारा सम्बोधित करने पर बहुत पश्चाताप को प्राप्त हुआ तथा गुरु से प्रायश्चित ग्रहण कर सिद्धचक्र व्रत स्वीकार कर विधिवत व्रताचरण, कर उद्यापन कर, अन्त में समाधिमरणकर उत्तम शतारेन्द्र देव हुआ अर्थात ११वे स्वर्ग में उत्पन्न हुया और श्रीमती उसकी इन्द्राणी हई । वहाँ से च्युत होकर तुम दोनों श्रीपाल और मदनसुन्दी हुए। इस प्रकार मुनि निन्दा का दुष्पपरिणाम और बत पालने के महान् फल को भी इस परिच्छेद में दर्शाया है। दशम परिच्छेद में श्रीपाल महाराज के श्रेष्ठ राज्य शासन, राज्य वैभव, सिद्धचक्र पूजा विधान का वैशिष्ट्य तथा वन में सरोवर के तट पर पङ्कमग्न मृत गज को देखकर श्रीपाल का विरक्त होना-बारह भावनाओं का चिन्तन और महीपाल पुत्र को राज्य समर्पण, सुव्रताचार्य से दीक्षा ग्रहण, घोर तप, घातिया कर्मों का नाश कर केवली होना, गंधकुटी की रचना, दिव्यध्वनि कर्मनाश कर मोक्षप्राप्ति का सुन्दर विवेचन है । मदनसुन्दरी का भी दीक्षा लेकर तपकर, स्त्रीलिङ्ग का छेदन कर, बारहवें स्वर्ग में देवेन्द्र होना और एक भव धारण कर भविष्य में मोक्ष प्राप्त करने का भी सम्मुल्लेख है। XVIl Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय श्री चन्द्र प्रभु जिनेन्द्राय नमः परम्पूज्य समाधि सम्राट चारित्र चक्रवर्ती १०८ प्राचार्य श्री आदिसागरजी महाराज (अंकलीकर), समाधि सम्राट बहुभाषी तीर्थभक्त शिरोमणि १०५ आचार्य श्री महावीरकीतिजी महाराज, निमित्त ज्ञान शिरोमणि १०८ प्राचार्य श्री विमलसागरजी महाराज, चारित्र चडामणि अध्यात्म बालयोगी कठोर तपस्वी १०८ आचार्य श्री सन्मति सागरजी महाराज, वात्सल्य रत्नाकर बालब्रह्मचारी १०८ गणघराचार्य श्री कुन्थुसागरजी महाराज, धर्मप्रभाविका, विदुषीरत्न सम्यग्ज्ञान शिरोमणि १०५ गगनी प्रायिका श्री विजयामति माताजी एवं लोक के समस्त प्राचार्य, उपाध्याय, मूनि. प्रायिका, क्षुल्लक क्षुल्लिकानों तथा तपस्वी सभी जन साधुओं के चरण कमलों में भाव सहित नतमस्तक त्रिवार नमोस्तु, नमोस्तु करता या समिति द्वारा प्रकाशित इस अष्टम ग्रन्थ श्री सिद्धचक्र पूजातिशय प्राप्त श्रीपाल चरित्र के प्रकाशन के विषय में दो शब्द पाठकों से निवेदन करता हूँ। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध मन्दिरों में बहुत से ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका प्रकाशन समय पर नहीं हो सका था । ग्रन्थों में वरिंगत कथायें जो कि प्रामाणिक हैं उनके अध्ययन से हिन्दीभाषी क्षेत्र के जैन धर्मावलम्बी अभी तक वंचित रहे हैं। ग्रन्थ ताड़पत्रों पर संस्कृत अथवा वहाँ की स्थानीय भाषा में लिखे होने के कारण उनके प्रकाशन की ओर विशेष ध्यान अभी तक नहीं दिया गया था । परमपूज्य १०५ ग० प्रा० श्री विजयामती माताजी जो कई वर्षों से दक्षिण भारत के विभिन्न स्थलों पर बिहार कर रही हैं ने कठिन परिश्रम कर इन अप्रकाशित ग्रन्थों में चयन कर कुछ ग्रन्थों की हिन्दी टीका की । उनमें से कुछ मुख्य ग्रन्थ जसे महिपाल चरित्र, जिनदत्त चरित्र को हिन्दी टीका हमारी श्री दिगम्बर जैन बिजया ग्रन्थ प्रकाशन समिति, झोटवाडा जयपुर से प्रकाशित की गई। परमपूज्य माताजी को प्रेरणा मे दानदाताओं से प्रकाशन कार्य को सुलभ बनाने में आर्थिक सहायता निरलर मिलती रही है । इन्हीं अप्रकाशित ग्रन्थों में से प्रस्तुत ग्रन्थ श्री सिद्धचक्र पूजातिशय प्राप्त श्रीपाल चरित्र है, इसके लेखक परमपूज्य १०८ आचार्य श्री सकलकोतिजी महाराज हैं । यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखा हुआ था जिसका हिन्दी रूपान्तर परमपूज्य १०५ ग० आ० श्री विजयामति माताजी ने किया है । आपकी भाषा इतनी सरल एवं सुवोध है कि पढ़ने वाले के मन पर उसकी छाप छोड़े बिना नहीं रहती । यही कारण है कि पिछले ग्रन्थों की सर्वत्र अत्यधिक XVIII] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशंसा हुई तथा पूण्य प्राचार्यों, मुनियों एवं अनेक पाठकगणों से प्रशंसा पत्र हमारी समिति को प्राप्त होते रहे हैं । आपके द्वारा लिखित ग्रन्थों की इतनी मांग है कि सीमित प्राधिक साधनों के कारण हम मांग को पूर्ण नहीं कर पाते । समिति से प्रकाशित यह "अष्टम ग्रन्थ" "श्री सिद्धविधान पूजातिशय प्राप्त श्रीपाल चरित्र" की कथा भी पाठकगणों को प्रथमानुयोग की ज्ञानवद्धि में सफल होगा। इस चरित्र से नारी जीवन के शील, सदाचार, पतिभक्ति, सद्गहिणी और उसके कर्तव्य परायणता के साथ साथ वह किस प्रकार धर्म की छाया में अपने ऊपर पाये कष्टों के स्वेदबिन्दुओं को सुखा कर शान्ति प्राप्त करता है, का अनुभव हमें प्राप्त करायेगा। श्रीपाल महाराज द्वारा पूबभव में नियों की निन्दा एवं उन्हें दिये कष्टों के दष्परिणाम स्वरूप वर्तमान में भोगे कष्टों को पढ कर ऐसे मुनिनिन्दकों की आखें खोलने एवं उन्हें सदमार्ग पर लाने में यह ग्रन्थ प्रति सफल होगा, जो अपने पूर्व दुष्कर्मों के कारण अपने मार्म से भटक गये हैं, ऐसा मेरा विश्वास है जिस प्रकार इतिहास से भावी मार्ग बनाने में बुद्धिजनों को सहायता मिलती है उसी प्रकार इस कथा (इतिहास) से मुनिनिन्दक जो पाप की गठरी बांधने में अज्ञानतावश लगे हुए हैं उन्हें पुण्यमार्ग प्रशस्त करने के लिए यह ग्रन्थ अवश्य सार्थक होगा तथा वे इस निन्दनीय कुकृत्य को तिलांजलि देकर गुरुवाणी में विश्वास रखते हुए प्रायश्चित कर श्रीपाल महाराज की तरह मोक्ष मार्ग पर प्रारूढ होंगे। जो लोग बीते हुए काल के इतिहास से कुछ सीखना ही नहीं चाहते वे वास्तव में अपने मनुष्य जीवन का सफल उपयोग करने में समर्थ नहीं हो सकते। इस वहद ग्रन्थ के प्रकाशन कराने में जिन दानवीरों ने प्राथिक सहायता कर अपनी नश्वर लक्ष्मी को जनश्वर बना लिया है, अब र पुण्य लाभ प्राप्त किया है उन सभी महानुभावों को मैं समिति की ओर से धन्यवाद करता हूँ। ग्रन्थ के संस्कृत श्लोक के प्रफ संशोधन में हमें डा० श्री शीतलप्रसादजी, प्राचार्य जैन संस्कृत महाविद्यालय जयपुर ने अपने अत्यन्त व्यस्त समय में से समय निकाल कर जो सहयोग दिया है उसके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ, आशा करता हैं कि वे भविष्य में भी हमें इस प्रकार का सहयोग देकर जनसाहित्य प्रकाशन के कटिन कार्य को सरल बनाते रहेंगे। ग्रन्थ की विषय सामग्री मेरे अल्पज्ञान की तुलना में अत्यधिक ऊँची है, फिर भी मैंने गुरुओं के आशीर्वाद से बालप्रयास किया है, अतः साधुगण, विद्वजन व पाठकगणों से निवेदन है कि बे त्रुटियों के लिए क्षमा करते हुए उन्हें शुद्ध कर अध्ययन करने का कष्ट कर तथा अपने सुझाबों से ग्रन्थ अनुवादिका परमपूज्य १०५ गणिनी आर्यिका श्री विजयामती माताजी को एवं समिति को अवगत करावें ताकि आगामी ग्रन्थों में और अधिक सुधार लाने में हमें प्रापका सहयोग भी प्राप्त होता रहे। ग्रन्थ में प्रकाशित सभी चित्र एबम् मुखपृष्ठ कथा पर आधारित काल्पनिक हैं, इन चित्रों को कलात्मक रूप देने के लिए चित्रकार श्री बी. एन. शुक्ला का भी मैं धन्यवाद [XIX Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता हूं। चित्र विलम्ब से तैयार होने के कारण कुछ चित्र यथास्थान नहीं दिये जा सके हैं. परन्तु चित्रों के नीचे दिये सन्दर्भ से पाठकगणों को असुविधा नहीं होगी, फिर भी कोई विसंगति पाठकों के ध्यान में पाये तो उससे प्रकाशन समिति को अवश्य अवगत करायें । ग्रन्थ प्रकाशन में समिति के सभी कार्यकर्ताओं विशेषकर श्री नाथलाल जी. श्री हनुमान सहाय शर्मा, कु. विजया जैन का आभारी हूँ जिन्होंने मेरी अनुपस्थिति में प्रूफ संशोधन का कार्य करते हुए छपाई कार्य निरन्तर चालू रखकर ग्रन्थ को समय पर प्रकाशन करने में भारी सहयोग दिया है। ग्रन्थ की छपाई के लिए प्रिन्टिग सेन्टर जयपुर के संचालकों का भी धन्यवाद करता हूं जिन्होंने छपाई के मध्य आयी बाबाओं का सामना करते हुए छपाई कार्य सुन्दर एवं रूचि लेकर पूर्ण किया है। मुझे एवं श्री दिगम्बर जैन विजयाग्रन्थ प्रकाशन समिति के सभी कार्यकर्ताओं तथा जैन समाज कोटबाडा को अत्यन्त प्रसन्नता एवं गर्व है कि इस अप्रकाशित बृहद् ग्रन्थ का प्रकाशन परमपूज्य गणिनी आर्यिका, सम्यम्ज़ान शिरोमणि १०५ श्री विजयामती माताजी के दीक्षागुरु, कठोर तपस्वी सन्मार्ग दिवाकर निमित्तज्ञान शिरोमणि परम् पूज्य १०८ श्री विमलसागरजी महाराज की ७५वीं हीरक जन्म जयन्ती के उपलक्ष में प्रकाशित किया जा रहा है। हम सबका उनके चरण कमलों में वारम्बार श्रद्धा भक्ति सहित नमस्कार है तथा गुरुवर्य आचार्य श्री की शतायु होने की मंगल कामना करते हैं । पुनः लोक के समस्त पूज्य आचार्यों, साधुओं एवं साध्वीयों के कारणाविन्दों में त्रिवार नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु । गुरुभक्त महेन्द्र कुमार जैन "बडजात्या" सम्पादक xx Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्ध भ्यः ॐ रएमो अरह तारणम् श्री सरस्वतीदेव्यै नमः । श्री बाहबलि स्वामिने नमः । श्री परमगुरवे नमः । श्री १०८ प्राचार्य महावीर कीर्ती गरये नमः । श्री १०८ आचार्य विमल सागरगुरवे नमः । होम्बुजक्षेत्रस्थ श्री १००८ पार्श्वतीर्थकरेभ्यो नमोनमः । श्री श्रीपालचरित्रस्य हिन्दीभाषानुवादं मया (श्री १०५ ग्रा० गणिनीविजामत्या) प्रारम्यते अस्मिन् होम्बुजक्षेत्र ५-३-८६ विनाङ्क रविवासरे मध्यान्हकाले २ घण्टे समये फाल्गुनकृष्णाद्वादशीदिवसे । श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद तत्या श्रीमज्जिनाधीशं सुराधीशाचितक्रमम् । श्रीपालचरितं वक्ष्ये सिद्धचकार्चनोत्तमम् ॥ १ ॥ अन्वयार्थ--(सुराधीशाचितम्) इन्द्रों से पूजित (क्रमम्) चरण जिनके ऐसे (श्रीमत्) अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी से सहित (जिनाधीशम्) श्री जिनेन्द्र प्रभु को (नत्वा) नमस्कार कर (सिद्धचक्रार्चनोत्तमम्) सर्वोत्तम सिद्धचक्र पूजा से सहित (श्रीपालचरितम्) श्रीपालचरित नामक ग्रन्थ-पुराण को (अहं) मैं. श्री सकलकीति प्राचार्य (वक्ष्ये) कहूंगावर्णन' करूंगा। भावार्थ-इस श्लोक में श्री आचार्य सकलकीति जी महाराज ने प्रस्तुत ग्रन्थ को लिखने की प्रतिज्ञा की है। सर्वप्रथम पुर्वाचार्यपरम्परानुसार एवं प्रार्ष पद्धति के नियमानुसार अपने कार्य की निर्विधन समाप्ति के लिये उन्होंने इष्ट देव श्री जिनेन्द्र प्रभु को नमस्कार किया है । यहाँ किसी तीर्थकर विशेष का नाम न लेने से विदित होता है कि लेखक ने समस्त अर्हत् परमेष्ठियों को नमस्कार किया है तथा श्रीपाल चरित को लिखने का दृढ़ संकल्प किया है । श्लोक के प्रारम्भ में लिखित 'ॐ' शब्द से पञ्च-परमेष्ठियों को नमस्कार किया है यह सिद्ध होता है । आगे प्रत्येक तीर्थंकर का क्रमशः नाम लेकर स्तबन किया है जो प्राचार्य की विशिष्ट अर्हद्भक्ति को दर्शाता है ।। १ ।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद वन्दे श्री वृषभं देवं देवदेवैस्समचितम् । भुक्ति मुक्तिप्रदं नित्यं व्यक्तानन्त चतुष्टयम् ॥ २ ॥ श्रन्वयार्थ -- ( देवदेवं समचितम्) इन्द्रादि से सम्यक् प्रकार पूजित (भुक्ति मुक्तिप्रदम् ) सांसारिक सुख वैभव और चिरन्तन मुक्ति रूपी वैभव को देने वाले ( नित्यं व्यक्तानन्त चतुष्टयम् ) सदाकाल के लिये प्रकट हो चुके हैं अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन अनन्त सुख और अनन्तवीर्य जिनके ऐसे (श्री नृपभं) मोक्षमार्ग प्रवर्तक आदि पुरुष प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभ देव (देव) भगवान को ( बन्दे ) नमस्कार करता हूँ । भावार्थ – आचार्य श्री सकलकोति महाराज ने इस श्लोक में इस लोक और परलोक सम्बन्धी समस्त वैभव को प्रदान करने वाले तथा परम्परा से मुक्ति की प्राप्ति में कारण स्वरूप ऐसे यादि सृष्टा श्री प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान को नमस्कार किया । जिनके अनन्त चतुष्टय रूप गुण सदा के लिये प्रकट हो चुके हैं और जो समवशरण की अनुपम विभूति के साथ गन्धकुटी में विराजमान हैं ऐसे श्री आदिनाथ भगवान की स्तुति की है ॥ 2 ॥ अजितं जितकन्दर्प शंभवं सम्भवोज्झितम् । वन्देऽभिनन्दन भक्त्या त्रैलोक्य प्राणिशमंदम् ।। ३ ।। प्रन्वयार्थ - ( जितकन्दर्प) जीत लिया है काम विकार को जिन्होंने ऐसे श्री ( अजितं ) अजितनाथ भगवान को तथा ( सम्भावोज्झितम् ) उत्पत्ति-जन्म का जो नाश कर चुके हैं ऐसे ( शंभवम् ) श्री संभवनाथ तीर्थंकर को तथा (लोक्यप्राणिशर्मदम् ) तीनों लोक के समस्त प्राणियों को शान्ति सुख प्रदान करने वाले (अभिनन्दनं ) अभिनन्दननाथ भगवान को ( भक्त्यावन्दे ) मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ 1 भावार्थ-यहाँ पर आचार्य श्री ने अजितनाथ, संभवनाथ और अभिनन्दननाथ भगवान को नमस्कार किया है । जगत् विजयी काम विकार को भी जिन्होंने परास्त कर दिया है ऐसे श्री अजितनाथ भगवान हैं और जन्म तथा उससे सम्बद्ध बृद्धत्व और मरण के दुःखों से सदा के लिये जो मुक्त हो चुके हैं ऐसे श्री संभव नाथ भगवान हैं और तीन लोक के समस्त प्राणियों को हितकारी मार्गदर्शन करने वाले, जिनके पावन चरणकमलों में, मैं श्री सकलकोति मुनि, भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूँ इत्यादि वचनों से विशेष स्तुति की है। नमामि सुमत शान्ति भव्यानां सुमतिप्रदम् । प्रद्मप्रभजिनं वन्वे, पद्माभं पद्यलाञ्छनम् ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ -- ( भव्यानां) भव्य जीवों को ( शान्ति सुमतिप्रदम् ) शान्ति एवं श्रेष्ठ बुद्धि देने वाले ( सुमति) सुमतिनाथ भगवान को तथा ( पद्माभम् ) कमल के समान प्रता व की कान्ति के धारी ( पचलाञ्छनम् ) कमल के चिह्न से संयुक्त ( पद्मप्रभजनं ) छठवें श्री पद्मप्रभु भगवान को (बन्दे ) नमस्कार करता हूँ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] [ ३ भावार्थ का अर्थ है सुमति का अर्थ है दुहित्य से ही सुमति, सुश्रुत और प्रवधि-तीन ज्ञान के धारी होते हैं ऐसे यथानाम तथा गुण श्री सुमतिनाथ भगवान हैं)। जो जिसके पास होता है बही वह अन्य को दे सकता है इस लोकोक्ति के अनुसार श्री सुमतिनाथ प्रभु भी समस्त भव्य प्राणियों को श्र ेष्ठ बुद्धि-सम्यक् ज्ञान प्रदान करते हैं । यहाँ श्राचार्य श्री सम्यक्ज्ञान को अभिलाषा से सुमति प्रभु को नमस्कार करते हैं पुनः जिनके शरीर की कान्ति प्ररूणोदय- सूर्य या कमल समान है उनको भी अपने कार्य के उदयार्थ नमस्कार करते हैं । अभिप्राय यह कि श्री जिनेन्द्र भगवान को स्मरण, नमन करने से सद्बोध और निर्विघ्न कार्य की सिद्धि होती है ॥ ४ ॥ श्री सुपार्श्व जिनाधीशं वन्देऽहं हरितप्रभम् । जितचन्द्रप्रभं चन्द्रप्रभं भक्त्या नमाम्यहम् ॥ ५ ॥ अन्वयार्थ - - - ( हरितप्रभं ) हरित वर्ण की कान्ति वाले ( जिनाधीशं ) जिनेन्द्र (श्री सुपार्श्व ) श्री सुपाएवं प्रभु को ( अहं वन्दे ) मैं नमस्कार करता हूँ। (जितचन्द्रप्रभं ) चन्द्रमा की कान्ति को जो जोत चुके हैं ऐसे ( चन्द्रप्रभं ) श्री चन्द्रप्रभु भगवान को ( अदम् भक्त्या नमामि ) मैं भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूँ । मात्रार्थं—–सुपार्श्वे तीर्थंकर का नाम गुणानुकूल है । 'सु' का अर्थ है सुकर, हितकर, कल्याणप्रद और पार्श्व' शब्द का अर्थ है सामीप्य साहचर्य अथवा सानिध्य । इस प्रकार जिनका सानिध्य समस्त जीवों के लिये सुखकारी है ऐसे श्री सुपार्श्वप्रभु को आत्मसुख-प्रतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति के लिये प्राचार्य श्री नमस्कार करते हैं। तदनन्तर अद्वितीय कान्ति के धारी चन्द्रप्रभु भगवान को प्राचार्य श्री नमस्कार करते हैं। श्री चन्द्रप्रभु चन्द्रमा से भी अधिक शीतल और सुखप्रद हैं। ज्योतिर्लोक का अधिपति जो चन्द्रमा है उसका विमान चन्द्रकान्तमणिमय होने से यद्यपि तापनाशक और सुखकर है पर वह मात्र शरीरदाह का कथञ्चित् निवारण करता है, कर्मों से संतप्त जीवों के अन्तस्ताप वा दुःख का निवारण करने की क्षमता उसमें नहीं है और आप श्री चन्द्रप्रभु के दर्शन से अन्तरङ्ग श्रीर बहिरङ्ग समस्त प्रकार के संताप स्वतः दूर हो जाते हैं । अभिप्राय यह है कि उद्योत नामकर्म के उदय से चन्द्रविमान रूप पृथ्वीकायिक जीव की जो अल्प कान्ति है उसका प्रापको अनुपम दिव्य कान्ति के समक्ष कोई स्थान नहीं है । इस प्रकार स्तुति करते हुए अद्वितीय कान्ति और गुणों के धारी श्री चन्द्रप्रभु तीर्थकर को आचार्य श्री नमस्कार करते हैं ॥ ५ ॥ पुष्पदन्तं लसत्कुन्दपुष्पवत् कान्तिसंयुतम् । शीतलं श्री जिनं वन्दे शीतलोत्तम वाग्भरम् ॥ ६ ॥ श्रन्वयार्थ -- (कुन्दपुष्पवत्) कुन्दपुष्प के समान ( कान्तिसंयुतम् ) कान्ति में संयुक्त ( लसत् ) शोभायमान ( पुष्पदन्तं ) श्री पुष्पदन्त तीर्थंकर को तथा ( शीतलोत्तमवाग्भरम् ) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद शीतलोत्तम दिव्यध्वनि को धारण करने वाले (श्री शीतलं जिन) श्री शीतलनाथ प्रभु को (बन्दे) मैं नमस्कार करता हूँ। __ भावार्थ-कुन्दपुष्प का वर्ण श्वेत-धवल होता है और श्री पुष्पदन्त भगवान भी उत्तम धवल कीति और गुणों के धारी थे तथा शरीर का वर्ण भी श्वेत कान्ति से युक्त था अतः प्राचार्य श्री ने स्तुति करते समय आपको कुन्दपुष्पवत बताया है । पुनः श्री शीतलनाथ भगवान की स्तुति करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि आपकी वाणी सर्वाधिक शीतलता और शान्ति प्रदान करने वाली है। यद्यपि लोक में बहुत से शीतल पदार्थ हैं लेकिन वे किसी निश्चित समय में और निश्चित पदार्थ को ही शीतल बनाते हैं और आपकी वाणी प्राणीमात्र को सुख शान्ति प्रदान करने वाली हैं अर्थात् सर्वभूतहितषिरणी है । इस प्रकार स्तुति करते हुए उन गुरणों को प्राप्ति के लिये आचार्य श्री नवें और दसवें तीर्थंकर श्री पुष्पदन्त और श्री शीतलनाथ प्रभु को भी नमस्कार करते हैं ।। ६ ।। श्रेयोजिनं जगच्छ यस्कारणं भवतारणम् । वासुपूज्यं जगत्पूज्यं पनरागमणिप्रभम् ।। ७ ।। निर्मलं विमलाधीशं संस्तुवे शर्मदायकम् ।। अनन्तानन्त समात्रमानन्हं जिलदगम् ।।८।। - अन्वयार्थ--(जगच्छ यस्कारग) जगत् के लिये श्रेयभूत जो मोक्ष है उसकी प्राप्ति में समर्थ कारण स्वरूप तथा (भवतारणं कारग) संसार समुद्र को पार करने में कारणभूत (श्रेयोजिन) श्री श्रेयांसनाथ भगवान को तथा (पद्यरागमणिप्रभम्) पद्यरागमरिण के समान कान्ति वाले (जगत्पूज्यं) तीन लोक के द्वारा पूज्य ऐसे (वासुपूज्यं) वासुपुज्य भगवान को तथा (निर्मल) मोह रूपीमल से रहित (शर्मदायकम्') उत्तम सुख को देने वाले (विमलाधीशं) विमलनाथ भगवान को तथा (अनन्तानन्त सज्ञान) अनन्तानन्त पर्यायों सहित अनन्त पदार्थों को जानने वाले (अदभुतम् ) अलौकिक गुरगों के धारी (अनन्तं) अनन्तनाथ भगवान को (संस्तुबे) स्तुत करता हूँ अर्थात् उनको मैं नमस्कार करता हूँ। . भावार्थ-यहाँ प्राचार्य श्री श्रेयांस नाथ, वासुपूज्य, बिमलनाथ और अनन्तनाथ भगवान को भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। धातिया कर्मों को पागम में मल कहा है क्योंकि ये सभी पाप रूप हैं जीव के गुणों का घात करने वाले हैं । ऐसे धाति कर्म रूपीमल का जिन्होंने समूल नाश कर दिया है ऐसे श्री विमल नाथ भगवान हैं । पुन: अनन्त दोषों का स्थान जो मोह वा अज्ञान उसको मेद विज्ञान के बल से जिन्होंने नष्ट कर दिया है ऐसे श्री अनन्तनाथ भगवान हैं । जिनको आत्म अभ्युदय के लिये प्राचार्य श्री नमस्कार करते हैं ।। ७ ।। ८ ॥ धर्म सवधर्मतीर्थेशं मुक्तिदं संभजाम्यहम् ।। शान्तीशं शान्तिदं वन्दे शान्तदान्तस्समाश्रितम् ।।६। । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] अन्वयार्थ--(सद्धर्म तीर्थेशं) उत्तम धर्म तीर्थ के प्रवर्तक (मुक्तिद) मुक्ति को देने बाले (धर्म) धर्मनाथ प्रभु को (अहम् ) मैं (संभजामि) स्तुत करता हूँ अर्थात् उनका कीर्तन स्तवन करता हूँ । पुन: (शान्तदान्तै:) शान्त और दान्त पुरुषों के द्वारा (समाश्रितं) सेवित ऐसे (शान्तिदं) परमशान्ति को प्रदान करने वाले (शान्तीशं) शान्तिनाथ भगवान को (वन्दे) नमस्कार करता हूँ। भावार्थ-जिनकी कषायें शान्त हो चुकी है वे शान्त हैं और जो इन्द्रियों का दमन कर चुके हैं बे दान्त हैं ऐसे शान्त और दान्त गणधरादि मुनि पुङ्गवों के द्वारा भी जो सेवित हैं उन श्री गाविशु की स्तुति यहाँ कार्य परमेष्ठी अपनी यात्मशान्ति के लिये करते हैं ।।६।। कुन्थु कुन्थ्यादि जन्तूनां रक्षणे चतुरोत्तमम् । अरप्रभु कृतानन्दं नमामि गुणनायकम् ॥ १० ॥ अन्वयार्थ--जो (कुन्थ्वादिजन्तूनां) कुन्थु आदि जीवों का (रक्षणे) रक्षण करने में (चतुरोत्तमम्) परभ कुशल हैं अर्थात् सावधान हैं ऐसे (कुन्थु) कुन्थुनाथ को तथा (कृतानन्द) अानन्द अर्थात् अनन्त सुख को जो प्राप्त कर चुके हैं और (गुणनायक) गुणों के अभिनेता अधिष्ठाता हैं ऐसे श्री (अरप्रभु) अरनाथ भगवान को (नमामि) मैं नमस्कार करता हूँ।। भावार्य--प्राणीमात्र का रक्षण और हितकरने वाले ऐसे श्री कुन्धुनाथ भगवान तथा रत्नत्रयादि गुणों के अधिष्ठाता अनन्त सुख के धारी श्री अरनाथ भगवान को आचार्य श्री अक्षय सुख की प्राप्ति के लिये नमस्कार करते हैं ॥ १० ॥ मल्लि सन्मल्लिकादामसुगन्धोत्तमविग्रहम् । इन्द्रनीलप्रभं वन्दे सुब्रतं मुनि सुवतम् ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ--(सन्मग्निकादाम-) मल्लि पुष्प की माला के समान (सुगन्धोत्तमविग्रहम् ) सुगन्धित उत्तम शरीर के धारी (मल्लिं) श्री मल्लिनाथ भगवान को तथा (सुव्रतं) थंष्ठ अहिंसादि महावतों के धारी (इन्द्रनीलप्नभं) इन्द्रनीलमरिण के समान कान्ति के धारी [मुनिसुव्रतं श्री मुनिसुव्रतनाथ भगवान को [वन्दे] मैं नमस्कार करता हूँ। भावार्थ-निर्मल प्रात्म- परिणामों का प्रभाव जड़ शरीर पर भी पड़ता है। विशुद्ध प्रात्मपरिणामों से शरीर भी सुगन्धित और कान्तिमय हो जाता है । तीर्थंकरों का शरीर जन्म से ही सुगन्धित और कान्तियुक्त होता है क्योंकि षोडश कारण भावना तथा तीव्र परोप कार की भावना से वे युक्त होते हैं । बेला के फूलों की माला के समान सुगन्धित उत्तम शरीर को धारण करने वाले श्री मल्लिनाथ भगवान तथा अहिंसादि उत्तम व्रतों के अधिष्ठाता, इन्द्रनील मणि के समान कान्तिमान शरीर के धारी मुनिसुव्रत नाथ भगवान को आचार्य श्री उन गुणों को प्राप्ति के लिये नमस्कार करते हैं ।। ११ ।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद नमि तीर्थश्वरं वन्दे केवलज्ञानभासुरम् । लोकालोक स्वभावाद्युद्योतनकदिवाकरम् ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ— (केवल ज्ञान भासुरम्) केवल ज्ञान रूपी ज्योति से प्रकाशमान (लोकालोक स्वभाबादि) लोक और अलोक के स्वरूप प्रादि को (उद्योतन) प्रकाशित करने में (एकदिवाकरम्) एकमात्र-अद्वितीय सूर्य स्वरूप ऐसे (नमितीर्थेश्वरं वन्दे) नमिनाथ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। भावार्थ-ज्ञानावरण कर्म का समूल नाश कर देने से निरावरण केवल झान जिनको प्राप्त हो चुका है तथा क्षायिक केवल ज्ञान रूपी सूर्य के तेज से जो लोका-लोक को प्रकाशित करने में सक्षम हैं ऐसे श्री नमिनाथ भगवान को, निरावरण शान की प्राप्ति के लिये प्राचार्य श्रो नमस्कार करते हैं ।।१२।। नेमि धर्मरथेमि वन्दे प्रावृड्चनप्रभम् । पार्श्वनाथं नमाम्युच्चः स्वकान्त्याफवलीनिभम् ॥ १३ ॥ अन्वयार्थ--(प्रावृघनप्रभम्) वर्षाकालीन बादल के समान कान्तिवाले (धर्मरोनेमि) धर्मरूपी रथ के धुरा समान ऐसे (नेमि) श्री नेमिनाथ भगवान को (वन्दे) में नमस्कार करता हूँ तथा (स्वकारया) अपनो कान्ति से (कदली निभम) केला के समान वर्ण वाले ऐसे (पार्श्वनाथं) श्री पार्श्व प्रभु को (उच्चैः) विशेष भक्ति से (नमामि) नमस्कार करता हूँ। मावार्थ- वर्षाकालीन सघन बादल के समान गहरे नीलवर्ण के शरीर वाले तथा कदली पत्र के समान हरितवर्ण वाले शरीर के धारी श्री पार्श्व प्रभु को प्राचार्य श्री भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। संस्तुवे सन्मति देवं भव्यानां सन्मतिप्रदम् । यं वदन्ति बुधा बोरं महावीरादिनामकम् ॥ १४ ।। अन्ययार्थ--(यं) जिनको (बुधा) बुधजन विद्वत् जन (वीरंमहावीरादिनामकम्) वीर, अतिवीर, महावीर और वर्धमान आदि नाम से (वदन्ति) सम्बोधित करते हैं ऐसे (भव्यानां सन्मतिप्रदं) भव्य जीवों को तत्व का सम्यक् अवबोध कराने वाले, उत्तम बुद्धि को देने वाले (सन्मति देवं) अन्तिम तीर्थंकर सन्मति प्रभु का (संस्तुवे) संस्तवन करता हूँ अथवा नमस्कार करता हूँ। भावार्थ----समस्त भव्य जीवों को तत्वों का सम्यक् अवबोध कराने वाले ऐसे केवल ज्ञानादि श्रष्ठ विभूति के धारी वर्षमान भगवान को प्राचार्य श्री उन गुणों की प्राप्ति के लिये नमस्कार करते हैं ।।१४।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद | एते तीर्थकराधीशास्सर्वदेवेन्द्र वन्दिताः। सार्द्ध द्वीप द्वयोत्पन्नास्सन्तु मे शान्तये जिनाः ॥ १५ ॥ अन्वयार्थ--(सर्वदेवेन्द्रवन्दिताः) सम्पूर्ण देवेन्द्रों के द्वारा वन्दित (एते तीर्थंकराधीशा) तीन लोक के अधिपति ये सभी तीर्थकर तथा (सार्द्ध द्वीपद्धयोत्पन्नाः जिनाः) ढाई द्वीप में उत्पन्न जिन-अर्हन्तदेव (मे शान्तये) हमारी शान्ति के लिये (सन्तु) होवें। भावार्थ-जिन भक्ति से आत्मणान्ति तथा अनन्त सुख की प्राप्ति होती है ऐसा उपर्युक्त श्लोक से विदित होता है । योग्य वाह्य निमित्त प्रात्मशुद्धि में सहकारी हैं, सहायक हैं तभी तो करणानुयोग में ऐसा उल्लेख है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति केवली थु त केवली के पादमूल में ही कर्मभूमिज मनुष्य को होती है । इस तथ्य को दृष्टि में रखकर ग्राचार्य प्रस्तुत श्लोक में कहते हैं कि ये सभी जिन या अर्हन्त प्रभु मेरी प्रात्मशान्ति के लिये होवें ॥१५॥ इसके बाद आचार्य श्री सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करते हैं दुष्टाष्टकर्म विनिमुक्तान् सिद्धान् सिद्धिप्रदांश्चतान् । श्रलोक्य शिखरारूढ़ान् संस्तुवे त्रिजगन्नुतान् ॥ १६ ॥ प्रन्ययार्थ- (त्रिजगन्नुतान्) तीनों लोकों के द्वारा वन्दित (त्रैलोक्यशिखरारूढान्) तीन लोक के शिखर पर विराजमान (दुष्टाप्टकर्म विनिर्मुक्तान्) दुःख कर अष्टकर्म बन्धन से मुक्त (सिद्धिप्रदान् च) और सिद्धि को देने वाले (तान् सिद्धान) उन सिद्धों को (संस्तुवे) संस्तुत करता हूँ अर्थात् मैं उनकी स्तुति करता हूँ। भवार्थ--जो अष्टकर्म रूपी दुष्ट शत्रुओं का निर्मूल विनाश कर चुके हैं और तनुयातवलय में अर्थात् लोक के शिखर पर विराजमान हैं । चक्रवर्ती इन्द्रादि सभी के द्वारा सदा पूजित होते हैं जिनका ध्यान बा स्मरण करने से भव्य जीवों को शीघ्र मोक्ष पद की प्राप्ति हो जाती है ऐसे श्री सिद्ध परमेष्ठी को आचार्य श्री प्रात्मशक्ति की अभिव्यक्ति के लिये नमस्कार करते हैं ।।१६॥ प्रागे प्राचार्य श्री केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिये जिनवाणी को नमस्कार करते हैं श्री सर्वज्ञमुखाम्भोज समुत्पन्नां सरस्वतीम् । भुक्तिमुक्तिप्रदा बन्दे संदेहहरणे सतीम् ॥ १७ ।। या सती सर्वजन्तूनां नेत्रप्रायो हि भारती। भानुनेव मनोध्यान्तनाशिनी तत्त्वभासिनी ॥ १८ ॥ अन्वयार्थ-(भानुना इन्त्र ) सूर्य के समान प्रकाशमान (मनोध्वान्तनाणिनी) चित्त में व्याप्त मोह वा अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाली (तत्व भासिनो) तत्त्व का प्रकाशन Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5] | श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद करने वाली (संदेह हरणे सतीम् ) तत्त्व विभ्रम रूप संदेह का निवारण करने में समर्थ (भुक्तिमुक्तिप्रदां ) भक्ति और मुक्ति को देने वाली ( श्रीसर्वज्ञ मुखाम्भोजसमुत्पन्नां ) श्री सर्वज्ञदेव मुख कमल से समुत्पन्न ( भारती - सरस्वती ) भारती सरस्वती को (नेत्रप्रायो ) जो तत्त्वदर्शन के लिये चक्षु के समान हैं ( सतोम् ) उन जिनवाणी माँ सरस्वती को ( वन्दे ) नमस्कार करता हूँ । मावार्थ - श्री जिनेन्द्र प्रभु के मुख कमल से समुत्पन्न को सरस्वती भारती हैं वह माता के समान भव्य जीवों का पालन पोषरण रक्षण करने वाली है । तत्त्व विभ्रम का निवा रकर, संदेह जन्य कष्ट को दूर कर तत्त्व निश्चिति वा श्रद्धा को सुदृढ़ करने वाली, उस जिनवाणी माता की आज्ञानुसार चलने वाले भव्य जीवों का लौकिक और पारलौकिक जीवन सुखमय होता है । तथा शीघ्र ही मोक्ष लक्ष्मी को वह प्राप्त कर लेता है ऐसी जिनवाणी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ | || १७ || १८॥ आगे गुरु वन्दना करते हुए प्राचार्य लिखते हैं साधवः । जयन्तु गुरवो नित्यं सूरिपाठक ये सदा भव्यजन्तूनां संसाराम्बुधि सेतवः ।। १६ ।। श्रन्वयार्थ ----(सदा ) सदाकाल-सर्वदा ( ये ) जो ( भव्यजन्तूनां ) भव्य जीवों को ( संसाराम्बुधिसेतवः ) संसार समुद्र को पार करने के लिए पुल के समान हैं ऐसे ( सूरिपाठकसाधवः) प्राचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी ( नित्यं ) सदा ( जयन्तु ) जयवन्त होवें । यहां आशीर्वचन रूप स्तुति है । भावार्थ - निरन्तर ज्ञान, व्यान तप में लीन रहने वाले जो सम्पूर्ण वाह्य अभ्यंतर परिग्रह के त्यागी दिगम्बर गुरु हैं अथवा आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी हैं, उनके वन मोक्ष की प्राप्ति में उसी प्रकार साधक हैं जैसे समुद्र को पार करने में पुल-सेतु साधक होता है। गुरु के वचनानुसार प्रवृत्ति करने वाला निश्चय से मोक्ष को प्राप्त करता है। उस उत्तम मुक्ति की प्राप्ति के लिये श्राचार्य श्री " जयन्तु गुरवो" शब्दों में स्तुति करते हुए गुरु भक्ति को प्रकट करते हैं ।। १६ ।। अब अपने कार्य की निर्विध्न सिद्धि के लिये विशेष रूप से गुरुजनों का स्मरण करते हैं -- कुन्दकुन्दाख्यविद्यादिनन्दिश्रीमल्लिभूषण | श्रुताविसागरादीनां गुरूणां संस्मराम्यहम् ॥ २० ॥ अन्वयार्थ - ( कुन्दकुन्दारूय) श्री कुन्दकुन्दा नामक आचार्य तथा ( विद्यानन्दश्रीमल्लि भूषण) विद्यानन्द और श्रीमल्लिभूषण का तथा ( श्रुतसागरादीनां गुरुगां ) श्रुतसागरादि गुरुयों का ( श्रहम् संस्मरामि ) मैं स्मरण करता हूँ । भावार्थ - गुरुभक्ति की पवित्र भावना से प्रेरित हुए प्राचार्य श्री, यहाँ पुनः श्री Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद [६ कुन्दकुन्द स्वामी, श्री विद्यानन्द स्वामी, श्री मल्लिभूषण और श्रुतसागर आदि प्राचार्यों का स्मरण करते हैं जिससे ग्रन्थ रचना का कार्य निर्विधन समाप्त हो सके ।। २० ।। पञ्चमगति मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा रखते हुए प्राचार्य पुन: गुरुजनों का आशीर्वाद चाहते हुए लिखते हैं - । पञ्चते परमानन्ददायिनः परमेष्ठिनः । सन्तु नः भव्यजीवानां पञ्चमीगति दायकः ॥ २१ ॥ अन्वयार्थ--(परमानन्ददायिनः) परम् अानन्द को देने वाले (एते) ये (पञ्चपरमेष्ठिनः) पांचों परमेष्ठी (न: भव्यजीवानां) हम भजोत्रों को (पञ्चमगतिदायकाः) पञ्चमगति मोक्ष को देने वाले (सन्तु) हो । भावार्थ-पुनः सामान्य रूप से पञ्चपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि आप सभी निराशुल स्थाई सुख को प्रदान करने वाले हैं आपकी स्तुति करने से मुझे भी वह निराकुल स्थाई सुख प्राप्त होगा तथा श्रेष्ठतम जो पञ्चम मोक्षगति है वह भी परम्परा से प्राप्त हो सकेगी ॥२१॥ ___ अब पवित्र, मुखद, मनोहारी, श्रीपाल चरित्र को लिखने की प्रतिज्ञा करते हुए प्राचार्य कहते हैं ए तेषां शर्म हेतूनां चरणस्तुतिमङ्गलम् । कृत्वाहं तुच्छबुद्ध्यापि श्रीपाल चरितं ब्रुवे ॥ २२ ॥ अन्ययार्य--- शर्म हेतूनां) परमशान्ति कर मोक्ष की प्राप्ति में हेतुभूत (एतेषां) इन पञ्चपरमेष्ठियों के (मङ्गल) मङ्गलमय (चरणस्तुति) चरण स्तुति को (कृत्वा) करके (तुच्छबुद्ध्यापि) तुच्छ बुद्धि वाला होने पर भी (ोपालचरित) श्रीपाल चरित्र को (ब बे) मैं कहता हूँ। भावार्थ--यहाँ पञ्चपरमेष्ठी की स्तुति भक्ति पूर्वक प्राचार्य श्री श्रीपाल चरित्र' को लिखने का संकल्प करते हैं ।। २२॥ चरित्रं सर्वदा सर्वरोग संतापनाशनम् । सिद्धचक्रवतोपेतं सिद्धयौषधिमिवोत्तमम् ॥ २३ ॥ अन्वयार्थ--(सिद्धि औषधिम् इव उत्तमम्) सिद्ध-सफल उत्तम औषध के समान (सिद्ध चक्रवतोपेतम्) सिद्धचक्रवत अर्थात् अष्टाह्निका व्रत है उससे युक्त (चरित्रं) श्रीपाल का यह चरित्र (सर्वदा) सदाकाल (सर्वरोगसंताप-नाशनम् ) सर्वरोग और संताप को नाश करने वाला होवे। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद भावार्थ-समस्त जीवों के प्रति हित को पवित्र भावना से प्रेरित होकर प्राचार्य श्री यहाँ श्रीपाल चरित्र को लिखते हुए यह बता रहे हैं कि यह चरित्र उत्तम औषध के समान है । लौकिक और यात्मिक दोनों प्रकार के सुख को प्रदान करने वाला है ।। २३ ।। पुन: ग्रन्थ की प्रामाणिकता की सिद्धि के लिये प्राचार्य कहते हैं कि प्राचार्य परम्परा से प्राप्त कथा को ही मैं लिख रहा हूँ यह कोई कल्पित मनगढन्त कथा नहीं है यत्पुरा चरितं पूर्व सूरिभिः श्रुतसागरः । तदहं चापि वक्ष्यामि किमाश्चर्यमतः परम् ॥ २४ ॥ अन्वयार्थ-(पूर्व) पहले (यत् पुराचरित) जो श्रेष्ठ चरित्र (श्रुतसागर-सूरिभिः) श्रुतसागर आचार्य के द्वारा कहा गया था (तदहं चापि) उसको मैं भी (वक्ष्यामि) कहूँगा (अतः परम) इससे बड़ा (आश्चर्यं किम् ) आश्चर्य क्या हो सकता है ? भावार्थ-यह धीपाल चरित्र मन गढन्त कपोलकल्पित नहीं है, अपितु पूर्व प्राचार्य परम्परा से प्राप्त श्री श्रुतसागर प्राचार्य के द्वारा कथित यथार्थ और प्रामाणिक है, पवित्र और पाप नाशक है। पुन: प्राचार्य कहते हैं कि मैं अल्प बुद्धिवाला हूँ, मुझमें यद्यपि उस महान् चरित को लिखने की क्षमता नहीं है फिर भी मैंने उस कार्य को करने का जो साहस किया है वह सर्वाधिक आश्चर्यकारी है। इस प्रकार यहाँ प्राचार्य श्री के द्वारा ग्रन्थ की प्रमाणता और अपनी विनम्रता और निरहंकारता भी प्रकट की गई है ।। २४ ।। यस्य श्रवणमात्रेण चरितेन विशेषतः । पापराशि क्षयं याति भास्करेणेव दुस्तमः ।। २५ ॥ अन्वयार्थ- (भास्करेग इव) सूर्य के समान भामुरगय (बस्य चरितेन-श्रवणमाओण) जिस चरित्र को सुननेमात्र से (दुस्तमः) गहरे अन्धकार रूप (पापराशि) पाप समूह (विशेषतः क्षयं याति) विशेषतः अर्थात् पूर्णरूप से नष्ट हो जाता है (शेष वाक्य-ऐसे उस चरित्र को मैं कहूँगा] भावार्थ--जिस प्रकार सूर्य के द्वारा रात्रि का गहरा अन्धकार भी तत्काल नष्ट कर दिया जाता है उसी प्रकार इस पवित्र चारित्र को सुनने मात्र से पाप समुह क्षय को प्राप्त हो जाता है। यस्यप्रभावतो ननं कुष्ठादि व्याधिसञ्चयः । प्रयाति विलयं सद्यो वायुनावा घनावलिः ॥ २६॥ अन्वयार्थ-(वायुना वा धनावलि) बायु वेग से जैसे मेघमाला (विलयं प्रयाति) निर्मूल नष्ट हो जाती है उसी प्रकार (यस्य) जिसके अर्थात सिद्धचक्र व्रत से युक्त चरित्र के Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पथम परिच्छेद] [११ (प्रभावतो) प्रभाव से (कुष्ठादि व्याधि) कुष्ठ प्रादि व्याधियों का (सञ्चयः) समूह (विलयं प्रयाति) विनाश को प्राप्त हो जाता है । भावार्थ---इस परम पुनीत श्रीपाल चरित्र के सुनने मात्र से भक्तजनों के कुष्ट, लूती, क्षय आदि संक्रामक असाध्य रोग भी क्षण भर में उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे वायु के बेग से गहन बादल निमिष मात्र में बिखर जाते है ।। २६ ।। निधनाः स्वधनंयस्माद्राज्यभ्रष्टाः स्वराज्यकम् । स्थान भ्रष्टाश्च ये स्थान प्राप्नुवन्ति विशेषतः ।। २७ ॥ ( इन्द्रनागेन्द्रचक्रयादि पदं मुक्तिपदं स्थिरम् । सिद्धचक्रव्रतेनोच्चैः प्राप्यते नात्र संशयः ।। २८ ॥ युग्मम् । अन्वयार्थ-- (सिद्धचक्रवतेन) सिद्धचक्र व्रत के पालन से (निर्धनाः) धन रहित दरिद्धी (उच्चैः) विशेष रूप से (स्वधनं) अपने धन को (राज्यभ्रष्टा) राज्यहीन (स्वराज्यकम् ) अपने राज्य वैभव को (स्थान भ्रष्टाः च) और पदभ्रष्ट हैं वे (विशेषत:) विशेष रूप से (स्थानं ) अपने स्थान को (प्राप्नुवन्ति) प्राप्त कर लेते हैं ।। २७ ।। तथा (पत्र) इस लोक में (न संशयः) संदेह रहित निश्चित रूप से (इन्द्रनागेन्द्र चत्रयादि) इन्द्र, घरणेन्द्र, बलभद्र, बासुदेव, चक्रवर्ती आदि (पदं) पद को तथा (स्थिर) अविनाशी (मुक्तिपदं) मोक्ष पद को (प्राप्यते) पा लेते हैं । भावार्थ-श्री सिद्धचक्रमहापूजा विधान का अद्वितीय प्रभाव है। इसके प्रसाद से श्रद्धालु भक्त भव्यजीव अपने नष्ट घन को, राज्यभ्रष्ट पुनः अपने राज्यपद को, स्थान च्युत अपने उस पद को अधिक प्रभुत्व के साथ प्राप्त कर लेते हैं । सिद्ध भगवान की भक्ति सर्व प्रकार सुख शान्ति और आत्मसिद्धि को देने वाली है। यही नहीं विधिवत् प्रतिवर्ष में तीनवार प्राषाढ़ कार्तिक और फाल्गुन मास के अष्टाह्निका पर्व में पूजा अाराधना करने से उभय लोक की सम्पदा प्राप्त होती है। इस लोक में सर्वश्रेष्ठ इन्द्र, चक्री, बलदेव, तीर्थकरादि महान पद प्राप्त होते हैं और सर्व सुख सम्पदा भोग कर अन्त में अविनाशी नित्यनिरञ्जन मुक्तिपद भी प्राप्त होता है ।। 27 ।। २८ ।। ततो भव्यैर्जगत्सारं संसाराम्बुधिपारदम् । सिद्धचक्रवसं पूतं समाराध्यं सुखाथिभिः ।। २६ ॥ अन्वयार्थ (ततो) इसलिये (सुखाथिभिः) सुख की अभिलाषा करने वाले (भव्यैः) भव्य जीवों के द्वारा (जगत्सारं.) तीनों लोकों में सार भूत (संसाराम्बुधिपारदम्) संसार जलधि से पार करने वाले (पूतं) पवित्र (सिद्धचक्रवत) सिद्धचक्रवत को (समाराध्यम् ) सम्यक् प्रकार शुद्ध त्रियोगों से आराधन करना चाहिए। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रीपाल चरित्र पथम परिच्छेद भावार्थ- -यह सिद्ध चक्रव्रत भव्य जीवों को चिन्तामरिण कामधेनु और कल्पवृक्ष से भी अधिक उत्तम फल को देता है, क्योंकि ये मात्र सांसारिक विषय भोगों की सामग्री दे सकते हैं, किन्तु सिद्धचक के माहात्म्य से ये तो मानुषङ्गिक रूप से अनायास प्राप्त हो ही जाते है किन्तु इससे भी अधिक अविनाशी अनन्त सुख रूप मुक्ति को भी प्रदान करता है । अतः तीनों लोकों का सारभूत शिरोमणि सर्वोत्तम यह व्रत है । अतः सुखेच्छयों को इस परमोत्तम व्रत को अवश्य ही धारण और पालन करना चाहिये ।। २६ ।। १२ ] इत्यादिकं हृदि ज्ञात्वा प्रभावं भुवनोत्तमम् । सिद्धचक्रव्रतस्योच्चैस्तच्चरित्रं समुच्यते ॥ ३० ॥ अन्वयार्थ -- ( इत्यादिकं ) इत्यादि ( भुवनोत्तमम् ) लोकोत्तम ( प्रभाव ) प्रभाव को ( हृदिज्ञात्वा ) चित्त में जानकर ( सिद्धचकबलस्य ) सिद्धचक्रव्रत को करने वाले ( तच्चरिगं ) उस श्रीपाल का चरित्र (उच्च) सम्यक् प्रकार ( समुच्यते ) कहते हैं । भावार्थ - इस श्लोक में सिद्धचक्रवत की लोकोत्तर महिमा का निर्देश करते हुए आचार्य श्री श्रीपाल के उत्तम चारित्र को कहना प्रारम्भ करते हैं रणवन्तु सुधियो भव्याः जम्बू द्वीपेऽत्र सुन्दरे । पवित्र भारते क्षेत्रे जिनजन्म महोत्सवः ॥ ३१ ॥ तत्र देशो महानासीद् विशालो मगधाह्वयः । श्रीमज्जिनेन्द्र सद्धर्म निवेशो भुवनोत्तमः ।। ३२ ।। अन्वयार्थ - (सुधियो भव्याः ) हे विवेकशील भव्यपुरुषों । (ण्वन्तु) सुने (अत्र सुन्दरे जम्बूद्वीपे ) यहाँ सुन्दर जम्बूद्वीप में ( जिनजन्ममहोत्सवैः ) जिनेन्द्र प्रभु के जन्मोत्सवों से ( पवित्र ) पवित्र ( भारते क्षेत्रे) भरत क्षेत्र में (विशालो) विस्तृत ( महान् ) श्रेष्ठ (श्रीमज्जिनेन्द्र ) श्री जिनेन्द्र प्रभु के ( सदूधर्म) उत्तम धर्म का ( निवेश) श्रालय रूप ( भुवनोत्तम) लोकोत्तम (मगधाह्वयः ) मगध नामक ( देशो प्रासीत् ) देश था । भरवार्थ – कथा का प्रारम्भ करते हुए आचार्य श्री लिखते हैं कि इस सुन्दर जम्बूद्वीप में जिनेन्द्र प्रभु के जन्मोत्सवों से पवित्र भरत क्षेत्र में विस्तृत श्रेष्ठ श्री जिनेन्द्र प्रभु के उत्तम धर्म का प्रारूप लोकोत्तम मगध नामक देश था । यत्र देशे वनादीनां प्रदेशेषु समन्ततः । शोभन्तेस्म ध्वजाद्यैश्च जिनसद्मपरम्पराः ॥ ३३ ॥ प्रन्वयार्थ - - ( यत्रदेशे ) जहाँ अर्थात् जिस मगध देश में ( वनादीनां प्रदेशेषु ) चन प्रान्त के अन्दर ( समन्ततः) चारो ओर बने हुए ( जिनसद्म परम्पराः ) जिन भवनों की पंक्तियाँ ( ध्वजा पत्र ) ध्वजादिकों से ( शोभन्तेस्म ) शोभते I Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] [ १३ भावार्थ-वह मगध देश सुन्दर बनप्रान्तों और बगीचों से शोभित था जहाँ चारों और जिन भवनों को पंक्तियां ध्वजादिकों से उत्तम शोभा को धारण कर रही थीं। यत्र भव्या बसन्त्युच्चैः धनर्धान्यजनयुताः । पूर्वपुण्य प्रसादेन जय नादन नित्यशः ॥ ३४ ॥ अन्वयार्थ--(यत्र) जहाँ (धनैर्धान्यः) धन धान्यों से (जनेः युताः) परिजन पुरजनों से युक्त (पूर्वपुण्यप्रसादेन युतः) पूर्व कृत पुण्य प्रसाद से सहित (नित्यशः जय नादेन युतः) निरन्तर जय नाद से युक्त (भव्याः वसन्ति) भव्य जीव रहते हैं । भावार्थ ---उस मगध देश के निवासी सभी परिजन पुरजन सुन्दर रूप, गुण, धन धान्यादि से सम्पन्न थे। सब प्रकार से सुखी थे तथा निरन्तर धर्म प्रभावना में तत्पर रहते थे जो उनके पूर्व भव में उपाजित विशिष्ट जिनक्ति प्रादि सातिशय पुण्य का फल है । पुण्य के फलस्वरूप ही जीव को उत्तम कुल, जाति सुन्दर रूप, श्रेष्ठ जिनधर्म की प्राप्ति होती है । यो देशो राजते स्मोच्चैः पुरैाममनोहरः। खेटैस्संवाहनश्चापि चक्रीव रार्जाभव॑तः ॥ ३५ ॥ अन्वयार्थ (यः) जो अर्थात् वह मगध देश (पुराममनोहरः) सुन्दर मनोहर ग्रामों और नगरों से (खेटैस्सवातश्चापि ) और भी सुन्दर खेट और संवाहनों के द्वारा तथा (चक्रीव राजभिः वृतः) चक्रवर्ती के समान वैभवशाली राजाओं से घिरा हुआ (राजतेस्म) शोभायमान था। भावार्थ-उस मगध देश में अनेकों मनोहर सुन्दर ग्राम, नगर, खेट, संवाहन थे जो अपनी शोभा से स्वर्म को भी जीतने वाले थे तथा चक्रवर्ती के समान वैभवशाली राजारों से सेवित वह मगध देश अनुपम शोभा का स्थान था। ग्राम-जिसके चारों ओर दीवाल-कोट बने रहते हैं उसे ग्राम कहते हैं । यह कोट, काँटों की झाड़ी, चूना मिट्टी आदि किसी का भी हो सकता है। पुर या नगर-- जो चारों ओर से दीवाल और चार दरवाजों से संयुक्त होता है उसे नगर कहा जाता है। खेट. नदियों और पर्वतों से वेष्टित रहने वाले गांव को खेट संज्ञा है । कर्वट-चारों ओर से पर्वतमालाओं से जो घिरा रहता है उसे कर्बट कहते हैं । मटम्ब या मडम्ब–५०० गाँवों से संयुक्त रहने वाले गांव या बस्ती को मडंब कहा जाता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरिज्ञ प्रथम परिच्छेद पट्टन या पत्तन-जिस भूप्रदेश में नाना प्रकार के नवरत्नों की उत्पत्ति होती है उसे पत्तन कहते हैं। द्रोण -नदियों से परिवृत प्रदेश द्रोग कहलाता है । संवाहन-उपसमुद्रों के तट पर बसने वाले ग्रामों को संवाह या संवाहन कहते हैं । दुर्गाटवी -पहाड़ों पर बसने वाले ग्रामों को दुर्गाटवी कहते हैं। वह मगधदेश इन सभी से व्याप्त था । अर्थात् कहीं भोले सरल स्वभावो निर्मल बुद्धि ग्रामीण जन कृषि कर्म द्वारा अपना सुखी जीवनयापन करते थे, कहीं पर्वत वासी प्रजा “सादा जीवन उच्च विचार" कहावत को चरितार्थ करती थी। कहीं रत्नों के व्यापारी इस देश की अतुल विभूति का प्रदर्शन कर भोगभूमि को चुनौति देते थे । नाति उच्च पर्वत श्रेणियों पर निवास करने वाले अपने प्रसादों से अलकापुरी को भो जोतते थे। सुमधुर पय पूरित सरितायें अपने संगीतमय कर्ण प्रिय कल-कल निनाद से मानों इस देश के सुख सौभाग्य का मङ्गलगान ही कर रही थीं। सर्वत्र सुख शान्ति का वातावरण था । नर-नारियां कुटिलता रहित, धर्मध्यान परायण परस्पर ईा द्वष भाव रहित थे। सर्वत्र जयनाद मजता रहता था। यत्र तत्र सर्वथा भोग मनि आर्यिकावद विचरण कर संसार शरीर भोगों को असारता का दिग्दर्शन कराकर भव्य जीवों को सन्मार्ग प्रदर्शन करते थे । कोई भी निर्गल प्रवृत्ति आचरण नहीं करता था। इस प्रकार यह देश विश्व का अद्वितीय आदर्श था जो अपनी कला, कौशल, दाक्षिण्य और वैभव से चक्रवर्ती सहश निरंकुश, निरावाध शत्रु विहीन निर्द्वन्द्व प्रतीत होता था। वहाँ के लोग प्राय: रोग शोकादि से विमुक्त थे। सभी अपने अपने कर्तव्यों में निष्ठ चारों पुरुषार्थों में समान रूप से प्रवृत्ति कर मानवोचित सुख सम्पदा का उपभोग करते थे। यहाँ के वनोद्यान आदि अद्वितीय सुषमा से परिव्याप्त हो भोगियों के चञ्चल मन को डांवाडोल करने वाले थे। सर्वत्र मधुर सुपक्वफलादि सुलभता से उपलब्ध होते थे । वस्तुतः यह चक्रवर्ती समान ही अनोखा देश था । नदियों को छोड़कर अन्यत्र कुटिलता नहीं थी।। ३५ ।। नानाकारै विभातिस्म यो देशस्संपदा शतैः। भन्यानां पुण्यपाकेन निवेशो वा जगच्छियः ॥ ३६ ।। अन्वयार्थ (यो देशः) जो देश अर्थात् वह मगध नामक देश (नानाकारैः शत:) नाना प्रकार के सैकड़ों आकारों वाली (सम्पदां शतैः) सैकड़ों सम्पदाओं के द्वारा (विभालिस्म) सुशोभित होता था। (वा) मानो (भव्यानां) भव्य जीवों के (पुण्यपाकेन) पुण्य के फलने से (जगच्छ्रियः) जगत् श्री का, संसार विभुति का (निवेशो) मूर्ति रूप आकार था ।। ३६ ।। भावार्य-वह मगध देश सर्वप्रकार की सुख सामग्री से सम्पन्न था । पञ्चेन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति सुलभता से हो जाती थी । ऐसा प्रतीत होता था मानों वहाँ के भव्य जीवों का पुण्यकर्म मूर्तिमान होकर ही फल रहा है, क्योंकि “भाग्यं फलति सर्वत्र" कहावत यहाँ प्रत्यक्ष प्रचलित थी ।। ३६॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद यत्रमार्गेषु सत्तङ्गास्सफलास्सर्वपादपाः । सच्छायापिणो नित्यं पान्थानां सज्जना यथा ॥३७॥ अन्वयार्थ--(यत्र) जहाँ अर्थात् उस मगध देश के (मार्गेष) मार्गो में (सत्तुङ्गा) विशाल, ऊँचे (सफलाः) सुस्वादु मधुर फलों से भरे हुए (नित्य) सतत (पान्थानां) पथिकों को (यथा) जिस प्रकार (सज्जनाः) सत्पुरूष तृप्ति संतोष देने वाले होते हैं उसी प्रकार (सच्छायातर्पिणो) उत्तम सघन छाया से सन्तुष्ट करने वाले (पादपाः) वृक्ष थे। भावार्थ -- उस मगध देश के मार्गों में दोनों तरफ सुन्दर फल फूलों से भरे हुए सघन वृक्ष थे जो सज्जन पुरुषों के समान पथिकों को छाया प्रदान कर उनके श्रम जन्य थकान को हर कर उन्हें निरन्तः सुम्ही रखते थे !! ३६ !! मालिकेरात्र खजुरवृक्षास्सप्तच्छदादयः । यत्र नित्यं फलन्तिस्म भव्यानां वा मनोरथाः ॥३८॥ अन्वयार्थ -(भव्यानां भनोरथा वा) भव्य जीवों के मनोरथों, अभिलाषानों के सम्गन (यत्र) जहाँ-उस मगध देश में (नालिकराम्र) नारियल, आम (खर्जुरवृक्षाः) खजूर के वृक्ष (सप्तच्छदादय:) सप्तच्छदादि पुष्पपादप (नित्यं फलन्तिस्म) सदा फलीभूतहरे भरे रहते थे। ___ भावार्थ-जिस प्रकार पुण्यात्मा भव्य जीवों को उनकी इष्ट सामग्री अनायास प्राप्त हो जाती है उनकी मनोकाममायें नित्य फलीभूत होती रहती है, उसी प्रकार उस मगध देश के नारियल, पाम, खजूर, सप्तच्छद आदि विविध प्रकार के उत्तमोत्तम वृक्ष फल फूलों से सदा भरे रहते थे। निरन्तर हरे भरे मनोज्ञ दीखते थे और सबके लिये उपयोगी एवं सुखकर थे । अभिप्राय यह है कि मात्र पुण्य ही जीव को सुख साता देने वाला है । उस मगध देशवासियों के पुण्य से वहाँ अकाल दुष्काल, सुखा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि प्रादि कभी नहीं होते थे । सभी वृक्ष, पेड़, पौधे, ऋतु के अनुसार उत्तम फलों फूलों से भरे हुए भव्य. पुरुषों की सेवा में रत रहते थे ।। ३८ ।। स्वच्छतोयानि भान्तिस्म यत्र नित्यं जलाशयाः । पमान्यिता विशालाश्च ते सतां मानसो यथा ॥३६॥ अन्वयार्थ -- (यथा सतां मानसो) सत्पुरुषों उदार हृदय के समान (विशालाः) विशाल, विस्तृत (पद्यान्वितास्वच्छतोयानि जलाशयाः) कमलपुष्पों से युक्त स्वच्छ जलवाले जलाशय-तालाब (यत्र) जहाँ अर्थात् उस मगध देश में (नित्यं भान्तिस्म) सदा सुशोभित रहते थे। भावार्थ-सत्पुरुषों का मन विषय विकारों से रहित निर्मल होता है । उसी प्रकार Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद उस मगध देश के सरोवर-जलाशय अति विस्तृत, निर्मल शीतल मधुर जल से भरे हुए थे। उनमें मनोहर विविध प्रकार के पुण्डरीक, पङ्कज, कमल प्रफुल्लित थे तथा अपनी सुगन्धि से भव्य जनों के मन को अल्लाद उत्पन्न करने में समर्थ थे ।। ३६ ।। यत्र भव्या जिनेन्द्राणां तीर्थयात्रादिकर्मभिः । जतिष्ठाविष्ठानिमाम्यन्ति स शुभम् ॥४०॥ अन्वयार्य – (यत्र) जहाँ (भव्या) भव्यजीव (सदा) निरन्तर (जिनेन्द्रारणा) जिन प्रतिमाओं की (गरिष्टाभिः प्रतिष्ठाभिः) महान पञ्चकल्याण प्रतिष्ठाओं द्वारा (तीर्थयात्रादिकर्मभिः) निर्वाण भूमि आदि तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा, वन्दना आदि के द्वारा (शुभं) पुण्य कर्म को (सञ्चयन्ति) सञ्चित करते हैं ।। भावार्थ -उस मगध देश के श्रावक श्राविका सदैव धार्मिक क्रिया-अनुष्ठानों में संलग्न रहते थे । सभी अपने षट् कर्मों-जिनेन्द्र पूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दानादि कार्यों में दत्त चित्त रहते थे । पञ्चामृत अभिषेक कर अष्टद्रव्यों को क्रमश: मन्त्रोंच्चारण करते हुए भावपूर्वक जिन भगवान को बढ़ाना जिनपूजा है । निग्रंन्य दिगम्बर, बीतरागी सच्चे साधुओं, आयिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिकादि की यथा योग्य, यथा शक्ति भक्ति, स्तुति, नमन सेवादि करना गुरुपास्ति है । यहाँ ध्यान रहे कि बाध्य अभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी निम्रन्थ दिगम्बर मुनि ही सद्गुरु कहलाते हैं। परिग्रहधारी कदापि सद्गुरु नहीं हो सकता है। पूर्वापर विरोध रहित, सर्वज्ञ कथित, परम्पराचार्यों द्वारा प्रणीत शास्त्रों का एकाग्रचित्त से त्रियोग शुद्धि पूर्वक विनय सहित अध्ययन करना स्वाध्याय है। पांचों इन्द्रियों और मन को विषयों से विरत करना अर्थात् वश में करना तथा षट् काय के जीवों को रक्षा करना संयम है। आत्म शोधन के लिये व्रत उपवासादि करना तप है । उत्तम मध्यम जयन्य पात्रों को यथा योग्य यथा विधि आहार दान, ज्ञान दान, औषधदान और अभयदान करना, दान कर्म है । दान पात्र को हो किया जाता है । मिथ्याह ष्टियों को देना दयादत्ति है । उस देश के नर नारी धर्मपरायण, अपने अपने कर्तव्य पालन में दक्ष-दत्तचित्त थे। सभी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थों का यथायोग्य सेवन करने वाले थे। इसलिये उनके आधि, व्याधि रोग संताप नहीं होते थे । सर्वजन सर्वत: सुखो और सम्पन्न थे। ठीक ही है धर्म ही एका मात्र जीव का कल्याण करने वाला है ।। ४० ।। बनेऽरण्ये नगेषूच्चयंत्र नित्यं मुनीश्वराः । साधयन्ति सदाचारः सारं स्वर्गापवर्गकम् ॥४१॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] [ १७ अन्वयार्थ --(यत्र) जहाँ-जिस मगध देश में (नित्यं) निरन्तर (वने) जंगल में (अरण्ये) सधन वन में (नगेषु) पर्वतों पर (मुनीश्वरा:) वीतरागी दिगम्बर साधुगशा (सारं स्वर्गापवर्गकम्) सारभूत स्वर्ग और मोक्ष को (उच्चैः सदाचारैः) श्रेष्ठ आचारतपश्चरणादि रत्नत्रय साधन' के द्वारा साधत) सिद्ध करते हैं। __भावार्थ वह मगध देश अद्भुत था । वहाँ भव्यजन अनेकों-अपूर्व विभूतियों को पाकर भी विषयासक्त नहीं होते थे अपितु समयानुसार गृह त्याग, सम्यक् तप धारण कर आत्मसाधनार्थ कठोर तपश्चरण करते थे । संयम धारण महाव्रती हो जाते थे । आत्म शोधन में दत्तचित्त ध्यानारूढ़ हो करणंकलङ्क का विनाश कर यथायोग्य स्वर्ग और मोक्ष की सिद्धि करते थे । अतः सर्वत्र मुनिदर्शन सुलभता से प्राप्त हो जाते थे। सतत सदाचार-सम्यक् चारित्र की वाटिका फलती फूलती रहती थी ।। ४१ ।। स्वर्गागतैर्जनयंत्र कृत्वा धर्म जिनेशिनाम् । दानपूजातपश्शीलं प्राप्यते सुखमुत्तमम् ॥४२॥ अन्वयार्थ -(यत्र) जहाँ पर (स्वर्गागतर्जनः) स्वर्ग में अवतरित हुए मनुष्य के द्वारा (जिनेशिनाम् ) जिनेन्द्र प्रभु के अर्थात् जिन शासन में वरिंगत (दान पूजातपश्शील धर्म) चतुर्विधदान, जिन पूजा तप और शील रूप धर्म को (कृत्वा) पालकर (उत्तमम्) श्रेष्ठतम् (सुखं) सुख (प्राप्यते) प्राप्त कर लिया जाता है । भावार्थ . उस पुण्य रूप भूमि-क्षेत्र में स्वर्ग की आयु पूर्ण कर पुण्यात्मा जीव जन्म लेते है। पुण्य रूप धार्मिक संस्कारों के अनुसार वे श्रद्धापूर्वक जैनधर्म का ही आचरण करते तथा थावकधर्म का अर्थात् दान, पूजा, शील तप आदि का याचरण करने वाले थे । स्त्री पुरुष सभी सदाचारी, गोलवान दयालु और धर्मज्ञ थे। नारियाँ पातिव्रतादि गुणों से मण्डित और पुरुष भी उसी प्रकार सत्कर्मी सज्जन थे। महिलायें अपने गृहाचार में दक्ष थीं । क्षमा, दयाशोलादि से मण्डित तत्त्वज्ञ और सम्यक्त्व गुण युक्त थीं । सभी प्रामोद प्रमोद से सात्विक सरल जीवन यापन करते थे। ।।४२।। इत्यादि सम्पदोपेतः स देशो मगधाभिधः । वर्ण्यते केन यत्रोच्चः प्रभावं जगदद्भुतम् ॥४३।। अन्वयार्थ-(मगधाभिधः देशो) मगध नामक देश, जो (इत्यादिसम्पदोपेतः) पूर्वोक्तवरिणत वैभव से सहित था उसका (जगदद्भुत प्रभावं) जगत-पाश्चर्यकारी प्रभाव (उच्च:) विशेषताओं के साथ (केन) किसके द्वारा (वर्ण्यते ) वर्णित किया जा सकता है ? - मावार्थ- यहाँ प्राचार्य कहते हैं कि अनुपम वैभव से युक्त उस मगध देश की शोभा अनिर्वचनीय एवं आश्चर्यकारी थो ।।४३।। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद इन्द्रादयस्मता यत्र सम्पमत्य निरकारम् । प्रत्यक्ष श्री जिनाधीशं पूजयन्तिस्म साङ्गना ॥४४।। अन्वयार्थ --(प्रत्यक्ष) प्रत्यक्ष रूप में (इन्द्रादयः) स्वर्ग के इन्द्रादि देव (सदा पत्र सभागत्य) सदा जहाँ पाकर (निरन्तरम् ) निरन्तर (जिनाधीशं) जिनेन्द्रप्रभु का (पूजयन्तिस्म) पूजते थे। भावार्थ ----स्वर्गलोक के इन्द्रादि देव भी उस मगध देश की शोभा से आकृष्ट होकर पाया करते हैं और अति विशाल भन्न जिनभवनों विराजमान जिनेन्द्र प्रभु की पूजा करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है उस मगध देश की शोभा कथञ्चित् स्वर्ग से भी अधिक मनोहर है। पुरं राजगृहं तत्र पुरन्दर पुरोपमम् । पञ्च सप्ततलोत्तुङ्ग गृहा यत्र निरन्तरम् ॥४५॥ अन्वयार्थ (तत्र) उस मगध देश में (पुग्न्दरपुरोपमम् } इन्द्रपुरी के समान (राजगृहं पुर) राजगृह नामक नगरी है (यत्र) जहाँ (निरन्तरम) व्यवधान रहित अर्थात् पंक्तिबद्ध (उत्तुङ्ग) ऊँचे (पञ्चसप्तताल) पाँच-सात मंजिल के (गृहा) मकान हैं । भावार्थः उस गमध देश में इन्द्रपुरी के समान अति सुन्दर और वैभवशाली राजगृह नामक नगरी है, जहाँ सामान्य नगर निवासियों के मकान भी ऊँचे ऊँचे पाँच सात मंजिल वाले हैं । पंक्ति बद्ध वे मकान अति मनोहर प्रतीत होते हैं ।।४।। नानावर्णध्वजावातैर्मरुद्धृतर्मनोहरैः । लसद्धाटककुभायैः स्वर्ग बा हसतिस्मयत् ॥४६॥ अन्वयार्थ---(नानावर्ण) अनेक प्रकार के वर्णवाने (मनोहरैः) मनोहर (मरुद्भूतः) पवन से दोलायमान (ध्वजावातै:) ध्वजाओं से और (हाटक कुम्भाद्यः) सूवर्णमय कलशों से (लसत्) शोभायमान वे प्रासाद ऐसे मालूम पड़ते हैं मानों (यत् स्वर्ग वाहसतिस्म) स्वर्ग परिहास कर रहा था । अर्थात् स्थर्गलोक के विमानों या भवनों के समान रमागीक हैं। भावार्थ सभी प्रासादों के शिखर पर ध्वजायें फहरा रही हैं, और सुवर्ण मय कलश उनके शिखरों पर लगे हैं जिससे उनकी शोभा स्वर्ग के विमान के तुल्य दोखती है अथवा स्वर्गलोक ही उठकर यहां आ गया है ऐसा प्रतीत होता है । यत्र श्रीमज्जिनेन्द्राणां रत्नतोरण संयुताः । स्वर्गापवर्ग मार्गा वा प्रासादाः प्रविरेजिरे ॥४७।। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] [ १६ अन्वयार्थ (यत्र) जहाँ (रत्नतोरण संयुताः) रत्नमय तोरण युक्त द्वारवाले (धीमज्जिनेन्द्राणां प्रासादाः) जिनालय (प्रविरेजिरे) सुशोभित हैं जो मानों (स्वर्गापवर्गमार्गा वा) स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग रूप हैं। भावार्थ-स्वर्गलोक. जिन भवन के समान अनुपम छवि को धारण करने वाले, ध्वजा, कलम, तोरण युक्त द्वारों से युक्त वे भवन ऐसे मालूम पड़ते हैं मानों स्वर्ग और मोक्ष में जाने के लिये श्रेष्ठ मार्ग निर्मित किये गये हैं। जिनायतन, जिनबिम्ब, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में हेतु हैं अत: यहाँ भव्य जिनालयों को स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग स्वरूप कहा गया है ।।४७।। यत्पुरं सर्वदा सर्वेर्धनैर्धान्यजनोत्करैः । नानावस्तुशतैः पूर्ण भरिणमुक्ताफलादिभिः ॥४८॥ अन्वयार्थ (सर्वेः धनैः धान्यः) सभी प्रकार के धन धान्यों से (जनोत्कर) जनसमूहों से (नानावस्तुशतैः) अनेक प्रकार के सुन्दर सैकड़ों पदार्थों से (मणिमुक्ता फलादिभिः) मणिमुक्ता फलादि से (यत् पुरं) जो राजगृह नगरी (सर्वदा) सदाकाल (पूर्ण) भरी रहती भावार्थ-उस राज गृह नगर में रहने वाले नागरिक धन-धान्य, मणि-मुक्ता फलादि तथा श्रेष्ठ बन्धु बान्धवों से युक्त सर्वतः सुखो और सम्पन्न हैं ।।४।। भव्यानां पुण्यतो नित्यं चारुपञ्चेन्द्रियोचितैः । भोगोपभोगसन्दोहैः संजातं पुण्यपत्तनम् ॥४६।। अन्वयार्थ (नित्यं पुण्यतो) निरन्तर पुण्य कार्य करते रहने से (चारु-पञ्चेन्द्रियोचितैः) पञ्चेन्द्रियों के विषय भूत योग्य उत्तम पदार्थों और (भोगोपभोगसन्दोहै:) भोगोपभोग के समस्त पदार्थों से युक्त (पुण्यपत्तनं) पुण्यशाली नगर को (भव्यानां संजातम् ) भव्य जीवों का जन्म होता है। मावार्थ-वह राजगृह नगरी भोगोपभोग के समस्त उत्तम बस्तुओं से भरी पूरी थी। उस पुण्यमय देश में जन्म की प्राप्ति का होना भी पुण्य का फल है (जैसाकि प्रात्मानुशासन में गुणभद्राचार्य ने लिखा है धर्मारामतरूणां फलानि सर्वेन्द्रियार्थ सौख्यानि । संरक्ष्य तांस्ततस्तान्युच्चिनुयैस्तैरूपायैस्त्वम् ।।१६ प्रात्मानुशासन०।। अर्थात् इन्द्रिय विषयों के रोवन से उत्पन्न होने वाले सब सूख इस धर्म रूपी उद्यान में स्थित वृक्षों के फल हैं । इसलिये हे भव्य जीव ! तू जिन किन्हीं उपायों से उन धर्म रूपी उद्यान के वृक्षों की भले प्रकार रक्षा कर उनसे इन्द्रिय विषय जन्य सुख रूपी फलों का संचय कर। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद प्रकृत श्लोक में भी इसी अभिप्राय की पुष्टी है अर्थात् सांसारिक सुख सामग्री भी धर्म से या पुण्य से प्राप्त होती है ।।४६।। यत्पुर्याश्च चतुर्दिक्षु बनादौ श्री जिनालयाः । रत्नादिप्रतिमोपेताः सुरेन्द्राधेस्सचिताः ॥५०॥ सवंदा भव्य सन्दोहः महास्तोत्रशतैश्शुभैः। गीत त्यैश्च बाविर्भान्तिस्मोच्चैर्जगद्धिताः ॥५१॥ अन्वयार्थ (यत्पुर्याः च) और उस राजगृह नगरी के (चतुदिक्षु) चारों ओर (चनादौ) वन-उद्यानादि में (सुरेन्द्राय :) देवेन्द्रों द्वारा (समचिताः) सम्यक् प्रकार पूजित (रत्नादिप्रतिमोपेताः) रत्नादि की उत्तम प्रतिमाओं से युक्त (श्रो जिनालयाः) रलतोरणादि विभूतियों से सम्पन्न जिनालय हैं । (जगद्धिताःच) जगत का हित करने वाले वे जिनालय (सर्वदा) निरन्तर (भव्यसन्दोहै:) भव्य जनों से (महास्तोत्र शतश्शुभैः) श्रेष्ठ मनोज्ञ भक्तिरस से भरे महास्तोत्रों से (गीतः नृत्यः च) गीत और नृत्यों से (भान्तिस्म) शोभित थे । भावार्थ-वह राजगह नगरी साक्षात् जिनधर्म की मूर्ति स्वरूप भाषती है । उसके चारों ओर रमणीय वन और उद्यान हैं। उनमें सर्वत्र विशाल-विशाल घंटा तोरण और ध्वजारों से अलंकृत जिनालय हैं। उनमें अति मनोज्ञ, पापहारी, सौम्य जिनबिम्ब विराजमान हैं। यहां जिन पूजन के लिये आये हुए देव इन्द्र सुरेन्द्र, नागेन्द्र तथा नर-नारी नृत्य, गान स्तुति स्तोत्रों से सातिशय पुण्य का संचय करते हैं । जिन भक्ति अनन्त अशुभ कर्मों का संहार करने वाली और प्रभूत पुण्य की कारण है । पापनाशन और पुण्यवर्धन के साथ परिणाम शुद्धि और प्रात्मशुद्धि की भी कारण है तथा परम्परा से मोक्ष की साधक है । तभी सुरेन्द्र भी अपने स्वर्गीय वैभव भोग विलास का त्याग कर जिनेश्वर की पूजा भक्ति में लीन हो जाते हैं तथा अकृत्रिम चैत्यालयों में पर्व के दिनों में पूजा स्तुति कर पुण्यार्जन करते हैं ।।५०।।५१।। ग्रन जिनप्रतिमाओं के दर्शन का माहात्म्य बताते हुए कहते हैं येषां दर्शनमात्रेण भव्यानां पश्यतान्तराम् । पापं प्रयाति तत्कालं भास्करेण यथा तमः ॥५२॥ पन्वयार्थ - (येषां) जिन प्रतिमाओं के (दर्शनमात्रेण) दर्शनमात्र मे (भव्यानां पापं) भव्य जीवों का पाप (पश्यतान्तराम्) तत्क्षरग (यथा भास्करेण तम:) सूर्य के द्वारा नष्ट किये गये अन्धकार के समान (तत्कालं) तत्क्षण (प्रयाति) नष्ट हो जाता है । भावार्थ- महा भयंकर सघन अन्धकार भी सूर्योदय के होते ही विनोन हो जाता है उसी प्रकार जिनबिम्ब का दर्शन करते ही भव्यजनों का पापकर्म रूपी अंधकार तत्काल Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] [ २१ विलीन हो जाता है । श्रतः पाप पुञ्जरूपी सघन तम को दूर करने का तथा आत्मशोधन का श्रेष्ठ साधन जिनबिम्ब दर्शन है ।। ५२ ।। चम्पकानादि वृक्षाद्यैस्सफलैस्सजलाशयैः । मोह्यन्तिस्म ते चित्तं सतां पुण्याकरायथा ॥ ५३॥ अन्वयार्थ - ( यथा पुण्याकरा ) पुण्य के आकार- खजाने के समान ( सफल ) फलों से भरे हुए (चम्पात्रादि वृक्षाद्य : ) चम्पक आम्रादि वृक्षों से मंडित (ते) वे जिनालय ( सतां चित्तं ) सज्जनों के चित्त को (मोह्यन्तिस्म) मोहित करते रहते थे । भावार्थ- वन प्रान्तों में स्थित-निर्मित वे जिनालय पुण्य के खजाने के समान थे, प्रचुर पुण्यास्त्रव के कारण स्वरूप थे तथा फल पुष्पों से व्याप्त चम्पकादि वृक्षों से व्याप्त अति मनोज्ञ वे जिनालय सज्जनों के चित्त को हरण करने वाले थे ॥ ५३ ॥ तथा तत्र पुरोत्पन्न भव्यास्सद्धर्मशालिनः । रूप सौभाग्यसम्पन्ना जयन्तिस्म सदा सुरान् ॥ ५४ ॥ अन्वयार्थ - ( तथा तत्र पुरोत्पन्न) और वहाँ राजगृह नगरी में उत्पन्न ( सद्धर्मशालिनः ) सद्धर्म - जिनधर्म के अनुयायो ( रूप सौभाग्य सम्पन्ना ) रूप और सौभाग्य सम्पन्न ( भव्याः ) भव्य जन ( सुरान् ) देवों को अर्थात् स्वर्गीय सुख सम्पत्ति को भी ( सदा ) हमेशा ( जयन्ति स्म ) जीतते थे, तिरस्कृत करते थे । भावार्थ स्वर्गीय सुख सम्पत्ति से भी अधिक वैशिष्टय उस राजगृह नगरी का था । स्वर्ग में यद्यपि देवों को दिव्य भोग सामग्री प्राप्त है पर वहाँ भी एक दूसरे के वैभव को देखकर वे मानसिक दुःखों से दुखी रहा करते हैं पर राजगृह नगरी में रहने वाले धर्मनिष्ठ नागरिकों का जीवन सर्वतः सुखी था अर्थात् शारीरिक, मानसिक श्राकस्मिक आदि किसी प्रकार का दुःख उनको नहीं था । । ५४ ।। यत्र नार्यस्तुरूपायास्सम्यक्त्व व्रत मण्डिताः । दिव्या भरणवस्त्राद्यैर्लज्जयन्तिस्म देवता । ॥ ५५॥ अन्वयार्थ --. ( यत्र ) जहाँ अर्थात् उस राजगृह नगरी में ( सुरूगाढ्याः ) सुन्दर रूपाकृति वाली ( सम्यक्त्व व्रतमण्डिताः) सम्यग्दर्शन और उत्तम व्रतादि आभूषणों से सुशोभित ( नार्यः) नारियाँ (दिव्याभरणवस्त्राद्यं :) दिव्य प्राभूषण और वस्त्रादि से (देवता) देवाङ्गनामों को ( जयन्तिस्म) जीतती थीं । भावार्थ --- उस राजगृह नगरी में उत्पन्न स्त्रियों का पुण्य स्वर्ग की देवाङ्गनाओं से भी अधिक था, जिसके फलस्वरूप उनको ऐसे सुन्दर रूप की प्राप्ति हुई जो देवाङ्गनाओं में भी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [थीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद अनुपलब्ध था अर्थात् वे अपने रूप से देवाङ्गनाओं के भी रूप को जीतने वाली थीं। कहा भी है-"भक्तेः सुन्दर रूप” भक्ति से सुन्दर रूप को प्राप्ति होती है ।।५५।। सन्तो यत्र जनास्सर्वे दानपूजा तपोवतैः । सम्यक्त्वशीलसम्म सापयनिकमा समान अन्वयार्थ-(यत्र) जहाँ अर्थात् उस राजगृह नगरी में (सम्यक्त्वशील सम्पन्ना) सम्यग्दर्शन और शील सदाचार से युक्त (सम्सो) होते हुए (सर्वेजना:) सब लोग (दानपूजातपोवतः) दान, पूजा, तप और ब्रतों के द्वारा (सरसुखं साधयन्तिस्म) उत्तम मोक्ष मुख को साधते थे। भावार्थ: जिस प्रकार नौका विशाल नदी को भी पार कराने में साधक होती है उसी प्रकार दान पूजा तप प्रतादि शुभोपयोग की क्रियायें भी मोक्ष की प्राप्ति में क्रम से साधक होती है। "पुनाति आत्मानं पुण्य" ऐसा श्री पूज्यपाद स्वामी और अकलंकदेव स्वामी ने भी लिखा है । शुभोपयोग से पाप क्षय होता है अत: वह आत्म शुद्धि का साधक है । पाप रूप धातिया कर्म की प्रकृतियों को नष्ट करने से कैवल्य की प्राप्ति होती है पुण्य रूप प्रकृतियों को नष्ट करने से नहीं अर्थात् अरहन्त पद को प्राप्ति में बाधक पाप रूप प्रकृतियां हैं । अरहन्त पद मिलने के बाद सिद्ध पद तो सहज स्वभाव से मिलेगा ही, उसमें कोई सन्देह नहीं । अतः उस नगरी के लोग निरन्तर सातिशय पुष्य रूप कार्यों में तत्पर रहते थे ।।५६।। यत्र भव्यास्सदासर्वे महादान प्रवाहतः । कान्तालताः सुवस्त्राद्यैः रेजिरेवासुरन्द्र मा। ॥५७॥ अन्वयार्थ -(महादान प्रवाहतः) महादान के प्रवाह से अर्थात् निरन्तर चारों प्रकार का दान करते रहने से (यत्र सर्वे भत्र्याः) जहाँ सभी भव्य पुरुष तथा (सुवस्त्राधे :) सुन्दर बस्वादिकों से (कान्तालताः) कामिनी स्त्रियाँ (सुरद्र भा:वा) कल्पवृक्ष के समान (रेजिरे) शोभित थीं ।।५७।। एवं तत्र वसन्तिस्म सन्तस्स्वपुण्यपाकतः । धर्मार्थकामसम्पन्ना भाविमुक्तिवसुन्धराः ॥५॥ अन्वयार्थ . . एवं) इस प्रकार (तत्र) उस पुण्य नगरी में (स्वपुण्यपाकतः) अपनेअपने पुण्योदय से (धर्म अर्थ काम सम्पन्नाः) धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों के साधक (भाविमुक्तिवसुन्धराः) निकट भविष्य में मुक्ति पाने वाले (सन्तः) सज्जन पुरुष (वसन्तिस्म निवास करते थे ।।५।। भावार्थ-उस नगरी के सभी लोग निकट भविष्य में मोक्ष को देने वाले चारों पुरुषार्थो को सिद्धि में यत्नशील थे । धर्म से अर्थ की सिद्धि होती है, अर्थ से काम सिद्ध होता है तथा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] [ २३ तीनों के समानुपात सेवन से अन्ततः वैराग्य को प्राप्त हुए ने भव्य जीव निश्चय से मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।। ५८ ।। यत्र पुत्रोत्सनित्यं जिनपूजा महोत्सवैः । बिवाहमङ्गलंश्चापि पुरं था तन्मयं बभौ ॥५६॥ अन्वयार्थ - ( यत्र ) जहाँ अर्थात् उस राजगृह नगरी में ( नित्यं ) निरन्तर होने वाले ( पुत्रोत्सव : ) पुत्र जन्मोत्सवों से (जिनपूजा महोत्सव ) जिनपूजा महोत्सवों से ( चापि ) और भी ( विवाहमङ्गलः ) विवाहोत्सवों से ( पुरं ) वह नगरी ( तन्मयं बभौ ) उत्सव रूप हो हो गयी थी । भावार्थ उस नगर में पुत्र जन्मोत्सव के समय धर्मात्मा भव्य जन उस निमित्त से fearfभषेक, पूजा विधानादि भी कराते थे। जिनालयों में नाना प्रकार के चन्द्रोप, छत्र, चमर, घंटा, माला आदि उपकरण चढ़ाकर धर्म प्रभावना करते थे । ध्वजा तोरणादि से जिन भवनों को सुसज्जित करते थे । इसी प्रकार विवाह आदि माङ्गलिक कार्यों में भी जिनाभिषेक पुजादि करते कराते थे। पर्यकाल में व्रत, उपवास के उद्यापनादि के उपलक्ष में अनेकों उत्पाद तथा स्वयं भी करते थे । इस प्रकार वहाँ प्रतिदिन कोई न कोई उत्सव होते ही रहते थे जिससे वह नगरी हो मङ्गालमयी प्रतीत होती थी ।। ५६ ।। एवं शोभाशतं युक्ते तस्मिन् राजगृहे पुरे । राजाऽभूच्छ्रे रिसको नाम सम्यग्दृष्टि शिरोमणिः ॥ ६० ॥ श्रन्वयार्थ - ( एवं ) इस प्रकार ( तस्मिन् ) उस ( राजगृहे पुरे ) राजगृह नगर में ( सम्यग्दृष्टि शिरोमणिः ) सम्यग्दृष्टियों में अग्रगण्य ( श्रेणिको नाम) श्रेणिक नामक ( राजाऽभूत् ) राजा हुआ | भावार्थ उस राजगृह नगर में क्षायिक सम्यग्दष्टि श्रेणिक नामक राजा था। वह जिनधर्म सेवी और तत्त्वों पर अटल विश्वास करने वाला था अर्थात् सम्यक् दृष्टियों में तिलक स्वरूप था ।। ६० ।। प्रतापनिजिताराति मण्डलो महिमास्पदः । भास्करी वा द्वितीयोऽयं कुमार्गतिमिरापहः ॥ ६१ ॥ अन्वयार्थ ( स ) वह राजा ( प्रतापनिजिता रातिमण्डलो ) जो अपने प्रभुत्वप्रताप से समूह को जीत चुका था ( महिमास्पदः ) महिमा का स्थान ही हो गया था (वा) अथवा मानो (अयं ) यह नृपति ( कुमार्गतिमिरापहः) खोटे मार्गरूपी अंधकार को नष्ट करने वाला ( द्वितीयो ) दूसरा ( भास्करो ) सूर्य ही था । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद भावार्थ-भास्कर देव के उदयाचल पर आते ही जिस प्रकार रात्रिजन्य सघन अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार महाराज श्रेणिक के न्यायनोति सदाचार द्वारा अन्याय और कुमार्ग रूपी अन्धरा नष्ट हो गया था अर्थात उसके प्रभुत्व से कोई भी सत्पथ का उल्लंधन नहीं करता था परस्पर कालह बिसवाद नहीं था । पारस्परिक प्रेम स्नेह बढ़ रहा था । आमोद प्रमोद से प्रजा रहती थी। सभो आज्ञाकारी विनयो दयालु, उत्साही धर्मपरायण और जिनभक्त थे । भूपति श्रेणिक के प्रताप से शत्रुगण अनायास मित्र हो गये । उसके सद्व्यवहार से उसके आधीन हो जाते थे। विजित राजाओं के साथ वह दुर्व्यबहार नहीं करता था। आज्ञाधीन कर उनका राज्य वैभव उन्हें ही प्रदान कर देता था। इस प्रकार उदार मनोवृत्ति, त्याग भाव, वात्सल्य भावना से राजागण उसके सेवक बन गये थे। उसकी आज्ञा को सहर्ष स्वीकार करते और अपने को धन्य समझते थे ।। ६१ ॥ नित्यं सः शान्तभावेन स्वकान्त्या यशसाश्रिया । निर्दोषेरण व्यजेष्टोच्चैश्चन्द्रबिम्बं सलाञ्छनम् ॥६२।। अन्वयार्थ-(शान्तभावेन) कषायों को मन्दता या क्षमाभाव से (स्वकान्त्या यशसा) अपनी सुन्दर कान्ति और कोति से (निर्दोषेणश्रिया) न्यायोपात्त लक्ष्मी से (स) उस राजा श्रेणिक ने (नित्यं) निश्चय ही (सलाञ्छनम्) कलङ्की (चन्द्रबिम्ब) चन्द्रबिम्ब को (व्यजेष्ट उच्चैः) निश्शेष रूप से जीत लिया था। भावार्थ-चन्द्रमा की कान्ति क्रमश: मन्द अथवा तीव्र होती रहती है किन्तु इस श्रेणिक राजा की कान्ति सतत तेजोमय थी । चन्द्रमा की एक एक कला क्रमशः शुक्ल पक्ष में बढ़ती है और कृष्णपक्ष में हीन होती जाती है परन्तु उस राजा की यश रूपी कलायें निरन्तर वृद्धिगंत ही होती रहती थीं । चन्द्रमा का प्रताप दिन में सूर्य के प्रकाश में छिप जाता है किन्तु महाराजा श्रेणिक का प्रताप अपने प्रतिपक्षो शत्रु को पाकर और अधिक द्विगुणित हो उठता था। चन्द्र तो लाञ्छन युक्त है, संसार में कलजी कहलाता है लेकिन इस राजा का यश और न्यायोपात्त लक्ष्मीपूर्ण निर्दोष थी । अथवा कलङ्क रहित थी। इस प्रकार उस राजा ने अपने प्रभाव, शान्त व्यवहार, यश, लक्ष्मी और कान्ति से चन्द्रमा को भी तिरस्कृत कर दिया था । चन्द्रमा को उपमा उसे नहीं दी जा सकती है । वह महागुणज्ञ और नीतिज्ञ था । उसके समक्ष चन्द्रमण्डल क्षीण प्रताप और तुच्छ था ।। ६२ ।। कल्पवृक्षो जडश्चिन्तामणिः पाषाण एव च । कामधेनुः पशुः किं तैस्समोऽयं क्रियते नृपः ।।६३।। अन्वयार्थ - (कल्पवृक्षः) इस प्रकार के कल्पवृक्ष (जड:) अचेतन पृथ्वीकाय है (च) और (चिन्तामणिः) चिन्तामणि रत्न (पाषाण एवं) एक प्रकार का पत्थर ही है (कामधेनुः पशुः) कामधेनु पशु है (कि अयम् नृपः) क्या यह राजा (तेः समो) उनके समान (क्रियते) किया जा सकता है ? अर्थात नहीं किया जा सकता है ।। ६३ ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद | भावार्थ संसार में कल्पवृक्ष चिन्तामणि और कामधेनु सर्वत्र उपमार्थ प्रस्यात हैं पर ये उपमायें राजा श्रेणिक को नहीं दी जा सकती हैं, क्योंकि वह इनसे अधिक प्रभावशाली है । कल्प वृक्ष 10 प्रकार के हैं-१ भोजनाङ्ग २ वस्वान ३ पानाङ्ग ४ भाजनाङ्ग ५ गृहाङ्ग ६ ज्योतिराङ्ग ७ मालाङ्ग ८ दोषाङ्ग ६ वादित्राण और १० आभूषणाङ्ग । इनसे क्रमश: मनुष्य इच्छानुसार भोजन वस्त्र, पान (पीने की वस्तु) पात्र. घर, प्रकाश, मालाय, दीपक, वाजे और आभूषणादि मांग लेते हैं । चिन्तामणि से चिन्तित बस्तु मिल जाती है । कामधेनु भी कामना पूर्ण करने में समर्थ कही जाती है, पर क्या उस श्रेणिक राजा को इनकी उपमा दी जा सकती है ? नहीं। क्योंकि कल्पवृक्ष सभी पृथ्वीकाय हैं, चिन्तामणि रत्न भी जड़ हैपाषाण विशेष है ओर' कामधनु नोच गोत्रस्य पशु जाति है परन्तु महाराजाधिराज श्रेणिक, पञ्चेन्द्रिय मनुष्योत्तम हैं, उच्च कुल, गोत्र, शुद्ध जाति वंश परम्परा सम्पन्न हैं । अतएव कल्पवृक्ष चिन्तामणि और कामधेनु से भी बढ़कर वे महाराज बिना याचना विना विचारे जनता की मनोकामना पूर्ण करते थे । मनमाना दान देते थे । उनके राज्य में न कोई याचक था न दीन दरिद्री, न रोगी न शोकी । सब सानन्द, धर्म प्रेमी, कर्तव्यनिष्ठ, सत्यवादी, संयमानुरागी और संतोषी थे । वे भोगोपभोग के प्राचुर्य में भी विबेक और संयम का उपयोग करते थे । उनके कान जिन बचन-मुनि वचन, धर्मोपदेश सुनने में रत रहते थे । नेत्र जिनमुखाबलोकन, गुरु दर्शन, तीर्थक्षेत्र दर्शन को आतुर रहते थे, रसना जिन स्तवनादि में, घ्राण, जिनचरणाम्बुजों में चचित गंध केशर की सुवास में और शरीर जिनपूजन, भक्ति, नृत्य, गान, संगीत में रत रहता था। सभी इन्द्रियों के भोग सीमित और आनुपातिक थे । अत: वह श्रेणिक राजा अदितीय, उपमातोत और महान था ।। ६३ ।। यो विज्ञानी सुधी ज्ञाता दाता वाञ्छालुरेकतः । गम्भीरस्सागरश्चापि महिम्ना मेरुतो महान् ॥६४।। अन्वयार्थ (यो) जो अर्थात वह श्रेणिक राजा (सुधी) ज्ञानी विवेकशील (वाञ्छालुरेकत: दाता) वाञ्छालु भव्य जीवों को सन्तुष्ट करने में अकेले ही समर्थ दाता था । (गम्भीरः सागरपच) और सागर जसा गम्भोर महिम्ना) महिमा को अपेक्षा (मेमतोऽपि महान्) मेरु से अधिक मसन् था । भावार्थ-राज्य संचालन के साथ-साथ, राजा श्रेणिक धर्म कार्यों में भी सतत साबधान और प्रयत्नशील थे। तत्वचिन्तन, स्वाध्याय, ध्यान, दान पूजा आदि में सोत्साह तत्पर रहते थे । जिस प्रकार गङ्गा नदी का प्रवाह तथा उसका पवित्र जल आरोग्यकारी, मधुर शीतल और प्यास को बुझाने वाला होता है उसी प्रकार राजा श्रेणिक याचकों को उसके लिये समस्त इष्ट सामग्री को देने में अकेले ही पूर्ण समर्थ थे । समुद्र के समान गम्भीर राजा श्रेणिक अनेक असंख्य गुणों की खान थे । यथा समुद्र में सब तरफ से गन्दे नालों का जल तथा कूड़े कचरों के साथ बहती नदियों का जल मिलता रहता है पर उससे समुद्र की स्वच्छता निर्मलता का अभिघात नहीं होता है, उसी प्रकार श्रेणिक महाराज नाना उपद्रवों के होने पर भी क्षुब्ध Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद नहीं होते थे । सामाजिक राजकीय, नगर प्रामकृत तथा शत्रु कृत उपद्रवों से उनका चित्त दूषित नहीं होता था । अपूर्व धृतिबल आदि की अपेक्षा से वे समुद्र के समान गम्भीर थे॥६४।। जिनेन्द्रचरणाम्भोजसेवनकमधुव्रतः । यो भवन्मुनिपादाब्जरजो रञ्जितमस्तकः ॥६५॥ अन्वयार्थ--(यो) जो अर्थात् बह श्रेणिक (मुनिपादाब्जरजो रजितमस्तक:) मुनिगणों के चरण कमलों की रज से रजित मस्तक वाला (जिनेन्द्रचरणाम्भोज सेवन) जिनेन्द्र प्रभु के चरण कमलों की सेवा में (भवन) रहता हुआ (एक) एक अर्थात् अपूर्व अद्वितीय जिन भक्त था (मधुव्रतः) अथवा वह मधुकरों के समूह तुल्य था । भावार्थ-जिस प्रकार पधुकर पार का प्रेमी होता है। पष्प की सुगन्धी को पाकर वह आनन्द विभोर हो जाता है, उसी प्रकार राजा अंणिक महाराज जिनदर्शन के अभिलाषी प्रेमी थे । उन्हें जिनचरणाम्बुजों को पाकर अतुल सुख आनन्द का अनुभव होता था । उनको दृष्टि में धर्मानुष्ठान से प्राप्त सुख, पञ्चेन्द्रिय विषय सुख से अनन्तगुणा अधिक था। पंचेन्द्रिय विषयों का सुख तो क्षणिक और दुःखोरपादक है पर धर्माचरण से प्राप्त सुख, दुःख का बिघातक और स्थाई सुख की स्थापना करने वाला है । अस्तु श्रेणिक महाराज देव शास्त्र मुरु को भक्ति में अपने को निरन्तर रजायमान रखते थे । यद्यपि वे राज्य की सुरक्षा, देखरेख भी करते थे पर उनका चित्त उसमें रजित नहीं होता था ।।६।। लसकिरीटमाणिक्यदिव्यवस्नरलंकृतः । पर्यटन कल्पवृक्षो वा यो बभौ तोषिताखिलः ॥६६॥ अन्वयार्थ-- (किरीटमाणिक्यः लसत्) मणिमुक्ताओं से जडित मुकूट से शोभायमान (दिव्ययस्त्रैरलंकृतः) दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत तथा (तोषिताखिलः) सम्पूर्ण याचकों को सन्तुष्ट करने वाले (पर्यटन कल्पवृक्षो वा) चलते फिरते कल्पवृक्ष के समान (यो वी) जो अर्थात् वे श्रेणिक महाराज शोभते थे । भावार्थ--जिस प्रकार भोग भूमि में अवस्थित रत्नभय कल्पवृक्षों को प्रभा सुर्य से भी अधिक होतो है उसी प्रकार मुकुट दिव्यवस्त्रादि से अलंकृत राजा अंणिक का तेज वा प्रभाव भी अधिक था । जिस प्रकार कल्पवृक्ष इच्छित वस्तु को प्रदान कर याचकों को सन्तुष्ट कर देता है उसी प्रकार श्रेणिक महाराजा भी वाञ्छालु को उसकी इष्ट वस्तु देकर सन्तुष्ट कर देते थे। अतः वे वस्तुतः चलते फिरते कल्पवृक्ष के समान दीखते थे ।। ६६ ।। हस्त्यश्वरथपादाति छत्रसिंहासनाविभिः । महामण्डलनाथोऽसौ यो भाश्चक्रधरो यथा ॥६७।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] अन्वयार्थ -(यो) जो अर्थात् वे श्रेणिक (हस्त्यश्वरथ पादाति) हस्ति, अश्वरथ, पादाति तथा (छसिंहासनादिभिः) छत्र सिंहासनादिकों से (महामण्डलनाथोऽसौ) महामण्डले मवर पद के धारो (यथा चक्रधरो) चक्रवर्ती के समान ही (भास्) सुशोभित थे । भावार्थ:--राजा श्रेणिक महाराज महामण्डलेश्वर राजा था तथा उनका प्रभुत्व चक्रवर्ती के समान था । आठ हजार राजा उनकी सेवा में रत रहते थे । निरन्तर आठ चमर उनके ऊपर ढोले जाते थे तथा देवाङ्गनाओं के समान सुन्दर गुणवती आठ हजार, उनकी रानियाँ थीं ।।६।। नानारत्नसुवर्णाधस्सम्पूर्णी निधिवत्तराम् । भाण्डारो वर्ण्यते केन नित्यदानश्च तस्य यः ।।६।। अन्वयार्थ-- (नानारत्नसुवर्णाद्य : सम्पूर्णो) विविध प्रकार के रत्न और सुवर्णादि से भरे पूरे (निधिवत्तराम्। श्रेष्ठ खजाने के समान (तस्य य: भाण्डारो) उस श्रेणिक राजा का जो भण्डार है वह (नित्यदान:) निरन्तर काम होते रहने से मनीमम (न वर्ष) किससे वणित हो सकता है ? अर्थात् वचनों से उसका वर्णन अशक्य है । भावार्थ-धनवन्त श्रीमन्त होना कथञ्चित सुलभ भी है पर धनवन्त होकर दानी होना अति दर्लभ है। राजा धणिक से पूर्व भी अनेकों राजा मण्डलेश्वर अर्धचक्री आदि हए किन्तु उनकी चर्चा हम नहीं करते, उनकी गौरव गाथा को कोई नहीं गाता है । आप पूछे कि ऐसा क्यों ? इसका उत्तर यही है कि वे दानी नहीं थे, उनमें त्याग वृत्ति का अभाव था । श्रेणिक महाराज के खजाने से किमिच्छक दान निरन्तर होता रहता था। वे सप्त क्षेत्रों में अपनी धनराशि को खर्च करते थे । आगम में सप्त क्षेत्रों में दिये गये दान को मुक्ति का कारण कहा है । उन सप्तक्षेत्रों के नाम इस प्रकार हैं: - । जिन निम्नं जिनागारं जिन यात्रा प्रतिष्ठितम् ।" दान पूजा च सिद्धान्त लेखनं क्षेत्र सप्तकम् ।। (१) जिन बिंब स्थापन (२) पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव (३) जिनालय निर्माण (४) तीर्थ क्षेत्र की यात्रा (५) पात्र को चारों प्रकार का दान करना (६) जिनपूजा (७) सिद्धान्त लेखन। त्याग उत्तम किस्म का सावुन है जैसे साबुन लगाकर कपड़ा धोने से उसका पूरा मैल निकल जाता है उसी प्रकार सत्पात्र को दान करने से आरम्भ आदि पञ्च सूना से उपाजित पाप मल धुल जाता है । इमलिये श्रेणिक महाराज दान में अपने धन का सदुपयोग करते थे। पनसूना कौन कौन हैं--प्रत्येक गृहस्थ श्रावक को प्रतिदिन चक्की पीसना चल्हा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद सिंगडी जलाना, ओखली में धान्यादि कूटना, घर को भाड़ना और पानी भरना ये पांच अनिवार्य रूप से करने ही पड़ते हैं अतः इनसे उत्पन्न आरम्भ जनित पापार्जन स्वाभाविक हैं । इन्हें ही पञ्चसुना कहते हैं । वर्तमान युग मशीनी युग है । वैज्ञानिक आविष्कारों ने मनुष्य को निष्क्रिय प्रमादी कठपुतला बना दिया है । सारे कार्य मशीन से हो जाते हैं और इस प्रकार कुछ लोग असत्प्रलाप भी करते हैं कि हमें तो पञ्चसूना पाप लगता ही नहीं है। क्योंकि आज आटा पोसने की हाथ से जरूरत नहीं पड़ती। मशीन चक्की पर आटा तयार हो जाता है । चक्की तो बिजली से चलती है हम हाथ से पीसते नहीं फिर हमें क्यों पापास्रव होगा ? तत्जन्य पप्पानव से इस सत्र ग़रो । चल्हा फुकने की भी आवश्यकता नहीं क्योंकि गैस स्टोव आदि साधन हैं और जल के लिये तो कुए ही नहीं हैं, पाइप नल लग गये हैं । झाड़ना बुहारना, चटनी पीसना सब कुछ बिजली मशीन से होता है फिर हमें पाप क्यों लगेगा ? और पाप हो नहीं आया तो फिर उसे धोने को देवपूजादि षट्कर्म करने की क्या आवश्यकता है ? पुण्य रूप साबुन को क्यों मंचित किया जाये ? इत्यादि । इस प्रकार की धारणा पूर्णतः गलत है, विपरीत है । विद्य त्त से तो कई गुणों अधिक हिंसा होती है । जहाँ जहाँ बिजली का संचार होता है वहाँ तक के असंख्यात जोव मरण को प्राप्त हो जाते हैं अत: पञ्चसूना दोष से बचाव नहीं हुआ अपितु प्रमाद अधिक होने से अधिक हिंसा हुई । अतः श्रेणिक महाराज के राज्य में भी प जीव हिंसात्मक वस्तुओं का प्रयोग नहीं करते थे । राजा श्रेणिक स्वयं भी शूद्ध विधि से तैयार की गई बस्तुओं का सत्पात्रों को दान करते थे तथा परम विवेकशील थे । हिमा से भयभीत थे। दया प्रान्वीक्षिकी यी वार्ता दण्डनीतीति नाम भाक् । राजविद्याश्चतस्रोऽपि तस्याभवन् फलप्रदाः ।।६।। अन्वयार्थ ---(इति) इस प्रकार राज्य संचालन में कुशल (तस्य) उस श्रेणिक महागज की आन्वीक्षिकी, यी, बार्ता और दण्डनीति नाम वाली चारों ही राजविद्याएँ सफलउत्तम फल को देने वाली थीं । भावार्थ-राज संचालन एक वृहद् कला है। राजा अपनी प्रजा का रक्षक पोषक और उत्त्थान करने वाला होता है । जिस प्रकार माता पिता अपनी संतान का भरण पोषण और सर्वाङ्गीण विकास करते हैं, योग्य बनाते हैं उसी प्रकार योग्य राजा भी अपनी समस्त प्रजा को दुर्गणों से रक्षित कर सद्गुणी योग्य चारों पुरूषार्थों का साधक बनाता है । शिष्टों का पालन और दुष्टों का निग्रह करता है । जिस प्रकार माता पिता पुत्र के प्रति वात्सल्य के साथ समयानुसार ताड़ना, दण्डादि का प्रयोग भी करते हैं उसी प्रकार राजा भी प्रजा के प्रति समयानुसार साम, दाम, दण्ड भेद का प्रयोग किया करते हैं। राजाओं को चार प्रकार की नीतियाँ प्रसिद्ध हैं-- (1) आन्वीक्षिकी-शब्दानुसार इसका अर्थ भी है । अर्थात् सूक्ष्म निरीक्षण करना, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] अपने बलाबल की पहिचान करना, हिताहित का ज्ञान करना, अच्छा बुरा समझना, सच्चे अठे का परिज्ञान करना आदि अर्थ आन्वीक्षिको नीति से परिलक्षित होते हैं । जिस प्रकार रत्नपरीक्षक रत्न की परीक्षा करता है उसी प्रकार राजा, न्याय के लिये सूक्ष्म बुद्धि के प्रयोग रूप ऐसी आन्वीक्षिकी विद्या का प्रयोग करता है। (2) त्रयी विद्या शास्त्रानुसार धर्म अधर्म समझकर उसके सफल कुफल की विवेचना करना, धर्म को स्वीकार करना और अधर्म का परिहार करना यह नयी विद्या है। (3) दार्ता- अर्थ अनर्थ को समझकर प्रजाजनों का रक्षण करना पालन करना वार्ता है। (4) दण्डनीति दुष्टों का दमन करना, अन्याय को रोकना पापी अपराधी को इस प्रकार दण्ड देना कि वे अपराध त्याग दें और अन्य जनों को उस प्रकार के दोषों से भय हो जाय ताकि वे अपराध ही न करें। इस प्रकार इन चारों विद्याओं का यह संक्षिप्त लक्षण है। (विशेष जानकारी के लिये देखिये महापुराण पर्व नं. ४) भूपति श्रेणिक इन सभी विद्याओं में निष्णात थे इसलिये राज्य में अमन चैन था ।। ६६ ।। स बभौ भूपतिनित्यं परैराजशतैर्वृतः । यथा स्वर्ग सुधीश्शकस्संयुतस्सुरसत्तमः ॥७०।। अन्वयार्थ-- (यथा) जिस प्रकार (स्वर्ग) स्वर्गलोक में (सुधीः) श्रेष्ठबुद्धि वाला (शक्रः) इन्द्र (नरसन्तमैः) उत्तम अनेक देवों के द्वारा (संयुतः) परिवृत हुआ (वसति) रहता है (तथा) उसी प्रकार (सः भूपतिः) वह राजा श्रेणिक (नित्यं) सतत (परैर्राजशतवृतः) श्रेष्ठ अनेक राजाओं से घिरा हुआ (बी) शोभता था। भावार्थ-महाराज श्रेणिक के सद्गुणों उदार वृत्ति और स्नेहपूर्ण मित्रवत् व्यवहार से अनेकों श्रेष्ठ राजा उसकी सेवा में उपस्थित रहते थे । उन सुयोग्य वीर शक्तिशाली राजाओं से परिमण्डित श्रेणिक महाराज इस प्रकार शोभायमान होते थे मानो श्रेष्ठ देवताओं से सेवित बुद्धिमान इन्द्र ही स्वर्ग लोक से आकर यहाँ मर्त्यलोक में राजसिंहासन पर आ दिराजा है । यहाँ श्रेणिक को कवि ने अर्थात् आचार्य श्री ने इन्द्र की तुलना दी है ।। ७० ॥ तथा स राजितो राजा राज्याङ्ग सप्तभिस्तराम् । जीवादिसप्तभिस्तत्त्वैर्यथा लोकोऽयमुनतः ॥७॥ अन्षणर्थ (यथा) जिस प्रकार (जीवादिसप्तभिः तत्व:) जीवादि सात तत्वों से (समुन्नतः लोकोऽयम् ) समुन्नत यह लोक (राजितो) शोभित है (तथा) उसी प्रकार (राजा) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद राजा श्रेणिक (सप्तभिस्तराम्) श्रेष्ठ सप्ताङ्ग (राज्याङ्गः) राज्यों से (राजितो) शोभित था। भावार्थ -जोवादि सप्त तत्वों से शोभित लोक के समान सप्ताङ्ग राज्यों से मंडित राजा श्रेणिक शोभते थे । जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये साप्त तत्व हैं। जो ज्ञान दर्शन लक्षण बाला है वह जीव है और जिनमें ज्ञान दर्शन गुण नहीं पाये जाते हैं वे अजोव हैं । जिन शुभाशुभ परिणामों से कर्म आते हैं वह अथवा कर्मों का आना आस्रव है। कर्मों का आत्म प्रदेशों के नेष संबंधोपाप होना मध हैना जिन शुभाशुभ परिणामों से कर्म, दूध और पानी के समान आत्मप्रदेशों के साथ संश्लेष सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं वह बन्ध है । आते हुए कर्मों का रुक जाना संवर है अथवा जिन पञ्च महावत आदि समिति, गुप्ति तपादि के धारण करने रूप परिणामों से आते हुए कर्म रुक जाते हैं वह संवर है । तप के बल से बिना फल दिये ही कर्मों का झड़ जाना अथवा कर्मों का यथाकाल फल देकर जाना निर्जरा है अथवा जिन परिणामों से कर्मों का एक देश क्षय होता है वह निर्जरा है। कर्मों को आत्यन्तिक निवृत्ति मोक्ष है अथवा आठ कर्मों का, जिन न्युपरत क्रिया निवृत्ति रूप शुक्लध्यान के बल से क्षय होता है वह मोक्ष है । इन सप्त तत्वों का योग हो संसार या लोक है । अर्थात् जैसे सप्त तत्वा के बिना लोक का समुल्लेख नहीं हो सकता है उसी प्रकार सप्त अङ्गों के बिना राज्य 'भो पूर्णता को प्राप्त नहीं होता है, समुन्नत नहीं कहा जा सकता है। राजा, मन्त्री, मित्र, कोष, देश, किला और सेना से सहित राज्य को सप्ताङ्ग राज्य कहते हैं। ऐसे सप्ताङ्ग राज्य के अधिपति श्रेणित की शोभा सप्त तत्वों से शोभित लोक के समान थी ।।७१|| उक्त सप्ताङ्ग राज्य का निर्देश करते हुए आचार्य लिखते हैं स्वाम्यमात्यसुहृदकोष दुर्गदेशबलानि च । सप्ताङ्गराज्यमित्याहुर्नीतिशास्त्रविचक्षरणाः ॥७२।। अन्वयार्थ .. (नीतिशास्त्र विचक्षणाः) नीतिशास्त्र के विशेषज्ञ पुरुषों ने (स्वाम्यमात्य) स्वामी, मन्त्री, (सुहद् कोषदुर्गदेशबलानि च) मित्र, कोष, दुर्ग, देश और सेना को (सप्ताङ्ग राज्यं) सप्ताङ्ग राज ति आहुः) ऐसा कहा है ।। ७२ ॥ भावार्य-सप्ताङ्ग राज्यों का नाम निर्देश प्रस्तुत एलोक में किया गया है जिनका लक्षण इस प्रकार है। (1) राजा-राजा, भूपति, नृपति ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं । शब्द व्युत्पत्ति की अपेक्षा उनका लक्षण इस प्रकार है जो समस्त प्रजाजनों को राजी रखने वाला हो वह राजा है । समस्त पृथ्वी का जो रक्षक होता है वह भूपति कहलाता है । समस्त नर अर्थात् मनुष्यों का रक्षण करने वाला नृपति कहलाता है। (2) मंत्री—जो राजा को राज्य कार्य में योग्य मन्त्रणा या सलाह देने वाला हो तथा समस्त राज्य कार्यों का अधिकारी हो उसे मन्त्री कहते हैं। कहा भी है Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] [ ३१ मेधावी प्रतिभाषतो गुणपरो श्रीमान् शीलं पट: । भावज्ञो गुणदोषे निपुणता संगीत वाद्यादिषु । मध्यस्थो मृदुवाक्य धीर हृदयाः तत्पण्डितो सात्विका । भाषा भेद सुलक्षणा सुकाविभिः प्रोक्ता श्रुते मंत्रिणा ।। अर्थात् श्रेष्ठ मंत्री में निम्नलिखित गुणों का सनिवेश होना चाहिये (1) मेधावो विवेकवान बिहान होना, (2) गृगवान होना ! 3) सभी भाषाओं का जानकार होना (4) श्रीमान्–ऐश्वर्यवान् शीलव्रतधारी, सदाचारी होना (५) गुण दोषों की पहचान में निपुरण होना (६) संगीत वाद्य आदि कलाओं का भी जानकार होना (७) मध्यस्थ साम्यभावी होना (८) मृदुभाषी धैर्यशील और पंडित होना चाहिये । सप्ताङ्ग राज्य में तीसरा भेद सुहृद् है । सुहृद् का अर्थ मित्र है। जो उत्तम पवित्र हृदय वाला हो वह मुहृद् कहलाता है । कहा भी है पापानिवारयति योजयते हिताय, गुह्य निगुह्यति गुणान् प्रकटी करोति । आपद्गतं न जहाति ददाति काले, सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ।। अर्थ ---जो पाप से छड़ाकर आत्महित में लगाने वाला हो तथा गुप्त बातों को या दोष आदि को छिपाकर गुणों को प्रकट करने वाला हो, विपत्तिकाल में साथ नहीं छोड़ता है वही सच्चा मित्र है। कोष–राज्य की विशिष्ट धन सम्पत्ति जहाँ रखी जाती है बह कोष है। दुर्ग-- शत्रु की सुरक्षा के लिये जो ऊँचे कोट युक्त दीवालों से घिरा हुआ स्थान हो उसे दुर्ग कहते हैं । यह सप्ताङ्ग राज्य का पांचवा भेद है । देश-जनपदों का वह निवासस्थान जो अनेक नामों और नगरों से सहित है उसे देश कहते हैं । यह छठा भेद है। बल या सेना—जिसके बल से राजा शत्रुओं को जीतता है वह सेना कहलाती है यह सातवाँ भेद है । राजा श्रेणिक का सप्ताङ्ग राज्य भी इसी प्रकार का था। सन्धिविग्रहयानाख्यमासनं संश्रयस्तथा । द्वैधीभावः षडेते च प्रोक्ता राज्याङ्गता बुधैः ।।७३।। अन्वयार्थ (बुधैः) विद्वानों के द्वारा (सन्धिविग्रहयान) सन्धि करना, विग्रह करना, यान रखना (आसन) आसन योग्य स्थान (संश्रयः) आधयप्रदान (च) और (तथा) उसी प्रकार से (द्वैधी भावः) द्वैधी भाव-दो के बीच विरोध करना (एते) ये (पड्) छः (राज्याङ्गता) राज्य के अङ्ग (प्रोक्ता) कहे गये हैं। मावार्थ ---राजागण अपने राज्य की स्थिति, वृद्धि और समृद्धि के लिये छः प्रकार के प्रयोग करते हैं । ये ही राज्य के षडान कहे जाते हैं । इनका स्वरूप निम्न प्रकार है Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद (१) सन्धि-जिस समय राजा अपने शत्रु को अपने से अधिक बलवान ज्ञात कर लेता है । युद्ध में विजय की अपेक्षा सैनिकों के संहार और असफलता का आभास मिल जाता है तो सुभटों और स्वयं की तथा राज्य की क्षति का विचार कर उसके साथ प्रीति-मेल स्थापित कर लेता है, इस समझौते का नाम सन्धि है। (२) विग्रह-परस्पर विरोध करना विग्रह है। कोई भी राजा अहंकारवश अपने प्रभुत्व में अन्य राजा पर आक्रमण करता है। उसे अपने आधीन करना चाहता है । युद्ध के लिये उसे आमन्त्रित करता है इस विग्रह कहते हैं। (३) यान -सवारी को यान कहते हैं। रथ, हस्ती, अश्व, सिंहादि पान कहलाते हैं। वाहन के अभाव में राजा अपनी वा अपने राज्य की सुरक्षा नहीं कर सकता राज्य रक्षण के लिये योग्य सवारी साधन रहना प.मावश्यक है। (४) प्रासन–राज सभा आदि स्थानों पर बैठने के लिये विशेष-स्थान विशेष आसन कहलाते हैं । अर्थात् योग्य सम्मान प्रदान के साधन को आसन कहते हैं। किसी भी व्यक्ति के आने जाने पर उचित-योग्य आसन प्रदान करने से प्रोति और न देने से देष विदित होता है। यह भी एक दूसरे के अभिप्राय वो अवगत करने का साधन होता है अतः राज्य का विशेष अङ्ग माना जाता है। (५) संश्रय-आश्रय प्रदान करना । राजाओं के लिये यह महान उपाय है । जिस समय कोई विरोधी राजा शत्रु दल का आकर अपने में मिलना चाहे तो बुद्धिमान राजा गण उसे अपने दल में आश्रय देकर अपनी शक्ति को बढ़ा लेते हैं और सरलता से शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेते हैं । यथा रामचन्द्र महाराज ने शरणागत विभीषण, सुग्रीवादि को आश्रय देकर अपना सैन्यदल विशाल और सुबह बना लिया और सरलता से लवाधिपति रावण को पराजित कर अपना कार्य सिद्ध कर लिया। (६) द्वधीभाव-विरोध डालकर-फूट पदाकर शत्रु को कमजोर बना देना शक्ति विहीन कर उस पर विजय प्राप्त करना, द्वैधी भाव है। कोई राजा बलिष्ठ है तो उसके अनुयायियों में किसी प्रकार विरोध कर फोड़ कर देना, लोभादि से वश करना और शत्रुबल को क्षीण कर देना द्वैधी भाव है। राजनीति एक पेचीदा राग है । इसमें समयानुसार दावपेर्च चलाने पड़ते हैं। न्याय अन्याय, प्रेमविरोध, सन्धि विग्रह आदि नाना प्रकार के प्रयत्नों से अपने राज्य को समृद्ध बनाने का प्रयत्न किया जाता है । अतः संक्षेप में उपर्युक्त छह अंगों का ज्ञान और ध्यान राजाओं को रखना चाहिए । महामण्डलेश्वर महाराज श्रेणिक में ये छहों नीतियाँ विद्यमान थीं ।।७३।। तैश्चराजगूरणैः षड्भिः, राजा राजीवलोचनः । स रेजे मुनिनाथो वा षडावश्यक-कर्मभिः ।।७४॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] अन्वयार्थ-(राजीव लोचनः) कमल सदृश नेत्रों वाला (स राजा) यह श्रेणिक नृपति (त:) उन (षभिःराजगुणैः) छः राजाओं के गुणों द्वारा (तथा रेजे) उस प्रकार शोभायमान हुआ (यथा) जिस प्रकार (मुनिनाथे) मुनिपुङ्गब-प्राचार्य (षडावश्यक कर्मभिः छःआवश्यक कर्मों का पालन कर (रेजे) शोभते हैं। भावार्थ -मनुष्य की योग्यता, प्रभुता का आधार-उसकी कर्तव्यनिष्ठता है। जो अपने पदानुसार अपने अधिकारों के रक्षक कर्तव्यों का जितनी कठोरता से पालन करता है उसका जीवन उतना ही प्राञ्जल होकर महान बन जाता है। जैनागम में दिगम्बर साधुओं के अवश्य ही पालन करने योग्य षड् कर्म कहे हैं । जिनका पालन करना यतिधर्म में अनिवार्य है उन्हें आवश्यक कर्म कहते हैं। ये कर्म ६ हैं--१ समता, २ वन्दना, ३ स्तुति, ४ प्रतिक्रमण ५ स्वाध्याय और ६ कायोत्सर्ग । (१) समता-राग द्वेष का परिहार कर प्राणी मात्र के प्रति समान भाव रखना अथवा सुख दुःख, जीवन मरण, कांच काञ्चन, लाभ अलाभ आदि में साम्य भाव का होना, हर्ष विपाद नहीं करना "समता है। (२) वन्दना-- २४ तीर्थंकरों या पञ्चपरमेष्ठियों में से किसी एक का गुणगान करना स्तोत्र पढ़ना, बन्दना कहलाती है। (३) स्तुति--सामूहिक रूप से सभी तीर्थकरों का स्तोत्र पड़ना स्तुति कहलाती है। (४) प्रतिक्रमण--प्रमाद व कपायादि से अपने ब्रतों में लगे दोषों का परिहार करते हुए पाठ करना प्रतिक्रमण कहलाता है। प्रति का अर्थ है प्रत्येक और क्रम का अर्थ है चरण अर्थात् प्रत्येक क्रिया के आचरण के प्रति सावधान रहने का उपाय प्रतिक्रमण है। (५) स्वाध्यस्य--सर्वज्ञ प्रणीत आगम का पाठ प्रकार की शुद्धियों सहित अध्ययन करना, तत्त्वों का अभ्यास करना स्वाध्याय कहलाता है। (६) कायोत्सर्ग---शरीर से ममत्त्व त्यागकर खड़े होकर निश्चल ध्यान करना कायोत्सर्ग है । आत्मध्यान के अभ्यास के लिए बैठकर शरीर ममत्व का त्याग भी कायोत्सर्ग है। इस प्रकार ये साधु के छह आवश्यक कर्म हैं । निष्प्रमाद और जागरूक रहकर जो इनका निरतिचार पालन वारता है वह उतना ही महान होता है, आत्मीय गुणों से अनंकृत होकर देदीप्यमान होता है । इसी प्रकार राजाओं में जो राजा-राज्य के षडङ्गों का प्रयोग करता है उसका राज्य और वह दोनों ही विशेष यशस्वी, कीर्तिमान और समृद्ध कहलाता है । इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि राजा इस लोक सम्बन्धी राज्य का भोक्ता है और साधु पारलौकिक सुख के भोक्ता होते हैं । दोनों ही को अपने अपने कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है। अतः कर्तव्यपरायणता हो सफलता को कुञ्जी है ।।७४।। यथा पञ्चाङ्ग मन्त्रेण स प्रभुः प्रविराजत तथा पञ्चनमस्कार महामन्त्रेण शुद्धधीः ।।७५॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद अन्वयार्थ- (यथा) जिस प्रकार (स प्रभुः) वह महामण्डलेश्वर श्रेणिक राजा (पञ्चाङ्गमन्त्रैण) सहायक, साधन, कोषादि पञ्चमंत्रों से (प्रविराजते) सुशोभित होता है (तथा) उसी प्रकार (पञ्चनमस्कार महामन्त्रेण) अनादि अनिधन महामन्त्र के द्वारा (शुद्ध धी:) शुद्ध बुद्धिवाला (अध्यात्म क्षेत्र में शोभता है) भावार्थ-राज्य की सफलता के लिये राजनीतिज्ञों ने पञ्च अङ्ग रूप मन्त्र कहा है। ये पञ्च अङ्ग हैं-सहायक, साधनोपाय, देश की स्थिति स्वजाना और बलाबल । इनका प्रयोग करने वाला राजा, राज्य को समृद्धि करने में उसी प्रकार सफल होता है जिस प्रकार पच्ननमस्कार मन्त्र से शुद्ध बुद्धि वाला, प्राध्यात्मिक-धार्मिक क्षेत्र में सम्यक विकास को प्राप्त हुआ शोभता है। __णनोकार मन्त्र सर्वोत्तम है. इसके द्वारा उभय लोक की सिद्धि होती है । मन वचन काय पवित्र होते हैं । विघ्न, उपद्रव, संकट टल जाते हैं । उपसर्ग परोषह आदि नष्ट हो जाते हैं। परिणाम शुद्धि होती है। भयङ्कर विषादि का परिहार होता है। डाकिनी, शाकिनी, भूत व्यंतर आदि बाधायें आती नहीं। आई हुई दूर हो जाती है। परलोक में स्वर्गादि को प्राप्ति होती है। परम्परा से मोक्ष को प्राप्ति होती है । इसी प्रकार राजाओं को राज्य संचालन के लिये भी पाँच अङ्ग कहे गये हैं । उनका प्रयोक्ता राजा स्वचक्र परचक्र आदि उपद्रवों से रक्षित होकर राज्यकार्य में सफल होता है । ||७५।। सहायं साधनोपायो दैश्यं कोषं बलाबलम् । । विपत्तश्च प्रतीकारः पञ्चाङ्ग मन्त्रमाश्रयेत् ।।७६।। अन्वयार्थ--(विपतः। आपत्ति या संकट के (प्रतीकारः) प्रतोकार स्वरूप (सहायं) अनुकूल सहयोगी, (साधनोपाय) कार्यसिद्धि में कारण भुत उपाय-प्रयत्न, (दैश्य) देश सम्बन्धी स्थितियों का ज्ञान, (कोष) खजाना, (च) और (बलावलम्) बल और अबल रूप (पञ्चाङ्ग) पञ्चाङ्ग (मन्त्री मन्त्र को (आश्रयेत्) आश्रय करें। भावार्थ----राजा अपने राज्य को स्थायी दृढ़ और विकसित करने के लिये सर्व प्रथम अपने सहायक तैयार करता है अर्थात् स्नेह बन्धन में बांधकर अपने अनुयायियों को सदा अनुकूल बनाये रखता है । वह अपने कार्य की सिद्धि के लिये न्यायोचित उपाय करते रहना तथा धर्मक्रिया, मन्त्र आदि का संचय, सन्धि विग्रह आदि की जांच पड़ताल आदि साधनोपाय में संलग्न रहता है। इसी प्रकार देश्य, अजाना और बलाबल का भी आश्रय लेता है। देश मेंराज्य में कहां क्या हो रहा है। लोग राज्यानुसार चलते या नहीं। राजकीय नियमों का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है ? कौन दुःखी है कौन सुखी है किसे क्या चाहिये क्या नहीं, इसका ध्यान रखना देण्य है। खजाने में कितना धन है ? बढ़ रहा है या घट रहा है इसका ध्यान रखना । कम हृया तो क्यों ? उसकी वृद्धि किस प्रकार करना आदि का ऊहापोह करते रहना क्योंकि खजाना भरपूर रखने पर युद्ध ईति भीति अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि उपद्रव टल सकते हैं। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] [ ३५ बलाबल की पहिचान न कर संग्रामादि में विजय पाना दुर्लभ हो सकता है अथवा परिणाम विपरीत भी हो सकता है अतः इसका बराबर ध्यान रखना परमावश्यक है । इस प्रकार ये पांचों उपाय मन्त्र को भांति गृप्त रखना चाहिए। यहां प्राचार्य श्री जी ने इन्हें पच्चनमस्कार सदृश कहा है । इसका अभिप्राय इतना ही है कि जिस प्रकार गुप्त मन्त्र सर्व कार्य शिविगार होता है उसे मार गई यायों से गुप्त, राजा अपने जीवन में सदैव सफलता प्राप्त करता है । ।१७६।। यथागुप्तित्रयेणोच्चैः शोभते मुनि सत्तमः । मन्त्रोत्साहप्रभुख्यातशक्तिभिस्सप्रभुबमौ ॥७७॥ अन्वयार्थ-(यथा) जिस प्रकार (गुप्तित्रयेण) उतम तीन गुप्तियों के द्वाग (मुनिसत्तमः) श्रेष्ठ मुनिजन (उच्चैः) विशेष रूप से (शोभते) शोभा को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार (मन्त्रोत्साहप्रमुख्यात) मन्त्रणा-सलाह देने वाली और उत्साह को बढ़ाने वाली ऐसी निर्दिष्ट शक्तियों से युक्त (स) वह श्रेणिक (प्रभु) राजा (वभौ) शोभित था। भावार्थ--तीन गुप्तियाँ मुनिजनों के लिये श्रेष्ठ ग्राभूषण हैं इसी प्रकार योग्य मंत्रणा देने वाली और उत्साह को बढ़ाने वाली राजशक्तियों की प्राप्ति राजा के लिये श्रेष्ठ प्राभूषण स्वरूप है इससे राजा की शोभा बढ़ती है। गुप्तियां तीन हैं--मनोगुप्ति, बननगुप्ति, कायगुप्ति । यहां हम व्यवहार और निश्चय नय को अपेक्षा गुप्नियों के स्वरूप का विचार भी करेंगे । व्यवहार नय को अपेक्षा मनोगुप्ति का स्वरूप नियमसार में इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने बताया है "कालुस्समोह सण्णारागद्दोसाइ असुह भावाणम् । परिहारो मणगुत्ती ववहारणयेण परिकह्यिम् ।।" मानसिक कालुप्य राग, द्वेप, मोह, आहार, भय, मेथुन और परिग्रह की वाञ्छा है, ये सभी अशुभ परिणाम हैं, इनको छोड़ना, इनसे अपने मन को पराङ्मुख रखना व्यवहार से मनोमुप्ति है । निश्चय से--"जा रायादिणियत्ति मणस्य जाणाहि तं मनोगुत्ती" रागादि की निवृत्ति मनोगुप्ति है अर्थात् अशुभ और शुभ दोनों से निवृत्त होकर शुद्धात्म स्वरूप में अपने उपयोग को लगाना मनोगुरित है। इसी प्रकार वचन गुप्ति के विषय में भी श्रीकुन्दकुन्दस्वामी कहते हैं.... "थी राजचोर भक्तकहादिवयणस्स पाबहेउस्स । परिहारो वयगुत्ती अलियादिणियत्ति वयरणं वा ।।" पापास्रव को कारण जो स्त्रीकथा, राजकथा, भक्तकथा, चोर कथादि हैं उनको छोड़ना. मिथ्या भाषण नहीं करना वचन गुप्ति है । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद निश्चय से "मोणं वा वयगुत्ति" मौन से रहना, शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के बचनों से निवृत्त होना वचन गुप्ति है। आगे कायगुप्ति का स्वरूप नियमसार में इस प्रकार बताया गया है-- चंधनछेदन मारण प्राकुचण तह पसारणादीया । काकिरिया णियत्ति द्दिठ्ठा कायगुत्ति त्ति || शरीर मे हिंसात्मक कार्यों का न करना. बन्धन दन मारणादि कार्य तथा पर्थ में आकुञ्चन' प्रसारणादि कार्य का न करना कायगुप्ति है । अथवा शुभ अशुभ दोनों प्रकार की क्रियाओं से निवृत्त होकर शरीर को निष्क्रिय रखना कायगुप्ति है। __ ये तीनों ही गृप्तियां अति दुर्लभ हैं । विशिष्ट तपस्वी मुनियों में ही पायी जाती हैं तथा मुनिजनों के लिये थे गुप्तियाँ ही ग्राभूषण हैं उनकी शोभा को बढ़ाने वाली हैं इसी प्रकार योग्य मन्त्रणा देने वाले मन्त्री, अनुकूल आचरण करने वाले उत्साहशील राजाओं और उत्तम सैन्य बल आदि की प्राप्ति होना राजा के लिये प्राभूषण है । इनसे राजा की शोभा बढ़ती है ॥७७।। न केवलं बहिः शत्रून् जयतिस्म महीपतिः । अन्तरङ्गोरूशत्रूश्च सविधान् संव्यजेष्ट सः ।।७८॥ अन्वयार्थ--(महीपतिः) राजा श्रेणिक (न केवल) न केवल (बहिः शत्रुन) बाह्य शत्रुओं को (जयतिस्म) जीतता था अपितु (षट् विधान ) छः प्रकार के (डरु अन्तरङ्ग शत्रून्) बलिष्ट अन्तरङ्ग शत्रुओं को भी (संन्यजेष्ट जीतता था । भावार्थ - राजा श्रेणिक महाराज अपने विशिष्ट शौर्य, वीर्य, पराक्रम के द्वारा तथा निज सैन्य बल से वाह्य में विपरीत पाचरण करने वाले जो शत्रुगण हैं उनको जीतने में तो कुमल था ही, साथ में जो क्रोध, मान, माया लोभ हर्ष और मद रूप शत्रु हैं उन पर भी विजय प्राप्त करने वाला था । अर्थात् राजा श्रेणिक महाराज अन्तरङ्ग बहिरङ्ग दोनो प्रकार से बलिष्ट थे । मावा मियाल्व अज्ञानादि अन्तरङ्ग शत्रुओं को जीतने की कला में भी निपुण थे, इन्ही अन्तरङ्ग शत्रुओं का निर्देश करते हुए आचार्य लिखते हैं- ।।७।। कामलोधश्चमानश्च लोभोहर्षस्तथामवः । । अन्तङ्गारिषड्वर्गाः क्षितीशानां भवन्त्यमी ॥७॥ अन्वयार्थ . (कामक्रोधश्चमानश्च) काम, क्रोध और मान (लोभोर्षस्तथामदः) लोभ हर्ष तथा मन्द (अमीषड्वर्गाः) ये छः प्रकार के ( क्षितीशानां) राजाओं के (अन्तरङ्गारि) अन्तरङ्ग शत्रु हैं। भावार्थ -- अन्तरङ्ग शत्र छ: प्रकार के हैं०(१) काम–पञ्चेन्द्रिय विषयों की इच्छा वाञ्छा को काम कहते हैं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] [ ३७ (२) क्रोध-.-'ऋध' धातु से क्रोध शब्द बना है जो क्षमा गुण का घात करने वाले कषाय विशेष का बोधक है । यह यात्मा को सर्वतः कष्ट देने वाला परिणाम है जैसा कि कहा भी है-कषति हिनस्ति आत्मानं कुगति प्रापणात् इति कषायः" जो हर प्रकार से जीव को कष्ट देता है दुर्गति का कारण है उसे कयाय कहते हैं और कषायों में क्रोध का प्रथम स्थान है। __ शक्ति की अपेक्षा क्रोध चार प्रकार का है-(१) पत्थर पर खींची गई रेखा के समान अधिक काल तक रहने वाला (२) पृथ्वी पर खींची गई रेखा के समान । जिसकी बासना छ: महीने तक बनी रह सकती है ऐसी क्रोधाग्नि । (३) धुलि रेखा के समान-जिसकी वासना १५ दिनों तक बनी रह सकती है ऐसी क्रोधाग्नि । (४) जल रेखा के समान-जिसकी वासना अन्तर्मुहूर्त तक ही रह सकती है ऐसी क्रोधाग्नि । ये चारों प्रकार के क्रोध क्रम से नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देव गति के कारण हैं। __ मान कषाय-मदुता या विमय गुण का घात करने वाले परिणाम विशेष को मान कहते हैं । माक्ति के तरतम स्थानों की अपेक्षा मान के भी ४ भेद हैं- (१) पत्थर के समान (२) हङ्गडी के समान (३) काठ के समान (४) बेंत के समान । इनकी वासना का काल ऋभ से श्रोध के समान ही जान लेना चाहिए । इनमें पत्थर के समान मान नरक भति का कारण है हड्डी के समान जो मान हैं बह निर्यच्च गति का कारण है । काठ के समान मान मनुष्य गति का और बेत के समान मान देव गति का कारण है। (३) माया कषाय-यात्मा के ऋजुता या सरलता गुरण का घात करने वाले कषाय विशेष का नाम माया है। इनके भी शक्ति की अपेक्षा ४ भेद है: (१) बाँस की जड़ के समान (२) मेढ़ी के सींग के समान (३) गोमूत्र के समान (४) खुरपे के समान । शेष कथन पूर्वबत् जानना चाहिये । (४) लोभ कषाय शुचिता निर्लोभत। या आकिञ्चन्य गुण का घात करने वाले कषाय विशेष का नाम लोम है । इनके भी शक्ति की अपेक्षा ४ भेद हैं- (१) क्रिमीराग के समान–किरिमची का रङ्ग अत्यंत गाढ़ होता है और बड़ी मुश्किल से छूटता है (२) चक्रमल के समान अर्थात् रथ आदि के पहियों के भीतर की ओंगन के समान (३) शरीर के मल के समान (४) हल्दी के रङ्ग के समान । शेष कथन पूर्ववत् जानना चाहिथे। इन कषाय रूपी शत्रुओं को जीतने के लिये वाह्य अस्त्र, शस्त्र, तलवार भाला आदि की आवश्यकता नहीं होती है इनको आत्म विशुद्धि के बल से जीता जा सकता है । (५) हर्ष --इन्द्रिय सुख की सामग्री के मिलने पर उसमें विशेष प्रानन्द मानना और शरीर सुख से अपने को सुखी मानना-इत्यादि रूप जो हर्ष है यह भी आत्म गुणों का घातक शत्रु है। (६) मद-- अहंकार भाव को मद कहते हैं । मद आठ प्रकार का है- (१) ज्ञान Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- -- ३८ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद मद-मैं बहुत बड़ा विद्वान हूँ ज्ञानी हूँ मेरे समान दूसरा नहीं है ऐसा विचार करना ज्ञानमद है। (२) पूजा का मद-सब लोग हमारी पूजा अर्चना वा सम्मान करते हैं मेरे समान अन्य को पूजा प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है इस प्रकार अहंकार करना पूजा मद है । (३) आति मद—मैं उत्तम जाति वाला हूँ इस प्रकार अहंकार करना जाति मद है। (४) बल का मद-मेरे समान बलिष्ठ कोई भी नहीं है इस प्रकार अहंकार करना बल मद है। (५) ऋद्धि मद–मुझे अनेक प्रकार की ऋद्धियां प्राप्त हैं अत: मेरे समान महान दूसर नहीं है इस प्रकार अहंकार करना ऋद्धि मद है । (६) तप मद- मैं अनशनादि उत्कृष्ट तप को करने वाला हूँ इस प्रकार तप वा मद करना तपोमद है। (७) कुल का मर--मै उच्च कुल वाला हूँ अतः मुझसे बड़ा दूसरा यहाँ कोई भी नहीं है ऐसा अहंकार करना कुल का मद है। (८) वपु-शरोर का मद-मेरे समान रूपवान कान्तिमान शरीर दुसरे का नहीं है इस प्रकार अपने सुन्दर शरीर का अहंकार करना बपुमद है । महामण्डलेश्वर राजा श्रेणिक महाराज, भेद प्रभेद सहित इन अन्तरङ्ग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिये निरन्तर सावधान वा प्रयत्नशील रहते थे ।।७।। . तस्य श्रेणिक भूपस्य दिव्यरूपस्य संबभौ । चेलिनी नामतो राज्ञी रतिर्वा काम-भूपतेः ॥८॥ अन्वयार्थ (दिव्यरूपस्य) दिव्य रूप के धारी (तस्य श्रेणिक भूपस्य) उस धेणिक राजा की (चेलिनी नाम तो राज्ञी) चेलिनी नामक रानी थी जो (कामभूपते: रतिः वा) कामदेव की पत्नी रति के समान (संबभी) शोभती थी। भावार्थ-प्रस्तुत प्रलोक में राजा श्रेणिक और रानी चेलनी के अतिशय रूप लावण्य का संकेत करते हुए आचार्य लिखते हैं कि श्रेणिक महाराज कामदेव के समान सुन्दर थे और चेलिनी भी अति रूपवती, जिनधर्म परायणा, शीलवन्ती थी तथा कामदेव की पत्नी रति के समान शोभती थी।1८॥ रूपलावण्य सौभाग्य भाग्यरत्नाकरक्षितिः । सा रेजे निजपुण्येन सुबता बा मुनेर्मतिः ॥१॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] [ ३६ अन्वयार्थ—(रूपलावण्य सौभाग्य) सुन्दर रूप कान्ति और उत्तम भाग्यवाली (रत्नाकर क्षितिः) गुण रूपी रत्नों युक्त अथवा रत्नों से परिपूर्ण भूमि के समान (सुव्रता सा) श्रावकोचित श्रेष्ट व्रतों को धारण करने वाली बह (निजपुण्येन) अपने पुण्य से (मुनेर्मतिः वा) वीतरागी मुनि की पवित्र बुद्धि के समान (रेजे) शोभती थी। भावार्थ-महारानी चेलना की रूप राशि अद्वितीय थी। उसे अपने रूप का तनिक भी मद नहीं था, बह लावण्य की प्रतिमा, सहज सौभाग्य की खान पुण्यरूपी रत्नों से भरपूर धेष्ठभूमि के समान अथवा रत्नाकर समुद्र के समान थी । समुद्र में अनेकों रत्न छिपे रहते हैं. इस रानी में भी दया दान, वात्सल्य, त्याग भाव. कला, विज्ञान, पातिन्नत, शीलाचारादि रत्नराशि अन्तनिहित थी । नगर्भा भमि में जैसे हीरा, माणिक पन्ना, पुखराज, नीलम आदि प्रकार के रत्त होते हैं उसी प्रकार यह चेलनी भी गण रूपी रत्नों से मण्डित थी तथा मद रहित अहंकार से रिक्त थी अत: उसकी शोभा मुनिजनों की पवित्र बुद्धि के समान श्रेष्ठ वा अनुपम थी। जिस प्रकार साधुजन निर्मल चारित्र और तप को धारण करते हुए तथा तलस्पर्शी आगमज्ञ होने पर भी उसका गर्व नहीं करते हैं उसी प्रकार चेलना रानी गुणों की खान थी पर उसे उनगुण रूपादि का अहंकार नहीं था ।।८१।। पात्रदानेन पूतात्मा या सदा शर्मकारिणी । अभूत् त्रिविष्टपेख्याता कीर्ति वा श्रेयसः प्रभोः ॥२॥ अन्वयार्थ (पात्रदानेन पूतात्मा) पात्रदान से पवित्रात्मा (सदा शर्मकारिणी) सदा सुखशान्ति के कार्यों को करने बाली (या) जो अर्थात् चेलनी महारानी (श्रेयसः) हितकर उत्तम कार्यों को करने वाले (प्रभोः) राजा श्रेणिक की (विविष्टपे) विश्व में विख्यात (कीर्ति वा अभूत् ) कीति स्वरूप थी। भावार्थ-यद्यपि चेलना कला, कौशल, रूप विद्या शिल्पादि अनेक गुणों से सम्पन्न थी किन्तु उसकी महतो कीति का कारण पात्र दान था । सदा सबका हित चाहने वाली परस्परोपग्रह की उत्तम भावना से पवित्र चेलना उत्तम मध्यम और जघन्य पात्रों को निरन्तर यथाविध दान देते रहने से विश्व में विख्यात हो गई थी जिस प्रकार महाराजा श्रेणिक सबके लिये सदा श्रेयकारी थे उसी प्रकार उत्तमोत्तम गुरणों से युक्त महारानी चेलना भी श्रेयकारिणी थीं। वे निरन्तर पात्रों को ही दान करती थी कुपात्र अपात्र को नहीं । क्योंकि पात्र को दिया गया दान ही परम्परा से मुक्ति का कारण है। ___ यहाँ यह प्रश्न होता है कि पात्र, कुपात्र और प्रपात्र में क्या भेद है ? और पात्र दान से किस प्रकार आत्मशुद्धि होती है ? समाधान--जो मोक्ष के कारण भूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप गुणों से युक्त हैं, वे पात्र हैं । सकल चारित्र और सम्यक्त्व सहित महामुनि उत्तम पात्र हैं । देश Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद चारित्र और सम्यक्त्व सहित श्रावक मध्यम पात्र हैं। व्रत रहित और सम्यक्त्व सहित धावक जघन्य पात्र हैं। कुपात्र किसे कहते हैं ? उसका समाधान भाव संग्रह में इस प्रकार है-- जो रयणत्तय रहियं मिच्छमय कह्यि धम्म अगलग्गं । जह विहु तवइ सुधोरं तहा वि तं कुच्छिचं पत्तम् ।।प्रलोक नं ५३०।। जो पुरुष रत्नत्रय से रहित हैं और मिथ्यामत में कहे हए धर्म में लीन रहता है ऐसा पुरुष चाहे जितना घोर तपश्चरण करे तथापि वह कुपात्र ही कहलाता है। आगे अपात्र को कहते हैं--- जस्स ण तवो ण चरणं ण गरसत्थि पर पुणो कोई : तं जाणेह अपत्तं अफलं दाणं कयं तस्स ।।५३१।। जो न तो तपश्चरण करता है न किसी प्रकार का चारित्र पालता है और न उसमें कोई श्रेष्ठ गुण है ऐसा पुरुष अपात्र कहलाता है । ऐसे अपात्र को दान देना सर्वथा व्यर्थ है । (जिस प्रकार स्वाति नक्षत्र में वर्षा का जल सीप में गिरकर मोती बन जाता है, कदली पत्र पर गिरने से कपूर' बन जाता है। सर्प के मुख में गिरकर बही जल विष बन जाता है। इसी प्रकार पात्र के अनुसार दिया गया हमारा द्रव्य भी भिन्न भिन्न फलों को देता है। एक ही कुएं का पानी गन्ने के पेड़ की जड़ में पहुँच कर मधुर रस रूप परिणत हो जाता है, नीम के पेड़ में पहुँच कर कडुवा हो जाता है। इसी प्रकार पात्र कुपात्र अपात्र को दिया दान भी भिन्न-भिन्न फलों को देने वाला होता है।) श्री चेलना महारानी निरन्तर पात्र को ही दान देने में निरत थीं। जिसके फलस्वरूप उन्होंने मुक्ति को देने वाले सातिशय पुण्य का बंध किया था तभी प्राचार्य श्री ने चेलना को "पात्र दानेन पूतात्मा" ऐसा श्लोक में कहा है ।।२।। जिनेन्द्र चरणाम्भोज सेवने भ्रमरी यथा । सर्वतत्वार्य संदोह विज्ञाना वा सरस्वती ।।८३॥ दिव्याभरण सद्वस्त्रमंडिता सासती बभौ । नित्यं दानप्रवाहेन कल्पवल्लीव कोमला ॥८४।। अन्वयार्ग-(यथा भ्रमरी) भ्रमरी के समान (जिनेन्द्र चरणाम्भोज सेवने) जिनेन्द्र प्रभु के चरणकमलों को सेवा में निरत एवं (सर्वतत्वार्थसंदोह विज्ञाना) सम्पूर्ण तत्वार्थ समूह को जानने वाली बह चेलना (सरस्वती वा) मानों सरस्वती ही थी। (दिव्याभरण सद्वस्त्र मंडिता) दिव्य आभूषण और उत्तम वस्त्रों से अलंकृत ( सा सती) वह साध्वी-शीलवन्ती चेलना (नित्ये दान प्रवाहेण) निरन्तर दान क्रिया के प्रवाह से Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] अर्थात् दान करते रहने से (कोमला) मृदु सुकोमल (कल्पबल्ली इव) कल्पलता के समान (वभी) शोभित थी। 'भावार्य-जिस प्रकार भ्रमर, पुष्प को सुगन्ध को पाकर अतिशय प्रानन्द को अनुभव करता है उसी प्रकार चेलना महारानी थी जिनेन्द्र प्रभ के चरण कमलों को पाकर अतिशय आनन्द का अनुभव करती थीं । उत्कृष्ट भक्ति के साथ-साथ बह विशिष्ट क्षयोपशम रूप शक्ति से भी समन्वित थी। सम्पूर्ण तत्वार्थ को आगमानुसार जानने वाली बह चेलना साक्षात् सरस्वती के समान प्रतिभासित होती थी। जिस प्रकार हीरे को सोने के बीच में जड़ दिया जाय तो उसकी शोभा द्विगुणित हो जाती है उसी प्रकार उत्तम रूप और गुणों से सम्पन्न दिव्य आभूषणों से अलंकृत चेलना महारानी विशेष रूप से शोभित हुई । श्राबकोचित गुणों के उल्लेख में दाम और पूजा को पागम में सर्वत्र विशेष महत्व दिया गया है । षट् कर्मों में तत्पर कोमलाङ्ग रानी चेलना भी कल्पवृक्ष के समान याचकों को योग्य इष्ट वस्तु देकर तथा ऋषि मुनि आर्यिकादिकों को नवधा भक्ति पूर्वक दाता के सप्त गुणों का आचरण करती हुई आहार दानादि देकर सुशोभित हुई, प्रख्यात हुई। यहाँ प्रकरण के अनुसार दाता के सात गुणों का परिज्ञान आवश्यक है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में दाता के सात गुण इस प्रकार बताये गये हैं-- ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानसुयत्वम् अविपादित्वमुदिल्वे निरहङ्कारित्रिमिति हि दातृगुणाः” ॥श्लोक नं० १६६ ।। (१) इस लोक सम्बन्धी फल की अर्थात् पंचेन्द्रिय विषय सुख की इच्छा न करना (२) क्षमा-यान देते समय क्रोध नहीं करना, मान्ति से निर्मल भाव से दान देना । (३) निष्कपटता-बाहर में भक्ति करे और अन्तरङ्ग में परिणाम खराब रखे ऐसा नहीं करना । (४) अनसुयत्व---दूसरे दातार के प्रति ईयां भाव दुर्भाव न रखना अर्थात् अपने घर मुनिराज का आहार न हो और दूसरे के घर हो जाये तो दूसरे के प्रति बुरा भाव न करना । (५) अविषादित्व-विषाद न करना अर्थात् हमारे घर अच्छी वस्तु थी वह हमने उनको यों ही दे दी अथवा हमारे यहाँ अच्छी वस्तु थी वह हम नहीं दे सके, ऐसा खिन्न परिणाम न करें। (६) मुदित्य-दान देकर हर्ष बहुत करे अर्थात् अत्यन्त आनन्दित होवे। (७) निरहङ्कारित्व-अभिमान न करना अर्थात् हम बड़े दातार हैं ऐसा मन में अभिमान न करना। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद . इस प्रकार ये सात गुण दाता के हैं। रानी चेलना में ये सातों गुण मौजुद थे । तत्वार्थसूत्र में कहा है-~"विधिद्रव्यदातृवात्रविशेषात् तद्विशेषः" विधि विशेष, द्रव्यविशेष और पात्र विशेष से दान में विशेषता आती है। शंका-विधि विशेष क्या है ? समाधान--प्रतिग्रह (पड़गाहन) आदि करने का जो क्रम है वह विधि है और प्रतिग्रह आदि में प्रादर और अनादर होने से जो भेद होता है वह विधिविशेष है। आदर और विनय के साथ भक्ति पूर्वक दान करना चाहिये । शंका-द्रव्य विशेष क्या है ? समाधान—जिससे तप और स्वाध्याय आदि की वृद्धि होती है वह द्रव्य विशेष है। शंका- दातृ विशेष क्या है ? समाधान--अनसूया और अविषादित्व आदि ७ गुणों का होना दाता की विशेषता है । शंङ्गा--पात्र विशेष क्या है ? समाधान मोक्ष के कारणभूत रत्नत्रय आदि गुणों से युक्त रहना पात्र की विशेषता है। जैसे पृथ्वी आदि में विशेषता होने से उसमें उत्पन्न हुए धान्य में विशेपता आ जाती है वैसे ही विधि आदि की विशेषता से दान से प्राप्त होने वाले गुण्य में विशेषता मा जाती है। चेलना महारानी का दान इन सभी विशेषताओं से युक्त था जिससे उसके द्वारा दिया गया दान लौकिक सम्पत्तियों के साथ-साथ यात्म शुद्धि में भो साधक था। "क्षत्र चूडामणि" में कहा है---नादाने किन्तु दाने हि सतां तुष्यन्ति मानसं" सज्जन पुरुष त्यागकर-दान देकर आनन्दित होते हैं लेकर नहीं उसी प्रकार चेलना महारानी भी दान देकर विशेष सुख का अनुभव करती थीं ।।८३ ८४।। तया चेलनया सार्घ भूपः पञ्चेन्द्रियोचितान् । भजन भोगान्मनोमिष्टान् सर्वजीवदयावहान् ।।८५॥ अन्वयार्थ ... - (भूपः) वह श्रेणिक राजा (सर्वजीवदयावहान) सर्व जीव दयापूर्वक (पञ्चेन्द्रियोचितान्) योग्य पञ्चेन्द्रियविषयों को (चेलनवासार्थ) चेलना के साथ (भुञ्जन्) भोगता हुआ एवं तथा राज्ञीशतोपेतान भूरिपुत्ररलंकृतः । नाम्नाभयकुमाराद्यैः पूर्णचन्द्रोयथोडुभिः ।।६।। अन्वयार्थ --(यथाउडुभिः पूर्णचन्द्रो) जैसे नक्षत्रों से घिरा हुआ पूर्ण चन्द्रमा शोभता है (तया) उसी प्रकार (राज्ञीशतोपेतान्) सैकड़ों रानियों से सहित तथा (नाम्नाभयकुमाराद्य :) अभयकुमार आदि नाम वाले (भरिपुत्रः) बहुत पुत्रों से (अलंकृतः) शोभित था ।।८६॥ संतस्थौ पालयन्प्रीत्या स्वप्रजाः पुत्रवत् सदा । चन्द्रकान्तिलसत्कोतिजिन भक्तिपरायणः ॥७॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] [४३ अन्वयार्थ-(चन्द्रकान्तलसत्कीति) चन्द्रमा की कान्ति के समान धवल कीति से शोभायमान (जिनभक्ति परायणः) जिनभक्ति में तत्सर वह अंणिक राजा (स्वप्रजा:) अपनी प्रजा को (सदा पुत्रवत्) सदाकाल पुत्र के समान (प्रीत्यापालयन्) प्रोति से पालते हुए (संतस्थौ) सम्यक् प्रकार विराजमान था। भावार्थ-ध्रुष्ठ गुणों से सम्पन्न महारानी चेलना के साथ महामण्डलेश्वर राजा थणिक दयाभाव पूर्वक पञ्चन्द्रिय विषयों का, न्यायपूर्वक यथोचित भोग करते हुए रानी एवं अभयकुमार आदि अनेक श्रेष्ठ पुत्रों से सहित उसी प्रकार शोभित होते थे जैसे नक्षत्रों से घिरा हुया पूर्णिमा का चन्द्रमा शोभता है । चन्द्रमा के समान धवल कोति धाले श्रणिक महाराज जिन भक्ति में सवा तत्पर रहते थे तथा स्व-पुत्र के समान प्रजाजनों का भी प्रीतिपूर्वक पालन और रक्षण करते थे। उसके राज्य में सभी लोग सुखशान्ति से अमन चन से निवास करते थे। कहीं भो किसी को किसी प्रकार का अभाव वा दुःख नहीं था । चोर मारी यादि किसी भी प्रकार का उपदन स्तान में भी नही था । इस प्रकार समान लौकिक सुखों का अनुभव करते हुए श्रेणिक महाराज ने अपनो धवलकोति से समस्त प्राकाश मण्डल को व्याप्त कर रखा था। दिग्-दिगन्तर में उनके गुणों को गाथा गाई जाती थी । सभी सन्तुष्ट और प्रसन्न रहते थे ।।८।। तस्य चारगुणग्रामो निर्मलो मरिणवत्तराम् । वय॑ते केन ये भूयो भावितीर्थकरः परः ॥८॥ अन्वयार्य-(तस्य) उस राजा श्रेणिक के (मणिवत्ततराम्) मणि के समान अत्यन्त (निर्मल:) उज्ज्वल (चार) सुन्दर (गुणग्रामः) गुणसमूह (केन) किसके द्वारा (वर्ण्यने) दणित हो सकते है (यो) जो (भूयः) पून:-अगले मनुष्य भव में (पर.) उत्कृष्ट (भावितीर्थकरः) भविष्यत कालोन तीर्थकर होने वाला है । भावार्थ-संसार में सर्वोत्कृष्ट पुण्य तीर्थकर का होता है । तीर्थकर प्रवृति पूण्य रूप है, वह षोडशकारण भावना के निमिन से बंधती है । इन १६ भावनाओं में भी प्रथग दर्शनविशुद्धि भावना प्रधान है। इसके बिना अन्य १५ भावनाय तीर्थंकर प्रकृति का बन्धन करने में समर्थ नहीं हो सकतों किन्तु इनके बिना भो अकेली दर्शनविशुद्धि भावना उस अपूर्व पुण्य रूप तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करने में समर्थ है । पच्चोस दोषों से रहित और अट अङ्गों से सहित शुद्ध निदोष सम्यग्दर्शन की उपलब्धि का नाम दर्शनविशुद्धि है। जो जीव साधःकरण अपूर्वकरसा और अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों के द्वारा दर्शनमोहनीय मिथ्यात्व का खण्डन कर तीन टुकड़े कर देता है तथा उससे उत्पन्न अात्मविशुद्धि के वल पर पुन: उन तीन भागों के साथ चार अनन्तानबन्धी कषायों का भी क्षय, उपशम या क्षयोपशम करता है उसे क्षायिक, उपशम या क्षायोपशमिक सम्बग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। लोनों में से किसी भी सम्यक्त्व वा धारी भव्य, विशेप विशुद्धि से सम्पन्न होता है और संसार के प्राणोमात्र का कल्याण करने की तीव्रतम उत्कृट भावना से तीर्थकर प्रकृति का प्रास्रव करता है । दया की चरम सीमा पर पहुंचा जीव-भव्यात्मा हो इस पद के योग्य पुण्यार्जन कर सकता है इसीलिये राजा घेणिक के Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद भोगोपभोग सम्पदा के साथ--"सर्वजीवदयावहान्' विशेषण श्लोक न० ८५ में दिया है । साम्यभात्री ही दयानिष्ठ होता है । अतः निरतिचार सम्यग्दर्शन को उपलब्धि दर्शनविशुद्धि है । इसी को पोषक अन्य पन्द्रह भावनायें हैं-विनयसम्पन्नता, शीलवतेषु अनतिचार, अभीषण ज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितरत्याग, क्तितस्तप, साधुसमाधि, यावृत्ति ग्रहद्भक्ति, सिद्धभक्ति, प्राचार्यभक्ति, बहुश्रुत भक्ति, अावश्यकापरिहाणि मार्ग प्रभावना, प्रवचनवत्सलत्व ये १५ भावनायें और दर्शनविशुद्धि सहित १६ भावनायें तीर्थकर पद की प्राप्ति में निमित्त हैं । इनका विशेष लक्षण तत्वार्थ सूत्र को टीका में देखें ।।८।। प्रथैका महीनाथस्सभायामासने स्थितः । गङ्गा तरङ्ग सङ्काशर्योज्यमानस्सुचामरैः ॥८६॥ अन्वयार्य-(अथ) इसके बाद, यहाँ अथ शब्द कथा प्रारम्भ के अर्थ में है। (एकदा) एक समय (गङ्गातरङ्गसङ्काश:) गंगा नदी श्री लहरों की भांति (बोज्यमानैः) ढोरे जाते हुए (सुचामरैः) श्रेष्ठ चमरों से युक्त (महोनाथः) वह पृथ्वीपती (सभायां) सभा में (प्रासने आसन पर (स्थितः) बिरामा एग्रा । भावार्थ-एक समय वह पृथ्वीधर महाराजा थे णिक अपनी सभा में श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान हुए । उन पर पाठ चमर दुराये जा रहे थे । बे कान्तिमान दरते हुए चमर ऐसे प्रतीत होते थे मानों गङ्गानदी की नञ्चल तरङ्ग ही उछल रही हों । क्योंकि गङ्गा का जल दूध समान सफेद दीखता है और चामर भी फैन के समान प्रतीत होते थे ।।८।। अनेकभमौलिधर-रजितपदपङ्कजः । चक्कादिभिस्समायुक्तो देवेन्द्रो वा सुरैर्वृतः ॥६॥ अन्वयार्थ-(तथा) और (अनेक भूमोलिधर रञ्जितपादपङ्कजः) अनेकों मुकुटबद्ध राजारों के नमस्कार करने से जिसके चरणकमल रञ्जित हैं -लोभित हैं ऐसा वह थे णिक राजा (चक्रादिभिःसमायुक्तो) चक्रवर्ती समान प्रभुत्वशाली राजाओं से युक्त, ऐसा प्रतीत होता था मानो (सुरवृत: देवेन्द्रो) देवों से घिरा हुआ इन्द्र हो हो। भावार्थ--सिंहासनारूढ़ श्रेणिकमहाराज के चारों और अनेकों राजागर। एकत्रित होकर उन्हें नमस्कार कर रहे थे उस समय उनके मुकुटों की कान्ति से उन धणिक महागज के चरण रजित थे और वे ऐसे प्रतीत होते थे मानो देवों से घिरा हुआ इन्द्र ही यहाँ स्थित है । चक्रवर्ती के समान प्रतापवान, पुण्यवान, वैभवशाली राजा भी सदा उनकी सेवा में उपस्थित रहते थे । इस प्रकार स्वर्ग के इन्द्र के समान वैभवशाली उस श्रेणिक की शोभा अनुपम ही थी ॥१०॥ यावदास्ते सुखं तावद् वनपालेन सादरम् । नानापुष्पफलान्युच्चर धृत्वा प्रणम्यतम् ॥११॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COM Patil . 1-1 . . . .. ! ... - - - ---- स FRead . . 1. LETI न -ऊपर--महाराज-णिक एवं-रानी-चेलना-द्वारा महारतान। .. . ---..- - मीचे--महाराज श्रेणिक की राजसभा में माली फलों की टोकरी लेकर १००८ श्री महावीर मवावान के आगमन की सूचना देने आया। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धापाल चरित्र प्रथम परिच्छेद [ ४५ विज्ञप्तो देवदेवेन्द्र वन्दितो जिनपुङ्गवः । वर्द्धमानस्समायातो विस्तीर्णे विपुलाचले ॥२॥ अन्वयार्थ (यावत्) जिस समय इस प्रकार (सुखं ग्रास्ते) सुखपूर्वक विराजमान (तावत्) उसी समय (सादरम्) अादर पूर्वक (तम् प्रणम्य) उस राजा को प्रणाम कर (नानापुष्पफलानि) अनेक प्रकार के पुष्प और सुपश्व फलों को (उच्चे: अग्रे धत्त्वा) भक्तिपूर्वक आगे रखकर अर्पणकर (विज्ञप्तो) सूचना दी कि (विस्तीर्णे) विशाल (विपुला चले) विपुलाचल नामक पर्वत पर (देव देवेन्द्रवन्दितः) देव और इन्द्रों से वन्दित नमस्कृत (पुङ्गव) श्रेष्ठ (जिन) जिनेन्द्र प्रभु (वर्द्धमान) श्री महावीर प्रभु (समायातः) पधारे हैं । ___ भावार्थ-नाना वैभव से समन्वित महाराज श्रेणिक सभा में विराजे । उसी समय वनपाल-उद्यान का रक्षक माली प्राया। विनयपूर्वक राजा को हाथ जोड़कर, शिर झुकाकर नमस्कार कर उसने सब ऋतुओं के फल फूलों को राजा के समक्ष भेंट कर कहा-हे प्रभो ! विपुलाचन पर्वत पर देव, इन्द्र नागेन्द्रादि से पूजनीय, वन्दनीय जगदीश्वर श्री महावीर स्वामी का समवशरण पाया है। वे प्रभु महान हैं, सुरासुर नराधीशों से अर्चनीय हैं । चारों ओर ग्रानन्द और जय जय नाद गंज रहा है । समस्त उद्यान मानों हर्ष से रोमाञ्चित हो गया है ।।१२॥ यस्य प्रभावतो राजन् सर्वजातिवनस्पतिः । सर्वतु फलपुष्पौद्यः विरेजे वनिता यथा ॥३॥ अन्वयाथ -- (राजन) हे नराधीश! (यस्य प्रभावत:) जिन वीरप्रभ के प्रभाव से (सर्वजातिवनस्पति:) सर्व जाति के पेड़ पौधे (सर्व फलपुष्पौध :) सर्वकालीन फल फूलों से (विरेजे) शोभायमान हैं (यथा) जो ऐसे मालूम होते हैं मानो (बनिता) सुन्दर नवोढ़ा, अलंकृता कोई रमणी ही हो । भावार्थ- विपुलाचल पर्वत पर श्री महावीर भगवान के पदार्पण से सूखे मुरझाये हए पेड़ पौध भी हरे भरे और फल फलों से भर गये हैं। सब में मानो नव जीवन और नव यौवन का संचार हो गया हो । यद्यपि वनस्पतियों के फलने फलने का अपना अपना निश्चित काल है। योग्य काल ना ऋतुनों में ही वे फलते हैं किन्तु सर्वज्ञ प्रभ श्री १००८ वीर जिन के सानिध्य से काल का अतिक्रमण कर एक ही साथ फल गये हैं । नाना रङ्गों के अनेक प्रकार के कुसुम स्तवका-गुच्छे हवा के झकोरों से नृत्य कर रहे हैं। सुमधुर सुपक्व फलों की बहार आवाल वृद्धों का मन मोहने लगी है । ऐसा लगता है कि आपका पुण्यांकुर, अपने पूर्ण वैभव से फलित हुआ है । हे नृपाल ! उस उपवन की शोभा अवर्णनीय है । इस प्रकार कहते हुए बनरक्षक ने अनुपम आश्चर्यकारी अनोखे फल फूल श्री श्रेणिक महाराज को भेंट किये । करबद्ध नम्रीभूत वह वनपाल पुनः कहने लगा ।।३।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद क्रूरसिंहादयोजीवा मुक्तवैराः परस्परम् । एकत्र संबसन्त्युच्चैः परमानन्दनिर्भराः ॥१४॥ ___ अन्वयार्थ-(ऋ रसिंहादयो जीवा) हिंसक प्राणी सिंह व्याघ्रादि प्राणी (मुक्त वैराः) वैर विरोध से रहित (परस्पर) आपस में (एकत्र) एक साथ मिल कर (उच्चैः) अत्यन्त (परमानंद निर्भगः) परम आनन्द से भरे हुए प्रसन्न चित्त (संवसन्ति) निवास कर रहे हैं। भावार्थ हे जनपालक ! महाक र, जाति विरोधी एक दूसरे के घातक प्राणी भी प्रीति से निवास कर रहे हैं। सिंह और गाय, सर्प-नेबला, चहा विद्याल, मयूर-सर्प, कुत्ताबिल्ली आदि बड़े प्रेम से हिलमिल कर क्रीडा कर रहे हैं । नाचना-कूदना, खाना पोना सब निर्भय होकर कर रहे हैं मानों कोई विशेष उत्सब ही मना रहे हैं ।।६४।। नानादेवविमानाद्यैर्जयनादेस्समन्ततः । दिव्यदेवाङ्गना वृन्दैगिरि स्वर्गायते प्रभो ॥६५॥ अन्वयार्थ -(प्रभो) हे प्रभो ! (समन्ततः) चारों ओर नभ और भूमण्डल पर (नानादेव विमानाचं जयना दै:) अनेकों देव विमानों के आगमन और उनमें स्थित देवों द्वारा किये जाने वाले जय जय ध्वनि से (दिव्य देवाङ्गना वृन्दैः) उत्तम श्रेष्ट देवाङ्गानाओं के समूह से परिव्याप्त होकर (गिरिः) वह विपुलाचल पर्वत (स्वर्गायते) मानों स्वर्ग रूप ही हो गया है। भावार्थ हे नराधिप ! नाना प्रकार के वस्त्रालङ्कारों से अलंकृत देव और देवियों नभोमण्डल से जय जय धोष करते आ रहे हैं । ऐसा प्रतीत होता है मानों ममस्त स्वर्ग का वैभव यहीं भूमण्डल पर आ गया है। वह विपुलाचल स्वर्ग लोक सदृश हो गया है । सर्वत्र जिनेन्द्र प्रभु श्री वीर भगवान का ही यशोगान गूज रहा है । देव-देवियाँ नाना प्रकार के दिव्य द्रव्यों से वीतराग प्रभु को पूजा, भक्ति, स्तुति कर रहे हैं । दिव्य भोगों को सजकर यहाँ आकर सव नृत्य गान कर जिन महिमा प्रकट करने में तल्लीन हैं । वस्तुत: जिनभक्ति कर्म कलङ्क प्रक्षालन में समर्थ हैं ।।१५।। इतिश्रवणमात्रेण श्रेणिको मगधेश्वरः । सिंहासनात्समुत्थाय गत्वा सप्तपदानि च ॥६६॥ जय त्वं वीरनाथेति संबवन् हर्षनिर्भरः। दत्वातस्मै महादानं तां दिशं सम्प्रणम्य च ॥१७॥ आनन्द दायिनी भेरी दापयामास स त्वरम् । तन्निनादेन भव्योधाः प्रोल्लसन्मुखपंकजाः ॥१८॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] [ ४७ अन्वयार्थ - - (इति) ऐसा ( श्रवरण मात्रेण ) सुनते ही ( मगधेश्वर ) मगधाधिपति ( सिहासनाम् समुत्थाय ) सिंहासन से उटकर ( सप्तपदानि ) सात पद (गत्वा) आगे जाकर ( हर्ष निर्भर: ) हर्ष से भरे हुए (वीर नाथ ! ) हे वीर प्रभु ! ( त्वं जय ) तुम जयवन्त होश्रो ( इति संबन् ) ऐसा बोलते हुए (तस्मै ) उस वनपाल को ( महादानं दत्वा ) उत्तम वस्तुओं को देकर (तां दिशं ) उस दिशा की तरफ ( सम्प्रणम्य ) प्रणाम कर । 2 ( सत्वरं ) शीघ्र ( आनन्ददायिनी भेरी) आनन्ददायिनी भेरी को ( दापयामास ) (जेना उसके स्वर से ( भव्यौघाः ) भव्य जीवों के समूह ( प्रोल्लसन्मुख पंकजाः) प्रफुल्लित मुख कमल वाले हो गये । भावार्थ- वनपाल की उक्त प्रमोदकारी बातों को सुनकर श्रेणिक महाराज को निश्चय हो गया कि अन्तिम तीर्थंकर श्री १००८ महावीर भगवान का समवशरण आया हुआ है । जिन भक्त शिरोमणि उस श्रेणिक महाराज के प्रानन्द की सीमा न रही। हर्ष से भरे वे जय जयकार करने लगे-- हे वीर प्रभु ! आप जयवन्त होवें अर्थात् आपके हितकर पवित्र शासन से यह भूमि चिरकाल तक शोभित रहे, आपकी पवित्र वाणी रूपी अमृत का पानकर भव्यजीव प्रक्षय अविनाशी निराकुल सुख को प्राप्त करें। मिथ्यात्व और अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश होवे, रत्नत्रय की दिव्य ज्योति से यह मगध प्रदेश दीप्तिमान होवे । इत्यादि रूप से स्तवन करते हुए अन्तः स्थल में छिपी हुई जिनभक्ति को वचन स्तुति द्वारा परोक्ष रूप से प्रकट करते हुए अति श्रानन्द को प्राप्त हुए तथा शीघ्र ही ग्रानन्द भेरी बजवा दी । उस ग्रानन्द भेरी की ध्वनि को सुनकर नगर निवासी भी परमानन्द को प्राप्त हुए । श्री १००८ महावीर प्रभु के दर्शन के लिये समस्त प्रजाजनों के साथ चलने का निश्चय करने वाले श्रेणिक महाराज ने क्या क्या तैयारियां की सो बताते हैं ॥ ६८ ॥ वन्दितु श्रीमहावीरं केवलज्ञान भास्करम् । विशिष्टाष्ट महाद्रथ्यैः सामग्रीं चक्रिरे मुदा NEE अन्वयार्थ (केवलज्ञान भास्करम ) केवल ज्ञान दिवाकर ( श्री महावीरं वन्दितुं ) श्री महावीर प्रभु की वन्दना के लिये [समस्त नर नारियों ने ] ( विशिष्ट प्रष्ट महाद्रव्यैः ) विशिष्ट दिव्य जल, चन्दन, अक्षत एवं सुगन्धित नाना प्रकार के पुष्प, विविध प्रकार के सुस्वाद्य मिष्टान पकवानों का नैवेद्य, रत्नमव दीप, सुगन्धित धूप, सुपक्व मधुर उत्तमोत्तम फल और अध्यादि से शोभायमान ऐसी (सामग्री) सामग्री को ( मुदा) हर्ष के साथ ( चक्रिरे ) तैयार करली | भावार्थ - लोक लोक के समस्त पदार्थों को युगपत् जानने वाले केवल ज्ञान के धारी श्री महावीर भगवान की बन्दना के लिये नगर निवासी समस्त नरनारियों ने श्रेष्ठ, सुगन्धित, दिव्य मनोज्ञ अष्टद्रव्य जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अयं तैयार कर लिये ॥६॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र पथम परिच्छेद भव्यास्ते परमानन्दैदिव्यवस्त्रविरेजिरे । पूजा द्रव्यशतोपेताः पवित्रा या सुरोत्तमाः ॥१०॥ अन्वयार्थ - (पूजा द्रव्यशतोपेताः) सैकड़ों प्रकार के उत्तम पूजा द्रव्यों से सहित (सुरोत्तमाः वा) सुरो में उत्तम देवेन्द्रों के समान (परमानन्दै: दिव्य वस्त्रः) परमानन्द और दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत (पवित्रा) पवित्र-मन वचन और काय शुद्धि को धारण करने बाले (ते भव्या:) वे भव्य जन नर नारी (विरेजिरे) विशिष्ट शोभा को धारण कर रहे थे । भावार्थ-श्री १००८ महावीर प्रभु को बन्दना पूजा के लिय नाना प्रकार के एक एक द्रव्य सैकड़ों तरह के तैयार किये गये । अपनी अपनी शक्ति के अनुसार मुवर्ण चाँदो आदि श्रेष्ठ पात्रों में दिव्य, मनोज्ञ तथा अपने हाथ से तैयार किये गये शुद्ध प्रष्ट द्रव्य सजा लिये गये। चित्त में अतुल आनन्द को धारण करने वाले मुन्दर वस्त्र प्राभूषणों में सुसज्जित वे नर नारी ऐसे प्रतीत होते थे मानों स्वर्ग के देवी देवता ही धरा पर उतर आये हैं। सुरो में उत्तम देबेन्द्रों के समान उनका वैभव था । श्रेष्ठ अष्ट द्रव्यों को लेकर पूजा के लिये जाने वाले उन नर मारियों का समुल्लेख करते हुए आचार्य श्री ने यह संकेत-निर्देश किया है कि श्रावकों को खाली हाथ कभी भी देव शास्त्र गुरु के समक्ष नहीं जाना चाहिये । श्रेष्ठ, उत्तम, शुद्ध अष्ट द्रव्यों को भक्तिपूर्वक चढ़ाकर भगवान का दर्शन करना चाहिये । । कहा भी है -"रिक्तहस्तं न पश्येत् राजानं देवतां गुरुम् ।। नैमित्तिक विशेषेण फलेनफलमादिशेत् ।।" अर्थात राजा, गुरु और देव के समक्ष खाली हाथ कभी भी नहीं जाना चाहिये । निमित्त नैमित्तिक की विशेषता से तथा द्रव्य की विशेषता से फल में भी विशेषता आती है। जिसका दर्शन करने के लिये हम जाते हैं वह तो निमित्त विशेष है और श्रेष्ठ पवित्र द्रव्य, क्षेत्र काल भाव आदि सामग्री नैमित्तिक विशेष है। इन दोनों की विशेषता से फल में विशेषता मातो है। इत्यादि कथन से यहाँ यह भी स्पष्ट होता है कि श्रावकों को द्रव्य पूर्वक हो देव शास्त्र गुरु को पुजा करनी चाहिये । जो लोग यह कहते हैं कि अष्ट द्रव्य को तैयार करने में आरम्भजन्य हिंसा होती है अतः द्रव्य पूजा न करके भावपूजा करना ही श्रेष्ट है उनके निराकरण के लिये कहते हैं त्रिकाल क्रियते भव्यः पुजापुण्य विधयिनी । या कृता पापसंघातं हत्याजन्मसजितम् ।।१८०।। (उमास्वामी श्रावकाचार) जो भव्य जीव मातिशय पुण्य की कारणभूत जिनपूजा को त्रिकाल-तीनों काल में करते हैं वे जन्म जन्मान्तर में अजित पापसंधात-पाप कुन्जर को उस जिनपूजा के द्वारा नष्ट कर देते हैं। "तथा वुटुम्ब भोगार्थमारम्भः पापकृद् भवेत् । धर्मकृदानपुजादी हिंसालेशोमतः सदा ॥१४४१. उ० श्रा. ।। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] प्रर्ण---जो प्रारम्भ कुटुम्ब पालन वा भोग के लिये किया जाता है वह पाप उपार्जन के लिये होता है, किन्तु दान पूजा आदि मे किया गया आरम्भ तो सदा धर्म का करने वाला होता है। हाँ उसमें हिंसा का लेश अवश्य माना है ।। १४४।। वह अल्प हिंसा समुद्र में डाले गये विष के एक कण के समान तुच्छ है, फल देने में असमर्थ होता है। ( विकाल पूजा का फल बताते हुए आचार्य कहते हैं पूर्वान्हे हरते पापं मध्यान्हे कुस्ते श्रियम् । ददाति मोक्षं सन्ध्यायां जिनपूजा निरन्तरम् ।।१८१॥ उ० श्रा. ॥ ) पूर्वाह्नकाल–प्रात:काल की गई जिन पूजा पाप को हरती है । मध्याह्न में की गई जिनपूजा अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी को प्रदान करती है और सायंकाल की जिन पूजा मोक्ष को प्रदान करती है। ऐसी महत्वपूर्ण जिनपूजा वन्दना के लिये जाते हुए श्रेरिगक महाराज अपनी प्रजाजनों के साथ, देवेन्द्र के समान शोभित थे । नार्योऽपि निर्ययुः काश्चित् सुगन्धजलसंभृतम् । स्वर्णभृङ्गारमादाय मेरुशृङ्गमिवोन्नतम् ॥१०१॥ अन्वयार्थ--(मुगन्धजलसंभृतम्) सुगन्धित जल से भरे हुए (मेरुशृङ्गभिवोन्नतम्) मेरु की शिखर के समान उन्नत-उनुङ्ग (स्वर्णभङ्गार) सुवर्णमयी झारी-कलश को (आदाय) लेकर (काश्चित) कुछ (नार्योऽपि) और भी स्त्रियाँ (निर्यपु:) निकलीं।। भावार्थ—जिस प्रकार सांसारिक विवाहादि माङ्गलिक कार्यों में मङ्गल कालशादि स्थापन किये जाते हैं उसी प्रकार यहाँ भी परम मङ्गलमय केवल-ज्ञान के धारी श्री महावीर प्रभु के दर्शन को जाते समय उत्तम प्रष्ट द्रव्यों के साथ-साथ माङ्गलिक सुवर्णमय दिव्य कलशों को सिर पर रखकर समुदाय के साथ स्त्रियां निकलीं । जल से भरे हुए वे कलश मानों यह कह रहे थे कि तुम भी श्री जिनेन्द्रदेव की पवित्र अमृतमय जिनवाणी रूपी गङ्गा के जल से अपने चित्त रूपी कलश को भर लो । काश्चिञ्चन्दनकाश्मीरं समुद्धत्य प्रमोदिता । शीत्तलं पापसंतापनाशनं घा जिनोदितम् ॥१०२॥ काश्चिच्छुभाक्षतान्युच्चैः पुण्यांकुरयदुत्तमान् । काश्चिमानाप्रसूनानि सुगन्धानि विशेषतः ॥१०३॥ काश्चिच्चरूस्करीपैधूपस्सारफलोत्करैः । सावं प्रचेलुरत्यन्तजिनभक्ति परायणाः ॥१०४।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद अन्वयार्थ—(प्रमुदिता) प्रमोद से भरी हुई (काश्चित्) कुछ स्त्रियाँ (जिनोदितम् ) जिनागम में कथित (पापसंतापनाशनं) पापरूपी संतापदाह का निवारण करने वाले (शीतलं) शीतल (चन्दनकाश्मीरं) काश्मीरी चन्दन को (समुद्धृत्य) लेकर । (उच्चैः) हर्षोत्कर्ष से सहित (काश्चित्) कुछ स्त्रियाँ (पुण्यांकुरवत्) पुण्यरूपी वृक्ष को उत्पत्ति में अंकुर के समान (उत्तमान्) श्रेष्ठ-अखण्ड (शुभाक्षतान्) शुभ्रवर्ण वाले सुन्दर सुगंधित अक्षतों को और (काश्चित्) कुछ स्त्रियाँ (विशेषतः) विशेष उल्लास के साथ (सुगन्धानि) उत्तम सुगन्धवाले (नानाप्रसूनानि) नानाविध पुष्पों को लेकर । (काश्चित्) कुछ स्त्रियाँ (चरुकरैः) उत्तम नंबैद्यों से (दीपः धूपैः) उत्तम दीप और धूपों से (सार फलोत्कर:) सारभूत उत्तमफलों से (सार्द्ध) सहित (प्रचेलुः) चलीं। भावार्थ-परम उल्लास से भरी सौभाग्यवती नारियाँ उत्तम अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप. धूप, फलादि लेकर श्री जिनेन्द्रप्रभु की पूजा के लिये चल पड़ी। जिनेन्द्र प्रभु के चरणों में अर्पित किया गया पुष्प, नैवेद्य, दीप, धुप कभी भी पाप बन्ध का कारण नहीं हो सकता । अपितु अभी कुछ लोग ऐसा कहने लगे हैं कि पुष्प चढ़ाने में दोष है, दीप, धूप चढ़ाने से भी हिसा होती है अतः नहीं चढ़ाना चाहिये, फल वनस्पतिकाय है, सचित्त है अतः अप्रासुक है अतः फल नहीं चढ़ाना चाहिये ? किन्तु किसी भी श्रावकाचार ग्रन्थ में ऐसा नहीं लिखा है । अष्ट द्रव्यों में प्रत्येक द्रव्यों के चढ़ाने का विधान है और उनका विशेष महत्व भी दर्शाया है। वसुन्दि श्रावकाचार में पुष्पपूजा का फल बताते हुए प्राचार्य लिखते हैं ___ कुसुमेहि कुसेसयवयण तरूणोजणणपणकुसुमवरमाला। बलएपच्चियदेहो जया कुसुमा उहो चेव ॥” . अर्थ -पुष्यों से पूजा करने वाला मनुष्य कमल के समान सुन्दर मुखवाली, तरुणी जनों के नयनों से और पुष्पों को उत्तम मालानों के समूह से समचित देह वाला कामदेव होता है। नैवेद्य पूजा का फल बताते हुए प्राचार्य लिखते हैं-.. "जायइ णिविज्जदाणेण सत्तिगोकंतितेय संपण्णो । लावण्णजल हिवेलातरङ्ग संपाविय सरीरो ।।" अर्थ-नैवेद्य के चढ़ाने से मनुष्य शक्तिमान, कान्ति और तेज से सम्पन्न और सौन्दर्यरूपी समुद्र की वेला (तट) वतीं तरङ्गों से संप्लावित शरीर बाला अर्थात् अति सुन्दर होता है। दीप पूजा का फल भी इस प्रकार बताया है "दीवेहिं दीवियासेसजोवदन्वाइतच्च सम्भावो । सम्भावजणिय केवलपईवतेएण होइ परो।" Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद । दीपों से पूजा करने वाला मनुष्य सभावों के योग से उत्पन्न हुए केवल ज्ञान रूपी प्रदीप के तेज से समस्त जीव द्रव्यादितत्त्वों के रहस्य को प्रकाशित करने वाला अर्थात केवल ज्ञानी होता है । इसी प्रकार धूप और फल पूजा का भी विशेष फल है --- "धबेण मिमिरपारधवल क्रिसिधवलिय जयत्तनो पुरिसो। जायइ फले हि संपत्तपरमणिध्वाण सौक्खफलो।" धुप से पूजा करने वाला मनुष्य चन्द्रमा के समान धवलकीति से जगत्त्रय को धवल करने वाला अर्थात् त्रैलोक्य व्यापी यशवाला होता है तथा फलों से पूजा करने वाला मनुष्य परम निर्वाण का सुख रूप फल पाने वाला होता है। ___ अन्यत्र भी ऐसा कथन मिलता है । अतः जल, चन्दन वा अक्षत के समान ही अन्य द्रव्य भी अपना उसी प्रकार विशेष महत्व रखते हैं सभी द्रव्य उत्तमोत्तम होने चाहिये । यथाशक्ति उत्तम द्रव्यों से पूजा करने वाला श्रावक सातिशय पुण्य का उपार्जन करता हुआ मिथ्यात्वादि संसार के बन्धनों का छेदन कर अल्पभवों में ही मोक्ष के अविनाशी सुख को प्राप्त कर लेता है। एवं नार्यो जिनेन्द्रोक्त धर्मकर्मसुतत्पराः । सारगार संभारा निर्ययुर्वा सुराङ्गनाः ॥१०॥ अन्वयार्थ-(एवं) इस प्रकार (जिनेन्द्रोक्त ) जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्रतिपादित (धर्मकर्मसुतत्परा) धर्मकर्म में सुतत्पर रहने वाली अर्थात् क्षमादि यात्म धर्म से अलंकृत और षट्कर्मों में निरत रहने वाली वे (सारगार संभारा) षोडशा भरण रूप सारभूत शृङ्गार के भार से संभृत (सुराङ्गना) देवाङ्गना के समान (नार्यो) नारियां (निर्ययुः) निकलीं । भावार्थ--अष्ट द्रव्य रूप पूजा की सामग्री लेकर नगर की मारियां अपने-अपने घर से बाहर निकलीं । जिन दर्शन के चाव से उनका मन प्रफुल्लित था । जिन धर्म परायण महिलाएँ नाना प्रकार के रत्नजटित प्राभूषणों एवं सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत थीं। जिन धर्म में सदा तत्पर रहने वाली, भक्तिभाव से भरी हुई रूपवतो वे नारियाँ ऐसी प्रतीत होती थीं मानों स्वर्ग की देवाङ्गना ही हों अथवा साक्षान् शचि-इन्द्राणी ही अनेक रूप धारग कर आई हों। हार प्रादि आभूषणों से लदी हुई उनका कान्तिमान रूप इन्द्राणी के समान था। इत्येवं सर्वभब्योधस्संयुतो श्रेणिको नृपः । चेलनादि प्रियोपेतः परैः पुत्रादिभिर्युतः ।।१०६॥ योग्ययानं समारूढो विलसच्छत्रचामरः । ध्वनद्वादित्र संदोहर्जयकोलाहलध्वनः ॥१०७॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] | श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद चार मागधाद्यैश्च स्तूयमानो यशोधनः । देवtन्द्रो बालसन्मूतिनिर्ययौ जिनभक्तिभाक् ॥ १०८ ॥ श्रन्वयार्थ - ( इत्येवं ) इस प्रकार ( श्रं णिको नृपः ) श्रेणिक राजा ( भव्योद्य :) भव्यजनों से (संभुतो ) सहित (चेलनादि प्रियोपेतः) पट्टमहिषी चेलना देवी आदि प्रियाओं सहित (पुत्रादिभिर्युतः ) पुत्र आदि बन्धु बान्धवों के साथ | ( योग्ययानं समारूढ़ो ) योग्य वाहन पर श्रारूढ़ हुआ ( विलसन् छत्रचामर: ) सुन्दर विलास करते हुए चमर जिस पर बुलाये जा रहे हैं ऐसे ( ध्वनद्वादित्तसंदोहे :) तथा बजते हुए बाजों के साथ (जयकोलाहलध्वनैः) जय जय के कोलाहल रूप ध्वनि के साथ | ( यशोधनः ) यश ही है घन जिनका ऐसे वे राजा श्रेणिक महाराज (चार मागधाशन्त) मागघ आदि चारण भाटी द्वारा ( स्तूयमानः ) स्तुत होता हुआ (च ) और (लसम्मूर्ति देवेन्द्रो वा ) शोभायमान देवेन्द्र का ही मूर्तिमान रूप हो इस प्रकार ( जिनभक्तिभाक् ) जिनभक्ति से भरा हुआ (निर्ययौ ) नगरी से निकला । भावार्थ - राजा प्रजा पालक होता है । प्रजा उसके सुयण कुयश की प्रतीक होती है । संसार में कहावत प्रसिद्ध है "यथा राजा तथा प्रजा" अर्थात् जैसा योग्य या अयोग्य राजा होता है उसी प्रकार की उसकी प्रजा भी होती है । “राजा धर्मे धर्मिष्ठः " राजा यदि धर्मनिष्ठ होता है तो प्रजा भी स्वभाव से धर्मानुरागिनी होती है। महाराजा श्रेणिक सम्यक्त्व गुण से मण्डित महामण्डलेश्वर था । उसी प्रकार उसकी प्रजा भी धर्मानुरागिनी थी। सभी भक्ति से भरे हुए जयजयकार करते हुए श्री महावीर प्रभु के दर्शन के लिये चले । रनवास की समस्त रानियाँ, पुत्र पौत्र अपने-अपने उचित वाहनों पर सवार हुए। पालको, हाथी, घोड़े, रथादि सजेधजे चलने लगे । राजा रानी वा राजकुमारों पर यथायोग्य छत्र चमर लगाये गये थे । दुर हुए चामरों की शोभा देखते ही बनती थी । विविध प्रकार के बाजे बज रहे थे । झाँझ मजीरा ढोल, नगाड़े, बीन, बाँसुरी आदि बाजों की ध्वनि कान और मन को हरण करने वाली थी । जयनाद के साथ घुरुयों की कार बड़ी ही सुहावनी प्रतीत हो रही थी। चामरों का उत्थान पतन, सागर की लहरों का स्मरण दिला रहा था। कोई समवशरण की शोभा और रचना का बखान कर रहे थे तो कोई राजा का यशोगान करने में मस्त थे । इस प्रकार वह महाराजा श्रेणिक बड़े प्रानन्द से दल बल के साथ समवशरण में श्री वीतराग प्रभु की भक्ति, दर्शन, पूजन, स्तवन करने को निकला। ऐसा प्रतीत होता था मानों देवेन्द्र अपने समस्त स्वर्गीय वैभव के साथ ही भूलोक में विचरण करने आया हो । नरनारियाँ सर्वजन एक लक्ष्य को लिये थे "जिन भगवान का दर्शन ।" वस्तुतः जिनेश्वर का दर्शन संसार बंधन काटने को तीक्ष्ण कुठार है । सम्यग्दर्शन उत्पन्न करने का अमोघ निमित्त है । मानस्थम्भ को देखते हो मान गलित हो जाता है, परिणाम विशुद्धि से सम्यग्दर्शन की जागृत्ति हो जाती है । सम्यग्दष्टि ही गंधकुटी में जाने की योग्यता रखता है। ऐसा हो यतिवृषभाचार्य ने अपने महान ग्रन्थ तिलोयपणत्ति में उल्लेख किया है। जिनभक्त परायण मण्डलेश्वर राजा श्रेणिक श्रानन्द विभोर Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ና Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री 1008 भगवान महावीर का समभशरण 7 --- -:--- - AR rate NA -.. - -.'. - CHHALkale a T MORNI म : mmamta " MT HOTO त्र GrtistorPINDIA HAABE AR । RECER AMmmar KAPUR Sh IO IYA 51 Kale RANE THA 12 ..INR Reprecommotcame Pasana 19. SHRINE MANITA --- ---- - - .. पी TA Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] [ ५३ होकर बड़े उत्साह से समवशरण में क्यों नहीं जाता ? अवश्य ही उनका प्रयाण सार्थक और शुभ फलप्रद था । गत्त्वानन्दभरेण तं गिरि विपुलाचलम् । समारुह्य सुधीस्तुङ्ग कैलाशं वादिचक्रभृत् ॥ १०६॥ श्रन्वयार्थ --- (आनन्दभरेणाशुगस्था) आनन्दपूर्वक शीघ्र जाकर (तं) उस ( विपुलाचलं गिरिं समाह्य) विपुलाचल पर्वत पर चढ़कर ( सुधी) वह बुद्धिमान श्रेणिक राजा ( आदिचक्र मृत् कलाशं वा ) ऐसे प्रतीत होते थे मानो कैलाश पर्वत पर प्रथम चक्रवर्ती भरत ही चढ़ा हो । भावार्थ — पर्वत को देखते ही राजा श्रेणिक महाराज वाहन से उतर कर नङ्ग पैर राजचिन्हों का त्यागकर उस बिपुलाचल पर्वत पर चढ़ने लगे | आचार्य श्री कहते हैं कि उस समय वे श्रेणिक महाराज ऐसे प्रतीत होते थे मानो कैलाश पर्वत पर परिजन पुरजन सहित छह खण्ड के अधिपति प्रथम चक्रवर्ती आये हुए हैं । समवादिसृतिं वीक्ष्य नानाध्वजशतान्विताम् । संतुष्टः श्रेणिको राजा सुकेकोव धनावलिम् ॥ ११०॥ अन्वयार्थ - ( तत्र ) वहाँ त्रिपुलाचल पर्वत पर ( नानाध्वजासान्विनम् ) अनेकों प्रकार की सैकड़ों ध्वजाओं से युक्त (समवादिसृति) समवशरण मण्डप को (घनावलिम् वीक्ष्य सुकेकी इव) घनचोर मेवमाला को देखकर मयूर के समान (श्रेणिको राजा ) श्रेणिक महाराज ( संतुष्टः ) सन्तोष को प्राप्त हुए। भावार्थ- वहाँ विपुलाचल पर इन्द्र की श्राज्ञा से कुवेर द्वारा निर्मित अलंकृत प्राश्चर्यकारी सभामण्डप को श्रेणिक महाराज ने देखा । जिसमें अनेकों शिखर थे और शिखरों पर चित्र विचित्र अनुपम सुन्दर सैकड़ों ध्वजायें - पताका फहरा रही थीं हिलती हुई ध्वजायें मानों भव्य जीवों को वीर प्रभु का उपदेश सुनने के लिये बुला रही थीं। उस अद्भुत समवशरण रचना का अबलोकन कर श्रेणिक महाराज को इतना हर्ष हुआ जितना हर्ष गरजती हुई मेघ घटाओं को देखकर मयूर को होता है। इस समय श्रेणिक महाराज का मन मयूर भी थिरकियाँ ले रहा था, शरीर हर्षाकुरों से व्याप्त हो गया था। वह गद्गद् कण्ठ हो उठा, पूर्व आनन्द हो रहा था उन्हें । आनन्दरस पूरित उस राजा ने तीन प्रदक्षिणा देकर सभामण्डप में प्रवेश किया ॥ ११०॥ त्रिः परीत्य ततो भक्त्या तां प्रविश्य प्रभो सभाम् । मानस्तम्भादिभिनित्यं पवित्री कृत भूतले ।। १११॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद तं विलोक्य जिनं वीरं केवलज्ञान भास्करम् । सुरासुरनराधोस्सिचित पदद्वयम् ॥११२॥ दिव्यरत्नसुवर्णोरुपीठत्रयसमन्वितम् । मेरोःशृङ्गमियोत्तुङ्ग सिंहासनमधिष्ठितम् ॥११३॥ सेवागत त्रिधाचन्द्राकार छत्रत्रयान्वितम् । बीज्यमान चतुष्षष्ठीचामरः निरोपमैः ॥११४।। सर्वसन्देह विध्वंसीदिव्यध्यनिविराजितम् । हतशोकमहाशोकतरुसंश्रित विग्रहम् ॥११५॥ कोटिसूर्यप्रभास्पद्धि लसत् भामण्डलादिकम् । यत्र भव्याः प्रपश्यन्ति स्वकीयं भव सप्तकम् ॥११६।। नन्ददेव ! जयेत्युच्चैः पुष्पवृष्टि समन्वितम् । मोहारि विजयोत्पन्न देवदुन्दुभि कोटिभिः ।।११७।। समुत्पन्नमहानादेजिताखिल भूतलम् । चतुस्त्रिंशमहाश्चर्यैः प्रसिद्धरजिताखिलम् ॥११॥ गणदशभिनित्यं निग्रंथादिभिरावृतम् । ज्ञानदर्शनकीर्यादि व्यक्तानन्त चतुष्टयम् ॥११॥ इन्द्रनागेन्यचन्द्रार्कखेचराद्यैः सचितम् । नानानरेन्द्र संदोहसमाराधित पङ्कजम् ॥१२०॥ विशिष्टाष्ट महाद्रव्यः समभ्यर्च्य जिनेश्वरम् । चकारसंस्तुति राजा महाभक्तिपरायणः ॥१२१॥ अन्वयार्थ--(ततो) इसके अनन्तर (भक्त्या) भक्तिपूर्वक (त्रि परीत्य) तीनप्रदक्षिणा देकर (नित्यं) नित्य ही (मानस्तम्भादिभि:) मानस्तंभ आदि के द्वारा जिसने (भूतले) पृथ्वी पर (पवित्रीकृत) पावनता का प्रसार किया है ऐसी (प्रभोः) भगवान की (ता सभां प्रविश्य) उस सभा में प्रवेश कर । (सुरासुरनराधीशैः) देवेन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवर्ती राजाओं से (सचित) संपूजित हैं (पदद्वयम्) चरणकमल जिनके (दिव्य रत्नसुवर्णोरूपीउत्रय समन्वितम् ) दिव्य रत्नमय सुवर्णमय उन्नत तोन पोठों से समन्वित (मेरोः शृगमिव) सुमेरु पर्वत के शिखर के समान Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] [ ५५ (उत्तु गसिंहासनम् ) ऊँचे सिंहासन पर (अधिष्ठितम् ) विराजमान (सेवागत) सेवाभक्ति से लगाये गये (त्रिधाचन्द्राकार छत्रत्रय) तीनप्रकार के चन्द्राकार तीन छत्रों से (अन्वितम्) सहित (वीज्यमाननिर्भरोपमैं:) ढुलते हुए निर्मल झरने के समान (चतुषष्ठी चामरैः अन्वितम्) चौसठ चामरों से सहित (सर्वसंदेह विध्वंसी दिव्यध्वनि विजितम् ) सर्व संदेह का निवारण करने वाली दिव्यध्वनि से शोभायमान (हतशोक-महाशोकतरसंचित) भव्य जीवों के सम्पूर्ण शोवा को नष्ट कर दिया है जिसने ऐसे महा अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान (विग्रहम्) उत्तम परम औदारिक शरीरवाले तथा (यत्र भव्याः स्वकीयं सप्तभवं प्रपश्यन्ति) जहाँ भव्य जीव अपने सात भवों को देखते हैं ऐसे (लसत्) शोभायमान (कोटिसूर्यप्रभास्पद्धि) करोड़ों सूर्य की प्रभा से स्पर्धा करने वाले अर्थात् उससे भी अधिक प्रभा को धारण करने वाले (भामण्डलादिकम् ) भामण्डल आदि जहाँ मौजूद हैं तथा (पुष्पवृष्टिसमन्वितम्) जो द्विव्यपुष्प वृष्टि से समन्वित हैं (मोहारिविजयोत्पन्न ) मोह रूप शत्रु को जीतने से उत्पन्न महाविजय को घोषित करने वाले हैं तथा (नन्ददेव ! जयेत्) हे परमानन्दकारी प्रभु ! आपका शासन जयवन्त रहे ऐसा (उच्चैः) उतन्त्र स्वर से कहने वाले उन (कोटिभिः देवदुन्दुभिसमुत्पन्नमहानादैः) करोड़ों देव दुन्दुभि बाजों से उत्पन्न महानाद गम्भीर निनाद से (गजिताखिलभूतलम् ) गुज्जित है अखिल भूमण्डल जहाँ और (प्रसिद्ध :) प्रसिद्ध (चतुस्त्रिंशमहाश्चयैः) चौतीस अतिशयों रूप आश्चर्यों से (रञ्जित) पुजित है-अतिशयता को प्राप्त हैं तथा (गणदिशभिः) द्वादश सभाओं से (निर्ग्रन्थाभिः) निर्ग्रन्थ मुनिजनों से (प्रावृतम्) घिरे रहते हैं (ज्ञानदर्शनवीर्यादि) अन्नत ज्ञान, अनन्त दर्शन अनन्त वीर्य आदि रूप (व्यक्तानन्त चतुष्टयम्) अनन्त चतुष्टय रूप शक्ति जिनकी व्यक्त हो चुकी है ऐसे तथा (इन्द्रनागेन्द्र चन्द्रार्क खेचराधः) देवेन्द्र, नागेन्द्र, ज्योतिषेन्द्र सूर्य चन्द्र और विद्याधरों से (सचितम्) संपूजित (नानानरेन्द्रसंदोह समाराधित) अनेक चक्रवर्तियों के समूह से समाराधित हैं (पङ्कजम्) चरणकमल जिनके ऐसे श्री (केवल ज्ञान रम्) केवल ज्ञान दिवाकर (तं वीरजिनं विलोक्य) उभ वीर प्रभ को देखकर (विशिष्टाष्टमहा द्रव्यः) उत्तम अष्टमहाद्रव्यों से (जिनेश्वरं समय) जिनेन्द्रप्रभु की पूजाकर (महाभक्तिपरायणः) जिनभक्ति में अतिप्रवीण (राजा) राजा श्रेणिक महाराज ने (संस्तुति) [भगवान की] उत्तम स्तुति (चकार) की। भावार्थ-प्रजा सहित श्रेणिक महाराज प्रथम भगवान की तीन परिक्रमा करते हैं फिर मानस्थम्भ आदि से पवित्रीकृत भूतल पर स्थित श्री वीर प्रभु के समवशरण में प्रवेश करते हैं । अथानन्तर अरहन्त प्रभु के ४६ मूल गुणों का समुल्लेख करते हुए धी बीर प्रभु की स्तुति करते हैं । ३४ अतिशयों, ८ प्रातिहार्य और ४ अनन्त चतुष्टय इन ४६ गुणों से समन्वित श्री अरहन्त देव ही सच्चे देव हैं तथा भव्य जीवों को उत्तम अक्षय सुख को प्राप्त कराने में समर्थ हैं । यहाँ ४६ मूलगुणों का संक्षिप्त परिज्ञान आवश्यक है अत: उनका निर्देश संक्षेप में यहाँ करते हैं । सर्व प्रथम ३४ अतिशयों को बताते हैं-१० जन्म के अतिशय, १० केवलज्ञान के अतिशय और १४ देवकृत अतिशय हैं। जन्म के १० अतिशय निम्नलिखित हैं—(१) कभी शरीर में पसीना न आना (२) मलमूत्र नहीं होना (३) दूध के समान सफेद रुधिर का होना (४) समचतुरस्र संस्थान का Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद होना (५) बनवृषभ नाराच संहनन का होना (६) अत्यन्त सुन्दर शरीर होना (७) सुगंधमय शरीर होना (८) शरीर पर उत्तम लक्षणों का होना (8) अनन्तवीर्य होना (१०) हितकारी और मधुर वचनों का निकलना। अब केवलज्ञान के १० अतिशय बताते हैं (१) ४०० कोस तक अर्थात् १०० योजन तक सुभिक्षता का होना-दुप्काल नहीं पड़ना । (२) आकाश में गमन करना। (३) किसी जीव को बाधा न पहुँचाना । (४) कवलाहार ग्रहण न करना । (५) किसी प्रकार का उपसर्ग न होना । (६) चारों दिशाओं में चार मुख का दिखाई देना । (७) समस्त विद्याओं का ईश्वरपना होना । (८) शरीर की छाया न पड़ना । (६) नेत्रों का टिमकारा न लगना । (१०) मख केशों का न बढ़ना । १४ देवकृत अतिशय इस प्रकार हैं--- केवल ज्ञान होने के बाद समवशरण में विराजमान अरहन्त प्रभु की सेवा में तत्पर देवों द्वारा किये गये १४ प्रकार के अतिशय होते हैं (१) समस्त जोवों का कल्याण करने वाली भगवान की दिव्यध्वनि का अर्धमागधी भाषा रूप होना। (२) समवशरण में आने वाले समस्त प्राणियों का अपना जन्म से होने वाला वैर विरोध छोड़कर मंत्रो भाव से रहना। (३) वहाँ को पृथ्वी के वृक्षों का छहों ऋतुओं में होने वाले फल फूलों पत्तों से सुशोभित होना । (४) बहाँ को पृथ्वी का रत्ममयी होना। । (५) पृथ्वो का दर्पण समान अत्यन्त निर्मल होना। (६) भगवान जिस दिशा की ओर विहार करते हैं वायु का उसी दिशा की ओर बहना। (७) वहाँ पर आने वाले समस्त जीवों को महाआनन्द का होना । (८) जहाँ भगवान विहार करते हैं वहाँ पर सुगंध से मिली हुई वायु के द्वारा एक योजन तक की भूमि को धूल कांटे, तण, कीट, बालू, रेतो, पत्थर आदि को हटाकर स्वच्छ कर देना। (६) सुगन्धित गन्धोदक की वृष्टि होना। (१०) भगवान के चरणों के नीचे कमलों की रचना करना । भगवान तीर्थंकर परमदेव जब विहार करते हैं तब देव उन चरणकमल के नीचे सुवर्ण कमलों को रचना करते हैं। एक कमल चरणकमल के नीचे रहता है, सात आगे होते । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल. चरित्र प्रथम परिच्छेद] हैं, सात पीछे होते हैं । इस प्रकार १५ कमल होते हैं किन्तु समस्त कमलों की संख्या २२५ होती हैं जो इस प्रकार हैं -एक कमल भगवान के चरणों के नीचे रहता है । सात-सात कमल आठों दिशाओं में होते हैं तथा उन आठ दिशाओं के मध्यवर्ती आट अन्तरालों में भी सातसात कमल होते हैं इस प्रकार एक सौ तेरह कमल हुए पुन: उपयुक्त १६ पंक्तियों के मध्यवर्ती अन्तरालों में भी सात-सात कमलों की पंक्ति होती है इस प्रकार ११२ कमल ये और हुए । सब मिलाकर २२५ कमल हुए। (११) पृथ्वी फलों के भार से न म्रित और शालि आदि समस्त धान्य के निमित्त से रोमाञ्चिन हुई के समान दिखती है । (१२) आकाश स्वच्छ वा निर्मल हो जाता है, दशों दिशाएँ धूलि और अन्धकार से रहित हो जाती हैं। (१३) ज्योतिषि देव, व्यन्तर देव, कल्पवासी देव और भवनबासी देव इन्द्र की आज्ञा से चारो ओर परस्पर 'आओ आओ” इस प्रकार शोघ्रता से बुलाते हैं। (१४) जो देदीप्यमान एक हजार आरों से शोभित हैं और चारों और अत्यन्त निर्मल महारत्नों को किरणों के समूह से शोभायमान हैं जो अपनी कान्ति से सूर्य की कान्ति को भी हँसता है—तिरस्कृत करता है ऐसा धर्मचक्र भगवान के विहार करते समय सबके आगे आगे चलता है । इस प्रकार ये १४ अतिशय हुए। प्रातिहार्य आठ होते हैं—(१) अशोक वृक्ष का होना—जिसका विस्तार वैड्र्यमणि को कान्ति के समान अत्यन्त सुन्दर है जिसकी शाखायें नवीन अंकुरों से और कोमल पत्तों से सुशोभित हैं, उत्तम मरकतमणि के समान जिसके हरे पत्त है । पत्तों के अधिक होने से जिसकी छाया बहुत धनी हैं ऐसी अनेक प्रकार की शोभा से शोभित श्री जिनेन्द्रदेव के पास होने वाला शोभनीय अशोक वृक्ष होता है। (२) पुष्पवृष्टि का होना–जिसके चारों ओर मदोन्मत भ्रमर फिर रहे हैं ऐसे मन्दार, कुन्द, रात्रि विकासी कमल, नीलकमल, मवेतकमल, मालती बकुल आदि मिले हुए पुष्पों की आकाश से सदा वृष्टि होती रहती है। (३) चामरों का हुलना–६४ चमरों को यक्ष जाति के देव, भगवान के ऊपर बोलते हैं। (४) दुन्दुभि बाजों का वजना–प्रबल बायु के बात से शोभित हुए समुद्र के गम्भीर' शब्द के समान जिनके मनोहर शब्द हो रहे हैं ऐसे वीणा, बंशी आदि सुन्दर बाजों के साथ दु'दुभि बाजे ताल के साथ मनोहर ध्वनि से बजते हैं। (५) तीन छत्र का होना–अनेक मोतियों की झालरें जिसमें लग रही हैं जो चन्द्रमा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद से भी अधिक धवल तथा शुभ्र हैं, वैडूर्यमणिमय जिसके दण्ड हैं ऐसे मनोज्ञ तीन छत्र भगवान के ऊपर सुशोभित होते रहे है। (६) दिव्य ध्वनि --'पानी से भरे हुए बादलों की गर्जना के समान, समस्त दिशाओं के समूह में व्याप्त, कानों को तथा मन को अत्यन्त सुख देने वाली ऐसी भगवान की दिव्यध्वनि एक योजन तक पहुँचती है । (७) सिंहासन-जिनकी किरणों चारों ओर फैल रही हैं ऐसे रत्नों की किरणों से इन्द्र धनुष के समान छटा को धारण करने वाला ऐसा अनुपम स्फटिक पाषाण का बनाया हुआ अत्यन्त उत्कृष्ट सिंहासन स्फटिकमय सिंहों के द्वारा धारण किया जाता है। उस सिंहासन से चार अंगुल ऊपर अधर आकाश में ही भगबान विराजते हैं। (८) भगवान के पीछे भामण्डल का होना----इस भामण्डल में भव्यजीव अपने ७ भव देखते हैं तथा सूर्यचन्द्र से भी अधिक दीप्ति को धारण करने वाला परम सुखकर होता है। इस प्रकार ये ८ प्रातिहार्यों से सहित भगबान होते हैं। अब अनन्त चतुष्टय को बताते हैं अनन्त ज्ञान--लोकालोक के समस्त पदार्थ अनन्त पर्यायों सहित जिनके ज्ञान में स्पष्ट एक साथ झलकते हैं ऐसे केवल ज्ञान के धारी श्री अरहन्त देव होते हैं । ज्ञानावरण कर्म का क्षय होने से श्री अरहन्तदेव को लोकालोक के सभी पदार्थों को एक साथ जानने की क्षमता रखने बाला केबलज्ञान प्रकट हो जाता है। अनन्त दर्शन–दर्शनावरण कर्म का क्षय हो जाने से श्री अरहन्त देव को लोकालोक का युगपत् अवलोकन .. सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन होता है । अनन्त सुख-मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से जिनके निराकुल मुख प्रगट हो गया है ऐसे अनन्त सुख के धारी श्री अरहन्तदेव होते हैं । अनन्तवीर्य—वीर्यान्तराय कर्म का क्षय हो जाने से जिनके आत्मस्थ अनन्त धोर्य गुण प्रकट हो गया है ऐसे अनन्त वीर्य के धारी श्री अरहन्त देव होते हैं । इस प्रकार ४६ मूलगुणों के कथन पूर्वक श्रेणिक महाराज श्री वीर प्रभु की अनेक प्रकार स्तुति करते हैं । और भी स्तुति रूप बचन कहते हैं । जयत्वं श्री जगदेव जय चिन्तामणे प्रभो। जय त्वं परमानन्दकारणं भव्यदेहिनाम् ॥१२२।। अन्वयार्थ (श्री जगदेव) हे विश्ववंद्य (त्य) आप (जय) जयशील होइये (चिन्तामणे प्रभो) हे चिन्तामणि समान फलप्रदाता भगवन आप (जय) जयशील होवें Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद | [ ५६ (भव्यदेहिनाम्) भव्यजीवों के (परमानन्दकारणं) परम आनन्द उत्पन्न करने में निमित्त कारण स्वरूप (त्वं) आप (जय) सदैव जयवन्त होवें । जय त्वं श्री जगदबन्धो जयसर्वज्ञ सर्ववित । जय जन्मजरातङ्कनिवारण भिषग्वरः ॥१२३॥ अन्वयार्थ -(श्री जगद्बन्धो) उभय लक्ष्मी के अधिष्ठाता हे संसार के बन्धु ! मित्र ! (सर्वज्ञ) हे सर्वतत्त्व ज्ञाता (सर्बवित्) समस्त लोकालोक को युगपत् जानने वाले केवलज्ञान के धारी प्रभो (त्वं) आप (जय) जयवन्त हो (जन्मजरातहनिवारण भिषग्वर जन्म, बदा और मरण रूपी रोग को नाश करने वाले हे धेष्ठतम वेद्य (जय) आप जयवन्त होइये। जय त्वं सर्वजन्तूनां करुणाकरसागर । वीतराग जगज्ज्योतियोलिताखिनभूतले ।।१२।। अन्वयार्थ--(सर्वजन्तुनाकरुणाकरसागर) संसारताप से पीडित सर्वप्राणियों को दुःखनिवारक आप करुणा के सागर सिन्धु हैं (जगज्ज्योतिद्योलितखिलभूतले) जगत् के प्रकाशित करने वाले केवल ज्ञान ज्योति स्वरूप (त्वं.) आप (जय) सदेव जयवन्त होवे । जयवीर महावीर सन्मते वर्द्धमान भाक् । महत्यादिमहावीर जय त्वं धर्मनायक ॥१२५।। अन्वयार्थ ---(वीर महावीरसन्मतेबर्द्धमानः) हे वीर, हे महाबीर, हे सन्मति है, बर्द्धमान (महात्यादिमहावीर) हे अतिवीर (भा) पाँच नामी से विख्यात (धर्मनायक) हे धर्म के अधिपति नेता (त्वं) अाप (जय) जयवन्त हो । स्थानिस्तावत्तमस्तोमो यावन्नोदयते रविः । तावज्जनो जडो दुःखी यावत् त्वां नाश्रितस्त्रिधा ॥१२६।। अन्वयार्थ -(स्वामिन् ! )हे स्वामी ! (तमस्तोमो)घनघोर मघन अन्धकार (तावत् सब तक हो रहता है (यावत्) जव तक कि (रविः) सूर्य (नोदयने) उदय को प्राप्त नहीं होता है । (तथा) उसी प्रकार (जनो) संसारी भव्य जीव (तावत्) तब तक ही (जडो दुःखी) मिथ्यात्व अन्धकार से दुःखी रहता है (यावत) जब तक कि वह (त्रिधा) त्रियोग-मन वचन काय से (त्वां) आपको (नाधित्त) प्राथय नहीं किया अर्थात् प्रापकी शरण में नहीं आया । प्रभो कल्पलतेवोच्चभक्तिस्तेसोख्यदायिनी । प्रासंसारं सुधीभू यावाधिव्याधिविनाशिनी ॥१२७।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रोपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद अन्वयार्थ--(प्रभो) हे भगवन् ! (ते भक्तिः) अापकी भक्ति (कल्पलता इब) कल्पलता के समान (उच्चः) महान् (सौख्यदायिनी) स्वर्गमोक्षादि के सुख को देने वाली है (आधिव्याधिविनाशिनी) मानसिक और शारीरिक कष्टों को नष्ट करने बानी है। (प्रासंसार) संसार का नाश होने पर्यन्त (सुधी: भूयात) सम्यक् प्रकार वह सुज्ञान प्रकाशक भक्ति हमारे हृदय में स्थिर होवे । इत्यादि स्तुति वाक्यौघः संस्तुव्य जिननायकम् । भूमौ न्यस्त शिरोदेशो ननाम चरणद्वयम् ॥१२॥ अन्वयार्थ-(इत्यादि) उपयुक्त प्रकार से श्रेणिक महाराज (स्तुतिवाक्यौ धैः ) अनेका प्रकार के स्तुति , याच तमूह सजनमायाम् न् जिनेन्द्र भगवान महावीर स्वामी की (संस्तुत्य) स्तुति करके (शिरोदेशो) मस्तक (भूमौन्यस्त) पृथ्वी पर टेक कर (चरणद्वयम्) चरणकमलों को (ननाम) नमस्कार किया। भावार्थ-भक्ति, आनन्द और उत्साह से विभोर वह श्रेणिक महाराज महागद्गद् स्वर में, समवशरण में सिंहासन स चतुरंगुल अधर विराजित छत्रत्रय सहित, आष्टमहाप्रातिहार्य मण्डित तथा चौसठ चामर जिन पर दुर रहे हैं ऐसे महावीर प्रभु की स्तुति करने लगा-हे प्रभो ! आप हो संसार में सच्चे देव हैं क्योंकि अन्य हरिहरादि प्रारम्भ परिग्रह और कषायमल से लिप्त हैं, वे यथार्थ देब नहीं हो सकते हैं । हे प्रभो ! आप चिन्तामणि रत्न के समान भक्तों को चिन्तित फल प्रदान करने में समर्थ हैं क्योंकि आप वीतरागी हैं, रागढेप विहीन हैं । जो समताभादी होता है, वही सबको समान रूप से सुखी तृप्त कर सकता है। हे भगवन ! मुमुक्ष भव्य प्राणियों को आप परमानन्दमुक्ति श्री का अक्षय सुम्न प्रदान करने में समर्थ निमित्त कारण हैं। हे जगत के कारण बन्धु पाप की जय हो। सांसारिक बन्ध वह होता है जो जीव को, स्वार्थवश, विषय भोगों में फंसाने का प्रयत्न करता है विवाह आदि कार्यों में समन्वित होकर प्रेम प्रदर्शित करता है किन्तु आप निष्कारण भवदुःखनाशक परम बन्धु है । आपका उपदेश अमृत महश जग संताप को दूर करता है ग्रतः पाप ही साव हितषी बन्धु हैं। प्राप सर्वज्ञ हैं "सर्व जानातोति सर्वज्ञः जो त्रैलोक्यवर्ती सकल पदार्थों को उनकी अनन्त पर्यायों से सहित युगपत् जानने में समर्थ है वही सर्वज्ञ कहलाता है । हे भगवन् अापके केवलज्ञान रूपी दर्पण में चराचर समस्त पदार्थ एक साथ अपनो अनन्तपर्यायों सहित झलकते रहते है। अतः प्राप सर्वन हैं आपकी जय हो जय हो, सक्ष जयशील हो । संसारो प्राणियों के शरीर जन्य रोगों बीमारियों को कुशल वैद्य अपनी योग्य अनुकूल औषधि से दूर कर देता है पर आप तो संसार जन्य रोग के कारणीभूत जन्म, जरा (बुहापा) और मरण को ही नाथा करने वाले हो अतः सर्वोत्तम कुशल वैद्य आप ही हो । हे जगत्पालक, संकट हारक, भव्यजनोद्धारक ग्राप जयवन्त रहें यह आपका जिन धर्म संसार में बर्तता रहे । हे जिनाधिप ! आप करूणा के अगाध सिन्धु हैं, प्रामीमात्र के रक्षक परम दयालु Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद | [ ६१ हैं। मोहान्धकार को नाश करने वाले हैं। विमल सम्यग्ज्ञान ज्योति का प्रकाश कर भव्यों को सबोध प्रदान करने वाले हैं आपकी ज्ञान गरिमा से विश्व ज्योतिर्भव हो रहा है । हे ज्योति पुञ्ज ! आप सदैव जयवन्त रहें । हे वीतरागी जिन ! आप किसी के द्वारा की गई निन्दा स्तुति से रुष्ट तुष्ट नहीं होते हैं । स्तुति करने वाले से प्रसन्न और निन्दा करने वाले से अप्रसन्न नहीं होते । प्रभो ! आप राग द्वेष विहीन हैं अतः सच्चे वीतरागी आप ही हैं। विषय कषायों के जाल में फँसे हरिहर आदि वीतरागी नहीं हैं तथा वीतरागता के बिना हितोपदेशी और सर्वज्ञ भी नहीं हो सकते हैं। हे वीर प्रभो ! संसार में आपके पांच नाम विख्यात | प्रथम आप बर्द्धमान कहलाये क्योंकि गर्भावतरण के पूर्ण ही माता-पिता, देश, समाज तथा प्रजामणों में धन, जन, सुख, शान्ति धर्म आदि की वृद्धि हुई । श्रत: वर्द्धनशील आपका वर्द्धमान नाम सार्थक है । आपने वाल्यकाल में ही 'संवर' देव को बालसुलभ कीडा में परास्त किया, अतः महावीर कहलाये । विजय और संजय नामक दो चारण ऋद्धिधारी दो मुनियों को किसी तत्वार्थ के विषय में संदेह उत्पन्न हुआ अकस्मात् उन्हें आपका दर्शन हो गया, हे प्रभो ! गृहस्थ अवस्था में स्थित भी आपके दर्शन मात्र से वे निःसन्देह हो गये और आपका 'सन्मति' यह नाम स्थापित कर वन विहार कर गये जन्माभिषेक के समय शचिपति को शङ्का हुई कि कलश तो विशाल है और भगवान बालक हैं, लघुकाय वाले हैं अतः अभिषेक किस प्रकार करू ? कहीं इन्हें कष्ट न हो जाय । तत्क्षण आपने अपने अवधिज्ञान से इन्द्र के संदेह को ज्ञात कर अपने दाहिने चरण के अंगूठे से समेरु पर्वत को कम्पित कर क्षणमात्र में उसका संदेह निवारण कर दिया और प्रतिबोर नाम पाया । इस प्रकार आप पाँच नामों से विश्रुत जयशील रहें । हे नाथ! आपकी जय हो ! जय हो जय हो ! आप धर्म के अधिनायक हैं, धुरा हैं, आप सतत् जयवन्त हो । आप मोहान्धकार को नष्ट करने के लिये ज्ञान भानु हैं। जिस प्रकार सूर्योदय होते ही भूतल पर व्याप्त सघन अन्धकार क्षणमात्र में विलीन हो जाता है । उसी प्रकार आपने दर्शनमात्र से भव्य जीवों के अनादि मिथ्यात्व - मोहरूपी अन्धकार पटल क्षणमात्र में आपके दर्शन से विलीन हो जाता है अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है । संसारी जीव तभी तक दुःखी रहते हैं जब तक आपके चरण कमलों की रज उन्हें प्राप्त नहीं होती है अर्थात् जो भव्य प्राणी शुद्ध मन, वचन, काय से आपके चरणारविन्द का आश्रय लेते हैं उनके समस्त संकट विलीन हो जाते हैं। वह अपने अभीप्सित फल को अनायास प्राप्त कर लेता है । जिन भक्ति में आधि व्याधि आदि समस्त विपत्तियों को दूर करने की शक्ति विद्यमान है। गुजरात कहावत है- "भक्ति थी मुक्ति सहल छै:" हे भाई बहनो! भक्ति से मुक्ति सरलता से प्राप्त हो जाती है । इस प्रकार महाराज श्रेणिक ने अनेकों शुभ स्तोत्रां से श्री वीर प्रभु की स्तुती कर भूमि पर मस्तक टेक कर भगवान के चरण कमलद्वय को अत्यन्त भक्ति से नमस्कार किया । अपलक नयनों से जिनेश्वर की अनुपम छवि को निहार-विहार कर श्रेणिक महाराज ने अपने को धन्य धन्य अनुभव किया तथा शरम्बार नमस्कार किया ।।१२१ से १२८ ।। में ततः श्रीगौतमस्वामीप्रमुख्यान्मुनिपुङ्गवान् । नत्वा स्तुत्या स्थितो भूयो नरकोष्ठेति भक्तिमान् ॥ १२६ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद प्रन्वयार्थ - ( ततः ) उसके बाद ( गौतमस्वामी प्रमुख्यान् मुनिपुङ्गवान् ) श्री मोतम स्वामी जिसमें प्रमुख थे ऐसे समस्त मुनिपुङ्गवों को ( नत्वा) नमस्कार कर ( स्तुत्वा ) स्तुतिकर (अतिभक्तिमान् ) अत्यन्त भक्ति से भरा हुद्या राजा श्रेणिक (नरकोष्ठे स्थितो) मनुष्य के कोठे बैठ ६२ ] भावार्थ - श्रेणिक महाराज उपर्युक्त प्रकार प्रगाढ़ भक्ति के साथ श्री वीर प्रभु की स्तुति कर नमस्कार कर मनुष्य के कोठे में जाकर बैठ गये । जहाँ गौतम स्वामी को प्रमुखकर ११ गणधर परमेष्ठी भी बिराजमान थे। सभी गणधर मुनि मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्ययइन चार ज्ञान के धारी होते हैं। गणधर स्वामी के अतिरिक्त अन्य भी अनेक मुनिपुङ्गव वहाँ विराजमान थे उनमें अवधिज्ञानी मुनिराज १२७६०० थे । पुर्वधारी मुनिराजो की संख्या ३६६४० यो । विपुलमती मनः पर्ययज्ञान के धारी १५४६०५ थे। विक्रया ऋद्धि के धारी २२५६०० थे। शिक्षक अर्थात् उपाध्यायमुनि २०००५५५ ये । इस तरह और भी अनेक मुनिराज वहाँ विराजमान थे । उन सबकी स्तुति वन्दना नमस्कारादि करके श्रेणिक राजा मनुष्य के कोठे में बैठ गया । श्री गौतम स्वामी ने आषाडा मास की गुरुपुरिंगमा को दीक्षा धारण कर श्री वीर प्रभु का शिष्यत्व स्वीकार किया था और उसी समय उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों के बल से उनके 'मन:पर्यय भी प्रकट हो गया था अगले दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के ब्राह्ममुहूर्त में भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि आरम्भ हुई इस प्रकार इस दिन धर्म तीर्थ को उत्पत्ति हुई थी । तदनन्तर अन्य भी गणधर हुए जिनके नाम इस प्रकार हैं- प्रथम गणधर तो गौतम स्वामी थे ऐसा बता चुके हैं (२) अग्निभूत ( ३ ) वायुभूति ( ४ ) शुचिदत्त ( ५ ) सुधर्मा (६) मण्डिक (७) मौर्यपुत्र ( 5 ) अकम्पित ( ६ ) अचल (१०) मेदार्य ( ११ ) प्रभास । तदा तीर्थंकराधीश वोर श्रीमुख पंकजात् वक्तुमिच्छां बिना चापि तात्योष्ठस्पंदवजितः ॥ १३०॥ अन्वयार्थ - ( तदा ) तव ( तीर्थंकराधीश ) तीन लोक अधिपति धर्म तीर्थ के कर्ता अन्तिम तीर्थंकर (जोर श्रीमुखपंकजात् ) महावीर भगवान के मुखारबिन्द से ( वक्तुमिच्छा बिना चापि ) बोलने की इच्छा न होने पर भी ( तात्वोष्ठस्पन्द बजितः ) तालु ओष्ठ आदि के स्पन्दन के बिना ही ( स्पष्टाक्षर कदम्बका) स्पष्टाक्षरों समूह रूप (दिव्यध्वनिसमुत्पन्ना ) दिव्यध्वनि उत्पन्न हुई जो ( नानादेशात् ) विभिन्न देशों से ( आगत- प्राणिचित्त ! आये हुए प्राणियों के चित्त को (संप्रीणन क्षमा) प्रफुल्लित प्रसन्न करने में समर्थ थी । - भगवान की प्रथम देशना का स्थल राजगृह नगरी का विपुलाचल पर्वत या । मिथ्यात्व और अज्ञान का भेदन करने वाली, भव्य जीवों को दुःख से मुक्त करने वाली भगवान की वाणी अमृत के समान उपादेय थी । दिव्यध्वनि को दिव्य विशेषण क्यों दिया ? इस विषय में ऐसा आगम में कथन Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] मिलता है कि भगवान की वाणी असाधारण होती है इसलिये उसे दिव्य कहते हैं । जेसे मेघ का पानी एक रूप है तो भी वह नाना वृक्ष और बनस्पतियों में जाकर नाना रूप परिणत हो जाती है उसी प्रकार दाँत, ताजु, कोट और कम्ड प्रादि कहलन चलन से रहित बह वाणी १८ महाभाषा और ७०० क्षुद्रभाषाओं में परिणत होकर युगपत् समस्त भन्यों को आनन्द प्रदान करती है अतः दिव्य है। भगवान की वाणी अर्धमागधी भाषा रूप है ऐसा ग्रन्थों में कहा है सो यह प्राकृत भाषा का ही एक भेद है । सात प्रकार की प्राकृत भाषा होती है-(१) भागधी (२) आवन्तिका (३) प्राच्या (४) शौरीनी (५) अर्धमागधी (६) वाही को (७) दाक्षिणात्य । __ आज वक्ता की वाणी को ध्यान वाहक यन्त्र के द्वारा दूरवर्ती श्रोताओं के कानों के पास पहुँचाया जाता है किन्तु उस यंत्र की सहायता से वाणी समीप में अधिक उच्च स्वर वाली और दूर में मन्द स्वर बाली होती है पर जिनेन्द्र भगवान की वाणी समीप और दूरवर्ती सभी को समरूप से पूरी स्पष्ट और अति मधुर सुनाई देती है । तथा मगध नामक व्यन्तर देव के निमित्त से विभिन्न भाषाओं में परिणत हो जाती है और सर्वजीवों को अपनी-अपनी भाषा में स्पष्ट सुनाई देती है। ध्यनिनातेनपञ्चास्तिकायलक्षरण विस्तरम् । प्रोवाच सप्त तत्वार्थ पदार्थान् स जिनेश्वरः ॥ __ अन्वयार्थ-(स जिनेश्वरः) उन श्री महावीर स्वामी ने (ध्वनिना) दिव्य ध्वनि के द्वारा (पञ्चास्तिकायलक्षण) पाँच अस्तिकाय का लक्षण (सप्ततत्वार्थपदार्थान् ) सप्त तत्व और नब पदार्थों को (विस्तरम्) विस्तार से (प्रोवाच) कहा ।। भावार्य--भगवान ने अपनी दिव्यध्वनि में पाँच अस्तिकाय, सप्त तत्व और नव पदार्थों का वर्णन किया । जिनका स्वरूप आगम में इस प्रकार है अस्ति काय किसे कहते हैं संति जदो तेरोदे प्रत्थीति भणन्ति जिणवरा जम्हा। काया इव बहुदेणा तह्या काया य अस्थिकाया य द्रव्य संग्रह।। अर्थ .. जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांचो द्रव्य सदा विद्यमान रहते हैं इसलिये इन्हें अस्ति कहते हैं और बहुप्रदेशो होने से कायवान कहते हैं । धर्म अधर्म और लोकाकाश तथा एक जीव द्रव्य ये सभी असंख्यात प्रदेशी है। पुद्गल द्रव्य संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश वाले हैं। यद्यपि पुद्गल परमारण एक प्रदेशी भी है पर वह पुनः स्कन्ध पर्याय रूप परिणत हो जाता है इसलिये कायवान ही है। तत्व-तत्व सात है-जीब, अजीब, आस्रव, बन्ध, संवर. निर्जरा और मोक्ष । पदार्थ-- पदार्थ ६ है । उक्त सप्त तत्वों में पुण्य और पाप इन दोनों के मिलाने से ६ पदार्थ होते हैं । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] [ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद I पद्रव्यों में कालद्रव्य को कायवान नहीं कहा है क्योंकि उसमें प्रदेश प्रचय का अभाव है । अर्थात् काला रत्नों को राशि के समान आकाश के एक-एक प्रदेश पर पृथक्पृथक् अवस्थित हैं अतः उनको कायवान नहीं माना है किन्तु अस्ति रूप हैं । जितने भो द्रव्य हैं वे सभी सत् रूप होते हैं "सत् द्रव्य लक्षणं" ऐसा कहा है । निश्चयो जीवितः पूर्व जीवतीह पुमानयम् । जोदिष्यति देवी प्रोच्यते बुनिपुङ्गवैः ॥ १३३॥ अन्वयार्थ - ( निश्चयः ) निश्चय से ( अयम् पुमान्) यह आत्मा (पूर्वी जीवितः ) पहले जीवित था ( इह जोवति ) इस समय जी रहा है और ( जोविष्यति ) आगे जीवित रहेगा (असी सुजीवः ) वह जीव है ऐसा ( मुनिपुङ्गवैः प्रोच्यते ) मुनियों में श्रेष्ठ गणघर देवों के द्वारा कहा जाता है | श्रर्थ - जो पहले जीता था, इस समय जीवित हैं और आगे भी जीवित रहेगा उसे गणधर देवादि द्वारा जीव कहा गया है । भावार्थ-व्यवहार नय से जो दश प्राणों से युक्त था, हे और आगे रहेगा बह जीव है । पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल-मनोबल, वचनबल और कावल तथा आयु और श्वासोच्छवास ये १० प्राण कहलाते हैं । इनमें से एकेन्द्रिय जीव के १ स्पर्शन इन्द्रिय २ कायबल ३ आयु और ४ श्वाँसोच्छवास ये चार प्राण होते हैं दो इन्द्रिय के स्पर्शन और रसना ये २ इन्द्रियों कायबल वचनवल आयु एवं श्वासोच्छवास ये ६ प्राण होते हैं। इन्हीं ६ प्राणों में एक प्राण इन्द्रिय अधिक हो जाने से श्रीन्द्रिय जीवों के ७ प्राण होते हैं। इन ७ प्राणों में एक चक्षु इन्द्रिय बढ़ जाने से चतुरिन्द्रिय जीवों के प्राण होते हैं। असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय के एक क इन्द्रिय और बढ़ने से ६ प्राण होते हैं तथा मनोबल और अधिक हो जाने से संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के १० प्राण होते हैं । संसार अवस्था में ये जीन के सदा ही विद्यमान रहते हैं अतः इन्हीं के द्वारा जीव की पहिचान होती है । चेतना लक्षणो जीवात्सोपयोगद्वयोऽनिशम् । प्रोक्तस्सोऽपि द्विधा जीवस्संसारी मुक्त एव च ॥ १३४ ॥ अन्वयार्थ - (जीव ) जीव ( चेतना लक्षण: ) चेतना लक्षण वाला है ( स ) वह चेतना ( उपयोगो) उपयोग रूप है ( सोऽपि ) वह उपयोग भी ( द्वयो) दो प्रकार का है - दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग | (सोऽपि जीवः ) वह जीव भी ( अनिशम् द्विधाप्रोक्तः ) निरन्तर दो प्रकार का कहा जाता है (संसारी मुक्त एव च ) संसारी और मुक्त रूप ही । अर्थ- चेतना गुण से युक्त जो हो उसे जीब कहते हैं । यह चेतना त्रिकालावछिन्न रूप से जीव में पाई जाती है। उसके दो भेद हैं—दर्शनचेतना और ज्ञानचेतना । इन दोनों भेदों को उपयोग कहते हैं। इसलिये दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग से उपयोग दो प्रकार का है Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] [ ६५ यही जीव का लक्षण है जैसा श्री उमास्वामी आचार्य ने लिखा भी है-: उपयोगो लक्षणं" जीव का लक्षण उपयोग है । I भावार्थ- जो वेता गण से सहित हो वह जोव है। चेतना के तीन भेद भी हैं(१) ज्ञान चेतना (२) कर्म चेतना ( ३ ) कर्मफल चेतना सम्यम्वष्टि के जब प्रात्मानुभूति के साथ उपयोग का परिणमन होता है तब उसे ज्ञान चेतना कहते हैं । यह चतुर्थ गुणस्थान से सिद्ध श्रवस्था पर्यन्त तारतम्य रूप से शुद्ध होती हुई पूर्ण शुद्धता को प्राप्त होती जाती है और सिद्धावस्था में परमशुद्ध हो जाती है। मुख्यतः कर्म चेतना मिथ्यादृष्टि के होती है श्रंशांश रूप में सम्यष्टि के भी होती है तथा कर्मफल चेतना मुख्यतः एकेन्द्रिय जीव के तथा अंशांश रूप मेंन्द्रियादि के भी पायी जाती है। इस भेद को अवगत कर अशुद्ध कर्म चेतना और कर्मफल चेतना का परिहार कर शुद्ध ज्ञान चेतना की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिये । संसारे संसरन्नित्यं अष्टकर्मारिवेष्टितः । कर्त्ता भोक्ता स संसारी कर्मणां भवकारिणाम् ॥ १३५॥ अन्वयार्थ - (अष्टकर्मारिवेष्टितः ) जो भ्रष्ट कर्मों से वेष्टित वा बद्ध है ( स ) वह ( नित्यं संसारे संसरन् ) निरन्तर संसार में गत्यन्तर रूप भ्रमण करता हुआ ( भवकारिणाम् कर्मणां ) भव अर्थात् संसार जनक कर्मों का ( कर्त्ता भोक्ता) कर्त्ता और भोक्ता (संसारी) संसारी जीव कहलाता है । अर्थ – जो अष्ट दुष्ट कर्मरूपी शत्रुओं से प्राक्रान्त हैं। भव बीज रूप कर्मों के कर्त्ता और भोक्ता हैं उन्हें संसारी जीव कहते हैं । भावार्थ---''संरररणं संसार : " चतुर्गति में परिभ्रमण का है ( १ ) द्रव्य संसार ( २ ) क्षेत्र संसार (३.) काल संसार संसार क्योंकि इनके श्राश्रय से यह जीव निरन्तर संसार में तिर्यञ्च मनुष्य और देव ये ४ गतियाँ हैं जिनमें यह जीव जन्म वा मरण करता रहता है । उत्पत्तिस्थान की अपेक्षा ६४ लाख योनियों हैं और शरीर की विविधता के कारण भूत नो कर्मवर्गणाओं के भेद से १६६४४२ कोटिकुल हैं। शरीर भेद के कारण भूत नोकर्मणाओं के भेद को कुल कहते हैं जिनका विस्तार से वर्णन अन्य सिद्धान्त ग्रन्थों से जान लेना चाहिये । संसारी जीव इनके माध्यम से अष्टकर्मो का उपार्जन करते हैं और स्वयं ही उनके शुभाशुभ फलों को भोगते हैं सुखी दुःखी होते हैं । होना संसार हैं । जो ५ प्रकार ( ४ ) भाव संसार ( ५ ) भवपरिभ्रमरण करता है । नरक, सोsपि संसारिको द्वेधा भव्याभव्यप्रभवतः । रत्नत्रयोचितो भव्यस्त द्विपक्षपरोमतः ॥ १३६ ॥ अन्वयार्थ - ( सोऽपि संसारिक: ) वह संसारी जीव भी ( भव्या भव्य प्रभेदतः ) भव्य और अभव्य के भेद से (द्वेधा) दो प्रकार का है ( रत्नत्रयोचितो ) रत्नत्रय को प्रकट करने की Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद योग्यता रखने वाला (भव्यः) भव्य है (तद्विपक्षः) उससे विपरीत-रत्नत्रय की अभिव्यक्ति में अयोग्य (परोमतः) अभव्य माना गया है । अर्थ संसारी जीब दो प्रकार के हैं-- (१) भव्य (२)अभव्य । जिनमें रत्नत्रय को प्रकट करने की योग्यता है वे भव्य जीव हैं और जो कारण मिलने पर भी रत्नत्रय को प्रकट नहीं कर पाते हैं उन्हें अभव्य जीब समझना चाहिये । लाचार्य-निराकर अगादि काल से खान में पड़ा, किट्टकालिमा से सहित सुवर्ण योग्य निमित्त कारणों के मिलने पर शुद्ध कुन्दन बन जाता है उसी प्रकार भव्य जीव पांच लब्धियों का पालम्बन निमित्त मिलने पर सम्यग्दर्शन को प्रकट कर लेता है। तथा जिस प्रकार अन्धसुवर्ण पाषाण किसी भी उपाय से शुद्ध सुबर्णरूप परिणत नहीं होता है उसी प्रकार अभव्यजीव शक्ति रूप में रत्नत्रय होते हुए भी उसकी अभिव्यक्ति में असमर्थ होते हैं अर्थात् कभी भी किसी भी उपाय से रत्नत्रय का प्रकटीकरण उनके नहीं होता है । गत्यादिमार्गणाभेवैगुणस्थानस्संभूतर्फः । नानाविधो जिनेन्द्रणप्रोक्तोऽसौ भुवनेशिना ॥१३७॥ अन्वयार्थ---(भूवनेशिना जिनेन्द्रण) तीन लोक के ईश्वर श्री जिनेन्द्र देव के द्वारा (अमौ) वह संसारी जीव (गत्यादिमार्गणाभेदैः) गति आदि १४ मार्गणाओं के भेद से (गुण(स्थानसंभुत्तकैः) गुणस्थानों और जीवसमासों की अपेक्षा से (नानाविधोप्रोक्तो) अनेक प्रकार का कहा गया है। भावार्थ-संसारी जीव अनेक प्रकार के हैं। जिनेन्द्र प्रभु ने अपने चराचर व्यापी ज्ञान के द्वारा ज्ञात कर १४ मार्गणाओं, १४ गुणस्थान और जीव समासों की अपेक्षा से संसारी जीवों के अनेक भेदों का यथावस्थित सम्यक् वर्णन किया है। मार्गणाएँ चौदह हैं। जिनमें या जिनके द्वारा नाना अवस्थाओं में स्थित जीवों का अन्वेषण किया जाय, खोज की जाय उन्हें मार्गणा कहते हैं। मार्गणा शब्द का अर्थ है खोजनाहूँढना। ___"मृग्यतेऽनेन जीवादयरितिमार्गणा" जिनके द्वारा जीवादि तत्वों का अन्वेषण किया जावे वे मार्गणाएं हैं जिनके १४ भेद इस प्रकार हैं १ गति, २ इन्द्रिय, ३ काय, ४ योग, ५ वेद, ६ कषाय, ७ ज्ञान, ८ संयम, ६ दर्शन, १० लेश्या, ११ भव्यत्व, १२ सम्यक्त्व, १३ संज्ञी और १४ आहार । (१) गति-भव से भवान्तर को प्राप्त होना गति है । जो ४ हैं-नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । (२) इन्द्रिय--संसारी आत्मा के लिङ्ग या चिन्ह को इन्द्रिय कहते हैं जिनके ५ भेद हैं १-स्पर्शन, २-रसना, ३-प्राण, ४-चक्षु और ५-कर्ण । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] [ ६७ (३) काय—जाति नामकर्म के अविनाभाबी त्रस और स्थाबर नामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय को जिनमत में काय कहते हैं । यद्यपि काय शब्द का निरुक्ति अर्थ शरीर है किन्तु यहाँ मार्गणा के प्रकरण में यह-शरीर अर्थ उपचरित है गौण है। (४) पोग-पुद्गल विपाकी शरीर नाम कर्म के उदय से युक्त जीव की जो कमों के ग्रहण करने में कारण भूत शक्ति है उसको योग कहते हैं। (५) वेद--स्त्री का पुरुष के साथ और नपुंसक के स्त्री पुरुष दोनों के साथ रमण करने की अभिलाषा विशेष का होना वेद है। (६) कषाय—जो प्रात्मा को कषे-दुःख देवे वह कषाय है। (७) ज्ञान–पदार्थों को जानने की शक्ति रूप धर्मबाला ज्ञान गुण है जो जीव का लक्षण भी है। - (८) संयम---षट्काय जीवों की रक्षा करना और पञ्चेन्द्रिय तथा मन को वश में करना संयम है। (8) दर्शन-जीव में जो सामान्य अवलोकन रूप देखने की शक्ति विशेष है उसे दर्शन कहते हैं अर्थात् सामान्य प्रतिभास रूप धर्मवाला दर्शन होता है । (१०) लेश्या-"कषायानुरञ्जित योग प्रवृत्ति लेण्या" कषायों से लिप्त योगों की प्रवृत्ति को लेण्या कहते हैं। (११) भव्यत्व-रत्नत्रय को प्रकट करने की शक्ति विशेष का नाम भव्यत्व है और रत्नत्रय को प्राप्त करने की योग्यता सहित जीव भव्य कहलाता है इसके विपरीत लक्षण वाला अभव्य है। (१२) सम्यक्त्व--"तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन" तत्वों के यथार्थ श्रद्धान का होना सम्यक्त्व है। (१३) संजी---मन सहित वा मन रहित जीवों का कथन करने वाली संजी मार्गणा (१६) संजी-मन सहित न (१४) आहार-तीन शरीर और ६ पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल वर्गणाओं का ग्रहण करना आहार है तथा इनसे युक्त जीव आहारक कहलाता है । अब गुणस्थान का स्वरूप और भेद बताते हैं-- __ मोह और योग के मिश्रण से होने वाले जीव के परिणाम विशेष को गुणस्थान कहते हैं । जिनके १४ भेद हैं-१-मिथ्यात्व, २-सासादन, ३-मिश्र, ४-सम्यक्त्व सहित अविरत जीवअविरत सम्यग्दृष्टि ५-देशविरत, ६-प्रमत्तविरत, ७-अप्रमत्त, ८-अपूर्वकरण, ६–सुमनिवृत्ति Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद करण, १०-सूक्ष्मसाम्पराय, ११- -उपशान्त मोह, १२ - क्षीणमोह, १३ - सयोग केवली और १४-प्रयोगकेवली और १४ - प्रयोग के बली अब जीव समासों को बताते हैं-- "जीवाः समस्यन्ते संक्षिप्यन्ते-संगह्यन्ते यैः धर्मस्ते जीवसमासा:" जिनके द्वारा अनेक जोव तथा उनको अनेक प्रकार को जाति जानी जाय उन धर्मों को अनेक पदार्थों का संग्रह करने वाला होने से जोवसमास कहते हैं। जो स्थल रूप से १४ भेद वाले हैं तथा अवान्तर भेद १८ हैं पुन: प्रभेद करने से ४०६ तथा संख्याच असंख्यात भेद भी हैं। १४ भेद इस प्रकार हैं (१) एकेन्द्रिय बादर (२) एकेन्द्रिय सूक्ष्म (३) द्वन्द्रीय (४) योन्द्रिय (५) चतुरिन्द्रिय (६) असंजीपञ्बेन्द्रिय (७) संज्ञी पञ्चेन्द्रिय । ये सातों ही पर्याप्त और अपर्या-ज के भेद से दो-दो भेद वाले हैं अत: ७४२ - १४ भेद होते हैं। इनके अन्य प्रकार भेदों को जीबकाण्ड गोमसार से जानिये। मुक्तो जीवो भवेत्सिद्धो निराबाधो निरञ्जनः । दुष्टाष्टकर्म निर्मुक्तस्त्रैलोक्यशिखरे स्थितः ।।१३८॥ अन्वयार्थ - (दुष्टाष्टकर्म निर्मुक्तः) दुष्ट-दुःखदायी आठ द्रव्य कमों से रहित (निरञ्जनः) भावकर्म रूपी रज से रहित (निराबाध) बाधारहित अव्यावाध सुख (त्रैलोक्यशिखरस्थित:) तीन लोक के शिखर पर तनुवातवलय में स्थित मुक्तः) मुक्त (जीवः भवेत्) जीव होते हैं। भावार्थ जो द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म से रहित हैं, अष्ट कर्मों से रहित होने से अव्याबाघ मुख का अनुभव करने वाले हैं और लोक के शिखर पर अनुवातबलय में मिद्ध शिला पर विराजमान हैं वे शिद्ध या मुक्त जीव हैं। अजीवः पुद्गलः प्रोक्तः षट्टप्रकार स्वभावतः । तद् भेदाश्च परे स्पर्शरसगन्धसुवर्णकाः ॥१३॥ अन्वयार्थ—(अजोवः पुद्गलः) अजीवरूप पूदगल द्रव्य (स्वभावत.) स्वभाव से (षट् प्रकार प्रोक्तः) छ: भेदवाला कहा गया है (स्पर्शरसगन्ध सुवर्गाकाः) स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण हैं गुरण जिनके ऐसे (तभेदा:) पुद्गल के भेद (परे च) और भी हैं। भावार्थ:-- जीव के बिना शेष पाँच द्रव्य-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अजोब रूप हैं। इनमें पुदगल द्रव्य वर्ण, गन्ध, स्पर्श और रस गुणवाला है तथा उस पुद्गल के ६ भेद हैं जिनका नाम आगे के श्लोकों में बताया गया है। उनमें भी प्रभेद करने से अनेकशः बहुत भेद हो सकते हैं। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] पृथ्वी जलं तथा छाया चतुः ख विषयस्तथा । कर्माण : परमाणु श्च षड्भेदापुद्गले स्थिताः ॥१४०॥ अन्वयार्थ - (पृथ्वी जल तथा छाया) पृथ्वी, जल और दाया (चतु: ख) चौथा चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों के विषय (कर्माण : परमाण पत्र) कर्माण और परमाणु ये (षड्भेदा) छ: भेद (पुद्गले स्थिताः) पुद्गल में स्थित है अर्थात पुद्गल में पाये जाते हैं । मावार्थ- पुद्गल के छ भेद हैं--(१) पृथ्वी-वह बादर बादर है। (२) जल-यह बादर है (३) छाया-यह बादर सूक्ष्म है (४) चक्षु को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियों के विषय ये सूक्ष्म बादर हैं (५) कर्म परमाण -यह सूक्ष्म है (६) परमाण यह सूक्ष्म सूक्ष्म है। इसी का विशेष स्पष्टीकरगा आगे के श्लोकों में है-- गाथाढयमुक्त अइथूल थूलथूलं थूलसुहमं च मुहमथूलं च । सहुमं अइ सुहुमं इदि धरादियं होदि छन्भेयं ॥१४१॥ पुढवी जलं च छाया चतुरिदिय विसय कम्मपरमाण । छन्विहभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिणघरेहिं ॥१४२॥ .. . .... :: . अन्वयार्थ-- (अइथूल थूल) वादर-बादर (थूल) बादर (थूलमुहुमं) बादर सूक्ष्म (सुहम-थूलं) सूक्ष्म बादर. (सुहम) सूक्ष्म (अइमुहुम) सक्ष्म-सूक्ष्म (इदि) इस प्रकार ये (धरादियं ) पृथ्वी आदि (छठमेयं) छ भेद (होदि) पुदगल के होते हैं । उन्हीं के नाम..... (पुढवी) पृथ्वी (जलं) जल-पानी (च) और (छाया) छाया (चरिदियविसय) नेत्र को छोड़कर चार इन्द्रियों के विषय (कम्म) कर्म (च) और (परमाए) परमाण (छविह भेयं) छह प्रकार के भेद (पुग्गलदब्ब) पुद्गलद्रव्य के (जिगावरेहि) जिनेन्द्र भगवान् द्वारा (भरिणयं) कहे गये हैं। सामान्यार्थ - पुद्गल के छ भेद हैं- १. बादर-बादर २. बादर ३. बादर सूक्ष्म ४. सूक्ष्म बादर ५. सूक्ष्म और ६. सूक्ष्म सूक्ष्म । इनके क्रमश: उदाहरण है- १. पृथ्वी २. जल ३. छाया ४. नेत्र को छोड़कर शेष ४ इन्द्रियों के विषय ५ कर्मवर्गणाएं और छ परामरण । ___ बादर बादरः-जिसका छेदन भेदन अन्यत्र प्राप्ति हो उस स्कन्ध को बादर बादर कहते हैं । यथा-पृथ्वी, काष्ठ, पाषाणादि । बादर—जिसका छेदन न हो सके किन्तु अन्यत्र प्राप्ति हो सके उस स्कन्ध को बादर कहते हैं जैसे जल, घी,। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रिीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद सूक्ष्म-स्थूल-नेत्र को छोड़कर शेष इन्द्रियों के विषय भृत पुद्गल स्कंध को सूक्ष्मस्थूल कहते हैं यथा-गंध रस, शब्द आदि । बादर सूक्ष्मः—जिसका छेदन-भेदन अन्यत्र प्रापण कुछ भी न हो सके उस नेत्र से देखने योग्य स्कंध को बादर सूक्ष्म कहते हैं । यथा-छाया धूप (प्रातप) चाँदनी आदि । सूक्ष्मः—जिसका किसी भी इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण न हो सके उसको सूक्ष्म कहते हैं यथा कर्म। सूक्ष्म-सुक्ष्मः-जो स्कन्ध रूप नहीं हैं ऐसे अविभागी पुद्गल परमाणों को सूक्ष्मसूक्ष्म कहते हैं । ।।१४१ १४२।। धर्मद्रव्यं तयोन नं गति कारण लक्षणम् । हठान्न प्रेरकं लोके मत्स्यानां च जलं यथा ॥१४३॥ अन्वयार्ग-(तयो:) उन जीव और पुद्गल द्रव्य के (गाति कारण लक्षणम्) गमन करने में कारणरूप लक्षण वाला है (नून) निश्चय से वह (धर्मद्रव्यं) धर्मद्रव्य है (यथा) जिस प्रकार (लोके) संसार में (मत्स्यानां) मछलियों के चलने में (जल) जल (कारणं) सहकारी कारण होता है, किन्तु (छात्) बलात्कार-जबरदस्ती से (प्रेरक) प्रेरणा देने कामा (न) नहीं होता है। सामान्यार्थ—जिस प्रकार जल मछलियों को चलने में सहायक होता है, उसी प्रकार जो जीव और पुद्गलों को गमन में निमित्त कारण होता है उसे धर्मद्रव्य कहते हैं । किन्तु यह प्रेरणा देकर उन्हें नहीं चलाता। भावार्थ --जल मछली आदि को "चलो" इस प्रकार नहीं प्रेरणा देता है परन्तु जब वे चलती हैं तो उदासीन रूप से उनकी सहायता कर देता है। इसी प्रकार धर्मद्रव्य वह द्रव्य है जो जीव पुदगलों को पकड़ कर नहीं चलाता न चलने को बाध्य करता है, परन्तु स्वभाव से जब वे चलते हैं तो उनकी गमन क्रिया में सहायता देता है। यह उदासीन रूप से सर्वव्यापी है अर्थात् लोक में सर्वत्र पाया जाता है । ।।१४३।। अधर्मस्तु स्थितेर्हेतु व पुदगलयोर्मतः । तरच्छायेव पान्थानां न तयोः स्थायिकः हात् ॥१४४।। अन्वयार्थ (जीव पुदगलयोः) जीव और पुद्गल के (स्थिते) ठहरने में (हेतुः) कारण होने वाला-सहाय देने वाला (अधर्मः) अधर्मद्रव्य (तु) निश्चय से (मतः) माना गया है (पान्थानां) पथिकों को (तरुच्छाया इव) वृक्ष की छाया के समान (तयोः) उन जीव पुद्गल को (हठात्) बलात् जबरदस्ती (म) नहीं (स्थायिका:) रोकता-ठहराता। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] सामान्यार्थ—जिस प्रकार मार्ग में जाने वाले राहगीरों को वृक्ष की छाया ठहरने में सहकारी होती है किन्तु उन्हें बुलाकर नहीं ठहराती उसी प्रकार जो जीव और पुदगलों को उदासीन भाव से ठहरने में सहायक होता है उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं ।।१४४।। भावार्थ-धर्म द्रव्य समस्त लोक में व्याप्त है यह जीव पद्गलों को ठहरने में निमित्त कारण है परन्तु उन्हें प्रेरणा देकर नहीं ठहराता वे ठहरते हैं तो सहाय कर देता है । जिस प्रकार गर्मी से पीडित पथिकों को वृक्ष की छाया बुलाती नहीं हैं पर वे आकर बैठते हैं तो उनकी मदद-सहाय कर देती है । अत: उदासीन रूप से जो जीव पुद्गल को ठहरने में सहायता करता है उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं । अधर्म और धर्म द्रव्य ये दोनों ही तिल में तेल की भांति सर्वलोक में व्यापकर रहते हैं परन्तु अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। कालाणवोमताः नित्यं नवजीर्णस्यकारकाः। रत्नराशिरिव प्रौच्चैः पृथक् भूता जगत्त्रये ॥१४॥ अन्वयार्थ---(नवजीर्गस्य) नवीन पुराने के (कारकाः) करने वाले (कालाणवः) काल द्रव्य के प्रण (मता:) माने जाते हैं (जगत्त्रये) तीनों लोकों में ये (पृथक भूताः) अलगअलग (रत्नराशिः) रत्नों की राशि के (इव) समान (शोच्चः) कहे गये हैं। अर्थ-समस्त लोक में समस्त पदार्थो में नये और पुराने का ज्ञान कराने वाले कालाणु भरे हैं । ये कालागु पृथक्-पृथक-अलग-अलग हैं । रत्न राशि समान हैं, उसी प्रकार काल एक है परन्तु कालाण असंख्यात हैं । भावार्थ- छहों द्रव्यों के परिणमन में जो सहायता देता है उसे काल द्रव्य कहते हैं। इसके अण असंख्यात हैं। जिस प्रकार कुम्हार के चाक को घुमाने में उसकी मध्य की कोली सहायक होती है, उसी प्रकार कालद्रव्य समस्त द्रव्य और पर्यायें इसी काल त्र्य के निमित्त से ही परिणमित होती हैं, निश्चय से प्रत्येक पदार्थ स्वभाव से स्वतः परिगमन करते हैं तो भी कालद्रव्य उदासीन रूप से उन्हें परिणमाने में सहायक होता है । निश्चय और व्यवहार के भेद से कालद्रव्य दो प्रकार का है। प्राकाशोप्यवकाशस्य दाता तेषां प्रकीतितः । स्व स्वभावेन पञ्चानां जीवादीनां निरन्तरम् ॥१४६॥ अन्वयार्थ (तेषां ) उन (पञ्चाना) पाँचों (जीवादीनां)जीवादि द्रव्यों को (स्व-स्वभावेन) अपने स्वभाव से (निरन्तरम् ) सतत (अवकाशस्य) स्थान का (दाता) देने वाला (प्राकामः) आकाश द्रव्य (प्रकोर्तितः) कहा गया है। अर्थ जीवादि पाँचों द्रव्यों के निवास को जो स्थान देता है, उसे आकाश द्रव्य कहते हैं ॥१४६|| . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद मूर्तिमान पुद्गलस्तेषु परेमूर्ति विजिताः । धर्माधर्म नभः कालास्सजीवा जिनभाषिताः ॥१४७।। अन्वयार्थ (तेषु) उन द्रव्यों में (पुद्गलः) पृदगल द्रव्य (मूर्तिमान) मूर्तिक-रूप रस, गन्ध, शब्द से युक्त है (परे) शेष बाकी के (धर्माधर्मनभ: काल:) धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश, काल, और (जीवाः) शुद्ध जीवद्रव्य (मूर्ति विवजिताः) मूर्तिमान से रहित अर्थात् अमूर्तिक है, ऐसा (जिनभाषिताः) जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। अर्थः–छ द्रव्यों में एक पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है और शेष पाँचों द्रव्य अमूर्तिक हैं । इस प्रकार श्री जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ॥१४७।। जीव पुद्गलको प्रोक्तौ प्रकुर्वन्तौ विपरिणतिम् । धर्माधर्म नभः कालस्तिष्ठन्त्येव स्वभावतः ॥१४॥ अन्वयार्थ - (जीव पुद्गलको) जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य (विपरिणतिम्) विपरिणमन करने वाले (प्रोक्तो) कहे गये हैं (धर्माधर्मनभः काल:) धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये (स्वभावतः) अपने निज स्वरूप में ही (तिष्ठन्त्येव) स्थिर रहते हैं । अर्थ:-जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य पर निमित्त से विभाव रूप परिणमन करते हैं, किन्तु शेष धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य अपने स्वभाव रूप में ही रहते हैं। ये विकारी नहीं होते ।।१४८।। इत्याविक जगत्स्वामी विस्तरेण तवा, जिनः । भव्यानां भाषयामास प्रोच्चष्षद्रव्य संग्रहम् ॥१४॥ अन्ययार्थ-(तदा) जब (जगत्स्वामी जिन:) जगत के स्वामी जिनेन्द्रप्रभु ने (इत्यादिक) उपर्युक्त प्रकार से (विस्तरेण) विस्तार पूर्वक (षड्व्य संग्रहम् ) षड् द्रव्यों के समुह का (भव्यानां) भव्यजीवों को (प्रोच्चः) युक्ति पूर्वक स्पष्ट रूप से (भाषयामास) निरूपण किया अर्थात् कथन किया । __ अर्थ--उपयुक्त प्रकार से विश्व पितामह भगवान् थी जिनेन्द्र प्रभु ने षड्द्रव्यों का स्वरुप विशद रूप से वर्णन किया। भव्य जीवों का हित करने वाला यह वर्णन सुस्पष्ट और विस्तार रूप से किया गया । भावार्थ---भगवान् महावीर प्रभु की देशना विपुलाचल पर्वत पर हुयी । त्रैलोक्यपति भगवान् ने जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल इन छहों द्रव्यों का स्वरूप स्पष्ट रूप से बताया आपकी दिव्यध्वनि से समस्त भव्य जीवों ने सुना और समझा एवं धारण किया ॥१४॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] [ ७३ तथा त्रैलोक्यसारञ्च षड्लेश्यास्तत्व सप्तकम् । गुणस्थानादिकं सर्व प्रस्पष्टं सजगाद सः ॥१५०।। अन्वयार्थ-(च) और (तथा) उसी प्रकार (प्रैलोक्यसारंतत्वसप्तकम् ) तीन लोक के सारभूत सात तत्वों को (पडलेश्या) छ: लेश्याओं को (गुणस्थानादिकं) गुणस्थान मार्गणा आदि (सर्व) सभी को (सः) उन जिनेन्द्र प्रभु ने (प्रस्पष्टं) पूर्ण स्पष्ट रूप से (सजगाद) निरुपण किया। अर्थ-पुनः उन वीर भगवान् ने छह लेश्या सात तत्व, गुणस्थान आदि का लक्षण विस्तार पूर्बक स्पष्ट बतलाया। भावार्थ--भगवान महावीर स्वामी ने अपनी दिव्य ध्वनि में छह लेश्याएँ १ कृष्ण, २ नील, ३ कपोत, ४ पीत, ५ पम, ६ शुक्ल, इसी प्रकार सात तत्त्व १ जीव, २ अजीव, ३ प्रास्त्रव, ४ बन्ध, ५ संवर, ६ निर्जरा और मोक्ष एवं पूर्वोक्त १४ मुणस्थान, १४ मार्गणाएं आदि का उपदेश किया । इनका स्वरूप ज्ञात कर भव्य जीव संसार सागर से पार होने में समर्थ होते हैं । क्योंकि "विन जाने ते दोष गुणन को कैसे तजिये गहिये" । १. जिसमें चेतना पायी जाय वह जीव है । २. ज्ञान दर्शन रहित जड़ पदार्थ अनीव कहलाता है । ३. आत्मा और कर्मों के संयोग से जीव के शुभा-शुभ भावों से कर्मों का आना प्रास्रव है। ४. कषायों का निमित्त पाकर आये हुय कर्मों का आत्म प्रदेशों के साथ दूध पानी के समान मिल जाना, संश्लेष होकर ठहरना बंध कहलाता है। ५. व्रत ५ समीति, ३ गुप्लि, दशधर्मादि द्वारा प्राते हुए कमों का निरोध करना रोकना संवर कहलाता है। ६. पूर्वबद्ध कर्मों का प्रात्मा से एक देश क्षय होना अलग होना निर्जरा कहलाती है। -- ७. सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से विश्लेष-पृथका हो जाना मोक्ष है। इस प्रकार से सात तत्व हैं। पहले लिखा जा चुका है कि 'कषायों से अनुरक्जित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । कषायों की तीव्रतम, तीव्रतर ओर तोत्रता एवं मन्द, मन्दतर और मन्दतम परिणमन के अनुसार लेश्याएँ छ भागों में विभक्त हो जाती हैं, इनमें प्रथम तीन कृष्ण नील और कपोत अशुभ लेश्याएं हैं तथा पौत, पद्म, और शुक्ल ये ३ शुभ लेश्याएँ हैं। अशुभ सर्वथा त्याज्य हैं शुभ भी क्रमशः परिणाम विशुद्धि के अनुसार गुणस्थान वृद्धि होते हुए निवृत्त होती जाती हैं । १३३ गुणस्थान में उपचार मात्र से रह जाती हैं, और १४वें गुणस्थान में सर्वथा लेश्या का Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ]. [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद अभाव हो जाता है। गुणस्थानातीत हो जाना ही मुक्ति है। अतः आत्मार्थी भव्य प्राणियों का कषायों का शमन, इन्द्रियों का दमन, कर परिणाम मुद्धि करना चाहिए। यमित कपायों का क्षयकार आत्म विशुद्धि करते जाने से यथार्थ आत्मानुभूति प्राप्त होती है। प्रात्मदर्शन होता आत्मानुभव का यही मार्ग है। जब तक चित्त रूपी दर्पण पर कषायों का रङ्ग कालिमा रहेगी आत्मा का प्रतिविम्ब नहीं भन्नक सकता। उस कल्मष को दूर करने पर ही आत्मा स्वयं स्फटिक रत्न सम झलकने लगेगा । इसे पाने का उपाय क्या है। आचार्य कहते हैं । अष्टाङ्ग दर्शनं पूतं ज्ञानञ्चाष्टविधं तथा । त्रयोदश प्रकारञ्च चारित्रं मुनिसेवितम् ॥१५१॥ दशलाक्षणिक धर्म सजीव हितङ्करम् । एतेषांरुचि संयुक्तं गृहीणां धर्म माजगौ ॥१५२॥ अन्वयार्य -(पून) पवित्र (अष्टाङ्गदर्शनम् ) पाठ अङ्गसहित पवित्र सम्यग्दर्शन को (अष्टविध ज्ञानं च) पाठ अङ्ग भेद सहित सम्यग्ज्ञान को (च मुनि सेवितम्) और मुनियों के द्वारा सेवित (त्रयोदशाविधं चारित्रं) तेरह प्रकार के चारित्र को (सर्वजीवहितङ्करम्) सर्व जीवों का हित करने वाले (दश लाक्षणिकीधम्म) दश लक्षण रूम धर्म को (तथा) और (एतेषांरुचि संयुक्तं गृहीणां धर्म) इन मुनि धर्मों में रुचि रखने वाले गृहस्थों के धर्म को (अजी) जिनेन्द्र प्रभु ने कहा। अर्थ-भगवान् ने बताया कि मुनिराजों को पाठ अङ्गों सहित सम्यग्दर्शन पाठ भेद वाला सम्यग्ज्ञान और तेरह प्रकार का चारित्र पालन करना चाहिए । भावार्थ -- सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग हैं। १. निःशकित अङ्ग जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कथित तत्त्वों का ज्यों का त्यों श्रद्धान करना । अर्थात् तत्त्व ऐसा ही है, इतने ही हैं, इसी प्रकार आगम में वर्णित है ऐसा अटल श्रद्धान करना निशङ्कित अङ्ग है । इसमें अञ्जन चोर प्रसिद्ध हुआ था । । २. नि:कांक्षित अङ्ग. धर्मादि पुण्यवर्द्धक कार्यो, तपादि करने पर अागामी भोगों की वाञ्छा नहीं करना । ये विषय भोग नश्वर है । अन्त में दुख देने वाले हैं. परवश हैं पाप के बीज हैं इनकी इच्छा दुख का मूल है इस प्रकार भोगों की आकांक्षा का त्याग करना नि:कांक्षित अङ्ग है। इसमें अनन्तमती प्रसिद्ध हुयो । ३. निविचिकित्सिताङ्ग-शरीर स्वभाव से अपवित्र है परन्तु रतन्त्रय धारण करने से यह पवित्र हो जाता है । इस प्रकार विचार कर साधु संतों मुनीन्द्रों के मलिन रुग्न शरीर में घणा नहीं करना निविचिकित्सा अङ्ग है । इसमें उछायन राजा प्रसिद्ध हुमा । ४. अमष्टि अङ्क--मिथ्याष्टि देवी देवताओं के चमत्कारों से प्रभावित नहीं होना । सच्चे देव शास्त्र गुरु के प्रति अकाट्य श्रद्धा रखना । खोटे--एकान्तवादी (सोनगढ़ी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] [ ४५ पन्थ) को नहीं मानना अमूत दृष्टित्व है। इस अङ्ग में रेवती रानी प्रसिद्ध हुयी। इसी प्रकार दृढ़ श्रद्धान रखना कि ६५वॉ तीर्थकार, सग्रन्थ-कपड़ा वाला सदगुरु और छद्मस्थ कांजी भाई लिखित पुस्तके कभी भी देव गुरु शास्त्र का स्थान नहीं ले सकते। इसको मानना मिथ्यात्न है । इस प्रकार निश्चय करना अमूढ़ दृष्टित्व है । ५. उपगृहनाङ्ग-धम और धर्मात्मा किली कारण व कर्मवश अपने स्वरूप से विपरीत चलें तो उसे सुधारना उनका प्रचार नहीं करना । अज्ञानी जनों द्वार! धर्म व धर्मात्माओं या स्वयं अपना अपलाप किया जाता हो तो उसका निवारण करना दोषों को प्रकट नहीं करना उपगुहन अङ्ग हैं । इसमें जिनेन्द्र भक्त श्रेष्ठो प्रसिद्ध हुआ। ६. स्थिति करण अङ्ग –सम्बग्दर्शन व चारित्र से यदि कोई विचलित होता हो या स्वयं में शैथिल्य पाया हो तो उसे धर्मावात्सल्यभाव से पुनः दर्शन व चारित्र में स्थिर करना स्थितिकरण अङ्ग कहा जाता है । यथा वारिपेण मुनि। ७. वात्सल्य अङ्ग--अपने साधर्मी जनों के प्रति निष्कपट भाव से गो-बत्सवत निस्वार्थ वात्सल्यभाव रखना प्रीति करना वात्सल्य अङ्ग है । जैसे बिष्ण कुमार मुनिराज । ८. प्रभावना अङ्ग--अज्ञान तिमिर से व्याप्तजनों का अज्ञान भाव नष्ट हो जाय इस प्रकार अपनी प्रारमा और धर्म का प्रकाशन करना प्रभावना अङ्ग है । जिनविम्ब जिनालय निर्माग करना, पञ्चकल्याणादिका प्रतिष्ठाएँ अति वैभव से करना कराना, वीतरागी, साधं-साध्वियों का उत्साह पूर्वक विशेष उत्सब से नगरादि प्रवेश कराना तीर्थयात्रा को संघ ले जाना आदि प्रभाबना अङ्ग है । इस अङ्ग में वज्र कुमार मुनि प्रसिद्ध हुए हैं । इन सभी प्रङ्गों में प्रसिद्धों की कथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार से जानना चाहिए । तथा ज्ञातकर अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शन को पुष्टि करना चाहिए । सम्यग्ज्ञान के भी मेव हैं। १. अर्थ या अर्थाचार- ज्ञात किये गये अर्थ या पदार्थ को सम्यक् प्रकार धारण करना। २. व्यञ्जनाचार---शब्दों, अक्षरों का निर्दोष शुद्ध उच्चारण करना । ३. तदुभयाचार - शब्द और अर्थ दोनों की पूर्णता का होगा । ४. कालाचार:-योग्य समय में ज्ञान का आराधन करना। प्रातः काल, मध्यान्हकाल, सायंकालं, भुकम्प, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, उल्कापात वज्रपात, आदि के समय ज्ञान का अाराधन नहीं करना चाहिए ! इन सबको छोड़कर योग्य समय में पठन पाठन मनन स्वाध्याय करना कालाचार है। ५. उपधानाचार-एकाग्रचित्त से ध्यानपूर्वक अध्ययन करना। . ६. विनयाचार-शास्त्रों का उच्चासन पर विराजमान करना, नमस्कारादि कर विनय पूर्वक पढ़ना । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] श्रीमाल पारिश रिछद ७. अनिलव---अपने गुरु प्राचार्यादि का नाम नहीं छिपाना। ८. बहुमान - आचार्य व उपाध्याय गणिनी प्रादि का विनय करते हुए अध्ययन करना । इस प्रकार ये ज्ञान के ८ भेद हैं। इसी प्रकार चारित्र के १३ भेद हैं। ५ महाव्रत ५ समीतियों और तीन गुप्तियाँ । हिंसा, असत्य भाषण, चोरी अब्रह्म और परिग्रह मुर्छा का सर्वथा नवकोटि से त्याग करना पञ्च महाव्रत हैं। पाँचों पापों का क्रमशः पूर्ण त्याग करने से पांच महाव्रत १. शाहिसा महाव्रत-त्रसस्थावर जीवों का पूर्ण रक्षण । २. सत्य महाव्रत-अठ बोलने का सर्वथा त्याग। ३. अचौर्य महाव्रत-तिल-तुष मात्र भी वस्तु विना दो हुयी नहीं लेना। ४. पूर्ण ब्रह्मचर्य महावत-स्त्री मात्र का सर्बथा पूर्ण त्याग करना । ५. अपरिग्रह-तिनका मात्र भी परिग्रह नहीं रखना। अर्थात् बाह्याभ्यन्तर दोनों ही प्रकार के परिग्रहों का सर्वथा त्याग करना। ५ समितियाँ -- १. ईर्या समिति -चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना । २. भाषा समिति-हितमित और प्रिय भाषण करना परन्तु धर्म विरुद्ध आगम विरुद्ध नहीं बोलना । ३. एषणा समिति--विधवा विवाह, विजातीय विवाह करने वालों के घरों को छोड़कर शुद्ध कुल वंश परम्परा वालों के यहाँ ४६ दोषों को टालकर शुद्ध निर्दोष आहार दिन में एक बार ग्रहण करना । ३२ अन्तराय टालकर आहार लेना। ४. प्रादान-निक्षेपण---जीव जन्तु देखकर पीछी से प्रमार्जन कर पुस्तक चौकी पाटा कमण्डलु आदि का उठाना व धरना । ५. उत्सर्ग या व्युसर्ग समिति--शरीर से ममत्व छोड़कर खड़े होकर ध्यान करना । मन वचन काय को वश में करना गुप्ति है ये तीन है :---.. १. मनोगुप्ति मन को रक्षित करना, वश में रखना । २. वचन गुप्ति -वचन को वश करना, मौन रहना । ३. काय गुप्ति शरीर को वश करना एक ही प्रासन से स्थिर हो आत्म साधना ध्यान करना आदि । इस प्रकार यह १३ प्रकार का चारित्र है। यहाँ संक्षिप्त वर्णन किया है विशेष जिज्ञासुओं को मूलाचारादि ग्रन्थ देखना चाहिए । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] [७७ दश धर्म निम्न प्रकार हैं-- (१) उत्तम क्षमा - क्रोध के कारण उपस्थित ह भी श्रोध नहीं करना उत्तमक्षमा है । अर्थात अपराधी के प्रति प्रतिशोध या वदले का भाव नहीं आना उत्तम क्षमा है। (२) उत्तम मार्दव - "मृदो वः मार्दवः" परिणामों में मान अहंकार नहीं आने देने को उत्तम मार्दव कहते हैं। ३. उत्तम प्रार्जब:-छल कपट का सर्वथा त्याग करना उत्तम प्रार्जव धर्म है। बालकवत् सरल परिणामी होना उत्तम आर्जव धर्म है। ४. उत्तम शौच:-लोभ का त्याग करना उत्तम शौन है । लोभ लालच पर वस्तु के ग्रहण का भाव आदि सब लोभ के पर्यायवाची हैं । अत: सर्वथा मुर्छा भाव का त्याग करना उत्तम शौच धर्म है। ५. उत्तम सत्यः सम्पूर्ण रूप से नवकोटि से असत्य भाषण का त्याग करना उत्तम सत्य धर्म है। ६. उत्तम संयमः-पांचों इन्द्रियों और मन का पूर्णतः दमन करना अर्थात् इनको अपने आत्मधर्म के अनुकूल प्रवर्तन करने को बाह्य करना षट्काय जीवों की विराधना का सर्वथा त्याग करना उत्तम संयम धर्म है । ७. उत्तम तप:-आभ्यन्तर और वाह्य के भेद से तप दो प्रकार का है। आभ्यन्तर तप के छ भेद हैं। "प्रायश्चित्त विनय बयावत्य स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यानान्युत्तरम्' (त० सू० अ०६) ये ६ अन्तरङ्ग तप हैं । अर्थात् लगे हुए दोषों की निवृत्ति के लिए गुरुदेव से दण्ड लेना प्रायश्चित है। २. विनयः—देव शास्त्र गुरु और रतन्त्रय में विनय करना । ३. वैयावृत्तिः-- बाल, वृद्ध, रोगी, साधुनों की बिना ग्लानि के उत्साह पूर्वक सेवा सुश्रुषा करना। ४. स्वाध्याय:- अनेकान्त सिद्धान्तानुसार प्रागमनन्थों का तत्वों का पठन-पाठन स्वाध्याय है। ५. व्युत्सर्गः - शरीर से ममता भाव त्याग करना। ६. ध्यानः- सम्पुर्ण मन और इन्द्रियों को वश में कर एकाग्र रूप से प्रात्मस्वरूप में लीन होना। "अनशनाबमौदर्य वृत्ति परि संख्यान रस परित्याग विविक्त शय्यासन कायक्लेशा याह्य तपः" ।।१६।। त० सू० अ०६। (१) उपवास करना - चारों प्रकार के अन्न जल आहार का त्याग करना भनशन है। (२) अल्प अाहार करना अवमोदर्य तप है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद (३) वृत्ति परिसंख्यान - आहार को जाते समय श्रवग्रह विशेष नियम लेकर जाना तद्नुसार विधि मिलने पर ही आहार लेना अन्यथा उपवास करना वृत्तिपरिसंस्थान तप है । ७८ (४) रस परित्यागः - छहों (दूध, दही, मीठा, घी, तेल, नमक रसों का अथवा दो चार का त्याग करना रसपरित्याग तप है । - (५) विविक्त - शैयासन: तप ध्यान, स्वाध्याय की सिद्धि वृद्धि के लिए एकान्त स्थान में सोना बैठना । (६) कायक्लेश: नाना प्रकार के आसन मुद्रा आदि का प्रयोग करना श्रात्म-शक्ति और निर्भयता को बढ़ाना कायक्लेश है । इस प्रकार ६ वाह्य तप हैं। इन दोनों प्रकार के तपों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव तथा निज शक्ति अनुसार धारण पालन और बर्द्धन करना उत्तम तप है । ( ८ ) उत्तम त्यागः - त्याग का अर्थ है दान | ज्ञानदान अभयदान, औषधि और आहार दान देना । वाञ्छा रहित प्रर्थात् फल की इच्छा न रखकर दान देना उत्तम दान धर्म है । (e) उत्तम आकिञ्चन्यः - वाह्याभ्यन्तर सकल परिग्रह के सर्वथा त्याग उत्तम आकिञ्चन्य धर्म है । (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य:- स्त्री मात्र का नवकोटि से सर्वथा त्याग करना उत्तम ब्रह्मचर्य व्रत धर्म है। इस प्रकार दश धर्मों का धारण करना यति धर्म में प्रधान है । तथा " पात्रदानं गुणाधानं पूजनं परमेष्ठिनाम् । शीलं पर्वोपवासं च परोपकृति मुत्तमाम् ।। १५३ ।। श्रन्वयार्थ - - ( पात्रदानम् ) उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों को दान देना (परमेष्ठिनाम ) पञ्चपरमेष्ठियों के ( गुणाधानं ) गुणों का विस्वन करना उनकी भक्ति करना तथा ( पूजन) पूजा करना ( शीलम् ) शोलव्रत पालन ( पर्वोपवास) प्रष्टमी, चतुर्दशी श्रादि पर्वों में उपवास करना (च) और ( उत्तमाम् ) श्रेष्ठ रूप (परोपकृतिम् ) परोपकार करना यह श्रेष्ठ श्रावक धर्म है । सरलार्थ तीन प्रकार के पात्रों को यथा समय यथा शक्ति, यथा योग्य चतुविध दान देना, अरहत, सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय और साधु दिगम्बर मुनि इन पञ्चपरमेष्ठियों में गुणानुराग, भक्ति श्रद्धा रखना, पातित्रत धर्म व एक पत्निव्रत धारण करना शीलन्नत है। पर्व के दिनों में उपवासादि करना, दयाभाव रखना, सतत परोपकार करने में प्रवृत रहना यह श्रावक धर्म है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ] [ ७६ भावार्थ - श्रावक धर्म में प्रधानतः दो बातों की मुख्यता दी है दान और पूजा । किन्तु इनका करने वाला शीलाचार, त्यागभावी, सदाचारी करुणावान ही हो सकता है । अतः आचार्य श्री ने यहाँ इसी बात का संकेत किया है साधुओं को पात्रों को दान दाता व्यभिचारी, farar विवाह या विजाति विवाह करने वाला अथवा श्रधम नीचवृत्ति कठोर निर्दयी भी नहीं होना चाहिए यह स्पष्ट ध्वनित होता है । पात्र तीन प्रकार के हैं - : ( १ ) निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिराज उत्तम पात्र हैं, श्राविका माता जी भी उपचार महाव्रती होने से उत्तम पात्र ही हैं । २. क्षुल्लक क्षुल्लिका, व्रती श्रावक श्राविका मध्यम पात्र है और ३. जघन्य पात्र व्रती श्रावक हैं । इनको यथा योग्य चारों प्रकार का दान देना श्रावक धर्म हैं । पानों परमेष्ठियों की अष्ट द्रव्य से अभिषेक पूर्वक पूजन करना श्रावक धर्म है । यथा शक्ति शौल धर्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना अर्थात् पर पुरुष और पर स्त्री का सर्वथा आजन्म त्याग करना । स्वदार-संतोष व्रत पालना । अष्टमी, चतुर्दशी, दशलक्षण-पण आन्हिकादि पर्वो में यथा शक्ति उपवासादि करना, दया भाव रखना, पर के उपकार की भावना रखना यह सब श्रावक धर्म है । इत्येवं सर्ववित्सर्वं लोकालोक स्वरूपकम् । द्योतया मास भव्यानां स्वामी सर्वहितङ्कर ।। १५४॥ श्रन्वयार्थ -- (इति) इस प्रकार ( सर्ववित्) सर्वज्ञ सर्वहितङ्करः प्राणीमात्र के हितैषी (स्वामी) महावीर भगवान् ने ( एवं ) उपर्युक्त प्रकार धर्मादि ( लोकालोकं का स्वरूप सर्वम्) सम्पुर्ण रूप से ( भव्यानाम् ) भव्य जीवों को ( द्योतयामास ) प्रकट किया - दर्शाया । सरलार्थ - संसार का हित करने वाले सर्वज्ञ भगवान् महावीर स्वामी ने उभय धर्म का स्वरूप संसार के भव्य जीवों को स्पष्ट रूप से समझाया । तथा लोकालोक स्वरूप भी निरूपित किया | श्रुत्वा वीर जिनेन्द्रस्य वन स्वर्गापवर्गदम् । द्वावृशोक सभा भव्याः विकसन्मुखपङ्कजा ।। १५५।। प्रास्ते परमानन्वं कवियाचामगोचरम् । सत्यं जिनोदितं वाक्यं कस्य सौख्यं करोति न ॥ १५६ ॥ अन्वयार्थ – (वीर जिनेन्द्रस्य) वीर प्रभु की ( स्वर्गापवर्गदम् ) स्वर्ग और मोक्ष को - देने वाली (ध्वनि श्रुत्वा ) ध्वनि को सुनकर ( विकसन्मुखपङ्कजाः) खिलते हुए मुख कमल वाले ( उरु) विशाल ( द्वादश सभाते भव्याः ) बारह सभा के भव्यजीव (कविवाचामगोचरम् परमानन्द ) कवियों के वचन के अगोचर परमानन्द को ( प्रापुः ) प्राप्त हुए ( सत्यं ) सत्य ही है कि (जिनोदितं वाक्यं ) जिनेन्द्र भगवान के वचनामृत ( कस्य ) किसके ( सौख्यं ) सुख को ( करोतिन) नहीं करते ? अर्थात् करते ही हैं । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] [ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद सरलार्थ - १२ कोठों में उपस्थित देव मनुष्य और तिर्यञ्चों को भगवान् की दिव्य ध्वनि सुनकर परमानन्द हुआ । ठीक ही है भगवान् की वचनावली किसको हर्षित नहीं करती ? सबको सुख उपजाती ही है । भावार्थ - भगवान् की दिव्य-ध्वनि निरक्षर होती है, समस्त श्रोताओं के करपुट में पहुँचकर तद्-तद् भाषा में परिणत हो जाती है । यह अतिशय विशेष है इसलिए जिनवाणी सर्वोपकारिणी कही है । वह प्राणी मात्र को सुख को कारण क्यों नहीं होगी ? होती हैं । अस्तु वर्द्धमान प्रभु की सभा में उपस्थित सर्वजीव परमानन्द प्राप्त कर अत्यन्त सुखी हुए। श्रथ श्री रणभूपः समुत्थाय कृताञ्जलिः । वर्द्धमान जिनाधीशं पपृच्छ विनयानतः ॥ १५७॥ अन्वयार्थ - ( अथ ) इसके बाद (भूपः ) राजा ( श्री श्रेणिक : ) लक्ष्मीपति श्रेणिक महाराज ( कृताञ्जलिः) हाथ जोड़कर ( समुत्थाय ) उठकर (विनयावनत) विनय से नत्रीभूत हो (जिनाधीश ) जिनेन्द्र भगवान् ( वर्द्धमान महावीर भगवान् को ( पपृच्छ ) पूछा - प्रश्न किया। सरलार्थ - श्री प्रभु के उपदेश हो जाने पर महाराज श्रेणिक ने विनय पूर्वक हाथ जोड़कर खड़े होकर, नम्रीभूत हो पूछा । क्या ? विधाय प्ररपति भक्तया सर्वभृत्य हिताय च । सिद्ध चक्र व्रतं स्वामिन् साच्चैनं भुवनच्चितम् ।। १५८।। केन वा विहितं देव कथं वा क्रियते च तत् । किं फलं तस्य तत्सर्व स्वामिस्त्वं वक्तुमर्हसि ।। १५६ ॥ अन्वयार्थ (भक्तया ) भक्ति से ( प्रणति ) नमस्कार ( विधाय ) करके पूछा (स्वामिन् ) हे स्वामी ( सर्वभृत्यहिताय च ) और समस्त भव्य जीवों के हित करने के लिए (भुवनच्चतम् ) त्रैलोक्य पूज्य ( सिद्धचक्रवतं ) सिद्ध चव्रत को ( साच्चैनम् ) और उसकी पूजा (वा) तथा ( तस्य ) उसका ( फलं ) फल ( कि ) क्या है ? (तत्) वह (सर्व) सर्व चारित्र ( त्वं ) आप ( वक्तुम् ) वर्णन करने में (अर्हसि ) समर्थ हैं सरलार्थ - श्रेणिक नृप ने बीर प्रभु से प्रश्न किया कि हे भगवान् ! सिद्ध चक्रवत को किसने किया, यह किस प्रकार किया जाता है और इसका फल क्या होता है ? कृपाकर आप सब वन करिये क्योंकि आप सर्व कथन में समर्थ हैं यह लोक पूजित व्रत महान है और महाफल देने वाला है । आप ही इसे निरुपण करने में समर्थ हैं ।। १५६ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] श्रोतुमिच्छामि भो नाथ ! श्रीमतां मुखपङ्कजात् । अमृतास्वादने देव कस्सुधीः स्यात्पराड्.मुख ॥१६०॥ अन्वयार्थ- (भो नाथ) हे नाथ (श्रीमतां) अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग लक्ष्मी सम्पन्न भगवन् (मुखपल जात्) आपके मुखारविन्द से (थोतुम्) सुनने को (इच्छामि) इच्छा करता हूँ। (देव) हे देव ! (अमृतास्वादने) अमृत रस का स्वाद लेने में (क:) कौन (सुधीः) बुद्धिमान (पराङमुख) विमुख (स्यात) होगा? सरलार्श हे नाथ आप अनन्त चतुष्टयरूप अन्तरङ्ग और समवशरणादि बाह्य लक्ष्मी के अधिपति हैं। मैं आपके मखरूपी वामल से सिद्धचक्रव्रत का विधि-विधानसूनना चाहता हूँ। हे प्रभो अमृतपान करने में कौन आलसी होगा। आपका साक्षात दर्शन मिला है अत: अमृत स्वरूप यह व्रत अवश्य ही मुझे मनना चाहिए। भावार्थ-लोकोक्ति है “शुभस्य शीघ्रम्" श्रेष्ठ कार्य को शीघ्र ही अवसर मिलते ही कर लेना चाहिए । क्योंकि गया समय पुनः हाथ में नहीं आता राजा श्रेणिक क्षायिक सम्यग्दृष्टि भला क्यों समय खोता ? महावीर प्रभु को सन्निधि मिलते ही मनम्र प्रार्थना की कि हे भगवन् मैं सिद्धच व्रत विधान सुनना चाहता हूँ। यह व्रत किसने किस प्रकार किया और उसका फन्न क्या हुआ वह सर्व वृत्तान्त आप ही निरुपण करने में समर्थ हैं। क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं । यह नत सर्वजीव हितकारी है । आप कृपाकर मुझे (धेणिकराजा को) कृतार्थ करें। इत्येवं न सुरासुरौ विलसन्मारिणक्य मौलिप्रभा । पानीय प्रविधौतपूत विकसत्पादाब्जयुग्मस्तदा । श्री मनोर, जिनेश्वरो भयहरो भव्यौनिस्तारकः । श्री मछरिणक, भूपति गुणवरं श्रीपालवृत्तं जगौ ॥१६१॥ अन्वयार्थ- (तदा) तब (इत्येवं) इस प्रकार प्रश्न करने पर (विलसन ) हपित होते हुए (सुरा सुरोध माणिक्य मौलिप्रभा) सुर असरों के मुकुटों में लगी हुई मणियों को प्रभा रूपी (पानीय प्रविधीत ) जल से प्रक्षालित (पूत । पवित्र (विकसत पादाब्जयुग्म:) खिलते हुए कमल युगल के समान है। चरण युगल जिनके ऐसे (भयहरो) भय को हरने बाले तथा (भव्यौध निस्तारक:) भव्य समूह को संसार समुद्र से पार करने वाले (श्रीमद्) अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी के धारी (बीर जिनेश्वरो) वीर प्रभु ने (श्रीमद्) लक्ष्मीबन्त (गुणवर) श्रेष्ठ गुणों के धारी (थेणिक भूपति) श्रेणिक महाराज को (श्री पालवृत) श्रीपाल चारित्र को (जगी) कहा । सरलार्थ-श्रेणिक महाराज के प्रश्न करने पर भगवान् महावीर स्वामी श्रीपाल चारित्र वर्णन करने लगे। उस समय (सुर-देव) असुर मनुष्य आदि के नृपति गण उन प्रभु के Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] [थीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद चरणों में विनयावनत नमस्कार कर रहे थे । भगवान् के दोनों चरण विकसित कमलवत दीख रहे थे आचार्य श्री कल्पना करते हैं कि मानों उन मुरासुर और नृपतियों के मुकुटों में जटित माणिक्य रत्नों की कान्ति रूपी जल से ही ये प्रक्षानित हैं। वे भगवान जगत के त्राता भय निवारक और संसार समुद्र से तारने वाले थे। इति श्री सिद्धचक्र पूजातिशय समन्वित श्रीपाल महाराज चरिते भट्टारक श्री सकल कीति विरचिते पीठिका व्यावर्णनो नाम प्रथम परिच्छेदः Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "श्री मत्परम गुरुभ्यो नमः "अथ द्वितीय परिच्छेद" अथ जम्ब्रमति द्वीपे सर्वसम्पन्मनोहरे । मेरोदक्षिण दिग्भागे क्षेत्रे भरतसंज्ञके ॥१॥ पवित्र श्री जिनाधीश ! सार जन्म महोत्सवैः । अंलोयय जगतावृन्द परमानन्द दायकः ॥२॥ तत्क्षेत्रे मध्यभागे भादवन्ति विषयो महान् । सज्जनो वा गुणैर्युक्तो मनोनयन वल्लभः ॥३॥ अन्वयार्थ-(अथ) अब कया प्रारम्भ होती है (जम्बूमति द्वीपे) जम्बू वृक्ष वाले जम्बूद्वीप में (त्रैलोक्य जनता वृन्द) तीनों लोकों के प्राणीसमुह को (परमानन्द दायकः) परमानन्द को देने बालं (श्री जिनाधीशसारजन्म महोत्सव:) श्री तीर्थकर प्रभु के सारभूत जन्म कल्याण महोत्सवों के द्वारा शोभायमान (भरत संज्ञिके पवित्र क्षेत्र) भरत नामक पवित्र क्षेत्र में (तन्मध्य भागे) उसके बीचों-बीच में {महान अवन्ति देश) महान अवल्ति नामक देश (भात्) सुशोभित था जो (गुणैः सज्जनों व) गुणों से सत्पुरुष ही हो ऐसा (मनोनयन वल्लभः) मन और नेत्रों को प्रिय था । सरलार्थ-भगवान् महावीर स्वामी कहने लगे कि जम्बू वृक्ष से शोभित जम्बूद्वीप नामक सुन्दर द्वीप है जिनके मध्य में सुमेरु पर्वत है । उस सुमेरु पर्वत के दक्षिण भाग में धन, जन, विद्या वैभव से सम्पन्न भरत क्षेत्र नाम का क्षेत्र है । उस क्षेत्र में निरन्तर तीर्थंकरों का जन्मोत्सव होता रहता है । अत: महा महोत्सवों से वह परम पावन है, ये जन्म महोत्सव तीनों लोकों के जीवों को आनन्द देने वाले होते हैं। इस अत्तम भरत क्षेत्र के ठीक मध्य में अवन्ति देश शोभायमान है। तथा जन, धन, वैभव, गुण, ज्ञान, विज्ञान की सम्पन्नता होने से यह देश सत्पुरुष के समान शोभायमान' था। भावार्थ-मध्य लोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। इनके बीचों-बीच "जम्बूद्वीप'' नाम वाला द्वीप है। इसमें 'जम्बू वृक्ष है।' यह पृथ्वीकाय है और एक लक्ष परिवार वृक्षों से वेष्टित है । इनकी पूर्व शास्ना पर 'अनावत' देव जी १० लक्ष व्यन्तरों का अधिपति है निवास करता है । इस वृक्ष के निमित्त से ही यह द्वीप जम्बुद्वीप नाम से प्रसिद्ध है। इसके बीच मध्य में सुमेरु पर्वत १ लक्ष ४० योजन उन्नत स्थित है। इस मेरु की दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद नामक क्षेत्र हैं । भरत क्षेत्र में तीर्थंकरों का जन्म होता है स्वर्ग से आकर देव देवियाँ सहित इन्द्र भगवान् का जन्मोत्सव मनाते हैं। भगवान् के जन्म समय तीनों लोकों के चारों गतियों में स्थित जीवों को नियम से एक निमिष मात्र को शान्ति प्राप्त होती है--सुख मिलता है । यहाँ की जनता धन, जन, ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्यादि से सम्पन्न हैं । अतः यह अबन्ति देश ही मानों सज्जन-सत्पुरुष हो ऐसा प्रतिभाषित होता है । वह जन-जन के मन और नयनों को महानन्द का प्रदाता था। यो देशः पतनामः पुरैः खेटैमडम्बकेः । संवाहनादिभिनित्यं वभौ चक्कीब राजभिः ॥४॥ अन्वयार्थ--(य:) जो (देशः) देश (नित्यं) सतत् (पत्तन:) रत्नदीपों (ग्रामैः) गांवों ( पुरैः) नगरों (खेटेमैडम्बक:) खेट, मटम्ब (संवाहनादिभिः) संवाहन (समुद्र तट पर वसा नगर) आदि द्वारा परिवेष्टित (राजभिः) अनेक. राजाओं से वेष्टित घिरा हुआ (ची) चक्रवर्ती राजा के (इव) समान (वभौ) सुशोभित था । सरलार्थ वह अवन्ति देश, रत्नद्वीप, गाँव, नगर, खेट, मटम्ब संवाहनादि से परिमण्डित था अतः ३२ हजार मुकुटबद्ध राजाओं से घिरे हुए चक्रवर्ती राजा के समान वह प्रतीत होता था। भावार्थ पत्तन, प्रामादि का लक्षण पहले ही लिखा जा चुका है । उस अवन्ति देश में अनेक पतन, ग्राम खेट, कडम्ब और संवाहन थे। जिस प्रकार चक्रवर्ती राजा के अधीन अनेकों छोटे-मोटे राजा रहते हैं । उसी प्रकार इस देश के प्राधय में रहने वाले अनेकों ग्रामादि थे । अत: यह चक्री-षट् खण्डाधिपति के समान प्रतिभासित होता था। वह अपने सौन्दर्य से सबका मन मोहित कर लेता था । धन-धान्य सम्पन्न था । अर्थात् इस देश में कोई दीन, दरिद्री दुग्धी, भिखारी नजर नहीं आता था। उक्तं च ग्रामो प्रकृत्या वृत्तिस्स्यान्नगर मुरु चतुर्गोपुरोद्भासि सालं खेटं नद्रि वेष्टयं परिवृत अभितः खर्वट पर्वतेन ग्रामैयुक्तं मडम्बं यलितदशशतः पत्तनं रत्न योनिद्रोणाख्यं सिन्धु बेला वलय बलयितु संवाहनं चादिरढम् ॥५।। अन्वयार्थ----(प्रकृत्यावृत्तिः) स्वभाव से जो वृक्ष कांटों आदि से घिरा हो (ग्राम:) वह नाम है । (उरु) विशाल (चतुर्गोपुरोद्भासि) चार गोपुर द्वारों से मण्डित वह (नगरम् ) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद | [ ८५ नगर (नदी) सरीता (अद्रि) पहाड (सालं) पंक्ति से (वेष्टयं) घिरा (खेटम् ) वेट (अभितः) चारों ओर (पर्वतेन) पहाड़ से (परिवत:) घिरा हो वह (खर्वटः) स्वर्वट (दशशतः) एक हजार ग्रामों से (वलित युवतं) चारों ओर सहित है । वह (मडम्ब) मडम्ब (रत्नयोनि) रत्नों की खान वाल। (पत्तनं पत्तन (सिन्धु वेला बलय-वलियितु ) सागर की लहरों को चारों ओर घेर कर रहने वाले (द्रोणः) द्रोण (च) और (आद्रिस्टम् ) पहाड़ पर बसने वाला (संवाहनं) संवाहन (आत्यम् ) कहा जाता है। सरलार्थ.- जो चारों ओर वृक्षादि की बाद्ध मे वेष्टित रहता है उसे गाँव कहते हैं। जिसकी चारों दिशाओं में एक-एक गोपुर विशाल द्वार रहता है उसे नगर कहा है जो नदी पर्वत और कोट से घिरा रहता है उसे "खेट" कहते हैं। जो चारों ओर पर्वत मालाओं से परिवृत.धिरा रहता है उसे ''खर्वट" कहा जाता है। जिसके आधीन चारों ओर एक हजार गाँव शोभित होते हैं । उसे "मडम्ब" कहा गया है। जहाँ नाना रत्नों की खाने रहती हैं उसे "पत्तन" संज्ञा दी जाती है । जो समुद्र की लहरों से शोभित हो वह "द्रोग" कहा जाता है । तथा पर्वतों पर बसे हुए प्रदेश को संवाहन कहा जाता है। इनका विशेष स्वरूप प्रथम परिच्छेद में आ चुका है ।।५।। यत्रवापीतटाकादि स्वच्छतोया जलाशयाः। रेजिरे चाति गम्भीरा मुनीनां मनसोपमाः ।।६।। अन्वयार्थ-(यत्र) उस देण में (बापी) बाबड़ी:कूप (तटाकादि) सरोवरादि (स्वच्छतोया) निर्मल जल भरे (जलाशयाः) (च) और तडागादि, नदी वगैरह (अति ) बहुत (गम्भीरा) गहरे-गहरे (मुनीनां) वीतरागी साधुओं के (मनसोपमाः) निर्दोष मन के सदृश (रेजिरे) सुशोभित थे। सरलार्थ दिगम्बर साधुओं के मन के समान उस अबन्ति देश के जलाशय-नद-नदी कूप, सरोवर, आदि निर्मल जल से मनोहर हो रहे थे। भावार्थ---मुनिराजों का पावन मन विषय-कसायों रागद्वेष की पर से रहित कैसा है, अाशा तृष्णा की शैवाल बिहीन होता है । अतः विकार रहित स्वच्छ रहता है । इसी प्रकार उस अवन्ति देण के जलाशयों नदी सरोवर आदि का जल कीचड़ शैवाल, काई आदि से रहित था, स्वच्छ पवित्र, मधुर पोर आनन्द देने वाला था। इसलिए यहां प्राचार्य श्री ने उस जल को निर्मलता की तुलना मुनिराज के पवित्र मन से की है । सद्गुरुत्रों का मन समतारस से आव्यापित जगत हित कर्ता होता है । सर्वोदय की भावना से भरा रहता है। जल तो शरीर और वस्त्रों का मल धोने में समर्थ होता है किन्तु मुनिमन आत्मा की अनादिवास नोद्भत कर्म कल्मष प्रक्षालन करने में समर्थ होता है । "साधु' का दर्शन मात्र ही पाप कालिमा को स्वच्छ कर देता है कहा भी है “साधुनां दर्शनं पुण्यं" साधुओं का दर्शन पुण्य रूपी वारनिस कर आत्मा को चमका देता है ।।६।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ [श्रीपान चरित्र द्वितीय परिच्छेद गोमहिष्यादयो यत्र भुक्त्वास्वादुरसांस्तृणान् । सुखं स्थिताः विभान्तिस्म मही नन्दनाभुवाः ।।७।। अन्वयार्थ---(यत्र) जहाँ उस देश में (गोमहिष्यादयो) गाय-भैसें (स्वादुरसांस्तुणान) स्वादिष्ट घास को (भुक्त्वा) खाकर (सुखं) सुख पूर्वक (स्थिताः) बैठी हैं (बा) ऐसा प्रतीत होता हैं, मानों (मही) पृथ्वी (प्रानन्दनाभुवाः) प्रानन्द के अङ्करों से उल्लसित रोमाचों से (विभान्तिस्म) शोभायमान हो रही थी। सरला ....उस अवन्ति देश में गाय, भैंस आदि सुस्वादिष्ट घास चरकर सुख से प्रासोन थीं । बडी थीं । चारों ओर भूमि तनांकरों से हरित हो रही थी । वह ऐसी प्रतीत हो रहीं थी मानों हर्ष के रोमाःच ही निकल रहे थे । अानन्द के अकुरों से ही भानों पुलकित शोभ रही थीं। भावार्थ-उस अवन्ति देश में निरन्तर हरा भरा वातावरण रहता था । जंगल में चारों और हरियाली लहराती थी मानों आनन्दांकुरों को हो भूमि ने धारण किया है । उस मुस्वादु घास को चर कर गाएँ-भंस आदि सुखानुभव कर रही थीं । आनन्द से खाकर सुख पूर्वक बैठी थीं । चारों ओर आनन्दाना से भूमि शोभायमान प्रतीत होतो थी। धनर्धान्यभवेन्नित्यं संभतो यो वमौ सदा । भन्यानां सर्व सौख्याना माकरो वा जगद्धितः ।।८।। अन्वयार्थ – (यो) जो अवन्ति देश (सदा) हमेणा-सदा (धनान्यः) धन-पशुओं और गेहूँ आदि धान्यों के द्वारा (नित्यं) निरन्तर (संभूतः) भरा हुआ (वभौ) शोभित था (वा) मानों (जगद्धितः) संसार का हित करने वाले (भव्यानां) भव्य जीवों का (सर्व) सर्व प्रकार (सौख्यानां) सुखों का (प्राकर बा) खजाना हो हो । सरलार्थ—उस देश में (अवन्ति में) धन चौपाये और धान्यै-नव धान्य की प्रस्त उत्पत्ति होती थी । वह निरन्तर धन-धान्य से परिपूर्ण रहता था । सतत भव्य जोब सुन्न पूर्वक निवास करते थे। उस धन धान्य सम्पदा से ऐसा प्रतीत होता था, मानों संसार का हित करने बाला सूख यहीं श्रा बसा है। अभिप्राय यह है कि वहाँ पुण्यात्मा भव्य जोव ही उत्पन्न होते थे । उन्होने अपने पुण्य से भूमि देश को भी पुण्यरूप बना दिया था। समस्त सुखी इन्द्रियों को प्रिय उत्तम भोगों को सामग्री का वह खजाना स्वरूप था। यत्र क्षेत्रेषु निष्पन्नास्सर्वधान्येषु गोपिकाः। रूपेण मोहयन्तिस्म पान्थानन्यासु का कथा ।।६।। अन्वयार्थ - (यत्र) जहाँ (निष्पन्ना) पके हुए (सर्वधान्येषु) सर्व प्रकार के धान्यों से भरे (क्षेत्रेषु। खेतों में (गोपिकाः) कार्यरत ग्वालिने-कृषक पलियां (रूपेण) सौन्दर्य प्रदर्शन Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद [ ८७ से (पान्थान्) पथिकों को (मोहयन्तिस्म) मुग्ध कर लेती थीं । (अन्यासु) वहाँ अन्य उच्च कुलीन रमणियों को (का काथा) कथा ही क्या । सरलार्भ-उस अवन्ति देश में कृषक ललनाएं भी अद्वितीय सम्पन्न थीं जिस समय वे अपने धान्य के पके हुए खेतों को रक्षा या काटने आदि कार्यों में संलग्न रहती थीं उस समय उनके रूप लावण्य से आकर्षित हो पथिक जन आश्चर्य चकित हो जाते, क्षण भर को गमन रोक उन्हे देखने लगते । जहाँ गोपिकाएँ इतने सुन्दर रूप लावण्य से मण्डित हैं तो अन्य कुलीन महिलाओं की राशि की 'मला क्या क्रया करना अभिवाय यह कि वहाँ को समस्त नारियाँ सर्वाङ्ग सुन्दरियां थीं । कोई भी भद्दी या विकलाङ्ग नहीं थीं ।।६।। यत्र पुण्य प्रसादेन संवसन्तिस्म सज्जनाः । सम्पदा सार सम्पूर्णा जिनधर्म परायणाः ॥१०॥ अन्वयार्थ—(यत्र जहाँ पर (पुण्प प्रसादेन) पुष्प के निमित्त से (सम्पदा सार सम्पूर्णा) सारभूत सम्पदा से सम्पन्न (जिनधर्म परायणः) जिनधर्म के सेवन करने वाले (सज्जनाः) सत्पुरुष संवसन्तिस्म) निवास करते थे । सरलार्थ -वह देश धर्ममान्य था । वहाँ सभी जिनधर्म पालन करने वाले थे। जिन भक्ति में लीन सम्यग्दृष्टि थे, पुण्य-योग्य सभी सम्पदाओं के भोक्ता, पुण्यानुबन्धी पुण्य सम्पादन करने वाले थे। अपने-अपने पुण्योदय से नाना प्रकार के सुखों को भोगने थे । नार्योयत्र जगत्सार रूप सौभाग्यमण्डिताः। सम्यक्त्ववत संम्पन्ना जयन्तिस्म सुराङ्गनाः ॥११॥ अन्वयार्थ—(बत्र) जिस अवन्ति देश में (नार्या:) नारियाँ (जगत्सार) विश्व के साररूप (रूप सौभाग्य मण्डिताः) सौन्दर्य मौभाग्य से विभूषिता (सम्यक्त्ववत) सम्यग्दर्शन प्रतों से (सम्पन्ना) सहिता (सुराङ्गनाः) मुराङ्गनाओं को (जयन्तिरम:) जीतली थीं। सरलार्थ-- उस धर्म स्वरूप अवन्ति देश में पूण्य की खान स्वरूप शील-माचार सम्पन्न गृहणियां थीं । वे अपने रूप सौभाग्य एवं सम्यक्त्व गुण एवं व्रतों से देवाङ्गनाओं को भी परास्त तिरस्कृत करती थीं । अर्थात् बे प्रत्यक्ष अप्सराओं से भी अधिक रूप लावण्यमयी थीं । तथा वस्त्राभरण संयुक्तास्तास्सु-पुत्र फलान्विताः । शोभन्तेस्म यथा कल्पवल्लयः सुमनोहराः ॥१२॥ अन्वयार्थ --- (ताः) वे महिलाएँ (वस्त्राभरण संयुक्ता) वस्त्र और आभूषणों से सजीधजी (सुपुत्र फलान्विता:) श्रेष्ठ पुण्यवन्त पुत्र रूपी फलों से फलित (कल्पवल्लयः) कल्पलताओं सदृश (सुमनोहरः) मन को हरण करने वाली (शोभन्तेस्म) शोभायमान होती थीं। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद भावार्थ-उस देण की नारियों साज शृगार युत नवीन रङ्ग विरङ्गं बस्त्र एवं नाना रत्नों से जटित प्राभूषण धारण किये हुए थीं। उनके सौभाग्य और पुण्य से मण्डित गुण विद्या कला सम्पन्न पुत्र थे । मानों वे पुष्प और फल ही थे । इस प्रकार वे चलती-फिरतो-पल्लवितपुष्पित कल्पलता के समान प्रतिभाषित हो रही थीं ।।१२।। मार्गेषु यत्र सर्वत्र सुपुष्पफल संयुताः । सर्व संर्पिनोरेजुः पादपास्सज्जना-यथा ॥१३॥ अन्वयार्थ --(यत्र) जहाँ (मार्गेषु) मागों में (सर्वत्र) हर एक जगह (सर्व) सबको (संताना संतुष्ट करने वाले ( ला ताः गुस्वादु पक्व फलों से भरे हुए (पादपाः) वृक्ष समूह (यथा) जिस प्रकार (सज्जनाः) सत्पुक्षर हों ऐसे (रेजुः) शोभित थे । भावार्थ-वहाँ सज्जन पुरुष यथेच्छ दान करते थे । सर्व याचकों को संतुष्ट करने बाले थे। सभी को आनन्द के कर्ता और संतोष के प्रदाता थे । इसी प्रकार प्रत्येक मार्ग-रोड पर दोनों ओर हरे-भरे फल फूलों से लदे वृक्ष समूह थे । मार्ग श्रम से श्रमित पथिकों को सुपक्व मधुर शीतल फल प्रदान कर संतुष्ट करने वाले के वृक्ष भी सजनों के समान ही उदार और निस्पृही परोपकारी थे ॥१३॥ इक्षुवाटेषु यत्रौच्चैर्वसन्तिस्म मनोहरम् । सौरस्यं सूचयन्तिस्प तद्यन्त्राणीव देशजम् ॥१४॥ अन्वयार्थ (यत्र) जहाँ (उच्चैः) बहुत से विशाल (यंत्राणि) यन्त्र इक्षुरस निकालने वाली मशीन (वमन्तिस्म) निवास करते थे अर्थात् लगे थे। (देशजम) वे उस देश में उत्पन्न (इक्षु सौरस्यं) इक्षु गन्नों के मधुर रस की सूचना (इत्र) के समान (सूचन्तिस्म) सूचना दे रहे हैं। भावार्थ - उस देश में रास्तों, गलियों, सड़कों पर सर्वत्र ईखरस के यन्त्र लगे हये थे । वे मानों मधुर रस के साथ उस देश में उत्पन्न जनों के मधुर-स्नेह भरे व्यवहार की सूचना दे वनादौ यत्र भान्तिस्म प्रोत्तमश्च नगे नगे। जिनेन्द्र प्रतिमोपेताः प्रसादा शर्म दायिनः ।।१५।। अन्वयार्थ-(यत्र) जहाँ (वनादी) वन प्रदेशों में (नगे नगे) प्रत्येक पर्वत पर (जिनेन्द्र प्रतिमो पेताः) जिनेन्द्र भगवान् को प्रतिमाओं से सहित (च) और (प्रोत्तुङ्गः) विशाल ऊँचे (शर्मदायिनः) शान्ति प्रदान करने वाले (प्रासादा:) जिनालय (भान्तिस्म) शोभायमान हो रहे थे । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद] भावार्थ-उस देश में स्थित वन प्रदेशों में यत्र तत्र रमणीक पहाडियाँ थीं। उन पर्वत श्रेणियों पर विशाल गगनचुम्बी जिनालय थे। शिखर ध्वजादि से सज्जित उन मन्दिरों में वीतराग छवियुत मनोज़ जिन बिम्ब-प्रतिमाएँ अतिशयरूप से शोभित हो रहीं थीं वे जिन भवन शान्ति के निकेतन थे । आनन्द प्रदाता और संतापहर्ता थे। उनके दर्शन मात्र से भवभव के पातक नष्ट हो जाते थे । स्वर्णकुम्भध्वजावात नावादित्र मङ्गलः । कूर्जयन्तिस्म देवास्ते जिनेन्द्र स्नपनेरताः ॥१६॥ अन्वयार्थ-उन जिन भवनों में (देवाः) देव-देवियाँ (स्वात्रुम्भध्वजात्रातः) सुवर्ण के कलशों नाना ध्वजारो के समूह (नानावादित्र मङ्गलैः) नाना प्रकार के बाजे और मंगल गानों द्वारा (जिनेन्द्रस्नपनेरताः) जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं का अभिषेक करने में तल्लीन (ते) बे देवगण (कूजयन्तिस्म) कल-कल नाद कर रहे थे - सुरोलेस्वर में कूज रहे थे । . भावार्थ-वहाँ जिनालयों में देव-देवियाँ विशाल रमणीय सुवर्ण के कुम्भ लेकर ध्वजा-पताकाएँ फहराते हुए तरह-तरह के वाजे-ताल, मृदंग वांसुरी, ढोलक, तबला, हारमोनियम आदि बजाते हुए, नत्य करते, अनेक प्रकार के मङ्गल गानों द्वारा उत्सव करते हुए श्री जिन भगवान् की प्रतिमाओं का अभिषेक करते थे । जिससे वे जिनालय क्रूज रहे थे । कोकिलानाद समान मधुर ध्वनि से वे जिन मन्दिर गुजायमान हो रहे थे । ईतयोयनपुण्येन नैवजाताः कदाचनः । सर्वेऽपि धर्मिणो यस्मात् परोपकृतिः तत्पराः ॥१७॥ अन्वयार्थ--(यत्र) जहाँ-उस देश में (सर्वे) सभी जनता (अपि) भी (मिण:) धर्मात्मा [परोपकृति पर का उपकार करने में [तत्पराः] तैयार थी [यस्मात् ] इसी कारण से [पुण्येन] उनके पुण्य से [कदाचन] कभी भी [ईतयः] सात प्रकार की ईतियाँ नंब] नहीं ही [जाता:] होती थी। भावार्थ--पुण्य, सुख सम्पदा का हेतु है । उस देश में सर्वत्र धर्म की वर्षा होती थी। नर-नारी सभी धर्मात्मा थे । दान, पूजा, और परोपकार में सदा तत्पर रहते थे । निरन्तर पुण्य सञ्चय करने वाले थे इसीलिए उनके पुण्य से उस देश में कभी भी सात प्रकार की ईतियाँ नहीं होती थी । वे ईतियाँ निम्न प्रकार है । अतिवृष्टिरनावृष्टि मूषिकाश्शलभाश्शुकाः। स्वचक्र परचक्रञ्च सप्तैनाईतयः स्मृताः ॥१८॥ अर्थ -- (१) अतिवृष्टि --अावश्यकता से अधिक वर्षा होना। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [धीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद (२) अनावृष्टि-प्रावश्यकता से कम वर्षा होना । (३) मूषिका–नहों द्वारा फसल को बरबादी होना । (४) शलभा-टिड्डी दल द्वारा खेती का नाश । (५) मुका-तोते आदि द्वारा उपद्रव होना। (६) स्वचक्र-अपने ही राजकर्मचारियों द्वारा षड्यंत्र । (७) परचक्र—अन्य राज्यों द्वारा षडयंत्र, चढ़ाई आदि इस प्रकार में सात ____ ईतियाँ (स्मृताः) मानी गई हैं । यत्र भोगोपभोगादि सम्पत्याः सज्जनास्सदा । कान्तिस्म जिनेन्द्राणां यात्रां यान्तु स्पृहांमुदा ॥१६॥ प्रन्ययार्थ--(यत्र) जहाँ जिस देश में (सदा) हमेगा (सज्जनाः) सज्जन पुरुष (भोगोपभोगादि सम्पत्या) भोग और उपभोग की सम्बदाओं के साथ (जिनेन्द्राणां) जिनेन्द्र भगवान् की (यात्रां) यात्रा करने को (यान्तु ) जाने के लिए (मुदा) हर्ष से आनन्द (स्पृहां। स्पर्धा (कुर्वान्तिमस्म) करते थे। मावार्थ---उस देण के पुण्यात्मा भव्यजन भोगोपभोग में लीन थे। उनके पास भोग और उपभोग की सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी तो भी धर्मानुराग इतना प्रगाढ़ था कि जिन यात्रा, दर्शन, जिन पूजनादि शुभ कार्यों के लिए होड प्रतिस्पर्धा करते थे। हर एक भव्य सोचता मैं पहले जाऊँ प्रथम मैं पूजा भक्ति करू आदि । यत्र श्रीमज्जिनेन्द्राणां भव्याः सम्यक्त्यपूर्वकम् । पायदानं जिनेन्द्रार्चा शीलं पयों पचासकम् ॥२०॥ धर्मकृत्वासुखंभुक्त्वा दीर्घकालं मनोहरम् । साधयन्तिस्म ते प्रान्ते नित्यस्वर्गादिकमुत्तमम् ।।२१।। अन्वयार्थ- (यत्र) जहाँ (सम्यक्रवपूर्वकम्) सम्यग्दर्शन सहित (भयाः) भव्यजीव (श्रीमज्जिनेन्द्राणां) श्रीमत् भगवान् अरहंत प्रभु की (अर्चाम् ) पूजा (पात्रदान) सत्यपात्रों को दान देना तथा (शील) भीलधर्म-ब्रह्मचर्य पर्वोपत्रासकम् ) पर्व के दिनों में उपवास आदि करना तथा उपर्युक्त प्रकार (धर्म) धर्म को (कृत्वा) करके (दीर्घकालं) बहुत काल तक (मनोहरम् ) सुन्दर रूप (सुख) सुख सम्पदा (भुक्त्वा ) भोगकर (प्रान्ते) अन्त समय में (ते) वे भव्यात्मा (उत्तमम् ) श्रेष्ठतम् (स्वर्गादिकम् ) स्वर्ग आदि के सुख को (साधयन्तिस्म) सिद्ध करते थे। भावार्थ—उस अवन्ति देश में सर्वत्र पुण्यात्मा भव्य जीव निवास करते थे। सभी सम्यक्त्व गुण से मण्डित थे । प्रतिदिन श्री जिन भगवान् की अप्टविध पूजा करते थे । सतत् Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ] [ e१ उत्तम, मध्यम, जघन्य सत्पात्रों को आहारादि चारों प्रकार के दान देते थे। नारियाँ पतिव्रतधर्म से विभूषित थीं । पुरुष भी शील मण्डित थे। सभी पर्वो के दिनों में उपवास, एकाशन, परित्यागादि नाना करते थे । दान-पूजादि से प्रभूत पुण्यार्जन करते हुए बहुत काल तक अर्थात् आयुष्यपर्यन्त नाना प्रकार पञ्चेन्द्रियों के विषय-भोगों से उत्पन्न सुखों का aar करते थे । आयु के अन्त में यथा योग्य समाधि सिद्ध कर उत्तम स्वर्गादि को प्राप्त कर पुनः मनुष्यभव प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त करते थे ॥ २१ ॥ निर्ग्रन्थ मुनयो स्वस्थचित्ता निरन्तरम् । सुद्ध रत्नत्रयेणोच्चैर्यान्ति स्वर्गापवर्गकम् ||२२|| अन्वयार्थ - ( यत्र ) उस अवन्ति देश में ( निरन्तर ) सतत हमेशा ( स्वस्थचित्ता ) एकाग्रध्यानी-वशी (शुद्ध) निर्मल २५ दोषादि रहित ( रत्नत्रयेणोच्चैः ) रत्नत्रय से उन्नत ( निन्यामुनयः ) दिगम्बर मुनि ( स्वर्गापवर्गकम् ) स्वर्ग व भोक्ष को ( यान्ति ) जाते हैं । भावार्थ- - वह अवन्ति देशधर्म का शिरोमणिस्वरूप था। वहीं सदा ही निन्य दिगम्बर साधु विहार करते थे । मन इन्द्रियों को वश करने वाले एकाग्र चित्त से ध्यान करते थे । शुद्ध निर्दोष सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले थे। सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाले २५ दोष हैं----ङ्कादि दोष, मंद, ६-- प्रनायतन और ३-- मूढ़ताएँ ये २५ दोष हैं । आट दोष- 1 १. शङ्गा तत्व के विषय में संदेह रखना । २. कांक्षा - धार्मिक क्रियाएँ करते हुए परभव सम्बन्धी भोग की वाञ्छा रखना । ३. विचिकित्सा - धर्म और धर्मात्माओं में ग्लानि करना । ४. मूड दृष्टित्व-- मिथ्या दृष्टियों की प्रशंसादि करना । ५. प्रस्थितिकरण—स्वयं अथवा अन्य के धर्मभाव से विचलित होने पर स्थिर नहीं करना । ६. वात्सल्य और धर्मात्माओं के प्रति प्रेम नहीं रखना उनसे द्वेषादि करना । ७. प्रनुपगूहन अपनी प्रशंसा और अन्य की निंदा करना अथवा धर्म और धारियों में कारणवश दोष लग जाने पर उन्हें प्रकट करना बढ़ा-चढ़ाकर कहना । धर्ममार्ग की हानि करना निन्दा करना विघ्न डालना ८ प्रभावना - धर्म और आदि । आठ मद-मद का अर्थ है हंकार-अभिमान ये निम्न हैं । १. ज्ञानमद -- ज्ञानीपने का ग्रहंकार होना । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] | श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद २. पूजा-प्रतिष्ठादि पाकर अभिमान से फूल जाना । ३. कुलमद - मैं श्रेष्ठ कुलोत्पन्न हूँ, मेरे समान अन्य नहीं है । ४. जातिभद - जाति का अहंकार करना । ५. बलमद शारीरिक बल शक्ति का घमण्ड करना ६. ऋद्धिमद -- तप के प्रभाव से ऋद्धि हो जाने पर उसका अहंकार करना । ७. तपमद - उपवासादि की शक्ति विशेष का अहंकार होना । ८. रूम (व) - रारी सौन्दर्य का अभिमान करना । इसी प्रकार अनायतन हैं । १. मिथ्यादेव २. मिथ्या देवपूजक ३. खोटा मिथ्यागुरु ४. मिथ्या गुरु सेवक ५. मिथ्या शास्त्र और ६. कुशास्त्र के अनुयायी इनको मान्यता देने से सम्यक्त्व में दोष लगता है। ये ६ अनायतन कहलाते हैं । तीन मुटता १. देव मूढ़ता २ गुरु महता और ३ समय मूढता । इस प्रकार २५ मल दोप सम्यग्दर्शन को दूषित करते हैं । संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित सम्यग्ज्ञान होता है। इसी प्रकार अतिचार रहित चारित्र पालन करते थे । वे मुनिराज शुद्ध रत्नत्रय से सम्पन्न होकर यथा योग्य स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करते थे ।। २२ ।। एवं वर्णाश्रमा यत्र स्वस्वधर्मेषुतत्पराः । तिष्ठन्ति स्मसदाप्युच्चैः परमानन्दनिर्भराः ॥२३॥ : श्रन्ययार्थ—(एवं) इस प्रकार ( यत्र ) जहाँ पर ( वर्णाश्रमा) प्रत्येक वर्णाश्रमी (सदा सर्वदा ( उच्चैः ) विशेष रूप से ( परमानन्दनिर्भराः) परम प्रानन्द से मरे ( स्वस्वधर्मेषु) अपने अपने धर्म में (तत्पराः ) लीन हुए सन्नद्ध ( तिष्ठन्तिस्म) रहते थे । भावार्थ -- वहाँ क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण एवं शुद्र चारों व अपने अपने कर्तव्य पालन । में सन्नद्ध रहते थे । अपने-अपने कर्त्तव्य में प्रसन्न और उत्साही थे सदैव धर्म नीति के. अनुसार सत्यरूप से अपने कर्तव्य का पालन करते थे । इसी प्रकार गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ श्राश्रम ब्रह्मचर्याश्रम और ऋषि श्राश्रम निवासी भी अपने अपने योग्य क्रिया काण्डों को यथोचित समयानुसार भक्ति और लगन से करते थे । तात्पर्य यह है कि वहाँ सभी ज्ञानी, जागरूक श्रीर कर्तव्य निष्ठ थे । ।। २३ ।। इत्येवं सम्पदोपेतेऽवन्तिदेशे सुखास्पदे । प्रभूदुज्जयनी नाम्ना नगरी तु गरीयसी ||२४|| प्रन्वयार्थ - (इति) इस प्रकार ( एवं ) इस प्रकार की ( सम्पदोपेतः) नाना सम्पत्तियों Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद | से भरे हुए (सुखास्पदे) विभिन्न इन्द्रिय सुखों का स्थान स्वरूप (अवन्तिदेशे तु) निश्चय से उस अवन्ति देश में (गरोयसी) महत्त्वशाली (उज्जयनी नाम्ना) उज्जयनी नाम की (नगरी) पुरी (अभूत) थी। भावार्थ--उपर्युक्त वर्णन से सुख सम्पदा ऐश्वर्यशाली उस अवन्ति देश में उज्जयनी नाम की नगरी थी। यह पुरी भी अपने कला कौशल, गुरण धर्म से महत्वपूर्ण थी । तथा सभी इन्द्रियज सुखों की खान स्वरूपा थी। या विशुद्धमहातङ्ग प्रकारेण परिष्कृता। सारेजे स्व यशोराशिरिवोचैः परिवेष्ठिता ॥२५॥ अन्वयार्थ (या) जो अर्थात उज्जयनीपुरी (विशुद्धमहातुङ्ग प्राकारेण) उत्तम और उन्नत परकोटा द्वारा (परिवेष्ठितो) घिरी हुयी थी (स्व) अपनी (यशोराशिखि) यशकीति की राशि के समान (उच्चैः) विशेषरूप से (परिष्कृता) उज्वल (सा) बह पुरी (रेजे) शोभित थी। ॥२५॥ महाद्वाराणि चत्वारि रेजिरेरत्न तोरणः । सत्पुरी वनितायाश्च वदनानीवदिक्षुवै ॥२६॥ अन्वयार्य--(वनिताया: वदनानि इब) सुन्दर स्त्रियों के मुख के समान (रत्नतोरणोः) रत्नमय तोरण द्वारों से युक्त (महाद्वाराणि चत्वारि) चार महा द्वारों से (तत्पुरी) वह उज्जयनी नगरी (2) निश्चय से (दिक्षु) सभी दिशाओं में (रेजिरे) सुशोभित थी। भावार्थ-उस उज्जयनी के चतुदिक्षु चारों दिशाओं में चार गोपुर द्वार थे, इनमें रत्नों के तोरण लटक रहे थे। ये गोपर द्वार ऐसे प्रतीत होते थे मानों इस उज्जयनी रूपी मारी के मुख पङ्कज ही हैं । इन द्वारों से युक्त यह नगरी महाशोभा को धारण करने वाली थी । स्वच्छतोयभूताखाता विकसत्पद्मराजिता । सा विशाला विशालायास्ततस्यास्सा इव संवभौ ॥२७॥ अन्वयार्थ--(तस्या) उस (विशालायाः) विशाल उज्जयनी पुरी की (विशाला) विस्तृत (स्वच्छतोयभता) निर्मल जल से भरी (विकसत् पराजिता) खिले हुए कमलों से सुसज्जित (सा) वह (खाता) खाई (दिवि) दिन में प्रति शोभायमान थी। भावार्थ—स्वयं उज्जयनी विशाल नगरी थी उसके चारों ओर विस्तृत खाई थी। वह खातिका स्वच्छ निर्मल जल से परिपूरित थी। उसमें सुन्दर राजीव (कमल) खिले हुए थे। दिन में उस खाई को प्रोभा अद्वितीय हो जाती थी। क्योंकि सरोरुह स्वभाव से सूर्योदय Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] [ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद होने पर ही खिलते हैं। संध्याकाल सूर्यास्त के साथ जलज ( कमल) भी कुन्द हो जाते हैं । श्रतः पद्मों के विकसित होने से दिन में वह खातिका अद्वितीय रूपराशी दृष्टिगत होती थी । यहाँ "दिवस" द्वितीयान्त शब्द है । किन्तु निरन्तर के अर्थ में यह प्रयोग 'सप्तमी' के अर्थ में हुआ है यथा-मासे मत्रीते" महिने भर पढ़ा, परन्तु लगातार नहीं पढ़ा "मास मघोते" एक महा पढ़ा अर्थात् बिना रुके लगातार महोने भर पढ़ा इसी प्रकार यहाँ भी वह खातिका सतत् रोज हो दिन में शोभित रहती थो । पञ्चसप्ततलास्तुङ्गा रत्नस्वर्णादि निर्मिताः । सद्गुहा या हसन्तिस्म ध्वजाद्यैः स्वर्गाजांश्रियम् ||२६|| satta- - इस नगरी के ( रत्नस्वर्णादि निर्मिला : ) स्वर्ण से बने रत्नों से खचित ( पञ्चसप्ततलाः ) पाँच तल्ले, सात खने (तुङ्गा) ऊँ (सद्गृहाः) श्रेष्ठ घर-मकान (वा) मानों (ध्वजाद्य : ) ध्वजापताकादि द्वारा (स्वर्गजां श्रियम् ) स्वर्ग से उत्पन्न लक्ष्मी वैभव को ( हसन्तिम ] ही हंस रहे थे । अर्थात् उपहास कर रहे थे । भावार्थ -उस उज्जयनी परी में पाँच-पाँच सात-सात खन मंजिल के विशाल घरमकान थे । उन प्रासादों पर ध्वजाऐं फहराती थी। घंटियाँ बंधी थी तोरण द्वार लटकते थे जिससे ऐसा प्रतीत होता था मानों स्वर्ग में उत्पन्न लक्ष्मी का ये उपहास हो कर रहे हैं । क्योंकि ये महल सुवनिर्मित थे। रंग-विरत नाना रत्नों से खचित थे ज्योतिर्मय थे | जगमगाते ये प्रासाद अपनी कान्ति से स्वर्ग विभूति को मानों हंस रहे थे ||२८|| या पुरीसर्वदा सर्वसाखस्तु समुच्चयः । संभूता सजनारेजे श्री र्वा तद्रूपशालिनी ॥२६॥ अन्वयार्थ (सारवस्तु समुच्चयैः ) सारभूत उत्तम वस्तुओं के मुंह से (संभूता ) गरी हुई ( सजना) श्रेष्ठ जनों से सहित (तद्रूपशालिनी) श्रेष्ठ रूप को धारण करने वाली (वापुरी) जो नगरी अर्थात् वह उज्जयनी नगरी (श्री व ) मानों साक्षात् लक्ष्मी ही है । इस प्रकार ( रेजे) सुशोभित थी । भावार्थ - वह उज्जयनी नगरी अनेक प्रकार की उत्तमोत्तम वस्तुओं से भरी थी । अनेक सारभूत वस्तुओं से भरी हुई तथा वैभवशाली सम्पन्न सुन्दर श्रेष्ठ पुरुषों से सहित वह नगरी ऐसी भालुम होती थी मानों साक्षात् लक्ष्मी ही हो । यत्र भव्यजना सौख्यं संवसन्तिस्म पुण्यतः । धनधन्यैर्मनो रम्यैस्साज्जनः परिवारिताः ॥ ३० ॥ अन्वयार्थ - ( यत्र ) जहाँ उस नगर में ( भव्यजनाः ) भव्यजीव ( पुण्यतः ) अपने पुण्योदय से ( मनोरम्यैः) मन को प्रियकारी (घनैः धान्यै) धन धान्य ( सज्जनैः ) सत्पुरुष, Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ] (परिवारताः। कुटुम्ब सहित (सौख्यम! सूख पूर्वक (संवसन्तिस्म) निवास करते हैं । भावार्थ--उस उज्जयनी के भव्यजन श्रावक श्राविकाएँ पुण्योदय से प्राप्त धन धान्य, मनमोहक प्राज्ञाकारी कुटुम्ब सहित सुखपूर्वक जीवन यापन करते थे । सर्व प्रकार पारिवारिक सुख उन्हें प्राप्त था । अर्थात् प्राज्ञाकारी पुन पातिव्रत' धर्मशील सम्पन्न पत्नी, वासल्यमयी जननी विश्वस्त मित्र श्रादि अनुकूल होने से सभी सुख शान्ति से निवास करते थे ॥३०।। यदा पणेष्षु सर्वत्र मरिग मुक्ता फलादयः । नाना सुवर्ण वस्त्रोरुपट्ट कूलादि सम्पदा ॥२६॥ चन्दनागुरुकर्पूर काश्मीरला लवणकः । अन्यरष्टा दशप्रायर्धान्यः स्नेहादिभिस्सनम् ॥३२॥ सदैव सज्जनभुक्त्वादत्वा नीताश्च वारिगजः । तथापि वृद्धितां प्रापुमुनीनामृद्धयो यथा ।।३३।। त्रिमि कुलिकम् ' अन्वयार्थ-(पापणेषु) दूकानों में (सर्वत्र) प्रत्येक जगह (मणिमुक्ताफलादय) मरिंग मोती, मरिशक्य नीलम, बैडूर्य प्रादि रत्न (यथा) जिस प्रकार थे उसी प्रकार (नाना) अनेक प्रकार के (सुवर्णवस्त्र) सोने की जरी प्रादि के वस्त्र (उरु) विशाल (पट्टकूल) रेशमी वस्त्र (पादि) इत्यादि (सम्पदाः) सम्पत्तियाँ (चन्दनागुरुकप्पुर काश्मीर) चन्दन अगर-तगर कपूर मलयागिर चन्दन (ऐला) इलायची (लवङ्गकै) लोग आदि द्रव्य भी थे। तथा (स्नेहादिसम तलादि के साथ (अन्यरष्टादशप्रायः अठारह प्रकार के (धान्यः धान्यों से (भता भी बाजार भरा हुआ था। (सज्जनैः) वहाँ के निवासी सत्पुरुषों द्वारा (सदैव) सतत (भुक्त्वादत्या) भोगकर, दान देकर (वाणिजै:) वरिणकों से (नीताः) खरीद कर ले जाये गये (तथापि) तो भी (यथा) जिस प्रकार (मुनीनां) मुनियों को (ऋद्धयः) ऋद्धियाँ वृद्धिंगत होती हैं (तथा) उसी प्रकार (वद्धिता) वे वृद्धि को [प्रापुः] प्राप्त हुयीं। भावार्थ-उम उज्जयनी का बाजार हीरा मोती मारिशक, पन्ना, नीलम, पुखराज बज्रहीरा, स्फटिक मरिण रस्न आदि से भरा था। प्रत्येक दुकान पर नवरत्नों के दर पाये जाते थे । जौहरी बाजार जिस प्रकार वैडूर्यादि मरिणयों की खान जैसा प्रतीत होता था उसी प्रकार बजाजा अनेक प्रकार के जरी गोटा, किनारी, सुनहले रूपहले वस्त्रों का भण्डार था । सवर्ण के वस्त्र रेशमी वस्त्र रंग विरङ्ग भरे पड़े थे। दुसरी मोर रक्ताजन, अगूरू, तगर, कपर केशर, काश्मीर इलायची लवङ्ग प्रादि सुगन्धित द्रव्यों से भरी दुकानें थीं । अठारह प्रकार के धान्य - गेहूँ, जौ, चना, मटर, ज्वार, बाजरा, अरहर, मूग मोठ, उडद, ग्वार, तिल, मसूर, आदि धान्य भरे पड़े थे । तथा साथ ही घी, तल, हींग आदि भी प्रभूत थे। वारिणकजननिरन्तर विक्री करते उपभोक्ता सदा खरीदते, बान करते, परन्तु ये समस्त सामग्री उत्तरोतर वृद्धि को प्राप्त होती रहती थीं । प्राचार्य काहते हैं कि जिस प्रकार तपस्वी ऋषिजनों की Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ऋद्धियाँ उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं उसी प्रकार यहाँ को जनता के त्याग-संतोषमय जीवन के प्रभाव से पुण्यवृद्धि के साथ ये सभी सम्पत्तियाँ ब तो जातो थों |३१ ३२३३] रूपादिसार सम्पत्यानरा व सुरसत्तमाः। नार्यों निरन्तर भौगैः जयन्तिस्म सुराङ्गनाः ॥३४॥ अन्वयार्थ-उस नगरी में (नरा) भव्य पुण्डरीक पुरुष (रूपादिसार सम्पत्या) रूप लावण्य, विद्या, गुण कलादि द्वारा (ब) तथा (नार्यो) नारिया (निरन्तरं) सतत (भौगैः) उत्तमोत्तम भोगों द्वारा (सुरसत्तमाः) श्रेष्ठ देवा को तथा (सुराङ्गनाः) देवाङ्गनाओं को (जयन्तिस्म) जीतती थीं। ___ भावार्थ---उस उज्जयिनी पुरी में प्रस्ष क्या और शीलबन्ती नारियाँ क्या सभी रूप लावण्य से मण्डित थे। और उसी प्रकार शीलादि गुणों से भी विभूषित थे । पुरुषजन अपने सौन्दर्यादि से उत्तम देवों को भी तिरस्कृत करते थे यार नारिंगों का तो ना ही क्या वे अपने मनोरम स्वाभाविक तुषमा से मुराङ्गनाओं एवं अप्सराओं को भी पराजित करने वाली थों ।।३४|| यत्र श्रीमज्जिनेद्राणां सुप्रासादाबनादिषु । लसत्काञ्चन सद्रत्न निर्मिताः प्रतिमान्विताः ।।३५॥ अन्वयार्थ-[यत्र] जहाँ पर कि विनादिषु ] वन उपवनों में सर्वत्र लमत्काञ्चन | तपाये हुए सुवर्ण का कान्निवाले (सद्रननिर्मिता:) श्रेष्ठ उत्तम रत्नों से निमित (प्रतिमान्विताः) उत्तमोत्तम प्रतिमाओं से युक्त (श्रो मज्जिनेन्द्राणां) थी जिनेन्द्र भगवान के (सुप्रासादाः) श्रेष्ठ मन्दिर थे तथा--- कनक काञ्चन कुम्भश्च ध्वजाद्यैः परिशोभिताः । नित्यं वादिननादौद्य घण्टावृन्दरलंकृताः ॥३६॥ येषां दर्शनमात्रेण पापं यान्तीति तत्क्षणात् । भास्करेणेवभव्यानां तत्कालं सन्निजंतमः ॥३७॥ अन्वयार्थ ये जिनेन्द्र मन्दिर (कानककाञ्चन कुम्भः) सुवर्ग के चमवते हए कलशों से (च) और (ध्वजावैः) नाना प्रकार ताकापों से (नित्यं) निरन्तर (परिशोभिताः) सुशोभित तथा (घन्टावृन्दैः) घन्टा नादों एवं (वादिननादोघः) नाना प्रकार के याजों की सुमधुर, ललित ध्वनियों से (अलंकृता:) शोभायमान थे। (येषाम् ) जिनके (दर्शन मात्रण) दर्शन मात्र से (इव) जिस प्रकार (भास्करेगा) सूर्य के (सन्निजम्) सानिध्य से उत्पन्न प्रकाश से (तमः) अन्धकार (तत्कालं) शीघ्र ही (यान्ति) नष्ट हो जाते हैं (तथा) उसी प्रकार Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद | [ १७ (भव्यानाम) भव्य जीवा का (पापम् ) पाप समूह (तत्क्षरणात् ) उसी समय (यान्ति) नष्ट हो जाते हैं। (इति) यह माहात्म्य है उन बिम्बों और मन्दिरों के दर्शन का। मावार्थ-वह नगरी भव्य पुण्यात्मानों से भरी थी। साथ ही वहां के वन-उपवनों में न केवल श्रीडा निवारा थे अपितु विशाल सुवर्णमय जिनालय थे। उनमें रत्न निमित जिन विम्ब शोभायमान थे। गगनच म्बी शिखर स्वर्ण निमित रत्न जटित कलशों से मण्डित थे चारों ओर नानारङ्गों से रत्रित सैकड़ों ध्वजाएँ सुशोभित हो रही थीं। उत्तम घण्टानाद से झन्कृत थे । अनेकों प्रकार के बाजों की ध्वनि गूजती थी। जिनका दर्शनमात्र सुख कारक था। भव्य मनोज्ञ बिम्बों का दर्शन मात्र करने से भव्य जीवों का पाप कल्मष उसी समय नष्ट हो जाता था जिस प्रकार सूर्योदय होते ही रात्रि जन्य तिमिर विलीन हो जाता है । यहाँ विचारणीय है कि निमित्त कितना प्रबल कार्य करता है। जिनका अभिप्राय है कि निमित्त सर्वथा हेय है कुछ भी कार्यकारी नहीं हो सकता मात्र उपादान ही ग्राह्य है, उन्हें यह सम्यक प्रकार अध्ययन करने योग्य है कि जिन भगवान् का सान्निध्यमात्र हेतु मिथ्यात्व तिमिर का प्रणाशक है, स्वानुभूतिका उकार पायात कराने में समाई निमित्त कारण है। साक्षात् जिनेन्द्र भगवान् ही नहीं अपितु उनके प्रतिबिम्ब-प्रतिमाएँ भी उसी कार्य की साधक हैं। अतः निमित्त अत्यन्त आवश्यक है । मुनयोयेषुकुर्वन्ति जनानां श्रुतिसंकयाम् । अनेकैर्भव्यसंदोहैस्साधं शर्मशतप्रदाम् ॥३॥ अन्वयार्थ-- (येषु) उन जिनालयों में (जनानां) जनता के (श्रुति) सुनने योग्य (शर्मशतप्रदाम् ) सैकड़ों प्रकार से शान्ति प्रदान करने वाली (संक्रयाम् ) श्रेष्ठ कथा को (अनेकभव्यसंदोहैस्सार्धम् ) अनेकों भव्यजनों के साथ (मुनयः) मुनिजन (कुर्वन्ति) करते हैं । भावार्थ-उन जिनालयों में मुनिराज निवास करते थे। वे सतत भव्यजनों के योग्य कथाएँ करते थे । अनेकों भव्यजनों के योग्य कथाएँ करते थे 1 अनेकों भव्यजनों के साथ नाना प्रकार तत्व चर्चाएं करते थे। उनके योग्य उपदेश देते थे। धर्म कथाएँ सुनाते थे । सदुपदेश से भव्यरूपी कमलों को प्रसन्न करते थे॥३८।। श्रावकाः श्राविकायत्र नित्यंस्नपन पूर्विकाम् । जिनार्चा रचयन्तिस्म लोकद्वय शुभाबहाम् ।।३।। अन्वयार्थ--(पत्र) जहाँ पर उस उज्जयनीपुरो में (श्रावकाः) श्रावक (श्राविका:) श्राविकाएँ (नित्यम्) प्रतिदिन (लोत्राद्वय शुभावहाम्) उभय लोक में कल्याण करने वाली (स्नपनपूबिकाम्) अभिषेक पूर्वक (जिनार्चा) जिनेन्द्र भगवान की पूजा को (रचयन्तिस्म) करते थे। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] [ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिचरछेद भावार्थ—उस उज्जयनी नगरी में धावक और श्राविकाएं सभी पञ्चामतादि अभिषेक करते थे अष्ट द्रव्यों से पूजा करते थे । यह जिनपूजा दोनों लोकों में कल्याण करने वाली है । इस भव में सुख शान्ति और परभव में भी हर प्रकार की सुख सुविधा की सामग्री प्राप्त होती है । तथा परम्परा से स्वर्ग और मुक्ति देने वाली है। अत: वे भव्यात्मा प्रतिदिन शर्मदायिनी पूजा करते थे। इससे स्पष्ट है कि श्रावक और श्राविकानों को समान रूप से अभिषेक पूर्वक पूजा करने का अधिकार है। इससे पूर्व श्लोक में मुनि जन जिनालयों में निवास करते थे यह स्पष्ट होता है। जो लोग कहते हैं कि साधुओं को जङ्गल में ही रहना चाहिए या चतर्थ काल में सभी साध वनों में ही रहते थे यह निर्मल हो जाता है। उस समय भी अपनेअपने संहनन के अनुसार वनों और मन्दिरों, पर्वतों, गुफापों आदि स्थानों में निवास व चातुमासादि करतेथे ।।३।। सदा जैनेश्वरीबाणों सर्वसन्देह हारिणीम् । श्रृण्वन्तिस्म सुखं भव्या मुनीनांमुखपङ्कजात् ॥४०॥ जनामा--(भामुमुक्षरता ) सतत (मुनीनांमुखपङ्कजात ) मुनि पुङ्गवों के मुखरूपी कमलों से (सर्वसंदेह) सम्पूर्ण संदेहों को (हारिणीम्) नाश करने वाली (जनेश्वरी वाणीम्) जिनवाली को (सुखं) सुख से (शृण्वन्तिस्म) सुनते थे । भावार्थ—उस नगरी के भव्य जीव प्रतिदिन श्रेष्ठ मुनिजनों के मुख पङ्कज से जिनेन्द्र भगवान की वाणी का श्रवण करते थे । वह जिनवाणी सर्व प्रकार के संदेहों को नाश करने वाली थी सुख देने वाली थी। अर्थात् तत्त्वों के विषयों में उत्पन्न शंका का समाधान करने वाली भगवान् सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्र भागमानुसार वे ऋषिवर उपदेश करते थे । जिसका श्रवण कर भव्यजन तत्वज्ञ और ज्ञानी बन जाते थे ।।४।। नित्यं सुपात्रदानेन भूरिमानेन सज्जनाः। कुर्वन्तिस्मवतः शोलैः सफलं जन्मपावनम् ॥४१॥ अन्वयार्य--(नित्यं) प्रतिदिन (भूरिमानेन) अत्यन्त सम्मान से (सुपात्रदानेन । सत्पात्र दान देकर (व्रतैः शीलः) व्रत और शीलपालन कर (सज्जनाः) सत्पुरुष (जन्म) अपने जन्म को (पावन सफल) पवित्र और सफल (कुर्वन्तिस्म) कारते थे। भावार्थ-श्रावक श्राविका सत्पुरुष सज्जन थे । वे प्रतिदिन शील, व्रत आदि से युक्त रहते थे । नित्यप्रति, अत्यन्त विनय एवं भक्ति से सत्पात्र दान करते थे । सदाचारी श्रेष्ठ एवं शुद्ध कुल वंश वाले श्रावक श्राविकाएँ ही जिनपूजा और सत्पात्र दान देने के योग्य हैं, उन्हें ही आचार्यों ने अधिकार दिया है । यहाँ शील और व्रत दोनों विशेषग इसी बात के द्योतक है। यत्र नार्यों जिनेन्द्राणां धर्मकर्मणितत्पराः । सार शृगार संदेहास्सुपुत्राः कुलदीपिकाः ॥४२॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद] एवं धर्मार्थ कामोरूमोक्षार्थाश्चतुरस्सदा । साधयन्तिस्म भव्योधाः पदार्थान जिनर्मिणाः ॥४३॥ अन्वयाथ-(यत्र) जहाँ (नार्यो) स्त्रियाँ (जिनेन्द्राणाम् ) जिनेन्द्र भगवान् के (धर्मकर्मणि) धर्मकार्यों में (तत्परा:) संलग्न सावधान थी (सारशृगार संदोहा) उत्तम वस्त्रालकारों के समूहों से सुसज्जित (कुलदीपिकाः) कुल को समुज्ज्वल-प्रकाशित करने वाले (सुपुत्राः) श्रेष्ठ पुत्रों से सहित थो (एबं) इस प्रकार धर्म कर्मरत (भन्योषा:) भव्य जन समुदाय (उम्) विशाल (धर्मार्थ काम) धर्म, अर्थ, काम (च) और (मोक्ष) मुक्ति (चतुर:) चारों (पदार्थान्) पुरुषार्थों को (सदा) हमेशा (साधयन्तिस्म) सिद्ध करते थे । भावार्थ-उस नगरी में नारियाँ सदैव धर्मकार्यों में लगी रहती थी। अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् की पूजा सामग्री प्रादि तैयार करने में ही उनका समय व्यतीत होता था । यही नहीं उनके पुत्र भी धर्मार्थ कार्यों से सम्पादन योग साज सज्जा से अपने को सजाते थे। भोग विलास के नहीं । अर्थात् मुख्य उद्देश्य जिनपूजन का रहता था। प्रथम धर्म पुरुपार्थ की सिद्धि का प्रयत्न करते थे । इस प्रकार चारों पुरुषार्थों को वे भव्यात्मा समान रूप से सिद्ध करते थे। ।।४२-४३।। awat तत्रपूर्या प्रजापालो राजा सप्ताङ्ग राज्यभाक् । चतुरङ्ग बलोपेतः प्रजापालन तत्परः ॥४४॥ अन्वयार्थ (तत्र) वहां (पूर्याम् ) उज्जयनी नगरी में (सप्ताङ्ग) सात अङ्गयुत (राज्यभा) राज्य का भोक्ता (चतुरङ्ग बलोपेतः) चार प्रकार बलों से सहित (प्रजापालन तत्परः) प्रजा का उचित पालन करने में तत्परः (प्रजापाल:) प्रजापाल नाम बाला (राजा) नृपति था । भावार्थ—उस उज्जयनी नगरी का राजा प्रजापाल हुआ। उसके राज्य के सप्त अङ्ग ये (इनका वर्णन प्रथम परिच्छेद में पा चुका है।) चतुरन चार प्रकार का बल हाथी धोड़े रथ और पयादे इनसे सम्पन्न था तथा प्रजा का पालन करने में निरन्तर तत्पर रहता था। वस्तुतः बह यथा नाम तथा गुण था ।।४४।। -- L ....-- सौभाग्य सुन्दरी नामराज्ञी तस्यमनः प्रिया। रूप सौभाग्य सम्पन्ना सा सतीय सतां किया ॥४५॥ अन्वयार्थ- (तस्य) उस प्रजापाल राजा की (मन:प्रिया) मन को प्रिय लगने वाली (रूपसौभाग्यसम्पन्ना) रूप और सौभाग्य से सम्पन्न (सौभाग्य सुन्दरी) सौभाग्य सुन्दरी (नाम) नामबाली (राजी) रानी (सतांक्रियाइव) सज्जनों की क्रिया समान (सा) वह (सती) हुयी। . - - . - . . . . - - . Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद भावार्थ--उस प्रजापाल राजा की सौभाग्य मुन्दरी नाम की रानी थी। यह अत्यन्त मनोहर रूप सौभाग्य से मण्डित राजा को अतोव प्रिय थो। वस्तुत: अपने गुणों स सज्जनों की क्रियारूप ही थी। तयोः प्राक्समभूतपुत्री सुरुषासुरसुन्दरी । जाता द्वितीया सत्पुत्री नाम्नां मदन सुन्दरी ॥४६।। अन्वयार्थ-(तयोः) उस दम्पत्ति के (प्राक्) पहले (सुरूपा सुरसुन्दरी) उत्तम रूप बाली सुर सुन्दरी नाम की (पुत्री) कन्या (समभूत) उत्पन्न हुयी (द्वितीया) दूसरी (सत्पुत्री) श्रेष्ठ पुत्री (मदन सुन्दरी) मदन मुन्दरी (नाम्ना) नाम बाली (जाता) जन्मी हुयी। भावार्थ-उन्न राजा रानी के प्रथम सुरसुन्दरी नाम की कन्या ने जन्म लिया। यह अतीव सुन्दर थी । रूपलावण्य से देवाङ्गना समान थी। दूसरो कन्या मदन सुन्दरी नाम की हुयी । यह सद्गुणों की आकर थी। सुरादि सुन्दरीपुत्री पित्रा पाठयितु ददौ । शिवशाभि धानस्य द्विजस्य ज्ञान वृद्धये ॥४७॥ अन्वयार्थ-(पित्रा) पिता प्रजापाल द्वारा (मुरादि सुन्दरीपुत्री) सुर सुन्दरी नाम की पुत्री को (ज्ञानवृद्धये) ज्ञान वृद्धि के लिए शिवशर्मा नाम के (द्विजस्य) ब्राह्मण के पास (पायितुम् ) पढ़ाने के लिए (ददी) दे दिया । भावार्थ -महाराजा प्रजापाल ने अपनी बड़ी पुत्री को पढ़ने योग्य देखकर शिव शर्मा ब्राह्मण को बुलाया । सुर सुन्दरी को उस ब्राह्मण के पास पढ़ाने को रख दिया । अर्थात् सौंप दिया ।।४७॥ वेदस्मृतिपुराणानि नाटकानि विशेषतः। तथाधीतानि गोतानि सन्नृत्यानि पराग्यपि ॥४८॥ अन्वयार्थ- उस सुन्दरी कन्या ने (विशेषतः) विशेष रूप से (वेद) चारों वेद (स्मृति) ऋचाएँ (पुराणानि) १८ पुराण (नाटकानि) नाटक काव्यादि (गीतानि) गायण कला (सन्नृत्यानि) सुन्दर श्रेष्ठ मर्यादित नृत्यकला (तथा) और (पराण्यपि) अन्य-अन्य भी विद्याएँ (अधीतानि) पढ़ीं सीखीं । भावार्थ -ब्राह्मण गुरु होने के कारण उस सुर सुन्दरी कन्या ने वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन किया । ऋग्वेद, यजुर्ववेद, अथर्ववेद और सामवेद ये चारों वेद पढे । माद्यपुराण, मार्कण्डेय पुराण, आदि १८ पुराणों को पढ़ा । उसी प्रकार स्मृति, नाटक, नृत्य संगीत, कला के शास्त्रों का सम्यक् प्रकार पठन किया ।।४८।। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद] [१०१ कोकशास्त्राणि चित्रारिग काम-कारिणि कामिनी । प्राणीनां प्राण हारीणि नरमेधादिकानि च ॥४६॥ ___ अन्वयार्थ- (कोक शास्त्रारिंग) कोक शास्त्र (चित्राणि) चित्रकला (काम कारिणि कामनी) काम कथाओं को पुस्तके (त्र) ओरः प्राणिहारी ) जीयों के प्रारण नाश करने वाले (नरमेधादिकानि) नर मेध यज्ञ आदि तथा अश्वमेधममेध्यं वा गजमेघमयोगतेः। कारणं पाप-शास्त्राणि पठितानि तया तथा ॥५०॥ गोयोनि-स्पर्शनं पुण्यं यज्ञगो छागहिसनम् । तच्छेष भक्षरणं यज्ञे मद्यपानं च पापकृत् ।।५१॥ राजसूयाविक कर्म घृतयोन्यादिकं तथा । सोमपानं. जल स्नानं केवलं धर्म हेतवे ॥५२॥ एणखङ्गिमहिष्याणां मांसनव विशेषतः । श्राद्धे च पितृवर्गस्य तर्पगं प्राणिमारणम् ।।५३॥ मन्त्र तन्त्रादिकं कर्म सर्व कर्मनिबन्धनम् । मिथ्यादृष्टि कुविण पाठिता सा मदोद्धता ॥५४॥ अन्वयार्थ--(सा) वह सुर सुन्दरी (मदोद्धता) मद ज्ञानमद से उद्धत थी (मिथ्या दृष्टि कुवित्रंण) उस मिथ्या दृष्टि खोटे ब्राह्मग (अश्वमेधममेध्यं वा गज मेधमयोगतेः कारणं पाप शास्त्रारिंग) अश्वमेध यज्ञ, अमेध्ययज, गजयज्ञ, बकरादि यज्ञ, पाप के कारण भूत शास्त्र, (तया) उस कन्या के द्वारा (पठितानि) पढ़े गये। (तथा) और भी (गौयोनि स्पशर्म पुण्यं) गाय की योनि का स्पर्श करना पुण्य है (गो छागहिंसनम्) गाय बकरा की हिंसा कर यज्ञ करना (यज्ञ) यज्ञ में (लच्छेष) बाको बचे (पापकृत) पाप के कारणभूत (मद्यपान) सुरापान करना (राजसूयादिक कर्म) राजसूय यज्ञ (वृतयोन्यादिक) योनि पूजादि (तथा) और (सोमपानम्) शराब पीना (धर्म हेतवे) धर्म के लिए (जलस्नानम् ) जलस्नान, नदी सागर, में नहाना (केवलम् ) मात्र (एगाखङ्गि महियाणाम् ) भंसादि की बलि चढाना (विशेषतः) विणेषकर (मांसेनैक) मांस ही मे (श्राद्धे) श्राद्ध में भोजन देना (च) और (पितृवर्गस्यतर्पणं) पितवर्ग के तर्पण को (प्राशिमारणम्) जीवों का घात-पात करना (मन्त्र-तन्त्रादि के कर्म) मन्त्र, तन्त्र आदि कर्म जो (कर्मबन्ध निबन्धन) दुष्ट कर्म बन्धन के कारण हैं, सब पढ़े । भावार्थ----सुर सुन्दरी तीव्र बुद्धिमती थी। किन्तु दुर्भाग्य से उसे गुरु मिथ्याष्टि, पापी, अधर्मी ब्राह्मण मिला । उस दुष्ट ने उस गोली कन्या को समस्त कुशास्त्रों का अध्ययन Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद कराया । वैदिक मत में निष्णात किया। यज्ञ यागादि में प्राणिबध करने से पाप नहीं होता। ये धर्म के अङ्ग है यज्ञ में बचे मांस, शराब को सेवन करने से पुण्य होता है । गाय की योनि में ३२ कोटि देवता वाम करते हैं उसकी पूजा अवश्य करनी चाहिए यज्ञ में घोड़ों को होमने से अश्वमेध यज्ञ होता है । इसी प्रकार मनुष्यों का ह्वन नरमेध बज है । गज-हाथी भैसा बकरा आदि से भी यज्ञ करना चाहिए । यज्ञ में हुने गये पशु व मनुष्यों को कष्ट नहीं होता क्योंकि मन्त्र पूर्वक उन्हें होमा जाता है वे सीध स्वर्ग जाते हैं। राज सुयादि यज्ञों के करने से सुख शान्ति होती है । नदी स्नान सागर की लहरे कासी, कर-वट प्रादि पुण्य के हेतु हैं धर्म के अन है। महिषादि की बलि चढाने से देवी देवता प्रसन्न होते हैं। मन्त्र तन्त्रादि से जीवों का पात करने से पितरों को तृप्ति और शान्ति मिलती है। इसी प्रकार अन्य भी हिंसा मार्ग का पोषण करने वाले शास्त्र पुराणों का उस राजकन्या मुर सुन्दरी ने अध्ययन किया जिससे वह ज्ञानमद से उन्मत सी हो गई । ये समस्त विधि-विधान घोर पापकर्म बन्ध के कारण धं। किन्तु उस पापी ब्राह्मण ने धर्म के हेतु बताये ।।५१-५४।। मिथ्याशास्त्रवशात्तत्र कुगुरोस्सेवनेन च । सुरादिसुन्दरीसात्र जाता धर्मपराड्.मुखा ॥५५।। अन्वयार्थ-(सा) वह (सुरादि सुन्दरी) मुर सुन्दरी (मिथ्या शास्त्र वशात्) खोटे मिथ्या शास्त्रों के पड़ने से (च) और (तत्र) उसी प्रकार (कुगुरोस्सेवनेन) खोटे गुरु के सेवन करने से (अत्र) इस समय (धर्मपराङ मुखा) धर्म से विमुख (जाता) हो गई। भावार्थ सुर सुन्दरी ने मिथ्यादृष्टि गुरू पाया उसके सान्निध्य में मिथ्या शास्त्रों का ही अध्ययन किया। फलत: वह कुगुरु की सेवा के प्रसाद से धर्म से विमुख हो गई अर्थात मिथ्या धर्मपोषक वन गई ।।५।। उन्मत्ता सा स्ववर्गण राजपुत्री. विशेषतः । कुशास्त्रेण तरामासीन्मर्कटीववलाशया ॥५६।। अन्वयार्थ-(विशेषतः) प्रायः करके (सा) वह सुर सुन्दरी (राजपुत्री) राज कन्या (स्ववर्गण) अपने परिवार से (उन्मत्ता) विमुख (जाता) हो गई । (कुशास्त्रेणतराम्) खोटे शास्त्रों के पढ़ने से नितान्त (बलाशया) बलवन्त हटग्राही (मर्कटीव) बंदरी के समान (आसीत्) थी। भावार्थ---वह राजकुमारी अपने खोटे मिथ्या विचारों से समस्त परिवार से विरुद्ध हो गई । दुराग्रह से नितान्त चपल वानरी के समान थी । अर्थात् बुद्धिविहीन चापल्य से वह तीव्र हठाग्रह वाली बन गई । वानरी स्वभाव से चपल होती है, फिर हाथ में दर्पण आ जाय तो कहना ही क्या ? इसी प्रकार-वह राजकन्या थी ।।५६।। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ] कुसंगतिवशात्पापात् सा कन्यासुरसुन्दरी । ree बुद्धिस्तदा जाताहाकष्टं दुष्ट सङ्गतिः ॥५७॥ अन्वयार्थ - ( पापात् ) पाप से ( कुसङ्गतिवशात् ) खोटी संगति से (सा) वह (कन्यासुर सुन्दरी) सुरसुन्दरी राजकुमारी ( तदा) तब ( नष्टबुद्धि ) बुद्धि विहीन ( जाता ) हो गई (हा ) खेद हैं (दुष्ट) यूर्जन का ( सङ्गति) सहवास ( कष्टं ) दुख रूप ही होता है । भावार्थ- पाप और कुसङ्गति के कारण वह राजकुमारी सुर सुन्दरी बुद्धि विवेक विहीन हो गई। प्राचार्य वेद प्रकट करते हैं कि दुर्जन की संङ्गति कितनी बुरी होती है ? द्वितीया सा विशुद्धात्मासतीमदमसुन्दरी । निर्जिता निजरूपेण यथा मदनसुन्दरी ॥ ५८ ॥ [ १०३ अन्वयार्थ - - ( द्वितीया ) दूसरी कन्या ( विशुद्धात्मा) विशुद्ध पवित्रात्मा (सतो ) शीलवती ( मदनसुन्दरी) मदनसुन्दरी कुमारी थी उसने (निजरूपेण) अपने सौन्दर्य से ( यथा ) जैसे मानों (मदन सुन्दरी) कामदेव की पत्नी रति को (निर्जिता ) जीत लिया था । भावार्थ -- प्रजापाल राजा की द्वितीय कन्या का नाम मदन सुन्दरी (मैनासुन्दरी ) था । वह अत्यन्त पवित्रात्मा थी स्वच्छ मन वाली थी । रूप सौन्द्रयें में अद्वितीय सुन्दरी थी । अपने लावण्य से रति को भी उसने लज्जित कर दिया था। सौन्दर्य का उपयोग विद्या से है । मदनसुन्दरी रूप और गुण दोनों से ही अनुपम थी । स्वयम्भूतिलकं नामधामिणां तिलकोपमम् । गत्वा जिनालयं भक्त्या सा पापविलयंमुदा ।। ५६॥ अन्वयार्थ -- (सा) वह मदनसुन्दरी ( पापविलयम् ) पापों को नाश करने वाले ( स्वयम्भुतिलकं नाम ) स्वयम्भु तिलक नाम के ( धर्मिणां तिलकोपमम्) धर्मात्माओं के तिलक स्वरूप ( जिनालयं ) जिन मन्दिर को ( मुदा ) आनन्द से ( भक्तया ) परमभक्ति से ( गत्वा ) जाकर । धौत वस्त्रादिकंधूत्वा जलगंधाक्षतादिभिः । नानापुष्पवताद्यैश्च समभ्यर्च्य जिनाधिपम् ॥ ६०॥ स्तुत्वानत्वा पुनर्वाला मुनिंयमधराह्यम् । नमस्कृत्य यमधरा पार्श्व धर्मं सुश्राव शर्मदम् ॥ ६१ ॥ अन्वयार्थ -- ( धौत वस्त्रादिकं ) सफेद जरी के वस्त्र एवं सुन्दर श्राभूषण ( धृत्वा ) धारण कर ( जलगन्धा क्षतादिभिः नानापुष्पशतार्थः च) जल चन्दन अक्षत, आदि और अनेक Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૪ [ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद प्रकार के सैकड़ों पुष्पों से (जिनाधिपम् ) जिनेन्द्र भगवान् की (समभ्यर्ष ) सम्यक प्रकार पूजा करके ( तत्वा) नमस्कार कर (स्तुत्वा ) स्तुति करके (पुनः) फिर ( वाला) उस मदन सुन्दरी बालिका ने ( यमराह्नवम् ) यमधर नाम के ( मुनि) मुनिराज को ( नमस्कृत्य ) नमस्कार करके ( यमधर ) उन यमधर मुनि महाराज के पास ( शर्मदम् ) शान्ति प्रदायक ( धम्मंम् ) धर्म को (सुश्राव ) सुना । मात्रार्थ - धर्मलंकार अलंकृत बहु लघु कन्या मदनसुन्दरी प्रातःक्रिया कर जिनदर्शन को गयी। वह स्वम्भूतिलक नामक जिनालय पहुँची । वह जिनमन्दिर धर्मात्माश्र का तिलक स्वरूप था । वह आनन्द से पूरित भक्तिभाव से भरी उस जिनालय में जाकर जिन पूजा में तत्पर हुयी । उसने सुन्दर शुभ्र वस्त्र एवं कीमती सुन्दर आभरण धारण किये। जल चन्दन प्रक्षत चरु दीप, धूप फलादि के साथ नाना प्रकार के सैकड़ों सुगन्धित प्रफुल्ल पुष्पों से जिनेश्वर की पूजा की । प्रचकर नमस्कार किया पुनः मधुर स्वर से स्तोत्र पाठ किया 1 तदनन्तर जिनालय में विराजे यमधर नाम के मुनिराज को नमस्कार किया उनके चरण सानिध्य में बंट कर शान्ति सुखदायक जिनधर्म के स्वरूप को श्रवण किया ।। ५६, ६०, ६१॥ श्रहिंसालक्षणम् जैनमसत्यं परिवर्जनम् । प्रचीर्यं ब्रह्मचर्यं च परिमाणं परिग्रहम् ||६२ ॥ श्रन्वयार्थ -- ( अहिंसालक्षणं) जीवबध रहित लक्षण वाले (असत्यं परिवर्जनम् ) असत्य भाषण का परित्याग करना ( प्रचीर्य) चोरी नहीं करना ( ब्रह्मचर्य) एक देश ब्रह्मचर्य व्रत पालन करना (च) और ( परिग्रह परिमाणम् ) परिग्रह की सीमा करना ( जैनम् ) जैनधर्म है । भावार्थ - हिंसा झूठ चोरी, कुशील और परिग्रह वे पाँच पाप हैं। इनका एक देशस्थूल रूप से त्याग करना पाँच अणुव्रत कहलाते हैं । प्राणियों के बध का त्याग करना उनका रक्षण करना हिंसाण व्रत कहलाता है । असत्य भाषण का त्याग करना अर्थात् बध, बन्धन दण्ड प्राप्त हो इस प्रकार का असत्य भाषण नहीं करना सत्याण व्रत है। मालिक की आज्ञा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ] J१०५ लिए बिना किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करना अचौर्याण यत वहा जाता है। स्वपत्नी सिवाय अन्य समस्त स्त्रियों को माता बहिन व पुत्री समान समझना तथा इसी प्रकार महिलाओं को अपने विवाहित पुरुष, पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों को पिता भाई व पुत्र तुल्य देखना ब्रह्मचर्य अण व्रत है । क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण धन धान्य, दास दासी, कुव्य, (वस्त्र) भाण्ड ये दश प्रकार ने वाह्य परिग्रह हैं। इनकी सीमा करना अर्थात् प्रमाण करना कि इससे अधिक स्वीकार नहीं करेंगे वह परिग्रह परिमाण अण व्रत कहलाता है। गार्हस्थ्य धर्म में इनका पालन करना अनिवार्य है ।।६२।। तथा ओर भी-- रात्रिभुक्तिपरित्यागमाटो मलगुणान् शभान् । कन्दमूलादिकं त्याज्यं, चर्मवारिघृतौज्झनम् ॥६३॥ अन्वयार्थ --(रात्रिभुक्ति परित्यागम् ) रात्रि भोजन का सतत त्याग करना (शुभान) श्रेष्ठ (अष्टौमूलगुणान्) मूल गुणों--प्राउ मूलगुरगों को धारग वारना (कन्दमूलादिकम) आलु गाजर मूली आदि कन्दमूल (न्याज्यम्) त्यागने योग्य हैं। (चमवारिघृतं) चमड़ के चरश बैम आदि में रखे हुए जल धो, तैल होंग आदि का (उज्झनम्) त्याग करना चाहिए । भावार्थ-श्रावक-श्राविकाओं को सदंब रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग करना चाहिए । आठ मूलगुणों को धारण करना अनिवार्य है । मूल का अर्थ जड़ है जिस प्रकार जड़ के अभाव में वक्ष की स्थिति-उत्पत्ति वद्धि कुछ भी नही हो सकती उसी प्रकार मूलगुणों के बिना श्रावक, श्रावक ही नहीं बन सकता । पाँच प्रण व्रतों का धारण करना, ६. रात्रि भोजन त्याग ७. कन्द मूल त्याग और ८.चमड़े में रस्ने हए घी तैल, पानी, हींग नमक आदि का त्याग । इस प्रकार ये पाठ मूल गुण यहाँ प्राचार्य श्री सकलकीति महाराज ने कहे हैं । श्री समन्तभद्र स्वामी ने पांच अण व्रतों के साथ १. मद्य त्याग २. मांस त्याग ३. मधु त्याग इन तीन को मिलाकर ८ मूलगुण कहे हैं। .. sainire---MYKORAN A T AMERITTALPATTI Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] [श्रीशन चरित्र द्वितीय परिच्छेद नी सोमदेव आनार्य ने मतानुसार पाँच उदम्बर १. बढ़ २. पीपल ३. ऊमर ४. कम्बर और ५. पाकर इन पाँच प्रकार के फलों वा त्याग तथा ६. मद्य ७. मांस और ६. मधु का त्याग करना पाठ मूलगुण कहे हैं । प्राचार्य जिलरोन स्वामी ने ५ यण व्रता के साथ ६. धूत (जुना मलने) का त्याग ७. मद्य पीने का त्याग और ८. मांस खाने का त्याग इस प्रकार ८ मुलगुग श्री पं० आजाधरजी ने (१) गद्य-शराव का त्याग (२) मांस भक्षण त्याग (३) महद का स्यांग (४) माभन त्याग (५) पॉचों उदुम्बरों का त्याग (६) पञ्च पर मेष्ठियों को नमस्कार बारना (७) जीव दया पालन करना (८) जल छान के पीना । इम प्रकार ये धावक के ८ मूलगुण हैं । ।।६।। इति श्रुत्वा जिनेन्द्रोक्तं धर्ममुनिमुखाम्बुजात् । शास्त्राभ्यासं चकारोच्चरतत् समीपे जगद्धितम् ॥६४॥ अन्वयार्थ - (इति) इस प्रकार (जिनेन्द्रोक्त) जिन भगवान् प्रगीत (धर्म) धर्म को (मुनिमुखाम्बुजान्) मुनिराज के मुख से (श्रुत्वा) श्रवण कर (तत्समीपे) उन मुनिराज के समीप (जगद्धितम् ) संसार का हित करने बाले (उच्चैः) विशेष रूप से (शास्त्राभ्यास) विशिष्ट शास्त्रों का अध्ययन (चकार:) किया। भावार्थ ...उपर्युक्त प्रकार थावत्र धर्भ श्रवणकार मदनसुन्दरी को परमानन्द हुमा । श्रीगुरु मुस्खाम्भोज से सर्वज्ञ प्रणोत आगम को भुनिराज के पास पला विशेष-विशेष प्राध्यात्मिक, तत्वनिस्पक पार्षग्रन्थों का तलस्पर्णी अध्ययन किया ।।४।। सर्वशास्त्रमुखप्रायं पूर्व व्याकरणं शुभम् । छन्दोऽलङ्कारमप्युच्चैरभिधानं निधानवत् ॥६५।। नाना काव्यानि भव्यानिपठतिस्मनिराला । षद्रव्यसंग्रहं सप्ततत्स्वानां विस्तरं तथा ॥६६॥ अन्वयार्थ : (निराकुला) शान्तचित्ता उस कन्या ने (पूर्वम् } सर्वप्रथम (सर्वशास्त्र मुखप्रायम् ) समस्त जिनवाणी व आगम के मुख प्रवेश द्वार रूप (शुभम्) धेष्ठ (व्याकरणम्) व्याकरण ग्रन्थ को (उन्च:) अत्यन्त (अभिधानी ध्यान पूर्वका (निधानवत) निधि के समान पुनः (छन्दः अलङ्कारम्) छन्द शास्त्र, अलङ्कार, शास्त्रों को (अपि) भी (तथा) एवं (नाना) बहुत से (भव्यानि) श्रेष्ठ (काव्यानि) काव्य ग्रन्थों को (सप्ततत्वानांविस्तरम् ) सातों तत्त्वों का विस्तार पूर्वक (पठतिस्म) अध्ययन किया था। भावार्थ- - उसने सर्वप्रथम श्रेष्ठ व्याकरण णास्त्र का अध्ययन किया । व्याकरण, शब्द वाडमय में प्रवेश करने के लिए मुख द्वार के समान है। व्याकरण ज्ञान होने पर समस्त Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ] [१०७ द्वादशाङ्ग के समस्त विषयों में प्रविष्ट होने की योग्यता या जाती है। तदनन्तर उसने मुन्द शास्त्र अलङ्कार शास्त्रों का भी विशेष लगन-एकाग्रता से अध्ययन किया । इसके बाद तत्त्व प्रतिपादक काव्य शास्त्रों को पढ़ा । पुनः षड्द्रव्य पञ्चास्तिकाय, सप्त तत्वों का वर्णन करने वाले गास्त्रों का एकाग्रचित से मनन-चिन्तन किया। तत्त्त्रपरिज्ञान कर लेने से उसकी धर्मनिष्ठा विशेष प्रगाढ़ हो गई थी।॥६५-६६।। पञ्चास्तिकायषड्भेदान् पदार्थन्नवनिर्मलान् । अष्टाङ्गसार सम्यक्त्वं वेत्तिस्मज्ञानमष्टधा ॥६७॥ अन्वयार्थ - (स.) उस मदनसुन्दरी ने (पञ्चास्तिकायषड्भेदान्) पञ्चअस्तिकाय के भेदों को (निर्मलान ) निर्मल (नवपदार्थान्) नव पदार्थों को (सम्यक्त्वसारं) सम्यग्दर्शन के सारभूत (अष्टाङ्गम्) आठ अङ्गों को (अष्टधा) आठ प्रकार के (ज्ञानम् ) सम्यग्जान को (वेत्तिस्म) ज्ञात किया। भावार्थ -इसके बाद उस मदनसुन्दरी ने पञ्चास्तिकाय एवं षड्दथ्यों के भेदों को तथा नव पदार्थों का समय ज्ञान प्राप्त किया। अर्थात् भले प्रकार से अध्ययन किया । सम्यग्दर्शन के निशंकित आदि अङ्गों को अच्छी तरह से समझा, ज्ञान मार्गरगा के पाठ भेद १. मतिज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४. मनःपर्यय ५. केवलज्ञान, ६. कुमति, ७. कुथुत और ८. बिभंगावधि का भले प्रकार से अध्ययन किया। पाठ अङ्गों का स्वरूप प्रथम परिच्छेद में लिखा जा चुका है । इस प्रकार सकल शास्त्रों का अध्ययन किया ।।६७।। श्रावकाचारमप्युच्चैरभिधानं निधानवत् । कर्मणां प्रकृतयस्सर्वाः जानातिस्मगुरगोज्वला ॥६॥ अन्वयार्थ - पुन: (गुणोज्वला) उत्तम गुणों से युक्त वह कन्या (श्रावकाचारम) श्रावका वार को (उचैरभिधानम्) विशेष सावधानी से (निधानवत्) खजाने के समान (सर्वाःकर्मरणांप्रकृतय.) सम्पूर्ण कर्म प्रकृतियों को (अपि) भो (जानातिस्म) जानती थी। भावार्थ-- इसके अतिरक्त उक्त गुणों से मण्डित कन्या ने पवित्र भावों से श्रावकाचार ग्रन्थों का भी विशेष रुचि से अध्ययन किया। समस्तकर्म प्रकृतियों का भी अवबोध किया अर्थात् कर्म प्रकृति प्राभूत ग्रन्थों का सम्यक् प्रकार से अध्ययन किया ॥६८।। चतुर्गतिमहाभवान् गुणस्थानानिनिस्तुषम् । पादानं जिनस्नान पूजनं परमेष्ठिनाम् ।।६।। अन्वयार्थ--(चतुर्गति महाभेदान्) चारों गतियों के विशेष भेद प्रभेदों को (निस्तुषम् ) पूर्ण रूप से (गुणस्थानानि) गुणस्थानों के भेद लक्षणादि को (पावदानम् ) विविध पात्रों के Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद लिये चतुबिध दानादि को (परमेष्ठिनाम्) पञ्चपरमेष्ठियों के (जिनस्नानम् ) अभिषेक (पूजनम् ) पूजा के विधानों को एवं शृणोतिस्म सती तत्र द्वादशैव शुभावहाः । अनुप्रेक्षास्तपोभेदान्तर्बाह्यद्विषविधान् ॥७॥ अन्वयार्थ - (सती) वह साध्वी कुमारी (तत्र) उन गुरुदेव के यहाँ (शुभावहाः) सुखप्रदायक (द्वादशैब) बारह भावनाओं एवं (तपोभेदान्) तप के भेद (अन्तर्बाह्य द्विषड्विधान्) अन्तरङ्ग और वाह्य के भेद वाले १२ तपों को (श्रृणोतिस्म् ) सुनती थी। भावार्थ-उस सुशील कन्या मदनसुन्दरी ने उन गुरुराज के पास सुखदायक १२ भावनाओं का श्रवण किया । बारह भावनाएँ १. अनित्य २. अशरण ३. संसार ४. एकत्व ५. अन्यत्व ६. अचि ७. आस्त्रव ८. संवर. निर्जरा १०. लोक ११. बोधि दुर्लभ और १२. धर्म ये बारह अनुप्रक्षाएँ हैं। १. अनित्य संसार क्षणभंगुर है। धन यौवन रूपादि सब बिजली की भांति क्षणभर में विलीन हो जाने वाले हैं ! कोई भी वस्तु स्थिर एक रूप नहीं हैं । इस प्रकार विचार करना अनित्य भावना है। २. अशरण भावना-संसार में कोई शरण नहीं है। मृत्यु से बचाने वाला कोई भी नहीं है । जिस प्रकार सिंह के मुख में पड़े हरिण को कोई नहीं बचा सकता उसी प्रकार विचार करना अशरण भावना है। ३. संसार भावना-चतुर्गति रूप संसार में जीव ८० लाख योनियों में भटकता है । सर्वत्र दुःख ही दुःख भरा है कहीं भी शान्ति नहीं मिलती। यह संसार की प्रसारता का चिन्तन करना संसार भावना है। ४. एकात्व भावना- जीव अकेला ही शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है और स्वयं ही उनके सुख-दुःख रूप फल का भोक्ता है । अन्य कोई भी बदा नहीं सकता। इस प्रकार विचार कर स्वयं में स्वयं को स्थिर करना । ५. अन्यत्व भावना--ऐसा विचार करना कि मेरा किसी से कोई सम्बन्ध नहीं है, सब से मैं पृथक निराला हूँ और संसार के सर्व पदार्थ मुझ से भिन्न हैं । मैं एक शुद्ध चैतन्य स्वरूप हूँ। ६.अशुचि भावना---शरीर का स्वभाव गलन पूरन है, यह मल मूत्र, रक्त, मांस का आगार है । चमड़े से लिपटा सोहता है भीतर महानिद्य पदार्थों से भरा है । यह कभी भी शुचि नहीं हो सकता है । इसमें प्रीति करना व्यर्थ है । ७. प्रास्त्रव भावना - ऐसा विचार करना कि मन वचन काय के निमित्त से प्रात्म Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र fat परिच्छेद | [ १०६ प्रदेशों के चलायमान होने से शुभाशुभ कर्म प्राते हैं। इनका आत्मा से सम्बन्ध होता है यही दुःख का कारण है। ये अशुचिकर दुख के कारण हैं। इनका आना ही संसार है। ये आत्मवस्भाव से विपरीत हैं । ८. संबर भावना--संवर आत्मस्वभाव की प्राप्ति का उपाय है। श्राते हुए कर्मों का रुकना ही संवर हैं। नवीन कर्म न आने से आत्मा का कर्मभार हलका होगा। इस संवर के काररण उपाय पाँच महाव्रत, ५ समिती, ३ गुप्तियाँ १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षाएँ एवं २२ परीपह, जय हैं। इनके स्वरूप का चिन्तवन करना । ६. निर्जरा भावना - आत्मा के साथ पूर्व संचित कर्मों का धीरे-धीरे थोडा-थोडा निकलना झड़ जाना निर्जरा है। संवर पूर्वक निर्जरा होने पर आत्मा हलका होकर ऊपर उठता है । यथा किसी नाव में छिद्र होने से पानी आने लगा ( यह प्राखव ) पानी न आवे इसके लिए उस छिद्र को बन्द कर दिया ( यह हुआ संवर) पुनः आचुके पानी को शनैः शनैः निकाल फेंकना यह है निर्जरा | अर्थात् पूर्वोपार्जित कर्मों का एक देश क्षय होना निर्जरा है इस प्रकार विचार करना । १०. लोक भावना - - लोक स्वरूप का चिन्तन करना । लोक, ऊध्वं, मध्य और अधो के भाग से ३ भागों में विभक्त है । इसका आकार कोई पुरुष दोनों पैरों को प्राजू-बाजू पसार कर कमर पर दोनों हाथों को रखकर खड़ा हो उसका जैसा श्राकार है । वैसा ही लोक का है । इसमें जीव अनादि से भटकता फिरता है, यहीं से पुरुषार्थी भव्य जीव घोर तपकर कर्मकाट मुक्ति पाता है । वस्तुतः जीव के बंधन मुक्ति की रङ्गभूमि यह लोक ही है । ११. बोधि दुर्लभ भावना - इस प्रकार विचार करना कि संसार में बोधि रत्नत्रय का पाना महान कठिन है । उस दुर्लभतम बोधि विना मुक्ति हो नहीं सकती इसलिए उसे पाने का प्रयत्न करना चाहिए । I १२. धर्मभावना -- धर्म आत्मा का स्वभाव है । यही सुख की खान है । धर्म अमोल रत्न है, धर्म ही मार है, धर्म ही संसार का पार है, धर्म ही मुक्ति का द्वार है, इत्यादि विचार करना । इस प्रकार श्री गुरु मुख से १२ भावनाओं का स्वरूप सुना, तथा अनशनादि ६ वा तप और प्रायश्चित्तादि ६ श्राभ्यन्तर तप का वर्शन भो सुना ॥ ७०॥ इति श्री जिननाथोक्तं स्वागमं भुवनोत्तमम् । मुनेर्यमधराख्यस्य पादमूले जगद्धिते ॥७१॥ कन्दर्प सुन्दरी सा च राजपुत्री शुभोदयात् । ज्ञान विज्ञान सम्पन्ना सदाचार विराजिता ॥७२॥ विद्यया शोभते स्मोच्चमुनेर्वामतिरुज्वला | कुलस्य दीपिके वासौ बभूवाति मनोहरा ।।७३॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद अन्वयार्थ--(इति) इस प्रकार (शुभोदयात्) पुण्यकर्म के उदय से (सा) वह (राजपुत्री) राजकुमारी (कंदर्पसुन्दरी) मदनसुन्दरी (श्रीजिननाथोक्तं) श्री जिनेन्द्र भगवान कथित (भुवनोत्तमम्) तीनों लोकों में सर्वोत्तम (स्वागमम्) अपने जिनागम को (यमधराख्यस्य) यमधर नाम के मुनिराज के (जगद्धिते) जगत का कल्याण करने वाले (पादमूले चरणारविन्द के सान्निध्य में (पठित्वा) पढ़कर (ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्ना) ज्ञान विज्ञान की खानरूप (सदाचार विराजिता) सम्यक्त्वाचार रूप शोभित हुयी (च) और (सा) वह बाला (विद्यया) विद्या से (वा) मानों (मुनेः) मुनि को (उज्वलामतिः) निर्मल बुद्धि विशेष रूप से (शोभतेस्म) सुशोभित होती थो। (वा) अथवा (असौ) वह (अतिमनोहरा) अत्यन्त सुन्दर (कुलस्य दीपिका इव) आमे फूल को प्रकाशित करने वाली दीपिका समान (बभूव) हुयी । भावार्थ-पूर्वोक्त विधि से मदनसुन्दरी ने समस्त शास्त्रों का सर्वाङ्गोण गहन अध्ययन किया । मुनि पुगत गाधर मुभिराम सावन स (ए: म.नों को रखकर उसे ज्ञान-विज्ञान में निपुरा कर दिया । उसकी प्रतिभा इतनी विकसित हुयी मानों मुनिराज को निर्मल समुज्वल मति ही मूर्तिमान रूप धारण कर प्रकटी है । वह शील सम्यक्त्व मण्डित अपने सदाचार से प्रत्यन्त शोभित हुयी ऐसा लगता था मानों विनय आदि गुणों से विभूषित वह अपने कूल की दोपक ही थी । संसार में कहावत है "बेटी नाम काढ़े या रोटी" अर्थात यश और अपयश का विस्तार करने वाली या तो बेटी होती है या भोजन । यदि पुत्री विनय शील, नम्र, विपी ज्ञान विज्ञान, बिबेक सहित होती है तो वह अपने गार्हस्थ जीवन में प्रवेश कर उभवकुल माता-पिता और सास-ससुर का यश विस्तारने वाली होती है स्वयं भी प्रशंसनीय होती है, और कुल वंश को भी कीर्ति फैलाती है यथा महासतो सीता, राजुल, अनन्तमतो चन्दना आदि। यदि कुलटा अनपढ़, कुरुपा, हुयो तो निन्दा की कारण होती है यथा कनकमाला, चन्द्राभा आदि । अतः यह मदन सुन्दरी उसी प्रकार निदोष सम्पज्ञान को कलिका सदश ज्ञान विज्ञान कला गुण विभुषिता भो हो गई ।।७१-७२-७३। . साधूनां सङ्गतिस्सत्यं फलत्युच्चस्सदा सुखम् । भयानां कल्पवल्लीव परमानन्ददायिनी ॥७४।। अन्वयार्थ--(सत्यम्) यथार्थ रूप से (भन्यानाम् ) भव्यात्माओं के (साधूनांसङ्गतिः) साधु-सन्त समागम (सदा) निरन्तर (परमानन्ददायिनी) उत्कृष्ट आत्मानन्द को देने वाली (कल्पवल्ली इव) कल्पलता के समान (उच्च:) महान (सुखम्) सुखरूपो फल को (फलति) देतो है -फलता है। भावार्थ. यहाँ आचार्य श्री सङ्गति का निमित्त क्या करता है ? यह बता रहे हैं। साधु-सन्तों की सङ्गति जीव का कल्याण करने वाली होती है। परमपूज्य संयमी निग्रन्थ वीतरागी साधु के पादमूल का मिलना ही महान पुण्य का हेतु हैं क्योंकि "साधुनां दर्शनं पुण्यम्" साबुओं का दर्शन ही पुण्यरूप होता है। जिन्हें उन दिगम्बर ज्ञान ध्यानो महामुनियों Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद] के सानिध्य में अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है, उनका तो कहना ही क्या है ? वस्तुत: कल्पन्नता के समान सत्सङ्गति महान उत्तम सुखरूपी फलों को प्रदान करती है। निरन्तर रहने वाले स्थायी सुख को देती है । भव्य प्राणियों को सतत साधुसन्तों के समागम में ही रहना चाहिए । अात्महितेच्छरों को साधुओं के मुखारविन्द रो प्राप्त सदुपदेश संजीवनी बूटी या अमृत है। जिसे पाते ही संसार रोग-जन्म मरण बुढ़ापे के दुःखों का सर्वथा नाश होता हैं और भारत की प्राप्ति हो जाती है ।। ७४ ।। कहते हैं कि जाधियो हरति सिंचति यातिसत्यम् मानोन्नति दिति पापमपा करोति । चेतः प्रसादयतिदिक्षुतनोति कीर्तिम सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुसाम् ॥७॥ अन्वयार्थ----सत्सङ्गतिः क्या करती है (जाड्यधियो) जड़ बुद्धि को (हरति) नष्ट करती है। (सत्यम्) सत्यगुण को (सिंचति) सींचती है, बृद्धिगत करती हैं (याति च) और प्राप्त कराती है (मानोन्नति) आत्माभिमान को (दिशति) प्रकट करती है (पापम् ) पाप को दुष्कर्मों को (अपा करोति) दूर करती है (चेतः) चित्त को (प्रसादयति ) प्रसन्न करती है । दिवा) सर्व दिशाओं में (कीतिम्) यश को (तनोति) विस्तृत करती हैं (कथय) कहिये या क्या कहे (पुसाम्) पुरुषों को (सत्सङ्गति) सज्जन जन समागम (किं न करोति । क्या नहीं करता ? अर्थात् सब कुछ अच्छा ही करता है । भावार्य -जो साधु-सन्तों की सङ्गति में रहता है उसे सर्व प्रकार से जीवन विकास का अवसर प्राप्त होता है । उभय लोक की सिद्धि सरलता से हो जाती है । आत्मसिद्धि सदाचार और शिष्टाचार का साधन मूलतः सत्सङ्गति ही है ।।७५।। एकदा यौवनंप्राप्तां ज्येष्ठकन्यांविलोक्य च । राजा जगाद भो पुत्रि वरं प्रार्थय वाञ्छित्तम् ।।७।। अन्वयार्थ .. (एकदा) एक समय (यौवनंप्राप्ताम् ) यौवन अवस्था को प्राप्त हुयो (ज्येष्ठकन्या) बड़ी पुत्री को (च) और (विलोक्य) देखकर (राजा) राजा प्रजापाल (जगाद) बोला (भोपुत्रि) हे बेटी (बाञ्छितम) इच्छित (वर) वर (प्रार्थय) प्रार्थना करो। याचो। भावार्थ - राजा प्रजापाल ने अपनी बड़ी पुत्री सुरसुन्दरी को देखा । वह विचारने लगा मेरी कन्या युवती हो गई है। यह विवाह के योग्य हो चुकी है। इसका योग्य वर से विवाह करना चाहिए । किसके साथ विवाह किया जाय ? यह प्रश्न आते ही सोचा कन्या की इच्छानुसार बर खोजना उचित होगा । वस क्या था ? एक दिन उस सुन्दरी को देख कर Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] [ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद पिता ने कहा बेटी ! तुम अपनी इच्छानुसार जिस राजकुमार के साथ विवाह करना चाहती हो ? बतलाओ इच्छा पूर्ण करूंगा ||३६|| सुरादि सुन्दरी प्राह भो राजन् देहि मां त्वकम् 1 अहिच्छत्र पुराधीश पुत्राय गुणशालिने || ७७ ॥ श्रर्यादिदमनायोच्चैः कामभोग सुखार्थिने । तत्समाकर्ण्य भूपोऽपि शुभलग्ने शुभेदिने ॥ ७८ ॥ विवाह विधिना तस्मै तदिदौ सुरसुन्दरीम् । विभूत्या सोऽपि तां लात्वा गतोरिदमनोगृहम् ॥७६॥ अन्वयार्थ - (सुरादि सुन्दरी) सुरसुन्दरी राजपुत्री ( प्राह ) बोली ( भोराजन् ) हे राजन पितृवर ( मां) मुझको (स्वम्) तुम (गुणशालिने) गुणवान ( कामभोग सुखाथिने ) काम भोग सुख के अभिलाषी (अहिच्छत्रपुराधीशपुत्राथ ) अहिच्छत्र के राजपुत्र (अर्यादिदमनाय ) अरिदमन के लिये ( उच्चैः ) विशेष आनन्द से ( देहि ) प्रदान करो । ( तत् समाकर्ण्य ) उस कथन को सुनकर (भूपोऽपि ) राजा ने भी ( शुभेदिने) शुभ दिन में ( शुभलग्ने ) शुभलग्न में (ताम् ) उस कन्या को ( लात्वा) लाकर ( विवाह विधिना ) विवाह की पद्धति के विधि-विधान पूर्वक ( विभूत्या) प्रति वैभव के साथ ( सुरसुन्दरीम् ) सुर सुन्दरी को ( तस्मै ) उस अरिदमन को ( ददौ ) प्रदान कर दिया । ( सोऽपि ) वह अरिदमन भी उसके साथ (गृह्यगत: ) अपने घर चला गया । भावार्थ सुरसुन्दरी ने कहा यरिदमन अत्यन्त कमिच्द्र है भोगाभिलाषी है अतः उसके साथ मनवाञ्छित विषय भोग प्राप्त हो सकेंगे यह सब श्रवण कर उस प्रजापाल ने यायोग्य यथोचित पुरोहितों से शुभ दिन और शुभ लग्न निश्चित की तथा अपार वैभव विभूति और मङ्गलोपचार पूर्वक उसके साथ वादित्रादि पूर्वक विवाह कर दिया । वह अरिदमन भी सानन्द पाणिग्रहण कर अपने घर चला गया। यद्यपि सुर सुन्दरी वस्तुतः देवाङ्गना स रूप सौन्दर्य की खान थी परन्तु उसकी शिक्षा कुगुरु के सान्निध्य में होने से विवेक विहीन थी । कुलीन कन्याएँ माता पिता के आदेशानुसार गार्हस्थ्य जीवन में प्रविष्ट होती हैं, परन्तु उसने स्वयं ही पति निर्वाचन किया। यह भारतीय संस्कृति के विपरीत प्रतीत होता है। इसका कारण कुसङ्गति है । कुविद्या का परिणाम भयङ्कर ही होता है । मिथ्यावेदादि का अध्ययन करने से वह ज्ञानमद से उन्मत्त तो थी ही श्रविवेक और यौवन भी श्रा मिला फिर क्यों न विपरीत होता ? होता ही ।।७७, ७८, ७६॥ श्रन्वयार्थ- सुरसुन्दरी के विवाह के पश्चात् राजा प्रजापाल सुख से राज्य करने लगा। एक दिन आनन्द से सभा में सिंहासन पर श्रारूढ़ राजा विराजमान था उसी समय Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद] अथैकदा सुता सा च सुधीर्मदनसुन्दरी । कृत्वा पञ्चामृतःस्नानं जिनानां सुखकोटिदम् ॥८॥ पूजां विधाय सद्वस्तु संदोहैस्सुजलादिभिः । तत्सदगंधोदकं पित्रे ददौ परम पावनम् ॥८॥ अन्वयार्थ - (अर्थकदा) इसके बाद एक समय (सा) वह (सुधी) बुद्धिमती (मदनसुन्दरी सुता) मदन मुन्दरी लघु राजपुत्री (सुख कोटिदम्) करोड़ों सुखों को देने वाले (जिनानाम् ) जिनबिम्बों का (पञ्चामृतों द्वारा स्नान) अभिषेक (कृत्वा करके (च) और (मजलादिभि) पवित्र जल, चन्दन, अक्षतादि अष्ट द्रव्यों से (सद्वस्तुसंदोहै। अनेक उत्तम पूजा योग्य द्रव्यों से (पूजाम् ) जिनपूजा (विधाय) करके (परम पावन) महान पवित्र (तत्) उस सद्गन्धोदकम् ) उत्तम गन्धोदक को (पित्रे) पिता जी के लिए (ददी) प्रदान किया। भावार्थ-मुरसुन्दरी के विवाह पश्चात् राजा निराकुल था । एक दिन लघु पुत्री बुद्धिमती मदनसुन्दरी जिनालय में गई। वहाँ उसने बड़ी भक्ति से प्रथम । श्री जिनेन्द्र भगवान् का द्रव्य शुद्ध पञ्चामृतो-दूध, दही, घृत, इक्षुग्स और सवाषांध से क्रमश: अभिषेक किया, चन्दनलेपन, पुष्पवृष्टिकर आरती उतारी । पुनः शुद्ध गन्ध से अभिषेक किया। तदनन्तर श्री जिनेन्द्र भगवान् की नाना प्रकार के शुभ, सुन्दर द्रव्यों से अष्टविधि अर्चना की। भक्ति और आनन्द से भरी बह बाला गन्धोदक लेकर आई और अपने पुज्य पिता जी को लगाने के लिए ले गई । कन्या मदनसुन्दरी ने स्वयं अभिषेक किया । पञ्चामतों से किया और विधिवत् जिन पूजा की इससे स्पष्ट है कि नारियों को भी पुरुषों के समान ही अभिषेक पूजा करने का अधिकार है, उनका भी जिन शासन में समान रूप से श्राविका धर्म विधान है । हाँ शरीर, वस्त्र, द्रव्य, और भात्र शुद्धि होना अनिवार्य है। जिस समय बिदुषी रत्न वह मदनसुन्दरी गन्धोदक लेकर आयी उस समय राज दरबार में राजा थे । अत: बहीं राजसभा में ही लेकर आई थी। देखिये ||१|| प्रजापालप्रभुस्तत्र सभायां परमादरात् । वन्दित्वा तत्समादाय चकार निजपस्तके ॥२॥ अन्वयार्थ --(तत्रसभायाम्) उस सभा में (प्रजापाल प्रभुः) महाराजा प्रजापाल ने (तत्समादाय) उस कन्या प्रदत्त गन्धोदक को (परमादरात) परम आदर विनय भाव से (बन्दित्वा) नमस्कार कर (निजमस्तके) अपने शिर पर (चकार) चढ़ाया। अर्थात लगाया । विशेषार्थ--मदनसुन्दरी ने गन्धोदक लाकर अपने पिता को दिया। राजा प्रजापाल उस समय सभा में विराजमान थे । राजा ने परमभक्ति से उसे लिया और नमस्कार कर उस परम पवित्र गन्धोदक को अपने उत्तमाङ्गः मस्तक पर क्षेपण किया ।।२।। तां विलोक्यसुतां शान्तां नवयौवनमाश्रिताम् । कोमलाङ्गी सुरुपायां, करपल्लव शोभिताम् ॥५३॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद नेत्रपुष्पोज्वला पुण्यतरुवल्लीमिवोत्तमाम् । कल्याणकारिणीमत्वा कल्यागोचित विग्रहाम् ॥४॥ पिताप्रारणसुतेत्वं च भगिनीव वरंवद । यस्तुभ्यं रोचते भद्र तस्मै त्वां संददाम्यहम् ।।५।। अन्वयार्थ-(नविनाश्रिताम् ) नवीन योवन को पाने वालों (शान्ताम् ) कामविकार रहित (कामनाङ्गीम् ) पुष्पवत् कोमन अङ्ग वाली(सुपाड्या) उत्तम रूप राशि सहित (करपल्ल यशोभिताम् ) हाथ मप पत्रों से सुसज्जित (नेत्र पुष्पोज्ज्वलाम् ) कमल के समान उज्ज्वल नयन वाली (पुण्यतरुवल्लीब) पुण्य रूप वक्ष की लता समान (उत्तमाम) उत्तम (कल्याणकारिणोम) कल्यागा करने वाली (उचित) योग्य (कल्याण विग्रहाम्) सुखकारी शरीर बाली (ताम् ) उम (सुताम् ) पुत्रि को (विलोक्य) देखकर (पिता) पिता प्रजापाल ने कहा (प्राणसुते) हे प्राणप्रिय पुत्रि: (त्वम्) तुम (भगिनीव) अपनी बड़ी बहिन के समान वरं) वर (वद) कहो (भद्र ) हे कुलीन (य:) जो (तुभ्यम) तमको (रोचते) अच्छा लगे (तस्म) उसी के लिए (त्वाम) तुमको (अहम्) मैं (संददामि) विधिवत् सम्यक् रूप से देता हूँ। भावार्थ- .महाराज प्रजापाल ने गन्धोदक लेने के उपरान्त उस कन्या की ओर दृष्टि डाली । वह पुर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त हो चुकी है तो भी शान्त है अर्थात निर्विकार थी । उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग अत्यन्त कोमल-सुकुमार थे। उसके अङ्ग अङ्ग से सौन्दर्य फूट रहा था। शिरीष सुमवत् समस्त शरीर सुकुमार था । उसके हाथ कोमल पने के समान अरुण थे । दोनों नयन कमल पुष्प सदृश थे। वह देखने में उत्तम कल्पवल्ली के समान ही प्रतीत होती थी। उसका दर्शनमात्र कल्याणकारक था । गुण और स्प का मणि काञ्चनबनु संयोग फब कर बैठा था। इस प्रकार अपनी पुत्री को विवाह योग्य देख बार पिता ने उससे कहा, बेटी तुम भी अपनी बड़ी बहिन सुरसुन्दरी के समान अपना वर चुनकर वताओं। तुम जिसे चाहोगी उसी के साथ में तुम्हारा विधिपूर्वक विवाह कर देगा। इच्छानुसार वर पाकर तुम्हें सुग्वी देखना चाहता हूँ। तुम कल्याणरूपा हो । इसी प्रकार का गुणरूप वर भी मांगो ।।८६ से ८५।। तन्निशम्यपितुर्वाक्यं तदा मदनसुन्दरी । धर्मयुक्तिविचारज्ञा शास्त्रसिन्धुमहातरी ॥८६॥ अहोतातः कुलोत्पन्ना कन्यातो नैवयोग्यता । यहरोयाच्यते देवः स्वेच्छ्याभोमहीपते ।।७।। अन्वयार्थ -उस विषय को (पितुर्वाक्यम्) पिता के बचन को (निणम्य) सुनकर (तदा) तब (धर्मयुक्तिविचारज्ञा) धर्म और युक्ति के विचार में निपुण (शास्त्रसिन्धु महातरी) शास्त्र समुद्र को पार करने वाली महानोका रूप (मदन सुन्दरी) मदन सुन्दरी ने कहा (देवः) हे देव (भोमहीपतेः) हे नृपति (कुलोत्पन्न कन्यातो) श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न कन्या को (नैव Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद] [११५ योग्यता) यह योग्य नहीं है कि (यत्) कि (स्वेच्छया) इच्छानुसार (बरे) वर (याच्यते) याचना करे। भावार्थ - पिताजी की प्राज्ञा सनकर मदनसुन्दरी आश्चर्यचकित हो गई । वह युक्ति और धर्म की विशे पन्ना थी। लोक मर्यादा क्या है ? धर्म की मर्यादा क्या है ? यह सब उसे सम्यक् प्रकार ज्ञात था। शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया था । शास्त्र समुद्र के लिए वह विमाल सुद्ध निपिछद्र नौका थी । शास्त्र रत्नाकर की पारगामी थी । अत: महीपति-पिता के वचन सुनकर सुयुक्तियुक्त बचन कहने लगी । वह नम्रता से बोली हे देव आप यह क्या कह रहे हैं ? उनच मर्यादित थेष्टकुल में उत्पन्न होने वाली कन्याओं की यह रीति नहीं है कि स्वेच्छा से स्वयं अपना वर चुने । शीलबतो कन्या के लिए यह विरुद्ध है ।।८६-८७।। क्योंकि यस्मैपिताददातीह स्वपुत्रोंगुरणशालिनीम् । भर्ता सएव लोकेस्मिन् न्यायोऽयं कुलयोषिताम् ॥८॥ अतः पूर्व प्रमाणं मे त्वमेवात्र विचक्षणः । पश्चान्मे कर्मपाकेन यद भावीह भविष्यति ॥६॥ अन्वयार्थ - (गृण शालिनीम्) नाना गुण मण्डिता (स्वपुत्रीम्) अपनी कन्या को (इह) इस लोक में (यस्मै) जिसको (पिताः) पिता (ददाति) देता है (सएव) वही (लोकेस्मिन्) इस लोक में (भती) उसका पति होता है (कुलयोषिताम ) कुलोत्पन्न कन्याओं का (अयं) यही (न्यायः) न्याय है (अतः) इसलिए (पूर्वम ) प्रथम (मे) मेरे लिए (त्वमेवात्र) यहाँ आप ही (विचक्षणः) बुद्धिमान् (प्रमाणम् ) प्रमाणभूत हैं। (पश्चात् ) इसके बाद (में) मेरे (कर्मपाकेन) कर्मोदय से (यद्) जो (इह) इस लोक में (भावी) भवितव्य, होनहार होगा वह (भविष्यति) हो जायेगा। भावार्थ-मदनसुन्दरी ने कहा, हे पिता जी : लोक मर्यादा के अनुसार पिता का ही यह कर्तव्य है । पिता स्वयं अपनी गुणवती पुत्री को योग्य वर देता है । वही उस सुशील कन्या को प्रमाणभूत होता है । अतः प्रथम मुझे भी आप ही प्रमाण हैं। आप जिसे योग्य समझे उसे ही दे । क्योंकि पिता प्रदत्त बर ही लोक में कुलाङ्गना कन्या का पति होता है। पुनः उसका शुभाशुभ कर्म है इसी प्रकार आगे मेरे कर्मानुसार जैसा होना होगा वही हो जायेगा । अर्थात् प्रथम माता पिता योग्य वर चुनकर अपनी कन्या का विवाह कर देते हैं पुनः उसके भाग्यानुसार अच्छा बुरा फल उसे प्राप्त होता है ।।८८८६|| पुत्रि वाक्यं सुयोगं स समाकर्ण्य महीपतिः । मूढात्मा मानतश्चित्त कुपिते चिन्तयत्तदा ॥१०॥ अन्ययार्थ--(सुयोगम्) युक्ति पूर्ण (पुत्रिवाक्यम्) पुत्री के वचन सुनकर (समा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद कर्ण्य) सुनकर वह (महीपतिः) भूपति (मूढात्मा) दुष्ट घुद्धि (मानतः) अहंकार से (चित्ते) मन में (कुपिते) कुपित हुआ (सदा) उस समय (चिन्तयत् ) विचारने लगा। भावार्थ--राजा युक्ति भरे पुत्री के वचन सुनकर मूर्खानन्द मन में कुपित हुआ। अहंकार से वह दुष्टात्मा विचार करने लगा ।।६०॥ पश्यपुस्यानाप्रोक्तं प्राधान्य निजकर्मणः । अहं वृथा कृतोगाढं मूढया च महीपतिः ॥६॥ अन्वयार्थ - राजा मन में कहता है कि (पश्य) देखो (अनया) इस (पच्या) पुत्री के द्वारा (निजकर्मणः) अपने भाग्य-कर्मों की (प्राधान्यम् ) प्रधानता (प्रोक्तम् ) कही गयी है (मूढया) इस मूर्खा के द्वारा मैं (महीपती:) राजा (गाढम् वृथाकृत:) अत्यन्त दृथा कर दिया गया अर्थात् तुच्छ समझा गया हूँ। भावार्थ-राजा अहंकार में डूब गया । कर्म सिद्धान्त को भुल गया। कोरे अहंकार में डूबकर मन ही मन में कहता है, देखो इस मूर्ख कन्या को। अपने भाग्य की महत्ता बता रही है । मुझ नृपति ने व्यर्थ ही इतना गाढ श्रम किया । अर्थात् व्यर्थ ही मैंने इसके लिए कितना कष्ट उठाया है ? अच्छा, मैं राजा हूँ। मुझे कुछ नहीं समझती । मात्र भाग्य के गीत गाती है । ।।११।। इसे अवश्य ही-- कस्मंचिद्विश्वनिन्दायदत्त्वेयांपुत्रिकांघ्र वम् । पश्याम्यस्याः स्व पुण्यस्य महात्म्यं चेतिदुष्टधीः ।।२।। अन्वयार्थ----(दुष्टधी:) दुर्बुद्धि (डमां) इस (पुत्रिकाम् ) पुत्री को (घ्र वम् ) निश्चय से (कस्मंचिद्विश्वनिन्दाय) किसी संसार निन्दित पुरुष के लिए (दत्त्वा) देकर (अस्याः) इसके (पुण्यस्य) पुण्य के (माहात्म्य) माहात्म्य को (पश्यामि) देखता हूँ (इति । ऐसा निश्चय किया। भावार्थ--राजा प्रजापाल ने मन ही मन निर्णय किया कि इस दुष्ट बुद्धि पुत्री को किसी विश्वनिन्ध पुरुष को दुगा । फिर देखता है। उस पापी के साथ इसका पुण्य क्या चमस्कार दिखाता है । मैं तो राजा हूँ मेरे यहाँ सब सामग्री है और यह समझती है कि मेरा पुण्य है। कितनो मक्कार है यह लड़की, अवश्य ही इसे किसी निंद्य पुरुष को दे परीक्षा करूगा ।।१२।। चित्तेविचार्यतांमूचेयाहि पुत्रिगृहं तदा । सापिमत्वा पितुश्चितं विनम्रा मन्दिरंययो ॥३॥ अन्वयार्थ इस प्रकार राजा (चित्ते) मन में (विचार्य विचार कर (ताम् ) उस पुत्री से (ऊंचे) बोले (पुत्री) हे बेटी (गृहम् ) घर को (याहि) जानो (तदा) तव (सा) वह Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAI - Star ran T natime. --hai-A !:.१ N •. canada ऊपर-मटन सुन्दरी [मैना सुन्दरी] श्री जिन मन्दिर से लायी गन्धोटक पिताजी को लगाने को देते हुए। जीते--वन कीहा को जाते हुए राजा ने कोळी श्रीपाल को देखा तथा मैना सुष्टरी का व्याह उसके साथ करने का विचार पिया। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ] [११७ मदन सुन्दरी (अपि) भी (पितुः) पिता के (चितम्) अभिप्राय को (मत्वा) मानकर (विनम्रा) विनययुत (मन्दिरम् ) घर को (ययौ) चली गयी । भावार्थ--उायुक्त निर्णय भार राज. ने गाया से घर जाने को कहा । वह भी पिता के अभिप्राय को समझकर नम्रता पूर्वक प्राय को समझकर नम्रतापूर्वक पिता को नमन कर अपने महल में चली गयी । ठीक ही है चतुर और बुद्धिमत्त को संकेत ही पर्याप्त होता है । वह विदूषी पिता के मनोभाव को ताड गयी थी । अतः शान्त भाव से विनय पूर्वक जाना ही उचित समझा ।।६३५ युक्तंदुष्टजनस्यैवं साधूक्तं न सुखायते । तथा पित्तज्वरस्येह शर्करा न विराजिता ॥४॥ अन्ध्यार्थ - (युक्त) ठीक ही है (एवं) जिस प्रकार (इह) लोक में (पित्तज्वरस्य । पित्त ज्वर वाले के (शर्करा) शक्कर (राजिता) प्रिय (नवि) नहीं होती (तथा) उसी प्रकार दुष्टजनस्य) दुर्जन के (साधुक्तं) सत्य कही उक्ति (न सुखायते) सुख के लिए नहीं होती है । भावार्थ-जिस प्रकार पित्त ज्वर से पीडित मानव को मधुर शक्कर भी विपरीत कड़वी प्रतीत होती है उसी प्रकार दुर्बुद्धिजन को भी सत्य कथन सुखकारी नहीं होता अपितु दुःखदानि ही लगता है ।।१४।। प्रथैकदा प्रजापालोराजायानादिसंयुतः । वनक्रीडां व्रजन्नुच्चश्चामरादि विराजितः ॥६५॥ अन्वयार्थ .. (अथ) इसके बाद (एकदा) एक समय (राजा) नृपति (प्रजापाल:) प्रजापाल ने (यानादिसंयुतः) वाहन सवारी आदि सहित (उच्चः) उछलते (चामरादि) चमरों के ढुलाये जाते हुए (विराजितः) विराजित (वन् क्रीडाम् वजन्) वन क्रीडा को जाते हुएनिम्न प्रकार देखा। भावार्थ-मन में विद्वेष और प्रतिशोध की भावना वाला यह राजा समय की प्रतीक्षा में था कि एक समय वह अपने हाथी आदि सवारी पर आरुढ हुआ। सुन्दर चमर दुर रहे थे, और मन्त्री प्रादि साथ थे, आमोद-प्रमोद के सभी साधनों के साथ वनक्रीडा के लिए निकला। ।।६। उस समय मार्ग में जाते हुए अचानक देखता है कि--- सदाकर्मवशात्तत्र श्रीपालसन्मुखागतम् । द्विशरीरं समारुढ़ पलास छत्रिकान्वितम् ॥६६॥ कुष्ठीनां सप्तशत्या च वेष्टितमक्षिकाशतैः । स्वयंचोदुम्बराकार कुष्ठेन परिपीडितम् ॥१७॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] [ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद सर्वेषां कुष्ठिना तेषां राजत्त्वेन विराजितम् । गर्वभादिकसामग्रयासमेतं काहलान्वितम् ॥६॥ गोपुच्छ चमर द्वन्दे कुष्ठिनस्तस्यपाययोः । छत्रस्यधारकः कुष्ठी जलधारी च कुष्ठिकः ।।१६॥ ताम्जलदायकः कुष्ठी कुष्ठिनोऽप्यारक्षकाः। सामन्ताः कुष्ठिनो घण्टावादित्रेषु च कुष्ठिनः ॥१००।। मन्त्रिणः कुण्ठिनस्तस्य सेवकाः कुष्ठिनस्तथा । तोग्रफर्म विपाकेन भाण्डागारी च तादृशः ॥१०१॥ इत्यादि कुष्ठिभियुक्त तं समालोक्ययूरतः । साश्चर्य मन्त्रिणं प्राह भो मन्त्रिन्कोऽयमद्धतः ॥१०२ अन्धयार्थ- (तत्र) वहीं वन में (तदा) उस समय (कर्मवशात् ) कर्मानुसार (सन्मुखमागतम्) सामने आये हुए (द्विशरीरंसमारूढ़) दूसरे ही शरीर को धारण किये हुए पलाश छत्रिकान्वितम) पलाश के पत्रों का छत्र जिस पर था ऐसे (च) और (सप्तशत्या। सात सौ (कुष्ठीनां ) कुष्ठियों के साथ (मतः) सैकड़ों (मक्षिकाः) मक्खियों से (वेष्टितम् ) घिरा हुआ (च) और (स्वर्ष) अपने भी (उदुम्बराकारकुष्ठेन) उदुम्बर फल के आकार वाले कुष्ठरोग से (परिपीडितम् ) अत्यन्त दुखी (तेषां सर्वेषां कुष्ठीनाम) उन सभी कोड़ियों के (राजन्वेन) शासक पने से (विराजितम् ) शोभित (बाहलान्वितम्) झांझमजीरादिश्रुत (गर्दभादिकसामग्रया) गधे आदि सामग्रियों से (समेतम) सहित तथा (तस्थपायोः ) उसके दोनों और बगल में (कुप्छिनः) कुष्ठी (गोपुच्छ चामर द्वन्दे) चमरी गाय की पूछ के बालों से निर्मित दो चामर ढोरने वाले (सेवकाः) सेवक जन थे (छत्रस्यधारक :) छत्र धारण करने वाला (कुष्ठो) कोढी (च) और (जलधारो कुष्ठिक:) जल पिलाने वाला कोड़ी (ताम्बूलदायक:) पान देने वाला (कुष्ठी) कोढी (अङ्गरक्षका :) अङ्ग रक्षक भी (कुष्ठिन:) कोडी (सामन्तः) सामन्त भो (कुष्ठिनः) कोढी (घण्टावादिषु) घण्टा बजाने वाले भी (कुष्टिनः) कोढी ही (मन्त्रिण:) मंत्री भी (कुष्टिमः) कोढी ही हैं (कुष्ठिभिः) कोढियों से (युक्त) सहित (तं) उस श्रीपाल को (दूरत:) दुर ही से (समालोक्य ) देखकर (साश्चर्य) आश्चर्य से (मन्त्रिण) मंत्री को (प्राह) बोला (भोमन्त्रिन) हे मन्त्रिम् (अयम्) यह (अद्भुतम्) अनोखा व्यक्ति (कः) कौन है। भावार्थ--वनक्रीड़ा करने की इच्छा से प्रजापाल राजा सपरिवार ससैन्य वन में गया ! आमोद-प्रमोद की समस्त साम्रगी साथ थी । रणवास भी साथ था वह नाना प्रकार के मनोरञ्जन के विवारों से प्रसन्न था । ज्यों ही वन में प्रविष्ट होता है त्यों ही उसे एक विचित्र पुरुष के रूप में श्रोपाल महाराजा दृष्टिगत हुआ । उसका शरीर विपरीत द्वितीय अवस्था को Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ]. [११६ ही प्राप्त हो चुका था। उस पर पलाश के पत्रों का छत्र वगा था। सात सौ कोढ़ियों से सहित था । सभी का शरीर सैकड़ों मक्खियों से घिरा . अनेकों मक्खियाँ भिनभिना रहीं थीं । स्वयं उदुम्बर कोढ़ से पीड़ित था, अर्थात् गलित दुर्गन्धमय कुष्ठ व्याधि से भरा शरीर था । अत्यत्त पीडित था, समस्त अन्य सात सो कोढी उसे राजा घोषित कर रहे थे । बाजे, ताशे, झांझ, मंजीरा, आदि सामग्रियाँ गधों पर लदी थीं । चमरी गाय की पूछ के बालों से बने दोनों और चामर ढर रहे थे परन्तु ढोरने वाले भी कुष्ठी ही थे । छत्रधारक भी कोढी, जलवाहक या दायक, कोढी, पान सुपारी देने वाला कोढी अङ्ग रक्षक भी कोड़ से पीडित, सामन्त कुष्ठी जन, घण्टा बजाने वाला भी सब कोढ पीडित मन्त्री कोढी, सेवक कोढी, जिधर देखो उधर कोढी ही कोढी । उसी प्रकार समस्त कार्यकर्ता समान व्याधि से पीडित थे। इस विचित्र दृश्य को देखकर राजा के आश्चर्य की सीमा न रही । उसने अपने मन्त्री से पूछा हे मन्त्रिम् 'देखो' यह अद्भुत व्यक्ति कौन है ? साज-सज्जा से राजा समान परन्तु भयङ्कर गलित कुष्ठ पीडित सारा परिकर । भला यह कौन हो सकता है ।।६६ से १०२।। मन्त्री जगौ प्रभो कुष्ठिराजोऽयं क्षत्रियान्वयः । श्रीपालो नामतश्चापि निवासं याचते. ध्र वम् ॥१०॥ अन्वयार्थ-(मन्त्री जगौ) राजा के पूछने पर मंत्री कहने लगा (प्रभो) हे राजन् (अयम् ) यह (क्षत्रियान्वयः) क्षत्रियवंशी (कुष्ठिराजा) कोड रोग वाला राजा (नामतः) नाम से (श्रीपाल:) श्री पाल है (च) और (ध्रुवम) निश्चय से (निवासंअपि) निवास भी (याचते) मांगता है। भावार्थ - राजा प्रजापाल के पूछने पर मन्त्री ने कहा- हे राजन यह क्षत्रिय कुलोत्पाम है, राजा है । इसका नाम श्रीपाल है । कोदय से कुष्ठरोग से पीडित हो गया है । यहाँ इस वन में रहना चाहता है । आपसे निवास स्थान पाने की इछा करता है । निश्चय ही यहाँ डेरा डालने को तैयार है ।। १०३॥ - - मन्त्रिवाक्यं समाकर्ण्य प्रजापालः स्थमानसे । पुञ्यावषं वहन्मूढ : स्वाहंकार कर्थितः॥१०४॥ अन्वयार्थ-(मन्त्रिवाक्यं) मन्त्री के वचन को (समाकर्ण्य) सुनकर (प्रजापाल:) प्रजापाल राजा (पुच्याद्वेष) पुत्री के द्वेषभाव को (स्वमान से) अपने मन में (बहन) ढोता हुश्रा (मूढः) मूर्ख (स्वाहंकार) अपने अहेकार से (कथितः) पीडित हुप्रा । पुण्यायोग्यो वरोऽयंहि समायातो विचार्यसः । पुर वाहये गृहं तस्मै दापयामास सत्वरम् ॥१०५।। अन्वयार्थ - (अयं) यह (पृश्यायोग्यम ) पुत्री के योग्य (चरः) वर (हि) निश्चय Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद से (समायातो) या गया है (विचार्य) यह सोचकर (स:) उसने (सत्त्वरम,) शोघ्र ही (तस्मी) उस श्रीपाल को (पुरवाहये) नगर के बाहर वन में (गृह) घर (दापयामास) दे दिया। मावार्थ--मन्त्रि के बचन सुनकर राजा का अहंकार साकार हो उठा । उमे मदन सुन्दरी की बात याद आ गई “भाग्यानुसार'' सुख दुख होता है। वह पुत्री के प्रति द्वेष भाव रखे ही था । मन में प्रतिशोध जाग्रत हुआ । वह मूर्व अज्ञानी विचारने लगा, अच्छा है मेरा मनोरथ फल गया । इस दुष्ट कन्या के योग्य यह वर आ गया । इससे लाभ लेना चाहिए । इस प्रकार मन में विचार कर उसने अत्यन्त शीध अपने पुर के निकट वन में उसे निवास स्थानघर दे दिया । धूर्त जन अपनी धूर्तता से बाज नहीं पातं । अवसर पाते ही अपनी मूर्खता का प्रदर्शन कर ही डालते हैं ।।१०४-१०५।। स्वयंस्वगृहमागत्य जगौमदनसुन्दरीम । भो सुते तव भाम्येन वरः कुष्ठी समागतः ।।१०६।। अन्वयार्थ (स्वयम्) बह प्रजापाल भूपाल स्वयं (स्वगृहमागत्य ) अपने राजमन्दिर में आकर (मदन सुन्दरीम ) मदन मुन्दरी को (जगौ) बोला (भीसुते) हे पुत्रि (तव) तुम्हारे (भाग्येन) भाग्य से (कुष्ठी) कोढी (बरः) पति (समागतः) आ गया है। भावार्थ:-श्रीपाल को घर देकर वह राजा स्वयं अपने महल में आ गया । यहाँ मदन सुन्दरी पुत्री से कहने लगा हे बेटो ! तुम्हारे पुण्य से तेरा पति-वर पाया है । तुम्हारे भाग्य से वह कोढी है तुम्हारा उसी कोही से पाणिग्रहण होगा उसे ही वर समझो ।।१०६।। तन्निशम्य सुता प्राह भोपितः शृण तावरात् । यस्तुभ्यं रोचते देवः स मे गाढं मनोम्बजः ॥१०७॥ अन्वयार्थ (तन्निशम्य) उस पिता के बचन को सुनकर (सुता) पुत्री (प्राह) बोली (भोपितः) हे पिताजी (तुम्यम् ) आपके लिए (यः) जो (रोचते) अच्छा लगता है (देव) हे राजन् (स) वह (मे) मेरे लिए (गाडं) अत्यन्त (मनोम्बुजः) कामदेव स्वरूप है । भावार्थ-पिता के वचन सुनकर सुझानी, धीर बोर कन्या मदनसुन्दरी ने विनय पूर्वक पिताजी को उत्तर दिया । सम्यक्त्व शालिनी को भय नहीं होता है । अतः बोली हे ! पिताजी, आपको जो रूचिकर है वही मुझे योग्य वर है वह जैसा भी हो मेरे लिए अम्बुन कमल फूल-कामदेव स्वरूप है ।।१०७।। पुनर्जनमतेवक्षा जगौ मदनसुन्दरी । जन्तूनां कर्मणा सर्वं भवेदेव शुभाशुभम् ।।१०।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ] [१२१ श्रन्वयार्थ - - (पुनः) फिर ( जनमते दक्षा) जनमत में चतुर ( मदन सुन्दरी) मदनसुन्दरी (जग) बोली ( जन्तूनाम ) प्राणियों के ( कर्मणा ) कर्म के द्वारा (एव) ही ( सर्व शुभाशुभम् ) सर्व शुभ और अशुभ ( भवेत् ) होता है । भावार्थ – आगे विशेष स्पष्ट करते हुए कहा कि प्राणियों के शुभाशुभ कर्मानुसार ही होता है । वह जैनमत की पारङ्गत थी । अतः सिद्धान्तानुसार प्रत्येक जीव अपने कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है ।। १०८ ।। विलोक्य कन्यका राजा केवलं कर्मवादिनीम् । मन्त्रिणं प्राह भो पश्य मन्त्रिन्नद्याऽपि गवरी ॥१०६ ॥ अन्वयार्थ (राजा) भूपति ( केवल ) मात्र ( कर्मवादिनीम् ) कर्म सिद्धान्तवादिनी ( कन्यकाम् ) कन्या को ( विलोक्य) देखकर (मन्त्रिणम् ) मन्त्री को ( प्राह ) बोला ( भो मन्त्रिन्) हे मन्त्रिन् (पश्य) देखो (अद्यापि ) अभी भी (गर्विणी) गर्विपी है ।। १०६ ।। नैव मुञ्चति कन्येयं स्वमतं मतिवजिता । अतोऽहं तत् करिष्यामि कार्यं चित्तविचारितम् ॥ ११०॥ बर्थ -- (विधि) धिविहीन ( ) यह (कन्या) पुत्री (स्वमतम् ) अपने मत को (नेत्र) नहीं हो ( मुञ्चति ) छोडती है, ( श्रतः ) इसलिए (अहं) मैं ( चित्तं ) मन में (विचारितम् ) सोचे हुए ( कार्य ) कार्य को ( करिष्यामि) करूंगा। भावार्थ -- राजा कहता है, देखो मन्त्रिन्, यह कन्या कितनी अहंकारिणी है ? कुष्ठी के साथ विवाह सुनकर भी अपनी हर नहीं छोडती है। मांत्र कर्म की हा रट लगाये है, कर्म सिद्धान्त का ही राग अलापती है। यह बुद्धिविहीन कर्मसिद्धान्त के हठ को नहीं छोडती । अब तो निश्चय से मैं वहीं करूँगा जो मन में निर्धारित किया है, अर्थात् सुनिश्चित कुष्ठी के साथ ही इसका पाणिग्रहण करूँगा ।। ११० । जगौ मन्त्रीतराधीश ! लोकेतेऽत्रभविष्यति । अपकीर्ति यशोहानिः पश्चात्तापोऽपि चेतसि ।। १११ ॥ अन्वयार्थ - - (मन्त्री) सचिव ( जगी) कहने लगा ( नराधीश ! ) हे नृपति ! ( अत्रलोके) इस संसार में (ते) आपका ( अपकीर्तिः) कुश ( यशोहानिः ) सुयश का नाश होगा ( चेतसि ) चित्त में (अपि) भी (पश्चात्तापः ) पश्चाताप ( भविष्यति ) होगा । भावार्थ - मन्त्री राजा को समझाता है, है सज्जन, हे नृपति ! यह कार्य उचित नहीं है | कन्या को कुष्ठी के लिए व्याहने से आपका अपयश लोक में फैल जायेगा । सुयश नष्ट हो जायेगा । वित्त में भयङ्कर पश्चात्ताप होगा । समस्त कार्य विपरीत हो जायेगा, इस विचार को स्थगित करना ही उचित है ।। १११ ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] [ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद जितदेवाङ्गना कन्या कुष्ठिने किं प्रदीयते । चिन्तामरिणः कथं देवक्षिप्यते कर्दमे त्वया ॥ ११२ ॥ अन्वयार्थ - ( कि ) क्या (जितदेवाङ्गता कन्या) देवाङ्गनाओं को भी जीतने वाली ( कुष्टि) कोड के लिए ( प्रदीयत) दी जाय ? (देव ! ) हे राजन् ( त्वया ) आपके द्वारा ( चिन्तामणिः ) चिन्तामणि रत्न ( कर्दमे ) कीचड़ में ( कथं ) किस प्रकार (क्षिप्यते ) फेंका जा रहा है ? भावार्थ -- राजा को मन्त्री समझाता है । राजन् यह राजकुमारी महान् सुकुमारी, सौन्दर्य की पुतली है । अपने सौन्दर्य और लावण्य से मुखनिताओं को भी तिरस्कार करने वाली है। अप्सराएँ भी इसके समक्ष परास्त हो जाती हैं। इतनी सुन्दर रति समान कन्या क्या कुष्ठी को दी जाय ? नहीं, कदापि नहीं । भला चिन्तामरिण रत्न क्या कभी कीचड़ में फेका जाता है ? हे भूपति ! आप यही कर रहे हो। पर तनिक विचार करो आप जैसा विवेको चिन्तामणि सदृश अपनी कन्या को कुष्ठी को देगा ? क्या रत्न भी कोई पक में फेंकने की वस्तु है । आप हठ छोडें। क्यों इस हीरारत्न स्वरूप कन्या के प्रति घोर अन्याय कर रहे हो ? पर सुने कौन ? “भैंस के आगे बीन बजाये भैंस खडी पगुराय" वाली युक्ति थी ।। ११२ ।। अतः राजा ने उत्तर दिया दुराग्रही नृपश्चाह भो मन्त्रिन् श्रूयतां वचः । श्रयं चापि न सामान्यो दृश्यतेऽत्र महीतले ॥११३॥ अन्वयार्थ - (च) और भी ( दुराग्रही ) हरग्राही (नृपः ) राजा (आह ) बोला ( भो) हे ( मन्त्रिन्) सचिव ( भ्रम) मेरे ( वचः ) वचन ( श्रूयताम् ) सुनिये ( अत्र ) यहाँ ( महीतले ) पृथ्वीपर ( अयंचापि ) यह श्रीपाल भी (सामान्य) साधारण पुरुष ( न दृश्यते) नहीं दोखता है । भावार्थ- मन्त्रि द्वारा विरोध किये जाने पर राजा ने ध्यान नहीं दिया। समझाने पर भी नहीं समझा अपितु मन्त्रियों को ही समझाने लगा । हे मन्त्रिन्, यह श्रीपाल भले ही कुष्ठी है किन्तु तो भी कोई सामान्य मनुष्य नहीं है। यह विश्वप्रसिद्ध कोई महान् सत्पुरुष होना चाहिए । अतः मैना को इसे देने में कोई हानि नहीं ।। ११३ || क्योंकि- छत्र चामर घण्टाघँज्र्झल्लरीनाद सुन्दरैः । राजचिन्हैः समायुक्तो, राजाप्येष भवत्यहो ॥११४॥ अन्वयार्थ - - यह ( सुन्दरैः ) मनोहर (छत्र, चामर, घण्टाद्यः ) छत्र, चमर घण्टा आदि से तथा (झल्लरीनादसुन्दरैः ) कर प्रिय भांभ, मंजीरा आदि की मधुरध्वनि से ( अहो ) हो मन्त्रिन् (एषः ) यह (अपि) भी ( राजचिन्ह. ) राज्य चिन्हों से ( समायुक्तः ) सहित (राजा) नृप (भवति) है, होना चाहिए । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद] [१२३ भावार्थ-भो मन्त्रिन ! इसके साथ छत्र, चमर, घण्टा, सिंहासन आदि समस्त राजचिन्ह हैं । काहला, झांझ, मंजीरा, डोल-ढमाका सभी प्रकार के सुन्दर मनोहर वाजे भी हैं । अन्य भी अनेक राजकीय सामग्री से सम्पन्न है। अत: यह निश्चित ही कोई राजा होना चाहिए या राजकुमार हो । अबश्य ही यह कोई विशष पुरुष है ।।११४॥ अतएव - स्थातव्यञ्चभवद्धि भॊ माध्यस्थं मन्त्रि सत्तमः । एवमुत्वा कधाभूपो वजितोऽपि बुधजनैः ॥११५॥ कारयामास कन्यायावियाहं शुभवासरे । स तेन कुष्ठिना सार्द्ध स्वहस्ताल्लोक निन्दितः ॥११६॥ अन्वयार्थ-(भो) हे (मन्त्रि सत्तमः) सचिवोत्तम ! (भवद्भिः) आप को (माध्यस्थम्) मध्यस्थ भाव से (स्थातव्यम्) रहना चाहिए (एवं) इस प्रकार (उक्त्वा) कहकर (बुधैर्जनै:) विद्वानजनों के द्वारा (वजितोऽपि) रोके जाने पर भी (क्र धा) क्रोधित (भूप:) भूपति ने मन्त्रियों को चुप कर दिया पुनः (शुभवासरे) शुभ दिन में (लोकनिन्दितः) लोक निन्दित (स) उस राजा ने (कुष्ठिना सार्द्ध) कोढी के साथ (स्वहस्तात् ) अपने हाथों से (कन्यायाः) पुत्री-कन्या का विवाह (कारयामास) कर दिया। भावार्थ--तब राजा ने अपने मन्त्रियों को यह कह कर चुप करा दिया कि आपको मध्यस्थ भाव से रहना चाहिए। क्रोधित राजा ने शुभ दिन अपनी पुत्री का लोक निदित विवाह उस कोही के साथ अपने हाथों से कर दिया ।।११५, ११६।। धिक्त्वांधिक तवमूढत्वं धिग्गर्व पापकारणम् । प्रस्थानेऽपि महीनाथो येन जातो दुराग्रही ॥११७।। तद्विलोक्य तवा माता तस्यास्सौभाग्य सुन्दरी । शोकञ्चकार हा कष्टं कि कृतं कर्म भूभुजा ॥११॥ अन्वयार्थ-(तदा) विवाह के पश्चात् (तद्विलोक्य ) उस कार्य को देखकर (तस्याः) मदनसुन्दरी की (माता) भा (सौभाग्यमुन्दरी) सौभाग्यसुन्दरी राजा के प्रति (धिकत्वाम्) हे राजन् तुम्हारे लिए धिक्कार है (तव) तुम्हारी (मूढत्व) मुर्खता को धिक्कार है (पापकारणम ) इस पाप के कारणोभूत (तव) तुम्हारे (गर्वम ) अहंकार को (धिक्) धिक्कार है (येन) जिस घमा के कारण से (महीनाथो) राजा होकर भी (अस्थाने) अनावश्यक स्थान में (अपि) भी (दुराग्रही) कदाग्रही (जातः) हुए (हा) हाय-हाय (कष्टं) महादुःस्त्र है (भूभुजा) राजा के द्वारा (किं) क्या (कर्म) दुष्कर्म (कृतम) किया गया इस प्रकार (शोकम) शोक (चकार) करने लगी। भावार्थ-प्राणियों को शुभाशुभ कर्मो का फल भोगना ही पड़ता है । कहाँ देवामना Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद सदृश सुकुमारी राजकन्या और कहाँ यह कुष्ठी पति ? जिस समय मदनसुन्दरी की माता सौभाग्यसुन्दरी ने इन विपरीत वर-वधु को देखा तो उसके शोक की सीमा न रही । राजा के प्रति उसका कोप प्रज्वलित हो उठा। पति के अविवेक ने उसका धैर्यबांध तोड़ दिया । वह अपने को मौन रखने में सर्वथा असमर्थ हो गई। नृपति के प्रति बोली हे नाथ ! आपने यह अयोग्य कार्य क्यों किया ? आपके इस अयोग्य कार्य को धिक्कार है, आपको भी धिक्कार है और अकारण इस कोप को एवं अयोग्य स्थान में किये घमण्ड अहंकार को भी धिक्कार है। आप महीपति कहलाते हैं । पुत्री का रक्षण नहीं कर सके फिर क्या प्रजापालन कर सकोगे ? हे राजन् अापने दुराग्रही बन कर यह अयोग्य, पापरूप, दुःखकारी कार्य किया है ।।११:७,११८ ।। तदा स्व मातरं प्राह पुत्री मदनसुन्दरी । भो मातः नियते शोकः कथं संतापकारकः ॥११॥ अन्वयार्थ--(तदा) तब, माता को शोकाकुल, विलखती देखकर (पुत्री) कन्या (मदनसुन्दरी) मदनसुन्दरी (स्व) अपनी (मातरम् ) माता को (प्राह) कहने लगी (भोमातः) भो माँ ! (संतापकारक:) पीडा उत्पादक (शोकः) शोक (कथं) कैसे (क्रियते) करती हो __मावार्य-माता को शोकाकुल, विलखती देखकर पुत्री मदनसुन्दरी ने बड़े शांत भाव से समझाते हुए कहा, हे माता तुम क्यो इतना संताप करती हो क्योंकि ---||११६ ।। शुभाशुभं फलत्युच्च मातः कर्मणा कृतम् । जन्तोस्तस्मात् ममैवात्र शरण्यं जिनशासनम् ॥१२०॥ अन्वयार्थ-(भो मातः) हे माता (जन्तोः) प्राणी का (कुतम् ) किया गया (कर्मणा) कर्म के अनुसार (शुभाशुभं) शुभ और अशुभ (उच्चैः) विशेष रूप से (फलति) फलता है (तस्मात् इसलिए (अत्र) अब यहाँ (जिनशासनम) जिनेन्द्र भगवान का शासन (एव) ही (मम) मेरे लिए. (पारण्यं) शरण है । अर्थात् शरण योग्य है। भावार्थ--हे मातेश्वरो, आप जन्मदात्री हैं, पालन-पोषण कर मुझे योग्य बनाया किन्तु यह सब सुस्त्र-दुःख का मूल हेतु जीव का अपना निज उपार्जित कर्म-निमित्त ही है । स्वयं जीव शुभ और अशुभ अच्छा-बुरा कर्म करता है उससे पुण्य और पाप कर्म अजित करता है । उसकी स्थिति पूर्ण होने पर वही बद्धकर्म जीव को सुख या दुःख देता है । मेरा अशुभकर्म उदय में आने से सबका विचार ऐसा हुआ है । इस अशुभपापकर्म को दूर करने का समर्थ निमित्त कारण जिनशासन है। वही मुझे शरण देने वाला है। उसी की अर्चना से यह कष्ट अवश्य निर्वृत्त होगा। अतः हे मात, तुम शोक मत करो। मैं जिनशासन की शरण में जाती हूँ ।।१२०।। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोटी के साथ शादी नहीं करने के लिए मन्त्री राजा को समझाते हैं । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . A.COM LLICILIHI R 14 SAR 24.. ama L ऊपर--मैना सुन्दरी की कोडी श्रीपाल के साथ शाबो करदी। मोधे--मैना सुन्दरी की शादी के बाव उसके पिता-माता पश्चाताप के प्रांसू बहाते हुए । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ] इत्येवं जिनधर्मज्ञा निश्चला सा गुणोज्वला । मातरं बोधयामास सतो संतोषशालिनी ।। १२१ ॥ [ १२५ अन्वयार्थ - - ( इत्येवम ) इस प्रकार नाना युक्ति प्रमाण बाक्यों से (सा) उस मदन सुन्दरी ( गुणोज्वला ) जो अपने गुणों से प्रकाशमान ( जिनधर्मज्ञा ) जिनधर्म की मर्मज्ञ ( निश्चला ) सुढ सम्म् (संतोषी (सती) शीलवती ने ( मातरम् ) अपनी जननी को ( बोधयामास ) समझाया 1 भावार्थ - यद्यपि मैना के समक्ष विषम परिस्थिति थी, किन्तु वह तनिक भी उससे घबराई नहीं । विवेक इसी का नाम है। भयंकर विपत्ति आने पर भी विवेक न छोड़े, कर्तव्यच्युत न हो । वह शील, संयम, धैर्य, आदि गुणों की खान थी। सुवर अग्नि में तपकर, होरा शान पर चढकर, मेंहदी पिसकर चमकते हैं, रंग देते हैं उसी प्रकार इस भाग्य परीक्षा की बेदी पर बलि चढाई गई मैना सुन्दरी के गुण समूह चमक उठे। वह जिनधर्म के मर्म को भलिभांति जानने वाली और शील सम्यक्त्व से विभूषित थी। पूर्ण विवेक से उसने अपनी चिलखती माता को आश्वासन दिया। भले प्रकार समझाया । स्वयं श्रानन्द से अपने सतीत्व और सन्तोष चल पर पिता द्वारा किये कार्य को स्वीकार किया। साम्यभाव की पुतली ही उस समय प्रतीत हो रही थी । परन्तु जनता में सभी एक समान तो होते नहीं । कौन किसका मुंह बन्द करे । चारों ओर नाना आलोचना- प्रत्यालोचना होने लगी ।। १२१|| निन्दन्तिस्म तदा केचिद्राजानं युक्तिवजितम् । केचिद्राज्ञश्च केचिच्च विधातारं परेजनाः ॥ १२२ ॥ 1 अन्वयार्थ ( तदा) विवाह हो जाने पर ( केचिद्) कोई (युक्तिवर्जितम् ) युक्ति विहीन ( राजानम् ) राजा को ( निन्दन्तिस्म) निन्दनीय कहते थे तो (केचिद्) कुछ लोग (राज्ञीम् ) रानी को (च) और ( परेजनाः) दूसरे जन ( विधातारम् ) भाग्य की निन्दा करते थे। भावार्थ- - इस अयोग्य पाणिग्रहण संस्कार के होने पर कुछ लोग राजा की निन्दा करते थे तो कुछ लोग रानी की निन्दा में जुट गये। माँ की ममता विशेष होती है । इसने राजा को क्यों नहीं रोका। क्या इसकी ( रानी की) अनुमति बिना विवाह होता ? कोई कहता, माता-पिता दोनों ही अन्धे हो गये ? ऐसा तो कोई सामान्य मनुष्य भी नहीं करता ? भला कौन अपनी दुलारी को जानकर कुए में डालेगा ? अन्य कुछ लोग कहते माता-पिता क्या करें ? यह भाग्य की विडम्बना है। भाग्य बलवान है । पाप कर्म तीव्ररूप में उदय आत है तो सबकी मति फिर जाती है। कन्या का कहना ही सत्य है जीव अपने किये कर्मों का फल स्वयं ही भोगता है । 'अब पछताये होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत ।" इस प्रकार नानाप्रकार की बाचालता फैल गई ।। १२२| Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद विवाहानन्तरं तत्र भत्तः पाणिविमोचने । प्रणामं कुर्वती पुत्री सती कल्पलतामिव ॥१२३॥ पश्यन् राजास्वचित्ते च पश्चात्तापेन तापितः । हा मया कि कृतं कर्मसुतायाः कष्टकारणम् ॥१२४।। अन्वयार्थ .... (विवाहानन्तरम्) विवाह विधि सम्पन्न होने पर (भ: पति का (पाणिविमोचने) कर विमोचन हो जाने पर (कल्पलताम) कल्पवल्ली (इव) समान (सती) भीलवती (पुत्री) बेटी (प्रणाम) पिता को प्रणाम (कुर्वतीम् ) करती हुवी को (पश्यन् । देखता हुआ (राजा) भूपति (स्वचित्ते) अपने हृदय में (पश्चात्तापेन) पश्चात्ताप की ज्वाला से (तापितः) जलने लगा (च) और विचारने लगा (हा, कष्ट) महादुःत्र है (सुताया:) पुत्री के (कष्टकारणम) पीडा के कारण भूत (कर्म) यह कार्य (मया) मेरे द्वारा (कि) क्या (कुतम) कर दिया गया। भावार्थ-राजा की आज्ञानुसार, विद्वान पंडितों ने विवाह की सकल विधिविधान विधिवत् सम्पन्न कर दिये । अन्त में पति को कर विमोचन विधि भी हो गई। इसके बाद मदनसुन्दरी ने विनयपूर्वक पिता को नमस्कार किया। निर्विकार-निर्दोष पुत्री के सरलमुखपङ्कज की ओर दृष्टि पडते ही राजा का हृदय कांप गया। वह कि वार्तव्य विमूढ सा रह गया । उसके द्वारा किया गया अनर्थ मानों उसे करनी का फल चखाने आ खडा हुआ । भुपाल का चित्त पश्चात्ताप की ज्वाला से अलसने लगा । दुराग्रह की विडम्बना उसके सामने नाचने लगी । उसको प्रतीत हुआ कि उसने कितनी भयङ्कर भूल की है। वह स्वयं को कोसने लगा, धिक्कारने लगा। मन ही मन सोचने लगा, हाय-हाय यह भयङ्कर दुष्कर्म मेरे द्वारा कैसे किया गया ? इसका परिणाम मेरी दुलारी सुकुमारी को कितना भयप्रद, दुखद, पीडाकारक होगा । मैंने स्वयं अपने हाथों से अपनी नयन दुलारी को यह कष्टकारक कार्य उत्पन्न कर दिया अब क्या होगा ? कैसे सहेगी यह बाला ? क्या करूं ? कहाँ मैं और कहाँ मेरा यह दुष्कर्म ? ।।१२३।।१२४॥ क्वेयं कन्या स्वरूपेण बिडम्बित सुराङ्गना। क्वायंवरो गलत्कुष्टमण्डितो निज कर्मणा ।।१२।। अन्वयार्थ-(स्वरूपेण) अपने सौन्दर्य से (विडम्बित, सगङ्गना) देवाङ्गना को भी तिरस्कृत करने बाली (इयं) यह (कन्या) कन्या (क्व) कहाँ ? और (निजकर्मणा) अपने पापकर्म द्वारा (गलत्कुष्टमण्डितः) गलित कुष्ट से सहित (अयं) यह (वरः) वर (क्व) कहाँ ? भावार्थ--राजा प्रजापाल विलाप करता हुआ कहने लगा, हे भगवन् ! मैंने क्या किया ? अपने अनिंद्य सौन्दर्य से अप्सरा, रति को भी पराभूत करने वाली कन्या कहाँ और अपने दुष्कर्म के उदय से गलित कुष्ट से लत-पथ यह वर कहाँ ? अर्थात् यह मदनसुन्दरी तो Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेदः] [१२७ रति से भी अधिक लावण्यमयी है और इसका पति श्रीपाल गलित कोड से पीडित है। यह मिलन सर्वथा अयोग्य ही नहीं निध भी है । कण्टकारक है ॥१२५१५ कोमलां मालतीमालां रसालां चित्तहारिणीम् । कारीबाग्नौ क्षिपत्यज्ञस्तथा च मयकाकृतम् ॥१२६॥ अन्वयार्थ -जिस प्रकार कोई (अज्ञ) अज्ञानी (कोमला) कोमल (च) और (रसालाम्) अानन्ददायिनी (चित्तहारिणीम्) मन को हरने वाली (मालती माला) मालती पुष्पों से गुम्फित माला को (कारीपानी) कण्डे को जलती आग में झोंक दे (तथा) उसी प्रकार यह (मयका) मेरे द्वारा (कृतम्) किया गया है । भावार्य--जिस प्रकार कोई मुर्ख अज्ञानी सुन्दर, कोमल, सामर्षक मालतीमाला को कण्डे (उपले) की धधकती अग्नि में डाल देता है उसी मूर्ख के समान किया गया यह मेरा कार्य है। मैंने मेरी अत्यन्त कोमलाङ्गी, मधूरभाषिणी, सर्वप्रिय कन्या को कुष्ठी के साथ व्याहा है। यह दुखाग्नि की ज्वाला में डालने के सहश कार्य है ।।१२६।। और भी चिन्तारत्नं यथा कोऽपिमढः क्षिपतिकर्दमे । कन्यारत्न तथा दिव्यं महास्थाने नियोजितम् ॥१२७॥ अन्वयार्थ - (यथा) जिस प्रकार (कोऽपि) कोई भी (मूढः) मूर्ख व्यक्ति (चिन्तारत्नम् ) चिन्तामणिरत्न को (कर्दमे) कीचड में (क्षिपति) फेंक देता है (तथा) उसी प्रकार (दिव्यं) अनुपम (कन्यारत्नम ) बान्यारत्न को (महास्थाने) भयंकर अयोग्य स्थान में (नियोजितम्) नियुन किया है। भावार्थ भूपाल सोच रहा है, जिस प्रकार कोई मुर्ख अज्ञानी मनुष्य चिन्तामणि को पाकर उसे पंक (कीचड) में डाल देता है उसी प्रकार मैंने चिन्तामणि सदृश अपने कन्यारत्न को अयोग्य व्यक्ति के हाथ में सौंप दिया है। विवेकी योग्य वस्तुओं का संयोग कराता है परन्तु अबिवेकी. मूर्ख पुरुष योग्यायोग्य का विचार नहीं करता । मेरी भी यही दशा है ।।१२७।। सन्तिदुष्टानराः केचित् स्वार्थिनश्शत्रुकाविषु । मां विहाय न कोप्यस्ति पुत्रीसंतापकारकाः ।।१२।। अन्वयार्थ --- (केचित्) कुछ (स्वार्थिनः) स्वार्थी (नराः) मनुष्य (शत्रुकादिपु) शत्रुओं, विरोधियों में (संतापकारकाः) कष्ट देने वाले (सन्ति) हैं किन्तु (पुत्रीसंतापकारकाः) पुत्री को संताप देने वाला तो (मा) मुझको (विहाय) छोडकर (कोऽपि) कोई भी (न) नहीं (अस्ति) है। भावार्थ संसार में शत्रुओं को त्रास देने वाले बहुत हैं। अपने प्रतिकूल चलने वालों Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद को भी कष्ट देने वाले हैं । विरोधियों का दमन करने वाले भी हैं । अपराधी को दण्डदाता भी हैं। परन्तु अपनी ही निर्दोष-निरपराध पुत्री को भीषण ताप देने वाला मुझको छोड़कर अन्य कोई नहीं है। मैं ही एकमात्र पापो हूँ जो अपनी पुत्री को जानकर कष्ट में डाला है ।।१२।। पुन: सोचता है भूताविष्टो नरश्चापि वेत्ति किञ्चिद्धिताहितम् । अहं किञ्चिन् न जानामि मूढात्मा पाप कर्मणा ॥१२६।। अन्वयार्थ -(च) और भी (भूताविष्टो) भूत-प्रेत को बाधा वाला (अपि) भी (नर:) मनुष्य (किञ्चित) कुछ (हिताहितम्) हित और अहित को (वेत्ति) जानता है, किन्तु (मूढात्मा) मूर्ख बुद्धिहीन (अहं) मैं (पापकर्मणा) पापकर्म से (किञ्चिन्) कुछ भी (न) नहीं (जानामि) जानता हूँ | भावार्थ-लोक में देखा जाता है, जिस किसी मनुष्य को भूत, प्रेत, पिशाच की वाधा होती है, वह बेहोश हो जाता है, तो भी थोडा-बहुत विवेक रहता है । अर्थात् कभी सही और कभी गलत जानता है । राजा सोच रहा है कि मैं तो उस पिशाच ग्रस्त से भी अधिक मुढ हैं-पागल हो रहा हूँ। मेरे शिर पर पापकर्म का भूत चढा है। मैं उसी के वशवर्ती हो रहा हं। पापकर्म पिशाचों का भी पिशाच है । इसी से मेरी बुद्धि सर्वथा नष्ट हो गई है। परन्तु अब क्या करू ? मात्र पश्चात्ताप ही शेष है-ठीक ही है - ।।१२६।। यो विचारंबिनाकार्य करोति मतिजितः । पश्चात्तापेन पापेन तप्यते स यथाहकम् ।।१३०।। अन्वयार्थ – (यः) जो (मतिबर्जितः बुद्धिहीन (विचार) सोचे (बिना) बिना (कार्य) काम (करोति) करता है (स) नई (पश्चात्तापेन) पश्चात्तापरूप (पापेन) पाप से (तप्यते) ताधित होता है (यथा) जिस प्रकार (अहकाम्) मैं हूँ। भावार्थ - मैंने इतना परिथम किया। धन खर्च किया। फल क्या मिला ? हाथ मलना और शिर धुनना । भूपति सोचता है ठीक ही है "विना विचारे जो करे सो पाछे पछताय" बिना-सोचे-विचारे जो काम करता है वह अन्त में पश्चात्ताप की ज्वाला में जलता ही है। यही दशा मेरी है। मेरे जैसा और कौन होगा ? मैं पश्चात्ताप से मृत समान हो रहा है। वास्तव में कर्मवली के सामने किसी का वश नहीं चलता ।।१३०।। कहा भी है शुभाशुभं भवेन्नित्यं जन्तूनां कर्मयाकतः । किं करोत्यथवा लोके पिता-माता सु बान्धवाः ।।१३१।। अन्वयार्थ (नित्यं) सदैव (जन्तूनां) प्राणियों के (कर्मविपाकतः) कर्मोदय मे Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ] [ १२९ ( शुभाशुभम् ) अच्छा बुरा ( भवेत् ) होता है ( लोके) संसार में ( माता-पिता) माँ बाप ( अथवा ) अथवा ( बांधवा:) पारिवारिकजन (क्रि) क्या (करोति) करता है ? भावार्थ-नाशकाले विपरीत बुद्धि” युक्ति को चरितार्थ करने वाले राजा को अनर्थ करने के बाद बुद्धि आई । अब विचार रहा है कि वस्तुतः भाग्य ही बलवान है । प्राणियों का अच्छा-बुरा भाग्यानुसार ही होता है। शुभकर्म सुखदाता और अशुभकर्म दुःख का ट्रेन है। संलगन में मङ्गना, दिना का हे त्या अन्‌य मेरे साम है। कोई कुछ भी नहीं कर सकता है । नित्र अर्जित कर्म को छोड़ कर कोई भी किसी का कर्त्ताधर्त्ता नहीं है | इत्यादिकं विधायोच्चैः पश्चात्तापं नराधिपः । Eat तस्मै तदा सप्तभूमि, प्रासादमुत्तमम् ॥ १३२॥ अन्वयार्थ - - ( इत्यादिकम) उपर्युक्त प्रकार (उच्च) नाना प्रकार से ( पश्चात्ताप ) पश्चात्ताप-शोक (विधाथ) करके ( नराधिपः ) नृपति ( तस्मै ) कन्या के लिए ( उत्तमम् ) श्रेष्ठ (सप्तभूमि) सतना ( प्रासादम् ) महल (ददी) दहेज में दिया । 'भावार्थ · अनेकों प्रकार से ऊहापोह, तर्क-वितर्क कर राजा पछता कर दुखी हुआ । उसने निर्णय किया व तो पाणिग्रहण संस्कार हो ही गया । कुलजानों का एक ही वर होता है । कन्या का ही विवाह आगम बिहित है। अतः इसमें तिलभर भी परिवर्तन नहीं हो सकता । कुलीन, सती कन्या अपने एकमात्र अग्नि की साक्षी पूर्वक प्राप्त वर को पाकर ही संतुष्ट रहती है वह योग्य-अयोग्य कैसा भी क्यों न हो। अतः अब मुझे एक ही कार्य करना चाहिए कि कन्या के रहने निवासादि की पूर्ण व्यवस्था की जाय । इस प्रकार विचार कर उस राजा ने अपनी पुत्री को सात मञ्जिल का महल प्रदान किया। इस प्रत्यक्ष उदाहरण से विधवा विवाह के समर्थकों को अपना दुराग्रह छोड़ना चाहिए । पापकर्म में अबलाओं को फंसाकर उनके प्रति अत्याचार करने का त्याग करना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि विवाह कन्या का ही होता है । कन्या तभी तक नारी रहती है जब तक कि किसी भी पुरुष को मातापिता बन्धु वर्ग द्वारा अग्नि को साक्षी पूर्वक प्रदान न की जाय । विवाह होते ही वह पत्नी हो जाती है। पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के लिए वह परस्त्री हो जाती है, यतः असेव्य हो जाती है | पत्नी होने पर उसके लिए भी पति के अतिरिक्त अन्य समस्त पुरुष पिता, भाई और पुत्र सदृश हो जाते हैं भला उनका सेवन कैसे योग्य होगा ? कभी नहीं, सर्वथा हेय है, अयोग्य है । अतः न्यायपथ पर आये हुए राजा ने अपनी पुत्री को अन्य सर्व सामग्री निम्न प्रकार प्रदान की दिव्याभरणवस्त्राणि स्वर्णमाणिक्यसंचयम् । दासीदासता मुच्चैश्चामरादि विभूतिभिः ॥१३३॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्वेद अन्वयार्थ---(चामरादि) चमर, छत्र, सिंहासनादि (विभूतिभिः) वैभव के साथ (दिव्याभरण) सुन्दर आभरण (वस्त्राणि) अनेक प्रकार के वस्त्र (स्वर्ण माणिक्य) सुवर्ण, माणिकादि नवरत्नों का (संचयम् ) समूह (उच्चः) अनेकों वैभव (च) और (माताम्) सैकड़ों (दास-दासी) सेवक सेविकाएँ । तथा-- बदातिस्म तदा राजा राजचिन्हानि भूरिशः । श्रीपालाय महोत्तुङ्ग मातङ्गतुरगादिभिः ॥१३४।। अन्वयार्थ (तदा) तव (राजा) राजा ने (महा) बहुत (उत्तुङ्ग) ऊँचे (मातङ्ग) हाथी (तुरंग) धोड़ (आदिभिः) आदि के साथ-साथ (भूरिश.) बहुत से (राजचिन्हानि) राजचिन्ह (श्रीपालाय) श्रीपाल जंवाई के लिए (ददाति स्म) दिये ।। भावार्थ--राजाने अर्थात् मैनासुन्दरी के पिता ने श्रीपाल जंवाई के लिए समस्त राजचिन्ह भेंट किये । विशाल-विशाल अनेकों गज दिये । तीव्र वेगशाली अश्व प्रदान किये । और भी जो जो सामग्री व्यावहारिक जीवन में आवश्यक होती हैं वे सभी पदार्थ दहेज में दिये ।।१३४।। श्रीपालाऽपि तदा प्राप्त सम्पदासार सञ्चयः । स्व प्रासावे तया सार्द्ध संस्थितस्सपरिच्छवः ॥१३॥ अन्वयार्थ--(सम्पदासार) सारभूत सम्पत्ति का (सञ्चय:) समूह (प्राप्तः) प्राप्त करने वाला (श्रीपालोऽपि) श्रीपाल कोटीभर भी (तदा) तव (तया) उस मदन सुन्दरी राजकुमारी के (सार्द्धम्) साथ (सपरिच्छदः) परिकर सहित (स्व) अपने (प्रासादे) महल में (संस्थितः) रहने लगा। मावार्थ-विवाह उत्साह-अनुत्साह के मध्य हो गया। श्रीपाल को वर दक्षिणा में अनेकों सम्पदाएँ प्राप्त हुयीं । सभी सम्पत्तियों का सार वह अनुपम सुन्दरी, गुणागार, पतिभक्ता पत्नि थी। उसके साथ सूख से ससुर से प्राप्त अपने राजभवन में स्थित हना। सभी परिकर भी यथायोग्य, यथास्थान उसकी सेवा में रत हुए । सात सो मित्र उसी के अनुरूप थे अत: उसका राजत्व स्वीकार कर सेवा में तत्पर हुए। कुष्ठिनोऽपि पृथक् सर्वेपरे भूरिगृहेषु च । श्रीपालं तं समाश्रित्य तस्थुस्सेवा विधायिनः ॥१३६।। अन्वयार्थ-(परे) अन्य (सर्वे) सभी (कुष्ठिनः) कोढी जन (अपि) भी (भूरिगृहेषु) अनेकों गृहों में (तं) उस (श्रीपालम्) श्रीपाल को (समाश्रित्य) आश्रय करके (च) और (सेवाविधायिनः) सेवा तत्पर हो (तस्थु) रहने लगे। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद] [१३१ भावार्थ-मैंना के पिता राजा ने सभी साथी कुष्ठियों को यथायोग्य पृथक्-पृथक धर बनवा दिये । सभी बेचारे कर्म के सताये धोपाल को अपना आश्रयदाता मानकर उसकी सेवा में तत्पर हुए । अभिप्राय यह है कि शरीर पीड़ा से पीडित महाराज श्रीपाल इस अवस्था में भी राज्यत्व भाव से संयुक्त था । अर्थात् उसके सभी साथी प्रजा के रूप में वहां बस गये और श्रीपाल को अपना नेता राजा बनाया । ठीक ही है तरासने पर भी हीरा की चमक कम नहीं होती, अपितु और अधिक हो जाती है । इसी प्रकार महापुरुषों का जीवन आपत्तियों से अभिभूत नहीं होता, अपितु विशेष समुज्वल होता जाता है ।।१३६।। इत्थंविवाहविधिना स नरेन्द्र पुत्रीम् । सम्प्राप्य पावनति जिनधर्मरक्ताम् । यावस्थितो विधिवशानवभाविभूतिः । श्रीपालनाम नृपतिश्च तदा प्रसङ्गः ॥१३७॥ अन्वयार्थ--(इत्थं) इस प्रकार (पावनमतिम्) निर्मलबुद्धि वाली (जिनधर्मरक्ताम्) जिनधर्म में लीन रहने वाली (नरेन्द्रपुत्रीम्) राजा की पुत्री को (विवाहविधिना) विधिवत् विवाह करके (सम्प्राप्य ) प्राप्त कर (स) वह (श्रीपालनामनपति:) श्रीपालनाम का राजा (यावत्) जब तक (स्थितः) स्थिर हुआ कि (विधिवशात) भाग्यवश (तदा) तभी (नव) नवीन (भाविभूतिः) भविष्य की विभूति का (प्रसङ्गः) प्रसङ्ग आया । मावार्थ--इस प्रकार महाराज श्रीपाल ने अद्भुत सुन्दरी, अद्वितीय विदुषीरत्न, जिनधर्मरता, सिद्धान्त शास्त्रज्ञा, तथा अनेकान्त सिद्धान्त की वेत्ता उस राजकुमारी मैनासुन्दरी को विवाहविधि के अनुसार परिनरूप में प्राप्त किया । उसके साथ बह सुख पूर्वक स्थिर हुआ मानों भाबिविभूति की सूचना का यह प्रसङ्ग था । अर्थात् 'बिवाह क्या था श्रीपाल के भविष्य जीवन के विकास की सुचना थी । वस्तुतः माविबलवान होती है । भाग्योदय की सूचना पाकर वे नवदम्पत्ति आशान्वित हुये ।।१३७।। इति श्री सिद्धचक्रपूजातिशयसमन्वित श्रीपाल महाराज चरिते भट्टारक श्री सकल. कीति विरचिते मदनसुन्दरी विवाह वर्णनो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।। दूरण्डवासमै समाप्तम्-शुभमस्तु।। . . . . -. . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अथ तृतीय सर्गमारभ्यते" "तीसरा सर्ग प्रारम्भ होता है" अर्थकदा तया तत्र स नीतो जिममन्दिरम् । भार्यया च संतापनाशनं शर्ममन्दिरम् ॥१॥ अन्वयार्थ-(अथ) दोनों दम्पत्ति मुख से रहने लगे। तब (ऐकदा) एकदिन-एक समय (तया) उस (भार्यया ) पत्नी मदनसुन्दरी द्वारा (स) वह थोपाल राजा (सताप नाशनम् ) सन्तापनाशक (शर्ममन्दिरम् ) शान्तिदायक (च) और (तत्र) उस पापनाशक {जिनमन्दिरम् ) जिन भगवान के मन्दिर में (नीतः) लाया गया। भावार्थ-मदनसुन्दरी भक्तिपरायण थी । जिनभक्ति उसकी रग-रग में समायी थी। उसने अपने जील, मौजन्य, पतिभक्ति, सेवापरायणता से श्रीपाल का मन अपने में पूर्ण अनुरक्त कर दिया था । श्रीपाल उस अमरसुन्दरी गुणभूषणा को पत्नी रूप में होत्फुल्ल तो था ही उसका पूर्ण सम्मान भी करता था और उसके विचारानुकल कार्य भी करता था । अत: किसी एकदिन अवसर पाकर विनयपूर्वक्र श्रीपाल को श्रीजिन भगवान के दर्शन करने के लिए जिन मन्दिर में पधारन को प्रार्थना की । श्रीपाल ने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया । अत: पति को लेकर, संताप को नाश करने वाले, शान्ति के निलय, सुखदायक जिनालय में प्रायो ।।१।। समभ्यर्च्य जिनाधीशान् सुरासुरसचितान् । स्तुति संचक्रतुस्तत्र दम्पत्ती तो सुखप्रेदान् ।।२।। अन्वयार्य--(तत्र) वहाँ जिनालय में जाकर (नौ) वे दोनों (दम्पत्ती) पति-पत्नि (सुरामुरसमचितान्) सुर और असुरों से पूजनीय (सुखप्रदान्) नाना सुखों के देने वाले (जिनाधीशान्) जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं को (समभ्यय) सम्बप्रकार विधिवत् पूजकर (स्तुति) स्तुति (संचऋतुः) करने लगे । भावार्थ -मैना सुन्दरी एक दिन अपने पूज्य पतिदेव श्रीपाल को लेकर जिनदर्शन को जिनालय में प्रायो। वह जिनालय परमपावन, शान्तिप्रदायक था । उसमें अनेकों रत्नमय जिनप्रतिमाएं विराजमान थी । सुर-असुरादि आकर वहाँ जिनबिम्बा को पूजा भक्ति करते थे । उन दोनों ने भी यथायोग्य उनको अष्टद्रव्य से विधिवत् पुजा की । अर्चना करके पुनः दोनों जिनभगवान की स्तुति करने लगे ।।२।। जय त्वं श्रीजिनाधीश सर्वदेवेन्द्रवन्दितः । जय त्वं गुणमाणिक्यरञ्जिताखिल भूतलः ॥३॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / ... R -- - - - -- - - Mact A. मैनासुन्दरी अपने कोढी पति श्रीपाल गे जिनमन्दिर में पधारने की प्रार्थना करने हए । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [ १३३ अन्वयार्थ--(श्रीजिनाधीश! ) हे श्री जिनाधीश ! (सर्वदेवेन्द्रवन्दितः) आप सम्पूर्णइन्द्रों-सौ (१००) इन्द्रों से वन्दनीय हैं (जयत्वम्) जयवन्त हों आप । (अखिल भूतलः) सम्पूर्णभूमितल-तीनलोक (गुणमाणिक्यरन्जितः) आपके गुण रूपी माणिकरत्न से अनुरञ्जित है ऐसे (त्वं ) आप (जय) जयशील हो। भावार्थ--हे श्री जिनाधीश ! आपकी १०० इन्द्र नित्य वन्दना करते हैं । भवनवासियों के ४० इन्द्र, व्यन्तरों के ३२ इन्द्र, कल्पवासियों के २४ इन्द्र, ज्योतिषियों के २ मनुष्यों का १ चक्रवर्ती और तिर्यञ्चों का १ सिंह । इस प्रकार सब ४०+ ३२+२४+२+१+१+ १०० इन्द्र होते हैं । आप अनेक गुणरूपी माणिक्य रत्नों के भण्डार हैं। इन गुण मणियों से तीनों लोक अनुरञ्जित हैं । माणिकरत्न अरुण वर्ण का होता है उससे लाल ही किरणें निकलकर भूमितल को अरुणवर्ण कर देती हैं किन्तु रत्न की प्रभा सीमित होती है, सीमित स्थल को ही लाली से व्याप्त करती है। परन्तु आपके गुण रूपी अनन्त माणिक्यरत्नों की अनन्त प्रभा समस्त भूमण्डल को अभिव्याप्त कर लेती है । अर्थात् आपके गुणों से संसार का प्राणिमात्र आनन्दित होते हैं । तीनों लोक आपकी गुणगरिमा से अनुप्राणित है । हे सर्वेश आपकी गुणगरिमा से अनुप्राणीत हैं । हे सर्वेश आपकी जय हो ।।३।। जय त्वं अव्यसंटोहकमलाकर भास्करः । दुष्टदारिद्रयरोगाग्नि शमनंक घनाघनः ॥४॥ अन्वयार्थ---[ख] आप हे भगवन् [भव्यसंदोहकमलाकरभास्कर:] भव्य-जनसमूहरूपी कमलों के प्राकर को विकसित करने के लिए सूर्य हैं, [दुष्टदरिद्रता-रोगरूप अग्नि के लिए शमन-शान्त करने के लिए आप महा घनघोर वर्षा करने वाले मेघ हैं) दुष्टदारिद्रयरोगाग्नि) भयंकर दरिद्रता, रोगरूपी अग्नि को (शमनैक) बुझाने के लिए एकमात्र (घनाघनः) महाघनघोर मेघ हैं हे प्रभो (जय) आपकी जय हो। भावार्थ- सूर्योदय से कमलसमुह विकसित हो जाते हैं । सरोवर विहंसने लगता है। उसी प्रकार हे भगवन ! पाप भव्यगुण्डरीकों को विकसित करने वाले ज्ञानरवि हैं । संसारी प्राणियों को दुष्टदरिद्रता, रोगादि अग्निवत जलाते हैं उस दाह से संतप्तप्राणियों को दाहसंताप से रक्षा करने वाले पाप घनघोर मेध हैं । आप को सदा जय हो ।।४।। जय सर्वेश तीर्थेश वीतराग जगद्धित । जय देव क्यासिन्धो भन्यबन्धोऽप्यबंधनः ॥५॥ अन्वयार्थ--(सर्वेश) हे सर्व ईश्वर (वीतरागः) हे वीतरागो (जगद्धितः) हे जगत के हितकर्ता ! (दयासिन्धो) हे कृपासागर (प्रबन्धनः) कर्मबन्ध रहित (अपि) भी आप (भव्यबन्धुः) भव्य जीवों के हितकर्ता बन्धु हैं । (देव) हे देव (जय) आप जयशील हों। मावार्थ -हे प्रभो ! आप प्राणीमात्र के ईश-रक्षक हैं। आपने राग-द्वेष को नष्ट Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद कर दिया आप वीतराग हैं । माप संसार का हित करने वाले हैं । आप दया के सागर हैं । स्वयं बन्धनमुक्त हैं तो भी भव्यों के बन्धु हैं। हे देव आपकी जय हो । आप सदैव जयशील हों ॥५॥ जन्ममृत्युजरातङ्कनाशनक भिषावर । जय तेजोनिधे देवलोकालोक प्रकाशकः । अन्वयार्थ हे प्रभो आप (जन्ममृत्युजरातङ्कनाशन) जनम, मरण और बुढापा रूपी रोग का सर्वनाश करने के लिए (एक) एकमात्र (भिषग्वर) वैद्य हैं (तेजोनिधे) तेज के निधान हैं । हे तेज के धाम ! (लोकालोक प्रकाशक!) हे लोक और अलोक के प्रकाश करने वाले (हे देव) हे देव (जय) आपको जय हो । अाप जयवन्त रहें ।।६।। जय त्वं जिनराजोच्चस्सप्ततत्त्वार्थ दीपक । जय सर्वज्ञ संसिद्ध स्वयंसिद्ध विशुद्धिभाक् ॥७॥ अन्वयार्थ (सप्ततत्त्वार्थ दीपक:) सात तत्त्वों के स्वरूप प्रकाशक प्रदीप (जिनराजः) हे जिनेन्द्र प्रभो (त्वं) आप (उच्चैः) विशेष रूप से (जय) जयशील हों, (सर्वज्ञ) हे सर्वज्ञ (संसिद्ध) हे सिद्धोपासक (स्वयंसिद्ध) हे स्वयंबोध (विशुद्धिभात) हे विशुद्धात्मा (जय) आपकी जय हो, जय हो। भावार्थ हे सर्वज्ञाता ! हे स्वयंबुद्ध; हे स्वयंसिद्ध ! हे विशुद्धि प्राप्त कर्ता ? आप सप्ततत्वों के अर्थ का सम्यक् प्रकाश करने वाले हैं । मापकी जय हो । जय हो ।।७।। अहो स्वामिन् जिनेन्द्र त्वं शुद्धरत्नत्रयान्वित । पोतस्त्वमेव भो देव ! संसाराम्बुधितारणे ॥८॥ अन्वयार्थ ---- (अहो) भी (स्वामिन् ) स्वामिन् (जिनेन्द्र) हे जिनदेव ! (शुद्धरत्नश्रयान्वित !) आप शुद्ध रत्नत्रय सम्पन्न, हे विभो (त्वं) आप (संसाराम्बुधितारणे) संसार सागर से तारणे को (भो देव) हे देव (त्वमेव) आप ही (पोतः) जहाज हो । भावार्थ:-हे स्वामिन् ! हे जिनेन्द्र ! आप शुद्धपरमावगाढसम्यग्दर्शन, केवलज्ञान और पूर्णसम्बकचारित्र स्वरूप रत्नत्रय से समन्वित हैं । भव्यजीवों को संसार रूपी सागर से पार करने के लिए आप सुदृद्ध नौका हैं। इत्यादिकं महाभरत्या स्तुत्वा श्रीमज्जिनेश्वरान् । नत्वा पुनपुनर्गाळ परमानन्द दायकान् ॥६॥ अन्वया-(इत्यादिकम्) उपर्युक्त नाना प्रकार से (महाभक्त्या) महानभक्ति से Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [ १३५ ( श्रीमज्जनेन्) श्रीमान् श्री जिनेन्द्रों को (स्तुत्त्वा) स्तवन करके ( परमानन्ददायकान् ) उन परमोत्तम आनन्द के देने वाले भगवन्तों को ( पुनः पुनः ) बार-बार (गाढं ) विशेष भक्ति से [ नवा ] नमस्कार कर॥६॥ ततस्तत्रावलोक्योच्चैस्सुगुप्ताचार्यमुत्तमम् । नवा तत्पादयोर्मूले संस्थितौ शर्मदायिनि ॥ १० ॥ श्रन्वयार्थ – [ ततः ] तब [ तत्रा ] वहाँ जिनालय में [उत्तमम् ] श्रेष्ठतम [सुगुप्ताचार्यम् ] सुगुप्ताचार्य नामक श्राचार्य को [ उच्चैः ] विशेषरूप से [अवलोक्य ] देखकर [ शर्मदाafa ] शान्तिप्रदायक [ तत्पादयोमूले | उनके चरण द्वय के सान्निध्य में [ संस्थित] दोनों बैठ गये 1 मावार्थ- नाना प्रकार से भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र प्रभु का गुणगान किया । सुमधुर स्वर से ललित पद्यों से स्तुति की परमानन्द को प्राप्त उन दोनों ने उन्हें बार-बार नमस्कार किया । पुन: वहाँ जिनालय में विराजे श्री सुगुप्ति नामक श्राचार्य परमेष्ठी भगवान को देखा । हर्षातिरेक से भरित वे उन आचार्य श्री के कल्याणकारी चरणद्वय के समीप नमस्कार कर बैठ गधे ॥ १० ॥ तन्मुनेर्धर्मवृद्धौ तौ संतुष्टौ मानसेतराम् । पीयूषधारया सिकौ यथा रोमाञ्चिताङ्गकौ ॥ ११ ॥ श्रन्वयार्थ - [ तन्मुने: ] उन मुनिराज से [ धर्मवृद्धी] धर्मवृद्धि प्राशीर्वाद प्राप्त करने पर [ तौ | वे दोनों [ मानसे | मन में [तराम् ] आतिशायि रूप से [ संतुष्टौ ] संतुष्ट हुए [ यथा ] जिस प्रकार मानों [ पीयूषधारया ] अमृत की धारा में [ सिक्तौ ] स्नानकर [ रोमातिङगको ] पुलकितमात्र हो गये । भावार्थ -- उन दोनों ने [ मैनासुन्दरी और श्रीपाल ने] आचार्य श्री को नमस्कार किया । गुरुराज ने उन्हें बात्सल्यमयी धर्मवृद्धि आशीर्वाद दिया । मुनिराज से आशीर्वचन प्राप्त कर उन्हें परमानन्द हुआ। दोनों आनन्दरूपी हर्षा कुरों से पुलकित हो गये । मानों अमृत की धारा में स्नान किया हो ॥। ११ ॥ पुनर्नवामुनिं प्राह तदा सवनसुन्दरी । भो स्वामिन् भय्य जन्तूनां मज्जतां भवसागरे ॥१२॥ हस्तावलम्बनं देव त्वया दत्तं महामुने दर्शनशानचारित्र रत्नत्रय विराजत ॥१३॥ मन्वयार्थ ( तदा) तव ( मदनसुन्दरी ) मैनासुन्दरी (पुनः) फिर से ( नत्त्वा) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] [ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद नमस्कार करके ( मुनिं ) मुनिराज को ( प्राह ) बोली ( भो स्वामिन् ) हे स्वामिन् (भवसागरे ) भवसमुद्र में (मज्जताम् ) इनते हुए ( भव्यजन्तुनाम) भव्यप्राणियों को ( महामुने) हे महामुनिराज (देव) हे देव ( दर्शनज्ञानचारित्रविराजत ) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र समन्बिते ! ( त्वया ) आप द्वारा ( हस्तावलम्बनम् ) सहारा (दत्तम् ) दिया गया है। अर्थात् संसार जलधि में डूबने वालों को हस्तावलम्बन देते हैं । भावार्थ आचार्य श्री से धर्मवृद्धि प्राप्त कर मदनसुन्दरी ने पुनः नमस्कार किया तथा गुरुस्तवन करने लगी हे स्वामिन्! हे रत्नत्रयमण्डिते, हे देव ! आप परमोपकारी हैं । अनेकों भन्यात्माओं को संसार सागर से पार उतारा है। दुःख समुद्र में हबते अनेकों को आप द्वारा हस्तावलम्बन दिया गया है । श्रूयतां भो कृपांकमा बचो मे लालोचन । या संस्थापितं कर्म पिता मे कुपितस्तराम् ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ - मदनसुन्दरी श्रीगुरु मुनिराज से अपनी व्यथा निवेदन करती है (भो) है. (ज्ञानलोचन ! ) ज्ञानरूपी नेत्र के धारक ! ( कृपाम) दया ( कृत्वा) करके (मे) मेरे (बचः) वचन ( श्रूयताम ) सुनिये, (मया) मेरे द्वारा ( संस्थापितं कर्म ) उपार्जित किये कर्म से ( मे ) मेरा (पिता) पिता ( तराभ्) अत्यन्त ( कुपितः ) क्रोधित हुआ । भावार्थ- मदनसुन्दरी मुनिराज के समक्ष निवेदन करती है। हे ज्ञानलोचन, श्रागम चक्षु मुनीन्द्र ! मैंने पूर्वभव में कौनसा दुष्कर्म किया था ? मेरे पिता मुझसे अत्यन्त कुद्ध हुए ? हे प्रभो ! आप सर्वज्ञाता हैं। कृपाकर मेरा संदेह दूर करें ।। १४ ।। " मुनिर्जगाद भी पुत्री यत्त्वया सुखदुःखयोः || कर्मवीजंकृतं तच्च सम्यक् त्वं स्थापितं त्वया ॥ १५ ॥ अन्वयार्थ - - उत्तर में मुनीश्वर कहने लगे ( मुनिर्जगाद :) मुनिवर बोले ( भो पुत्री ) हे बेटी (यत्) जो ( त्वया ) तुम्हारे द्वारा ( सुखदुःखयोः ) सुख दुःख का ( बीजम् ) बीज रूप (कर्म) शुभाशुभ कर्म ( कृतम ) किया गया है (तत् च ) और बह ( सम्यक् ) भले प्रकार से ( त्वया) तुम्हारे ही द्वारा ( त्वं ) तुमने (स्थापितम् ) अर्जित किया है । भावार्थ -- स्याद्वाद सिद्धान्त के ज्ञाता, अनेकान्त के अध्येता वे मुनिराज गम्भीर ललित वाणी में यथार्थ प्रतिपादक वचन कहने लगे । हे पुत्री ! जीव अपने द्वारा स्वयं उपार्जित कर्मबीज के फल- सुख-दुःख को स्वयं ही भोगता है। तुमने पूर्व भव में सुख-दुःख का कारणीभूत कर्म अपने द्वारा ही स्वयं संचय किया था । उसी बीजभूत कर्म आज तुम्हे सुख-दुःख रूप में उदय श्राकर फल दे रहा है । अर्थात् प्रथम सुख - पुण्य कर्म का फल भोगा राजपुत्री हुयी । हर प्रकार से सुखा पूर्वक सद्गुरु के सान्निध्य में अध्ययन का सुअवसर प्राप्त हुआ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१३७ तदनन्तर यह दुखद कर्मवृक्ष का फल भी कटु प्राप्त हुआ है । तो भी शान्ति से यह भी पार होगा । संसार में चक्रवत् सुख दुःख भ्रमण करते है ।।१५।। चिन्तां मा कुरु भो पुत्रि भर्तृ तेऽयं भविष्यति । दिब्यरूपी च नियाधी राज्यं प्राप्स्यति च ध्रुवम् ।।१६।। अन्वयार्थ---पुनः मुनिराज कहने लगे-(भो पुत्रि ! ) हे पुत्रि ! (चिन्ताम् ) चिन्ता (मा) मत (कुरु) करो (अयम् ) बह (ते) तुम्हारा (भत्तु) पति (दिव्यरूपी) अलौकिकसौन्दर्यशाली (भविष्यति) हो जायेगा (च) और (निाधि) रोग रहित भी होगा तथा (च) और (ध्र वम् ) निश्चय से (राज्यम ) राज्य (प्राप्स्यति) प्राप्त करेगा । ___ भावार्थ - अमृत समान मधुर वाणी में मुनिराज कहते हैं हे वेटो ! तुम चिन्ता मत करो, शोक तजो, प्रफुल्ल होओ। कुछ ही समय में तुम्हारे पति का कुष्ठरोग सर्वथा नष्ट होगा । कामदेव सदृश इसका रूप-लावण्य निखरेगा। यही नहीं निकट भविष्य में नियम से अपना राज्य प्राप्त करेगा ।।१६।। सा चोवाच सती तत्र पुनर्मदनसुन्दरी । भो स्वामिन् भवताप्रोक्तं तत्सत्यं संभविष्यति ॥१७॥ अन्वयार्थ-हर्ष से गद्गद् हुयी मैनासुन्दरी कहने लगी--(सा) वह मैंना (सतो) शोलवती (उवाच) बोलो (पुन:) फिर (मदनसुन्दरी) मैंनासुन्दरी (भोस्वामिन्) हे स्वामिन् (भवता) अापके द्वारा (प्रोक्तम् ) कहा हुआ जो है (तत्) वह (सत्यं) यथार्थ (संभविष्यति) ही होगा। भावार्थ हे बीतराग! हे गुरुदेव पाप सत्यवादी हैं । आपके निर्मलज्ञान में यथाथता ही प्रतिभासित होती है। हे परमपूज्य आपकी भविष्यवाणी अवश्य ही तदनुरूप फलित होगी । इस प्रकार उस सम्यक्त्वभुषिता मदनसुन्दरी ने गुरुवचन स्वीकृत किये । वह सम्यग्दर्शन मण्डित थी । देव, शास्त्र, गुरु वाणी पर उसका अकाट्य विश्वास-श्रद्धान था । अतः जैसा मुनिराज ने बताया है वैसा ही होगा इस प्रकार निश्चय कर परम हर्ष को प्राप्त हुयी ।।१७।। पुनः सुन्दरी पूछती है - तत्रोपायं कृपासिन्धो बाढं त्वं वक्तमहंसि । रानेन्तिं निराक कः क्षमो भास्कर बिना ॥१८॥ ___ अन्वयार्थ - पुनः (कृपासिन्धो) हे कृपासागर (तत्र) उस व्याधी के नाश का (उपायम् ) उपाय (वक्तुम ) कहने में (अर्हसि) समर्थ हैं (बाद) निश्चय ही (रात्रे:) रात्रि के (ध्वान्तम् ) अन्धकार को (निराकर्तुम ) दूरकरने को (भास्करं विना) सूर्य के सिवाय अन्य (क:) कौन (क्षमः) समर्थं है । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] [ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद भावार्थ--- मदन सुन्दरी मुनिराज जी से पूछने लगी। हे कृपासागर आपने इस व्याधी का कारण कर्म कहा, सो सत्य है । अब इस अशुभ पाप रूप कर्म के नाश का उपाय भी आपही कहने में समर्थ हैं । हे प्रभो इस रोग मुक्ति का उपाय बताने की दया करें। आपके अतिरिक्त और कौन इलाज कर सकता है ? रात्रि में व्याप्त तुमुल-सघन अंधकार का नाश सूर्य को छोड़कर भला और कौन कर सकता है ? कोई नहीं ||१५|| तनिशम्य मुनीन्द्रोऽपि जगौ संज्ञानलोचनः । शृणत्वं सावधानेन चेतसा ते गदाम्यहम् ॥। १६ ।। अन्वयार्थ ( निशम्य ) मदनसुन्दरी की प्रार्थना को सुनकर (संज्ञानलोचन: ) सम्यग्ज्ञान रूपी नेत्रधारी ( मुनीन्द्रः ) मुनीश्वर (अपि) भी (जगी) बोले हे पुत्र ! ( त्वम) तुम ( चेतसा ) चित्त ( सावधानेन ) सावधान करके (शृण) सुनो ( ग्रहम ) मैं (ते) तुम्हारे लिए उपाय ( गामि ) कहता हूँ ||१६|| भावार्थ -- धर्मरता मैना के दुःख से द्रवित आचार्य श्री उसकी प्रार्थना सुनकर कहने लगे । हे बेटी तुम एकाग्र मन से सुनो। मदनसुन्दरी ने कहा, प्रभुवर ! आप सम्यग्ज्ञान रूप नेत्रों के धारी हैं । अर्थात् आगम ही आपके नेत्र हैं । मुनिराज कहने लगे — सम्यक्त्व पूर्वकं पुत्रि ! जिनधर्म प्रपालनम् । पूजनं सिद्धचक्रस्य सर्वरोग निवारणम् ॥२०॥ अन्वयार्थ - ( पुत्रिः ) हे पुत्रिके ( सम्यक् पूर्वकम् ) सम्यग्दर्शन सहित ( जिनधर्म ) जैनधर्म (प्रपालनम् ) पालन करना तथा ( सर्वरोगनिवारणम् ) सम्पूर्ण रोगों को नष्ट करने वाले ( सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र की (पूजनम् ) पूजा करना तथा और भी - भो सुते सर्वकार्याणि सिद्धन्ति जिनधर्मतः । स्वर्गोमोक्षश्च धर्मेण का वार्ता परवस्तुषु ॥ २१ ॥ अन्वयार्थ - (भो) हे (सुते ) पुत्रि ! (जिनधर्मतः ) जिनधर्म प्रसाद से ( सर्वका र्याणि सर्व कार्यो की (सिद्धन्त) सिद्धि होती है - सिद्ध होते हैं (स्वर्गः ) स्वर्ग (च ) और (मोक्षः) मोक्ष भी ( धर्मेण ) धर्म द्वारा मिलते हैं ( परवस्तुषु ) अन्य वस्तुनों को (का) क्या (वार्ता) बात है | भावार्थ हे बाले ! तुम सम्यक्त्व सहित जैनधर्म का पालन करो। दृढ़ श्रद्धा और असीम भक्ति से सिद्धचक्र की पूजा करो। यह सिद्धचक पूजा समस्त रोगों के उपशमाने को रामवाण औषधि है | जिनधर्म महान है। इसके द्वारा समस्त कार्यों की सिद्धि अनायास ही हो जाती है। धर्म से ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है यही नहीं मोक्ष की प्राप्ति भी धर्म से ही होती है । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] १३६] फिर अन्य वस्तुओं की तो बात ही क्या है ! अन्य सब सांसारिक सुख-साधन तो घास-फूस के समान यों हो प्राप्त हो जाते हैं ।।२१।। और भी धर्म:चिन्तामणिोंके धर्मः कल्पतरुर्महान् । . धर्मः कामदुहाधेनुधर्मो बन्धूर्जगत्रये ॥२२॥ । अन्वयार्थ (लोके) संसार में (धर्मः) धर्म (चिन्तामणिः) चिन्तामणिरत्न है, (धर्म:) धर्म (महान् ) विशाल (कल्पतरूः) काल्पवृक्ष है (धर्म:) धर्म (कामदुहाधनु:) कामधेनु है (जगत्त्रये) तीनोंलोकों में (धर्म:) धर्म हो (बन्धु) बन्धु-मित्र है, रक्षक है। भावार्थ-हे पुत्रि ! संसार में धर्म ही चिन्तामणिरत्न है । अर्थात् चिन्तामणिरत्न के समान चिन्तित कार्य की सिद्धि करने वाला है महान् वाल्पवृक्ष के समान वाञ्छित पदार्थों को धर्म स्वयं देता है । कामधेनु के समान यथायोग्य, मनोऽभिलाष पदार्थ देने वाला है । संक्षेप में धर्म उभयलोक की सिद्धि करने वाला है ।।२२॥ धर्मः संसारवाराशौ पोतोऽयं भन्यदेहिनाम् । धर्मों माता-पिता मित्रं धर्मों निधिरनुत्तरः ॥२३॥ । अन्वयार्थ- (संसारवाराशी) संसार रूपी समुद्र में (अयं) यह (धर्म:) धर्म (पोत:) जहाज है (भव्यदेहिनाम् ) भव्य जीवों को (धर्म:) धर्म (अनुत्तरम् ) अलौकिक (निधिः) निधि है तथा (धर्मः) धर्म ही भव्यों को (माता-पिता मित्रम ) माता, पिता और मिन्न है। तल्लक्षणं प्रवक्ष्यामि शृण श्रीपाल, भूपते ? । भो सुतेः त्वमपिव्यक्त सावधाना शृण ध्र वम् ।।२४॥युग्मम ।। अन्वयार्थ (भूपते श्रीपाल ! ) हे राजन् श्रीपाल ! (तत्) उस धर्म का (लक्षणं) लक्षण (प्रवक्ष्यामि) काहूँगा (त्वं) तुम (शृण ) सुनो (भो सुते ! ) हे पुत्री मदनसुन्दरी ! (त्वमपि) तुम भी (सावधाना) एकाग्रचित्त से (शृण ) सुनो (अहम् ) मैं (प्राचार्य) (व्यक्तं) स्पष्टरूप से उस धर्म के लक्षण को (ध्र वम् ) निश्चय से (प्रवक्ष्यामि) काहूँगा। भावार्थ -प्राचार्य श्री कहते हैं, संसार सागर में भव्यप्राणियों को धर्म सुदृढ पोतजहाज है। धर्म ही खजाना है। धर्मा ही माता समान रक्षक है । धर्म ही पालनहारा पिता है । संकट-विपत्ति में सहायक सच्चा मित्र धर्म ही है । सांसारिक माता पिता भाई मित्रों के साथ स्वार्थ लगा है। अपने मतलब से प्रीति, रक्षा, सहाय करते हैं। परन्तु धर्म ही एकमात्र निःस्वार्थ सतत रक्षण करने वाला और सदैव साथ ही रहने वाला है । सम्पत्ति-विपत्ति सर्व एक है धर्म की दृष्टि में । वह धर्म क्या है ? हे भूपाल ! श्रीपाल ! हे पुनि मैनासुन्दरी ! मैं उस सर्वोपकारी, परमोतम धर्म का लक्षण स्पष्ट हर से कहूँगा । आप दोनों एकाग्रचित्त होकर सुनिये । निश्चय Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद से धर्म सर्व रक्षक और पालक है । उसका स्पष्ट-धर्मलक्षण क्या है ? किस प्रकार पालन करना चाहिए सर्व आप को विस्तार से समझाता हूँ आप सावधान होकर सुन ।।२४।। । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तानि धर्म प्राहुगुणाधिपाः । । योऽत्र भध्यान समुद्धृत्य धरत्युच्चैः पदे सुखम् ॥२५॥ अन्वयार्थ-(यो) जो (अत्र) संसार में (भव्यान्) भव्य जीवों को (समुदत्य) निकालकर संसार सागर से पारकर (उच्चैः सुखम् पदे) महानसुखरूप पद-मोक्ष में (धरति) पहुँचाता है उस (सम्यक्त्वज्ञानवृत्तानि) रत्नत्रय को (गुणाधिपाः) गुणों के प्रागार गणधरादि ने (धर्म) धर्म (प्राहु) कहा है। भावार्थ-संसार दुःखसागर है । इसमें सर्वत्र विपदाओं का निवास है । इस दुःख सागर से जो पार कर सके वही धर्म है। वह धर्म 'रत्नत्रय है । अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होना बोधि है, आत्मस्वरूपोपलब्धि है, यही मुक्ति है । यही परम सुख है। इस सुख के पाने पर पुन: दुःख आ ही नहीं सकता है । सर्वोत्तम सुख जो प्राप्त करादे वही धर्म है ।।२।। तत्रादौ पालनीयं हि सम्यक्त्वं भव्यदेहिभिः । . भरि संसारधाराशितारणकक्षमं मतम् ।।२६।। __ अन्वयार्थ – (हि) निश्चय से (तत्र ) उस रत्नत्रय में (आदौ । सर्वप्रथम (भव्यदेहिभिः) भव्यात्माओं द्वारा (सम्यक्त्वम् ) सम्यग्दर्शन (पालनीयम्) पालन करना चाहिए क्योंकि (भूरिसंसारवाराशि) बहुत विशाल संसार सागर से (तारणकक्षमभतम्) पार करने के लिए एकमात्र वही समर्थ कहा है। अर्थात् सम्यग्दर्शन ही संसार पार उतारने को प्राधार है ।।२६।। अधिष्ठानं यथाशुद्ध प्रासादस्थितिकारणम् । J तथा तपः क्रियाकाण्डं शृगारं दर्शनं प्रभो ! ॥२७॥ अन्वयार्थ -(यथा) जिस प्रकार (प्रासादस्थितिकारणम् ) महल को स्थिति की कारण (अधिष्ठानं) नींव (फाउन्डेशन) है (तथा) उसी प्रकार (प्रभो) हे राजन् (तपः क्रियाकाण्डं. जारम्) तप तथा समस्त क्रियाकाण्डों का शृगार स्वरूप नींब-जड (शुद्धम्) निर्दोष-अतीचार रहित (दर्शनम) सम्यग्दर्शन (मतम् ) माना है ॥२७।। तत्सम्यक्त्वं भवेत्पुत्रि निश्चयश्चेति मानसे । कालेकल्पशनैश्चापि नान्यथा जिनभाषितम् ।।२८।।युग्मम्।। __ अन्वयार्थ-- (पुत्रि) हे पुत्रिके ! (मैंना) (तत्) वह (सम्यक्त्वं ) सम्यग्दर्शन (चेति) ही (शृङ्गार) मुख्य है ऐसा(मानसे) मन में (निश्चय) निश्चय करो क्योंकि (कालेकल्पशतैः) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीराल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [ १४१ सैकड़ों कल्पकाल बीतने (चापि) पर भी (जिनभाषितम् ) जिनेन्द्र भगवान का कथन (अन्यथा) अन्यरूप-असत्य (न) नहीं (भवेत्) होता है ।।२।। भावार्थ-मुनिराज ने कहा, हे नप ! श्रीपाल यह सम्यग्दर्शन रत्नत्रय की नींव है। सम्यग्दर्शन बिना ज्ञान और चारित्र की स्थिति नहीं हो सकती। जिस प्रकार नींव के नहीं डालने पर महल नहीं बनाया जा सकता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र का अस्तित्त्व नहीं रह सकता । हे बेटी ! तुम अपने मन में दृढ निश्चय करो कि सम्यग्दर्शन ही मुख्य है । जीवन का शृङ्गार है । रत्नत्रय अमुल्य है और उसमें भी निरति चार सम्यग्दर्शन अर्थात् पूर्वोक्त २५ दोषों से रहित सम्यक्त्व ही प्रधान है। यह जिनेश्वर की वाणी है । सैकडों कल्पकाल बीतने पर भी जिनवाणी कभी भी अन्यथा हो । नहीं सकती । ऐसा तुम अपने मन में रद्ध श्रद्धान करो। और भी कृपासिन्धु मुनिराज कह रहे हैं। पुनस्ते तस्य सद्भेदान् सम्यक्त्वस्य गदाम्यहम् । श्रूयतां वत्स भो पुत्रि सुखकोटिविधायकान् ॥२६।। अन्वयार्थ- (वरस ) हे वत्सल राजन् (भा पुत्र) हे पुत्र पुनः) भोर भी (ते) आपके लिए (तस्य) उस (सम्यक्त्वस्य) सम्यग्दर्शन के (सुखकोटिविधायकान्) करोडों सुखों को प्रदान करने वाले (सद्भदान्) उत्तम-वास्तविक (भेदान्) भेदों को (अहम् ) मैं (गदामि) कहता हूँ। भावार्थ - राजा-रानी (श्रीपाल-मैना) को सम्बोधित करते हुए आकस्मिक वैध स्वरूप मुनीश्वर पुनः कह रहे हैं कि है वात्सल्यमयी पुत्रःपुत्री: इस सम्यग्दर्शन के अनेक भेद हैं। सभी करोडो सुम्य देने वाले हैं। मैं उन भेदों का निरूपण करता हूँ। आप दोनों ध्यान से सुनिये ।।२६।। देवोर्हन्दोषनिर्मुक्तो धर्मोऽयंदशधास्मृतः । निर्ग्रन्थोऽसौ गुरुश्चेति श्रद्धा सम्यक्त्यमुच्यते ॥३०॥ अन्वयार्थ ----(दोष निर्मुक्तः) अठारहदोष रहित (अर्हन) चारघातिया कर्मों का नाश करने बाले अर्हत भगवान (देवः) देव हैं (दशंधा) उत्तमक्षमादिरूप दश प्रकार का (अयम् ) यह (धर्म:) धर्म (स्मृतः) माननीय है (तथा च) और (निग्रन्थों) बाह्याभ्यन्तर चोबीस प्रकार परिग्रह रहित दिगम्बर मुनि (असौ) ये हो (गुरुः) गुरु हैं (इति) इस प्रकार (श्रद्धा) अटल विश्वास (सम्यक्त्वम् ) सम्यग्दर्शन (उच्यते) कहा है। भावार्थ-- प्रथम परिच्छेद में वर्णित्त १८ दोषों से रहित, चारघातियाकर्मों के उच्छेदक ४६ गुरणगरणमण्डित अन्ति भगवान ही सत्यार्थ देव हैं, दस प्रकार के वाह्य और चौदह प्रकार के अन्तरङ्गा इस प्रकार चौबीस परिग्रहों से रहित निग्रन्थ दिगम्बर मुनिराज ही सच्चे गुरु हैं, उत्तम क्षम, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद दस धर्म हैं । इस प्रकार इनका एका अहान माता : : कहलाता है यह ब्यवहार सम्यग्दर्शन का स्वरूप है । यह सम्पक्त्व निश्चयसम्यक्त्व का हेतू है-कारण है ।।३०॥ जिनोक्तसप्ततत्त्वानां ज्ञातुमिच्छाभवेद्र चिः । या सा श्रद्धा तदेव स्यात्सम्यक्त्वं भव्यदेहिनाम् ॥३१॥ अन्वयार्थ -(या) जो (जिनोक्त) जिन भगवान से कथित (सप्ततत्त्वानां) जीवादि सात तत्त्वों की (ज्ञातुम जानकारी को (इच्छा) इच्छा (रुचि:) प्रोति (भवेत् ) होती है । (सा, वह (थद्धा) श्रद्धान है (तदेव) वह श्रद्धान ही (भव्यदेहिनाम.) भव्यप्राणियों का (सम्यक्त्वं) सम्यग्दर्शन (भवेत्) होता है। भावार्थ--द्रव्यानुयोग की दृष्टि में जिनेन्द्र कथितजीवादी सात तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को जानने की इच्छा रुनि है। उन तत्त्वों में श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है । यह सम्यक्त्व भव्य जीवों के ही होता है। अभव्यों के सम्यग्दर्शन प्रकट होने की योग्यता ही नहीं होती है। ॥३ ॥ निशङ्कितादिभिर्युक्तं सम्यक्त्वं चाष्टभिर्गुणः । पापं निहन्ति भव्यानां सन्मन्त्री वा विषं ध्रुवम् ॥३२॥ अन्वयार्थ-(यथा) जिस प्रकार (वा) जिस प्रकार (सन्मन्त्र:) श्रेष्ठ मन्त्र (ध्रुवम् ) निश्चय से (विषम् ) विष को नष्ट कर देता है (वा) तथा उमो प्रकार (निशाङ्कितादिभिः) निःशवितादि (अष्टभिर्गुणग:) आठ गुणों से (युक्तम् ) सहित (सम्यक्त्वं) सम्यग्दर्शन भी (भव्यानाम् ) भव्य जीवों के (पापम् ) पारकर्म (च) और (विषम ) कटु कर्मफल को (निन्ति) नष्ट कर देता है। भावार्थ - भव्य प्राणियों को सम्यग्दर्शन अचूक औषधि है। जिस प्रकार वास्तविक मन्त्र से भयङ्कर से भयङ्कर भी दुष्कर्म-पापकर्म से उत्पन्न विष नष्ट हो जाता है। उसी प्रकार अष्ट अङ्गों से परिपूर्ण सम्यग्दर्शन भी भव्यजनों के पापडूरों को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है। वर्षों से संचित की रुई को एक हल्की सो अग्नि क्षणमात्र में भस्म कर देती है। ठीक इसी प्रकार भव-भवान्तरों में सञ्चित पापकर्म समूह अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शन द्वारा क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है ।।३२।। सम्यक्त्वेन युतो जीवस्त्रलोक्याधिपतिर्भवेत् । तद्विनाव्रतयुक्तोऽपि संसारो नात्र संशयः ॥२३॥ अन्वयार्थ (सम्यक्त्वेनयुतो) सम्यग्दर्शन से सहित (जीवः)जीव (त्रैलोक्याधियतिः तीन लोक का नाथ है (भवेत्) हो जाता है (तद्विना) सम्यक्त्व रहित (व्रतयुक्तोऽपि) ब्रतों से साहित होने पर भी (संसारी) संसारी ही रहता है (अत्र) इसमें (न संशयः) संदेह नहीं । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [१४३ भावार्थ-कोई मनुष्य कितने ही व्रत पालन करे, जप वारता रहे, उपवासादि कर कायक्लेश भोकरे, अनेकों उपसर्ग भी सह ले, किन्तु यदि उसके सम्यक्त्व नहीं है तो ये समस्त क्रियाये, संसारवर्द्धक ही हैं । अर्थात् कर्मनाश करने और सुख देने की साधक नहीं हो सकती हैं । सम्यग्दर्शन सहित थोडे भी व्रत, जप तपादि अनुष्ठान आत्मसिद्धि के कारण होते हैं । सम्यक्त्वी जीव ही मुक्ति पाता है । तीन लोक का नाथ बन सकता है ॥३३॥ सदृष्टिबन्धनिर्मुक्तः स्त्रीनपुंसकतां तथा । दुर्गत्यादीनि दुःखानि नैव प्राप्नोति संसृतौ ॥३४॥ अन्वयार्थ—(सदृष्टिः] सम्मष्टि प्राणी (बन्धनिर्मुक्तः) कर्मबन्ध रहित हुमा (तथा) तथा-उसी प्रकार (दुर्गति) नरक, तिर्यञ्च (यादीनि) इत्यादि के (दुःखानि) दु:खों को (संसृती) मंसार में (नैत्र) नहीं हो (प्राप्नोति) प्राप्त करता है । __भावार्थ-सभ्यग्दर्शनयुत जीत नरकगति और तिर्यञ्च गति में नहीं जाता । पूर्वबद्ध आयुष्क है तो प्रथम नरक के नीचे नहीं जाता । तिर्यञ्चों में जाना होगा तो भोग भूमि का पुरुषतिम्रञ्च ही होगा । वद्धायुष्क का अर्थ है कि किसी मनुष्यादि ने पहले नरक या तिर्यञ्च आयु का बन्ध कर लिया और पुनः उसने शुभभावों-शुभकार्यों से सम्यग्दर्शन ग्रहण किया तो प्रथम नरक के नीचे नहीं जायेगा और कर्म भूमि का तिर्यञ्च भी नहीं होगा ।।३४।। किन्तुच्चैर्देवमानुष्यभवैः कश्चित्सुखावहैः । भुक्त्वा सुखं जगत्सारं संप्राप्नोति शिवास्पदम् ॥३५।। प्राचयार्थ--(किन्तु ) नरक, तिर्यक गति रहित (कश्चित) कुछ (सुखावहै:) सुख को देने बाले (देवमानुष्यभः) देव और मनुष्यभवों द्वारा (जगत्सारम् ) संसार में सारभूत (सुखम् ) सुख को (भुक्त्वा) भोगकर (शिवास्पदम् ) मोक्षपद को (संप्राप्नोति) प्राप्त कर लेता है। भावार्थ-जो प्राणी निर्मल सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है वह दुर्गति का पात्र नहीं होता। देव और मनुष्यगति के कुछ भवों को धारण करता है। उनमें भी संसार जन्यसारभूत विषय सुखों को पुण्य की बलवत्ता से भोगकर शीघ्र ही अमरपद-मोक्षपद प्राप्त कर लेता है । ॥३५।। इति सूक्तं महाभब्यस्सम्यक्त्वं मुक्तिकारणम् । पालनीयं जिनेन्द्रोक्तं संसाराम्भोधि तारणम् ॥३६॥ अन्यथार्थ-(इति) इस प्रकार (सूक्तम ) सम्यक् प्रकार कथन है कि (मुक्तिकारणं) मोक्ष का कारण (संसाराम्भोधि) संसार सागर को (तारणम्) तारने वाले (जिनेन्द्रोक्तम् ) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद जिनभगवान द्वारा कथित (सम्यक्त्वम ) सम्यग्दर्शन (महाभब्यः) उत्तम भव्यों द्वारा (पालनीयम् ) पालने योग्य है। भावार्थ-साश्वत सुख के इच्छक महापुरुषों को सम्यग्यदर्शन पालने योग्य है क्योंकि यह सम्यग्दर्शन मुक्ति का कारण है, संसार सागर को पार कराने वाला है श्री सर्वजदेव स्वामी द्वारा कहा गया है ।।३६ ।। ये भव्याः प्रतिपालयन्ति नितरांसम्यक्त्वरत्नहदि । श्रीमज्जैनपदाब्ज चिन्तनरता निश्शङ्कितायेगु णः ॥ दुर्गत्यादि समस्तदोषहरणं सत्सम्पदा कारणम् । तेषां संङ्गममाश्रयन्ति मुदिताः स्वर्गापवर्गश्रियः ॥३७॥ अन्वयार्थ- श्रीमज्जैनपटाजचिन्तनरता-परा) श्रीमज्जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों के ध्यान में लीन रहने वाले (ये) जो (भव्याः भव्य जीव (नितराम ) पूर्णरूप से (दुर्गत्यादिसमस्त दोष हरणम) दुर्गतियों के सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने वाले (सत्सम्पदा) उत्तम सम्पत्ति के (कारणम ) कारण स्वरूप (सम्यक्त्वरत्नम ) सम्बग्यदर्शन रूपी रत्न को (हदि) हृदय में (निःशङ्किताद्य गुण:) निःशङ्कित आदि आठ अगों और संवेगादि पाठगुणों सहित (प्रतिपालयन्ति) सम्यक् प्रकार पालन करते हैं (तेषां) उनके (सङ्गमम )सङ्गम को (मुदिताः) प्रानन्दित हुयी (स्वर्गापवर्गश्रिय:) स्वर्ग और मोक्ष लक्ष्मी (प्राश्रयन्ति) आश्रय करतो हैं । भावार्थ .. सम्यग्दर्शन अमूल्य रत्न है । आत्मा का स्वभाव है। प्रात्मा में ही प्रात्मा द्वारा इसका उदय होता है । यद्यपि वाह्य निमित्त भी परमावश्यक हैं। एक बार भी इसकी प्राप्ति हो जाय तो जीब अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन से अधिक संसार में नहीं रह सकता । निरतिकार सम्यक्त्व पूर्वक समाधिमरण करने वाला भव्यात्मा ७-८ भन्न से अधिक भव धारण नहीं करता । क्षायिक सम्यग्दृष्टि तो अधिक से अधिक चोथे भव में मुक्ति प्राप्त करता ही है। उसी भव से भी मुक्त हो सकता है । इसको माहात्म्य से दुर्गतियों नरक तिर्यञ्च का नाश हो जाता है । दु:खों का अन्त होता है । स्वर्ग और मुक्ति श्री वरमाला लिए लालायित रहती है । अतएव भव्य जीवों को सम्यक्त्व को कारणभूत जिनवर गाज मक्ति निरन्तर करते रहना चाहिए। एकमात्र जिनभक्ति ही, जिनदर्शन को जो निश्तिादि आठ अङ्ग और संवेगादि पाठ गुणों से सहित तथा २५ दोष रहित पालन करता है उसके सर्व सङ्कट कटते हैं, सांसारिक वैभव भोगकर नि:श्रेयश पद प्राप्त होता है। ॥इति दर्शनाधिकारः ।।शुभमस्तु।। अथ जानाधिकारः कथ्यते-- यज्ञानं श्रीजिनेन्द्रोक्तं विरोधपरिवजितम् । ! तज्सानंशदं नित्यं संसाराब्धि तरण्डकम् ॥१॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - श्रोपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१४५ सज्ञानं लोचनं प्रायं सततं सर्वदेहिनाम् । । तत्प्रमादं समुत्सृज्य संधयन्तु सुखाथिनः ॥२॥ अन्वयार्थ-(यज्ज्ञानम् ) जो ज्ञान (विरोधपरिवजितम्) पूर्वापर विरोध से रहित (शर्मदम्) शान्तिदायक (नित्यं) सतत (संसाराब्धितरण्डकम् ) संसार सागर तिरने को नौका है (तद्। बड़ी (श्रीजिनेन्द्रोक्तम) श्री जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा हुआ (ज्ञानम्) सम्यग्ज्ञान है, (तत्) वह (सज्ञानम् ) सम्याज्ञान (प्रायम्) प्राय करके (सर्वदेहिनाम् ) समस्त शरीर धारियों का (सततम्) सदाकाल (लोचनम्) नेत्र है (गुखार्थिनः) सुखेच्छों को (प्रमादम् ) आलस्य (उत्सृज्य) छोडकर (तत्) उस ज्ञान का (सश्रयन्तु) सम्यक्प्रकार आश्रय करना चाहिए। भावार्थ-जो ज्ञान संशय, विपर्य, और अनध्यवसाय से रहित है, जिसमें पूर्वापरआगे-पीछे विरोध उत्पन्न नहीं होता उसे जिनेन्द्र प्रभु ने सम्यकज्ञान कहा है । जो ज्ञान अनेक कोटियों का स्पर्श करे वह संशय है यथा सफेद वस्तु में यह चांदी है या सीप है इत्यादि संदेह रूप ज्ञान होना । विपरीत वस्तुज्ञान को विपर्य कहते हैं यथा चाँदी को सीप, दूध को मट्ठा आदि जानना । कोई भी निर्णय नही उस ज्ञान को अनध्यबसाय कहते हैं यथा चलते समय तिनके आदि का स्पर्श होने पर कछ है सा ग्राभास होना। ये तीनों ज्ञान दोष हैं। इनमें से कोई भी दोष न हो बही सम्यग्ज्ञान है ऐसा आईत मत में कहा है । यह ज्ञान स्वपर प्रकाशक होता है । मोहान्धकार का नाश करता है, अन्तरङ्ग विवेक-हेयोपादेय बुद्धि को प्रकट करता है । अतः इसे "नेत्र" कहा है। वाह्य चर्म चक्षुओं से पदार्थ का यथार्थ ज्ञान सतत् नहीं होता और सम्पूर्णरूप से भी नहीं होता। परन्तु सम्यग्ज्ञान नित्य, सदैव, वरनु तत्व का निर्णायक होता है । अत: सर्वज्ञ प्रणीत पागम में इसे तीसरा नेत्र कहा है । यही सम्यक् सच्चा ज्ञान है। ११-२॥ यत्र काव्यपुराणेषु चरित्रे विशेषतः । अहिंसा परमोधर्मस्तत्संज्ञानं बुधोत्तमम् ॥३॥ अन्वयार्थ (यत्र) जिन (काव्यपुराणेषु ) काव्य पुराणों में (विशेषतः) विशेषरूप से (चरित्रेषु) चरित्रणित शास्त्रों में (अहिंसा परमोधर्म:) अहिंसा परम धर्म निरूपण है (तत्) वही (संज्ञानम् ) सम्यग्ज्ञान है (बुधोत्तमम.) विद्वानों में श्रेष्ठ भव्यों को (प्राश्रयन्तु) प्राधय करना योग्य है । - - . - m a -MT माया---प्राध्य ग्रन्थ हो, पुराण हो अथवा चारित्र-सठगलाका पुरुषों का चरित्र निरूपण करने वाले शास्त्र हों, जिनमें अहिंसा को परमधर्म कहा है वे ही सम्यक काव्य, पुराण, चरित्र । ये ही हैं सम्यग्ज्ञान के हेतू हैं । स्वयं सम्यग्ज्ञान ही हैं । कारण में कार्य का उपचार कर, ज्ञान के कारण आगम को भी सम्यग्ज्ञान कहा है यथा "अन्नं यं प्राणः" प्राणधारण का कारण अन्न को भी प्राण कहा जाता है ।।३।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] [ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद मन्त्र तन्त्रादिभिर्यत्र पशूनां हिंसनं मतम् । तत्कुज्ञानं सदा त्याज्यं नरकादिगति प्रदम् | १४ || अन्वयार्थ - ( पत्र ) जहाँ जिनग्रन्थों में ( मन्त्रतन्त्रादिभिः) मन्त्र तन्त्रों के द्वारा (पशु) पशुओं का ( हिंसनम) वध करना ( मतम् ) धर्म माना है (तत्) बह ( कुज्ञानम् ) मिथ्याज्ञान ( नरकादिगति ) नरकादि दुर्गतियों को (प्रदम) देने वाला (सदा ) हमेशा, सर्वथा ( त्याज्यम) त्यागने योग्य है । भावार्थ जो वेद पुराण प्रारिंग वध का निरूपण करते हैं। हिंसा को धर्म कहते हैं । मन्त्र तन्त्र का प्रयोग कर पशुयज्ञ में होने जाने वाले जीवों को कष्ट नहीं होता, वे स्वर्ग में जाते हैं इत्यादि असत् कथन करते हैं वे सब मिथ्याशास्त्र हैं । दुःख के कारण हैं। प्रत्यक्ष जीवों को दुःख उत्पन्न होता देखा जाता है, उसका लोप कर मिथ्या प्रचार करने वाले दुर्गतियों के कारण हैं । घोर नरक में ढकेलने वाले हैं । उभय लोक में महादुःख देने वाले हैं। इस प्रकार विधमयों के द्वारा कथित शास्त्र मिथ्या हैं, मिथ्याज्ञान के हेतू कारण हैं, बुद्धि भ्रष्ट करने वाले, अधर्म के पोषक हैं। इन का सर्वथा सर्वदा त्याग करना चाहिए । अर्थात हिंसा स्तकों को कभी भी नहीं चहिए। किं बहुनोक्त ेन भी भव्यास्तद्ज्ञानं शर्मकोटिदम् । स्वदेशे परदेशे च सुज्ञानं पूज्यते यतः ॥१५॥ श्रन्वयार्थ - ( भो भव्यः ) हे भव्य ! ( बहुनोक्तेन ) अधिक कहने से (किं) क्या ? ( सज्ञानम) सम्यग्ज्ञान ( शर्मकोटियम् ) करोडों सुखों को देने वाला (च) और (स्वदेशे ) अपने देश में (परदेश) अन्य दूसरे देश में ( यतः ) क्योंकि ( मुज्ञानम् ) सम्यग्ज्ञान ( पूज्यते ) पूज्य होता है | मान्य होता है । भावार्थ - प्राचार्य श्री कहते हैं, है भव्यात्मन् सम्यग्ज्ञान करोड़ों सुखों का देने वाला है। यही नहीं अपने माना जाता है । यथार्थ वस्तुस्वरूप निरूपण में विवाद नहीं सम्यग्ज्ञान सतत् वस्तुयाथात्म्य का निरूपक होता है, श्रतः सर्वत्र मान्यता प्राप्त करता है यथा दो और दो मिलकर चार होते हैं यह विश्वभाग्य हैं क्योंकि सत्य है। अतः सभ्यग्ज्ञान सदैव सर्वत्र पूज्य होता है ||५ ॥ राजन्, हम अधिक क्या कहें ? यह देश में और परदेश में सर्वत्र पूज्य होता, सत्य सर्वमान्य होता है । सद्ज्ञान शून्यैर्बहुभिस्तपोभि-स्संक्लेश लाक्ष्यै बहुभिर्भवश्च । यत्पापमातुमशक्यमज्ञ - स्तद्वन्यते चैकभवेन सद्ज्ञैः || ६ || श्रन्वयार्थ – 1 सद्ज्ञानशून्यैः ) सम्यग्ज्ञानरहित (ग्रज्ञ :) अज्ञानियों द्वारा (यत्) जो ( पापम् ) पाप ( बहुभिर्भुवः) अनेकों भवों के ( संक्ले पालाक्ष्यैः ) लाखों कष्टों द्वारा (च) और Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१४७ (बहुभितलोभिः) अनेकों सपो द्वारा (पाहन्तुम्) नष्ट करना (अशक्यम् ) अशक्य (सद्) बह पाप (सद्ज्ञ :) सम्यग्ज्ञानियों द्वारा (एकभवेन) एक ही भबद्वारा (हन्यते) नष्ट कर दिया जाता है। मावार्थ--जिस पापकर्म को अज्ञानी करोड़ों भवों में, लास्रों कलेश उठाकर, अनेक प्रकार मिथ्यतप कम नमः, करने में :: नही सको, उस कार्य को जानी जीव एक ही भव में नष्ट कर देता है । सम्यग्ज्ञान की अचिन्त्य महिमा है और अपरिमित शक्ति है ।।६।। वाचनापृच्छनाप्रायः स्वाध्यायः पञ्चभिस्सदा । जैनंज्ञानं दयाध्यानं समाराध्यं विचक्षणः ॥७॥ अन्वयार्थ--(प्रायः विचक्षणः) प्रायकरके बुद्धिमानों के द्वारा (वाचना, पृनछुना) वाचना, प्रश्न पूछना आदि (पवभिः) पाँच प्रकार को (स्वाध्यायः) स्वाध्यायों द्वारा (सदा) हमेशा (जैन) जिनधर्म (ज्ञानं) सम्यग्ज्ञान (दया) दयाधर्म (ध्यान) ध्यान (समाराध्यम् । अाराधन करने योग्य है। भावार्थ-जैनागम में स्वाध्याय के ५ भेद कहे हैं - १. वाचना -- सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रों का पढना २. पृच्छना-तत्त्वों के परिज्ञानार्थ विशेषज्ञों से प्रश्न पूछना ३. अनप्रेक्षा--ज्ञात तत्त्वों या प्रश्नों का बार-बार चितवन करना. ४. ग्राम्नाय--चोखना या कण्ठ करना और ५. धर्मोपदेश-भव्यों को धर्म का उपदेश करना। इन पांचों प्रकार के स्वाध्यायों से अपने धर्म, ज्ञान, दान, ध्यान, दया के स्वरूप को समझना चाहिए । विचक्षण पुरुषों का कर्तव्य है पाँचों प्रकार के स्वाध्यायों का सतत् यथायोग्य अभ्यास कर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करे ।।८।। ज्ञानं निव तिसाधनं जिनमते ज्ञानं जगद्योतकम् । ज्ञानं संशय मोहविभ्रमहरं संसेव्यतां सज्जनाः ॥" अन्वयार्थ—(जिनमते) जनमत में (ज्ञान) ज्ञान (निर्वृत्तिसाधनम्) बेराग्य का साधन (ज्ञानम् ) ज्ञान (जगद्योतकम् ) जगत का प्रकाशक और (ज्ञानम् ) ज्ञान ही (संशय, मोह, विभ्रम्) संदेह, प्रज्ञान, अनध्यवसाय (हरम्) नाशक है अतः (सज्जना:) सत्पुरुषों को (संसेव्यताम् ) भले प्रकार सेवन करना चाहिए । भावार्थ-जिनशासन में सम्यग्ज्ञान वैराग्य का साधन कहा है । सम्यग्ज्ञान पुर्णता को प्राप्त हो केवल ज्ञान तीनों लोकों का प्राप्त को युगपत्-एकसाथ प्रकाशक होता है । संशय सन्देह, अज्ञान और विभ्रम का नाश करने वाला होता है । मुमुक्षयों को इसी प्रकार का ज्ञान प्राराधन करने योग्य है । यही सेवनीय है । अर्थात् जिनागम में वही सम्पग्ज्ञान है जिसकी प्राप्ति से संसार शरीर भोगों से विरक्ति हो, सम्यक चारित्र धारण, पालन और बर्द्धन की योग्यता प्राप्त Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद हो । ज्ञानी यदि चारित्र शून्य हो तो वह कोरा ज्ञान पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता । चारित्र की परिपक्वता ज्ञान की पूर्णता का समर्थ कारण है । अत: चारित्र अत्यावश्यक है ।।८।। इतिज्ञानाधिकारः।। अब सम्यक् चारित्र का स्वरूप कहते हैं --- चारित्रं च द्विधा प्रोक्तं मुनि श्रावकगोचरम् । मुनीनां महदित्युच्चैः श्राधकाणामण च्यते ॥१॥ अन्वयार्थ-(मुनि श्रावक गोचरम् ) दिगम्बर साधु और श्रावक को अपेक्षा (चारि. त्रम्) सम्यक् चारित्र (द्विधा) दो प्रकार का (प्रोक्तम ) कहा है (मुनीनाम ) मुनियों का चारित्र (महत ) महायत रूप (च) और (श्रावका णाम ) श्रावकों का (अण :) अनुव्रतरूप (इति) इस प्रकार (उच्चैः) विशेषज्ञों द्वारा (उच्यते) कहा गया है ।।१।। मावार्थ-चारित्र के दो भेद हैं। १. महावत रूप और २. अण प्रत रूप । मुनियों का चारित्र महाव्रत रूप है और श्रावकों का प्रण व्रत रूप । अर्थात सकल संयम और देशसंयम के भेद से चार दो प्रकार है । छठय गुर स्यात सकल संयम चारित्र होता है और पांचवें गुणस्थान में देशसंयम-अण अतरूप चारित्र होता है ।।१।। हिसादिपञ्चपापानां सर्वथा त्यागतो महत् । मुनीनां शुद्धचारित्रमुत्कृष्ट मुक्तिसाधनम् ॥२॥ अन्वयार्थ— (हिंसादिपञ्चमाणानाम् ) हिंसादि पांच पापों का (सर्वथा) पूर्णरूप से त्यागत:) त्याग करने से (मुनीनाम ) मुनियों के (महत्) महाव्रतरूप (मुक्तिसाधनम ) साक्षात् मुक्ति का साधक (शुद्ध) निर्मल, निरतिकार (उत्कृष्टम् ) पूर्ण (चारित्रम ) चारित्र (भवति) होता है। भावार्थ---हिंसा, भूट, चोरी, अब्रह्म और मूा-परिग्रह ये पाँच पाप हैं । इन पांचों पापों का नवकोटि (मन, वचन. काय कृत कारित, अनुमोदना = ३४ ३ =E) से पूर्ण रूप से त्याग करना महायत कहलाता है। मुनिराज ही महाव्रतधारी होते हैं। निग्रन्थ वेषधारी हुए बिना सकल चारित्र पालन हो नहीं सकता । शुद्ध निश्चय चारित्र ही साक्षात् मुक्ति का साधक है । व्यवहार चारित्र निश्चय चारित्र का साधक है । मुमुक्षु को सकलसंयम शुद्ध चारित्र धारण करना ही होगा अन्धया न आत्मशुद्धि हो सकता है और न मुक्ति हो । आजकाल जो एकमात्र ज्ञान का महत्व बतलाकर चारित्र से स्वयं विमुख हो रहे हैं और भोली समाज को भी चारित्र विहीन बनाने की असफल चेष्टा करते हैं यह उनकी नितान्त भूल है । समाज को भी सावधान रहना चाहिए सोनगढी और जयपुर ट्रस्ट के लोगों से । ये दोनों एक ही हैं एकान्तवाद सांख्य मत के प्रचारक | ये अनेकान्त के नाम पर चावीक सिद्धान्त का पोषण करना चाहते हैं जो निध्यात्य है और अनन्त संसार का कारण है ।।२।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] एकदेशेन हिंसादि त्यागादण समाहृतम् । श्रावकानां पूतं स्वर्गादिसुखदायकम् ॥३॥ अन्वयार्थ - ( हिंसादि) हिंसादि पाँच पापों का ( एकदेशेन ) एक देशरूप से . ( त्यागात् ) त्याग करने से ( स्वर्गादिसुखदायकम् ) स्वर्गादिक के सुखों को देने वाला (श्रावकानाम् ) श्रावकों गृहस्थों का (पू) पवित्र (अण) अंग ( व्रतम् ) व्रत ( समाहृतम् ) कहा गया है। भावार्थ - उपर्युक्त हिंसादि पाँच पापों का एकदेश त्याग करना अणुव्रत है। इनका पालन श्रावक करते हैं । गृहस्थ सर्वथा आरम्भ परिग्रह के त्यागी हो नहीं सकते । अत: वे इनका अंश रूप से त्याग कर सकते हैं। इसीलिए ये अणुव्रत कहलाते हैं । ये व्रत प्रत्यक्षसाक्षात् स्वर्गादि वैभव, सुख, सामग्री के दाता हैं तथा परम्परा से मोक्ष के हेतु हैं । इन पवित्र व्रतों का पालन करना प्रत्येक श्रावक श्राविका का अनिवार्य कर्तव्य है ॥ १३ ॥ I तदहं संप्रवक्ष्यामि संक्षेपेण सुखप्रदम् । चारित्रं वावकारणां हि लोकद्वय हितावहम् ॥४॥ f ९४e अन्वयार्थ --- आगे श्री गुरु मुनिराज कहने लगे--- ( लोकद्वय हितावहम ) उभयलोक इहलोक और परलोक दोनों में हिल करने वाले ( सुखप्रदम ! मुख को देने वाले (श्रावकाणाम् ) गृहस्थों के ( चारित्रम ) चारित्र को (हि) निश्चय से (अहं) में आचार्य श्री (संक्षेपेण) संक्षेप मैं थोडे रूप में (तत ) उसे ( प्रवक्ष्यामि ) कहूँगा । भावार्थ - प्राचार्य श्री श्रावक धर्म का उपदेश करने की प्रतिज्ञा करते हैं । श्रीपाल सुन्दरी से कहते हैं कि इस समय मैं आप लोगों को श्रावकाचार का उपदेश देता हूँ । यह उभयलोक में आपका जीवों का कल्याण करने वाला है । संक्षेप में उसका स्वरूप समझाऊँगा । यह सुख का बीज है। क्रमशः मुक्तिरूपी फल को देने वाला है ॥४॥ इन्द्र नागेन्द्र चक्रयादिपवं यस्मात्समाप्यते । तच्चारित्रं जिनः प्रोक्तं जयतात्सर्य देहिनाम् ॥५॥ अन्वयार्थ - ( यस्मात् ) जिससे ( इन्द्र नागेन्द्र चक्रवर्त्यादिपदम् ) इन्द्र, धरगेन्द्र, चक्रभव्यजीवों को ( समाप्यते ) भलेप्रोक्तम् ) कथित् ( चारित्रम् ) वर्ती, बलदेव, नारायण आदि पद ( सर्वदेहिनाम् ) समस्त प्रकार प्राप्त होते हैं (तत्) वह (जिनैः ) जिनेन्द्र भगवान ( सम्यक्चारित्र ( जयत्तात् ) जयवन्त होवे । भावार्थ---- यह श्रावकाचार अणु रूप सम्यक् चारित्र गृहस्थ - श्रावकों को इन्द्र, , धरगेन्द्र षट्खण्डाधिपतित्त्व (चक्रवर्ती) त्रिखण्डाधिपति (नारायण) बलदेव, कामदेव, यहां तक कि तीर्थकरपद भी प्रदान करने में समर्थ हैं। इसके निरूपक श्री सर्वज्ञ जिनेन्द्र प्रभु हैं । अतः यह कयन पूर्णतः प्रमाणित और सत्य है। इस प्रकार का यह सम्यक् चारित्र निरन्तर जयशीख Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] [ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद हो अब इस आवकाचार चारित्र की विधि सुनों मैं यथायोग्य संक्षिप्त रूप में वर्णन करता है । ।। ५ ।। मकारत्रय संस्थाः सहोपः । श्रावकारणां पुरा प्राहस्सन्तो मूलगुरगाष्टकम् ॥ ६॥ श्रन्वयार्थ - ( उदुम्बरपञ्चः ) पाँच उदम्बरफलों के ( सह ) साथ ( मकारत्रय) तीकमकारों का (संत्यागः ) पूर्णतः त्याग करना ( श्रावकारणाम् ) श्रावकों के (अष्टकम् ) आठ (मूलगुणाः) मूलगुण ( पुरा ) पहले ( सन्तः ) साधुजन या श्राचार्य ( प्राहुः ) कहते हैं । भावार्थ--- पाँच उदम्बर फल -वड, पीपल, ऊमर कटूमर और पाकर के साथ तीन मकार-मद्य, माँस और मधु का त्याग करना श्रावकों के श्राठ मूलगुण हैं इनका स्वरूप प्रथम परिच्छेद में किया जा चुका है। फिर भी यहाँ इनके दोषों का विशेष निरूपण प्राचार्य कर रहे हैं || ६ || बहू निम्न प्रकार है नामतोऽपि पलं त्याज्यं सद्भिः पापशतप्रदम् । यत्कुले तत्कुलं पूज्यं पवित्रीकृत भूतलम् ॥७॥ श्रन्वयार्थ - ( यत्कुले ) जिस कुल में (पापशतप्रदम) सैकड़ों पापों का उत्पादक ( पलम् ) मांस ( नामतोऽपि ) नाममात्र से भी ( सद्भिः ) विद्वानों द्वारा ( त्याज्यम् ) त्याज्य होता है (तत्कुल) वह कुल ( भूतलम् ) पृथ्वीतल को ( पवित्रीकृतम) पवित्र करने वाला ( पूज्यम्) पूज्य है । भावार्थ - जिस कुल वंश में मांस का नाम भी उच्चारण नहीं होता, पाप समझा जाता है वह कुल महान् पवित्र होता है। यही नहीं वह अपनी पावनता मे समस्त पृथ्वी भण्डल को भी पवित्र बना देता है। वस्तुतः वह कुल पूज्य होता है ||७|| वारुणीवजनीया हि कुलादिक्षयकारिणी । या च दुःखप्रदा प्रोक्ता सद्भिवैतरणी यथा ||८|| अन्वयार्थ - (हि) निश्चय से ( कुलादिक्षयकारिणी) कुल, वंश, जाति का नाश करने ( यथा वैतरणी ) जिस प्रकार बाली (च) और (या) जो मदिरा ( सद्भिः) सज्जनों द्वारा बैतरणी नदी है उस प्रकार ( दुःखप्रदा) दुःखदायी ( प्रोक्ता ) कही गई है ( स ) वह शराब (वजनीया) त्यागने योग्य है । भावार्थ - जिस प्रकार लोक में व आगम में नरकों में वैतरणी नदी को अनेक दुःखों का कारण माना जाता है उसी प्रकार सत्पुरुषों द्वारा मदिरापान महाभयङ्कर दुःखों की कारण बतायी गयी है । यह कुल का संहार करने वाली है । कुल को कलङ्कित करती है और जीवन Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [ १५१ . - - को भ्रष्ट करती है। विवेक को नष्ट कर जीव को कुगति का पात्र बनाती है। इसी भव में मद्यपायी को महा दुर्दशा प्रत्यक्ष देखी जाती है । गन्दे नालों में, गलियों में नशे में उन्मत बेहोश पडे रहते हैं। उनके मुंह में कुत्त भी मूत्र कर जाते हैं। मदभ्रम में उस वे अमृत समझ पान करते हैं । अतः इस प्रकार की निकृष्ट वस्तु सज्जनों को सर्वथा त्याज्य है । सर्व दुखों की खान शराब का सेवन कभी नहीं करना चाहिए |1|| . - . ... मक्षिका-वमनं नित्यं मधुत्याज्यं विचक्षणः। जन्तुकोटिभिराकीर्णं प्रत्यक्षं कलिकाकृतिम् ॥६॥ अन्वयार्थ--(प्रत्यक्षम ) स्पष्ट (मक्षिकावमनम् ) मक्खियों का वमन (कोटिभिः) करोडों (जन्तु) जीवों मे (याकीर्णम् ) भरा हुअा (कलिका) अष्डों से (आकृतिम् ) व्याप्त (मधु) शहद (विचक्षरगः ) विद्वानों द्वारा (नित्यम्) सदा (त्याज्यम्) त्यागने योग्य है। भावार्थ-मधु मधुमक्खियों का वमन है। मक्खियाँ पुष्पों का पराग ला लाकर इकट्ठा करती हैं । उस रस में करोड़ों जोब उत्पन्न हो जाते हैं, उन मक्खियों को बच्चे और अण्डों से वह भरा रहता है । वे सभी जीव जन्तु उस मधु के छत्ते से मधु निकालने पर मर जाते हैं । अतः प्रत्यक्षरूप में वह मधु अनन्त जीवों का कलेवर है। विचारशोलों द्वारा सतत सर्वथा त्यागने योग्य है । महा हिंसा का कारण है ।।६।। As वटादिपञ्चकंपापं बिल्वादोनां हि भक्षणम् । जन्तवो यत्र विद्यन्ते तत्त्याज्यं दुःखकारणम् ॥१०॥ अन्वयार्थ (बटादिपञ्चकंपापम् ) वड, पीपलादि पञ्च उदम्बर पापरूप (बिल्वादीनाम्) विल्व, कन्दमूलादि (हि) निश्चय से (पत्र) जिन २ पदार्थों में (जन्तवः) प्राणीसमूह (विद्यन्ते) रहते हैं (तत्) वह (दुःखकारणम्) दु:ख के कारण भूत (भक्षरणम् ) खाने वाले पदार्थ (त्याज्यम् ) त्यागने योग्य हैं। शवार्थ-बड़फल, पीपलफल, आलू, गाजर, मूली, बेलगिरि आदि अन्य भी फलादि पदार्थ त्यागने योग्य हैं क्योंकि ये अनन्त जीवों के घात के कारण हैं। अर्थात् ये अनन्तकाय जीवों से भरे होते हैं उनके भक्षण से बे जीच मर जाते हैं जिससे घोर पाप होता है। अतः प्राणिवध के कारगाभूत समस्त पदार्थ धर्मात्मानों द्वारा त्याज्य हैं ।।१०।। तथा चर्माश्रितं तोयं तैलं हिंगु घृतं त्यजेत् । सुधीर्जेनमते दक्षो नित्यं मांस विशुद्धये ॥११॥ अन्वयार्थ- (तथा) और भी उसी प्रकार के (चर्माश्रितम्) चर्म में रक्खे हुए (तोयम्) जल (तलम् ) तैल (हिंगु) हींग, (घृतम् ) घी आदि को (मांसविशुद्धथे) मांस त्यागवत की J Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद शुद्धि के लिए (जना मतदक्षः) जनमत में चतुर- सुधीः) बुद्धिमानों को (नित्यम्) सदैव (त्याज्यम्) त्यागने योग्य है । भावार्थ ---जनशासन के घेत्ता, बुद्धिमानो को चर्म के डब्वे, कुप्पो आदि में स्थापितरखे हुए घी, तेल, हींग, जलादि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। चरश, मशक आदि में भरे पानी का पान नहीं करना चाहिए । क्योंकि इनका सेवन करने से मांस भक्षरग का दोष-पाप होता है। ये पदार्थ मांस त्याग व्रत के अतिचार हैं। निर्दोषव्रत की सिद्धि के लिए इनका सर्वथा त्याग करना चाहिए । अर्थात् चर्म से पशित कोई भी वस्तु नहीं खाना चाहिए ।।११।। शौचायकर्मणे नेप्ट कथं स्नानाविहेतवे । चर्मवारि पिवन्नेष व्रती न जिनशासने ॥१२॥ अन्वयार्थ --चर्मवारि (शौचाव) मल मूत्र विसर्जन (कर्मणे) कार्य के लिए (न इष्टम ) इष्ट नहीं, योग्य नहीं पुन: (स्नानादि) स्नान आदि क्रिया (हेतवे के लिए (कथम ) किस प्रकार योग्य है ? (चर्मवारि) चरश-मशक का चमडे का पानी (पिवन्) पीता हुआ (एषः) यह पुरुष (जिनशासने) जिनागम में (व्रती) व्रती (न) नहीं होता। भावार्थ ---चर्म निर्मित चरश या मशक आदि में स्थापित जल मल-मूत्र शुद्धि के लिए भी योग्य नहीं कहा, फिर स्नान आदि कार्यो में उसका उपयोग कैसे किया जा सकता है ? अर्थात् नहीं किया जा सकता जो मनुष्य चर्मजल पीता है वह व्रतो नहीं हो सकता है, यह जिनागम का नियम है। अभिप्राय यह है कि व्रती थावक को चमडे से पणित जल का किसी भी कार्य में उपयोग नहीं करना चाहिए । पीना तो पूर्ण निशिद्ध है ही ॥१२॥ तथा सुश्रायकैस्त्याज्या जिनवाक्यपरायणः । हिंसा सांकल्पिको नित्यं त्रसानां भयकारिणी ॥१३॥ अन्वयार्थ – (तथा) उसी प्रकार (जिनवाक्यपरायणः) जिनशासन के ज्ञाता (सुश्रावकः) श्रेष्ठ श्रावकों द्वारा (भयकारिणी) भय उत्पन्न करने वाली (साना) त्रस जीवों की (सांकल्पिकी) संकल्पी (हिंसा) हिंसा (नित्यं) नित्य-सदा (त्याज्या) त्यागने योग्य है। भावार्थ-हिंसा के चार भेद हैं—१. प्रारम्भी २. उद्योगी ३. विरोधी और ४. सांकल्पी । इनमें से श्रावक सांकल्पी हिंसा का त्याग कर सकता है। अर्थात इरादा करके त्रस जीवों का घात करना सांकल्पी हिंसा है । इसका त्याग गृहस्थ जीवन में हो सकता है अतः त्यागना चाहिए । जीवघात से स्वयं का घात करने वाला कर्म बंध होता है। हिंसक स्वयं भय से त्रस्त रहता है । अतएव त्रस हिंसा भय करने वाली है ।।१३।। देवतामन्त्रतन्त्रार्थ सर्वथा त्रसदेहिनाम् ।। हिंसा सांकल्पिकी त्याज्या जैनापक्षोऽयमुत्तमः ॥१४॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [ १५३ अन्वयार्थ - ( देवतामन्त्रतन्त्रार्थम्) देवता, मन्त्र तन्त्र आदि के निमित्त से भी ( त्रसदेहिनाम) त्रस जोवों की ( सांकल्पिकी) संकल्पी (हिंसा ) हिंसा ( सर्वथा ) पूर्णरूप से ( त्याज्या ) त्यागने योग्य है ( अयम् ) यह ( जैनपक्षः) जैनमत ( उत्तमः) उत्तम है । I भावार्थ - जनमत में देवताओं की पूजा बलि आदि के निमित्त से, मन्त्रसिद्धि या तन्त्रादि सिद्धि के लिए भी त्रस जीवों की हिंसा वर्जित है। क्योंकि पाप सर्वत्र पाप और दु:ख का कारण है । इसलिए संकल्पपूर्वक त्रस धातु का सर्वत्र निषेध है। भव्यात्मा श्रावकों को नित्य ही त्यागने का उपदेश दिया है। “मैं इस जीव का घात करूंगा" इस प्रकार का अभिप्राय रखकर जो जो हिंसा कर्म है वह सर्वत्र ही भय और दुःख का हेतु होने से सर्वथा त्यागना चाहिए । दयावल्ली सदा सेव्या सतां सद्गतिदायिनी । स्वर्गमोक्षफलान्युच्च र्या ददात्युपकारिणी ||१५|| अन्वयार्थ – (या) जो ( दयावल्ली ) दयारूपी लता (उच्च) महान ( स्वर्गमोक्षफलानि ) स्वर्ग और मोक्ष रूप फल को ( ददाति) देती है (सा) वह ( उपकारिणी) उपकार करने वाली (सद्गतिदायनी) श्रेष्ठ गति को देने वाली ( सताम् ) सज्जनों को (सदा ) निरन्तर ( सेव्या ) सेवनीय है । भावार्थ - दया बल्ली के समान है । लता में सुन्दर सुखद फूल और फल लगते हैं । दयारूपी लता में स्वर्ग मोक्ष रूपी फल फलते हैं। जो दया का पालन करता है उसे ही स्वर्गादि की विभूति और निश्रेयण भुख प्राप्त होता है । अतः यह परोपकारिणी है, सद्गति देने वाली है। इस प्रकार की दयावल्लरी सज्जनों को निरन्तर सेवन करना चाहिए। अर्थात् दयाभावना हमेशा वृद्धिंगल करते रहना चाहिए। जो दयाभाव का निरन्तर सिंचन करता है वही भव्य शीघ्र अजर-अमर पद प्राप्त कर लेता है। जीव रक्षण महान धर्म है ||१५|| सत्सम्पद्प्रमदाप्रमोदजननी, विघ्नौघनिर्नाशितो ।. शान्तिक्षान्तिविशुद्ध कति कमला, सत्सङ्ग संभाविनी । नित्यं जीवदया जगत्रयहिता, श्रीमज्जिनेन्द्रोदिता । भो भव्या भवतां भवाब्धितरणिः कुर्यात्सदामङ्गलम् ॥१६॥ अन्वयार्थ – (सत्सम्पत्प्रमदाप्रमोदजननी) उत्तम सम्पत्ति रूपी कामनी के श्रानन्द की माता (वी) विघ्नसमूहों का नाश करने वाली, (शान्ति) शान्त ( क्षान्ति ) क्षमा ( विशुद्धकीर्ति) निर्मलयश (विशुद्ध कमला) नीतिपूर्वक अजित त्रिभूति-लक्ष्मी (सत्सङ्ग ) सत्सङ्गतिकी ( संभाविनी) उत्पन्न करने वाली ( जगत्रयहिता) तीनों लोक का हित करने वाली (श्रीमज्जिनेन्द्रोदिता ) श्रीजिनेन्द्र भगवान से उदित - कथित ( भवाब्धितरणिः ) संसार Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] | श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद सागरतिरने को नौकारूप ( जीवदया ) अहिंसा ( भो भव्या ) हे भव्य प्राणियों ( भवतां ) आपका ( नित्यं ) निरन्तर (सदा ) सर्वत्र ( मङ्गलम् ) मंगल-कल्याण ( कुर्यात् ) करे । भावार्थ - यहां दयाधर्म का लक्षण कथन समाप्त करते हुए भव्यजनों को श्राचार्य श्री प्राशीर्वाद प्रदान करते हैं। जिस प्रकार शीलवती नारी प्रमोद करने वाली होती है, उसी प्रकार दयारूपी प्रमदा उत्तम आनन्द की जननी है। यह दया श्रागत विघ्नसमूह को नाश करने बाली है । शान्ति को देने वाली है। क्षमा गुग्ग की विधायिका है। विशुद्धकीर्तिलता को फैलाने वाली है । विशुद्ध-निर्मललक्ष्मी की प्रदात्री है। सत्समागम कराने वाली है । दयालु के पास सज्जनों का समागम हो ही जाता है । यह दया तीनों लोकों के प्राणियों का हित करने वाली है। जिनेन्द्र भगवान के मुखारविन्द से निकली है। संसार समुद्र के पार करने को सुदृढ जहाज है। नित्य हो कल्याणकारिणी है । इस प्रकार की दया है भव्यात्मन् प्राणियो आप सबका सदैव कल्याण करे, मङ्गल करे ।। १६॥ सत्यस्वरूप वर्णन: • सत्यं हितं मितं पथ्यं विरोध परिवजितम् । वाच्यं कर्णामृतं वाक्यं विवेकविशदेः नरः ॥ १७॥ अन्वयार्थ (विवेकविशदेः ) हेय और उपादेय का विचार करने में चतुर (नरे.:) पुरुषों द्वारा (सत्यम् ) सच्चे, ( हितम् ) हितकारक, ( मिलम् ) सीमित, ( पथ्यम् ) गुणोत्पन्न करने वाले, (विरोध) कलह ( परिवजितम् ) नहीं करने वाले, (कर्णामृतम्) कानों में अमृतसींचने वाले मधुर ( वाक्यम् ) वचन ( वाच्यम्) बोलना चाहिए । यही सत्य व्रत है । भावार्थ- -सत्याण धन का लक्षण समभ आचर्य श्री कहते हैं कि विवेकी, चतुर पुरुषों को सदा हित, मित, प्रिय बारगी बोलना चाहिए। सत्याण बती को कभी भी कलह विसम्बाद होने वाले वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए | सबके साथ प्रिय-मधुरवाणी बोलना चाहिए । सत्यभाषण करने से विरोध समाप्त हो जाता है। सत्याण व्रती महितकारी असत्य भाषण का त्याग करे ।।१७५, सत्येनविमलाको तिस्सत्येन कमलामला | सत्येन परमोधर्मस्सत्येन सुखमुत्तमम् ।। १८ ।। ( सत्येन शीततांयाति वन्हिश्चापि भयानकः । समुद्रस्स्थलतामेति शत्रुभित्रायते सुते ? ।। १६ ।। सत्येन परमानन्दो विश्वासः सर्वदेहिनाम् । तस्मात्सर्वप्रकारेण सत्यं वाच्यं हितार्थिभिः ||२०|| त्रिकुलम् || अन्वयार्थ - - ( सुते ! ) हे पुत्र मदनसुन्दरी ! ( कलिः ) निर्मलयश ( सत्येन ) सत्य से ( अमला) निर्मल सत्येन ) सत्य के द्वारा ( विमला(कमला) लक्ष्मी, (सत्येन ) सत्य से Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] (परमः) उत्तम (धर्म:) धर्म, (सत्येन) सत्यद्वारा (उत्तमम् ) उत्तम (मुखम् ) सुख, (च) और (सत्येन) सत्यधर्मद्वारा (भयानक.) प्रज्वलित हुयी (वन्हिः) अग्नि (अपि) भी गीतताम ) शीतल (याति) हो जाती है । (समुद्रः) सागर (स्थलताम) भूमिरूपता को (ऐति) प्राप्त हो जाता है (शत्रुः) अरि (मित्रायते) मित्र बन जाता है । (सर्वदेहिनाम ) सर्व प्राणियों में (विश्वासः) विश्वास (सत्येन) सत्यद्वारा होता है (परमानन्दश्च) और परमानन्द भी (तस्मात् ) इसलिए (हिताथिभिः) हित चाहने वालों को (सर्वप्रकारेरण) सर्वप्रकार से ( सत्यम ) सत्य (वाच्यम ) बोलना चाहिए । भावार्थ--याचार्यश्री मदनसुन्दरो को सम्बोधन कर सत्यभाषण का माहात्म्य समझाते हैं । हे पुत्रि! सत्याण अत या सत्य से उज्ज्वल कीति होती है, निर्मल यश चारों ओर व्याप्त हो जाता है। सत्य से निष्पाप लक्ष्मी प्राप्त होती है । सत्य से परमोत्कृष्ट धर्म मिलता है। सत्य से उत्तम सुख पाता है । सत्य हो भयानक जलती आग भी पानी समान शीतल हो की है। सागर का ता हो जाता है चीन सागर का पानी भी सत्यबल से तूख जाता है शत्रु भी भित्र हो जाते हैं । सत्य से सबका विश्वासपात्र हो जाता है। सत्य मे परमान्द मिलता है । इसलिए सुख चाहने वालों को सदा सत्य बोलना चाहिए । सत्य धर्म सदैव हितकारी होता है ।।१८-१६-२०॥ सत्यंशर्मशतप्रदं शुभकरं सत्यांसुकीतिप्रदम् । सत्यंजीवदयाद्रुमौधविलसत्पानीयमाहुर्बुधाः ।। सत्यंसर्वजन प्रतीतिजनक, सत्यंमुसंम्पत्प्रदम् । सत्यंदुर्गतिनाशनं गुणुकर, सत्यं श्रयन्तूतमाः ॥२१॥ अन्वयार्थ--सत्यव्रत का उपसंहार करते हुए आचार्य श्री कहते हैं--(सत्यं ) सत्य (शर्मशतम् ) सैकडों सुख (प्रदम ) देनेवाला, (शुभकारम ) शुभ करने वाला (सत्यं) सत्य (सुकीर्तिप्रदम) उज्ज्वल कीति देने वाला, तथा (जीवदयाद्र मोघ) जीवदयारूपी वृक्षों के समूह को (विलसत्पानीयम) सींचने वाला-प्रफुल्ल करने वाला पानी है ऐसा (बुधाः) विद्वज्जन (प्राहुः) कहते हैं । (सत्यं) सत्य (सर्वजन प्रतीतिजनकम् ) सर्व प्राणियों में प्रतीति विश्वास उत्पन्न करने बाले (सत्यं) सत्य (सुसम्पत्प्रदम् ) उत्तम-सम्पदा देने वाला (दुर्गतिनापानम् ) दुर्गति का नाश करने वाला (सत्यं) सत्य (मुणकरम् ) गुणों को करने क.ला (सत्यम ) सत्ययत (उत्तमाः) उत्तमजन (श्रयन्तुः) आश्रय कर अर्थात् धारण करें। भावार्थ---आचार्य श्री कहते हैं कि--विद्वानों का कथन है कि सत्य सैकड़ों सुखों को देने वाला है । शुभ-पुण्य का करने वाला है । उज्ज्वल यश का विकास करने वाला सत्य ही है। सत्य जीवदयारूपी वृक्षों के समूह को हराभरा रखने वाला जल है । सत्य प्रतीति-विश्वास के कारण है । सत्य बोलने वाले का सर्वजन विश्वास करते हैं । उत्तम सम्पत्ति देने वाला सत्य है । सत्य हो दुर्गति का नाश करने वाला है । सत्य सर्बगुणों का कारण है । अतः उत्तम पुरुषों को सत्य का सदा पाश्रय लेना चाहिए ।।२१।। ।।इतिसत्य धर्म निरूपम् ।। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अथ अचौर्य व्रत निरूपणम् स्तेयंपापप्रज्ञेयं, हेयं सद्धिः सुखाथिभिः । यतो भव्या भवन्त्युच्चैनिधीनां पतयः क्रमात् ।।२२।। अन्वयार्थ-(सुखाथिभिः) सुख चाहने वाले (सद्भिः) सज्जनों द्वारा (स्तेयम् ) चोरी (हेयं) त्याज्य (पपप्रदम्) पापदायिनी (ज्ञयम्) जानना चाहिए (यतः) इस प्रकार जानने से (भव्याः) भव्यजन (क्रमात्) क्रमशः (उच्चैः) महान (निधीनाम् ) निधियों का (पतयः) स्वामी (भवन्ति) होते हैं। भावार्थ-जो भव्यात्मा परधन गृहण को हेय समझते हैं अर्थात् विना दी हुयी वस्तु को जो ग्रहरण नहीं करते । चोरो समझते हैं । पाप का कारण मानते हैं। वे भव्यप्राणी अनुक्रम से नवनिधियों, चौदहनों के अधिपति होते हैं ।।२२॥ स्थापितं पतितं चापि परद्रव्यं सुविस्मृतम् । श्रयसं चार पहिया वदम् ॥१३॥ अन्वयाय - (यत्) जो (परद्रव्यम् दूसरे का द्रव्य (स्थापितम्) रक्खा हुआ (पतितम्) गिरा हुआ (च) और (सुविस्मृतम) भूला हुआ (अपि) भी है वह (अदत्त) नहीं दिया (अग्राह्यम् ) लेने योग्य नहीं है (न लेना) (तृतीयम् ) तीसरा (अण व्रतम्) अण व्रत है। भावार्थ-किसी की रक्खी हुयी वस्तु, गिरा हुमा पदार्थ अथवा भूला हुआ परद्रव्य है उसे बिना दिये नहीं लेना तीसरा (अदत्तग्रहण नहीं करना) अस्तेय व्रत है । यही अचौर्यव्रत है । श्रावक का अचौर्याण व्रत कहलाता है ।।२३।। बाह्यप्राणा धनान्युच्चर्जनानामिति निश्चयात् । ततो क्यापरैनित्यं तत्त्याज्यं धर्महेतवे ॥२४॥ ) अन्ययार्य--(धनानि) धन-सम्पत्ति (उच्नैः) विशेष रूप से (जनानाम्) प्राणियों के (वाह्यप्राणा) बाहरी प्राण हैं (इति) इस प्रकार के (निश्चयात् ) निश्चय से (दयापरः) दयालुओं द्वारा (ततः) इसलिए (तत्) बह परधन (नित्यम् ) निरन्तर (धर्महेतवे) धर्म के लिए (त्याज्यम्) त्यागने योग्य है । भावार्थ-संसार में धन को ११ वा वाह्य प्राण कहा है। आगम में जीव के १० प्राण हैं जिनके द्वारा वह “जीता है" यह व्यवहार होता है । परन्तु धन-वैभव को ११ वाँ प्राण माना हैं क्योंकि धन के वियोग में कितनों की प्राण हानि देखी जाती है। जिसका धन चोरी जाता है उसके प्राणनाश होने के समान पाप होता है । इसलिए दयालुजनों को परधन सर्वथा त्यागने योग्य है। दूसरे के प्राणों का रक्षण करना धर्म है । अत: पर धन की रक्षा भी धर्म है । प्रस्तु धर्म रक्षार्थ परधन का त्याग करना चाहिए ।।२४।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [१५७ ये हरन्ति परद्रव्यं लोभग्रहवशीकृताः । तहताश्च परप्राणा, परंपुत्रि किमुच्यते ॥२५॥ अन्वयार्थ--(ये) जो (लोभगृह) लोभरूपी पिशाच से (वशीकृता) वशीभूत हुए (परद्रव्यं) दूसरे के द्रव्य को (हरन्ति) हरण करते हैं (पुत्रि) हे पुत्रि ! (ते.) उनके द्वारा (परप्राणा) दूसरों के प्राण ही (हृताः) हरे गये (च) और (परम्) इससे अधिक (किम्) क्या (उच्यते) कहा जाय ? अर्थात कुछ नहीं । भावार्थ--जो मनुष्य लोभरूपी ग्रह के वश होकर दूसरे धन अपहरण करते हैं वे नियम से उनके प्राणों का संहार करते हैं । आचार्य कहते हैं हे पुत्रि मदनसुन्दरि ! हम अधिक क्या कहें ? चोरी करने वाला हत्यारा है ॥२५॥ स्तेयं पापचयः प्रवन्धनहरं, लज्जाकरं दुःकरम् । कीति स्फीतिहरं कुलक्षयकर, निरिणसम्पद्हरम् ॥ ये भव्याः परिवर्जयन्ति नितरां, संतोषलक्ष्मीयुताः । ते प्राप्यत्रिदशादि सौख्यमतुलं, नित्यं लभन्ते सुखम् ॥२६॥ अन्वयार्थ... (स्तेयं) चोरी (पापचयः) पापसंचय करने वाली, (प्रबन्धनहरम् ) (दु:करम् ) अत्यन्त (लज्जाकरम् ) लल्जा करने वाली (कीति स्फीति) यश के विस्तार को (हरम् ) हरने वाली, (कुलक्षयकरम् ) कुल की नाशक, (निर्वाणसम्पद्) मोक्ष लक्ष्मी को (हरम ) चुराने वाली है ऐसी चोरी पाप को (ये) जो (भच्याः) भव्य जन (संतोषलक्ष्मीयुताः) संतोष रूप लक्ष्मीधारी (नितराम) पूर्णत. (त्यजन्ति) त्याग देते हैं (ते) बे भव्यप्राणी (नित्यं ) नित्य ही (त्रिदशादि) देवादि के (सौस्वम ) सुख को (प्राप्य) प्राप्तकर (अतुलम ) अपरिमित मोक्ष (मुखम् ) सुख को (लभन्ते प्राप्त करते हैं। भावार्थ-चोरी करना महापाप है । इससे पाप का ही संचय होता है, योग्यता का नाश होता है, लज्जा की उत्पत्ति होती है, दुष्कर्म प्राप्त होता है, यश का विस्तार संकुचित हो जाता है । कुल का क्षय होता है । निर्वाण रूपी लक्ष्मी दूर भागती है। जो भव्यजीव इस महापाप का परित्याग करते हैं, संतोषधन धारण करते हैं, लोभ का परिहार करते हैं वे नियम से स्वर्गादि की प्रभूत लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं । पुन: क्रमशः अपरिमित निर्वाण लक्ष्मी के अनन्तकाल तक भोक्ता होते हैं। इस प्रकार अदल द्रव्य कभी भी किसी प्रकार भी स्वीकार नहीं करना चाहिए । चोरी का त्याग धर्म है और सुख का निमित्त कारण है । "इति अचौर्याण प्रत वर्णनम् । अब ब्रह्मचर्याण व्रत का वर्णन करते हैं - यत्परस्त्री परित्यागो, मनोवाक्काय शुद्धितः । संतोषो निजभार्यायां स्यात्तुर्य तदण व्रतम् ॥२७॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ --(यत्) जो (मनोवाक्काय) मन, वचन, काय (शुद्धितः) शुद्धि पूर्वक (परस्त्री) अन्य को स्त्री का (परित्याग) त्याग करना तथा (निजभार्यायाम्) अपनी विवाहित स्त्री में (संतोषः) संतोष करना (तत्) वह (तुर्य) चौथा (अणुव्रतम् ) अण व्रत है। भावार्थ पर स्त्री-अपनी समाज व अग्नि साक्षी पूर्वक जिस कन्या के साथ विवाह होता है वह धर्मपत्नी अपनी निजपत्नी कहलाती है। इसके अतिरिक्त शेष-सधवा, कन्या, विधवा आदि सभी स्त्रियाँ परस्त्री कहलाती हैं। इनका मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक त्याग करना अर्थात् मन से, वचन से अथवा काय से उनके प्रति रागभाव से प्रवर्तन नहीं करना तथा अपनी स्त्री में संतुष्ट रहना। अर्थात् उसका भी मर्यादित रूप में भोग करना यह चौथा ब्रह्मचर्याण व्रत कहलाता है । इस व्रत का स्त्री सभोग करता हुआ भी उससे विरक्त भाव रखता है। ग्रासक्ति पूर्वक अपनी पत्नी के साथ भी भोग नहीं करता। मात्र कर्म की बलवत्ता का प्रतीकार करता है ।।२७।। ये परस्त्री रताः पापाः विवेकपरिवजिताः। तेषां दुःखानि जायन्ते, लोकेऽवपरत्र च ॥२८॥ अन्वयार्थ-(ये) जो (विवेक) हेयोपादेयज्ञान से (परिवजिताः) हीन हैं, (परस्त्रीरता:) पर स्त्री में आसक्त हैं (पायाः) वे पापी है (तेषाम् ) उनके (अत्रैव) इस हो (लोके) लोक में (च) और (परत्र) परलोक में भी (दुःखानि) अनेक दुःख (जायन्ते ) होते हैं ।।२८।। भावार्थ-जो पुरुष पर स्त्री में प्रासक्त होते हैं । वे लोक में महापापी हैं । विवेक से शून्य होते हैं । उनको कर्तव्याकर्तव्य का विवेक नहीं रहता। सतत विषयाभिलाषा के आश्रय रह असत्य, चोरी आदि पापों में भी लगे रहते हैं । लोक में निंद्य माने जाते हैं, दुर्जन कहे जाते हैं । बध बन्धनादि दुःखों को पाते हैं । परलोक में दुर्गति-नरक तिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं वहाँ च्छेदन-भेदन, ताडन-मारण, शुलीरोहण, बध-बन्धन आदि अनेकों कष्टों से उत्पन्न वेदना को भोगते हैं । इस प्रकार उभयलोक में दुःखों के ही पात्र बने रहते हैं ।।२८।। परस्त्री स्वयमायाता, साऽपि सन्त्यज्यते बुधैः । सपिरणीवसदाराजन्, शीललीला समुन्नतः ॥२६॥ अन्वयार्थ (राजन् ) हे राजन् श्रीपाल ! (स्वयम्) अपने पाप (मायाता) प्रायो हुयी (अपि) भी (परस्त्री) परस्त्री (णीललीलासमुन्नतैः) शोलाचार में प्रवर्तन करने वाले (बुधैः) विद्वानों द्वारा (सा) वह परनारी (सदा) हमेशा (सपिणी) सांपिन (इव) समान (सन्त्यज्यते) दूर ही से त्याग दी जाती है ।। भावार्थ--प्राचार्य श्री उपदेश कर रहे हैं, हे राजन् श्रीपाल ! सुनिये, जो पुरुष, शीलव्रत के रसिक हैं, ब्रह्मचर्यव्रत में ही विलास करने वाले हैं वे विवेकी हैं, विद्वान हैं, सज्जन Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१५६ हैं । परनारी उनकी दृष्टि में भयङ्कर विष रो भरी सर्पिणी समान होती है। जिस प्रकार सपिरणी को देखते ही दूर से उसका परिहार कर दिया जाता है, उपाय पूर्वक उससे बचने का प्रयत्न करते हैं उसी प्रकार शीलवती सदाचारी, परनारी का त्याग कर उससे बचने का प्रयत्न करते हैं । पुरुषों को हो नहीं महिलाओं को भी इसी प्रकार पर पुरुष का विषधर सर्पवत् दूर से ही परिहार करना चाहिए ।।२६।। इसी भाव का निम्न श्लोक है-- कुलस्त्रीभिस्तथालोक्य, कामदेवाकृतिसदा । 'परो नराः परित्याज्या, भ्राता तातोऽयमित्यलम् ॥३०॥ अन्वयार्थ--(तथा) उसी प्रकार (कुलस्त्रीभिः) कुलीन नारियों द्वारा (कामदेवाकृति) कामदेव सश रूपलावण्य बाला भी (परो नरः) पर पुरुष (सदा) निरन्तर (अर्थ) यह (भ्राता) भाई है (ताता पिता है (इति) इस प्रकार (ग्रालोक्य) देखकर-जानकर (परित्याज्या:) त्यागने योग्य है (इत्यलम्) अधिक क्या कहें ? भावार्थ-ब्रह्मचर्याण व्रती पुरुष को जिस प्रकार परस्त्री सेबन दुःख ताप एवं पार होता है उसी प्रकार पर पुरुष अभिलाषिणी कुलटा नारियाँ महापापिनी उभयलोक में नाना दुःस्त्र भोगती हैं। इस लोक में बध-वन्धन आधि, व्याधियों की शिकार बनती हैं, परलोक में दुर्गतियों में पडकर छेदन-भेदनादि काष्ट भोगती हैं । नरकों की वेदना सहती हैं, गरम-गरम जलती यी परुषाकार लोहे के गोलों से चिपकायी जाती हैं। इस प्रकार नाना यातनानों की पात्र होती हैं । अतः बामदेव के समान भी पर पुरुष को भाई, पिता समान मानना चाहिए । कैसा भी सुन्दराकृति क्यों न हो पर पुरुप भयङ्कर विषधर (सर्प) समान त्यागने योग्य है ।।३०।। शीलं सौरव्यकर प्रमोदजनक शीलं कुलोद्योतकम । शीलं सार विभूषणं, गुरणकर, शीलं च लक्ष्मीकरम् ॥ शीलं सुव्रतरक्षणं, शुभकर, शीलं यशः कारणम् । तस्मात्पुत्रि बुधा जिनेन्द्र कथित शीलं श्रयन्ति त्रिधा ॥३१॥ अन्वयार्थ प्राचार्य शीलधर्म की महिमा निरूपण कर रहे हैं (शीलम्) (प्रमोद जनकम् ) आनन्द उत्पन्न करने वाला, (सौख्यक) सुखी करने वाला. (कुलोद्योतकरम ) कुल को प्रकाशित करने वाला (शीलम ) शीलवत है। (शीलम) शील ही (गुणकरम ) श्रेष्ठ मानवोचित गुरणों को प्रकट करने वाला (सार विभूषणम् ) वास्तविक आभूषण है, (शीलं) शील हो (लक्ष्मीकरम ) नानाप्रकार सुख साधक लक्ष्मी प्राप्त कराने वाला (च) और (शील) शील ही (सुव्रतरक्षणम् ) श्रेष्ट नतों का रक्षण करने वाला (शुभकरम्) पुण्योत्पादक, है तथा (यश:) कीति का (कारणम ) कारण (शीलम ) शील ही है, (तस्मात् ) इसलिए (पुत्रि) हे बेटी मैंना ! (बुधाः) विद्वान लोग (जिनेन्द्र कथितम ) जिनदेव कथित (शीलम ) ब्रह्मचर्यव्रत को (विधा) मन, वचन, काय से (श्रयन्ति) आश्रय करते हैं । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद मावार्थ-इस शीलवत का माहात्म्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उसका वर्णन साधारर्णतः हो नहीं सकता । तो भी यहाँ कुछ वर्णन किया है। आचार्य कहते हैं हे पुत्रि! यह शीलव्रत या ब्रह्मचर्याण ब्रत समस्त आनन्द, सुखों का प्रदाता है। स्वर्ग-मोक्ष के सुख इसी से प्राप्त होते हैं । यह मानव का श्रृंगार है, नारियों का आभूषण हैं, सत्यादि अनेक गुणों का उत्पादक है । सभी व्रतों की स्थिति इसी ब्रत के रहते होती है। पुण्यानुबन्धी पुण्य का यह निमित्त है। यशोपताका फहराने वाला है। दुःकार्यों को भी सरल बनाने वाला है अग्नि का जल भी बनाने की इसमें सामर्थ्य है लौकिक-पालौकिक लक्ष्मी का यह प्रदाता है। जिनेन्द्र भगवान श्री सर्वज्ञ द्वारा कथित है अतः इसमें संदेह नहीं है। इसीलिए चतुर विद्वान सज्जनजन इस शीलव्रत को अमूल्य कण्ठहार समान धारण करते हैं । हे पुत्रि ! तुम भी इसे धारणकरो। तुम्हारे सर्वकार्य अनायास सिद्ध होंगे। समस्त दुःख-तापादि नष्ट होंगे। तुम सुख सौभाग्य की अधिष्ठात्री बनोगी ।।३१॥ इति अब परिग्रह परिमाण पाँचवे प्रण व्रत का लक्षण कहते हैं प्रत्यक्षा सोशिल्प, श्रापमा परिग्रहे। तदण व्रतमाम्नांतं, पञ्चमं पूर्वसूरिभिः ॥३२॥ अन्वयार्थ - (यत्) जो (परिग्रहे) परिग्रह के विषय में (श्रावकानां) श्रावकों का (नित्यम ) हमेशा (प्रमाणम) प्रमाण (भवेत्) होवे-होता है (तद् ) उसे (पूर्वसूरिभिः) पूर्वाचार्यों द्वारा (आम्नातम ) आगमपरम्परा से (पञ्चमम.) पांचवां (अणु शतम् ) अणु व्रत (उक्तम) कहा है। भावार्थ-तृष्णा एवं लोभ का संवरण करने के लिए प्रतीश्रावक, परिग्रह के विषय कुछ मर्यादा या सीमा करता हैं । "मैं अमुक प्रमाण में धन-धान्यादि अपने पास रक्खू गा" इस प्रकार का व्रत लेना परिग्रहप्रमाण अणुव्रत कहा जाता है। ऐसा परम ऋषियों का कथन है । आगमानुसार इस व्रत का धारी सीमा से बाहर के पहिग्रह का सर्वथा त्यागी हो जाता है अत: उससे उत्पन्न पाप से वह बच जाता है ।।३२॥ संख्यां विना न संतोषो जायते भुवि देहिनाम् । तस्माद् भव्यः प्रकर्तव्याः सा संख्या सर्ववस्तुषु ॥३३॥ अन्वयार्थ --(भुवि ) संसार में (देहिनाम) मनुष्यों को (संख्याम ) संख्या प्रमाण किये (बिना) बिना (संतोषः) संतोष (न) नहीं (जायत) हाता ह । सलिए (भव्यः) भव्यजीवों को (सर्ववस्तुधु) समस्त पदार्थों में (सा) वह (संख्या) गिनती-प्रमाण (प्रकर्तव्याः) करना चाहिए। भावार्थ--पदार्थों का प्रमाण किये बिना शरीरधारियों-मनुष्यों को संतोष प्राप्त नहीं होता । सन्तोष विना सुख नहीं मिलता । अतः सुखार्थियों को संतोष करना चाहिए । संतोष Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद] की प्राप्ति के लिए परिग्रह का प्रमाण अनिवार्य रूप से करना चाहिए ।।३।। संतोषेण भवेन्नित्यं सत्सुखं भव्यदेहिनाम् । युक्त पद्माकराणां हि प्रकाशं कुरुते रविः ॥३४।। अन्वयार्थ-(भव्यदेहिनाम्) भव्य जीवों को (सन्तोषेण) से (नित्यम् ) सतत (सत्सुखम्) उत्तमसुख (भवेत्) होता है (युक्तम् ) ठीक ही है (हि) निश्चय से (पद्माकरारणाम.) कमलों को (रविः) सूर्य ही (प्रकाशम ) प्रकाशित-प्रफुल्ल (कुरुते ) करता है। भावार्थ--जिस प्रकार पद्मसमूहों को सूर्य का प्रकाश ही प्रफुल्ल करता है उसी प्रकार सन्तोष ही भव्य जीवो को सच्चा सुख दे सकता है। मत्वेवं धनधान्यादि चतुष्पदपरिग्रहे । परिमाणं प्रकर्त्तव्यं सदा सद्भिः सुखाथिभिः ॥३५॥ अन्वयार्थ--(एवं) इस प्रकार (मत्या) मानकर (सुखाथिभिः) सुख चाहने वाले (सद्भिः) सत्पुरुषों को (सदा) हमेशा (धन धान्यादि) धन, धान्य आदि का (चतुष्पद) गाय, भैस, हाथी घोडा आदि (परिग्रहे) परिग्रह के सम्बन्ध में (परिमाणं) सीमा (प्रकर्त्तव्यम) करना चाहिए। मावार्थ--उपर्युक्त नियमानुसार सुखेच्छ ओं को दश प्रकार के-धन, धान्य, गाय, भैस, गज, अश्वादि के विषय में प्रमाण करना चाहिए ।।३५।। एतान्यण व्रतान्युच्चैः श्रावकानां भवन्त्यलम् । पञ्चप्राहुबुधा राज्यभुक्ति षष्ठमण व्रतम् ॥३६।। अन्वयार्थ—(श्रावकानां) श्रावकों के (एतानि) ये (पञ्च) पांच (अण व्रतानि) अण व्रत (भवन्ति) होते हैं (इति) इस प्रकार (अलम ) यह पर्याप्त है (बुधाः) विद्वान (षष्ठम् ) छठवाँ (अण व्रतम ) अण प्रत (रात्रि प्रभुक्ति) रात में भोजन नहीं करना (प्राहु) कहा है। भावार्थ-श्रावकों के उपयुक्त पाँच अणु व्रत हैं। छठब रात्रिभोजन त्याग भी अणु व्रत है ।।३६॥ पतत्-कीट पतङ्गार्भक्षणाग्निशिभोजनम् । त्याज्यं पापप्रदं नित्यं मांसवत विशुद्धये ॥३७॥ अन्वयार्थ .... (निशिभोजनम ) रात्रि भोजन (भक्षणात् ) करने से (कोट पतङ्गाद्य :पतत्) सूक्ष्म जन्तु, पतङ्गादिपडने से मांसभक्षण दोष होता है अत: (मांसत्यागवतविशुद्धये) मांस Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२]] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद त्याग व्रत की शुद्धि के लिए (नित्यं) नित्य ही (पापप्रद) पापदायि (रात्रिभोजनम ) रात्रिभोजन (त्याज्यम ) त्यागने योग्य है । भावार्थ--रात्रि में सूक्ष्म जन्तुओं का अधिक संचार होता है । मच्छर, पतङ्गपादि दिन में सूर्य के प्रकाश में बाहर नहीं निकलते । सूर्यास्त के बाद उनका संचार होने लगता है । भोजन में गिर कर मर जाते हैं । उसके भोजन करने से मांस भोजन का पाप लगता है । इसलिए मांसत्याग मूलगुण को शुद्धि के लिए गत्रिभोजन का त्याग करना चाहिए ।।३७।। । रात्रिभुक्ति परित्यागात् सम्पदो विविधा भवेत् । ( रूप लावण्यसौभाग्य सम्प्राप्तिश्च दिने-दिने ॥३८।। अन्ययार्थ--(रात्रिभुक्ति) रात्रि भोजन (परित्यागात) परित्याग करने से (बिविधा) नानाप्रकार की (सम्पदा) सम्पत्ति (भवेत्) होती है । (च) और (दिने दिने) प्रतिदिन (रूप) सौन्दर्य (लावण्य) आकर्पण (सौभाग्य) सुख-सम्पत्ति (सम्प्राप्तिः) प्राप्त होती है । भावार्थ - रात्रिभोजन का त्याग करने वाले को अनेकों सम्पत्तियाँ-धन वैभवादि प्राप्त होते हैं । प्रतिदिन सौन्दर्य बढ़ता है । रूप लावण्य को, सुख और शान्ति प्राप्त होती है ।।३।। रात्रौ भूरि पतङ्गकोटपतनात्, तद्भक्षरणात् प्राणिनाम् । पापं पार विजितं भवति भो भव्या भवोत्पादकम् ॥ तस्मात् साधुजनैः विचारचतुरैः त्याज्यं निशाभोजनम् । येनस्यात् सुखकोटिरत्नपरतः कीर्ति प्रमोदः परः ।।३।। । अन्वयार्थ- (रात्री) रात्रि में (भूरि) बहुत से (कीट पतङ्ग) जन्तुओं के (पतनात् ) गिरने से युक्त (तद्) उस भोजन को (भक्षणात्) खाने से (प्राणिनाम्) प्राणियों के (पारविवर्जितम्) असीम् (पापम् ) पाप (भवति) होता है (भो भव्याः ) हे भव्यजनों ! (तस्मात् इस कारण से (विचारचतुरैः) विवेकीजनों, (साधजनेः) सज्जनों को (भवोत्पादकम) ससार जनक (निशाभोजनम् ) रात्रिभोजन (त्याज्यम ) त्यागना चाहिए । (येन) जिससे (कोटिरत्नपरतः सुख) करोड़ों रत्नों से उत्पन्न सुख से भी अधिक सुख (कोति) यश (प्रमोद:) प्रानन्द (परः) उत्तम (सुखम्) सुख (स्यात्) होगा । होता है। भावार्थ- रात्रिभोजन त्याग की महिमा अपार है । इस व्रत का धारी असंख्य जीवों को अभयदान देता है । क्योंकि रात्रि में भोजन बनाने मे अथवा दिन में भी बनाकर रखने पर भी उसमें असंख्यात जीव पड़-पड़ कर मर जाते हैं । इससे अपरिमित पाप होता है । प्राचार्य श्री कहते हैं हे नव्यात्मन् भक्तजन हो, आप विवेको हो, विचार चतुर हो, तनिक सोचो, विचारो इस रात्रिभोजन त्याग से महासुख प्राप्त होता है । करोडों रत्नों का संचय करने पर Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [ १६३ भी जो आनन्द मिलता है उससे भी कोटिगुणा आनन्द और सुख इस व्रत से प्राप्त होता है। इसलिए धर्मात्मायों को इस भव-संसार उत्पादक निशाभोजन का सर्वभात्याग करना चाहिए ||३६|| अब जल छानने का विधान वर्णन करते हैं- ( जलानां गालनं पुण्यं प्रसिद्धं भुवनत्रये । तस्मादगालितं तोयं, वर्जनीयं विवेकिभिः ॥४०॥ अन्वयार्थ - ( भुवनत्रये) तीनों लोकों में ( जलानाम् ) पानी का ( गालनम् ) छानना (प्रसिद्ध ) प्रसिद्ध ( पुण्यम) पुण्य हैं ( तस्मात) इसलिए ( अगालित) बिना छना ( तोयम् ) पानी ( विवेकिभिः) विवेकीजनों द्वारा ( वर्जनीयम् ) त्यागना चाहिए । भावार्थ - तीनों लोकों में पानी का छानना पुण्य कारण है यह सुप्रसिद्ध है । इसलिए विचारज्ञजनों को बिना छना जल त्यागना चाहिए । अर्थात् छाने बिना जल को किसी भी कार्य में नहीं लाना चाहिए ||४०|| जल किस प्रकार छानना चाहिएछन्ना कैसा हो- षट्त्रिंशदंगुलं वस्त्रं चतुविशति विस्तृतम् । तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्यतोमं तेन तु गालयेत् ॥ १४१ ॥ श्रन्वयार्थ -- ( षट्शदंगुलं ) ३६ - छत्तीस यंगुल का ( वस्त्रं ) कपड़ा ( चतुर्विंशति) जौबीस अंगुल (विस्तृतम्) चौडा है (तद्वस्त्रम् ) उस कपड़े को ( द्विगुणी ) दुहरा--दोपत ( कृत्य ) करके (तु) और (तेन) उससे ( तोयं ) जल को (गालयेत् ) छाने । भावार्थ - छत्तीस अंगुल लम्बा और २४ - चौबीस अंगुल चौड़ा वस्त्र लेकर उसे दोहरा करें। इस प्रकार हरे कपड़े से पानी को छानना चाहिए। अव्यवा जितना वर्तन हो उसके अनुसार रखें । यस्मात् तोयं समानीतं गालयित्वाति यत्नतः । तज्जीवसंयुतं तोयं पुनः तत्रेव मुच्यते ॥ ४२ ॥ | अन्वयार्थ -- ( तस्मात् ) इसलिये ( तोयम् ) जल को ( यत्नतः) सावधानी से ( गालfarar) छानकर (समानीतम्) लाना चाहिए (पुनः) फिर (तत्) उस ( जीवसंयुतं तोयम ) जीवानी को छानने पर बचे - जल को (तत्रैव) उसी जलाशय में ( मुच्यते ) डालना चाहिए । भावार्थ - भव्य दयालु श्रावकों को यत्न पूर्वक पानी छानकर लाना चाहिए। ऊपर कहे हुए प्रमाण वाला छन्ना कुआ या तालाब आदि पर लेकर जाना चाहिए। वहीं पर पानी छानकर भरे । तदनन्तर छन्ने में आयी जीवराशि को थोडा पानी डालकर घड़े या खाली Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद वाल्टी में लेकर उन जीवों को-जिबानी को उसी जलाशय में विसर्जन कर । घर में लाने के बाद भी प्रत्येक ४८ मिनिट में पुन:-पुनः छानकर काम लाना चाहिए । हर समय जीवानी को एक पात्र में संचित करते जाना चाहिए। पून: जब पानी भरने जावें तो उस एकत्रित जिवानी को साथ ले जाकर उसी जलाशय में डाल देना चाहिए । अन्य पानी के जीवों को अन्य-दूसरे पानी में मिलाने से उनकी विराधना होगी। अस्तु जिस जलाशय का पानी लादे उसी में जिबानी डाले ॥४२॥ गालितं तोयमप्युच्चैः सम्मूछति मुहूर्ततः। प्रासुकं याम युग्मं च, सदुष्णं प्रहराष्टकम् ॥४३॥ अन्वयार्थ - (गालितम ) छना हुआ (अपि) भी (तोयम.) जल (उच्चः: विशेषतः (मुहूर्ततः) एक मुहूर्त में (सम्मूच्र्छति) जीवसहित हो जाता है, (प्रासुक) कपूर, लवङ्ग, इलायची आदि डालकर प्रासुक किये जल की मर्यादा (युग्म) दो (याम) प्रहर (च) और (सदुष्ण) गर्म जल की (अष्टकम) पाठ (प्रहरः) पहर है । भावार्थ-एक बार छानने के बाद ४८ मिनिट तक ही पानी की मर्यादा है । इसके बाद पुनः छानकर काम में लेना चाहिए। लेबङ्गादि से प्राशुक किये जल की मर्यादा २ प्रहर अर्थात् ६ घण्टे की है तथा उबाले जल को मर्यादा ८ प्रहर अर्थात् २४ घण्टे है । इस सीमा के बाहर होने पर उस जल को अशुद्ध समझना चाहिए ।।४३।। जल को प्रासुक करने की विधिः-- कर्पूरैलालबङ्गाद्यस्सुगन्धस्सार वस्तुभिः । प्रासुकं क्रियते तोयं, कषायव्यस्तथा ।।४४।। अन्वयार्थ- (क' र) कपूर (ऐला) इलायची (लवङ्गादि) लवंग आदि (सुगन्धैः) सुवासित (वस्तुभिः) वस्तुओं द्वारा (तथा) तथा (कषाय:) हरड, आंवला आदि कषायले (द्रव्यकैः) द्रव्यों द्वारा (तोयम ) जल को (प्रासुकं) प्रासुका (क्रियते) किया जाता है। भावार्थ-जल को प्रामुक करने के लिए उसमें कपुर, इलायची, दालचीनी, सौंफ, लौंग आदि पदार्थ डालना चाहिए । इन्हे पीस कर डालना चाहिए जिससे पानी का रूप, रस गंधादि परिबलित हो सके । इनके अतिरिक्त हरड, आंवला, बहेडा आदि कषायले द्रव्यों से भी प्रासुक किया जा सकता है । इस जल की मर्यादा छु: घण्टे की हो जाती है ।।४४।। अब अभक्ष्य पदार्थों का वर्णन करते हैं कन्दमूलश्च सन्धानं, काजिकं गुञ्जनं तथा । नवनीतं पुष्पशाकं, विल्यञ्चफलकं त्यजेत् ॥४५॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '' 7 श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [ १६५ प्रन्वयार्थ - ( कन्दमूलम ) बालू, गाजर, मूली प्रादि (च) और ( सन्धानं ) प्रचार, मुरब्बा ( काञ्जिकम ) काजी ( गुञ्जनं ) गाजर (तथा) और ( नवनीत ) मक्खन (पुष्प) फूल ( शाकम) पत्ती की भाजी (त्र) और ( विल्बम) बेलगिरि ( फलकम् ) फलों को ( स्वजेत्) छोडे । अर्थात् भक्षण नहीं करे । भावार्थ - आलू, गाजर, मूली आदि कन्दमूल, आचार, मुरब्बा काञ्जीफल, गृञ्जन-गाजर मक्खन, पुष्प ( केशर, नागकेशर, लवंग, जावित्री और मिलावा के फूलों को छोड़कर अन्य) पत्ती के शाक, बिल्वफल ये प्रभक्ष्य हैं इनको नहीं खाना चाहिए || ४५ || तथा मौनव्रताद्युच्चैर्यदुक्त जिनपुङ्गवैः । तत्सर्वं पालनीयं हि श्रावकाणां जगद्धितम् ॥४६॥ अन्वयार्थ - - (तथा) और (मौनव्रतादि) मौन व्रत आदि (यद् ) जो ( जिनपुङ्गवैः ) जिन भगवान द्वारा ( उक्तम ) कहे गये हैं (तत्) वे (सर्व) सर्वव्रत ( जगद्धितम ) जगत के हितकारी (श्रावकारणां) श्रावकों को (उच्च) प्रयत्न पूर्वक (हि) निश्चय से ( पालनीयम) पालन करना चाहिए । भावार्थ- शावकों को सात स्थानों में रखना चाहिए १. भोजन करते समय २. वान्ति होने पर ३. मल-मूत्र विसर्जन करते समय, ४. स्नान करते समय ५. मैथुन सेवन करते समय ६. जिनेन्द्र पूजा करते समय और ७. स्वाध्याय काल में और भी व्रत नियम जो जो जिनागम में वणित हैं उन समस्त व्रतों को यथायोग्य पालन करना चाहिए। ये व्रत संसार के हित कर्ता हैं । अर्थात् व्रतों के पालक सभी जीवों का कल्याण होता है ॥ ४६ ॥ दिग्देशानर्थदण्डोच्चैर्नामान्येतानि धोधनंः । गुणव्रतानि त्रीण्येव पालनीयानि शर्मणे ||४७ ॥ अन्वयार्थ - (दिग्देशानर्थदण्ड :) दिस्त्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत ( नामानि ) नाम के ( एतानि ) ये ( गुरव्रतानि) गुरणव्रत (श्रीशिप) तीनों (एव) ही (बोधन) विद्वानों द्वारा ( शर्मा ) सुख के लिए ( पालनीयानि ) पालने योग्य हैं । भावार्थ - श्रावकों के तीन गुणव्रत होते हैं १. दिग्वत २. देशव्रत ३ श्रनर्थदण्डव्रत । इन तीनों का पालन करना प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है । ये सुख के देने वाला और शान्ति करने वाले हैं। इसलिए प्रयत्न पूर्वक पालन करना चाहिए ॥ ४६ ॥ अब आचार्य श्री इनका लक्षण क्रमशः बतलाते हैं -- दिग्व्रतकथ्यते तच्चसदिक्षुवयापरैः । योजनैः क्रियतेसंख्या जन्मपर्यन्तकं हि यत् ॥४८॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ- (दयापरैः) दयालु श्रावकों द्वारा (सर्वदिक्षु) दसों दिशाओं में (जन्मपर्यन्तकम् ) जीवनपर्यन्त के लिए (यत्) जो (योजन:) योजनों द्वारा (संख्या) गिनती प्रमाण (क्रियते) किया जाता है (ह) नियम से (त) पहें (दितिम ) दिग्वत (कथ्यते) कहा जाता है। भावार्थ---जीवनभर के लिए दशों दिशाओं में आने-जाने की दुरी का प्रमाण करना दिग्नत है । "मैं अमुक-अमुक दिशा में १००-१०० योजन या अधिक कम जाऊँगा" की हुयी सीमा के बाहर कभी भी नहीं जाना दिखत है। अन्य भी पर्वत, नदी, ग्राम, देशतक का भी प्रमाण किया जा सकता है । यथा उत्तर में हिमालय, पूर्व में वर्मा, दक्षिण में लङ्का, पश्चिम में अरबसागर तक हो जाऊँगा. इसी प्रकार विदिशाओं और ऊपर-नीचे जाने माने का प्रमाण कर लेना दिग्बत है अर्थात दिशाओं में व्रत धारण करना ।।४।। देशव्रत का स्वरूप-- तन्मध्ये नित्यशः स्तोकसंख्या सक्रियते बुधैः । देशवतं तदाख्यातं भो सुते ! पूर्वसूरिभिः ॥४६॥ अन्वयार्थ--(तन्मध्ये) जन्मभर के लिए की, मर्यादा में (नित्यश:) प्रतिदिन (बुधः) विद्वानों द्वारा (स्तोकसंख्या) कम-कम संख्या (संक्रियते) की जाती है (तद्) वह (भो सुते ! ) हे पुत्रि ! (पूर्वसूरिभिः) पूर्वाचार्यों द्वारा (देशवतम् ) देशवत (आख्यातम् ) कहा गया है। मावार्थ--जन्मपर्यन्त के लिए की गई दशों दिशा की मर्यादा में से प्रतिदिन इच्छानुसार गली, घर, मुहल्ला, गांव, शहर, क्षेत्र आदि की मर्यादा लेकर क्षेत्र को कम करना देशव्रत है । आचार्य कहते हैं हे पुत्रि ! मदनसुन्दरी ! पूर्वाचार्यों ने जैसा देशव्रत का स्वरूप कहा है वही मैंने तुम्हें बतलाया है ।।४।। अनर्थदण्डवत का लक्षण; त्यज्यते विफलारम्भो, यत्सदाधर्मवेदभिः । पृथिवी जलावियातोरवनस्पति विराधकः ।।५।। कुक्कुरमार्जारकीरमर्कटकादयः ।। दुष्ट जीवानपोषन्ते तं तृतीयं गुणवतम् ॥५१॥ ; अन्वयार्थ (यत्) जो (धर्मवेदभिः) धर्म के ज्ञाता जन (सदा) सतत (पृथिवीजलवात) भूमि, जल, वायु (उरु) बहुत सी (वनस्पति) वनस्पतिकाय पेड़ पौधे (आदि) अग्निकाय जीवों की (विफलारम्भः) व्यर्थ ही, निष्प्रयोजन आरम्भ कर (बिराधकः) छेदन, भेदनादि का (त्यज्यते) त्याग करते हैं (तथा) (एवं) इसी प्रकार (कुक्कुर) कुत्ता (मार्जारः) विल्ली (कोर:) तोता (मर्कटादयः) बन्दर आदि (दुष्टजीवान्) मांसाहारी जीवों को (न) नहीं (पोषन्ते) पोषते हैं (तं) व (तृतीय) तीसरा अनर्थदण्डयत (गुणवतम् ) गुणवत (भवति) होता है ।।५०-५१ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद | [१६७ पापोपदेश हिंसादानापथ्यानदुःश्रुतिपञ्च । प्राहुप्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ।।५२।।र० श्रा०॥ अन्वयार्थ--(अदण्डधराः) मन, वचन, काय का अशुभपरिणमनरूप दण्ड से रहित मणधरादि ने (पापोपदेश) पाँच पापों का उपदेश, (हिसादान) छरी आदि हिंसा के उपकरणों का दान, (अपध्यान) दुर्ध्यान (दुःश्रुतिः) कषाय, कलहादि बर्द्धक शास्त्रों या चर्चादि का सुनना तथा (प्रमादचर्या) प्रमाद पूर्वक प्रवृत्ति ये (पञ्च) पाँच (अनर्थदण्डान्) अनर्यदण्ड (प्राहु) कहा है। भावार्थ-गणधररादि ने अनर्थदण्ड के ५ भेद कहे हैं---१. पापोपदेश २. हिंसादान ३. अपध्यान ४. दुःश्रुति और ५. प्रमादचर्या । १. पापोपदेश–बलि चढ़ाने से पुण्य होता है, यज्ञ में की गई हिंसा हिंसा नहीं, पितर पिण्डदान से संतुष्ट होते हैं इत्यादि पापकों का उपदेश देना पायोपदेश है ।। २. हिंसादान - छरी, कटारी, बन्दूक, तलवार, चूहादानी आदि हिंसा के कारणभूत द्रव्यों का दान देना हिंसादान है। ३. अपध्यान--मन में अशुविचार रना, किसी का अनिष्ट सोचनामादिः । अथवा अपने लिए खोटा विचार करना अपध्यान है। ४. दुःश्रुति- जिनके सुनने से कलह, वैर, द्वेष, लड़ाई झगड़े होने की संभावना हो इस प्रकार के पोथी, पुराण, चर्चा-वार्तादि सुनना दुःश्रुति है । ५. प्रमादचर्या बिना प्रयोजन के इधर-उधर आना-जाना, गप्प गोष्ठी करना, पानो फैलाना, पृथ्वी खोदना आदि प्रमादचर्या है । इन पांचों अनर्थदण्डों का त्याग करना अनर्थदण्डव्रत है ॥५२।। सामायिकंवतं, पर्वोपवासोपभोगयुग्मकम् । संविभागोऽतिथीनां च, शिक्षाक्तचतुष्टयम् ॥५३॥ अन्वयार्थ - (सामायिकम् ) तोनों संध्यायों में सावध का त्याग करना (पोपवास) अष्टमी और चतुर्दशी पर्यों में उपधासादि करना पर्वोपवास (व्रतम) व्रत है । उपभोगयुग्मकम) उपभोग परिभोग (च) और (अतिथीनाम ) व्रती एवं महाव्रतीयों को (संहिभागः) चारों प्रकार दान देना (ये) ये (चतुष्टयम ) चारों (शिक्षाब्रतम ) शिक्षाबत हैं। भावार्थ --श्रावकों के चार शिक्षाव्रत हैं। जिनसे मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा मिलती है उन्हें शिक्षायत कहते हैं । ये चार हैं--१. सामायिक, २. प्रोषधोपवास ३. भोगोपभोगपरिमाण और ४. प्रतिथिसंविभाग। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद १. सामायिक—चारों दिशाओं में क्रमश: ६-६ बारणमोकार मन्त्र पढ कर तीनतीन पावर्त और एक-एक शिरोनति नमस्कार करे । तत्पश्चात् यथाशक्ति समय की मर्यादाकर सर्वपापों से निवृत्त हो एकाग्रचित से ध्यान या किसी भी मन्त्र का जाप करे। यह सामायिक शिक्षाव्रत है। २. प्रोषधोपवास--महीने में दो अष्टमी और दो चतुर्दशी आती हैं। इन पर्वकालों में यथाशक्ति प्रोषध-एकाशन, उपवास अथवा प्रोषधोपवास १६ पहर का उपवास करना । यथा अष्टमी का प्रोषधोपवास करना है तो ७ मी और नवमी को एकभुक्ति और अष्टमी को उपवास करना यह प्रोषधपूर्वक उपवास प्रोषधोपवास कहलाता है। ३. भोगोपभोगपरिमाण जो पदार्थ एकबार भोगने में पाते हैं बे भोग हैं यथाभोजन, तैल, पानादि । जिन पदार्थों का बार-बार भोग किया जा सके उन्हें उपभोग कहते हैं । इन भोग और उपभोग के पदार्थों की सीमा मर्यादा करना भोगोपभोग परिमाण शिक्षानत है। ४. अतिथिसंविभाग---उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों को आहारादि दान देना अतिथिसंविभाग शिक्षावत है ।।५३।। सामायिक शिक्षाव्रत का लक्षण--सामायिक करते समय क्या करना चाहिए समता सर्वजीवेषु संयमे शुभभावना । हिंसारम्भपरित्यागस्तावत्कालं जगद्धितः ॥५४॥ चैत्यभक्तिस्तथा पञ्चगुरुभक्ति विशेषतः । वैराण्यभावनाचित्ते तथा दुनिवर्जनम् ॥५५॥ द्वित्रिसन्ध्यां सुतेभौस्सामायिकविधिर्महान् । स्वर्गमोक्षसुखप्राप्त्यौ कर्तव्यो निश्चलाशणैः ॥५६॥ अन्वयार्थ-(तावत्कालम) जितने समय सामायिक करे तब तक (सर्वजीवेषु) प्राणीमात्र में (समता) साम्यभाव-राग-द्वेष परित्याग (संयमे) संयम में (शुभभावना) शुभभाव, (हिसारम्भ) हिंसा और आरम्भ का (त्यागः) त्याग (जगद्धितः) विश्वहित की भावना (विशेषतः) विशेष रूप से (चैत्यभक्तिः) चैत्यभक्तिः) चैत्यभकि पढना (तथा) और (पञ्चगुरुभक्तिः) पञ्चगुरुभक्ति पाठ (चित्ते) मन में (वैराग्यभावना) संसार शरीर भोगों से विरक्ति (तथा) और (दुर्ध्यान) प्रातरौद्रध्यान (वर्जनम्) त्याग करते हुए (हे सुते) हे पुत्रि (द्वित्रिसन्ध्यम ) प्रातः व सायंकाल, अथवा प्रात: मध्यान्ह और सायंकाल (स्वर्गमोक्षसुखप्राप्त्य) स्वर्ग और मोक्षसुख पाने के लिए (निश्चलाशयः) स्थिरचित्त से (भव्यः) भव्यों द्वारा (महानसामायिक विधि:) महान सामायिक विधि (कर्तव्यः) करना चाहिए। भावार्थ हे पुत्रि ! भव्य श्रावक श्राविकाओं को प्रातः और सन्ध्या समय सामायिक Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] अवश्य करना चाहिए । सामायिक प्रतिमाघारी को तोनों सन्ध्याओं में प्रातः, मध्यान्ह और सायंकाल सामायिक विधि करना अनिवार्य है । जघन्य ४८ मिनिट से ७२ मिनिट अथवा २१ सवादो घण्टे यथाशक्ति सामायिक करना चाहिए। अथवा हर क्षण सामायिक हो सकती है । सामायिक के लिए प्रथम समय की मर्यादा करे, समस्त जीवों में समताभाव धारण करे, संयम में रामभावना बिना लिया और प्रसारका श्याग करे, चैत्यभक्ति और पचगरूभक्ति का पाठ करे, चित्त में वैराग्य भावना चिन्तवन करे, प्रार्त-रौद्रध्यान का परित्याग करे । धर्मध्यानपूर्वक द्वादशानुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करे । इस प्रकार सामायिक क्रिया करे । यही सामायिक शिक्षा व्रत हैं ।।५.६।। अब द्वितीय शिक्षाव्रत का लक्षण कहते हैं - अष्टम्यां चतुर्दश्यां चतराहारबजितम् । सशीलं सधोपेतं तद् द्वितीयं व्रतंमतम् ॥५७॥ अन्वयार्थ— (सशीलम् ) शीलवत सहित सयोपेतम् ) सम्यक् दया सहित (अष्टम्यां) अष्टमो (चतुर्दश्याम ) चतुर्दशी के दिन में (चतुराहार) खाद्य, स्वाद्य, लेह और पेय इन चार प्रकार के आहारों को (बजितम् ) छोडना (तद्) वह (द्वितीय) दूसरा प्रोषधोपवास (प्रतम्) प्रत (मतम् ) माना है ।।५।। भावार्थ-अष्टमी और चतुर्दशी को चार प्रकार के आहार का त्याग करना । खाद्यलाडू, रोटी, भात, पकौडी, मठरी, पेड़ा आदि खाद्य है। बाद्य-लवङ्ग इलायची पान-सुपारी सौंफ आदि स्त्राद्य भोजन है। लेह-रबड़ी, राबड़ी, मलाई आदि चाटने वाली चटनी आदि लेह्य हैं । तथा पेय-दूध, पानी, शर्वत. मट्ठा वगैरह पीने के पदार्थ पेय हैं । इन चारों प्रकार के पदार्थों को इन्द्रियदमन के उद्देश्य से त्याग करना प्रोषधोपवाम नाम का दूसरा शिक्षाव्रत है। इस दिन ब्रह्मचर्य धारण करें दयाभावना धारण करें । यह नहीं कि उपवास तो करले और फिर कोपाकुल हो बाल-बच्चे, रोगी, वृद्धों की सेवा न करें उनपर चिड़चिड़ करें अपितु प्राणीमात्र के प्रति दया और क्षमा का भाव रखना चाहिए। भोगोपभोगयोस्संख्या श्रावकानां च या भवेत् । शिक्षावतं तृतीयं तत् संजगुमुनिसत्तमाः ॥५८।। अन्वयार्थ -(श्रावकानां) श्रावकों की (या) जो (भोगस्य) भोगपदार्थों में (च) और (उपभोगस्य) उपभोग के पदार्थों सम्बन्धी संख्या (प्रमाण भवेत) होता है (मुनिसत्तमाः) गणधरादि (तत्) उसे (तृतीयम्) तीसरा भोगोपभोगपरिमाण नाम का (शिक्षाव्रतम्) शिक्षाव्रत (संजगुः) कहते हैं। भावार्थ--भोजन, पानादि भोग की वस्तुओं और प्राभरणा, मकानादि उपभोग के पदार्थों की संख्या-सोमा निर्धारित करना तीसरा भोगोपभोगपरिमाण नामका शिक्षावत है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] [ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद संविभागो भवेत् त्यागास्त्यागौदानञ्च पूजनम् । तद्दानं च बुधैर्वेयं त्रिधा पात्राय भक्तितः ॥ ५६ ॥ श्रन्वयार्थ - ( भक्तितः ) भक्तिपूर्वक ( त्रिधा ) उत्तम, मध्यम, जघन्य तीन प्रकार के ( पात्राय) पात्र की (देयम) देने योग्य पदार्थो का ( त्यागाः ) त्याग करता ( दानम् ) दान (संविभाग: ) अतिथि संविभाग ( भवेत् ) होता है । (च) और ( पूजनम ) पूजा को (देयम् ) योग्यपदार्थ देना (त्यागः ) त्याग ( भवेत् ) होता है (तद्दानं ) वह दान ( बुधैः ) विद्वानों को (देयम्) देना ए भावार्थ - - प्रतिथि-न तिथि, जिनके आगमन की कोई तिथि निश्चित नहीं होती वे दिगम्बर साधु अतिथि कहे जाते हैं। वे पात्र उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार के होते हैं । उनके योग्य आहारादि वस्तु दान देना प्रतिथिसंविभाग व्रत है। तथा पूजा के योग्य द्रव्य त्याग करना भी अतिथिसंविभागवत में किन्ही प्राचार्यों ने माना है। विद्वानों को अवश्य ही यह व्रत धारण करना चाहिए अर्थात् दान और पूजन करना चाहिए ।। ५६ ।। पात्रों के भेद कहते हैं मुनीन्द्राः श्रावकाः शुद्धस्सम्यग्टष्टिश्च केवलम् । इति पात्रत्रिभेदेभ्यो दानं देयं चतुविधम् ॥६०॥ श्रन्वयार्थ - ( मुनीद्राः) दिगम्बर साधु ( श्रावका ) प्रतिमाधारी (च) और (केवल) मात्र ( शुद्धसम्यग्दृष्टि: ) सम्यग्दर्शनधारी (इति) इस प्रकार ( पात्रत्रिभेदेभ्यः ) तीन प्रकार के पात्रों के लिए (चतुर्विधम् ) चार प्रकार का ( दानं ) दान (देयम् ) देना चाहिए । भावार्थ --निर्ग्रन्यदिगम्बर साधु, प्रतिमाधारी व्रतीभावक और असम्यग्वष्टि के भेद से पात्र तीन प्रकार के होते हैं | दान पात्र को ही दिया जाता है । अन्य को दिया हुआ दान नहीं होता । करुणादान कहा जाता है। व्रतियों को चार प्रकार का दान अवश्य देना चाहिए ॥६०॥ श्राहाराभयभैषज्यशास्त्रदानं जगद्धितम् । बेथं पुत्रि ! सुपात्रेभ्यो विधिना धर्महेतवे ॥ ६१ ॥ श्रन्वयार्थ - (पुत्रि ! ) है पुत्रि ! (सुपात्रेभ्योः) श्रेष्ठ पात्रों को ( विधिना ) विधिसहित (धर्महेतवे ) धर्म के लिए (आहाराभय भैषज्यशास्त्रदानम् ) श्राहार, अभय, औषध और शास्त्र दान ( जगद्धितम् ) संसार का कल्याण करने वाला ( दानम् ) दान (देयम् ) देना चाहिए । भावार्थ--चार प्रकार का दान तीन प्रकार के पात्रों को धर्मभावना से देना चाहिए ||६१ || Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१७१ पात्रदानेन भो राजन् नानासत्सम्पदा सुखम् । प्राप्यते परमानन्दं भो सुते ! श्रण वत्सले ॥६२।। अन्वयार्थ-(भो राजन्) हे राजन् श्रीपाल (क्त्सले) वात्सल्यमयी (भो सुते) हे पुत्रि (शृण ) सुनो (पात्रदानेन) पात्रदान करने से (नानासम्पदाम) अनेक प्रकार की सम्पतियाँ (सुखम् ) सुप (च) और (परमानन्दम् ) क्रमश: परम आनन्द भी (प्राप्यते) प्राप्त होता है। 'भावार्थ पात्रदान मुख्य कर्तव्य है । श्रावकों को यह पात्रदान कल्पवृक्ष है। इच्छित सपकात्रों का दासा है, सुरखों कमा विधाता है और परम्पर। से मोक्षरूप परमानन्द को भी देने वाला है ।।६२।। दान का उपसंहार करते हैं-- पाहारौषधशास्त्रदानमभयं दानं सुपात्रे त्रिधा । ये भच्या निजशक्तियुक्तसहिता नित्यं शुभं कुर्वते ।। तेभव्या धनधान्यमन्यविभवं भुक्त्वाचिरं पावनम् । पश्चात्स्वर्गसुख समाप्य सततं मोक्षं लभन्ते परम् ।।६३॥ अन्वयार्थ—(ये) जो (भव्या) भव्यजन (निजशक्तियुक्त सहिता) अपनी शक्ति के अनुसार (नित्यम् ) प्रतिदिन (त्रिधा) तीन प्रकार के (सुपात्र) सुपात्रों को (शुभ) शुभ (आहार:) आहार (औषधिः) औषध (शास्त्रम्) शास्त्रज्ञान और (अभयं) अभय (दानम) दान (कुर्वते) करते हैं, (ते) वे (भव्या) भव्यजीव (धनधान्यम् ) धन, धान्य (अन्यम् ) और भी (विभवम ) वैभव (पाचनम पुण्यरूप फल को चिरम ) वहत काल तक (भक्त्वा ) भोगकर (स्वर्गसुखम् ) स्वर्ग के सुखों को (समाप्य) समाप्त कर (पश्चात् ) तदनन्तर (सततम् ) निरन्तर (परम) सर्वोत्तम (भोक्षम् ) मोक्ष को (लभन्ते ) प्राप्त करते हैं । भावार्थ:-जो भव्यात्मा तीन प्रकार के सत्पात्रों को सदाकाल यथाविधि शत्ति के अनुसार योग्यदान देते हैं, वे भव्य श्रावक जन धनधान्यवन्त होते हैं राजा, भण्डलेश्वर, चक्रवर्ती आदि के वैभव को प्राप्त करते हैं, स्वर्ग सम्पदा का भोग-उपभोग कर अन्त में परमानन्द रूप मोश सुख को प्राप्त करते हैं । अमरत्व आनन्द को पाकर चिरकाल सुखानुभव करते हैं ।।।६३।। जिनेन्द्रभवनोद्धारं प्रतिमां पापनाशिनीम् । ये कारयन्ति धर्मज्ञास्ते सम्यग्दृष्टयोभुवि ।।६४॥ मन्वयार्थ - (ये) जो (जिनेन्द्रभवनोद्धारम ) जिनालय का निर्माण, (पापनाशिनीम्) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद पापों का भजन करने वाली प्रतिमा को (कारयन्ति) करवाते हैं (ते) वे (धर्मज्ञाः) धर्म के मर्म को जानने वाले (भूवि) संसार में (सम्यग्दृष्टयः) सम्यग्दृष्टि (भवन्ति) होते हैं । भावार्थ--जो भव्य श्रावक, जिनालय बनवाते हैं, प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराते हैं, तथा नानाविध रत्न पाषाणों के प्रतिविम्ब जिनप्रतिमाएँ बनवाकर प्रतिष्ठा करवाते हैं वे धर्म के ज्ञाता हैं और सम्यग्दृष्टि हैं । जिनप्रतिमाएँ पाप का नाश करने वाली हैं। अर्थात् जिनेन्द्रबिम्बों का दर्शन करने से अनादि मिथ्यात्व रूप पापकर्म भी नष्ट हो जाता है । सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। अनन्त संसार का विच्छेद होता है ।।६४|| कृत्वा पञ्चामृतनित्यमभिषेक जिनेशिनाम् ।। ये भव्याः पूजयन्त्युच्चस्ते पूज्यन्ते सुरादिभिः ॥६५॥ अन्वयार्थ-(ये) जो (भब्या) भव्य श्रावक-श्राविका (नित्यम ) प्रतिदिन (पञ्चामृताभिषेकम.) पञ्चामृत अभिषेक (कृत्वा) करके (निजेशिनाम ) जिनेन्द्र बिम्बों को (पुजयन्ति) पूजते हैं पूजा करते हैं-(उच्चैः) विशेष प्रभावना, उत्सवादि कर (पूजयन्ति ) पूजा करते हैं (ते) वे भव्यात्मा (सुरादिभिः) देवादिकों द्वारा (पूज्यन्ते) पूजे जाते हैं । भावार्थ—जो भव्य श्रावक-श्राविका शुद्ध जल, दुग्ध, घी, दही, इक्षुरस सवाषधि एवं नाना फलरसों, कल्कों द्वारा जिनविम्बों का अभिषेक करके अष्ट द्रव्य से पूजा करते हैं वे स्वयं पूज्य बन जाते हैं ! अर्थात् देवता लोग उनकी पूजा करते हैं ॥६५।। तथा श्रीमज्जिनेन्द्राणां पूजां पापप्रणाशिनीम् । ये कुर्वन्ति महाभव्यास्ते लभन्ते सुखं परम् ॥६६॥ अन्वयार्य-(ये) जो (महाभव्या) आसन्नभव्य (तथा) उपर्युक्त विधि से (श्रीमज्जिनेन्द्राणाम् ) श्री जिनभगवान की (पापप्रणाणिनीम् ) पापों की नाशक (पूजाम् । पूजा को (कुर्वन्ति) करते हैं (ते) वे (परम) उत्कृष्ट (सुखम् ) सुख को (लभन्ते) प्राप्त करते हैं। भावार्थ-जो आसन्नभव्य जीव निधिवत् जिनेश्वर प्रभु की पूजा को करते हैं वे परमसुख को प्राप्त करते हैं ।।६६।।। यथा देवस्तथा जैनी वाणी सन्मार्गदर्शिनी । गुरूणां चरणाम्भोजद्वयं पूज्य सुखाथिभिः ।।६७।। अन्वयार्थ--(यथा) जिस प्रकार (देवः) जिनदेव (सुम्बाभिः ) सुख चाहने वालों द्वारा पूज्य हैं (तथा) उसी प्रकार (सन्मार्गशिनी) सत्यमार्ग दिखाने वाली (जनीवाणी) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [ १७३ जिनवाणी (तथा) और (गुरूणाम् ) गुरूओं के ( चरणाम्भोज द्वयम् ) चरणकमल दोनों भी ( पूज्यम्) पूज्य हैं। भावार्थ- सुखार्थियों को जिस प्रकार प्रर्हत भगवान पूज्य हैं उसी प्रकार जिनवाणी और श्री गुरुचरणों की भी पूजा-भक्ति करना चाहिए । अर्थात् देव, शास्त्र और गुरू तीनों ही की यथायोग्य भक्ति पूजा करना श्रावश्यक है ।। ६७ ।। पुनः स्तुत्वा जिनंनत्वा ये जयं कुर्वते बुधाः । ते भव्यास्तत्सुखंप्राप्य निर्वृतिं यान्ति वेगतः ॥६८॥ अन्वयार्थ (पुनः) फिर ( ये ) जो ( बुधा:) बुद्धिमान ( जिनं ) जिनेन्द्र भगवान की ( स्तुत्वा ) स्तुति करके ( नत्वा) नमस्कार करके ( जयम् ) जयजयकार ( कुर्वते ) करते हैं (ते) वे (भव्याः ) भव्य मनुष्य (वेगतः) शीघ्र ही (सत्सुखं) स्वर्गादिसुख ( प्राप्य ) प्राप्तकर निर्वृति) मोक्ष को (यान्ति) जाते हैं । भावार्थ - जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर जो विद्वान भव्यजन जिनेन्द्रप्रभु की स्तुति करते हैं, नमस्कार करते हैं, तथा जयजयकार करते हैं। वे भव्यात्मा साररूप स्वर्गादि सुख को पाते हैं । पुनः शीघ्र ही मोक्ष सुख भी प्राप्त कर लेते हैं। जिनभगवान की भक्ति मुक्तिदायिनी है || ६८ || पूज्यपूजाक्रमेणोच्चैः कृत्वा पूज्यतमो भवेत् । तस्माद् भव्यजनैनित्यं पूज्य पूजा न संध्यत ॥६६॥ अन्वयार्थ - - ( उच्चैः ) विशेष माहात्म्य से ( पूज्यपूजा) पूज्यों की पूजा ( कृत्वा ) करके ( क्रमेण ) क्रमश: ( पूज्यतमो) पूजक ही पूज्यतम ( भवेत् ) हो जाता है । ( तस्माद् ) इसलिए ( भव्यजनैः ) भव्य जीवों द्वारा (नित्यम् ) नित्य ( पूज्य ) पूजनीय देव, शास्त्र गुरू की (पूजा) पुजा ( न लभ्यते) नहीं छोडना चाहिए । भावार्थ जो सच्चे देव, शास्त्र और गुरू की भक्ति श्रद्धा, विनय से विधिवत् पूजा करता है वह स्वयं क्रमशः पूज्यतम्-मर्हत हो जाता है। इसलिए भव्यों को उत्साहपूर्वक पूजा करनी चाहिए। कभी भी पूजा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए || ६६।। तीर्थेशामभिषेचनात् सुरवरैस्संस्नाप्यते सादरम् । संपूज्यो वर पूजनः स्तवनतः स्तुत्योभवेद् धार्मिकैः ॥ संजय जपनेन निर्मलधियां ध्येयस्सदाध्यानतो । जीवाः श्रीजिनबोधतो गुणनिधिः प्रान्ते भवेत् केवली ॥७०॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ—(तीर्थेशाम् ) धर्मतीर्थ के नायक श्रीतीर्थकर जिनदेव का (अभिषेचनात्) अभिषेक करने से (जीवा:) मनुष्यों का (सादरम्) आदर से (सुरवरैः) देवेन्द्रादि द्वारा (संस्नाप्यते) स्नान कराया जाता है, (पूजनैः) पूजने से (वर) श्रेष्ठ (संपूज्य) पूज्य, (स्तवनतः) स्तुति करने से (स्तुत्य:) स्तुतियोग्य (भवेद) होता है, (धामिकः) धर्मात्मानों से (जपनेन) भगवान का जप करने से वे (संजप्यः) जपनोय होते हैं (निमलधियां) पवित्र बुद्धि से (सदा व्यानतः) ध्यान करने से (ध्येयः) ध्येय हो जाता है, (श्रोजिनबोधत:) श्री जिनज्ञान से (गुणनिधिः) गुणों का भाण्डार (प्रान्ते) अन्त में (केवली) केवलज्ञानी (भवेत्) होता है। भावार्थ---जो जिनेन्द्र भगवान का भक्तिभाव से पञ्चामृताभिषेक करते हैं वे सुरासुरेन्द्रों द्वारा अभिषिक्त किये जाते हैं । अर्थात् उनका देव इन्द्र 'अभिषेक करते हैं । अभिप्राय यह है कि वे भी तीर्थङ्कर पद पाते हैं 1 जो भगवान की पूजा करते हैं, वे स्वयं पूज्य हो जाते हैं। स्तवन करने से स्तुत्य-स्तुति के योग्य हो जाता है। जो जिनप्रभ का ध्यान करता है वह ध्येय बन जाता है । जप करने से स्वयं जपनीय हो जाता है, भगवान के स्वरूप को जानने वाले ज्ञानी होते हैं और पुनः केवली भगवान हो जाता है ।1७०।। श्रावक का अन्तिम कर्तव्य कहते हैं - अन्ते सल्लेखनाकार्या जनतत्वविदाम्बरः । अनन्यशरणीभूतः श्रित्वा श्रीपरमेष्ठिनः ॥७१॥ त्यक्त्वा मोहादिकं नन्थं क्षमां कृत्वा च जन्तुषु । रागद्वेषं परित्यज्य, शुद्धात्मध्यान तत्परः ।।७२॥ अन्वयार्थ:-(जैनतत्त्वविदाम्बरः) जन तत्त्व के ज्ञाता (अनन्य शरणीभूत:) अनन्यशरण होने वाले (श्रीपरमेष्ठिन:) श्रीपञ्चपरमेष्ठी का (श्रित्वा) आश्रय लेकर (अन्ते) आयु के अन्त में (सल्लेखना) समाधि (कार्या) करना चाहिए । (शुद्धात्मध्यानतत्परैः) शुद्ध पारमध्यान में तत्पर रहने वाले (मोहादिकम् मोह-मिथ्यात्व आदि (ग्रन्थम ) परिग्रह को (त्यक्त्वा) त्यागकर, (जन्तुषु) प्राणियों कोजीवमात्र को (क्षमा) क्षमा(कृत्वा) करके (च) और (रागद्वेषम् ) राग द्वेष को (परत्यज्य) छोडकर (सल्लेखना कार्या) समाधि करना चाहिए। भावार्थ:-जो दान पूजा में रत रहने वाले, जैन तत्त्व के जानने वाले हैं तथा "एकमात्र पञ्चपरमेष्ठी ही शरण हैं" इस प्रकार का अटल विश्वास रखने वाले हैं उनके द्वारा आयु के अवसान समय में विधिवत् समाधिमरण करना चाहिए । अर्थात् आर्त-रौद्र दुानों का Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [१७५ त्याग कर धर्मध्यान पूर्वक कषाय और शरीर को कृष करते हुए महामन्त्र गमोकार का जाप कारते हुए प्राण छोड़ना चाहिए ।।७१।। एवं गुणवत्त त्रेधा, शिक्षाप्रतचतुष्टयम् । शर्मदंसूरिभिः प्रोक्त भव्यानांशीलसप्तकम् ॥७३॥ अन्धयार्थ- (एवं) इस प्रकार और भी (धा) तीन प्रकार (गुणवतं) गुणवत, (चतुष्टयम् ) चार (शिक्षाव्रतम) शिक्षाक्त (सूरिभिः) प्राचार्य द्वारा (प्रोक्तम) कथित (भव्यानां) भव्यों को (शर्मदम् ) सुख करने वाले (शीलसप्तकम् ) सप्तशीलवत (प्रोक्तम् ) कहे गये हैं। भावार्थ---तीन गुण व्रत और चार शिक्षाबत ये ७ शीलन्नत कहलाते हैं ये व्रत सुख प्रदाता और दुःखहर्ता हैं ।।७३ ।।। इत्युच्चजिनभाषितं शुभतरं स्वमोक्षलक्ष्मीकरम् । ये धर्म प्रतिपालयन्ति सुधियो धर्मानुरागान्विताः॥ ते भव्यास्त्रिदशादि सौख्यमतुलं संप्राप्य रत्नत्रयात् । पश्चाद्यान्ति शिवालयं सुखमयं श्रीबोधसिन्धुस्तुतम् ॥७४।। अन्वयार्थ---(इति) इस प्रकार (ये) जो (धर्मानुरागान्विताः) धर्मानुरागी (सुधिय) बुद्धिमान (जिनभाषितम्) जिनभगवान से कहा हुआ (शुभतरम् ) पवित्र (स्वर्मोक्षलक्ष्मीकरम्) स्वर्ग और मोक्ष की लक्ष्मी को देने वाला (धर्मम ) धर्म (प्रतिपालयन्ति पालन करते हैं. (ते) वे (भव्याः) भव्य (रत्नत्रयात् ) रत्नत्रय से (त्रिदशादिसौख्यम् ) देबेन्द्रों के सुख (अतुलं) अतुलनीय (सौख्यं) सुख (सम्प्राप्य । प्राप्तकर (पश्चात्) तदनन्तर (श्रीबोधसिन्धुस्तुतम ) गणधरादिस्तुत्य (मुखमयम ) सुखस्वरूप (शिवालयम ) मोक्षधाम को (यान्ति) जाते हैं। भावार्थ- उपर्युक्त धर्म का जो भव्यप्राणी पालन करते हैं वे स्वर्गमोक्ष के सुख प्राप्त करते हैं | जिनेन्द्र-सर्वज्ञ कथित धर्म ही वास्तविक सच्चा, दयामयी धर्म है । इसमें सर्वत्र जीवरक्षण प्रधान है अतः "अहिंसा परमोधर्मः" ही वास्तविक धर्म है। इससे ही जीव संसार दुःखों त्राण पाता है और अक्षय सुख प्राप्त करता है ।।७४।। इत्येवंगुरुणा तेन प्रोक्तं धर्म जिनेशिनाम् । श्रुत्वा श्रीपालराजस्त समुत्थायकृताञ्जलिः ॥७॥ भक्तितस्तं मुनि नत्वा सुगुप्ताचार्यमुत्तमम् । भो स्वामिस्त्रिजगन्नाथ मुक्त्वा श्रीमज्जिनेश्वरम् ॥७६।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद तथा साधून्मुनीन्द्रांश्च परित्यज्य कदाचन । अन्यस्मै न करिष्यामि नमस्कारं महामुने ॥७७॥ अन्वयार्थ-(इति एवम ) इस प्रकार (तेन) उन (गरूरगा) गुरूदेव (प्रोक्त) कथित (जिनेशिनाम ) जिनभगवान के (तं) उस (धर्म) धर्म को (श्रुत्वा) मुनकर (श्रीपाल राजा) श्रीपालभूपति (कृताञ्जलिः) हाथ जोड़कर (समुत्थाय) उठकर (भक्तित भक्ति से (तं) उन (उत्तमम् ) श्रेष्ठतम (सुगुप्ताचार्यम) सुगुप्ति नाम के प्राचार्य (मुनि) मुनि को (नत्वा) नमस्कार कर (अबदत) बोला, (भो स्वामित्) हे स्वामिन, (महामुने) हे मुनीन्द्र ! (कदाचन) कभी भी (जगन्नाथम ) जगदीश्वर (धोमज्जिनेश्वरम.) श्रीसर्वज्ञ'-भगवान को (मक्त्वा) छोडकर (तथा) तथा (साधन ) साध-वीतरागी दिगम्बर साधुओं (च) और (मुनीन्द्रान) प्राचार्यो को (परित्यज्य) छोड़कर (अन्यस्म) दूसरों के लिए (नमस्कारम् ) नमस्कार (न) नहीं [करिष्यामि] करूंगा। मावार्थ-श्रीसुगुप्ताचार्य मुनिराज का धर्मोपदेश श्रवण कर महाराज श्री श्रीपालजी को परमानन्द हुआ । अन्तरङ्ग वोध जाग्रत हुआ । भक्ति और श्रद्धा से गद्गद् हो उठा। दोनों हाथ जोडकर मस्तक झुकाकर बड़ी विनय से सडे होकर गुरुदेव से प्रार्थना की कि "हे प्रभो ! मैं जिनेन्द्र देव, जिनवाणी अोर जिनगुरु-दिगम्बर मुनि को छोडकर अन्य किसी को भी नमस्कार नहीं करूंगा ।" यह आजन्मन्नत पालूगा । सम्यग्दर्शन का यही चिन्ह है। या यों कहो यही सच्चा व्यवहार सम्यग्दर्शन है जो नियम से निश्चय सम्यग्दर्शन का साधक है ।।७।। इत्यादिकं प्रजल्प्योच्चः परमानन्दनिर्भरः । सम्यक्त्वं त्रिजगत्सारं स्वचक्के परमार्थतः ॥७॥ अन्वयार्ग--(इत्यादिकम् ) उपर्युक्त प्रकार प्रज्ञप्ति (उच्चैः) विशेष रूप से (प्रजन्य) प्रकट करके (परमानन्दनिर्भरः) परमानन्द से भरे श्रीपाल ने (परमार्थतः) यथार्थ (त्रिजगत्सारम) तीनों लोकों का सारभूत (सम्यक्त्वं) सम्यग्दर्शन (स्वीचक्र) स्वीकार किया । भावार्थ-श्रीपाल नपति ने मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक परम आनन्द से परमार्थ सम्यग्दर्शन स्वीकार किया । सम्यग्दर्शन तीनों लोकों में सार है । स्वर्गादि के सुखों के साथ मोक्षलक्ष्मी का समर्थ कारण है। पुनर्मु निर्जगादोच्चैः शृणु त्वं पुत्र बच्मि ते । सर्वसिद्धिप्रदं सिद्धचक्रपूजा विधानकम् ॥७॥ अन्वयार्थ—(पुनः) पुनः (मुनिः) मुनिराज (उच्चैः) विशेष (जगाद) बोले, Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१७७ (पुत्र ! ) हे पुत्र ! (त्व) तुम (शृण ) सुनो (ते) तुम्हें (सर्वसिद्धिप्रदम्) सम्पूर्ण सिद्धियों का देने वाला (सिद्धचक्र पूजा) श्री सिद्धचक्रपूजा (विधानकम्) विधान को (वच्मि) कहता हूँ। मावार्थ श्री प्राचार्य परमेष्ठी कहने लगे, हे पुत्र ! श्रीपाल अब मैं आपको श्री सिद्धचऋपूजा विधान का स्वरूप बतलाता हूँ। यह विधान सर्व सिद्धियों का करने वाला है। भयङ्कर और असाध्य रोगों की भी रामबाण औषधि है । प्रात्मसिद्धि का विशेष साधन है । आप सावधानी से सुनिये ।।७।। सिद्धचक्र विधान महिमा येन श्रीसिद्धचक्रस्यपूजनेन जगत्त्रये रोग शोक सहस्त्रारिग क्षयं यान्ति क्षरणार्द्धतः ।।८०॥ अन्वयार्थ—(येन) जिस (श्रीसिद्धचऋपूजनेन) श्री सिद्धचक्र के पूजने से (जगत्त्रये) तीनों लोकों में (सहस्राणि) हजारों (रोग शोक) रोग व्याधियाँ, आधियाँ (मानसिक पीडाएँ) (क्षरणार्द्धतः) निमिषमात्र में, आधे ही क्षण में (क्षयम्) नष्ट (यान्ति) हो जाती है। भावार्थ-इस सिद्धचक्र के पूजन से हजारों प्राधि-व्याधि क्षणमात्र ही विलीन हो जाती हैं । सिद्ध समूह की अर्चना कर्मों के कटु विपाक का नाश करने वाली है । पुण्य की वृद्धि करने वाली है ।।५०॥ शत्रयो मित्रतां यान्ति विध्नासर्वे प्रयान्ति च । शान्तिस्सम्पद्यते, शीघ्र वह्निश्चापि जलायते ॥१॥ अन्वयार्थ-(च) और (मत्रयः) शत्रु (मित्रता) मित्रता को (यान्ति) प्राप्त हो जाते हैं, (सर्वे) सम्पूर्ण (विध्नाः ) विध्न (प्रयान्ति) नष्ट हो जाते हैं-दूर होते हैं, (शीघ्रम्) जल्दी ही (शान्तिः) शान्तता (सम्पद्यते) प्राप्त होती है (च) और (वह्निः) अग्नि (अपि) भी (जलायते) पानीरूप परिणमित हो जाती है। भावार्थ--सिद्धचक्र की आराधना करने से श श्रुसमूह मित्रमण्डल बन जाता है, अनेकों विध्नसमूह दूर भाग जाते हैं, शीघ्र ही शान्ति मिलती है यहाँ तक कि अग्नि भी जलरूप हो जाती है ।।१।। विषं निविषतामेति पशवः पन्नगादयः । तेऽपि सर्वेप्रशाम्यन्ति सिद्धचक्रप्रपूजनात् ॥२॥ अन्वयार्थ -- (विषम् ) जहर (निर्विषताम्) बिषरहित (एति) होता है (पन्नगा Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद दयः) सर्प, सिंह, व्याघ्रादि कर (पशव:) पशुगण हैं (ते) वे (अपि) भी (स.) सर्व (सिद्धचक्रप्रपूजनात्) सिद्धचक्र को सम्यक पूजा करने से (प्रशाम्यन्ति) पूर्ण शान्त हो जाते भावार्थ---सिद्धचक्रविधान-पूजा से भयङ्कर प्राणघातक जहर भी अमृत समान पोषक हो जाता है । सर्प, सिंह, वराह, व्याघ्र, नकुल अष्टापदादि महाक र हिस्र जीव भी अनापास शान्त हो जाते हैं अर्थात् हिंसाकर्म को छोड़ देते हैं । तथा और भी कहते हैं।।१२।। डाकिनी शाकिनी चापि भूताः प्रेतादयाः खलाः । वैरभावं परित्यज्य सेवां कुर्वन्ति भक्तितः ॥८॥ अन्वयार्थ—यही नहीं (डाकिनी) डाकिनी (शाकिनी) शाकिनी (च) और (भूताः) भूत (खलाः) दुष्ट (प्रतादयः) प्रतादि (वैरभावम्) शत्रुभाव को (परित्यज्य) छोड़कर (भक्तितः) भक्ति से (सेवाम्) (सेवा) (कुर्वन्ति) करते हैं । भावार्थ-दुष्ट स्वभाबी अहित करने वाले डाकिनी, शाकिनी भूत, पिशाचादि व्यन्तर देवता अपनी दुष्टता छोड देते हैं । इतना ही नहीं वे वैर भाव छोडकर सेवक बन जाते हैं ।।८।। पुत्रमित्र कलत्रादि सज्जनाश्चित्तरञ्जनाः । भवन्ति स्नेहिनो नित्यां, सिद्धचक्रप्रसावतः ॥४॥ अन्वयार्थ-(सिद्धिचक्रप्रसादत:) सिद्धचक्र के प्रसाद से (नित्यम् ) नित्य हो (पुत्र) बेटा (मित्र) दोस्त (कलत्रादि) स्त्री, भाई बहिन, काकी ताई आदि सगे सम्बन्धी (चित्तरञ्जनाः) मन को प्रसन्न करने वाले, (स्नेहिनः) प्रीति करने वाले (च) और (सज्जनाः) सज्जन (भवन्ति) हो जाते हैं । सार देवेन्द्रचनयावि सम्पदो विविधास्सवा । मणि मुक्ताफल प्रायास्संप्राप्यन्त पदे पदे ॥५॥ अन्वयार्थ--सिद्धचक्रपुजा से (पदे पदे) पग-पग पर (देवेन्द्र) इन्द्र (चक्रयादि) चक्रवर्ती आदि की (विविधाः) नाना प्रकार की (सम्पदा) सम्पत्ति (सदा) हमेशा (मणि) मणि (मुक्ताफल) मोती आदि (प्रायः) प्रायः करके (सम्प्राप्यन्ते ) प्राप्त होते हैं । भावार्थ---सिद्धचक्रविधानपूजा से नाना रत्न, हीरा, मोती, इन्द्र की बिभुति, चक्रवर्ती का वैभव आदि नाना प्रकार की विभूतियाँ स्वयमेव आ उपस्थित होती हैं। पग-पग पर सम्पत्ति पीछे-पीछे दौडती है । बिना प्रयत्न के श्रेष्ठ लक्ष्मी आकर वरण करती है ।।५।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१७६ अहो राजन्न हो पुत्रि ! यच्छ भं भुवनत्रये । तत्सर्व सिद्धचक्रस्य पूजनेन भवेदलम् ॥८६॥ अन्धया-(अहीं है (२ जन् ! ) राजन् (अहो पुत्री ! ) हे पुत्रि! (भुवनत्रये) तीनों लोकों में (यत्) जो (शुभम् ) शुभरूप पदार्थ हैं (तत्) यह (सर्व) सर्व (सिद्धचक्रस्य सिद्धचक्र की (पूजनेन) पूजा से (भवेत्) होता है (अलम्) अधिक क्या कहें ? भावार्थ--आचार्यदेच स्पष्ट कर रहे हैं हे नपति ! हे मदनसुन्दरी! तीन लोक में जितना भी जो कुछ शुभरूप पदार्थ हैं वे सब सिद्धचक्र पूजा से प्राप्त होते हैं । मोक्ष भी मिलता है अन्य की क्या बात ? ।।६।। कि सुते बहुनोक्त न सिद्धचक्नविधानतः । प्राप्नुवन्तिस्सदाभन्या स्वर्गमोक्षश्रियं ध्वम् ।।८७॥ अन्वयार्थ-(सुते ! ) हे पुत्रि ! (बहुना) अधिक (उक्तेन) कहने से (कि) क्या प्रयोजन ? (सिद्धचक्रविधानतः) सिद्धचक्र पूजा करने से (भव्याः) भन्यजीव (सदा) सदैव (ध्र वम्) निश्चय से (स्वर्ग-मोक्ष श्रियम्) स्वर्ग, मोक्ष को लक्ष्मी को (प्राप्नुवन्ति) प्राप्त करते हैं । अब सिद्धचक्र बिधान करने की विधि को कहते हैं--- तत्कथंक्रियते चेति विधानं शृण पुत्रिके ! प्राषाढे कार्तिकेमासे फाल्गुने सुमनोहरे ॥८॥ अन्वयार्थ- (पुत्रिके ! ) हे पुत्रि ! (सत्) वह विधान (कथम्) किस प्रकार (क्रियते) किया जाता है (इति) इस क्रिया को (श्रुण ) सुनो, (सुमनोहरे) सुन्दर-शुक्ल पक्ष में (आषाढे, काति के च फाल्गुन) भाषाढ, कार्तिक और फागुन (मासे) महीने में ।।८।। पदायदा समायाति पर्वनन्दीश्वरं शुभम् । तक्षा तथा समारभ्य विधानमिदमुत्तमम् ॥८६॥ अन्वयार्थ-यदा यदा) जब जब (शुभम् ) शुभ (पर्वनन्दीश्वरम् ) नन्दीश्वरपर्व (समायाति) पाता है (तदा-तदा) तब तब (इदम्) यह (उत्तमम्) उत्तम (विधानम्) विधान (समारम्म) प्रारम्भ करके ।।८।। शुक्लाष्टमी समारभ्य दिनान्यष्टौ जगद्धिते जिनेन्द्रभयने शोभां कृत्वा प्रैलोक्य मोहिनीम् ॥१०॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ___ अन्वयार्थ-- (शुक्लाष्टमी) तीनों मास में शुक्लपक्ष की अष्टमी से (समारभ्य) प्रारम्भ कर (जगद्धिते) संसार का हित करने वाले (अष्टौ ) आठों (दिनानि) दिन तक (जिनेन्द्रभवने) जिनालय में (त्रैलोक्यमोहिनीम्) तीनों लोकों को मुग्ध करने वाली (शोभाम् ) शोभा (कृत्वा) करके ।।६०॥ गहीत्वा सदगुरोराज्ञा भव्यानां शर्मदायिनीम् । यथाशक्ति समादाय सत्तपोऽपि सुखप्रदम् ॥११॥ अन्वयार्थ--(भव्यानाम्) भव्य को (शर्म) शान्ति (दायिनीम) देने वाली (सद्गुरोः) सद्गुरु की (आज्ञाम्) आज्ञा (गृहीत्वा ) लेकर (यथाशक्ति) शक्ति के अनुसार (सुखप्रदम् ) सुख देने वाले (सत्तपः) उत्तम तप को (अपि) भी (समादाय) लेकर धारण कर पुनः और भी IIE१॥ ब्रह्मचर्यवतंपूतं गृहीत्या तद्दिनाष्टकम् । कारयित्वा च जीवानामभयं शर्मकारकम् ।।६२॥ अन्वयार्थ--- (तदिनाष्टकम् ) उस अष्टमी के दिन से आठ दिन तक (पूत) पवित्र (ब्रह्मचर्यग्रतम्) ब्रह्मचर्य वत को (गृहीत्वा) धारण कर (च) और (शर्मकारकम्) सुख देने वाला (जीवानाम् ) जीवों को (अभयम्) अभयदान (कारयित्वा) करवा कर ।।६।। स्वर्णादिविहितेपात्रे पचित्रे सुमनोहरे । चन्दनागुरूकप्रद्रव्येण शुभकारिणा ॥३॥ अन्वयार्थ- (सुमनोहरे) मन को मोहने वाले (पवित्रे) पवित्र (स्वर्णादिपात्रे) मुवर्ण आदि के पात्र में (विहते) स्थापित किये (चन्दनागुरु) चन्दन, अगुरू एवं (शुभकारिणा) पुण्यवर्द्धक (कप्पू रादि) कपूर लवंगादि (द्रव्येण) द्रव्य से ।।६३॥ सिद्धचक्रमहायन्त्रं समुद्धत्य विचक्षणः । पूर्वाचार्योपदेशेन हंकाराचैर्महाक्षरैः ॥१४॥ अन्वयार्थ-(पूर्वाचार्योपदेशेन) पूर्वाचार्यों के धर्मोपदेश के अनुसार (विचक्षणः) अद्भत (हकाराय:) हे यादि (महाक्षर: महान अक्षरों से (सिद्धचक्रमहायन्त्रम.) सिद्धचक्रमहायन्त्र को (समुद्धृत्य) रचकर-लेकर ।।४।। सौवर्ण रजतं तानं यन्त्रं वा क्रियते शुभम् । जिनेन्द्रप्रतिमागे या पीछे संस्थाप्य निश्चले ॥६५॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAIL. ofuidilunDIN 71 । । MLAN । . आचार्य श्री मैनासुन्दरी की सिद्धचक विधान की विधि बताते हुए। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [ १८१ अन्वयार्थ-(बा) अथवा (सौवर्ण रजतं, ताम्र ) सोने, चाँदी व तम्नेि का (शुभम् ) शुभ (यन्त्र) यन्त्र (क्रियते) करे-बनवावे (जिनेन्द्रप्रतिमा) जिनबिम्ब के आगे (निश्चले) स्थिर (पीठे) सिंहासन पर (संस्थाप्य) स्थापित कर-विराजमान कर -६५|| तद्वयं पञ्चपीयूषः सत्तोयेक्ष घृतादिभिः । दुग्धर्दधिप्रवाहैश्च स्नापयित्वा महोत्सवः ।।९।। अन्वयार्थ-(तद्वयम् ) उन प्रतिमा और यन्त्र दोनों का (महोत्सव:) महाउत्सवपूर्वक (सत्तोयेक्ष शुद्धजल, इक्षुरस (दुग्धैः) दूध (च) और (दधिप्रवाहैः) दही के प्रवाह से (घृतादिभिः) पत आदि (पञ्चपीयूषैः) पञ्चामृतों द्वारा (स्नापयित्वा) स्नपन-अभिषेक करके-पुन: ।।६।। कर्पूरागरूकाश्मीरचन्दनैलादिधस्तुभिः । सर्वोषधिजलेनोच्चैः प्रक्षाल्यपरमादरात् ॥६॥ अन्वयार्थ-(कारागृरुकाश्मीरचन्दनलादि) कपर, अगुरु, केशर, चन्दन इलायची, लवङ्ग, जावित्री, जायफलादि (वस्तुभि:) वस्तुओं से मिश्रित (सौं षधि जलेन) सर्वा षधि के जल से (उच्चैः) विशेष रूप से (परमादरात्) परमभक्ति से (प्रक्षाल्य) प्रक्षालन-अभिषेक करके-भक्ति से पूजा करे। भावार्थ--हे पूत्रि उस सिद्धचक्र विधान को कब, किस प्रकार किस विधि से करना चाहिए यह मैं (प्राचार्य श्री) कहता हूँ,-प्राषाढ, कार्तिक और सुमनोज्ञ फाल्गुन महीने में जब-जब नन्दीश्वर पर्व पाता है तब ही करना चाहिए ।।८८-८६॥ शुक्लपक्ष की अष्टमी से प्रारम्भकर आठ दिन तक पूजा करें। प्रथम श्री जिनालय की प्राकर्षक, मनमोहक शोभा करें। अर्थात् घण्टा, स्वजा, तोरण, वन्दनवार, छत्र, चमरादि से सुसज्जित करें। तीनों लोक को मुग्ध करने वाली अनुपम झालर, माला आदि से शोभा करें ।।१०॥ पूजा करने के उत्साह से भक्ति पूर्वक गुरू सान्निध्य में जाकर विनम्र प्रार्थना कर पूजा विधान की आज्ञा मांगें। गुरू आज्ञा और साक्षी में किया विधि-विधान विधिवत् होने से विशेष सुख का हेतु होता है । अतः आज्ञा लेकर पथाशक्ति सुखदायक श्रेष्ठ तप धारण करें-अनशन ऊनोदरादि तप लेवें ।।११।। गुरू साक्षी में आठ दिन के लिए शुद्ध अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करें । महान सुख की खनिरूप सर्वजीबों को अभयदान दिलाबे । अर्थात् आठ दिन तक कोई भी किसी प्रकार की हिंसा न करें इस प्रकार का प्रयत्न-उपाय करें करावें ।।६२॥ पूर्वाचार्यों के उपदेशानुसार है बीजाक्षर तथा अन्य वीजाक्षरों से सहित सिद्धचक्रयन्त्र की रचना करें । ये बीजाक्षर महा अक्षर कहे जाते हैं और विशिष्ट शक्ति एवं प्रभाव से युक्त होते हैं । बुद्धिमानों को यथाविधि सुवर्ण, रजत अथवा ताम्र पत्र पर शुभ योग में यन्त्र रचना करें-बनायें । उस यन्त्र को जिनेन्द्रप्रभु की प्रतिमा के सामने सिंहासन पर विराजमान करें। अभिषेक का पीठ अचल रहना चाहिए । प्रतिमाजी स्थिर रहें इसका ध्यान रखना चाहिए । यन्त्र को स्वर्णादि के पात्र में पवित्र, मनो Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद हर शुभप्रदायक चन्दन, अगुरु कपूरादि द्रव्यों से लिखना चाहिए 11९३, १४, ६५॥ अचल अभिषेक पीठ पर श्री जिनप्रतिमा जी और सिद्धचयन्त्रराज की जो स्वर्ण-रजतादि के पत्रे पर खदा हुआ हो, विराजमान करे । तदनन्तर मन्त्रादि बोलकर विधिवत शुद्धभावों से पवित्र जल, इक्षुरस, घृत (घी) दूध, दही, सौषधि इन पञ्चामृतों से क्रमशः अभिषेक कर सुगन्धित केशर चन्दन का लेपन कर पुष्पवृष्टि करे, प्रारतो उतारे पुनः कर्पूरादि से सुवासित स्वच्छ जलाभिषेक करे । स्वच्छवस्त्र से थी जिनविम्ब को पोंछे, यंत्र पोंछ कर विराजमान करे । तदनन्तर अष्टद्रव्यों से भक्तिपूर्वक परम आदर से अष्टद्रव्यों के द्वारा पूजा करे ।।६६-६७।। अब क्रमश: अष्टद्रव्यों से पूजन का विधान बतलाते हैं । सर्व प्रथम जल से पूजा करें कर्पूरवासितैः स्वच्छः पवित्रस्तीर्थवारिभिः । पूजनीयं जगत्पूज्यं सर्वसिद्धिकरं परम् ॥१८॥ अन्वयार्थ- (करवासितैः) कपूर मिश्रित सुगन्धित (स्वच्छ:) प्रासुक (पवित्रः) पवित्र (तीर्थवारिभिः) गङ्गादि तीर्थों के जल से (सबै) सम्पूर्ण (परम) उत्कृष्ट (सिद्धिकरम्) सिद्धियों के करने वाले (जगत्पूज्यम्) विश्वबन्ध-संसारपूजित सिद्धचक्र (पूजनीयं) पूजने योग्य है अर्थात् पूजा करना चाहिए। भावार्थ-श्रीजिनबिम्ब और यन्त्र को विधिवत् आह्वानादि पूर्वक स्थापना कर सर्व प्रथम जल से पूजा करना चाहिए । जल गंगांदि पवित्र तीर्थों का हो, पुनः यथायोग्य वापिकादि का भी हो सकता है, परन्तु शुद्ध होना चाहिए यथा विधि छना हो कर्पूर लवंगादि से सुवासित - प्रासुक किया हो। इस प्रकार के परम पवित्र जल से सम्पुर्ण सिद्धियों के दाता, विश्व-पूज्य सिद्धचक्र को जल पूजा करना चाहिए ॥६॥ चन्दन पूजा का स्वरूप: चासचन्दनकाश्मीरकर्पूरागरुसत्भवः । अर्चनीयं जगत् पाप ताप संदोह नाशनम् ॥६ अन्वयार्थ-(जगत्पापताप संदोह) संसार पाप ताप के समूह को (नाशनम् ) नष्ट करने को (चार) सुन्दर (चन्दन) मलयागिरिचन्दन, (काश्मीर) केशर (कपूर) कपूर (अगुरु) अगर से (सत्भवैः) तैयार चन्दन से (अर्चनीयम्) अर्चा करना चाहिए। भावार्थ-संसार जन्ध पाप, ताप का नाश करने के लिए चन्दन से श्रीजिनपूजनसिद्धचक्रापूजन करना चाहिए। चन्दन चहाने से संसार संताप का नाश होता है । वह चन्दन शुद्ध मलयागिरि का, केशर से युक्त होना चाहिए। अक्षतरक्षतं?तैस्तुङ्गपुजीकृतस्सितः । पूज्यते परमानन्ददायको मुक्तिनायकः ॥१०॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [ १८३ अन्वयार्थ - ( धौतैः ) धुले हुए ( सिते) सफेद (अक्षतः) खण्ड (अक्षतैः) चावलों से ( तुङ्गपुञ्जी ) ऊँचे पुञ्ज ( कृतैः ) करके ( मुक्तिनायक: ) मुक्ति के नायक ( परमानन्द ) परमोत्कृष्ट आनन्द के दायक (पूज्यते) पूजने योग्य हैं। अक्षतपूजर का वन हुआ मावार्थ - बासमती आदि उत्तम अखण्ड चावलों को शुद्ध जल से धोना चाहिए । उन पवित्र चावलों को दोनों मुट्ठियों से भरकर श्री जिनभगवान व यन्त्रराज के सम्मुख पुञ्जरूप में चढाना चाहिए। ध्यान रहे अक्षत रकेबी आदि से नहीं चढावे क्योंकि मुट्टी से ही चढ़ाये जा सकते हैं । चावल टूटे नहीं होना चाहिए। यह अक्षत पूजा अक्षयपद, परमानन्द की देने वाली है । पुष्पपूजा ॥१००॥ का स्वरूप : जातिचम्पक पुन्नागैः पद्माद्यैः कुसुमोत्करैः । इन्द्रादिभिः समभ्यर्च्यमर्चयन्तु बुधोत्तमाः ॥ १०१ ॥ अन्वयार्थ - ( इन्द्रादिभिः ) इन्द्रादि द्वारा पूज्य ( समभ्यर्च्यम्) पूजनीय जिनेन्द्रभगवान को ( बुधोत्तमाः) उत्तम बुद्धिमान भव्य श्रावक ( जाति चम्पक) जाति, मल्लिका, चम्पा ( पुन्नागैः ) पुन्नाग, केशर (पद्याद्य) कमल, गुलाब जुही, चमेली आदि (कुसुमोत्करैः ) सुन्दर सुगन्धित पुष्पसमूहों से ( अर्चयन्तु) पूजा करें भावार्थ – सिद्धचक्र - जिनभगवान की १०० इन्द्र नाना प्रकार के उत्तमोत्तम पुष्पों से पूजा करते हैं । उन जिन सिद्ध प्रभु की भव्य श्रावक वृन्द को भी भक्तिभाव से जुही, चमेली, जाति, पाटल, पुण्डरीक, कमल, नागकेसर, मल्लिका श्रादि के सुवासित, मनोहर पुष्पों से पूजा करना चाहिए। इस पूजा से कामवासना का नाश होता है और परिणाम विशुद्धि होती है ।। १०१ ।। पक्वान्नैश्चारुपीयूषंर्व्यञ्जनाद्यैरनुत्तमैः । दुःखदारिद्रय दौर्भाग्यदावानल घनाघनम् ॥१०२॥ अन्वयार्थ - - ( चारु) सुन्दर ( पियुषैः ) मधुर अमृतमय, (अनुत्तमैः) अपूर्व ( व्यञ्जनाद्यं :) पक्वान्नों ( पक्वान्नैः ) सुपच्य अन्नों से की गई पूजा ( दुःखदारिद्रय) दारिद्रय से उत्पन्न दुःख ( दौर्भाग्य) दुर्भाग्यजन्य पीडा रूपी ( दावानल) दावाग्नि के लिए ( घनाघनम् ) घनघोर घटा से घिरा मेघ है । भावार्थ- नाना प्रकार के मधुर लाडू, पेडा, बर्फी, खाजा ताजा और शुद्ध बनाकर, बाटी आदि घृतपूरित पक्वान्नों से तथा खीरादि व्यञ्जनों से प्रतिदिन श्री जिनेन्द्र भगवान, सिद्धचकादि की पूजा करना चाहिए। इस पूजा से दरिद्रता, दुर्भाग्य से उत्पन्न कष्टरूपी दावानल क्षणमात्र में उस प्रकार नष्ट हो जाती है, जिस प्रकार वनखण्ड में लगी दवाग्नि मेघवर्षण से शान्त हो जाती है ।। १०२ ।। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] [ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अते रत्नकपूरसद्द पैन्तनाशनैः । अज्ञानतमसस्तोम विध्वंसनमनुत्तरम् ॥ १०३ ॥ प्रन्वयार्थ - ( या : ) जो ( ध्वान्तनाशनेः) अन्धकार का नाश करने वाले ( रत्न, कर्पूरसद्दीप: ) रत्नों, कपूर के श्रेष्ठ दीपकों से ( अर्धते ) पूजा करते हैं ( तेषाम् ) उनका ( अज्ञानतमस्तोम) अज्ञानरूपसघन अन्धकार ( अनुत्तरम्) प्रतिशयरूप से ( विध्वंसनम् ) नाश को प्राप्त होता है । भावार्थ - रत्नों के दीपों से अथवा कर्पूरादि के दीपों से जो श्री जिनेन्द्रप्रभु, सिद्ध प्रभुखों की अर्चना करता है उसका प्रगाढ मोहांधकार विलीन हो जाता है ।। १०३॥ कृष्णागरु महाधूपैः पूज्यते परमादरात् । grocroceintodta दहनक हुताशनम् ॥ १०४॥ श्रन्वयार्थ - जो (दुष्टाष्टकर्म ) दुष्ट अष्टकर्मों रूपी (काष्टौघ) काठ के समूह को ( दहनेक) जलाने में एकमात्र ( हुताशनम् ) अग्निरूप है उस धूप पूजा को (परमादरात् ) परम आदर से (कृष्णागरु ) कृष्णागरु ( महाधूपैः ) अष्टाङ्ग या दशाङ्ग धूप से ( पूज्यते ) पूजा करते हैं वे भव्य कर्मकाष्ठ को जलाते हैं । भावार्थ - जो भव्य दशाङ्ग धूप से पूजा करते हैं उनके अष्टकर्म नष्ट हो जाते हैं । धूप अग्नि में खेई जाती है। अग्नि धूप को भस्मकर चारों ओर सुगन्ध फैलाती है उसी प्रकार यह धूप पूजा पूजक के आठ कर्मरूपी ईंधन को भस्मकर उसके अनन्तगुणों को प्रकट करती है ।। १०४ ।। नालिकेराजम्बीर दाडिमादि फलोत्करैः । स्वर्गमोक्षसुखप्राप्त्यै समाराध्यम् विचक्षणैः ॥ १०५॥ अन्वयार्थ — ( विचक्षणः ) विदग्ध चतुर बुद्धिमानों को (स्वर्गमोक्ष सुखप्राप्त्यैः ) स्वर्ग और मोक्ष के सुख पाने के लिए ( नालिकेर: ) नारियल (आम्रजम्बीर) ग्राम, विजोरा ( दाडिमदि ) अनार, अंगूर, संतरा, केलादि ( फलोत्करैः ) फल समूहों से ( समाराध्यम् ) श्री जिन की प्राराधना-पूजा करनी चाहिए भावार्थ- सुन्दर, सुपवत्र, ताजे, मधुर फलों से श्री जिन प्रभु, सिद्धभगवानादि की पूजा करने से स्वर्ग और मोक्ष की सम्पदा प्राप्त होती है । अत: है पुत्रि ! तुम सुमनोज्ञ उत्तम फलों से सिद्धचक्र पूजा करो ।। १०५ ।। तोयगन्धाक्षताद्यैश्च घृत्वा भव्यसत्तमः । स्वर्णपामै पुनश्चायं कृत्वा स्तुतिमिमा पठेत् ॥ १०६॥ " 1 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१८५ अन्वयार्थ ---(भन्यसत्तमः) भव्योत्तम, (स्वर्णपात्रे) सुवर्ण के थाल में तोयगंधाक्षताय :) जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, चरु, दीप, धूप, फल (धृत्त्वा) रखकर (च) और (अy) अयं (कृत्वा ) बनाकर चढावे (पुनपच) और पुनः (अय॑म् ) अर्घ्य (कृत्वा ) बनाकर (इमाम् ) इस-निम्न (स्तुतिम् ) स्तुति को (पत्) पढे । भावार्थ-भव्योत्तम पूजक, स्वरणपात्र--थाल में जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, चरु, दीप, धूप और फल इन आठों द्रव्यों को स्थापित कर पूर्णभक्ति, विनय से अर्धावतारण करें। पुनः पाठों द्रव्यों को हाथ में लेकर निम्न प्रकार स्तोत्र पढ़े ॥१०६।। सम्यक्त्वादि गुणोघरत्ननिलयं देवेन्द्रवृन्दाचितम् । दुष्कर्मारिकठोर दारुवहनं योगीन्द्रसंसेवितम् ।। लोकालोकविलोकनक कुशलं संसारसंतापहम् । भन्मयालिसुलेककारणामई श्रीसिद्धचक्र स्तुवे ॥१०७॥ अन्वयार्थ-(सम्यक्त्वादि) सम्यग्दर्शन,ज्ञान, चारित्रादि (गुणौघ) गुणसमूह (रत्न) रानों का (निलयम्) भाण्डार, (देवेन्द्रवृन्द) देवेन्द्रों के समूह से (अचितम्) पूजनीय, (कठोर) कठिन (दुष्कर्म) पापकर्मरूपी (अरि) शत्रु स्वरूप (दारू) लकडी को (दहनम् ) जलाने में समर्थ, (योगीन्द्रसंसेवितम्) योगीन्द्रों से सेवनीय, (लोकालोक) लोक और अलोक (विलोकनंक) देखने में एकमात्र (कुशल) योग्य, (संसारतापहम् ) संसारताप का नाशक, (मुक्तिसुस्पैककारगम् ) मोक्षरूप सुख का एकमात्र हेतुभूत (श्रीसिद्धचक्रम् ) श्री सिद्धचक्र को (अहम् ) मैं (भक्त्या) भक्ति से (स्तुवे) स्तुति करता हूँ। जय सिद्धचक्रदेवाधिदेव सुरनर विद्याधर विहितसेव । जय सिद्धचक्रभयचक्नमुक्त, मुक्तिश्रीसङ्गम शर्मशक्त ॥१०॥ अन्वयार्थ--(देवाधिदेव) देवों के देव (सुरनरविद्याधर) देव, मनुष्य और विद्याधर (विहितसेव) सेवा में रहते हैं हे (सिद्धचक्र) सिद्धचक्र (जय) जयन्त रहो। (भयचक्रमुक्त) भय समूह से रहित (मुक्तिश्रीसंगम) मुक्तिलक्ष्मी के संग (शर्मशक्त) सुख और अनन्त वल सहित (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र (जय) यापकी जय हो ।।१०८।। जय सिद्धचक्रपरमात्मरूप, पावनगुणरञ्जित परमभूप । जय सिद्धचक्र कर्मारिवीर, दुस्तरभवसागर लब्धतीर ॥१०६॥ अन्वयार्थ प्राप (परमात्मरूप) परमात्मस्वरूप हो (पावनगुणरञ्जित) पवित्रगुणों मे शोभित हो (कारि) कर्मशत्रु को (वीर) सुभट हो (दुस्तर) भयङ्कर (भवसागर) संसार जलधि का (लब्धतीर) किनारा पाने वाले (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र (जय) जय हो । (परमभूप) सर्वोत्तम शासक हो (जय सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र जयशील रहो ।।१०६।। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] [ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद जय सिद्धचक्रसम्यक्त्वसार सज्ञानसमुद्रसमाप्तपार । जय सिद्धचक्रदर्शनविशुद्ध, बीजितगुणगणमरिण समिद्धि ॥११०।। अन्वयार्थ-(सम्यक्त्वसार) सम्यग्दर्शन का सार (सज्ञानसमुद्रसमाप्तपार) सम्यग्ज्ञानरूपी सागर के तीर पाने वाले केवली (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र देव! (जय) जयशोल होओ, पाप ही (दर्शनविशुद्ध) विशुद्धदर्शन हो (वीर्याजित) स्व वीर्य से अजित (गुणगणमणि) गुणमग्गियों से (समिद्ध) सम्पन्न हो (सिद्धचक्र) हे सिद्धसमूह आपकी (जय) जय हो। जय सिद्धिचक्र सूक्ष्मस्वभाव अवगाहनगुण सम्यक्त्वभाव । जय सिद्धचक्र गुरूलघुविमुक्त अव्याधिबाधलक्षणनिरक्त ॥१११॥ अन्वयार्थ -हे (चिद्धचक्र) सिद्धचत्र आप (सूक्ष्मस्वभाव) सूक्ष्मस्वभावी, (अवगाहनगुण) अवगाह्न गुण युक्त, (सम्यक्त्वभाव) सम्यक्त्व गूण युक्त हो आपकी (जय जय हो (गुरुलघुविमुक्त) अगुरुलघुगुणधारी, '(अव्याधिबाध) अव्याबाध (लक्षण) स्वभाव, चिन्ह (रक्त) लीन (सिद्धचक्र) सिद्धचक्र (जय) जय हो। जयसिद्धचक्न दुर्गति विनाश, दुर्व्याधिहरण जनपूरिताश । जयसिद्धचक्र करुणासमुद्र, भुवनत्रयमण्डन नत मुनीन्द्र ॥११२॥ अन्वयार्थ--यह (सिद्धचक्र) सिद्धचक्र (दुर्गतिविनाश) दुर्गतियों का नाश करता है (दुव्याधिहरण) क्लिष्ट रोगों का नाशक (जन आशा) मनुष्यों की आशा (पूरितः) पूर्ण करने वाला है (करुणा) दया का (समुद्र) सिन्धु, (भुवनत्रय) तीनों लोकों का (मण्डन) शृगार (नतमुनीन्द्र) मुनीन्द्रों से भी नमस्करणीय है (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र देव ! (जय जय) आपकी जय हो, जय हो। जय सिद्धचन लोकप्रसिद्ध, कालत्रय सम्भवभावशुद्ध । जय सिद्धचक्र चारित्रसार, मूनिजन संसेवित मुक्तिहार ॥११३॥ अन्वयार्थ--(लोकप्रसिद्ध) संसार प्रसिद्ध (कालत्रय) तीनों कालों में (शुद्धभाव) पवित्र भावों का (सम्भव) उत्पादक (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र ! (जय) जय हो, (चारित्रसार) आप ही उत्तम चारित्र के सार हो (मुनिजन संसेवित) मुनियों से सेवनीय (मुक्तिहार) मुक्तिवधू के कण्ठहार (सिद्धचक्र ! ) हे सिद्धचक्र आपकी जय हो। जय सिद्धचक कविराजपूज्य, सम्प्राप्तशिवालय परमराज्य । जय सिद्धचक्र हतदोषचक्र, तनुवातस्थित सनम्रशक्क ॥११४।। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [१८७ श्रन्ययार्थ ( कविराजपूज्य ) महानकवियों से पूज्य, ( शिवालय ) शिवमहल का ( परमराज्य ) उत्तम राज्य ( सम्प्राप्तः ) प्राप्त करने वाले ( सिद्धचक्र) हे सिद्ध देव ! ( जय ) जयशील रहो । ( दोषचक्रहत: ) दोष समूहों को नष्ट करने वाले ( तनुवातस्थित ) तनुवात वलय - लोकाग्रभाग में स्थित (नम्रश) इन्द्र द्वारा नमित (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र ( जय ) आपकी जय हो । जय सिद्धचक्न चित्तौघहरण, निजनाममात्र सम्पत्तिकरण । जय सिद्धचक्र निश्चलचरित्र, भवसागरतारण्यानपात्र ॥ ११५ ॥ । अन्वयार्थ -- ( चित्तोधहरण) चित्तसमूह के हरण हारे (निजनाम मात्र ) अपने नाम मात्र लेने वाले को (सम्पत्तिकरण ) इच्छित सम्पत्ति करने वाले, (निश्चल) अचल (चरित्र) चारित्रधारी ( भवसागर ) भव समुद्र ( तारण ) पार होने को ( थानपात्र ) जहाज हैं ( सिद्धचक्र) देव ! हे (सिद्धचक्र) सिद्धसमूह ( जय, जय ) जय हो, जय हो || इति सिद्धमूह, निर्गत मोहं यः स्तोति विशुद्धमतिः । सभवति गुणचन्द्रः परमजिनेन्द्रः सिद्धसौख्य सम्पत्तिततिः ।। ११६ ॥ श्रन्वयार्थ -- (इति) इस प्रकार ( सिद्धसमूहम् ) सिद्धचक्र (निर्गत मोहम्) मोह रहित, को (यः) जो ( विशुद्धमतिः) निर्मलबुद्धि ( स्तौति ) स्तुति करता है ( स ) वह (सिद्धसौख्यसम्पत्तिः) सिद्ध सुख की सम्पत्ति का ( ततिः) अधिपति ( गुणचन्द्र : ) गुणों का चन्द्रमा ( परमजिनेन्द्र : ) महान जिनेन्द्र भगवान (भवति) होता है । भावार्थ - प्रष्टद्रव्यों से क्रमश: पूजाकर पूर्ण अर्ध चढाकर पुनः स्वर्ण पात्र में प्रष्ट द्रव्य भरकर हाथ में ले अर्ध्य उतारण करते हुए इस स्तुति को भव्यजन परमभक्ति, विनय से पढें । स्तुति निम्न प्रकार है- सम्यक्त्वादि गुणरत्नों के भाण्डार, शतइन्द्रों से पूज्य, दुष्कर्मकाष्ठ को भस्म करने बाले प्रज्वलित अग्नि, योगियों से वन्दित, लोक और अलोक को एक साथ देखने वाले हे सिद्धचक्रदेव ! आपकी जय हो । ग्राप संसार ताप का नाश करने वाले हो, जो भक्ति से आपकी सेवा करता है आप उसे मुक्तिपद प्रदान करते हैं। मैं आपका स्तवन करता हूँ । सिद्धच देव ! आप देवों के देव हैं, देव इन्द्र, विद्याधर, चक्री सभी प्रापकी सेवा में I रत रहते हैं । आप भयचक्र के नष्ट करने वाले हैं। आपकी जय हो। आप मुक्ति का सम कराने वाले प्रापकी जय हो । श्राप परमात्मस्वरूप हैं, पावनगुणों के प्राकर नृपति हैं, सब मनरजक आपकी जय हो । कर्मशत्रु के संहारक संसार सागर के तटपर पहुँचे सिद्धच भगवन् आपकी जय हो । आप अक्षय परमावगाढ सम्यक्त्वधारी हैं, ज्ञान सागर के पारगामी हैं— केवल ज्ञान सम्पन्न हैं । दर्शनविशुद्धि से युक्त हैं। स्ववीर्य से अर्जित अनेक गुरगणों से Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद • सम्पन्न हो । आपकी जय हो । आप सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, सम्यक्त्व, अगुरुल चु, अव्याबाधगुणों से युक्त हैं प्राप की जय हो, आप जयवन्त रहो। आप करूणासागर हैं, तीनों लोकों के आभूषण हो, मुनियों के ईश हो आपको जय हो, जय हो । आप तीनन्नोक प्रसिद्ध हो, शुद्धभाव युक्त शुद्धभावों के कारण हो, हे सिद्धसमूह ! आपकी जय हो । परमोत्तम चारित्र के सार हैं, महान यति, ऋषि, मुनियों से ससेवित हैं, हे सिद्धचक्र देव ! आप की जय हो, जय हो । ग्राप मुक्तिबधु के कण्ठहार हैं, कविराजों से पूज्य हो, परमशिवालय में निवास करने वाले राजधिराज हैं आपकी जय हो, दोषसमूह के नाशक हो, तनुवातवलय में स्थित रहने वाले हैं, शक्रादि आपके चरणों में नतशिर हैं. आपकी जय हो । प्राणीमात्र के मनों को वश करने वाले हो, आपका नाममात्र लेने वाले को नाना सम्पत्तियों का खजाना प्राप्त होता है । आप अचल चारित्र के धारी हैं। संसार उदधि को पार करने के लिए जहाज हैं । अापकी जय हो, जय हो, सदा जय हो। इस प्रकार यह सिद्धसमूह, मोह का पूर्णनाश करने वाला है। जो विशुद्ध मति इस सिद्धचक्रदेव की स्तुति करते हैं वे महागुणों के भाण्डार हो जाते हैं, पूर्णचन्द्रसमान दैदीप्यमान होते हैं, अनन्त सुख सम्पत्ति के प्रागार होते हैं, परम जिनेन्द्ररूप हो जाते है ।। १०७ से ११६॥ इस प्रकार पूर्ण श्रद्धाभक्ति से स्तवनकर निम्न मन्त्र का १०८ बार जप करे - अष्टोत्तरशतेनोच्च पैः पाप प्रणाशनः । असि आ उ सा इत्येवं जपनीयं च तद्धितम् ।।११७॥ अन्वयार्थ- (असि आ उसा) असि आ उ सा (इति) इस मन्त्र का जाप (पापप्रणाशनः) पापों का नाश करने के लिए (एवं) इस प्रकार (तत्) उस (हितम् ) हितेच्छ को (अष्टोत्तरशतेन) एक सौ आठ बार (उच्चैः) विशेष पल्लवादि सहित (जपः) जपों से (जपनीयम्) जाप चरना चाहिए (च) और क्रिया पूर्ण करे । भावार्थ-."ॐ हीं अह असि पा उ सा नमः । इस मन्त्र का विधिवत् जाति. मल्लिकादि पुष्पों से १०८ बार जाप करे । यह मन्त्र सर्वपापों का नाश करने वाला और सुख-शान्ति का देने वाला है। इस प्रकार पूजा करके पूर्ण भक्ति और श्रद्धा से हे पुनि तुम गन्धोदक से अपने पति और अन्य सभी कुष्टियों को सर्वाङ्ग में अभिसेचन करो ।।११७।। तथाहि - तत् स्नानगन्धतोयेन सिक्तव्यं तय बल्लभः । गत व्याधिस्तथा कामदेवो या सम्भविष्यति ॥११८।। अन्वयार्थ---हे पुत्रि ! (तत्) उस अभिषेक से (स्नानगन्धतोयेन }अभिषेक के गन्धमिश्रित गन्धोदक से (तव) तुम्हारा (वल्लभः) पति (सिक्तव्यम्) अभिसिंचित किया जाना चाहिए (तथा) इस प्रकार करने से (व्याधिः) रोग (गतः) रहित (वा) तथा (कामदेव:) कामदेव सदृश सुन्दर (सम्भविष्यति) हो जायेगा। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [१८६ रावा .. मी सुन्दरी को उपहार उपदिष्ट करते हुए प्रादेश प्रदान कर रहे हैं कि हे पुत्रि ! श्रीजिनदेव और यन्त्र का जो पञ्चामृताभिषेक तुमने किया था उस गन्धोदक को तुम्हारे पति के सम्पूर्ण शरीर को छिडको अर्थात् सर्वअङ्गों में सिर से पैर तक स्नान कराने के समान लगाओ। निश्चय ही इससे उसका रोग नष्ट होगा। तथा उसका सौन्दर्य कामदेव के समान हो जायेगा ॥११८।। इत्यादि सिद्धचक्रस्य विधानं शर्मदायकम् । श्रुत्वा श्रीपलिनासार्द्ध, तदा मदनसुन्दरी ॥११॥ तदवतं त्रिजगत्सारं, ग्राहयित्वा निजं पतिम् । गहीत्वा च स्वयं भक्त्या, परमानन्द निर्भरा ॥१२०॥ अन्वयार्थ—(इत्यादि) उपर्युक्त सर्वविधि सहित (शर्मदायकम्) सुखदायक (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र विधान पूजा (विधानम) विधान को (श्रीपतिनासार्द्ध) अपने पति के साथ (श्रुत्वा) सुनकर (तदा) तब (मदनसुन्दरी) मैंनासुन्दरी ने ।।११।। (परमानन्दनिर्मरा) परम आनन्द से हर्षित उस मदनसुन्दरी ने (सत्) बह (त्रिजगत्सारम्) तीनों लोकोसारस्वरूप (व्रतम्) व्रत को (निजम्) अपने (पतिम् ) पति को (ग्राहयित्वा) धारण कराकर (च) और (भक्त्या) भक्तिपूर्वक (स्वयं) अपने भी (गृहीत्वा) ग्रहण-धारण करके ।।१२०।। मुनि नत्वा सुभावेन गृहमागत्य सा सती। सिद्धचक्र महायन्त्रं, चारु चामीकरोद्भवम् ॥१२१॥ अन्वयार्थ--(सुभावेन) उत्तम भाव से (मुनिम्) मुनिराज को (नत्वा) नमस्कार कर (सा) उस मैंना (सती) साध्वीस्वरूपा (गृहम् ) घर (आगत्य) आकर (चारू) सुन्दर शुद्ध (चामीकर) सुवर्ण से (सिद्धचक्रमहायन्त्रम् ) सिद्धचक्रमहायंत्र को (उद्भवम् ) खुदवाया तथा .. कारयित्वा तदा शीघ्र पर्वोक्तविधिना शुभम् । सामग्री सा विधायोच्च जंगच्चेतोऽनुरञ्जिनीम् ॥१२२॥ अन्वयार्य--(तदा) तब (सा) उस सुन्दरी ने (शीघ्रम् ) अतिवेग से (पूर्वोक्त) ऊपर बताई (विधिना) विधि से (शुभम् ) मङ्गलमयी (जगत्) प्राणिमात्र का (चेतः) चित्त-मन (अनुरञ्जिनीम्) हरण करने वाली (सामग्रीम्) पूजासामग्री को (उच्चैः) विशेषरूप से (विधाय) तैयार कराकर (कारयित्वा) करवाकर-- Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद स्वयं स्नात्वा पवित्रात्मा धौतवस्त्रसमन्विता । जिनेन्द्रभवनेरम्ये कृत्वा शोभां मनः प्रियाम् ॥१२३॥ __ अन्वयार्थ--बह पतिव्रता (स्वयं) स्वयं (पवित्रात्मा) पावन भावनायुत (स्नात्वा) स्नान करके (धीतवस्त्रसमन्विता) सफेद शुद्धवस्त्र धारण कर (रम्ये) सुन्दर (जिनेन्द्र भवने) जिनालय में (मनःप्रियाम्) मनोरञ्जक (शोभाम्) शोभा (कृत्वा) करके पुनः विशिष्टाष्ट महाद्रव्यैर्जलगन्धाक्षतादिभिः । पूजामेकां शुभां चके सिद्धचक्रस्यशर्मदाम् ॥१२४।। अन्वयार्थ--(जलगन्धाक्षतादिभिः) जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, चरु, दीप धूप फलादि (विशिष्ट) विशेष (अष्ट) पाठ (महाद्रव्यः) उत्तम द्रव्यों से (शुभाम् ) शुभ (शर्मदाम्) शान्तिदायक (सिद्धचक्रस्य) सिद्धसमूह की (एकाम् ) प्रथम दिवस की (पूजाम्) पूजा (चक्र) को । भावार्थ-याचार्य थी ने सिद्धचक्रगुजा विधान को सम्पूर्ण विधि जिस प्रकार उपदिष्ट की उसे मदनसुन्दरी ने ध्यान पूर्वक श्रवण किया तथा इस सुख शान्ति विधायक सिद्धचऋविधान विधि को मैंनासुन्दरी ने अपने पति के साथ सुना । परमभक्ति से वह व्रत अपने पतिदेव को दिलवाया तथा स्वयं ने भी यही व्रत लिया । हर्षातिरेक से गद्गद् दोनों दम्पत्ति व्रत लेकर प्रसन्न हुए 1 महाभक्ति से विनयपूर्वक हाथ जोड़, मस्तक भुकाकर नमस्कार किया। परम शुभ भावों से दोनों घर आये । उस महासती शिरोमणि ने पतिभक्ति से सुवर्ण के पत्रे पर सिद्धचक यन्त्र को तैयार करवाया। महायन्त्र तैयार होने पर उस पतिव्रता ने अन्य प्रष्ट द्रब्यों को समन्वित किया । सभी सामग्री पूर्णशुद्ध, उज्वल और मनोहर थी। उस शोभनीय सामग्री को देखकर सबका मन मोहित हो जाता है । विशेष-विशेष जल फलादि एकत्रित करवाये। पुन: स्वयं सती ने स्नान किया। शुद्ध, सफेद वस्त्र धारण किये। जिनालय में जाकर सर्वप्रथम मन्दिर जी को शोभित किया। मनोरम तोरण, पताका, घण्टा, चमर, छत्र, सिंहासन आदि से सुन्दर साज-सज्जा से सजाया । आज कल कुछ अपने को मुमुक्षु कहने वाले कहते हैं कि वीतराग भगवान का मन्दिर भी वीतरागी जैसा रहना चाहिए। परन्तु उन्हें आचार्य श्री की व्याख्या पर ध्यान देना चाहिए । सरागी जीव, मनुष्य भगवान के सातिशयी पुण्य का प्रदर्शन कर अपने भावों को पवित्र करते हैं। त्यागभाव की वृद्धि करते हैं । लोभ कषाय का शमन करते हैं । इन्द्र कुवेर द्वारा समवशरण की अनुपम शोभा कराता है तो क्या भगवान को सरागी बनाता है ? नहीं। भगवान की महिमा का प्रदर्शन कर अपने अनन्त अशुभ कर्मों की निर्जरा करते हैं। यह सम्यक्त्व के प्रभावना अङ्ग का प्रदर्शन है। अतः जिनालय धवल मङ्गल-गान आदि से गुजित रहता है। अतएव मैनासुन्दरी ने भी नाना उपकरणों से जिनालय को सज्जित किया । पुनः प्रथम अष्टमी के दिन की पूजा विशिष्ट-विशिष्ट Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद [१६१ जल, चन्दन, अक्षत, पूष्प नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से श्री सिद्धचक्र महायन्त्र की पूजा समाप्त की ।।१२४॥ रात्रौ जागरणं कृत्वा संद्येन महता सह । नवभ्यां वशधोपेतां तथा स्तवन पूर्वकम् ॥१२५॥ अन्वयार्थ - (महता) बहुत (संघेन) समुदाय के (सह) साथ करके (तथा) तथा (स्तवन) स्तोत्रादि (पूर्वकम् ) सहित (जागरण) जागरण (कृत्वा) करके (नवम्याम्) नवमी के दिन (दशधोपेताम्) दशगुणी सामग्री से तथा दशगुणे बंभव से पूजा की। दशभ्यां शतधा पूजामेकावश्यां सहस्रधा । द्वादश्यां तब्दशोपेतां त्रयोदश्याञ्च लक्षिकाम् ॥१२६॥ दशलक्षगूणां पूजां चतुर्दश्यां विधाय च कोटिधा पूर्णिमायाञ्च, पूजां चक्के शुभाशया ॥१२७।। अन्वयार्थ - (शुभाशया) पवित्र भावना से (दशम्यां) दशमी के दिन में (पतधा) सौगुनी (एकादश्याम् ) ग्यारस के दिन (सहस्रधा) हजार गुणित (द्वादश्याम्) बारस को (तद्दशोपेताम् ) उससे दशगुणी अर्थात् दशहजारगुणी (च) और (त्रयोदश्याम) तेरस के दिन (लक्षिकाम् ) लाखमुनी (पूजा) पूजा (विधाय) करके (च) और (पूर्णिमायाम्) प्णिमा को (कोटिधा) करोडगुनी महिमा से (पूजाम् ) पूजा को (चक्रे) की । भावार्थ - अष्टान्हिका महापर्व के प्रारम्भ होते ही मैंनासुन्दरी ने गुरू प्राज्ञा प्रमाण नन्दीश्वर ब्रत प्रारम्भ किया, श्रीपाल ने भी नत किया। परन्तु सिद्धचक्र विधान मदनसुन्दरी ने ही स्वयं आरम्भ किया। प्रथम अष्टमी के उपर्युक्त प्रमाण अत्यन्त वैभव से पूजा को तथा रात्रि में जागरण किया-कराया, स्तुतिपाठ, भजनादि सिद्धसमूह की भक्ति की। नवमी के दिन अष्टमी की अपेक्षा १० गुने वैभव भक्ति से विधि-विधान महोत्सव किया । दशमी के दिन . उससे भी अधिक १०० पट द्रव्यों से आराधना की। एकादशी को हजार मुरिणत नानाविध नानासामग्नी से मण्डल विधान पूजा कर श्री सिद्धचक्र की आराधना की । द्वादशी के दिन दशहजारगुने, त्रयोदशी के दिन लक्ष-लाख गुने और पूणिमा के दिन करोडमुने वैभव, द्रव्यादि से श्री सिद्धचक्र की अर्चना कर अपने को धन्य समझा । भावों की पवित्रता उत्तरोत्तर बढती गई और पापों का क्षय भी उत्तरोत्तर अधिक-अधिक होता गया। पुण्य की वृद्धि भी उसी प्रकार होती गई । इस प्रकार आठ दिन तक लगातार ठाठ-बाट से पूजा, आराधना की ।।१२५, १२६ १२७॥ तदा श्री जिनसिद्धानां, स्नान गन्धोदकेन च । तच्चन्दनान्वितेनोच्च, स्तयाति परमादरात् ।।१२८॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ [ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद नित्यं यथा यथा भर्ता, सिक्तो लिप्तस्तथा तथा । दिनं दिनं प्रज्यिक, सिद्धचक्र प्रभावतः ॥ १२६॥ स श्रीपालो लसत्वालो, दिव्यमूतिर्भवंस्तथा । श्रष्टमे दिवसे प्राप्ते, नष्ट व्याधिर्बभूव सः ॥ १३०॥ अन्वयार्थ - ( तदा ) तब उन ग्राठों दिनों में प्रतिदिन (तया) मैंनासुन्दरी ने (अति) अत्यन्त (परमादरात्) परम आदर से ( नित्यम् ) प्रतिदिन (श्रीजिनसिद्धानाम् ) श्रीजिनेन्द्रभगवान और सिद्धों के (तत्) उस ( चन्दनान्वितेन) शुभचचित चन्दन से युक्त (स्नानतोयेन ) गन्ध | दक से (यथा-यथा ) जैसे-जैसे ( भर्त्ता ) पति (सिक्त: ) अभिसिंचित किया (च) और (लिप्तः ) लिप्त किया गया ( तथा तथा ) वैसे-वैसे ( सिद्धचक्रप्रभावतः ) श्री सिद्धचक के प्रभाव से ( दिनं दिनं ) प्रतिदिन ( प्रतिव्यक्तम् ) स्पष्टरूप से ( स ) वह ( बालः) बाल (श्रीपाल : ) श्रीपाल ( लसत् ) शोभित हुआ (तथा) और ( दिव्यमूर्ति ) सुन्दरमूर्ति ( भवन्स) होता हुआ ( अष्टमे ) आठवें ( दिवसे) दिनके ( प्राप्ते) प्राप्त होते ही (सः) वह ( नष्टव्याधिः ) रोगरहित ( बभूव ) हो गया । भावार्थपतिव्रता, उस मैनासुन्दरी ने प्रखण्डब्रह्मचर्य से पावन मन वचन काय से आठ दिन तक व्रत पूर्वक श्रीसिद्धचक्र की विधिवत अभिषेक पूजा की। नित्य प्रति श्रीजिनेन्द्रप्रतिमा सहित सिद्धयन्त्र का पञ्चामृताभिषेक करती थी अनन्तर चन्दन लेपन कर उस गन्ध और गन्धोदक से अपने पति श्रीपाल का आपादमस्तक-शिर से पैर तक गन्धोदक छिड़कती और चन्दनलेपन करती । जैसे-जैसे प्रतिदिन वह गन्धोदक स्नान कराती गई वैसे-वैसे महाराज श्रीपाल के शरीर से व्याधि निकल कर उस प्रकार भागती गई जैसे मयूर को देख कर सर्प भाग खड़े होते हैं। दिन-प्रतिदिन उसका रूप लावण्य निखरने लगा, महा साता होती गई, पीडा शमित होती गई । श्राउवें दिन कञ्चन सी काया हो गई। व्याधि पूर्णतः नष्ट हो गई। वह कुष्ठी श्रीपाल अब दिव्यरूप हो गया । यामूल काया पलट हो गई | तथा ॥ १२८ १३० ।। • पूर्व रूपादपि प्राप्त रूपसौभाग्य सम्पदः । कामदेवमाकारः कान्त्याजित सुधाकरः ॥१३१॥ अन्वयार्थ - - ( पूर्व ) पहले (रूपात् ) सौन्दर्य से (अपि) भी अधिक ( रूप ) सौन्दर्य (सौभाग्य) सौभाग्य ( सम्पदः) सम्पत्ति ( प्राप्तः ) प्राप्त हुई । ( कामदेवसमाकारः ) आकार कामदेव सदश (कान्त्याजित सुधाकरः) कान्ति से चन्द्रमा को भी जीतने वाला रूप ( प्राप्तः ) प्राप्त हुआ । त्रिजगद् वनितावृत्व मनोमाणिक्य मोहनः । सिद्धचक्रप्रसादेन जगद्व्याप्य यशोधनः ॥ १३२ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 下雪美 - - - - “一 - 电 - TTHE , Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ imji राजा MAKISR A श्री सिद्धचक्र विधान पूजा के प्रताप से श्रीपाल एवं ७०० कोढी व्याधि मुक्त हो गये। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१६३ अन्वयार्थ- (सिद्धचक्रप्रसादेन) सिद्धचक्र भक्ति के प्रसाद से (त्रिजगद् ) तीनलोक की (वनिताबन्द) नारी समूह के (मनोमाणिक्यमोहनः) मन रूपी माणिक्यरत्न को मोहने वाला, (जगद्व्याप्य) संसार व्यापी (यशोधनः) यशरूपी धन (प्राप्तः) प्राप्त किया । भावार्थ इतना ही नहीं । जन्म का जितना सौन्दर्य था उससे भी अधिक रूप लावण्य सम्पत्ति प्राप्त हुयी । श्रीसिद्धिचक्र के प्रसाद से रूप, सौभाग्य सम्पदा अतुलनीय हो गई । जाादेव सण आकार हो गया ! गरेर की कान्-ि से चन्द्र की शोभा को भी जीत लिया। चन्द्र जिस प्रकार सबका मन प्राङ्गादित करता है उसी प्रकार उसका शरीर सौन्दर्य तीनों लोकों की सुन्दरियों के मनमाणिक्य को मोहने वाला प्रकट हुा । इतना ही नहीं सौम्य ग्राकृति के साथ यश भी जगतव्यापी हुआ । सिद्धचत्र महिमा, पातिव्रत धर्म प्रताप और जिनशासन महात्म्य की यशोपताका तीनों लोकों में फहराने लगी । अर्थात् सुरासर नर विद्याधर लोक में सर्वत्र इस सिद्धचक्र की महिमा और मैनासुन्दरी का श्रद्धाप्रताप व्याप्त हो गया । ॥१३१.१३२।। तथा तया तदा सर्वे ते सप्तशतकुष्ठिनः । तेन गन्धाम्बुना शीन विहिता ब्याधिजिताः ॥१३३॥ अन्वयार्थ-(तथा ) उसी प्रकार (तया) मदनसुन्दरी द्वारा (तदा) तब (ते) वे (सर्व) सभी (सप्तशत) सातसो (कुष्ठिनः) कुष्ठी भी (तेन) उस (गन्धाम्बुना) गन्धोदक सिंचन से (शीघ्रम् ) शीघ्र ही (व्याधि) रोग (वजिता) रहित (विहिता) किये गये। भावार्थ:-दयाद्रचित्ता, जिनागमपरायणा उस मैनासुन्दरी ने जिस प्रकार अपने पतिदेव की सुश्रुषा को उसी प्रकार उमके माथी ७०० कुष्ठियों की भी परिचर्या की । धर्मात्मा स्वभावतः परोपकार निरत रहते हैं । प्रतिदिन अभिषेक के गन्धोदक को उन सभी कुष्ठियों पर छिडकती । अतः सभी उस असाध्यरोग से मुक्त हो गये । निस्वार्थसेवी प्राणीमात्र के प्रति समभावी होते हैं ।।१३३।। सिद्धचक्रस्य पूजायाः फलं प्रत्यक्षतामिताम् । तेऽपि संवीक्ष्य जैनेन्द्र धर्मेलग्नाः स्वभावतः ॥१३४॥ अन्वयार्थ---(ते) वे ७०० कुष्ठी (अपि) भी (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र की (अमिताम्) अमित (पूजाया:) पूजा के (फलम् ) फल को (प्रत्यक्षतः) प्रत्यक्ष (संवीक्ष्य) सम्यक् प्रकार देखकर (जैनधर्मे) जैनधर्म में (स्वभावतः) स्वभाव से (लग्ना:) लग गये अर्थात् स्वीकार किया। भावार्थ-सिद्धचक्र पूजा के महात्म्य को प्रत्यक्ष देखकर अन्य ७०० कुष्ठी भी जिनधर्म में दृढ़ श्रद्धालु हो गये । अन्य को प्राप्त फल को देखकर श्रद्धाभक्ति जाग्रत होती है। यदि स्वयं को ही फलं मिले तो फलदाता के प्रति भक्ति क्यों न होगी ? अवश्य ही होगी। वे सभी Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद जिनधर्मपरायण हो गये । अटूट वैभव उन्हें प्राप्त हुआ उसी प्रकार अकाट्य भक्ति भी जानत हो गई । मैंना रानी का सुयश विश्वव्यापी बन गया । सर्वत्र उसका यशोगान होने लगा। आज तक उसका स्तवन संसार कर रहा है और आगे भी करता रहेगा । लोकोक्ति है "पहला सुक्ख निरोगी काया" यदि शरीर और इन्द्रियाँ स्वस्थ हैं तो उपलब्ध भोगोपभोग सामग्री उपयोग हो सकता है अन्यथा पाना, न पाना दोनों समान हैं । अतएव वे निरोग हो गये मानों तीनलोक का वैभव मिल गया । जिनधर्म के प्रति प्रगाढ श्रद्धा होने से उन्हें संसारोच्छेदक सम्यक्त्व रत्न प्राप्त हो ।।१३४|| आचार्य श्री कहते हैं १ सत्यं सत्सङ्गतिर्लोके फलत्युच्चमहत्फलम् । कल्पवल्लीव सत्सौख्यं परमानन्ददायिनी ॥१३५।। अन्वयार्थ- (सत्यम्) सत्य ही है (लोके) संसार में (परमानन्द) उत्कृष्ट आनन्द (दायिनी) देनेवाली (सत्सङ्गति) सज्जनों को सङ्गति (कल्पवल्ली) कल्पलता (ब) समान (उच्चः) उन्नभ (सत्सौख्यम्) यथार्थ सुख रूप (महत) महान् (फलम् ) फलों को (फलति) देती है-फलती है। भावार्थ · संसार में सङ्गति का विशेष महत्त्व है। क्योंकि मनुष्य स्वभाव से दूसरी का अनुकरण करना चाहता है । सज्जनों को सङ्गति से उसमें सज्जनता का संचार होता है। मानवता पाती है । मानवीय गुणों का प्रकाश, विकास और वर्द्धन होता है । इसीलिए यहाँ परभोपकारी आचार्य श्री ने सत्सङ्गति को "कल्पलता" की उपमा दी है। जिस प्रकार कल्पवल्ली नानाविध इच्छित फलों को प्रदान करती है उसी प्रकार सत्सङ्गति, अलौकिक, अनुपम, अतुलनीय अप्रत्याशित गुणगण, सुख साधनों को प्रदान करती है । नाना सुख वितरण करती है । नीतिकार कहते हैं “सङ्गति कोज साधु को हरे और को व्याधि ।" साधू की सङ्गति प्राधि-व्याधियों का नाश करता है। यथा सम्यग्दृष्टि महासती मैनारानी की सङ्गति ने न केवल अपने पति श्रीपाल की ही व्याधि का नाश किया अपित उसके सहयोगी सभी ७०० सुभटों का भी भयङ्कर रोग जडमूल से नष्ट कर दिया । वस्तुतः धर्म और धर्मात्मा ही सच्चे मित्र और सज्जन हैं ।। १३५।। तदा तौ दम्पती हृष्टौ सिद्धचक्रप्रभावतः । रेजाते शक पौलोभ्यो कीडन्त्यौ वा महीतले ।।१३६।। अन्वयार्थ --(तदा) तब (सिद्धचक्रप्रभावत:) सिद्धचक्र के माहात्म्य गे (तो) वे दोनों (दम्पत्ती) पति-पत्नी (महीतले भु-मण्डल पर (क्रीइन्त्यौ) क्रीडा ग्रामोद-प्रमोद करते हुए (वा) मानों (शा) इन्द्र (पौलोभ्या) इन्द्राणी हों उस प्रकार (रेजाते) सुशोभित हुए। भावार्थ-सिद्धचक्रपुजा के प्रभाव से महाराज श्रीपाल की कुष्ठव्याधि नष्ट हो गई। इससे उन दोनों पति-पत्नी को परम सन्तोष हा । आनन्द हुप्रा । वे हर्षोन्मत भूलोक में इन्द्र और शचीदेवी के समान विविध क्रीडाएँ करते हुए शोभित हुए ॥१३६।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९५ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] मालामोगसमित्य स्वपन्यद्रियारपंपैः ।। सुखं प्रीत्या प्रभुञ्जानौ संस्थितौ पुण्यपाकतः ॥१३७।। (तो) वे दोनों (पुण्यपाकतः) पुण्यरूपी वृक्ष के फलित होने से (नित्यम्) निरन्तर (स्त्र) अपनी (पञ्चेन्द्रियतर्पण:) पाँचा इन्द्रियों को तृप्त करते हुए (नानाभोगशतैः) सैकड़ों प्रकार के भोगों द्वारा संतुष्ट (प्रोत्या) परस्पर परम प्रीति से (प्रमुजानौ) भोग भोगते हुए (सुखम् ) सुखपूर्वक (संस्थिती) रहने लगे। भावार्थ --मैनारानी के जीवन की काया पलट हो गयी । श्रीपाल का जीवन तो मानों स्वर्गीय हो गया । अब वे दोनों अपने पुण्य के सातिशय फल का उपभोग करने लगे । सत्य ही सती का सतीत्व अचिन्त्य और अतयं होता है। असंभव को सम्भव कर दिखाता है। मैंना के मन में उद्वेग के स्थान पर उमङ्ग, शोक के स्थान पर हर्ष और चिन्ता के स्थान पर परम विवेक जाग्रत हो गया । जिनागम का प्राण "कर्मसिद्धान्त अकाट्य सिद्ध हुा । अहंकार रूप शैतान पर तत्त्वज्ञान की विजय हुयी । मिथ्यात्व का सम्यक्त्व ने परास्त किया ।।१३७।। पात्रदानं जिनेन्द्रार्चा नित्यं स्तवन पूर्वकम् । स्वशीलमुज्ज्वलं पर्वोपवासमति निर्मलम् ।।१३८॥ तदा प्रभृति नित्यं श्रीसिद्धचकस्य पूजनम् । धर्म परोपकाराद्यैश्चक्रतुस्तौ निरन्तरम् ।।१३।। युग्मकम्।। अन्वयार्ग--(तदाप्रभृति) सिद्धचक्र प्रभाव से सुखी होने पर (तो) वे दोनों दम्पत्तिवर्ग (नित्यम्) नित्य ही (स्तवन पूर्वकम् ) स्तवन सहित (जिनेन्द्रार्चा) श्रीजिनपूजन, (पादानम) सत्पात्रदान (प्रति) अत्यन्त (निर्मलम्) पवित्र (उज्ज्वलम्) निर्भल (स्वशीलम्) शील व्रत (पर्वोपवासम्) पर्व के दिनों में उपवास (नित्यम्) प्रतिदिन (सिद्धचक्रस्य) सिचच की (पूजनम् ) पूजा (च) और (परोपकाराय :) दूसरों का उपकार, तत्त्वचर्चा, वैयावृत्ति प्रादि (धर्म) धर्मकार्यों को (निरन्तरम ) सतत (चक्रतुः) करने लगे। मावार्थ ... महाराजा श्रीपाल के नीरोग हो जाने पर वे धर्मविमुख नहीं हुए । भोगों में आसक्त नहीं हुए और न कर्त्तव्य से पराङ मुख हुए । अपितु कृतज्ञ के समान धर्म और धर्माचरण में विशेष रूप से संलग्न हो गये । अब दोनों ही प्रतिदिन विधिवत् परमभक्ति से श्री जिनाभिषेक, पूजन, एवं सत्पात्रदान देना, देव, शास्त्र गुरू की उपासना, सिद्धचक्र आराधना, दीन दुःखियों की रक्षा, सेवा सुश्रुषा गुरुओं को वैयावृत्ति आदि शुभकार्यों को विशेष रूचि से करने लगे । अभिप्राय यह है कि धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों कान्यायोचित सेवन करने लगे। तथा मोक्ष पुरुषार्थ की भी साधना का लक्ष्य बनाये रखते थे । इस प्रकार चारों पुरुषार्थों की साधना में इनका समय यापित होने लगा !!१३८ १३६।। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद कि बहूक्त न भो भव्यास्तयोस्तत्र सुखप्रदा। पूजा श्रीसि चक्रस्य जाता कल्पलतेब सा ॥१४०॥ अन्टगार्थ ..(मोहे (भमा) राजनों (बहु) अधिक (उक्तेन) कहने से (fr) क्या प्रयोजन (सा) वह (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र की (पूजा) पूजा (तत्र) वहाँ (तयोः) दानों की (करुपलता इव) कल्पलता के समान (सुखप्रदा) सुखकारी (जाता) हुयी। भावार्थ : आचार्य कहते हैं कि हे भव्यात्माओं ! मैनारानी और राजा श्रीपाल द्वारा की गई सिद्धचक की पूजा उन्हें कल्पलता के समान सुख देने वाली सिद्ध हुयी । अधिक क्या कहें ? ||१४०|| क्वचित् श्रीपालमाताथ समायाति निजेच्छया। पुत्र वार्ता शुभां श्रुत्वा स्नेहात्तत्पुरमाययौ ॥१४१।। अन्वयार्थ--(प्रथ) आगे (क्वचित्) एक समय (श्रीपालमाता) श्रीपाल की माँ (निजेच्छया) अपनी इच्छा से (समायाति) आती है (तत्र) वहाँ (शुभाम् ) शुभ (पुत्रवार्ता) पुत्र की वार्ता (श्रुत्वा) सुनकर (स्नेहात्) प्रीति से (तत्पुरम् ) उस नगरो में (अग्नयों) आई । भावार्थ--एक समय श्रीपाल की माता अपनी इच्छा से महलों से निकली । पुत्रवियोग से संत्रस्त तो थी ही-मन बहलाने पाती है कि पुत्र के नोरोग होने की शुभ वार्ता को सुनकर उस नगरी में आयी ।।१४१।। श्रीपाल सन्मखं गत्वा सहर्षस्सपरिच्छदः । नत्त्वा तत्पादयोर्भक्त्या स्वामम्बां गृहमानयत् ॥१४२।। अन्वयार्थ---(सहर्षः) हर्ष से (सपरिच्छदः) दल-बल से (श्रीपालः) श्रीपाल राजा ने (सुन्मुखम्) सामने (गल्या) जाकर (भक्त्या) भक्ति से (तत्पादयोः) उस माँ के चरणों में (नत्त्वा) नमस्कार कर (स्वाम्) अपनी (अम्बाम्) माँ को (गृहम्) घर (पानयत्) लेकर आया। मावार्थ--ज्यों ही श्रीपालजी को विदित हुआ कि उनकी जननी उनके विरह से दुःखी पधारी है, तो वह दल-बल के साथ संभ्रम से माता के सन्मुख पाया । अत्यन्त भक्ति से माता के पवित्र चरणों में नमस्कार कर अपनी माँ को सोत्साह घर में प्रवेण कराया । अर्थात् अपने सारे वैभव से उत्सव पूर्वक मावा का पदार्पण अपने महल में कराया ।।१४२।। मदनाविसुन्वरी तां श्वश्रू मत्वा सुभक्तितः । ननाम चरणाम्भोजौ तस्या विनतमस्तका ।।१४३॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद | [ kTE श्रन्वयार्थ ( तां ) उसको ( श्वधू ) सास ( मत्वा ) जानकर ( मदनादिसुन्दरी) मैंनासुन्दरी ( सुभक्तितः ) अत्यन्तभक्ति से (विनतमस्तका) मस्तक झुकाकर ( तस्या ) उसके ( चरणाम्भोजी) युगल चरण कमलों में ( ननाम ) नमस्कार किया । भावार्थ -- घर पधारी अपनी सास को ज्ञातकर अत्यन्तभक्ति से मदनसुन्दरी ने उसका सम्मान किया । विनयावनत हो हाथ जोडे । उसके युगल चरणों में नमस्कार किया । ।। १४३ ।। सा च तदाप्राह तदात्वं भो वधूत्तमे । श्रीपालनृपतेरस्य, पट्टदेवी भवेत्यलम् ॥ १४४ ॥ अन्वयार्थ - (सा) उस सास ने भी ( तूर्णम्) शीघ्र हो ( तदा ) उस समय ( मुदा ) आनन्द से ( प्राह ) कहा - आशीर्वाद दिया ( भो वधूत्तमे) हे उत्तम बधु ! ( त्वं ) तुम (अस्य) इस ( श्रीपालनृपतेः ) श्रीपालराजा की ( पट्टदेवी ) पटरानी ( भवेत् ) बनो (च) और (अलम् ) अधिक क्या ? भावार्थ -- मैंनासुन्दरी के नमस्कार करने पर सास ने भी अत्यन्त पुलकित हो अपनी सौभाग्यवती बहूरानी को आशीर्वाद दिया । वह कहने लगी हे शुभे ! हे नारी शिरोमणि ! तुम इस मेरे पुत्र भूपति श्रीपाल की अग्रमहिषी बनो। पटरानी पद प्राप्त करो। सदा सौभा ग्यवती रहो। अधिक क्या ? चक्रवर्ती की पटरानी सदृश पति का साथ सुखभोग करो ।। १४४ ।। ततस्साऽपि प्रसन्नात्मा वधूस्तद्धर्मवत्सला । स्नानभोजनसद्वस्त्रताम्बूल विनयादिकम् ।। १४५ ॥ अन्वयार्थ - ( ततः ) इसके बाद (सा) वह मैना ( सद्धर्मवत्सला ) जिनधर्मपरायणा ( बधुः ) बहू ने (अपि) भी ( प्रसन्नात्मा ) आनन्द से ( स्नान ) स्नान (भोजन) भोजन ( सदस्य ) उत्तम वस्त्र ( ताम्बूल ) पान सुपारी (विनयादिकम) मान सम्मानादि प्राकक्रियां कृत्वा सज्जनानन्ददायिनीम् । पुननंत्या च तां प्राह भी मातः ! कृपया वद ॥ १४६ ॥ अन्वयार्थ - ( सज्जनानन्द) सत्पुरुषों को ग्रानन्द ( दायिनीम् ) देनेवाली ( प्राचूर्णक) अतिथि सत्कार योग्य ( त्रियाम्) क्रिया को ( कृत्वा) करके (च) और (पुनः) फिर ( नत्वा ) नमस्कार करके (ताम् ) उस सास से ( प्राह ) बोली (भो मातः) हे माते ! ( कृपया ) कृपाकर (वेद) कहिए | क्या --- कस्मादत्र समायाता भवति भुवनोत्तमा । कोशोऽयं च सत्कान्तः किं गोत्रं मे समादिश ।। १४७ ।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ - (भुवनोत्तमा) तीनों लोक शिरोमणि (भवति) आप (अत्र ) यहाँ (कस्मात्) किस उद्देश्य से (समायाता) पधारी हैं, (अयम्) यह (मत्कान्तः) मेरा पति (कोशः) कैसा है (च) और (किं) क्या (गोत्रम्) गोत्र है (मे) मुझ (समादिश) सब कहिये ॥१४७।। भावार्थ- झापीय प्राप्मकार उस पदमयन्दरी ने प्रानन्दाकित होकर अपनी सास का स्वागत किया। जिनधर्मपरायणा, धर्मवत्सला उस बधु ने सर्वप्रथम अपनी सास के स्नान की व्यवस्था की । तदनन्तर योग्य शुद्ध सुस्वादु आहार को व्यवस्था की। पहनने को उत्तम वस्त्र दिये भोजन के बाद पान-सुपारी, इलायची, लवङ्ग आदि प्रदान की। अत्यन्त बिनय से अतिथि सत्कार योग्य सभी त्रियाओं को किया। माँ को सन्तोष उत्पादक तथा सज्जनों को आनन्द देने वाली सकल क्रियाओं के हो जाने पर सुख से वैठौं । पुनः मैंनासुन्दरी ने विनय से प्रश्न किया. हे माते आपने यहाँ पधारने का कष्ट किस कारण से किया ? यह मेरा पतिदेव कैसा है, इनका गौत्र क्या है ? कृपाकर सर्ववृतान्त स्पष्ट कहिये । मैं सब कुछ जानना चाहती हूँ। आप सकल वृतान्त कहे। सा जगाद सती सोऽत्रैवाङ्गन्देशे शुभाकरे । चम्पापुर्यानराधीशस्सिहसेनोमहानभूत् ।।१४८।। अन्वयार्य -(सा) वह श्रीपाल की माँ (सती) शीलवती (जगाद) कहने लगी (अत्रैव) इस भरत क्षेत्र में (शुभाकरे) कल्याण करने वाले (अङ्गदेशे) अङ्गदेश में (चम्पापुर्याम् ) चम्पापुरी में (महान् ) प्रतापी (सिहसेनः) सिंहसेन नाम का (नराधीश:) राजा (अभूत) हुआ। भावार्थ--मैंनासती के प्रश्नानुसार वह सास उत्तर देने लगी। इस ही भरत क्षेत्र में महान् कल्याणकारी अङ्गदेश है उस देश में विशाल 'चम्पापुरी' नाम की नगरी है । उस नगरी का राजा महानप्रतापी, सुभट सिंहसेन नाम का भूपति था। तस्याहमनमहिषी स्वनाम्ना कमलावती । मत्पुत्रोऽयं सुधीति, श्रीपालः कर्मयोगतः ।।१४६॥ अन्धयार्थ- (तस्य) उस सिंहसेन राजा की (अहम् ) मैं (अग्रमहिषी) पटरानी थी (स्वनाम्ना कमलावती) मेरा नाम कमलाबत्ती है (मत्) मेरा (अयम् ) यह (सुधी:) बुद्धिमान (श्रीपालः) श्रीपाल (पुत्रः) पुत्र (जातः) हुअा (कर्मयोगतः) कर्म के निमित्त से गते द्विवाषिके चास्य सिंहसेननपोमृतः । के के नैव गताः काले भो बाले श्रूयतां वचः ॥१५०॥ अन्वयार्थ-(द्विवार्षिक) दो वर्ष (गते) होने पर (अस्य) इसका पिता (सिंहसेनः) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [ १ee सिंहसेन (नृपः ) राजा ( मृतः ) मर गया ( भो ) है ( बाले) पुत्रि ! ( श्रूयतां ) सुनो ( बचः ) वचन (काले ) मृत्युमुख में ( के के) कौन-कौन ( नवगतः ) नहीं गये ? भावार्थ - कमलावती महादेवी मैंनासुन्दरी से कहती है कि उस सिहसेन राजा की मैं पटरानी थी । यह कर्मयोग से श्रीपाल मेरा पुत्र हुआ । यह महावुद्धिशाली हुआ । मेरा नाम कमलावती है । हे पुत्र ! मेरे वचन सुनो इस पुत्रोत्पत्ति के अनन्तर दो वर्ष बाद ही मेरे पति, इसके ( श्रीपाल के ) पिता श्री सिंहसेन महाराज का स्वर्गवास हो गया। संसार की यही दशा है, काल के गाल में कौन-कौन नहीं गया ? सभी जाते हैं। मैं क्या कहूँ ? || १४६ १५०|| श्रानन्द मन्त्रिणा तत्र राज्येऽयं बालकोऽपि च । संस्थापितोतदा तत्र पितृय्योऽस्याति दुष्टधीः ।। १५१ ।। श्रन्वयार्थ - ( अयं ) यह ( बालक: ) बालक होने पर (अपि) भी ( तत्र ) वहाँ ( आनन्दमन्त्रिणा ) आनन्दमन्त्री द्वारा ( राज्य ) राजगद्दी पर ( संस्थापितः ) स्थापित कर दिया - राजा बना दिया ( तदा) तव ( तत्र ) वहाँ (अस्य) इसके (अति) अत्यन्त (दुष्ट) दुर्जन (धी:) कुबुद्धि ( पितृव्यः ) चाचा ने श्रीरादिदमनो नाम विषं दातुं समुद्यतः । मन्त्रिणा मे तवाख्यातं तेनाहं त्रस्तमानसा ।।१५२।। एनं बालकमादाय संप्रयायाति वेगतः । वाराणसी पुरों प्राप्ता देशत्यागो हि दुर्जनात् ॥ १५३ ॥ श्रन्वयार्थ – (वीरादिदमनः ) वीरदमन ( नाम) नामवाला (विषं) विष ( दातुम् ) देने के लिए ( समुद्यतः) तैयार हुआ ( तदा ) तब ( मन्त्रिणा ) मन्त्री द्वारा (मे) मुझे (आख्यातम् ) कहा (तेन) उस भय से (अहं) मैं ( त्रस्तमानसा) दुःखित मन हो (वेगतः ) शीघ्र ही ( एवं ) इस ( बालकम् ) बच्चे को ( श्रादाय ) लेकर (संप्रयायाति) सावधानी से निकली (वाराणसीपुरी) बनारसनगरी ( प्राप्ता ) प्राप्त की - आयो (हि) क्योंकि (दुर्जनात) दुर्जनों से (देशत्याग: वरं ) देशत्याग श्रेष्ठ है । मावार्थ - - यद्यपि पिता की मृत्यु के समय यह अति बालक था तो भी हमारे प्रधानमन्त्री आनन्द ने इसे ही राज्यसिंहासनारूढ किया। राजा तो यह घोषित हुआ किन्तु राजकाज इसका चाचा 'वीरदमन' देखने लगा । परन्तु उसका अभिप्राय अत्यन्त खोटा था । वह इसे मारकर स्वयं राज्य हड़पना चाहता था । अतः उसने इसे विष देने का षड्यन्त्र रचा । आनन्द मन्त्री ने इस दुरभिप्राय को ज्ञातकर मुझे अवगत कराया। तब मैं भयातुर हो, मन में अति दुःखी हुई और शीघ्र ही अपने प्यारे पुत्र को लेकर बनारस चली गयी। क्योंकि नीति है "दुर्जनों के सहवास से देश त्याग करना ही उत्तम है" । पुरुषार्थं करना विद्वानों का कर्तव्य है, फल भाग्यानुसार प्राप्त होता है । श्रतः - Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद गृर्व पापोटोनातु ष्नज नीलिमः । अयं बालस्तदा तत्र कुष्ठिभिरेतकैः परम् ।।१५४।। अन्वयार्थ--(तदा) तब (तत्र) वहाँ (पूर्वपापोदययेन) पूर्वभव के पाप कर्म के उदय से (आशु) शीघ्र (एतकः) इन (कुष्ठिभिः) कुष्ठियों के साथ (अयम् ) यह (बालः) पुत्र-बालक (कुष्ठरोगेन) कुष्ठ व्याधि से (परम्) अत्यन्त (पीडितः) पीडित हुआ। भावार्थ --हे पुत्रि ! कर्म की गति बही विचित्र है। शुभाशुभ कर्म जो जैमा करता है उसे बसा ही फल प्राप्त होता है । अपना उपार्जित कर्मफल भोगना ही पड़ता है। अत: वहाँ पाने पर पूर्व पापकर्मोदय से इसे इन सातसौं वीरों के साथ कूष्ठरोग ने घेर लिया। सभी भ दूर गलित कुष्ठ से पीडित हो गये । यही नहीं इसकी दूर्गन्ध से नगरवासी बेचैन हो उठे। प्रजा आकुल-व्याकुल होने लगी । प्रजा का कष्ट ज्ञातकर सर्व इन कुष्ठियों ने नगर त्याग का निर्णय किया ।।१५४।। विधाय मन्त्रणां नीत्वा कृत्वा च निजनायकम् । प्रत्रानीतं तदा सिद्धचक्र-पूजा प्रभावतः ॥१५५।। त्वत्पुण्येनाऽपि भो वत्से, कामदेवोसमोऽजनि । सर्वं भवत्याः पुण्यं संश्रुत्वाहं समागताः ॥१५६।। अन्वयार्थ—(तदा) तब (मन्त्रणाम् ) सलाहकर (विधाय) करके (च) और (निजनायकम्) अपना मालिक बना (कृत्वा ) बनाकर (नीत्वा) लेकर (अत्र) यहाँ (आनीतम्) लाया गया (भो वत्से ! ) हे पुत्री ! (त्वत्पुण्येन) तुम्हारे पुण्य स (सिद्धचत्र पूजा प्रभावतः) सिद्धचक्रपूजा के प्रभाव से (अपि) कुष्ठी भो (कामदेवोसमः) कामदेव के सभान (अजनि) हो गया (भवत्याः ) आपके (सर्वम् ) समस्त (पुण्यम् ) पुण्य को (संश्रुत्वा) सम्यक् प्रकार सुनकर (अहम् ) मैं (समागता) पाई हूं। भावार्य—उन समस्त कुष्ठियों ने परामर्श कर इस मेरे पुत्र को अपना नायक बनाया और वे ही यहाँ इसे लाये । हे वत्से ! "भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्यान च पौरुषम्" नीति के अनुसार आपके पुण्योदय से और परम पवित्र सिद्धचक्र पूजा विधान के प्रभाव से इसका शरीर कामदेव सदृश दर्शनीष, कान्तिमय हो गया। यह सब तुम्हारा उपाख्यान, पूण्यमाहात्म्य सुनकर पुत्रयात्सल्य से प्रेरित हुयी यहाँ आयी हूँ। इस प्रकार श्रीपाल भूपाल की माता कमलावती ने अपने पुत्र का परिचय कराया और अपने प्राने का कारण बतलाया ।।१५५ १५६।। समाकर्ण्य तदा सर्व भत्तु राख्यानकं शुभम् । निदानं सा समासाद्य तुष्टा मदनसुन्दरी ॥१५७।। प्रन्धयार्थ-(तदा) अपनी सास कमलावती महादेवी से (सर्वम्) सम्पूर्ण (भत्तुं :) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i 000 BALL TAMPLES PREFSTRO श्रीपाल के कुष्ठ रोग होने के कारण नगर याग का निर्णय लेना । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [२०१ पति के ( शुभम् ) कल्याणप्रद ( आख्यानकम् ) चरित्र को ( समाकर्ण्य ) भले प्रकार सुनकर ( तथा निदान) विश्वास ( समासाद्य ) पाकर (सा) वह ( मदनसुन्दरी) मैंनासुन्दरी ( तुष्टा ) संतुष्ट हुयी । भावार्थ अपनी सास के मुख से पति का चरित्र सुना । यथार्थ उत्तम, कुल, वंश, जाति ज्ञात कर उस मैंनासुन्दरी को अत्यन्त हर्ष हुआ। अपने भाग्य की सराहना की। अनुकूल क्षत्रियवंशी राजा पति पाकर क्यों न पुलकित होती ॥१५७॥ --- अथैकदा प्रजापालो वन क्रीडां महीपतिः । कृत्वा गृहं समागच्छन् पुरवा मनोहरे ।। १५८॥ प्रासादोपरिभूमौ च तदा श्रीपाल मुत्तमम् । तया सार्द्ध समालोक्य, कामदेव समाकृतिम् ।। १५६ ।। तज्जाशंकयाचित् स्वस्य वक्तुमधोमुखम् । कृत्वा संचिन्तयामास हा कीवान्वेन पापिना ।।१६०॥ श्रन्वयार्थ - - ( अथ ) इसके बाद (एकदा) एक समय ( पुरवाह्य) नगर के बाहर ( मनोहरे) मनमोहक स्थान में ( गृहम ) घर ( कृत्वा) बनवाकर ( महीपाल : ) महीपाल ( महीपतिः) नृपति ( वनक्रीडाम् ) वनक्रीडा को (समागच्छन् ) आते हुए (प्रासादोपरिभूमी) महल की छत पर ( तदा ) तब उसने ( तया सार्द्धम् ) उस मदनसुन्दरी के साथ ( कामदेवसमाकृतिम् ) कामदेव के समान सुन्दराकृति वाले ( उत्तमम् ) श्रेष्ठ (श्रीपाल च ) श्रीपाल को ( समालोक्य ) देखकर (च) और (तत्) उसे (जार) व्यभिचारिणी की ( शंकया) शङ्का से ( स्वस्य चित्ते ) अपने मन में ( वक्तुम् ) कहता हुआ (अधोमुखम् ) नीचामुख (कृत्वा ) करके (हा ) हाय, ( क्रोधान्धेन ) क्रोध से अन्धा ( पालना) मुझ पापो ने (किं कृतम् ) क्या किया (इति) इस प्रकार ( चिन्तयामास ) चिन्तवन करने लगा । भावार्थ वह कथा वहीं छोड़कर अब आचार्य श्री मैनासुन्दरी के पिता का हाल बतलाते हैं । पुत्री का प्रयोग्यपति के साथ सम्बन्ध कर पश्चात्ताप से पीडित हुआ। एक दिन वनक्रीडा का विचार किया । उद्यान में गृह निर्माण कराकर नगर के वाह्योद्यान में प्राते हुए उसकी दृष्टि महल की छत पर गई। वहीं अपनी पुत्री को श्रद्धत कामदेव समान सुन्दराकृति श्रीपाल के साथ बैठा देखा । उसका हृदय अपने ही अपराध से पीडित हो उठा। अपने मन में उसने उसे ( पुत्री की) जार-व्यभिचारी के साथ समझ कर अधोमुख हो गया और मन ही मन सोचने लगा कि मैंने कोध से अन्धा होकर यह महा अनर्थ कर डाला। मुझ पापी द्वारा यह क्या कर दिया गया ।" अर्थात् कुष्ठों के साथ विवाह किया इसीलिए यह दुराचारिणी हो गई है। ऐसी प्राशङ्का से महा दुखी हुआ ।। १५८, १५४, १६०।। C कुष्ठिने स्वसुता दत्ता मया विगत चेतसा । कन्यया सत्कुलं नष्टं मदीयं यशसा समम् ॥१६१॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ-(विगतचेप्तसा) नष्ट बुद्धि (मया) मेरे द्वारा (स्व) अपनी (सुता) पुत्री (कृष्ठिने) कुष्ठी की (दत्ता) दी गयी अतः (कम्यया) इस कन्या मदनसुन्दरी द्वारा (यशसा) कीति के (सभम् ) साथ (मदीयम्) मेरा (सरकुलम् ) थोष्ठतुल (नष्टम् ) नष्ट कर दिया गया। भावार्थ--राजा महीपाल सन्देह के झूले में झूलने लगा। आशङ्का से बह विचार शुन्य हो गया । विपरीत ही विचार कर रहा है और साथ ही अपनी दुबुद्धि पर पश्चात्ताप भी करता जा रहा है मन ही मन । वह सोच रहा है, हाय, मैं महा दुर्यु द्धि हूँ। मैंने स्वयं अनर्थ किया कि अपनी सुन्दरी कन्या को भयङ्कर कुष्ठी के माथ विवाह कर दिया । उसी का फल है कि आज यह किसी रूपवान परपुरुष के साथ बैठो है । महा दुःख है कि इसने मेरे यण के साथ-साथ समूज्ज्वल कुल को भी कलडित कर दिया । नष्ट कर दिया। ठीक ही है कन्या सुशील, पतिव्रता होती है तो अभयकुल समुज्ज्वल हो जाता है और कुलटाकन्या हुयी तो जाति, कुल वंश सभी कलङ्कित हो जाता है । पुत्र की अपेक्षा भी कन्या को शिक्षित और योग्य बनाना अत्यन्त आवश्यक है ।।१६। तदातं मानसं मत्वा कन्याया मातुलो महान् । सञ्जगाद प्रभो कस्माल्लज्जितं च त्वयाधुना ॥१६२।। अन्वयार्थ-- (सदा) तव (तं) उस राजा के (मानस) मानसिक भाव को (मत्वा) समझकर (कन्यायाः) कन्या का (मातुलो) मामा (महान्) विचारज्ञ (सञ्जगाद) बोला (प्रभो) हे स्वामिन् (त्वया) अाप (अधुना) इस समय (कस्मात्) किसलिए (लज्जितम्) लज्जित हुए हैं ? (च) और मावार्थ- राजा को चिन्तित और लज्जित ज्ञात कर मैनासुन्दरी का विद्वान् मामा कहने लगा, हे राजन् पाप आज किसलिए दुखी हैं, किससे लज्जित हो रहे हैं ? तब व्यथिन राजा कहने लगा--- प्रभुः प्राह सदुःखेन विनष्टाफन्यका किल । मातुलोऽपिजगी राजन्नैवं हि कदाचन ॥१६३॥ अन्वयाथ-- (सदुःखेन) खेदभरा (प्रभुः) राजामहीपाल (प्राह) कहने लगा (किल) निश्चय से (कायका) कन्या (विनष्टा) नष्ट हो गई (मातुलोऽपि) मामा भी (जगी) ब्रोला (राजन् ) हे नृप ! (एवं) इस प्रकार (कदाचन) कभी भी (न) नहीं (ब्र हि) कहना।। भावार्थ - "वक्त्रं वक्ति हि मानसम्" इस युक्ति के अनुसार राजा के म्लान मुख से अन्तपीडा को अवगत कर मैना का मामा राजा से उदासी का कारण पूछता है । तव राजा उत्तर देता है कि हे भाई, निश्चम से मेरा दुःख महान है, इस कन्या ने जीवन नष्ट कर लिया। यह नकर मामा बोला, राजन् इस प्रकार कभी भी नहीं कहना ॥१६३।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [ २०३ तेजस्ते शीलनिर्मुक्तं संभवेन्नैव भूतले । किन्त्वाभ्यां सिद्धचक्रस्य विहित पूजन विभो ।।१६४॥ ___ अन्वयार्थ हे भूपाल ! (ते) तुम्हारा (तेज) अंश-संतान (भूतले) पृथ्वी पर (शील निमुक्तम् ) शीलाचार रहित (म) नहीं (एव) ही (सम्भवेत्) संभव हो सकता है (किन्तु) किन्तु (प्राभ्याम् ) इसके द्वारा (विभो) हे राजन् (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र (पूजनम् ) पूजा (विहितम् ) की गई । तेन पुण्येन जातोऽयं श्रीपालो व्याधि जितः । कन्येयं श्रीजिनेन्द्रोक्तधर्मदुमलतोपमा ॥१६५॥ अन्वयार्थ (तेन) उस (पुण्येन) पूजा के पुण्य से (अयम् ) यह (श्रीपालो) श्रीपाल (व्याधि) रोग (वजितः) रहित (जातः) हो गया (इयं) यह (कन्या) कन्या (श्रीजिनेन्द्रोक्तधर्मद्र मलतोपमा) श्री जिनेन्द्र भगवान कथित धर्मरूपी वृक्ष की लता के समान है । यह कन्या-- नवान्यायं करोत्येषा स्थिता वा मेरूचूलिका यशीलेन पवित्रात्मा सन्मतिर्वा महामुनेः ।।१६६॥ अन्वयार्थ---(एषा) यह कन्या (अन्यायम्) अन्याय (नैव) नहीं (करोति) करने वाली है (वा) अथवा (पवित्रात्मा) निर्मल पात्मा (स्वशीलेन) अपने पातिव्रतधर्म से (मेरुचूलिका ) सुमेरू की चोटी (इव) समान (स्थिता) स्थिर (बा) अथवा (महामुनेः) उत्तम मुनिराज की (सन्मतिः) सम्यक् बुद्धि है ।।१६६।। मावार्थ हे भूपाल ! आपका तेज-अंश शोल विहीन नहीं हो सकता । कुल, वंश परम्परा का असर सन्तान के जीवन में अवश्य पाता है । पृथ्वी पर आपका शीलाचार अखण्ड ही प्रसारित है । इस महाधर्मज्ञा कन्या द्वारा श्री सिद्धचक्रमहापूजा विधान किया गया था। उससे प्राप्त सातिशय पुण्य द्वारा यह इसका पति श्रीपाल कष्ठव्याधि रहित हो गया। यह कामदेव समान रूप लावण्य का पुञ्ज इसी का पत्ति है। यह कन्या जिनधर्म की ध्वजा है। श्री जिनेश्वर प्रभु द्वारा उपदिष्ट धर्मवृक्ष की लता स्वरूप यह कन्या महाशीलवती है। इसका भीलव्रत सुमेरू की चूलिका समान अचल है। यह पविवात्मा है। निर्मल और निर्दोष बुद्धि है। महामुनि की श्रेष्ठ सम्यक् बुद्धि मति के सहप पावन और विवेक पूर्ण है । यह कभी भी अन्याय, अत्याचार, अनाचार व दुराचार नहीं कर सकती । यह महापतिव्रता शील से सुप्रसिद्ध तशिम्य पालस्सानन्देन विस्मयान्वितः । तयोस्समीपमायातो राजा सस्नेहमानसः ॥१६७।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ--(तत्) उसे (निशम्य) सुनकर (विस्मयान्वितः) आश्चर्यचकित हुआ (सानन्देन) अानन्द से युत (प्रजापाल :) प्रजापाल (राजा) नृपति (सस्नेह) स्नेह प्रेम से भरा (मानस:) मन वाला (तयोः) पुत्री और जंवाई के (समीपम्).पास (आयातः) आया । भावार्थ--अपने साले के मुख से पुत्री के पतिव्रत धर्म की प्रशंसा सुनी। श्री सिद्धचक्र पूजा के माहात्म्य को अवगत किया। जिनधर्म की महिमा को समझा। कर्मसिद्धान्त रहस्य को ज्ञात किया । सुनकर समस्त अनुताप. पश्चात्ताप भूलगया । हर्ष से गद्गद हो गया । प्रेमांकुरों से गात भर गया। पुत्री के प्रति वात्सल्य और उसके पति श्रोषाल के प्रति अनुराग उमई गया। इस आश्चर्यकारी जिनमहिमा से राजा का कोप और क्षोभ विलीन हो गया। प्रजापाल महाराज स्वयं दौडता हुअा इन अद्भ त चमत्कारी दम्पत्ति के पास आया । आश्चर्य और प्रानन्द मिश्रण उसके हृदय में घुमड़ रहा था ।।१६७।। तमायातं समालोक्य श्रीपालः स्वप्रियान्वितः । अभ्युत्थानादिकं कृत्वा ननाम विनयान्वितः ॥१६८।। अन्वयार्थ--(तम्) उस अपने ससुर को (आयातम् ) प्राते हुए देख (समालोक्य) देखकर (स्वप्रियान्वित:) अपनी पत्नी मैंना सहित (श्रीपालः) श्रीपाल (अभ्युत्थानादिकम् ) उठकर, खडे होकर आगे बढ़कर पाना यादि (कृत्वा) करके (बिनयान्वित:) विनय से नम्रीभूत होकर (ननाम) नमस्कार किया । भावार्य-सुखासीन स्थित श्रीपाल ने राजा भूपाल को प्राते हुए देखा । अपना उपकारी और पिता तुल्य जानकर देखते ही दोनों खडे हो गये। सामने आ आगवानी की, पादप्रक्षालन, आसनप्रदान, आदि योग्य क्रिया कर विनय से दोनों ने नमस्कार किया । ठीक ही सत्पुरुष किसी उपकार को नहीं भूलते । यदि श्रीपाल को मैंनासुन्दरी न दी होती तो उसका कुष्ठ कैसे दूर होता । तथा मैंनासुन्दरी को कुष्ठी पति न मिलता तो उसको दृढ़ जिनधर्म श्रद्धा की परीक्षा कैसे होती ? उसका पतिव्रत धर्म निरव्यापी किस प्रकार होला । योध्वजा कसे फहराती ! अत: दोनों ही ससुर एवं पिता के प्रति कृतज्ञभाव से उपस्थित हुए। उस समय राजा प्रजापाल अपनी लाडली पुत्री से कहते हैं ।।१६८।। -- -.. .-.. तवा प्रभुस्सुतां प्राह भो सुते कुलदीपिके । जिनेन्द्रचरणाम्भोज सममन्यन्न कोविदे ॥१६॥ अन्वयार्थ--(तदा) आस्वस्थ बैठजाने पर (प्रभुः) राजा जापाल (प्राह) कहने लगे (भो) हे (कुलदीपिके) कुलदीपक (सुते) बेटी ! (कोबिदे ! ) हे विदुषि ! गुणावते ! जिनेन्द्रचरणाम्भोज) श्री जिनभगवान के चरण कमल (समम् ) ममान (अन्यत्) अन्य कुछ भी (न) नहीं है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [२०५ भावार्थ-पाहुनगति हो जाने पर सब यथा स्थान बैठ गये। तब राजा प्रजापाल अपनी सती, दुलारी पुश्री से कहने लगे, हे पुत्रि, तुम मेरे कुल की दीपक हो अर्थात् तुमसे मेरा कुल उज्वल यशस्वी, प्रकाशित हो गया । तुम विदुषीरत्न हो, सम्यग्ज्ञान शिरोमणि हो। तुमने प्रत्यक्ष दिखला दिया कि संसार में श्री जिनेन्द्र भगवान के चरणसरोजों के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं । अर्थात् जिनचरणारविन्द भक्ति समान अन्य कुछ भी नहीं है । जिनभक्ति में अपार शक्ति है । वही सर्वदुःखहारिणी पाप प्रणाशिनी है ।।१६६।। अब राजा कर्म का प्राधान्य स्वीकार करता है - सत्यं ते पुण्यकर्मात्र फलितं कल्पवृक्षवत् । सिद्धचक्रप्रसादेन, परमानन्ददायकम् ।।१७०।। अन्वयार्थ---हे पुत्रि ! (सत्यम् सचमुच ही (ते) तुम्हारा (त्र) यहाँ, इस अवसर पर (पुण्य कर्म) पुण्योदय (कल्पवृक्षवत । कल्पवृक्ष के समान (फलितम्) फल है वस्तुत: (परमानन्ददायकम्) परम आनाद को देने वाले (सिद्धचक्र प्रसादेन) सिद्धचक्रविधान के प्रसाद से ते पुण्यकर्म ) तुम्हारा पुण्यकर्म (अत्र) यहाँ (फलितः) फलित हुअा। (कल्पवृक्षवत्) कल्पवृक्ष के समान (फलितः) फलित हृया। भावार्थ हे पुत्रि पुण्यकर्म बलवान है। आज तेरे पुण्यकर्म का ही यह प्रत्यक्ष फल है । तुम्हारा पुण्य कल्पवृक्ष के समान है । आज सिद्ध चक्र विधान के महाप्रसाद से परमानन्द दायी यह अवसर प्राप्त हुआ है । उस समय मैंने कोधान्ध हो जिन धर्म के सिद्धान्त पर शंका की । मिथ्यात्व का उदय क्या नहीं कराता । तू सम्यक्त्व शिरोमरिण । परमागम की जाता है । जिनधर्म के रहस्य को जानने वाली है । तेरे पुण्यकर्म से हम सब सुखी हो गये ।।१७०।। एवं पुत्रों प्रशस्योच्चैः स्वाकमारोप्य सादरम् । श्रीपालञ्च जगादेवमहो श्रीपालपुण्यभाक् ॥१७॥ त्वमेव भुबने सिद्धचक्रसेवा विधायकः । अतो गृहाण सप्ताङ्ग राज्यं मे शर्मदायकम् ॥१७२॥युगलम्।। अन्वयाथ---(एवम ) इस प्रकार (पुत्रीम ) पुत्री की (उच्चैः) खूब (प्रशस्य ) प्रशंसा करके (सादरम् ) ग्रादर से (स्व) अपनी (अङ्कम ) गोद में आरोग्य) विठला कर (च) और (थोपालम् ) श्रीराल को (एवम ) इस प्रकार (जगादः) बोला (पुण्यभाक्) हे पुण्यपात्र ! पुण्यस्वरूप ! (भुबने) संसार में (त्वम् ) तुम (एव) ही (सिद्धचक्रसेवा विधायक:) सिद्धचक्र की सेवा के अधिनायक हो (ग्रतः) इसलिए (में) मेरा (शर्मदायकम) शान्ति सृनदायक (राप्ताङ्ग) सात अङ्ग वाले (राज्यम ) राज्य को (गृहाण ) ग्रहण करो। भावार्थ- उपर्युक्त प्रकार महाराज महीपाल ने अपनी पुत्री मैंनासुन्दरी की नानाप्रकार प्रशंसा की। तथा प्रेम से उसे अपनी गोद में लिया। हृदय से लगाया । वात्सल्यभाव Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] [ोपाल रिम शोय परिच्छेद से बार-बार उसे स्नेह से निहार प्रसन्न हुश्रा । पुनः अपने जवाई श्री श्रीपाल जी से कहने लगा भो पुण्यशालिन्, आप महान हैं । आप सम्यग्दृष्टि जिनभक्त हैं। श्री सिद्धचक्र विधान के आप ही संसार प्रसिद्ध प्रवर्तक हैं। सिद्धसमूह पूजा के प्राप विधायक हैं। मेरा सम्पन्न, सुखकारी राज्य आप स्वीकार करिये। राज्य के सातों अङ्ग पुर्ण हैं। इस प्रकार समृद्ध राज्य के प्राप अधिकारी बनिये ।।१७१, १७२।। तदाकण्यानुसोऽवादीनिलाभो निर्मलं वचः। राजन् प्रयोजनं नास्ति मम देशादि वस्तुभिः ।।१७३॥ अन्वयार्थ---(तदा) तब, ससुर के प्राग्रह को (आकर्य) सुनकर (अनु) तदनुसार (सः) वह श्रीपाल (निर्लोभः) लोभरहित (निर्मलम् ) बास्तविक, निर्दोष (वन:) वचन (प्रवादीत्) बोला (राजन) हे भूपते ! (देशादि) देश, राज्यादि (वस्तुभिः) वस्तुओं से (मम.) मुझे (प्रयोजनम् ) प्रयोजन (नास्ति) नहीं है। भावार्थ- श्रीपाल ने ससुरजी का आग्रह सुना । जिसके पास सन्तोष है उसे अनायास प्राप्त राज्य सम्पदादि के प्रति तनिक भी अाकर्षण नहीं होता । अत: श्रीपाल ने कहा, पिताजी मुझे राज्यादि किसी भी वस्तु से कोई प्रयोजन नहीं । आपका राज्य प्राप हो संभालिये । मुझे इसकी कोई आवश्यकता नहीं हैं ।।१७३।। तुष्टा तेन प्रभुमत्वा तस्य मानसमुन्नत्तम् । श्रीपालं प्रशस्याशु तस्मै प्रोत्या पुनर्ददौ ॥१७४।। देशकोष पुरनाम मत्तमात्तङ्ग सद्रथान् । नाना तुरङ्गमांस्तुङ्गान् वस्तु वास्तु समुच्चयम् ॥१७५।। अन्वयार्थ--(तेन) उस श्रीपाल के उत्तर से (तस्य) उसका (मानसम ) हृदय (समुन्नतम.) बहुत विशाल है, (तुष्टा) वह संतुष्ट है ऐसा(मत्त्वा) ज्ञातकर मानकर (तम ) उस (श्रीपालम ) श्रीपाल की (प्रशस्य) प्रशंसा कर (प्राशु) शोघ्र ही (तस्मै) उसके लिए (प्रोत्या) प्रेम से (पुनः) फिर से (देशकोषपुरग्राम) अनेक देश, खजाने पर नाम आदि, (मत्तमात्तङ्ग) मदभरते गज (सस्थान्) श्रेष्ठ रथ (नानागुङ्गन्) अनेक ऊँचे-ऊँचे विशाल (तुरङ्गान ) घोडों को (तथा) अन्य भी (वस्तु) धन (वास्तु) धाम-महलादि (समुच्चयम ) ममुदाय (ददौ) दिये। भावार्थ-श्रीपाल ने राजा के अनुग्रह को स्वीकार नहीं किया । तव राजा ने समभलिया कि यह महान् पुरुष है । इसका हृदय विशाल है । संतुष्टमन है। लोमविहीन है। इसे किसी का भी प्रलोभन अाकर्षित नहीं कर सकता। ठीक ही है, धीर, वीर, उदार, महामना पुरुषार्थों को परसम्पदा, परमहिला और परधन से क्या प्रयोजन ? वह अपने में स्वयं निर्भर Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [२०७ और संतुष्ट रहता है । पुनः राजा ने अत्यन्त प्रीति से आग्रह पूर्वक उसे प्रशंसित करते हुए उसके लिए अनेकों राज्य, देश, पुर नगर ग्राम, विशाल उन्नत गज, अश्व, आदि भी प्रदान किये ।। १७४ १७५ ॥ सन्मान्य सरसंयवियैः परमानन्ददायकैः । सुधीः स्वगृहमायातो, विकसन् मुखपङ्कजः ॥ १७६ ॥ प्रन्वयार्थ -- उस राजाने ( परमानन्ददायक : ) परम श्रानन्द को देने वाले ( सरसः ) मधुर (वाक्ये) वाक्यों से ( सम्मान्य) सम्मान कर ( विकसन् ) सिलेहुए ( मुखपङ्कजः ) मुखकमल वाला प्रसन्नमुख ( सुधीः ) वह बुद्धिमान राजा (स्वगृहम) अपने घर ( आगत ) आ गया । भावार्थ -- अनेकों उपहार र देकर राजा ने श्रीपाल की अनेकों मधुर, सरस, प्रिय वचनों से भूरि-भूरि प्रशंसा की । परम आनन्द दायक वाक्यों से पुनः पुनः उसके चारित्र की शीलस्वभाव की महिमा वर्णन की । हर्षोल्लास से उसका मुखपङ्कज विकसित हो उठा वह धीमान् राजा आनन्दतिरेक से भरा अपने घर आया ।।१७६ ।। तदा तत्र जगत्सारो जैनधर्मस्तुशर्मदः । लोकोद्योतकरश्चापि प्रद्योतश्च महानभूत् ।। १७७।। अन्वयार्थ - - ( तदा ) तत्र ( तत्र ) वहाँ सर्वत्र ( सुशर्मदः) शान्ति सुखदाता (च) और (जगत्मारः ) जगत का सार (च) और ( लोकोद्योतकरः ) संसार को द्योतित करने वाला (महान्) महान् ( प्रद्योतः ) उद्योत करने वाला (जैनधर्मः ) जैनधर्म ( अभूत् ) हुआ । T भावार्थ- - इस अलौकिक प्रभावना और माहात्म्य से जैनधर्म की महिमा सर्वत्र विख्यात हो गई । शान्ति-सुख विधायक जैनधर्म संसार में सारभूत प्रसिद्ध हुआ । सर्वत्र जैनधर्म का प्रकाश, महिमा व्याप्त हो गई। जन-जन के मुख पर सर्वं जगह एक ही चर्चा हो गई । इस प्रकार जनधर्म सर्वव्यापी हो गया। यही नहीं ।। १७७ ॥ श्रीपालस्य तदाख्यातिः प्रचुरासीत् पुराभुवि । वन्दी गायनगीताद्यैः याचकादिजनोत्करैः ॥ १७८ ॥ श्रन्वयार्थ -- ( तदा ) तब ( सुबि) पृथिवी पर (श्रीपालस्य ) श्रीपालराजा की (परा ) उत्तम (प्रचुरा ) अत्यधिक ( ख्यातिः ) प्रशंसा ( बन्दीगायनगीताद्य :) वन्दोजनों के गीतगानादि द्वारा ( याचकादिजनोत्करे :) याचकजनों द्वारा (ग्रासीत् ) हो गई । भावार्थ - इस प्रकार सारी पृथिवी पर श्रीपाल का यश भी फैल गया । सर्वत्र वन्दीजन उसी का गान गाते थे । बन्दीजन उसी की प्रशंसा करते थे । याचक जन उसी के दान का राग अलापते थे ।। १७८ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ततो धर्मप्रसादेन श्रीपालकांतया समम् संस्थितस्सुख सम्पन्नो धर्मकार्येषुतत्परः ॥१७६।। अन्वयार्थ-(ततः) इस प्रकार (धर्मप्रसादेन) धर्म के प्रभाव से (धर्मकार्येषु ) धार्मिक कार्यों में (तत्परः) तत्पर हुआ (श्रीपाल:) थोपालराजा (कान्तया) अपनी पत्नी के साथ (समम्) साथ (सुखसमापन्नः) सुख पूर्वक (संस्थितः) रहने लगा। मावार्थ · धर्म प्रभावना से प्रख्यात और ससुर से सम्मान्य होकर श्रीपाल आनन्द से अपनी प्राणा मासुम्दती रा. प. स. होरया । अपने धावकोचित पूजा दानादि कर्मों को करते हुए सुख से स्थिल हो गये ।।१७६ ।। इति शुभ परिपाकाद् राजपुत्री सुरूपाम्, नृपज-विभयवस्त्रं चाऽपि दु-धिनाशम् । अनुभवति सुखौख्यं ह्यषमत्वेति दक्षः । कुरुत परं धर्म यत्नतस्वार्थ सिद्धये ॥१८०।। अन्वयार्थ -- (इति) इस प्रकार (शुभ) पुण्य (परिपाकात्) उदय से (मुरूपाम ) सुन्दर (राजपुत्रोम) राजकन्या, (नपज-विभव) राजा से प्राप्त वैभव (वस्त्रम) वस्त्र (च) और (दुर्व्याधिनाशम) भयङ्कर असाध्य रोग की निर्वत्ति (अपि) भी प्राप्त कर (एषः) यह श्रीपाल (सुसौख्यम् ) उत्तम सुख को (अनुभवति) अनुभव करता है (इति) इस प्रकार (मत्त्वा) मानकर (दक्षः) चतुर पुरुष (स्वार्थ) अपने कार्य को (सिद्धये) सिद्धि के लिए (यत्नतः) प्रयत्नपूर्वक (परम ) उत्तम (धर्मम ) धर्म को (कुरुज) करें। भावार्थ - आचार्य श्री समस्त भन्यात्मानों को धर्मार्जन की प्रेरणा दे रहे हैं। श्रीपाल ने सद्धर्म के प्रभाव से सर्वाङ्ग मुन्दरी, जिनागमवेत्ता, परमसती राजकुमारी को पत्नी रूप में प्राप्त किया । उस सती के सहयोग से निििध हुा । संसार प्रसिद्धि प्राप्त की। राजसम्मान पाया । राजा समान वैभव प्राप्त किया। जिनधर्म की प्रभावना की । अनेक प्रकार इन्द्रिय-विषय भोगों को पाकर मुख में रहने लगे । आचार्य श्री कहते हैं अहो भव्यजन हो! धर्म की महिमा अपार है। उभयलोक सिरिख का यही एकमात्र साधन है, आप श्रीपाल के चरित्र को आदर्श बनाकर धर्मा में अनुरक्त होबे । यही सुख का हेतू है ।।१०।। इति श्रीजिनसिद्धचनविलसत् पूजा प्रभावेण वै। भुक्त्वा कामसमाकृति प्रगनिधिः श्रीपालनामानृपः । नानाभोगविलास सौख्यनिलयः कीाजगद्व्यापकम् । तत्रस्थोऽपि परोपकारनिरतस्तस्थी समं कान्तया ॥११॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [२०६ अन्वयार्थ - - (इति) इस प्रकार ( श्रीजिन सिद्धचक्र प्रभावेण ) श्रीजिनेन्द्र भगवान और सिद्धचक पूजा के प्रभाव से ( श्रीपालनामानूपः ) श्रीपाल नाम का राजा ( कामसमाकृतिः ) कामदेव के समान रूपाकृति (गुणनिधिः) गुणों का भण्डार ( सौख्यनिलयः ) सुखों का आकरसदन ( जगद् व्यापकम् ) संसारव्याप्त (कीर्त्या) कीति द्वारा ( नानाभोग विलास ) नाना भोगविलासादि (भुक्त्वा ) भोगकर ( परोपकारनिरतः ) परोपकार में संलग्न हुआ (कान्तया ) अपनी प्रिया के (समम् ) साथ ( तत्र ) वहाँ (स्थ : ) रहने लगा । ( तथा चाऽपि ) और भी - मावार्थ - राजा श्रीपाल श्रीजिनेन्द्रभक्ति सिद्धचक पूजा विधान से यशस्वी हुआ। कामदेव समान रूप लावण्य शरीराकृति प्राप्त की। गुणों का आकर हो गया । नाना भोगविलासों में निरत होकर भी परोपकार नहीं भूला । धर्म नहीं छोड़ा | अपितु विशेष रूप से परहित और धर्म कार्यों में संलग्न होकर अपनी प्रिया के साथ न्यायोचित भोग भोगने लगा । सूख से स्थित हुआ ॥१८६॥ प्रत्यक्षं जिनधर्मकर्म निरतः श्रीपालनामा नृपः । जातो व्याधि विवर्जितो गुणनिधिस्सरसम्पदा मण्डितः ! मत्वैवं भवसिन्धुतारणपरं धर्मं सुशर्माकरम् । भो भय्या ! प्रभजन्तु निर्मलधियस्त्यक्त्वा प्रभावं सदा ।। १६२ || अन्वयार्थ (जिनधर्म कर्म निरतः ) जिनधर्म और जिनभक्ति प्रादि क्रियाओं रत, (श्रीपालनामा नृपः ) श्रीपाल नाम का राजा ( प्रत्यक्षम् ) साक्षात् ( व्याधिविवजितः ) कुष्ठव्याधिरहित ( गुणनिधिः ) गुरणों का सागर ( सत्सम्पदामण्डित्तः) श्रेष्ठ सम्पत्ति से मण्डित ( जातः) हुआ, ( भो ) है ( भव्याः ) भव्यजनहो! (इति) इस प्रकार ( मत्त्वा ) मानकर - समझकर आप भी ( भवसिन्धुतारणपरम ) संसार जलधि से पार करने में समर्थ ( सुशर्मा किरम् ) सच्चे शाश्वत सुख के करने वाले ( धर्मम्) धर्म को (सदा ) निरन्तर ( प्रमादम् ) प्रमाद ( त्यक्त्वा) छोड़कर (निर्मलधिया) पवित्रभावों से ( प्रभजन्तु ) विशेष रूप से धारण करोसेवो, भजो 1 1 भावार्थ - जिनसा हितैषी । यह जीवों का परम बन्धु है । धर्म ही निस्वार्थ उपकारी है । देखो इसका प्रत्यक्ष माहात्म्य । श्रीपाल ने मन, वचन काय की शुद्धि पूर्वक इसे धारण किया। मैंनासती ने उसी प्रकार नवकोटि शुद्धि से धारण और पालन किया। फलतः राजा श्रीपाल पूर्णत: रोग रहित हो गया। गुरणों से शोभित हुआ । उत्तमोत्तम सम्पदाएँ प्राप्त हुयीं। अनेकों भोगों का अधिनायक हुआ। सांसारिक सुखभोग जो जो हो सकते हैं वे सभी उसे उपलब्ध हुए । परलोक की सिद्धि भी होगी ही । इसलिए आचार्य श्री परमदया और उपकार को भावना से सांसारिक पीडित प्राणियों को सम्बोधन करते हैं "हे भव्यजन हो, आप संसार के दुःखों से छुटकारा पाना चाहते हो तो जिनधर्म का आश्रय लो। यह धर्म संसार सागर से पार उतारने को सुदृद्ध, निशिछद्र नौका है । समस्त सुखों की खान है । आप प्रमाद Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद छोड़कर सतत निर्मल बुद्धि से इस धर्म को धारण करो, पालन करो। जिस प्रकार सफल उत्तम फसल के लिए भूमिशुद्धि-अर्थात् भले प्रकार जोतना, उत्तम बीज होना, समय पर बोना आवश्यक है उसी प्रकार धर्मवृक्ष आरोग के लिए पिताको भूमि का मातमा प्रयात रागद्वेष, कषायादि कर परिणामों का निकालना, शुभभाव-श्रद्धा-भक्ति रूपए बीजों का होना, तथा पर्वादिकाल में योग्य प्रतोपवास पूर्वक प्रभावना करना आवश्यक है। इस प्रकार विधिवत् सेवन किया धर्म स्वर्गादि के साथ अनुक्रम से मुक्तिरूपी फल प्रदान करता है । अतः अविनश्यर सुनेच्छु प्रों को निरन्तर धर्म में प्रोति करना चाहिए ।। १८२।। इति श्री सिद्धचक्रपूजातिशयान्विते श्रीपालमहाराजचरिते भट्टारक श्री सकलकीर्ति विरचिते श्रीपालमहाराज सद्धर्मश्रवण, श्रीमद् सिद्धचऋपूजन, समस्तव्याधिविनाश, राजसन्मानादि व्यावर्णनोनाम त्रितयः परिच्छेदः ।। ॥श्री सिद्धेभ्यो नमः मङ्गलम् महामङ्गलम्।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ चतुर्थ परिच्छेदः॥ प्रथकदा निशभ्योच्चः श्रीपालो गायनादिभिः। प्रजापालमहीभर्तु नाम्ना स्थस्यकृतां स्तुतिम् ॥१॥ स्वचित्ते चिन्तयामास हा कष्टं मम जीवितम् । श्रूयतेऽहं सदा नाम्ना श्वसुरस्य महीतले ॥२॥ युग्मम् ।। अन्वयार्थ-(अथ) सुखपूर्वक रहते हुए (एकदा) एक समय (श्रीपाल:) राजा श्रीपाल ने (प्रजापालमहीभत्तुंः) प्रजापालराजा के (नाम्ना) नाम द्वारा (गायनादिभिः) गायकों द्वारा गाई गई (स्वस्य) अपनी (कृताम् ) को गई (स्तुतिम् ) स्तुति को (उच्चैः) विशेषरूप से (निशम्य) सुनकर (स्व) अपने (चित्ते) मन में (चिन्तयामास) विचार करने लगा (मम् ) मेरे (जीवितम् ) जीवन को (हा) धिक्कार है (कष्टम ) महादुख है कि (सदा) हमेशा (महीतले) भूमिपर (अहं) मैं (श्वसुरस्य) ससुर के (नाम्ना) नाम से (श्रूयते) सुना जाता हूँ। मावार्थ-श्रीपाल और मैंनासुन्दरी प्रेम से आनन्द पूर्वक रहने लगे । सुख-शान्ति से दोनों काल यापन करने लगे। धर्मध्यानपूर्वक दोनों अनुत्सुक भोगों को भोगने लगे । समय कहाँ जा रहा है, यह भी ज्ञात नहीं हुगा । अचानक एक दिन श्रीपाल राजा ने बन्दीजनों द्वारा अपनी स्तुति सुनो । वह स्तुति उनके श्वसुर के नाम के साथ गायी गई थी । अपना गुणगान, यशोराशि सुनकर श्रीपाल का मन क्षुभित हो उठा, क्योंकि वह गुणानुवाद प्रजापाल महाराज के जंबाई के नाम से किया गया था । एकाएक वह मन में चिन्तवन करने लगा "मेरे जीवन को धिक्कार है, मेरे जीवन से क्या प्रयोजन ? बड़े खेद की बात है कि यहाँ सर्वत्र मेरे ससुर का ही नाम सुना जाता है । मैं किसका पुत्र हूँ कोई नहीं जानता । अर्थात् मेरे पिता का नाम ही मिटा जा रहा है फिर मुझ पुत्र के जोने से क्या ? कोई लाभ नहीं ।।१-२॥ मल्पितुः श्रूयते नैव नाम्नाप्यत्र कदाचन । मया निर्ममितं तच्च मन्दभाग्येन साम्प्रतम् ॥३॥ अन्वयार्थ - (अत्र) यहाँ (कदाचन) कभी भी (मत्) मेरे (पितुः) पिता के (नाम्ना) नाम से (नैव) नहीं (श्रूयते) सुना जाता है (साम्नतम् ) इस समय (मया) मुझे (मन्दभाग्येन) मन्दभागी द्वारा (तत्) वह (च) और ही (निर्ममितम् ) निर्माण हो गया। अर्थान् होना था कुछ और, और हुआ दूसरा ही । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद भावार्थ---यहाँ इस पुरो में कहीं भी कोई भी मेरे पिता का नाम नहीं लेता । मैं कभी अपने पुज्य पिता का नाम नहीं सुनता। मुझ मन्दभागो ने विपरीत ही कार्य किया। पिता का नाम रोशन न कर श्वसुर का नाम प्रसिद्ध किया । मेरा यह दुर्भाग्य ही है ।।३।। इत्यादि चिन्तयाक्रान्त स्वभारं विलोक्य सा । कन्दर्पसुन्दरी प्राह कि स्वाभिन्मुखपङ्कजे ।।४।। म्लानता कारणं हि नाथ मे करुणापरः । श्रीपालस्सजगौ कान्ते मत्पितु म निर्गतम् ॥५॥ श्रूयते श्वसुरस्यैव नाम सर्वत्र सर्वदा । अतो मे जायते दुःखं मानसे मत्प्रिये शृण ॥६॥ त्रिकुलम् ॥ अन्वयार्थ... (इत्यादि) उपर्युक्त प्रकार से (चिन्तयाकान्तम) चिन्ताग्रस्त (स्व) अपने (भरिम ) पति को (विलोक्य ) देखकर (सा) वह मैनासुन्दरी (कन्दर्पसुन्दरी) मदनसन्दरी (प्राह) बोली (स्वामिन् ) हे स्वामिन् (मुखपङ्कजे) मुखकमल पर (म्लानता) मनिनता का (कारणम ) कारण (कि) क्या है (नाथ !) हे नाथ (करुणापर:) आप दयालु है दयाकर (मे) मुझे (ब्र हि) कहिये। (धोपाल:) श्रीपाल (संजगौ) बोला (कान्ते ! ) हे प्रिये ! (मत) मेरे (पितुः) पिला का (नाम) नाम (निर्गतम ) नष्ट हो गया (सर्वदा) हमेशा (सर्वत्र) सर्व जगह (श्वसुरस्य) ससुर का (एब) ही (नाम) नाम (श्रूयते) सना जाता है। (अतः) इसलिए (मत्प्रिये) हे मेरी प्राणवल्लभे (मे) मेरे (मानसे) मन में (दुःखम ) दुःख (जायते) होता है। ___ भावार्थ----प्रनेक तर्क-वितर्क करके श्रीपाल राजा बहुत ही चिन्तित हो गये । उनका मुखपङ्कज मुरझा गया । अपने पतिदेव को चिन्तातुर देखकर मदनसुन्दरी व्याकुल हो उठी। वह प्रार्थना करने लगी, हे स्वामिन्, आपका मुखपङ्कज आज म्लान क्यों है ? हे नाथ दयाकर आप अपने दुःखका कारण कहिए। आप करुणामय हैं । शीघ्र ही मुझ से अपनी उदासी का कारण कहिये श्रापका मुख-दुःख ही मेरा सुख-दुःख है। मेरा मत अघोर हो रहा है, आप यथार्थ कारण अवश्य ही कहिये । अपनी प्रिया की प्रार्थना सुनकर श्रीपालजो कहने लगे, हे प्रिये ! मेरे पिता का नाम ही नष्ट हो गया । यहाँ सर्वत्र सदा मेरे श्वसुर का ही नाम सुनते हैं मेरे साथ श्वसुर जो का ही नाम जुड़ गया है । सब कोई प्रजापाल' राजा का जंबाई कहकर ही पुकारते हैं । यही मेरे दुःख का मूल कारण है । हे प्राररावल्लभे ! सुनो, मेरे पिता का हो नाम नहीं तो मेरे जीवन ही से क्या प्रयोजन ? ।।४-५-६।। । मातुलस्य भगिन्याश्च श्वसुरस्य सुयोषिताः । / नाम्ना धनेन जीयन्ति भवंत्येतेऽधमाधमाः ॥७॥ अन्वयार्थ (ये) जो (मातुलस्य) मामा के (भगिन्याः) अह्निों के (श्वशुरस्य) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१३ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद अवसुर के (च) और ( सुथोषिताः) स्त्रियों के (नाम्ना) नाम के (धनेन) धन से (जीवन्ति) जीते हैं (एते) ये (अधमाधमा) अधम से अधम (भवन्ति) होते हैं भावार्थ ---श्रीपाल अपनी प्रिया को नीति पूर्वक कहते हैं कि जो पुरुष स्वयं पुरुषार्थ न कर परधन के आश्रय रहते हैं वे नीच हैं । अर्थात् जो मामा के, बहिन के, श्वसुर के और स्त्रियों के नामके धन-वैभव में अपना जीवन निर्वाह करता है वह महान अधम पुरुष है । पुरुष माम ही उसका है जो स्वयं पुरुषार्थ करे। अभिप्राय यह है कि मैं प्रवसुर के धन से अपना जीवन यापन कर रहा है इसीलिए मेरे पिता का नाम भी लुप्त हो गया । और मैं स्वयं भी लज्जा का पात्र बन गया ॥७॥ । भुजोपाजित वित्तेन भुञ्जन्तेयेऽनिशं सुखम् ।। तेऽत्र सत्पुरुषा लोके परे दुनिशालिनः ॥८॥ अन्वयार्थ- (अ) यहाँ (लोके ) संसार में (ये) जो (भुजोपार्जित) अपने वाहुबल से कमाये {वित्तेन) धन से (अनिशम्) निरन्तर (सुखम् ) सुख (भुजन्ते) भोगते हैं (ते) बेही (सत्पुरुषाः) सज्जन-उत्तम पुरुष हैं (परे) अन्य (दुर्मानशालिनः) मदोन्मत्तनिरेदम्भी हैं। भावार्थ--हे प्रिये, इस संसार में जो पूष अपने स्वयं पुरुषार्थ कर धन कमाते हैं । वापारादि करते हैं वे ही सज्जन हैं, पुरुष कहलाने के अधिकारी मनस्वी हैं। उनका ही झोगोपभोग सुख भोगना सार्थक है। शेष जो पराधीन सुख भोगते हैं उन्हें अधम पुरुष कहा जाता है वे मात्र पाखण्डी हैं ।।८।। धनं विना न भातीह नरलोके निरन्तरम् । यथा सुगन्धता हीनो नाना कुसुमसञ्चयाः ॥६॥ अन्वयार्थ ---(यथा) जिस प्रकार (सुगन्ध्रता) सुगन्धी (होनः) रहित (नाना) अनेक (कुसुमसञ्त्रयाः) पुरुषों का समूह (न) नहीं (भाति) शोभित होता है (तथा) उसी प्रकार (इह) यहाँ (नरलोके) मनुष्यलोक में (निरन्तरम ) निरन्तर (धनं) धन के (बिना) बिना (न भाति) शोभित नहीं होता है। भावार्थ-- जिस प्रकार अनेक प्रकार के फूलों का ढेर लगाया और वे सब यदि सुवास रहिन हों तो उनका कोई मुल्य नहीं. शोभा नहीं। उसी प्रकार संसार में मनुष्य के पास यदि धन नहीं हो तो अन्य सब गुणों का कोई मूल्य नहीं ।।६।। विस्तारयन्ति ये कोति स्वकीयोपाजितर्द्धनै । धन्यास्तयेव संसारे चन्द्रकान्तिमिवोज्वलाम् ॥१०॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] [ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद प्रन्वयार्थ - - ( संसारे) विश्व में ( ये ) जो (स्वकोय) स्वयं (उपार्जित) अर्जित ( धनैः ) धन के द्वारा ( चन्द्रकान्ति ) चन्द्रकिरणों ( इत्र ) समान (उज्वलाम् ) निर्मल ( कोर्तिम) यश को ( विस्तारयति) फैलाते हैं ( तयेव ) वे ही ( धन्याः ) धन्य हैं । भावार्थ श्रीपाल कहते हैं, हे प्रिये, इस लोक में जो पुरुष स्वयं अपने ही पुरुषार्थ से व्यापारादि कर लक्ष्मी कमाते हैं । तथा उस अर्जित सम्पदा को यथार्थ दान पूजादि कार्यों में व्यय कर लोकमान्य यश प्राप्त करते हैं। वे ही मानव धन्य हैं। योग्य और सार्थक जीवनयुक्त हैं। अभिप्राय यह है कि पुरुष सिंह अपने बल पर ही जीवन यापन करना चाहते हैं पराधीन जीवन सत्पुरुषों को कभी नहीं रुचता ॥ १० ॥ तो देशान्तरे गत्वा धनञ्चोपायं निर्मलम् । पश्चात्संसारसौख्यानि भुज्यन्ते निश्चयात्प्रिये ॥११॥ अन्वयार्थ - श्रीपाल कहते हैं (अतः ) इसलिए ( प्रिये ) हे बल्लभे ! ( देशान्तरे ) परदेश (गत्वा) जाकर (च) और (निर्मलम) न्यायपूर्वक ( धनम) लक्ष्मी ( उपाय ) कमाकर (पश्चात् ) बाद में ( निश्चयात्) निश्चय से ( संसारसौख्यानि ) संसार योग्य भोगों को ( भुज्यन्ते) भोगना चाहिए। भावार्थ अपनी प्रारण प्रिया से श्रीपाल महाराज कहते हैं, हे प्रिये ! अब मैं विदेश जाकर लक्ष्मी उपार्जन करूंगा । न्यायपूर्वक सञ्चित धन के होने पर ही संसार के पवेन्द्रिय अन्य सुख भोगना चाहिए। श्रतः में प्रथम व्यापारादि कर अधिक बल प्राप्त करूंगा । पुनः सैनिक बल और तब राज्यबल प्राप्त हो सकता है। अतः धनार्जन के लिए निश्चय ही मैं विदेश गमन करूँगा ।।११।। नागवल्लीदलं रत्नं पुरुषोऽपि सुपुण्यवान् । देशान्तरेषु मां त्यक्त्वा भी कान्ते श्रूयते वचः ॥१२॥ अन्वयार्थ ( भो ) है ( कान्ते ! ) प्रिये ( देशान्तरेषु ) परदेशों में क्रमाकर (नागबल्लीदलम ) नागवल्लो के पत्ते समान ( रत्नम् ) रत्नवाला ( पुरुष ) मनुष्य (अपि) भी (मा) मुझे ( त्यत्वा ) छोड़कर ( वचः ) नाम ( श्रूयते ) सुना जाता है । भावार्थ- हे प्रिये ! मुझे छोड़कर जो पुरुष बहुत थोड़ा सा भी धन कमाकर लाया है। तो उसका नाम भी लोग कहते सुने जाते हैं। नागवल्ले के पत्ते समान रत्न भी स्वोपार्जित है तो उसका नाम तो लोग लेते हैं। मेरे पास इतना धन-वैभव सुख सामग्री भी है तो किस काम की ? न तो मेरा नाम ही कोई लेता है न मेरे पिता ही का । सर्वत्र श्वशुर का ही नाम गाया जा रहा है । अतः मेरा निश्चय है कि स्वतः अपने भुजबल से अर्थ सञ्चय कर भोग भोग ।। १२ ।। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद] [२१५ कान्तवाक्यं समाकर्ण्य कम्पिता फिल कामिनी । बने थातेन वा बल्ली कोमलाङ्गी सुगन्धिनी ।।१३।। अन्वयार्थ—(कोमलाङ्गो) सुकुमार अङ्गवाली (सुगन्धिनी) सुवासित गात्र वाली (कामिनी) पत्नी मदन सुन्दरी (कान्तवाक्यम् ) पति के वाक्य (समाकर्ण्य) सुनकर (किल) निश्चय से (वने) वन में (वातेन) वायु से (वल्ली) लता (इव) समान (वा) मानों (कम्पिता) कांपने लगः भावार्थ-अपने प्राणवल्लभ पति के परदेश गमन के वचन सुनते ही मदनसुन्दरी अवाक रह गई। उसे लगा मानों उस पर वज्रपात हुआ । वह अप्रत्याशित भय से थरथराने लगी। उस समय वह सुकुमारी, सुगन्धित वस्त्रालङ्कारों से सज्जित ऐसी प्रतीत हो रही थी मानों वन प्रदेश में फल-फूलों से भरी पवन से प्रेरित सुन्दर लता ही हो ।।१३।। उवाच सुन्दरी सा च वियोग सोडमक्षमा । अहं ते पमिनीवोच्च स्करस्यदिवि प्रभो ॥१४॥ अन्वयार्थ--(सा) वह मदनसम्दरी (सुन्दरी) सौभाग्यशालिनी (उत्राच) बोली (प्रभो !) हे स्वामिन् (दिवि) दिन में (भास्करस्य) सूर्य के ताप को (पयिनी) कमलिनी जिस प्रकार सहन नहीं कर सकती (इव) इसी प्रकार (ते) आपके (वियोगम् ) विरह को (अहम ) मैं (सोढुम ) सहन करने में (अक्षमा) असमर्थ हूँ। भावार्थ—पश्मिनी चन्द्रोदय के साथ प्रफुल्ल होती है, खिलती है । सूर्य के उदय होते ही वह कमला जाती है-मन्द हो जाती है क्योंकि चन्द्र का वियोग उसे सहन नहीं होता । अतः मैनासुन्दरो अपने पति देव से प्रार्थना करती है कि आप चन्द्र हैं और मैं कमलिनी हैं। मापका वियोग सहन करने की मुझमें क्षमता नहीं है । आपके परदेश गमन होने पर मैं कमलिनी के समान प्राण विहीन हो जाऊंगी। आपका संयोग ही मेरस जीवन है ।।१४।। इसलिए ततस्त्वया समं नाथ समेष्यामि सुनिश्चितम् । ज्योत्स्ना चन्द्रेण हि यथा गच्छतिनित्यशः ॥१५॥ अन्वयार्थ- (ततः) इसलिए (नाथ ! ) हे प्रभो (यथा) जिस प्रकार (नित्यशः) प्रतिदिन (ज्योत्स्ना) चाँदनी (चन्द्रेण) चाँद के (सार्थ) साथ (हि) निश्चय से (गच्छति) गमन करती है (तथा तथा उसी प्रकार (त्वया) अापके (समम् ) साथ (सुनिश्चितम ) अवश्य ही (समेष्यामि) साथ-साथ रहूँगी-चलू गो। भावार्थ - मदनसुन्दरी अपने प्राणप्रिय पति से प्रार्थना करती है कि है कि हे नाथ आप चन्द्र हैं मैं चन्द्रिका हूँ, जिस प्रकार चन्द्रिका चन्द्रमा को छोड़कर एक क्षणमात्र भी नहीं Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद रह सकती, उसी प्रकार मैं भी आपके साथ ही प्रयाग करूंगी आपके बिना मैं नहीं रह सकती हूँ । अतः मेरा निश्चय है कि आपके ही साथ विदेश चलूगी ॥१५॥ और भी मैना सुन्दरी उदाहरण दे रही है - : छाया या पुरुषेणव, सन्मतिर्वा मुनीशिनाम् । नोतिर्वा भूभुजा सार्थ प्रीति वा सज्जनेन च ॥१६॥ , अन्वयार्थ-(वा) अथवा (छाया) परछाई (पुरुषेण) पुरुष के (एव) ही (वा) पत्रमा (सन्मतिः सद्धि (सुनौगिता गिजों के (वा) अथवा (नीतिः) न्याय (भुभुजा) राजा के (वा) अथवा (प्रीतिः) स्नेह (सज्जनेन ) सत्पुरुषों के (मार्थम् । साथसाथ (गच्छति) जाता है। भावार्थ--और भी तर्क देकर मैनासुन्दरी अपने निश्चय का पोषण करती है कि हे देव ! प्रच्छाया पुरुष के पोछे-पीछे चलती है । उत्तम बृद्धि मुनीश्वरों का अनुसरण करतो है । नौनि राजाओं का अनुकरण करती है। प्रीति-वात्सल्य सत्पुरुषों के साथ-साथ चलता है । इसी प्रकार पतियताओं का कर्तव्य भी छाया के समान पति का अनुसरण करना उत्तम धर्म है । कर्त्तव्य है ।।१६।। इत्यादिकं प्रिया प्रोक्त श्रीपालस्तन्निशम्य च । प्रोवाच मधुरा वाणों शृण त्वं प्राणवल्लभे ॥१७॥ अन्वयार्थ--(इत्यादिकम.) उपर्युक्त प्रकार (प्रिथाप्रोक्तम् ) पत्नि के कहे हुए आग्रह को (निशम्य) सुनकर (थोपान :) श्रीपाल (मधुराम ) मधुर (च) और (बाणी) बाणों को (प्रोवाच) बोला (प्राणवल्लभे ! ) हे प्रिये ! (त्वम् ) तुम (शृण.) सुनो। भावार्थ .. जब मैंनासुन्दरी ने अत्यन्त प्राग्रह किया और अनेक प्रकार से प्रार्थना की उसकी प्रार्थना सुनकर श्रीपाल जी अत्यन्त मधुर वाणी में बोले, हे प्रिये ! प्रारावल्लभे! सुनो। कान्तया गमनं साथ विदेश दुःखकारणम् । पुन्सांयानेऽशने स्थाने, शयने दुर्जने वने ॥१८।। कामिन्यः कोमलाङ्गयश्च स्वभावेन सतो प्रिये । स्वं च राजसुता नित्यं, मालतीय सुकोमला ।।१।। तथा तातादयस्ते च श्रुत्वा वार्तामिमां ध्रुवम् । वारयिष्यन्ति मां गाढमुपाविविधैध्र वम् ।।२०।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद] [२१७ अन्वयार्थ .. - (मनो प्रिये) हे सती बल्लभे! (कामिन्य: स्त्रियाँ (कोमलाङ्गया:) सुकोमल अङ्गवाली (स्वभावेन) स्वभाव से हो होती हैं () और (कम् ) तुम तो (राजसुता) राजपुत्रा हो (नित्यं नित्य ही (भालती) भालती (इव) समान (मुकोमला) अत्यन्त सुकोमल हो सुनो ( विदेशे) परदेश में (कान्तया) स्त्रियों के (सार्थ) साथ (गमनम् ) गमन करना (पुसाम्) पुरुषों के (याने) सवरा (अशने) भोजन (स्थाने) निवासस्थान (शयने) शैया (दुर्जने) दुष्टजन (वनेजिम वन का बिया नदुखकारणम् दुस का कारण (भवति) होता है (च) और (ते) तुम्हारे (तातादयः) दादा, पिता, मातादि परिवार के लोग (इमाम ) इस (वार्ताम ) बात को (थुत्वा) सुनकर (ध्रुवम्) निश्चय से (विविधः) माना (उपायः) उपायों से (माम ) मुझको (गाढम् ) वलात् (वारयिष्यन्ति) निवारण करेंगे। अन्वयार्थ श्रीपाल मनासुन्दरी के आग्रह करने पर समझाता है । हे प्रिये परदेश में स्त्रियों को साथ ले जाने में मनुष्यों को दुख का कारण होता है। स्त्रियाँ स्वभाव से ही सुकोमलाङ्गी होती हैं । उस पर भी हे प्रिये आप तो राजपुत्री हो, मालतीलता के समान कोमल हो । विदेश में सबारी मिले न मिले पैदल चलना पड़ सकता है । समय पर भोजन मिले न मिले, उठने-बैठने को स्थान मि धन को विछावन का भी कोई ठिकाना नहीं रहता, कब कहाँ कौन दृष्टजन मिल जाय, कब कहाँ अटवियों से गुजरना पड जाय उस समय तुम्हें कितना कष्ट होगा। उससे मुझे भी बाधा आयेगी । यही नहीं, तुम्हें साथ ले जाने की बात सुनकर तुम्हारे कौटुम्बोजन मुझको भी जाने से रोकेंगे । नाना प्रकार के प्रयत्नों से मुझे नहीं जाने देंगे. जिससे मुझे, असन्तोष होगा । अतः पापका जाना उचित नहीं । मेरे साथ रहने से मैं स्वतन्त्र नहीं रह सकूगा ।।१८, १६, २०।। तस्मादागभ्यते यावन्मया लक्ष्म्या समं शुभे ! तावत्त्वं तिष्ठ भो कान्ते पितुरन्ते सुखेन च ।।२१॥ अन्वयार्थ ---(तस्मात्) इसलिए (भो) हे (कान्ते) प्रिये (यावन् ) जब तक (लक्ष्म्या) लक्ष्मी के (समम ) साथ (मया) मेरा (प्रागभ्यते) आगमन हो (तावत्) तब तक (शुभे!) हे गोभने (त्वम् ) तुम (पितुः) पिता के (अन्ते) पास (सुखेन) सुस्त्र से (तिष्ठ) रहो (च) और .. भावार्थ-श्रीपालजी कहते हे मदनसुन्दरी, हे शोभने तुम स्वयं विदुषी हो । तुम्हारे साथ आने से परदेश में अनेकों कष्ट आयेंगे । तुम सहन नहीं कर सकोगी । अत: हे कान्ते ! जब तक मैं धन कमाकर लक्ष्मी के साथ वापिस न पाऊँ तब तक तुम यहीं अपने पिता के साथ सुख से रहो ॥२१॥ पुनः पुनः प्रिये मत्वा स्वचित्ते मङ्गलम् मम् । मा यादीस्त्वं निषेधार्थं सर्वकार्य विचक्षणे ॥२२॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] [ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद अन्वयार्य- (प्रिये) हे देवि ! प्रिये (स्व) अपने (चित्ते) मन में (पुन:-पुनः) बार-बार (मम) मेरा (मङ्गलम् ) कल्यागा (वा) हामक समायविकारणे, हे जयकार्यों में विचक्षण मते (त्वम् ) तुम (निषेधार्थम्) निषेध करने वाला बचन (मा) मत (वादी:) बोलो। भावार्थ-लोक में प्रसिद्ध है कि कोई व्यक्ति यदि किसी शुभकार्य के लिए विदेश प्रयाण करता हो तो उसे "मत जा" ऐसा नहीं कहना चाहिए । क्योंकि यह अपशकुन माना जाता है । अतः श्रीपालजी मदनसुन्दरी को कहते हैं हे शोभने ! तुम समस्त लौकिक कार्यों की ज्ञाता हो, शुभाशुभ कार्य दक्ष हो. नाना व्यवहारों को जानने बाली हो । अतएव प्रयाण काल में तुम्हें बार-बार अपने मन में मेरा कल्याण विचारना चाहिए । मेरे मङ्गल की कामना करो । जाने के समय निषेध करना उचित नहीं है । इसलिए हे कान्ते ! आप निषेध वाचक वचन नहीं बोलना ।।२२।। इत्याक्षेपे निषिद्धाश्च सा जगौ नाथ कदा तत्र दर्शनं वद मे सत्यं भी स्वामिन् प्राण रक्षक ! ॥२३॥ अन्वयार्थ -- (इति) इस प्रकार (आक्षेपे) उलाहना देकर (निषिद्धाः) रोकी गई (सा) वह कामिनी (जगी) बोली (नाथ ! ) हे नाथ (भो स्वामिन्) हे स्वामिन् (च) और (प्राणरक्षक ! ) हे प्राणरक्षक ! (तव) आपका (दर्शनम् ) दर्शन (कदा) कब होगा (मे) मुझे (सत्यं) यथार्थ (वद) कहिये । भावार्य --अपशकुन का तायना देकर श्रीपाल ने अपनी प्रिया को साथ जाने से रोक दिया । अकल्याण की आशङ्का से पतिपरायणा उसने भी स्वीकार कर लिया। ठीक ही है सती, पति की अनुगामिनी, शीलवतो नारियां छायावत् पति आज्ञा का अनुसरण करती हैं। तो भी किसी प्रकार हृदय के शोकप्रवाह के वेग को रोक कर वह सती कहने लगी, हे देव, हे नाथ, हे प्राणरक्षक ! भो स्वामिन्, अब आपका शुभ, कल्याणकारी दर्शन कब होगा ? यह यथार्थ, सत्य बतलाइये |॥२३॥ वर्षे द्वादशभिस्सत्यं संयोगो मे त्वया समम् । तेनोक्तमिति सा कर्ण्य सजगाद प्रभो शृण ॥२४॥ अन्वयर्थ-(तेन) श्रीपाल द्वारा (उत्तम् ) कहा गया (इति) इस प्रकार, (सत्यम्) निश्चय ही (द्वादशभिः) बारह वर्षों (वर्षेः) वर्ष के अन्दर (त्वया) तुम्हारे (समम:) साथ (मे) मेरा (संयोगो) संयोग (भविष्यति) होगा (इति) इस प्रकार (आकर्ण्य) सुनकर (सा) वह (सञ्जगाद) सम्यक् वचन बोली (प्रभो) हे प्रभो (श्रुण ) सुनिये ।।२४।। मावार्थ--श्रीपाल ने उत्तर दिया "हे सुभगे, निश्चय ही बारह वर्ष में मेरे साथ तुम्हारा संयोग होगा।” इस प्रकार सुनकर मदनसुन्दरी कहने लगी, हे देव ! मैं कुछ कहना चाहती हूँ कृपया सुनिये ।।२४॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] तुच्छ बुध्याऽपि ते किञ्चिद्वचो वक्ष्ये विचक्षण ! श्रीमज्जिनेन्द्रसद्धर्मो न विस्मार्यः कवाचनः ||२५|| श्रन्वयार्थ — ( विचक्षण ! ) हे विलक्षणमते ! ( तुच्छ) लघु ( बुद्धयाऽपि ) बुद्धि होने पर भी (ते) आपके लिए ( किञ्चिद्) कुछ ( वचः ) वचन ( वक्ष्ये) कहूँगी, ( कदाचन) कभी भी ( श्रमज्जिनेन्द्रसद्धर्मः) श्रीजिनेन्द्र भगवान का उत्तम धर्म (न) नहीं (विस्मायें :) भूलना । [२१६ भावार्थ- हे अद्भुतमते ! आपके समक्ष मैं ( मैनासुन्दरी ) तुच्छ बुद्धि हूँ तो भी कुछ हितकारी वचन कहती हूँ । प्राप कभी भी श्रीमज्जिनेन्द्र भगवान कथित सद्धर्म को कभी भी नहीं भूलना | सतत स्मरण रखना ||२५|| तथा और भी चिन्तनं सिद्धचक्रस्य कर्तव्यञ्च त्वयानिशम् । सारपञ्चनमस्कारान्स्वामिन्स्वर्गापवर्गदान ॥२६॥ अन्ययार्थ (च) और ( स्वामिन् ) हे स्वामिन् ( त्वया ) आप ( अनिशम् ) रातदिन (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र का (च) और (स्वर्ग) स्वर्ग (अपवर्ग) मोक्ष (दान) देनेवाला (पञ्चनमस्करान् ) पञ्चपरमेष्ठी वाचक महामन्त्र का ( चिन्तनम् ) चितवन ( कर्तव्यम् ) करते रहना चाहिए । भावार्थ - हे स्वामिन् श्राप निरन्तर ही स्वर्ग- मोक्ष के देने वाले श्री सिद्धचक्र का तथा पञ्चनमस्कार मन्त्र का चिन्तवन करते रहना । हमेशा ध्यान करियेगा | हृदय में इनका चिन्तन करते रहियेगा ।। २६ ।। तथा नित्यं चिन्तयतः पुंसो भवन्ति सुखकोटयः । पच्चैते गुरुवस्तस्मात् त्वया प्रनिशं परम् ॥। २७ ॥ प्रन्वयार्थ - - ( एते ) इन (पञ्च ) पाँचों (गुरुवः ) गुरुओं का ( चिन्तयतः ) चिन् वन करने वाले (पुसाः) पुरुषों को (नित्य) सदा ( सुखकोटयः ) करोड़ों सुख ( भवन्ति ) होते हैं, ( तस्मात् ) इसलिए ( त्वया) प्राप द्वारा भी ( अनिशम् ) रात-दिन (परम ) विशेष रूप से (ध्येयाः ) ध्यान करना चाहिए ||२७|| भावार्थ पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान करने वालों को संसार में करोड़ों सुखों की प्राप्ति होती है । इसलिए आप सदा ही पञ्चपरमेष्ठी का स्मरण, ध्यान करते रहियेगा । अर्थात् Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] [ोपान चरित्र तृतीय परिच्छेद पञ्चनमस्कार मन्त्र सतत् जपते रहना चाहिए। जिससे आप सदा सुखी बने रहेंगे । और भी कहती है स्मर्तव्या जननी नित्यं दासिका चाहकं सदा । चतुविधं महादानं पुजनञ्च जिनेशिनाम् ॥ २८ ॥ अन्वयार्थ - - हे देव ( नित्यम् ) सदैव ( जननी) नाता जी का (च) और ( अहम् ) मुझ ( दासिका) दासी का ( स्मर्त्तव्या ) स्मरण रखना ( सदा ) प्रतिदिन ( जिनेपिनाम् ) जिनेन्द्र भगवान की (पूजनम् ) पूजा (च) और ( चतुविभ्रम्) चारों प्रकार का दान ( महादानम् ) महादान ( कर्तव्यः ) करते रहना चाहिए । कर्त्तव्यं भो सदानाथ रक्षणं च निजात्मनः त्वं सर्व सर्वदा दक्षो जानास्येव हिताहितम् ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ - ( भी ) हे (नाथ) नाथ ( सदा ) हमेशा ( स्वम् ) आप ( निजात्मनः ) अपनी आत्मा का रक्षण ( कर्त्तव्यम् ) करना चाहिए (च) और अधिक क्या कहूं आप ( सर्वम) सब कुछ ( हिताहितम) हित और अहित को ( सर्वदा ) हमेशा ( दक्ष : ) कुशल हैं (जानासि ) जानते ( एब ) ही हैं । भावार्थ - मदनसुन्दरी कहती है कि हे प्रीतम ! हे नाथ श्राप सर्व कार्य कुशल है । निरन्तर अपनी रक्षा का ध्यान रखें। हित और अहित के याप ज्ञाता हैं मैं क्या समझाऊं ? बराबर सावधानी से कार्य करें । धर्म का रक्षण न्याय का प्रवर्तन करते हुए अपना रक्षण करते रहें । यहाँ विशेष रूप में नारियों को शिक्षा लेना चाहिए। मैंना का आदर्श जीवन अनुकरणीय है । अपने देव तुल्य पति के प्रति कितनी भक्ति, प्रीति और ममता है तो भी उसे सन्मार्ग का उपदेश देती है । धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा करती है। वस्त्राभूषण की मांग नहीं करती। अपितु सतत् षट्कर्मों के पालन की प्रार्थना करती है। जिनेन्द्र पूजा श्री चतुवि संघ को चार प्रकार दानादि करने के लिए उत्साहित करती है । आजकल हमारी बहिन अपने पति के विदेश जाने पर उनसे उस उस देश की अनावश्यक वस्तुओं, गहने-कपड़े आदि की मांग करती हैं । यहाँ तक कि अपनी निजी वेष-भूषा को भूल कर अपने नेचुरल स्वाभा विक सौन्दर्य को नष्ट कर डालती हैं। फैशन परस्ती में पड़कर स्वयं ही धर्म-कर्म विहीन हो जाती हैं फिर पति को क्या धर्म मार्ग पर आरूढ करेंगी ? शील, संयम, चारित्र, सदाचार, लज्जा सहनशीलता नारी के आभूषरण हूँ सौन्दर्य के प्रसाधक हैं न कि बाल कटाना गौं है मुडाना, काली-पीली टीकी लगाना, ओठ रंगना आदि । ये तो और अधिक नैतिक जीवन के पतन के कारण हैं । अतः भारतोय ललताओं को मदनसुन्दरी जवन अनुकरणीय हैं ||२६|| पुनः मदनसुन्दरी अपना निश्चय स्पष्ट करती है Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] यत्ते निगद्यते नाथ तत्सत्यं श्रृण तादरात् । लोके कल्पतरो व्यक्त क्रियते तोरणापखम् ||३०|| वार्तामा निर्गतो मन्दिरात्तदा । इति वस्त्रप्रान्तं धृतं गाढं दन्त्या कान्तया तया ॥३१॥ अन्वयार्थ - (यत्) जो (ते) आपने ( निगद्यते ) कहा है ( नाथ ! ) हे नाथ ! (तत्) वह ( सत्यम ) सत्य है ( आदरात् ) प्रादर से (ऋण) सुनिये (लोक) संसार में ( कल्पतरोः ) कल्पवृक्ष का ( व्यक्तम् ) प्रकटो करण (तोरण) वन्तमाला ( अर्पणम ) अर्पण कर ( क्रियते ) किया जाता है। (इति) इस प्रकार ( यदा) जब ( प्रायः) पीडित जाया से (मुक्तः) श्रीपाल मुक्त हुआ ( तदा) तब ( मन्दिरात्) भवन से (निर्गतः ) निकलने लगा ( तदा) उस समय (तथा) उस ( रूदन्त्या) रोती हुयों कान्तया) पलिद्वारा ( वस्त्रप्रान्तम् ) उसके वस्त्र का पल्ला (गाढम् ) जोर से ( धृतम् ) पकड़ लिया गया । — भावार्थ — मैंनासुन्दरी ने कर्त्तव्याकर्त्तव्य का भान कराया। धैर्य पूर्वक पति देव की कल्याण भावना से गमनकाल में होने वाले शुभ कार्यों को किया । अर्थात् पाद प्रक्षालन, कङ्कणबन्धन, तिलकान, मङ्गल भारती, अक्षतादि क्षेपण कर अपने प्राणनाथ को विदाई दी । महाराज श्रीपाल भी वियोग-संयोग के झूले में झूलते पुनर्मिलन का आशादीप जलाये अपने महल से निकले । सहसा नारी का आर्तहृदय बांधतोड फूट पड़ा। मैंना सिसक उठी। वह अपने आवेश को रोक न सकी। अचानक उसने निर्गमन करते अपने पतिदेव का उत्तरीय वस्त्र जोर से पकड़ लिया और रूदन करने लगी। यह देख श्रीपालजी उसे धैर्य बंधाने के लिए बोले [२२१ श्रमङ्गलमिदं भद्रे मुञ्चमां गमनं क्षणे । तेनाक्त' सा जगा दैवं श्रृण त्वं प्राणवल्लभः ॥ ३२ ॥ प्रारणान् मुच्चामि किं या वस्त्रं ववात्र मे प्राक्षिप्य वसनं यासि यदा त्वं नासि सद्भटः ||३३|| अन्वयार्थ - - (भद्र ) हे कल्याणि ! (इदम्) यह ( गमनम् ) जाने के ( क्षणे ) समय में ( श्रमङ्गलम ) अमङ्गल है अतः (माम ) मुझको ( मुञ्च ) छोड़ो, इस प्रकार कहने पर ( तेन ) श्रीपाल के ( उक्तम) कहने पर (सा) मैना सुन्दरी ( जगाद ) बोली ( एवं ) इस प्रकार ( प्राणवल्लभ ) हे प्राणधार ! (त्वम् ) श्राप (ऋण) सुनिये (किम ) क्या ( पूर्व ) प्रथम (वस्त्रम ) वस्त्र ( मुञ्चामि ) त्यागू (किंवा ) श्रथवा ( प्राणान् ) प्राणों को (अत्र ) अब (मे) मुभे (द) कहिये, (यदा ) जब आप (वसनम ) वस्त्र को (आक्षिप्य ) छटक कर ( यासि ) जाते हो तो ( त्वम् ) आप (सद्भटः) उत्तम सुभट (न) नहीं ( असि ) हो । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद भावार्थ---श्रीपाल जो कहते हैं कि हे भद्रे ! कल्याणि ! आपका चलते समय वस्त्र पकड़ना मङ्गल का कारण है । अत: मुझे छोड़ो। इस प्रकार कहने पर मैनासुन्दरी कहने लगी हे नाथ मेरे वचन सुनिये, "आप ही कहिये इस प्रकार वस्त्र छ डाकर आपका जाना क्या वीरत्व है ? सच्चे ! सुभट को यह योग्य है क्या ? मैं पहले वस्त्र छोडू या अपने प्राण विसर्जन करूं पाप ही कहिये ? पुनः श्रोपाल कहने लगे – द्विषट् संवत्सर प्रान्ते यदा नायामि निश्चितम् । पाशा श्रीद्धिचक्रस्य निगोति विनिर्गतः ॥३४॥ अन्वयार्थ-हे देवि ! (द्विषट् ) बारह (संवत्सर) वर्ष (प्रान्ते ) अन्त में (यदा) जब (न) नहीं (आयामि) प्राजाता हूँ तो (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र की (आज्ञा) शपथ है (इति) इस प्रकार (निगद्य) कहकर (विनिर्गत:) चला गया। भावार्थ-मैंना सुन्दरी अति व्याकुल, अधीर देखकर श्रीपाल वचन बद्ध होता है। वह कहता है, हे प्रिये मैं सिद्धचक्र को साक्षी पूर्वक प्रतिज्ञा करता है कि बारह वर्ग के समाप्त होने के पूर्व ही आजाऊँगा । यदि नहीं आया तो सिद्धचक्र की शपथ का उल्लंघी हो जाऊँगा। इस प्रकार विश्वास दिलाकर वह वहां से निकल गया ।।३४।। पत्नी के यहाँ से माता के पास गया । नवा स्वमातरं प्राह भी मातस्ते प्रसादतः। गत्वा देशान्तरं शीघ्रमागमिष्यामि सद्धनम् ॥३५॥ अन्वयार्थ----श्रीपाल (स्व) अपनी (मातरम्) माता को (नत्वा) नमस्कार करके N. Jai ----- Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [ २२३ (प्राह) बोला (भो) हे (मातः) माँ (ते) आपके (प्रसादतः) प्रसाद से कृपा से (अहम) मैं (देशान्तरम् ) विदेश (गत्वा) जाकर (सद्धनम्) लक्ष्मी सहित (शीघ्रम्) जल्दी ही (आगमिष्यामि) आजाऊँगा। भावाथ प्रिया से विदा होकर श्रीपाल अपनी माता पास गया। विनय पूर्वक के चरणों में नमस्कार किया। भक्ति पूर्वक नमन कर बिनय से कहने लगा, हे मात मैं अापके पुनीत पाशीर्वाद से विदेश व्यापार के लिए जाना चाहता हूँ। वहां से शीघ्र धनोपार्जन कर वैभव सहित आऊँगा ।।३।। प्रावेशं वेहि मे शीघ्र गमनाथ महामते ! पूजा श्रीजिन सिद्धानां कर्त्तव्या च विशेषतः ॥३६॥ रक्षा बध्वाश्च ते मातः धर्मकर्म विदाम्बरे । धर्मध्यानेन दानेन कर्त्तव्यान्तोऽत्र मन्दिरे ॥३७॥ अन्वयार्ग-(महामते ! ) हे महाबुद्धिशालिनि ! (अत्र) यहाँ (मन्दिर) महल में (विशेषतः) विशेष रूप से (श्री जिन) श्री जिनेन्द्र भगवान की (च) और (सिद्धानाम्) सिद्धों को (पूजा) पूजा (कर्तव्या) करना चाहिए (मातः) हे मातेश्वरि ! (धर्मकर्मविदाम्बरे) हे धर्म कर्म करने में चतुर (धर्मध्यानेन ) धर्मध्यान पूर्वक (च) और (दानेन) दान करते हुए (ते) अापको (वध्वाः) बहूको (रक्षा) रक्षा (कर्तव्यान्तः) करते रहना । यही मेरी प्रार्थना है। भावार्थ:-श्रीपाल महाराज अपनी मातेश्वरी से विनय पूर्वक प्रार्थना कर रहे हैं। हे महाविदुषी, माते आप यहीं महलों में अपनी वधू के साथ विराजे। प्रतिदिन श्री जिनेन्द्रभगवान की पूजा करें, विशेषरूप से श्री सिद्धचक्र की पूजा, आराधना कर धर्म प्रभावना करती रहें। साथ ही अपनी बघ-मैंनासुन्दरी की रक्षा करें। उसे धैर्य बंधाकर धर्मध्यान, दान आदि कर्तब्यपालन करती हैं। क्यों कि आपके द्वारा किये गये पूजा-दानादि और सिद्धभक्ति के प्रसाद से मेरा कार्य भी निविध्न हो सकेगा। अत: आप सास बहू प्रेम, भक्ति से विराजे । मैं बारह वर्ष के अन्त तक नियम से आपका दर्शन करूंगा ॥३६-३७।। पुत्र वाक्य समाफण्यै सा सती कमलावती । मत्त्वा तन्निश्चितं चित्ते गमने चतुराशया ॥३॥ संजगाव सुतं पुत्र श्रण त्वं गुणमन्दिर। सर्वथा चेत् त्वया भद्र गन्तव्यं साम्प्रतं सुधीः ॥३६॥ अन्यायं--(चतुराशया) अभिप्राय समझने में चतुर (सा) उस (सती) शोलवती माता (कमलादती) कमलावती ने (पुत्र वाक्यम् ) पुत्र के वचन को (समाकर्ण्य) सुनकर Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] [ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद (चित्त) मन में ( गमने जाने के विषय में (तन ) वह ( निश्चितम् ) निश्चित है ऐसा ( मत्वा ) मानकर या समझकर ( सुतम् ) पुत्र के प्रति (संजगाद ) बोली (गुणमन्दिरे ! ) हे गुणसागर (पुत्र) बेटा ( त्वम् ) तुम (ऋण) सुनो ( सुधीः) हे बुद्धिमन् ( साम्प्रतम् ) इस समय ( त्वया ) तुम्हारा ( गन्तव्यम्) गमन ( सर्वथा ) पूर्णतः निश्चित ( चत् ) यदि है तो (त्वम् वण) तुम सुनो। स्मोसिस भक्तोऽसि जिनशासने । कि ते वाक्यं तथाप्युच्चर्मातुः स्नेहोवदत्ययम् ॥४०॥ श्रन्वयार्थ ( त्वम् ) तुम ( धर्म:) धर्मात्मा (प्रसि) हो ( शूरः ) महाभट ( असि ) हो ( जनणासने ) जिनशासन में ( भक्तः ) भक्तिवान (असि ) हो (ते) तुम्हें (वाक्यम् ) कहने को ( किम् ) क्या है ? ( तथाऽपि ) ऐसा होने पर भी (उच्च) विशेष ( मातुः ) माता का ( स्नेह : ) प्रेम (अयम ) यह (बदति ) कहता है। भावार्थ - श्रीपाल ने अपनी श्रद्धेया जननी से व्यापारार्थं गमन का निश्चय प्रकट किया । गमन की आज्ञा मांगी। माता ने शोक विह्वल होने पर प्रिय पुत्र का गमन निश्चय अवगत कर उसे रोकना उचित न समझा । वह हर एक लौकिक विधि-विधान की ज्ञाता थी। समयानुसार प्रवृत्ति करने में दक्ष थी । अतः कमलावती ने सम्यक् प्रकार समझ लिया कि इसका विचार पक्का है । तब उसने पुत्र के श्राशय के अनुसार उससे कहा, हे पुत्र तुम महा गुलन हो, नीति वान हो, धर्मज्ञ हो, श्रेष्ठ भटोत्तम हो, सदा जिनशासन के परमभक्त हो, हे भद्र ! यदि इस तुम्हारा जाना निश्चित ही है तो सुनो, यद्यपि उपर्युक्त प्रकार तुम सर्वगुरण, कला, विज्ञान, धर्मनात कुशल हो, तो भी मातृ हृदय का बात्सल्य स्रोत आपको कुछ कहना चाहता है माता का स्नेह इस समय मीन नही रह सकता। अतः मैं कुछ कहती हूँ । तुम तदनुसार प्रवृत्ति करना । अपना और धर्म का संरक्षण करते हुए विदेश में बिहार करना ।।३८, ३९, ४० ।। सर्वदा सर्वत्तेन सर्वकार्येषु सिद्धिदाः । समाराध्यास्त्वया चित्त े श्रीपञ्चपरमेष्ठिनः ॥ ४१ ॥ | अन्वयार्थ - - हे भद्र ! ( सर्वकार्येषु ) इहपरलोक सम्बन्धी सर्व कार्यों में (सिद्धिदा: ) सिद्धि देने वाले (श्री पञ्चपरमेष्ठिनः । पञ्चपरमेष्ठी भगवान (त्वया) तुम्हारे द्वारा (चित्त) चित्त में ( सर्वयत्नेन ) सर्व प्रकार प्रयत्नकर ( सर्वदा ) हमेशा ( समाराध्या ) आराधन-स्मरण करते रहना चाहिए । भावार्थ - शूर, वीर, धर्मात्मा पुत्र प्रसविनी सवित्री मां पुत्र को शिक्षा आदेश दे रही है, हे पुत्रक ! तुम परदेश में अपने कुल, वंश, जाति एवं धर्म की मर्यादा का उलंघन नहीं हो Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] [२२५ इसका ध्यान रखता । सम्पूर्ण कार्यों में सिद्धि प्रदाता पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान सतत करते रहना । प्रयत्नपूर्वक त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांचों परमेष्टियों की सतत् पूजा, भक्ति, आराधना, जप तपादि करते रहना ।।४१।। तथा — अहो पुत्र ! सदा कार्यं सर्वत्र जिनदर्शनम् । पाप संताप सन्दोह हुताशन घनाघनम् ॥४२॥ अन्वयार्थ - - ( ग्रहो ! ) हे ( पुत्र ! ) पुत्र ! (पाप) प्रशुभकर्मरूपी ( सन्ताप) दाह के (सन्दोह ) समूह रूपी ( हुताशन ) अग्नि को (घनाघनम् ) साद्र सघन मेघों के समान ( जिन(दर्शनम् ) जिनेन्द्र भगवान का दर्शन ( सर्वत्र ) सब जगह ( कार्यम ) करते रहना । भावार्थ – कमलावती कहती हे हे सुत्र ! तुम याद रखना श्री जिन भगवान का दर्शन सघन जलभरे बादलों के समान है। संसार पापरूपी संताप की ज्वालाओं से भरा है। अतः इस संसार पीडा से उत्पन्न सन्ताप की दाह को बुझाने में जिनदर्शन ही समर्थ हैं । जिनेन्द्रप्रभु के दर्शन करते हो पाप-ताप रूपी सुबक उसी भाग होते है जिसका मयूर आवाज सुनते ही चन्दनवृक्ष से लिपटे विशाल भुजङ्ग सर्प भाग खड़े होते हैं । अतः प्रियदर्शन ! तुम प्रयत्नपूर्वक नित्य प्रति जिनदर्शन अवश्य करते रहना । सर्वज्ञ, वीतराग भगवान के दर्शन से परमशान्ति प्राप्त होती है। दुःख, दारिद्र, घोर उपसर्गादि भी नष्ट हो जाते हैं । समस्त उपद्रव पूर्णत: नष्ट हो जाते हैं ॥४२॥ तथा पुत्र विधेयो हि स्व यत्नश्च विशेषतः । जले स्थले बनेऽरण्येपुरे राजकुलेषु च ॥४३॥ विश्वासो नैव कर्त्तव्यश्चार्वाकादिषुधीधनैः । कारेषु दुष्टेषु क्रूरेषु पशु जन्तुषु ||४४ || श्रन्वयार्थ - ( तथा ) इसी प्रकार ( पुत्र) हे सुत ! (हि) निश्चय से ( जले ) नद नदी सागर में (स्थले ) द्वीपादि में (वने) अटवियों में (च) और (अरण्ये ) भयानक जङ्गलों में ( पुरे ) शहरों में (त्र) और ( राजकुलेषु) रजवाडों मे (विशेषतः ) विशेषरूप से ( स्वयत्नम् ) अपनी बुद्धि का प्रयोग ( विधेयः ) रखना चाहिए। (च) और इसी प्रकार ( द्यूतकारेपु ) आडियों (दुष्टेषु) निर्दयी मीलादि (कू रेनू ) क्रूर सिंहादि, सर्पादि (पशु) पशुओं ( जन्तुषु ) विच्छ, सर्पादि तथा (घोधनैः ) बुद्धिमानों द्वारा ( चावकादिषु ) चार्वाक प्रादि सिद्धान्तियों (विश्वास) विश्वास (नेत्र) नहीं ( कर्त्तव्यः ) करना चाहिए । भावार्थ - माता कमलावती पुत्र को शिक्षा दे रही है । हे पुत्र जल में प्रवेश करते समय पूर्ण सावधानी रखना आवश्यक है। क्योंकि शोंधी तूफान, घडियालदि द्वारा उपद्रव की संभावना हो सकती है । द्वोपादि में प्रविष्ट होते समय भी सावधान रहना परमावश्यक है, ठग-लुटेरे आदि कष्ट दे सकते हैं। वन में अग्नि वस्यु, अन्धकार मार्गभ्रमादि से आपत्ति मा Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिकछेन्द सकता है । अरण्य पार करना भी हो सकता है उसमें पशु, मनुष्य, राक्षसादिकृत उपद्रव या सकते हैं। बड़े-बड़े शहरों में धर्मविहीन दास, दासियां, वेश्याएँ आदि प्रलोभक जनों के फन्दे में आने की संभावना हो सकती है। तुम्हें राजदरवारों में भी जाना होगा । राजाओं के अन्तःपुर में भी जाना हो सकता है, राजा रानियाँ अनेक प्रकार की सुशील दुःशील होती हैं । बहाँ अपने शील, संयम, धर्मरक्षण में सावधान रहना परमावश्यक है। हर समय अपनी कुलमर्यादा और धर्मरक्षण का ध्यान रखना आवश्यक है । इसी प्रकार हे गुण भूषण ! सुकुमार ! धर्मत ! तुम जना खेलने आनों दर्जनों चापलसों, निर्दयो धर्म-कर्म विहीन, चारित्रभ्रष्टजनों, क्रू र सिंह, व्याघ्रादि पशुओं, शींगवाले पशुओं, सर्प, भुजङ्ग विच्छ आदि जन्तुनों का कभी भी विश्वास नहीं करना । इनसे हमेशा दूर, बचकर रहना । क्योंकि ये प्राणघातक भी हो सकते हैं, कष्ट दायक भी । चुप-चाप शान्त बैठे हों तो भी अचानक हमला बार बैठते हैं। सोते भी हों तो भी इनको लांचना या छेड़ना नहीं चाहिए। जगाना नहीं चाहिए । निरन्तर इनसे बचकर ही रहना चाहिए। . इत्यादिकं भरिपत्वा च माता साश्रु विलोचना । तं समालिङ्गय गन्धाविधाय तिलकं शुभम् ॥४५॥ अन्धयार्थ— (इत्यादिकम् ) उपर्युक्त प्रकार अनेक शिक्षा (भगित्या) कहकर (साश्रु) अथपुरित (लोचना) नयनों वाला (पाता) माता ने (तम् ) उसको-श्रीपाल को (समालिङग्य) हृदय से पालिङ्गणकर (च) और (गन्धाद्य:) कुकुम आदि लेकर (शुभम् ) उत्तम मांगलिक (तिलकम) तिलक (विधाय) लगाकर।। दध्यक्षतादिकं क्षिप्त्वा मस्तके शुभवर्शने । भूयात ते दर्शनं शोघ्र समुवाच वचो हितम् ।।४६॥ अन्वयार्थ -(दधि) दही (अक्षतादिकम् ) सफेद चावल, सरसों आदि (मस्तके मस्तक पर (क्षिप्त्वा) क्षेपण कर (शुभदर्शने) है शुभ-सौम्वदर्शने (शीघ्रम् ) जल्दी ही (ने) तुम्हारा (दर्शनम् ) दर्शन, मिलन (भूयात् ) हो इस प्रकार (हितम ) हितकारी (वच:) बचन (समुवाच) बोली-कहे। भावार्थ-उपर्युक्त प्रकार अनेकों शुभ, उत्तम, आत्महितकारी, कल्याणकारी शिक्षाएँ माता ने ग्राने पुत्र को दी। विदुषी, धर्मात्मा उभय कुल कमल विकास करने वाली ही सच्ची माता होती है । जो अपने पुत्र का सर्वाङ्गीण विकास और सारभूत अभ्युदय चाहती है। दोनों लोक की हितेच्छ होती है वही मां अपनी संतान को न्यायोपाजित धन के साथ गुणी, यशस्वी धर्मात्मा, संयमी और सच्चरित्र देखना चाहती है । दुर्जनों की सङ्गति से बचाती है और सत्पुरुषों के साथ सहबारा कराता है । अतएव कमलावती ने भी हराएक प्रकार से अपने एकमात्र पुत्र को सर्व प्रकार सावधान कर दिया । यद्यपि मातृस्नेह के ब्रांध को दृढ़ता से भो रोक न सकी । प्रेमाश्रुओं से विगलित लोचनों से प्यारे पुत्र को निहारा । मंगलकारी शुभ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] [ २२७ अक्षत, कुकुम, सर्षप, जल, दूर्वा, दीप, दही, धनिया, लावा-खील, पुष्प आदि लेकर प्रथम उसके दैदीय भाल पर तिल कार्चन किया, तिलक लगाकर अक्षत आदि शिर पर क्षेपण किये, दधि आदि मुग्स में खिलाया और शुभ हितकारी वचन कह "शीघ्र ही तुम्हारा दर्शन हो ।' इस प्रकार आशीर्वाद दिया ।।४५-४६।। एवं विसर्जितो मात्रा सोऽपि नत्वा पुनश्चताम् । नमः सिद्धेभ्यः इत्युच्च णित्या निर्ययौगृहात् ॥४७॥ प्रन्वयार्थ - (एवम.) इस प्रकार (स) वह श्रीपाल (अपि) भी (मात्रा) माता द्वारा (विसजितः) विदा होकर (च) और (पुनः) फिर से (ताम ) माता को (नरवा) नमस्कार करके (नमःसिद्धेभ्यः) "सिद्धों को नमस्कार हो" (इति) इस प्रकार (उच्च:) भक्ति से (भणित्वा) उच्चारण कर (गृहात्) घर से (निर्ययो) निकल गया । भावार्थ-माता का उपदेश सुनकर, उपयुक्त प्रकार अनुमति प्राप्त कर पुन: नमस्कार किया । पूज्य मातेश्वरी से विदा होने पर "नमः सिद्धेभ्यः" इस प्रकार उच्चारण कर घर में निकल गया। प्रयाण बेला में इष्टदेव को नमस्कार करने से कार्य में निर्विघ्न सिद्धि होती है। संकट आते नहीं है। आपत्तियां दर हो जाती है। सर्व कार्य सानन्द सिद्ध होते हैं । अतः नीति कुशन श्रीपाल अपने इष्ट सिद्ध परमेष्ठो का नाम उच्चारण कर उन्हें नमस्कार कर व्यापारार्थ घर से निकला ।।४।। स श्रीपालस्तदा मार्गे संत्रजन् पुण्य सम्बलः । नाना पुराकर ग्रामानाना दुर्गादिकान् क्रमात् ।।४।। अन्वयार्थ-पुण्य) शुभकर्म है (सम्बल:) अाधार जिसका (स) वह (श्रीपालः) श्रीपाल (मार्गे) राह में (संत्रजन् ) प्रयाण करता हुआ (नाना) अनेक (पुराः) नगर (आकर) सागर (ग्रामात् ) गांवों से (नाना) अनेकों (दुर्गादिकान्) किले आदि को (क्रमान्) कमसे स्मरन् पञ्चनमस्कारान् संसाराम्भोधि पारवान् । भगुकच्छ पुरं प्राप दिनैः कश्चित्पराक्रमी ॥४६॥ अन्वयार्थ (संसाराम्भोधिः) संसार सागर (पारदान) पार करने वाले (पञ्चनमस्कारान्) पञ्चपरमेष्टी वाचक णमोकार मन्त्र को (स्मरन्) स्मरण करता हुना (कश्चित् ) कुछ (दिन:) दिनों में (पराक्रमी) वह वीर श्रीपाल (भृगुकच्छपुरम् ) भगुकच्छनामक नगर में (प्रायः) पहुँचा ।।४।। भावार्थ-प्रियपत्नी और मातेश्वरी से विदा होकर शुभदिन, लग्न और मुहूर्त में श्रीपाद राजा "नमःसिद्धेभ्यः" उच्चारण कर चल पड़ा। वह वीर अकेला ही आत्मविश्वास से Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिक्छेद चला । मात्र उसका आधार उसो का पुण्य था। निजपुण्य का पाथेय लेकर निर्भर सुभट एकाको भ्रमण करने लगा। परन्तु निरन्तर पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान, चिन्तन करता रहता था। गमोकार महामन्त्र को कभी नहीं छोड़ा। छोड़ता भी कैसे-वयों? क्योंकि भव्यजीवों को संसार उदाधिस पार करने वाला यहीं तो एकमात्र महामन्त्र है। महाराज काटीभट श्रोपाल ने इसी महामन्त्र का सहारा लेकर मार्ग में जाते हए अनेकों नगरों, पर्वतों, ग्रामो, वनों, किलो, स्वाइयों अटवियों आदि को निर्भय पार कर लिया । कुछ ही दिनों में वह शूर शिरोमणि, वीराग्रणी भृगुकच्छ नामके पुर में जा पहुँचा ।।४६ ।। तत्रास्ति धवलः श्रेष्ठी भूरिवित्त समन्वितः । सानिमलतारमोच्न पालागि सन्ति च ।।५०॥ अन्वयार्य--(तत्र) उस भृगुकच्छपुर में (भूरि) बहुत (वित्त) धन (समन्वितः) से युक्त (धवलः) धवल नाम का (श्रेष्ठी) सेठ (अस्ति) है (तस्य) उस के ही (च) और (उच्चैः) विशाल (पञ्च) पाँच (शतानि ) सौ (यानपात्राणि) जहाज (सन्ति ) हैं। भावार्थ-उस भगुकच्छ नगर में पहुंचा । वहाँ श्रीपाल ने घबल नाम के श्रेष्ठी को पाया । वह अत्यन्त धनाढ्य था । उत्तम व्यापारी था । उसके पास में र नद्वीप को जाने वाले ५०० विशाल जहाज थे। उनके द्वारा वह व्यापारार्थ जाता था ।।५।। तदा तस्य च ते पोताश्चलितास्सुभटैरपि । सागरेन सरन्तिस्म विपुण्या वा मनोरथाः॥५१॥ अन्वयार्थ—(तदा) उसी दिन (तस्य) उस धवल के (ते) वे (पोताः) जहाज (च) और (सुभटैः) सुभट (अपि) भी (सागरेन) जलधिमार्ग से (सरन्ति) चलरहे (स्म) थे (वा) मानों (विपुण्या) पुण्यहीन के (मनोरथाः) मना रथों के समूह हों। भावार्थ-जिस दिन श्रीपाल कोटिभट वहाँ पहुँचा, उसी दिन उस धवल सेठ के ५०० जहाज उदधि मार्ग से व्यापारार्थ चले । परन्तु उनके मनसूबे पापियों के मनोरथों के समान निष्फल थे । पुण्यहीनों की भला कार्य सिद्धि कहाँ ? प्रस्थान करते ही समस्त जहाज वहीं अटक गये । अनेकों प्रयत्न करने पर भी टस से मस नहीं हुए। इस आश्चर्यकारी घटना को देख धवल सेठ के होश-हवाश उड़ गये क्या करे ? क्या नहीं करे ।।५।। स श्रेष्ठी धवलाक्षस्तु व्याकुलो विस्मयात्वितः । नमित्तिकं प्रति प्राह किमेतदिति भो सुधीः ॥५२।। अन्वयार्थ--(स) वह (श्रेष्ठी) सेठ (धबलाक्षः) धवलनामक (विस्मयान्वतः) आश्चर्यचकित हो (व्याकुलो) आतुर (अस्तु) हो गया (नैमित्तिकम् ) निमित्त ज्ञानी से Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपर श्रीपाल अपनी मातेश्वरी एवं पत्नि से विदा लेकर प्रस्थान करते हुए । नोचे - धवल सेठ जहाज कोलित होने पर निमित्त जातो से पूछते हुए । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -:-... . .. .. " ANDAR SNirahim..... म . H . HERE धापान ने भी मारया न कर ग हो जहाज का जहाज चलप: । । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] [२२३ (प्रा) बोला (भा) है ( सुधीः ) बुद्धिमन् (तत्) यह (किम् ) क्या है (इति) निदान, कारण कहो । भावार्थ- सहसा धवल श्रेष्ठी के जहाज कोलित हो गये । जब किसी प्रकार नहीं चल सके तो उसे परमाश्च हुआ । उसका धैर्य छूट गया । वह आकुल व्याकुल हो उठा । उसो समय उसने निमित्तज्ञानी को बुलाया और कारण के साथ उपाय भी पूछा ।१५२।। नैमित्तिकेन तेनोक्त हात्रिगल्लक्षणो नरः । करिष्यति करस्पर्श वजिष्यन्ति तवैवामी ॥ ५३ ॥ अन्वयार्थ ( तेन) उस (नैमित्तिकेन) निमित्तज्ञानी ने ( उक्तम् ) कहा कि ( द्वात्रिशल्लक्षण: ) बत्तीस लक्षण सम्पन्न ( नरः ) मनुष्य ( कर: ) हाथ से ( स्पर्शम ) स्पर्श ( करिष्यति ) करेगा ( तदा) तव (एव) ही (श्रमी ) ये जहाज ( वजिष्यन्ति ) चलेंगे । भावार्थ- विचार कर निमित्तज्ञानी ने बतलाया कि "जिस समय कोई वीर सुभग ३२ (बत्तीस ) लक्षणों से युक्त यहां आकर अपने कर कमलों से छयेगा तभी मे जहाज चलेंगे | अन्यथा नहीं || ५३ ॥ तदाकये च स श्रेष्ठी तं विलोकयितुं नरान् । प्रेषयामास सर्वत्र सादरं कार्य संभ्रमी ।।५४।। श्रन्वयार्थ ( तदा) तब (ग्राकर्ण्य ) नैमित की बात सुनकर (स) उस (ष्ठी) सेठ ने ( कार्य ) काम ( संभ्रमो ) शोध करने का (त) उस ३२ लक्षण वाले पुरुष को ( विलोकयितुम् ) देखने के लिए ( सर्वत्र ) सब जगह ( साक्षरम् ) आदर से ( नरान् ) मनुष्यों को ( प्रेषयामास ) भेज दिया । भावार्थ अकस्मात् धवलसेठ के जहाज अटक गये । उसके श्राश्वर्य की सीमा न रही । उसने उसी क्षण निमित्तज्ञानी को बुलाया और कारण पूछा तथा जहाजों के चलाने का उपाय भी पूंछा । निमित्तिक ने उत्तर में कहा "कोई ३२ शुभलक्षण युक्त पुरुष अपने हाथ से इन जहाजों का स्पर्श करेगा तभी वे चलेंगे ।" यह सुनते ही शीघ्र कार्य करने की अभिलाषा से सेठ ने श्रादर पूर्वक चारों और अन्वेषकों को प्रस्थान करने का आदेश दिया || ५४ ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद पुण्याच्च ते तवा वीक्ष्य श्रीपालं स्वगुणोज्वलम् । पुरप्रदेशमायान्तं पश्यन्तं पुरजां श्रियम् ॥५५॥ मत्त्वनं त्वीरशं भव्य कोटिभट शिरोमरिणम् । निधानमिव सड्.कृष्टास्सं प्रणम्य पुनः पुनः ॥५६॥ गत्वा महाग्रहं शीघ्र तमानीययुस्तदन्तिकम् । द्वात्रिंशल्लक्षणोपेतं तं विलोक्य च सुन्दरम् ॥५७॥त्रिकुलम्।। अन्वयार्य-(ते) वे खोजने वाले (पुण्यात्) पुण्ययोग से (तदा) तब (पुर प्रदेशम्) नगर में (प्रायान्तम् ) प्राते हुए, (पुरजाम्) नगरोत्पन्न (श्रियम्) शोभा को (पश्यन्तम् ) देखने वाले (स्व) .अपने (गुणोज्वलम् ) उत्तम गुणों से उज्वल (श्रीपालम) श्रीपाल को (वीक्ष्य) देखकर (एनम ) इसको (कोटिभटः) कोटिभट (शरोमणिः) श्रेष्ठ (भव्यः) भव्य (तु) निश्चय ही (इदशम ) इस प्रकार होवे (इति) इस प्रकार (मत्वा) निश्चय कर, मानकर (निधानम ) निधि (इव) समान (सङ कृण्टा) प्राकर्षित हो (गत्वा)जाकर (पुनः पुन:) बार-बार (सम्प्रणम्य) सम्यक् नमस्कार करके (महा) अत्यन्त (आग्रहम ) अाग्रह से (तम् ) उसे ('द्वात्रिंशत्) बत्तीस (लक्षणाः ) लक्षण (उपेतः) सहित (च) और (सुन्दरम्) सौम्य आकृति (विलोक्य) देख कर (तद्) उस धवल के (अन्तिकम्) पास (पानोपुः) लेकर आये ।।५५-५६-५७।। भावार्थ -धवल सेठ द्वारा प्रेषित अन्वेषण करने वाले इधर-उधर दौड़े । पुण्ययोग से उसी समय श्रीपाल कोटिभट ने उस नगर में प्रवेश किया । उसे यह पुर' अद्भत लगा। शनैः शनै: नगर की शोभा बिलोकने लगा । वह अपने निर्मल गुरगों से शोभायमान था। उसका रूप सौन्दर्य अनुपम था। वह नगर की शोभा देख रहा था और नगर निवासी इसकी रूप राशि निहार रहे थे। उसी समय धवलसेठ के सेवकों की दृष्टि इस पर पड़ी । उनके अपलक नयन इसे देखते ही रह गये उन्होंने इसे बत्तीस लक्षणों युक्त देखकर समझ लिया इस प्रकार का व्यक्ति अवश्य ही कोटिभट शिरोमणि होना चाहिए । यही हमारे कार्य के योग्य हो सकता है। मानों निधन को खजाना मिला या अन्धे को आंखे प्राप्त हुयीं । दे वेग से उस महान निधि स्वरूप परदेशी के पास आ पहुँचे । अत्यन्त सम्मान से उसे बार-बार नमस्कार किया। अपने Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरिय चतुर्थ परिच्छेद] [२३१ स्वामी के पास आने का आग्रह किया। श्रीपाल ने सोचा यहाँ अपना तो कोई है नहीं, जानपहचान भी नहीं । ये आग्रह कर रहे हैं तो क्यों न चला जाय ? तैयार हो गया । वे लोग भी उस सुमनोज्ञ नरोत्तम को लेकर धवल सेठ के पास आये । सेठ भी उस महापुरुष, सज्जनाकृति देखकर प्रसन्न हुआ ।।५५-५६-५७।। ताम्बलासन सद्वस्त्रैः श्रेष्ठी सन्मान्य सञ्जगौं । अहो त्वं दृश्यसे कोऽपि महानत्र महीतले ॥५६॥ अन्वयार्थ - (श्रेष्ठी धवल सेठ ने (आसन) बैठने को आसन (ताम्बूल) पानसुरारी, (सद्) उत्तम (वस्त्र:) वस्त्रों द्वारा (सन्मान्य) सम्मान कर (सजगा) बोला (अहो) हे भद्र (त्वम् ) आप (अत्र) यहाँ (महीतले) भूलोक में (क:) कोई (अपि) भी (महान् ) महापुरुष (दृश्यसे) दिखलाई पड़ते हो । भावार्थ--घवल सेठ ने उस श्रीपाल का अत्यन्त सत्कार किया । आदर से उसे बैठने को योग्य आसन प्रदान किया । योग्य सुन्दर वस्त्र, अलङ्कार आदि प्रदत्त कर भोजन करा पान-सुपारी, इलायची, लवङ्गादि प्रदान को । तथा बोला, हे मनोज ! पुरुषोत्तम आप भूमण्डल पर कोई महापुरुष प्रतीत होते हैं । आप गुणज्ञ और अति सुभग हैं ।।५।। पोतान् समुद्र तीरस्थाश्चालय त्वं सुधीर्मम् । चालयामि भणित्त्वेति श्रीपालस्सुमहोत्सवैः ॥५६॥ शमेदिने शुभे लग्ने समभ्यर्च्य जिनेश्वरान् । स्मृत्वा पञ्चनमस्कारान सर्वसिद्धि विधायकान् ॥६०।। सिद्धेभ्योऽपि पुनर्नवा यावत्संस्तुत्य पाणिना। पोतान् हंकार नादेन चालितो भट सत्तमः ॥६॥त्रिकुलम् अन्वयार्थ (सुधीः) हे बुद्धिमन् (त्वम्) श्राप (समुद्रतीरस्थान ) समुद्र के किनारे स्थिर (मम) मेरे (पोवान्) जहाजों को । चालय) चलाओ (श्रीपाल:) श्रीपाल बोला (सुमहोत्सर्वः) महा उत्सव पूर्वक (चाल यामि) चलाता है (इति) इस प्रकार (भग्गित्वा) कहकर (जिनेश्वरान) जिनेन्द्र भगवान को (समभ्यय) भावपूर्वक पूजकर (सर्व) सम्पुर्ण (मिद्धि। शिद्धियों को (विधायकान्) देने वाले (पञ्चनमस्कागन् पञ्चपरमेष्टियों को (स्मृत्वा ) स्मरण करके (शुभदिने) शुभ दिन (शुभे लग्ने) शुभ लग्न में (पुतः) फिर से (अभि) भी (सिद्धेभ्यः) सिद्धों के लिए (नत्वा ) नमस्कार करके (संस्तुन्य) स्तुति करके (यावत) जैसे ही (भट:) बीर (सत्तमः) महासुभट श्रीपाल (पाणिना) हाथों से स्पर्श करता है कि (हार) हुं हूं इस प्रकार शब्द के साथ (चालिताः) चला दिये। भावार्थ--धबल सेठ ने श्रीपाल का अत्यन्त स्वागत किया । भोजन-पान कराया। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] - [ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद सम्मान पूर्वक आसनारूड किया । तदनन्तर अपना अभिप्राय प्रकट किया। वह बोला, हे पुरुषोत्तम ! मेरे जहाज समुद्र किनारे पर अकस्मात् कीलित हो गये हैं। अकारण इस घटना से मैं प्रवीर हूँ । कृपया आप मेरे जहाजों को चलाने की कृपा करें। श्रीपाल ने भी विनम्रता से उत्तर दिशा ठीक है "मैं चलाता हूँ ।" इस प्रकार कहकर वह स्नानादिकर, शुद्धवस्त्र धारण कर पूजा सामग्री लेकर श्री जिनालय में गया । अत्यन्त भक्ति से श्री जिनराज की अभिषेक पूर्वक पूजा की। दुष्कर्म विनाशक, सर्व सिद्धि दायक श्री पञ्चपरमेष्ठी को नमस्कार कर, एकाग्रचित्त से स्तुति की, स्मरण-ध्यान किया। पुनः सागरतट पर आया । अटके जहाजों को देखा, पुनः सिद्धों का ध्यान कर नमस्कार किया, स्तुति की और अपने हाथों को "हंकार " शब्द के साथ लगाया । कर स्पर्श होते ही चारों ओर "हूं हूं" शब्द गूंज उठा जहाज चल पड़े | आनन्द की लहर दौड़ पड़ी। जिन-सिद्ध, पूजा, का चमत्कार प्रत्यक्ष साकार हो उठा । वस्तुतः जिनभक्ति में अनन्तशक्ति है । असाध्य कार्य भी क्षणमात्र में इस सिद्धभक्ति से सरलता से सिद्ध हो जाते हैं । सिद्ध परमेष्ठी ही ऐसे हैं नहीं है प्रसिद्ध जिन्हें कुछ भी वे हैं "सिद्ध" । उनका ध्यान करने वाला भी अपने कार्य में सफल ही होता है। कभी भी विफल नहीं हो सकता । जिनभक्ति भी विजय दायिनी है। भक्ति यथार्थ हो तो सर्वत्र 'जय' ही 'जय' प्राप्त होती है | यह श्रीपाल कोटिस्ट ने सर्वत्र प्रत्यक्ष कर दिखाया ।।५६ - ६० - ६१॥ तदातन्नादतश्शीघ्र पोतस्था: क्षुद्रदेवताः । नष्टाः श्रीपाल पुण्येन सुपुण्येन इव च ईतयः ॥ ६२ ॥ प्रत्ययार्थ - ( तदा ) श्रीपाल के हाथ से स्पर्श करते हो ( श्रीपाल पुण्येन ) श्रीपाल के दुध से ( पोतस्था:) जहाजों में स्थित रहने वाले (क्षुद्रदेवता: ) दुष्ट देवतागण ( तत् ) उस ( नादतः ) हंकार नाद से (शीघ्रम) शोध हो (लष्टाः ) नष्ट हो गये ( इव) जिस प्रकार ( सुपुण्येन) श्रेष्ठ पुण्य से ( इतयः ) ईति, भोति आदि व्याधियां नष्ट हो जाती हैं । भावार्थ - जिन दुष्ट, क्रूर और शुद्ध मिथ्यादृष्टि देवों में जहाजों को कीलित कर रक्खा था । वे सारे दुर्जन श्रीपाल के पुण्य से 'हूंकार' नाद सुनते ही भाग खड़े हुए। ठीक ही है सूर्योदय होते ही क्या अन्धकार टिक सकता है ? सम्यक्त्व के समक्ष मिथ्यात्व का निवास कहाँ ? नहीं रहता 1 आचार्य कहते हैं कि सातिशायी पुण्य जहाँ रहता है वहां ईतियाँ, व्याधियां पवाद नहीं टिकते। ईतियां सात प्रकार की होती हैं। कहा भी है ( अतिवृष्टिरनावृष्टिभूषकाः शलभाः शुकाः । प्रत्यासन्नाश्च राजानः पडेत इतयः स्मृता अर्थात् १. अतिवृष्टि (आवश्यकता से अधिक वर्षा होना) २. अनावृष्टिः ( आज श्यकता से कम वर्षा या प्रभाव होना ) ३. मूषका: ( अधिक चूहों से प्लेग आदि रोग फैलना ) 1 ४. शलभा ( टिड्डोदल आना) ५. शुकाः (तोतों द्वारा-बेती का नाज ) ६. प्रत्यासन्नाः ( अकस्मात् उपद्रव हो जाना) ७. राजानः ( राजाओं द्वारा हमला, आदि । ये सात प्रकार की तयां कहलाती हैं। ये पुण्यात्मा जीवों को नहीं सताती हैं । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] तथा तत्स्पर्शमात्रेण पोतास्ते जलधौ जवात् । प्रचेलुः परमानन्दं कुर्यन्तस्सज्जना यथा ॥६३।। अन्वयार्थ -(लथा) उस समय (तत्) श्रीपाल के (स्पर्शमात्रेण) स्पर्श करने से ही (ते) वे (पोता:) जहाज (जलधी) उदधि में (जवात्) वेग से (प्रचेलुः) चल दिये (यथा) जैसे (सज्जनाः) सत्पुरुष (परमानन्दम्) परम आनन्द को (कुर्वन्ता:) करने वाले होते हैं। भावार्थ-पुण्यशाली श्रीपाल ने अपने कोमल सुदृढ़ कर से स्पर्श करते ही उन अचलयानों का चलायमान कर दिय। । यति सागर को असाल तरङ्गों के साथ क्रीडा करते हुए वे जहाज वेग से चलने लगे । आनन्द का सागर उमड़ पड़ा। सभी आश्चर्यकारी घटना से चकित तो हुए हो, उनके हर्ष की भी सीमा नहीं रही। सत्य ही है सज्जनों को सङ्गति किस के लिए परमानन्दकारिणी नहीं होती ? अपितु होती है । इसी प्रकार यशस्वी श्रीपाल के सहयोग से धवल सेठ और उसके साथी परमानन्द को प्राप्त हुए ।। ६३।। अहो पुण्यस्य महात्म्यं महतां केन वर्ण्य ते । यत् करस्पर्शमात्रेण दुस्साध्यमपिसिद्धयति ।।६४॥ अन्वयार्थ---(अहो) आश्चर्य है (पुण्यस्य) पुण्य की (माहात्म्यम ) महिमा (केम) किन (महताम) महात्मानों से (वर्ण्यते) वर्णित हो सकती है ? (यत्) जो कि (दुस्साध्यम्) कठिनसाध्य (अपि) भी कार्य (करस्पर्शमात्रेण) हाथ के द्वारा छू ने मात्र से ही सिद्ध हो गया। भावार्थ- आचार्य कहते हैं कि पुण्य का महात्म्य अदभुत है। इसकी महिमा महात्मा भी वर्णन करने में समर्थ नहीं हो सकते साधारण जन की तो बात ही क्या है ? असाध्य भी कार्य साध्य हो जाता है। अभिप्राय है कि हर एक प्राणी को पुण्यार्जन करना चाहिए । पुण्यात्मा के संकट टल जाते हैं । कार्य सरलता से पूर्ण हो जाते हैं ।।६४।। तरन्ते जलधौ पोता ध्वजवातैश्च रेजिरे । श्रीपालस्य यशो लक्ष्मीनन्दना साधना यथा ॥६५॥ अन्वयार्थ—(च) और (जलधौ) समुद्र में (पोता) जहाज (ध्वजव्रातः ध्वजारों के समूहों से युक्त (तरन्ते) तैरती हुयी (रेजिरे) शोभायमान हुयी (यथा; जैसे, मानों (श्रीपालस्य) श्रीपाल का (यशः) यश (लक्ष्मीनन्दनासाधना) लक्ष्मी को प्रसन्न करने वाली साधना हो। भावार्थ-..सागर के अगाध जल में जहाज तैरने लगे-चलने लगे। उन पर लगी हयीं अनेकों पताकाएँ पबन झकोरों से फहराने लगीं। ऐसा प्रतीत होता था मानों श्रीपाल का यश लक्ष्मी देवी को प्रसन्न करने जा रहा है। कुबेर के वैभव की मानो साधना ही कर रहा हो ।।६।। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिमोद तत्प्रभावं समालोक्य श्रेष्ठी हृष्टो जगाद तम् । त्वं भो वीर ! महाख्यातो लक्षणः पौरुषेण च ॥६६॥ अन्वयार्थ--(तत्प्रभावम् उस श्रीपाल के प्रभाव को (समालोक्य ) देखकर (हृथ्ट :) प्रसन्न (श्रेष्ठी) धवल सेठ (तम) श्रीपाल से (जगाद) बोला (भो) हे (वीर ! ) सुभाशिरोमरिण (त्वम्) आप (लक्षण: शुभलक्षणों से (च) और (पौरुषेण) उत्तम पुरुषार्थ मे (महात्यात:) महान विख्यात हैं। सत्यं त्वं क्षत्रियोत्पन्नो महासुभट शिरोमणिः । सर्व कार्य सहस्रेषु शूरोप्याहतु मां महान् ।।६७।। अन्वयार्थ – (सत्यम्) वास्तव । (त्वम्) आप (महासुभटः) महाबीर के ( शिरोमणि:) अग्रेसर (क्षत्रियोत्पन्न:) क्षत्रियवंश में उत्पन्न होने वाले हो, (सर्वकार्येसहस्रषु) सम्पूर्ग हजारों कार्यों में (शूरः) बोरगी भी (, मुमन बर्तुम् पुष्ट करने को (महान्) महान हो। त्वं मे पुत्र समो धीमन् मया सह समागच्छसाम्प्रतम् । यत्त भ्यं रोचते चित्त तत्त दास्यामि निश्चितम् ॥६॥ अन्वयार्य - (धीभन्) हे बुद्धिमन् (त्वम्) आप (मे) मेरे (पुत्र) बेटा (सम) समान हो (साम्प्रतम्) इस समय (मया) मेरे (सह) साथ (समागच्छ) आइये (यत्) जो - (तुभ्यम् ) तुम्हारे लिए (चित्तं ) मन में (रोचते) अच्छा लगेगा (तत्) वही (ते) तुम्हें (निश्चितम्) निश्चय से (दास्यामि) दूंगा। भावार्थ---श्रीपाल के इस अद्ध त प्रभाव को देखकर धवल सेठ हर्ष में प्रफुल्ल हो गया । उसका हृदय उछलने लगा । बह प्रसन्न चित्त हो श्रीपाल से कहने लगा पाप अपने शुभलक्षणों और उत्तम पुरुषार्थ से महा विख्यात मालूम होते है। निश्चय हो या सभटशिरोमणि, क्षत्रिगपूत्र हो । मैं हजारों कार्यों में निधरणात हूँ परन्तु आपने मुझे भी परास्त किया है। मेरे आकर्षण के पाप केन्द्रबिन्दु हैं । मैं आपसे अत्यन्त प्रसन्न और प्रभावित हूँ। पाप प्राज से मेरे लिए पुश्रवत् हो । अब पाप मेरे ही साथ व्यापारार्थ पाइये । प्राप जो चाहेंगे मैं वही आपको प्रदान करूंगा । आप महान बुद्धिशाली, गुणज्ञ, धर्मात्मा और वीर हैं । शुरशिरोमरिण ! आप अवश्य ही मेरे साथ चलें ।।६।। . Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद] [२३५ अस्त्येवं प्रतिपद्योच्चैः श्रेष्ठिवाक्यं भटोत्तमः। सार्ध तेन समारुह्य श्रीपालश्चालितो मुदा ॥६६॥ अन्वयार्थ—(श्रेष्ठीवावयम् ) धवल सेठ के वाषयों पर(उच्चैः) पूर्णतः (प्रतिपद्य:) विश्वस्त हो (भटोत्तमः) बीराग्रणी श्रीपाल ने (एवं) इसी प्रकार (अस्तु) हो, (मुदा) प्रसन्न (धीपाल.) श्रीपाल (ग) उसके साथ साथ (समारुह्य) जहाज में प्रारूढ हो (चालितः) चल दिया। भावार्थ-धबल सेठ का प्राग्रह देखकर श्रीपाल भी विश्वस्त हो गया। उसने स्वीकृति प्रदान की । उस वीर शिरोमणि ने आनन्द से धवल सेठ के साथ जहाज पर आरोहण किया । अर्थात् उसके साथ चल दिया ।। ६६ ।। नानावस्तु सहस्राणि समादाय प्रहर्षतः। अनेकणिजां पुत्ररनेकर्भट सत्तम, ॥७०॥ अन्वयार्थ- (सहस्राणि) हजारों (नाना) अनेक प्रकार की (बस्तु) वस्तुएँ (समादाय) लेकर (प्रहर्पतः) प्रानन्द से (अनेकैः) अनेकों (वाणिजाम् ) व्यापारियों के (पुत्रः) पुत्रों के (अनेकः) अनेकों (भटसत्तमैः) उत्तम सुभटों के साथ तथा-- प्रोतुङ्ग कुप्य वस्त्राधमहारक्षकनायकैः । शस्त्रयादित्र संघातश्चालितौ सुखतश्च तौ ॥७१॥ अन्वयार्थ - (प्रोत्तुङ्ग) उन्नत (महारक्षक ) विद्वान रक्षा करने वाले (नायक:) नेता, (कुष्यवस्त्राय:) नाना जाति के वस्त्र (शस्त्र) हथियार (वादित्र) बाजे प्रादि (च) और भी सामान ले (तो) वे दोनों (सुलतः) सुखपूर्वक (चालितौ) चले । भावार्य- महान योग्य रक्षक नायकों, वस्त्र, पात्र, शस्त्र-अस्त्र यादि अनेक प्रकार की अनेकों सामग्रियों को संग्रहीत कर वे दोनों सुख पूर्वक व्यापारार्य चल दिये ।।०१।। गच्छन्तस्ते प्रपश्यन्ति दिशिकेचिच्च तारकम् । कोचिज्जल प्रमायणंच ब्र वन्ति स्म भटोत्तमाः ॥७२॥ अन्वयार्थ-(ते) वे लोग (गच्छन्तः) जाते हुए (केचित्) कोई (दिशि) दिशाओं में (तारकम् ) ताराओं को (प्रपश्यन्ति) देख रहे हैं (च) और (के चित्) कोई (भटोत्तमाः) भट श्रेष्ठ (जलप्रमाणम् ) नीर के प्रमाण को (ब्र बन्तिस्म) कह रहा था-वर्णन कर रहा था। भावार्थ - जहाजों में सवार भद्रवीर पुरुषजन नाना प्रकार से विनोद करते जारहे थे । कोई दिशाओं का अबलोकन कर रहे थे तो कोई तारा समूहों के निरीक्षण का मानन्द ले Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद रहे थे तथा कोई-कोई जल का प्रमाण वर्णन करने में ही मस्त थे । इस प्रकार अनेक प्रकार से मनोरञ्जन करते जा रहे थे ।।७२।। कोचिन्हमालाग मोरा रक्षन्तिस्म सुयत्नतः। केचिद्धर्मकथां भव्याः कुर्वन्तिस्म स्वलीलया ॥७३॥ अन्वयार्थ---(केचित्) कोई (वीराः) सुभट (महध्वजान्) उत्तुङ्ग पताकारों की (सुयत्नतः) प्रयत्नपूर्वक ( रक्षन्ति) रक्षा कर रहे (स्म) थे (केचित्) कोई (भव्याः) भव्य जन (स्वलीलया) नाटकीय ढंग से (धर्मकथाम् ) धार्मिक कथा (कुर्वन्तिस्म) कर रहे थे । भावार्थ---उनमें से कुछ लोग महाध्वजाओं की सार सम्हाल कर रहे थे । देख-भाल में लगे थे । कुछ भव्यजन सुन्दर प्रदर्शन पूर्वक धर्मकथा सुनाकर सुनकर आनन्द ले रहे थे ।।७३ ।। चलानि यानपात्राणि रेजिरे सागरे तदा । नक्षत्राणि यथा व्योम्नि निर्मले विपुले तराम् ॥७४।। अन्वयार्य-(तदा) उस समय (सागरे) समुद्र में (चलानि) चलते हुए (यानपात्राणि) जहाज (रेजिरे) ऐसे शोभायमान हो रहे थे (यथा ) जैसे (विपुले) विस्तृत (निर्मले) स्वच्छ (व्योम्नि) आकाश में (नक्षत्राणि) नक्षत्र समूह (तराम् ) अत्यन्त (रेजिरे) शोभते हो । भावार्थ अगाध और अपार जल राशि को चीरते जहाज चले जा रहे थे । सागर का नीलवर्ण नोर प्राकाम सा प्रतीत होता था। वे जहाज नक्षत्रों की भांति यत्र-तत्र चमक रहे थे। उस समय का दृश्य एक भ्रमोत्पादक सा हो रहा था। ऊपर आकाश है या भूपर यह भान नहीं पाया जा सकता था। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मेघ रहित स्वच्छ आकाश में चमकते हुए नक्षत्र-तारागण सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार सागर के निर्मल जल में तैरते हुए सुसज्जित नौकाएँ शोभायमान हो रहीं थीं ।।७४।। महाकल्लोलसध्वस्तैमहाध्वनि समन्वितैः । सरेजे सागरस्तत्र महत्वं वा ब्रू वरिजम् ॥७५।। अन्वयार्थ - (स) बह सागर (महाकल्लोल) उत्ताल तरङ्गों के (ध्वस्त:) उठ कर गिरने से (महाध्वनि) गर्जन से (समन्वितेः) युक्त (वा) मानों (तत्र ) उस समय (निजम्) अपने महत्व को (अवन्) कहता हुप्रा (सागरः) समुद्र (सरेजे ) शोभायमान हुआ । भावार्य उस समय पवन से प्रेरित उत्ताल तरङ्ग-ज्वार-भाटा का उत्थान पतन हो रहा था। सागर तेजी से गरज रहा था । मानों अपने गम्भीर नाद से स्वयं की प्रभुता का ही बखान कर रहा था। उस समय उसकी शोभा अद्वितीय हो रही थी ।।७५।। अथवा बह सिन्धु कह रहा था . Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३७ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] गृह्वन्तु सार रत्नानि यूयं पैदेशिको मम । महादातेव सत् दृष्टः सिन्धुस्तौरसंवदन्तिवा ॥७६॥ अन्वयार्थ----(महादाता) महा उदार दाता (इव) के समान (सिन्धुः) सागर (तैः) उन लोगों से (इष्टः) देखा (सन्) हुअा (वा) मानों (संवदन्ति) कह रहा था (वैदेशिकः) हे परदेशी (यूयम् ) पाप लोग (मम) मेरे (सार) उत्तम (रत्नानि) रत्न को (गृह्वन्तु) ग्रहण करिये। मावार्थ-गर्जना करता हुआ सागर उन व्यापारियों से मानों कह रहा था कि आप मेरे अमूल्य रत्नों को स्वीकार कीजिये । वह अपनी परम उदारता प्रकट कर रहा था। मानों अपने दातापने का माहात्म्य प्रकट कर रहा था ।।७६।। एवं ते सागरे सर्वे यावद् गच्छन्ति लीलया। तावद् बर्बरराजस्य वीक्ष्यतान् कर तस्कराः ॥७७।। प्रापुस्ते शस्त्रसंघातयुद्धं कृत्वाति दारुणम् । बद्धा तं श्रेष्ठिनं सार्थभटेर्दशसहस्रकः ।।७।। शीन ते धनमावाय यावद् गच्छन्ति दुर्मदाः । श्रेष्ठी प्राह तदा कुत्र श्रीपालस्सुभटोत्तमः ।।७।। अन्वयार्थ-(एवं) इस प्रकार (लीलया) लीला पूर्वक (यावद्) जब (ते) वे (सर्व) सभी सार्थवाह (सागरे) समुद्र में (गच्छन्ति) जा रहे हैं (तावद् ) तव ही (बर्बरराजस्य) बरबर राजा के (कर) भयङ्कर (तस्करा:) चोरों ने (तान्) उन को (वीक्ष्य ) देख कर (ते) वे दुष्ट (शस्त्रसंघाते:) अस्त्र शास्त्र सन्नद्ध हो (प्राप:) प्राप्त हुए (अतिदारुणं) भयङ्कर (युद्धम्) युद्ध (कृत्वा) करके (दशसहस्रकैः) दश हजार (भट:) भटों के (साथम) साथ (त) उस (श्रेष्ठिनम् ) सेठ को (बद्धा) बांधकर (शीघ्रम्) शीघ्र ही (दुर्मदाः) वे दुर्बु द्धि (धनम्) धन को (आदाय) लेकर (यावद् ) जैसे हो (गच्छन्ति) जाते हैं कि (तदा) उसी समय (ोष्ठी) धबल सेठ (प्राह) बोला (सुभटोत्तमः) वीरोत्तम् (श्रीपालः) श्रीपाल (कुत्र) कहाँ है ? भावार्थ आमोद-प्रमोद मग्न सार्थताह चले जा रहे थे। जहाज मुखपूर्वक विना श्रम के बढ रहे थे । चारों ओर हर्ष छाया था । सभी प्रसन्न थे । आपत्ति के बाद प्राप्त सम्पत्ति ::::, विशेष सुखदायक प्रतीत होती है । किन्तु संसार का नियम है सम्पत्ति के पीछे विपत्ति और विपदाओं के साथ मुख आता रहता है । सांसारिक सुख-दुख कर्माधीन होते हैं। कर्म परिणामों के प्रश्रय हैं । शुभाशुभ परिणामभाव परिवर्तित होते रहते हैं अत: निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धानुसार सुख-दुख भी प्राले-जाते रहते है। प्रथम ही यानपात्र कोलित हो गये, पुण्यपात्र श्रीपालजी Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [थीपाल चरित्र चतुर्थं परिच्छेद के धर्म प्रभाव से चले । अब मार्ग में पुन: विपदा के बादल पा घुमडे । सुसज्जित बिचरते जहाजों को बर्बर राजा के दस्यूनों ने देखा । बस क्या था, वे तो तयार थे ही । दृष्टिगत होते ही अस्त्रश्री सुविधि शस्त्रों से सब उनलोगोंने संधानों पर हमला कर दिया । घोर संग्राम हमा । दस्युदल ने श्रष्ठी सहित दशहजार महा सुभटों को बन्धनबद्ध कर लिया। सारा धनमाल लेकर चलने लगे। श्रेष्ठी धबल हवका बक्का हो गया । अब कुछ भी उपाय नहीं सोच कर जोर मे चिल्लाया, "अरे, मुभांगरोमणि श्रोपाल कहाँ हैं ? किधर गया ? बचाओ, आयो ।” धवल सेठ के साथ अन्य वीर भी कोलाहल मचानेलगे । सभी का स्वर श्रीपाल बीर को आह्वान करने लगे ।।७७, ७८, ७६ ।। श्रुत्वा जनस्सतद्वार्ता श्रीपालस्सिह विक्रमः । महाधनुर्धरो वेगात्समुत्थाय प्रकोपतः ।।८।। अन्वयार्थ----(अनै:) सब वीरों की (तत्) उस (बार्ता) बात को (थुवा ) मुनकर (सः) बह (सिंहविक्रम:) सिंह के समान वीर (महाधनुः) विशाल धनुष (धर धारण करने वाला (श्रीपालः) श्रीपाल (प्रकोपतः) क्रोधित हुआ (वेगात्) वेग से (समुत्थाय) उठ कर सिंहनादं विधायोच्चैर्गत्वा तत पृष्ठतोमहान् । कृत्वा युद्धं तथा रौद्रं जित्वातान् बर्गरान् द्रुतम् ।।१।। प्रमोचयन् निज तत्र श्रेष्ठिनतांश्च शक्तितः । साधते? भेटैस्सर्व पश्चादादायतद्धनम् ।।२।। यशस्सारं समं प्राप्प सुधीर्मधेश्वरों यथा । सत्यं स्वपूर्ण पुण्येन किं किं न स्याद्धि भूतले ।।३।। अन्वयार्थ— (उच्चैः) जोर से (सिंहनादम्) सिंहगर्जना (विधाय) वारके (महान ) श्रीपाल महान् (तत्पृष्ठतः) उनके पीछे (गत्वा) जाकर (तथा) तथा (रोद्रम् ) भयङ्कर (युद्धम् ) संग्राम (कृत्वा) करके (द्र तम्) शीघ्र ही (तान्) उन (बर्वरान् ) डाकुओं को Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] [ २३६ (जिल्ला) जीतकर (निजं ) अपनी ( शक्तितः) शक्ति से ( तत्र ) वहाँ (श्रेष्ठिनम् ) धवल सेठ को (च) और ( तानू ) दशहजार भटों को ( अमोचयन् छ डाया, बन्धन मुक्त क्रिया (पश्चात् ) तदनन्तर (ते) उन (सुभट) सुवीरों के ( सार्धं ) साथ (सर्व) सम्पूर्ण (तद् ) उसके ( सर्वम् ) सम्पूर्ण ( धनम् ) धन को भी ( आदाय ) लेकर ( यथा ) जिस प्रकार ( सुधी ) बुद्धिमान ( मेघेम्बर) मेघनाद हो ( यशसारम् ) उज्ज्वल कीति के ( समम् ) साथ ( प्राप) प्राय - विजयी हुआ (सत्यम् ) उचित ही है ( भूतले ) पृथ्वी पर (स्व) अपने ( पूर्वपुण्येन) पूर्वभव के पुण्य से (हि) निश्चय से ( कि कि ) क्या क्या ( न स्यात् ) नहीं होगा ? भावार्थ - शान्त चित्त श्रीपाल अरहंत सिद्ध भक्ति में निमग्न था । प्राकृतिक सौन्दर्य भा निहार रहा था। उसी समय सेठ और उसके साथियों का कोलाहल सुना, अपनी पुकार सुनते ही वह कोटीभट वीरराज सिंहनाद करता हुआ गरजा, उठते ही महा धनुष हाथ में लिया और सिंह जैसे गजयूथ पर आक्रमण कर उन्हें यत्र तत्र भगा दिया इस प्रकार श्रीपाल ने उन दों को कम्पित कर दिया। तुमल युद्ध हुआ । प्रतापी श्रीपाल ने अपने अद्भुत पराक्रम से विजय वैजयन्ती प्राप्त की। महाभट के प्रकोप के सम्मुख कौन टिकता ? उसने सेठ तथा दशहजार सुभटों को वन्धनमुक्त किया। समस्त धन को वापस लाये | धन-जन के साथ यशोपताका फहराता आया । आचार्य कहते हैं सत्य ही है पूर्वोपार्जित पुण्य से जीव को क्याक्या प्राप्त नहीं होता ? संसार में सब कुछ पुण्य से प्राप्त होता ही है। मेधेश्वर के समान इस श्रीपाल का यश चारों ओर प्रसारित हुआ ||८०-८१-८२ ।। ६३ ।। एकेनतेन ते सर्वो निर्जितास्तस्कराः खराः । सत्यं भानु करोत्युच्चरेकाकी तिमिरं क्षयम् ॥८४॥ अन्वयार्थ -- ( तेन) उस श्रीपाल ( एकेन ) अकेले ने (ते) वे (सर्वे) सब ( खरा : ) दुर्जन ( तस्करा ) दस्यु (निर्जिताः) जीत लिए (सत्यम् ) ठीक ही है (भानुः ) सूर्य ( एकाकी ) अकेला ही (उच्चैः) घोर ( तिमिरं ) अंधकार को (क्षयम्) क्षय (करोति) कर देता है । भावार्थ- सुर्योदय होते ही रात्रि जन्य तुमुल तिमिर उसी क्षण विलीन हो जाता है । अकेला मार्तण्ड जिस प्रकार घोर अन्धकार को नष्ट कर देता है उसी प्रकार उस अकेले बीर ने उन सारे तस्करों (चोरों) को जीत लिया ||८४ ॥ तदा श्रेष्ठी विलोक्योच्चैस्तदीयं पौरुषं परम् । fadtisस्मै मुदानेकध्वनतूर्यादिकव्रजैः ।। ८५ ।। मणिकाञ्चन वस्त्रादीन सारभूताम्बरादिकान् । श्रीपालं स्वजनैर्सार्धं शशंसेति भटोत्तमम् ॥ ८६ ॥ धीमान् पुरुष सिंहस्त्वं धन्योवीराग्रणीमहान् । महाबलो महातेजास्त्वत् समो न परो भटः ॥ ८७॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद प्रन्वयार्थ - - ( तदा ) तत्र ( तदीयम् ) उस श्रीपाल के ( परम ) अद्वितीय ( पौरुषम् ) पुरूषार्थ को (उच्च) विशेषरूप से ( विलोक्य) देखकर (श्रेष्ठ) धवल सेठ ने ( मुदा ) प्रसन्नता सेस (अस्मैः ) श्रीपाल के लिए ( अनेक ध्वनतुर्यादिकबजे ) नाना वादित्रों के मधुर स्वर और जयध्वनि के साथ ( मरिणकाञ्चन) मणि मुक्ता, ( वस्त्रादीन् ) वस्त्रादिक ( सारभूत) उत्तममूल्यवान (अम्बरादिकान् ) पोषाकादि को ( वितीर्य) वितरण कर (स्वजनस्सार्द्ध) स्वजनों के साथ (भटोत्तमम् ) सुराग्रणीयं (श्रीपाल ) श्रीपाल को ( शशंसेति) प्रशंसा करता है कि ( त्वम् ) प्राप ( धीमान् ) बुद्धिमान् (पुरुषसिंहः) पुरुषों में तेजस्वी, ( महान ) महान् ( वीराप्रणी) वीरों में वीर ( महाबलः ) अत्यन्त शक्तिशाली ( महातेजः ) महातेजस्वी (धन्यः ) अन्य हो ( त्वत्) तुम्हारे ( समः ) समान ( परो) अन्य ( भटः ) सुवीर (न) नहीं है । २४० ] भावार्थ - - बर्नर राजा को तस्करों को श्रीपाल ने क्षणभर में युद्ध में परास्त कर दिया । सबको अपने भुजबल में बांध लिया। दशहजार सुभट जिनसे परास्त कर दिये गये उन दों को कोटिभ ने अकेले ही बन्धनवज्र किया और श्रेष्ठी का सबंधन लाकर उसे दे दिया । यह चमत्कारी प्रतिभा, बल पराक्रम देखकर सेठ का हर्ष असीमित हो गया। वह अनेकों वादि बजवाने लगा । उसने जय जय घोष और नाना प्रकार वादित्रों के मधुर स्वर के साथ अनेकों मणि, माणिक्य काञ्चनादि प्रदान किये। अनेकों अलङ्कार, वस्त्र, पटम्बर भेंट किये । वर्ण-वर्ण के नानाविध पोषाकादि प्राभृत में दिये तथा अपने सुभटों के साथ उसका यशोगान भी किया । वह स्तुति करने लगा है पुरुषोत्तम, हे सुभटमणि ! हे धीमन् ! श्राप पुरुषसिंह हैं, महान् वीरों में वीर शिरोमणि हैं, महातेजशाली हैं, आपके समान आप ही हैं । आपके लिए उपमा रूप कोई भी संसार में नहीं है। वस्तुत: आप अप्रतिम प्रतापी हैं। इस प्रकार नाना प्रकार से सेठ तथा उसके परिकर, बन्धु, वान्धव सभी ने श्रीपाल की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसके धैर्य, बल पराक्रम को बार-बार प्रकट किया ॥८५ ८६ ८७॥ श्रीपालोऽथ दयालुत्वात् धृत्वा चौरांश्च तान् पुनः । भोजनाद्यैस्सुसम्मान्य निःशल्य सञ्चकार सः ॥६॥ श्रन्वयार्थ --- ( पुनः ) तदनन्तर ( अथ ) अब ( स ) उस (श्रीपाल : ) श्रीपाल ने (दयालुस्वात्) दयाभाव से (घृत्वा) पकड़ कर लाये (तान् ) उन (चौरान् ) श्रीरों को (भोजनाय :) भोजन पान करा ( सम्मान्य) सम्मानित करके (च) और ( निःशल्य) निर्भय ( सञ्चकार: ) बनाया । भावार्थ -- धर्मात्मा, उदार मनीपी अपराधी के अपराध का संहार करते हैं अपराधी का नहीं । पापी के पाप से घृणा करते हैं पापी से नहीं । अपितु उन्हें अशुद्ध सुब को शुद्ध बनाने के समान निर्दोष बना देते हैं । कृपालु श्रीपाल भी इसका अपवाद नहीं था । उसके सभी दस्युओं को बन्धन मुक्त किया। भोजन शन कराकर सम्मानित किया। तथा अभयदान प्रदान कर सबको निर्भय और शल्य रहित कर दिया । ठीक ही है नाश की अपेक्षा सुधार करना ही मानवता है । यह दयाधर्म है ||८|| Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- nhi SA MUSTAN YNOP FEAWS . . INTIDSLEE Ka C - SAT : --- - . ऊपर--श्रीपाल जहाज पर दरसुओं से लड़ता हुआ। नीचे-श्रीपाल टस्सशा टळो अभयदान देते हरा। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४१ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद] ततस्तेप्रीणिताः प्राहुरित्थं तं प्रति हे प्रभोः । मा स्वामित्वमस्माकम् कृपालुस्सुभटानिमः ।।६।। दुष्टानामपि चौरानामस्माकं चापि शर्मकृत् । प्रयंकोऽपि महानुच्चरोरपि महीतले ॥६॥ अन्वयार्थ--- (ततः) इसके बाद (ते) वे दस्युजन (प्रोणिता:) प्रसन्न हो (तम्) उस श्रीपाल के प्रति (इत्थम्) इस प्रकार (प्राहुः) बोले (हे प्रभो ! ) भो स्वामिन् (त्वम्) आप (धन्यः) धन्य हैं (कृपालुः) दयालु (सुभटाग्रिमः) वीरों में अग्रणीयवीर (अस्माकम् ) हम लोगों (दुष्टानाम् ) दुष्ट (चौरानाम्) तस्करों के (अपि) भी (स्वामिन् ) हे प्रभो ! आप (अस्माकम् ) हमारे लिए (शर्मकृत) शान्तिप्रदायक हैं। (च) और (अपि) भी है (अयम् ) यह (कोऽपि) कोई भी (महीतले) भूमितल पर (मेरो:) सुमेरू की अपेक्षा (अपि) भी (उच्चैः) महामना (महान ) महापुरुष हैं। भावार्थ - भोजन पान कर सन्तुष्ट हुए। सभी थीपाल जी के इस सव्यवहार को देखकर आश्चर्य और हर्ष से अभिभूत थे। वे कहने लगे, हे प्रभो! आप कोई महापुरुष हैं। परम दयालु हैं । बीरों में वीर हैं । महासुभट हैं । हम जैसे ऋर, दुष्ट, पापी चोरों को भी क्षमा प्रदान कर दी। यही नहीं हमें सुख शान्ति प्रदायक आहारार्थ सुपाच्य, सुस्वादु, मधुर पदार्थ देकर महान् उपकार किया । वस्तुत: आप मेरूपर्वत से भी अधिक उन्नत-विशाल विचारज्ञ, विद्वान, पण्डित और कुशल हैं । मेरू अपने स्थान पर भी उन्नत है परन्तु आप की महिमा सर्वत्र मेरुवत् व्यापक है। हे स्वामिन् अाप वस्तुत: यथार्थ पुरुषोत्तम हैं ।।८६, ६०|| दत्तं त्वयाऽभयं दानं प्रशस्येति मुहमुहः। त्वत्समो न गुरूर्मातृपितृबन्धु सुतादयः ।।१।। अन्वयार्थ - (त्वया) अापने (अभयदानम् ) अभयदान (दत्तम् ) दिया (इति) इस प्रकार (मुहु.-मुहुः) बार-बार (प्रशस्य)प्रशंसा कर कहने लगे (त्वत्समः) आपके सदृश (गुरु:) गुरू (माता) माँ (पितृ) पिता (बन्धु) भाई (सुतादयः) पुत्र आदि कोई भी उपकारी (न) नहीं। मावार्थ-श्रीपाल के सौजन्य से प्रभावित होकर. अभयदान प्राप्त कर ये चोर-राजा अत्यन्त विनम्र हो गया। अपने साथियों के साथ श्रीपाल की भूरि-भूरि बार-बार प्रशंसा की। वे यशोगान करते हुए कहने लगे । “संसार में आपके समान हित करने वाले गुरू, माता-पिता, भाई-बन्धु, पुत्र-पुत्री प्रादि कोई भी नहीं हैं । अस्तु पाप उनसे भी बढकर हमारे रक्षक, पालक और प्राणदाता हैं । नीतिकारों ने सत्य ही कहा है कि महात्मा वे ही हैं जिनको विकृति उत्पादक कारण होने पर भी विकार न हो । यथा ||११|| Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तियुक्तम् । - छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वादुञ्चेक्षु रण्डम् ॥ ) घृष्टं घृष्ट पुनरपि पुनश्चन्दनं चारू गन्धम् । ( प्राणान्तेऽपि प्रकृति विकृतिर्जायते नोसमानाम् ॥१२॥ अन्वयार्थ--(पुनः पुनः) बार-बार (दग्धं दग्धम् नुपाये जाने पर (अपि) भी (काञ्चनम् ) सुवर्ण (कान्ति) चमक (युक्तम् ) सहित ही रहता है, (इक्षुदण्डम् ) गन्ना (पुन: पुनः) बार-बार (छिन्नं छिन्नम् ) पेले जाने पर (अपि) भी (स्वादुः) मधुरता युक्त ही रहता है, (चन्दनम्) मलियागिरि चन्दन (पुनः पुनः) बार-बार (धृष्टं घाटम् ) घिस-घिस डालने पर (अपि) भी (चारू) सुन्दर (गन्धम् ) सुवासित ही रहता है, ( उत्तमा नाम्) उत्तम वस्तुओं का पुरुषों का भी (प्राणान्ते) प्राणवियोंग होने पर (अपि) भो (प्रकृति ) स्वभाव (विकृति) विकार रूप (न) नहीं (जायते) होता है । ___ भावार्थ - सत्पुरुष सम्पत्ति और विपत्ति में एक रूप रहते हैं। शत्रु-भित्र में उनका समभाव रहता है । कितने ही कष्ट क्यों न आयें वे अपने दयाभाव को नहीं छोडते । जिस प्रकार खान से निकले सुवर्ण को अग्नि में तपाने पर भी विकारी नहीं होता अपितु उत्तरोत्तर उसकी दीप्ति-चमक बढ़ती ही जाती है. वादाडों- हान्नों को घाणी ! मशीन में पेलने पर उत्तरोत्तर मधुर रस ही देते हैं, उनमें से कडबाहट नहीं पाती, चन्दन को कितना ही घिसो उसकी सुबास उत्तरोतर अधिकाधिक होगी किन्तु दुर्गन्ध नहीं आ सकती। अभिप्राय यह है कि सुवर्ण, इक्षु, चन्दन, मेंहदी आदि पदार्थ, तपकर, पिलकार, घिसकर, पिसकर भी अपने स्वभाब से च्युत नहीं होते उसी प्रकार सज्जन जन, उत्तम पुरुष भी विपत्तियों के आने पर भी, सताये जाने या पीडित किये जाने पर भी अपनी मानुपी प्रकृति-स्वभाव को नहीं छोडते नहीं, त्यागते ।।२॥ एवं चित्तेविचार्याशु श्रीपाल संजगाद सः । अस्मद्देशं दयां कृत्वा समागच्छ भटोत्तमः ॥१३॥ अन्वयार्थ--- (एवं) इस प्रकार (चित्ते) मन में विचार्य) चिन्तवन कर (स:) वह बर्वर राजा (आशु) शीघ्र ही (श्रीपालम्) श्रीपाल से (संजगाद) बोला, (भटोतमः) हे श्रेष्ट वीराग्ररणी ! (दयाम्) कृपा (कृत्वा) करके (अस्मत्) हमारे (देशम्) देश को (समागच्छ) ग्राइये ।।६३।। भावार्थ ... उपर्युक्त प्रकार विचार कर श्रद्धा भक्ति से भरे बर्वरराज ने प्रत्युपकार को निर्मल भावना से श्रीशल से निवेदन किया ! महानभाव. सभोत्तम ! प्राप दया कीजिये । कृपा कर हमारे देश में पदार्पण करें । पधारें ॥६३।। अस्माकं प्राणदाता त्वं कुर्मोक्ति च भृत्यताम् । यतः प्रत्युपकारेण कृतकृत्यो भवाम्यहम् ॥१४॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल परित्र चतुर्थं परिच्छेद ] [ २४३ अन्वयार्थ --- ( त्वम् ) आप ( अस्माकम ) हमारे ( प्राणदाता) प्राण देने वाले हैं ( वयम् ) हम लोग ( भक्तिम्) भक्ति (च) और ( भृत्यताम् ) सेवा- दासता ( कुर्मः) करने को तैयार हैं ( यतः ) क्योंकि ( प्रत्युपकारेण ) उपकार का बदला देकर ( अहम् ) मैं राजा ( कृतकृत्यो) कृतकृत्य ( भवामि ) हो जाऊँगा । होता हूँ । भावार्थ – अनेक प्रकार श्रीपाल की स्तुति एवं भक्ति कर बर्बर राजा ने उसका स्वागत करना चाहा । वह श्रीपाल से निवेदन करता है हे प्रभो ! हम आपके सेवक हैं । आपके भक्त हैं । हम पर अनुग्रह कीजिये । कृपा कर हमारे देश में पधारें। हम सब हर प्रकार से आपकी सेवा करेंगे। सत्कार कर प्रत्युपकार करना चाहते हैं। क्योंकि उपकारी का उपकार करना मानव का परमधर्म है। आप अवश्य पधारें। आपके पधारने से में उऋण होना चाहता हूँ। आप श्रनुज्ञा दीजिये || ६४ || तत् समाकग्यं स श्रेष्ठी श्रीपाल प्रत्यभाषितः । तत्र गन्तु न ते युक्तं कार्यमेत्तद् विहाय च ॥६५॥ श्रन्वयार्थ -- (तत्) वह आमन्त्रण ( समाकर्ण्य ) सम्यक् प्रकार सुनकर ( स ) वह ( श्रेष्ठी ) धवलसे ( श्रीपालं प्रति ) पाल से (अभाषितः) बोला. ( एतद् ) इस ( कार्यम् ) काम को ( विहाय ) छोड़कर (च) और (तत्र) वहाँ ( गन्तुम) गमन को तैयार होना (ते) आपके लिए ( युक्तम् ) उचित (न) नहीं है। भावार्थ -- बर्बर राजा की कृतज्ञता और प्रत्युपकार भावना से सेट का मन काँप उठा । क्योंकि उसने उपकारी श्रीपाल को अपना जीवनदाता स्वीकार कर उसे अपने देश में ले जाना चाहा । प्रत्युपकार को भावना से उसे ग्रामन्त्रण दिया । श्रवाल जी के वहां जाने से धवलसेठ का कार्य ठप हो जाता है । अत: श्रौपाल के स्थान पर स्वयं ही बीच में उत्तर देता है--- धवल सेठ श्रीपाल के उत्तर या इच्छा को प्रतीक्षा न कर मध्य में ही "दाल-भात में मूसलचन्द" कहावत को चरितार्थ करता हुआ बोला "हे सुभग मेरे साथ व्यापार रूप इस कार्य को छोडना और तस्करों के देश में जाना आपको तनिक भो योग्य नहीं है । ठीक ही है संसार में कौन अपना स्वार्थ सिद्ध नहीं करना चाहते ? सभी चाहते हैं ||५|| ततो वर्वरराजोऽपि सारवस्तुशतंभृतान् । श्रीपालाय ददौ प्रीत्या सप्त पोतान् समुन्नतान् ॥ ६६ ॥ अन्वयार्थ - - ( ततः) श्रेष्ठी द्वारा गमन का निषेध करने पर ( वर्वर राजा ) बदर राजा ने (अपि) भी (समुन्नतान् ) गगनचुम्बी -ऊँचे ( सारवस्तुशतै भृतान् ) संकडों उत्तमोत्तम वस्तुओं से भरे ( सप्त ) सात ( पोतान् ) जहाजों को ( प्रीत्या ) अनुराग से (श्रीपालाय ) श्रीपाल के लिए (दो) प्रदान किये। arat - "को बान्धो गुरु वाक्यमलंघयेत्" कौन जाग्रत बुद्धि गुरुजनों की आज्ञा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद का उल्लंबन कर सकता है ? कोई नहीं । इसी नीति का अनुसरण श्रीपाल ने किया । वर्वर राजा ने उनका आगमन नहीं जानकर भक्ति और अति अनुराग से उसे अत्यन्त उन्नत, विशाल सैकड़ों प्रकार की बहुमूल्य वस्तुओं से भरे हुए सात जहाज भेट में प्रदान किये । नीति है लक्ष्मो ठुकराने पर पीछे-पीछे दौड़ कर आती है और मनाने पर दूर भागती है।" पुण्य की चेरी है सम्पत्ति । अतः पुण्यात्मा श्रीपाल के पास विना ही थम के दास की भांति प्रा रही है ||६|| वरवस्तुकृतान् श्लाध्य, मणिमुक्ताफलादिकान् । वीपान्तरस्थ वस्तूनि द्विपतुङ्गतुरङ्गमान् ॥६॥ अन्वयार्थ--(द्वोपान्तरस्थ) विभिन्न द्वीपों में स्थित प्राप्त (पलाध्य) प्रशंसनीय (दरवस्तुकृतान् ) उत्तमवस्तुओं से निर्मित (मणिमुक्ताफलादिकान्) मशिग, मोती, हीरादि (द्विपतुङ्गतुरङ्गान्) विशाल-मदोन्मत्त गज, उन्नत अश्वादि (वस्तूनि वस्तुओं को (श्रीपालाय) श्रीपाल के लिए (प्रीत्या) प्रेम से (ददी) प्रदान की। भावार्थ -इस श्लोक का सम्बन्ध नं. ६६ के साथ करना चाहिए । सात जहाजों में अनेक द्वीपों में प्राप्त होने वाली नाना प्रकार की बहुमूल्य अपूर्व वस्तु-मणि, मुक्ता, हीरा आदि थे । तथा विशाल गजराज और वेगशाली समुन्नत तुरंग-घोटक भेट में दिये । सत्य है परोपकारी अपने उपकारी को क्या नहीं देता ? सर्वस्व देने को तैयार हो जाता है। फिर प्राणदाता का कहना ही क्या ? तोन लोक का बैभव भी उसके समक्ष तुच्छ है ।।६।। अथ ते सारवस्तुनि दत्त्वाऽस्य श्रेष्ठिनस्तदा । जगृहुस्तस्य वस्तूनि लाभाय स्वान्ययोरपि ।।६।। अन्वयार्थ-(अथ) पुन: (सार वस्तुनि) उत्तमोतम वस्तुओं को (दत्त्वा) देकर (तदा) तब (अस्यश्रेष्ठिनः) इस सेठ को तथा (तस्य) उस श्रीपाल की (अपि) भी (वस्तूनि) बस्तुओं को (स्वान्ययोः) स्व-पर के (लाभाय) हित के लिए (ते) उन वरवरों ने (जगृहुः ) ग्रहण की। भावार्थ--पारस्परिक मित्रता को स्थायी रखने के लिए आदान-प्रदान आवश्यक है । बरवर राजाओं ने श्रीपालजी को अनेकों अमुल्य बस्तुएँ भेंट की और सेट को भी समस्त सम्पत्ति वापिस कर दी उनके द्वारा सम्मानित श्रीपाल एवं धवल सेट का भी कर्तव्य हो जाता है कि वे भी उनका दान-सम्मान द्वारा आतिथ्य करें। अत: स्नेहाभूत उन बरवर राजाओं ने भी धवल सेठ और श्रीपाल भूपाल द्वारा प्रदत्त वस्तुओं को सहर्ष, विनय पूर्वक स्वीकार किया। क्योंकि यह प्रादान प्रदान स्व और पर सभी के लिए लाभ दायक होता है । पोतस्थ समस्त जनों का रक्षण हुअा और सभी एक दूसरे के प्रिय मित्र बन गये । इस प्रकार उभय और से एक दूसरे का आदर-सम्मान कर वे राजा अपने देश को चले गये और ये भी चले ||९८ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद] [२४५ ततः पोतानि पुण्येन निर्विध्नेन सुखेन च रत्नद्वीपं क्रमावापुः पद्मरागमणिश्रितम् ॥६६॥ अन्वयार्थ--(ततः) इसके बाद (पुण्येन) पुण्ययोगेन से (निर्विघ्नेन) विनरहित (च) और (सुखेन) सुख से (पोतानि) जहाज (पद्मरागमगि श्रितम) पद्मरागमणि बाले (रत्नद्वोपम ) रत्नदीप को (प्रापु:) प्राप्त किया ।। भावार्थ - तस्करों को भी मित्र बनाकर, उनके द्वारा प्रदत्त भेंट को सभी पोतस्थ जनों को वितरित कर जहाज चल पड़े । क्रमशः वे यान पभरागमगियों से भरे रत्नद्वीप में जा पहुँचे ॥१६॥ महाभवन संयुक्त साररत्नादिभिः भृतम् । तद् द्वीपं ते समालोक्य सन्निधि वा ययुमुदाः ॥१०॥ अन्वयार्थ--(महाभवन) विशाल गृह प्रासाद (संयुक्तम) सहित (सार) उत्तमउत्तम (रत्नादिभिः) रत्नों से (भतम ) भरे हुए (तद्) उस (द्वीपम ) द्वीप को (समालोक्य) देखकर (ते) वे लोग (मुद्रा) प्रसन्नता से (वा) उस द्वीप के (सन्निधिम )निकट में (ययुः) पाये । भावार्थ-वह रत्नद्वीप महान् विशाल-विशाल उन्नत घर, प्रासाद, मन्दिर आदि से युक्त था । अनेकों अमर्य-बहुमूल्य विविध प्रकार के रत्नों से भरा था । इन समस्त अनुपम वस्तुओं का अवलोकन कर उन्हें परम सन्तोष हुप्रा । आनन्द से उस द्वीप के अन्दर प्रविष्ट हुए ॥१००।। पोते न्यस्तै समुत्तीर्य भोजनादीन् विधाय च । स्वस्य व्यापारमाकर्तु संलग्नाः श्रेष्ठिमुख्यकाः ।।१०१॥ अन्वयार्थ--(समुत्तीर्य) सागर तट पर उतर कर (पोते) जहाज में (न्यस्ते स्थापित (भोजनादीन्) भोजन आदि लेकर-करके (च) और (विधाय) भोजन पान कर (श्रेष्ठिमुख्यका:) धवल सेठ आदि व्यापारी (स्त्रस्य) अपने (ध्यापारम् ) व्यापार को (क ) करने में (संलग्ना:) लग गये। भावार्य अपने जहाज में रक्खे भोज्यपदाथों को लेकर सबने प्रथम भोजन किया। पुनः सभी अपने-अपने व्यापार में लीन हो गये । क्योंकि उनका उद्देश्य ही व्यापार था। 1॥१०१।। किन्तु श्रीपालस्तु तदा तस्मिन् द्वीपे दृष्ट्वा जिनालयम् । सहस्रकूट संयुक्त त्रैलोक्यतिलका ह्वयम् ।।१०२॥ सौवयं तञ्चधारत्न कान्त्यारजित दिड्.मुखम् । जिनेन्द्र प्रतिमोपेतं सुरासुर नमस्कृतम् ।।१०३।। सहस्रशिखराबद्ध ध्वजनातर्मरुदुद्धतः । भव्यानां दर्शयंस्तं वा मार्ग स्वर्गापवर्गयोः ।।१०४॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] [ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद मेरो शृङ्गमियोङ्ग गणयन्तं नमोऽङ्गणम् । महिम्ना परमानन्दं कुर्वतं भव्य बेहिनाम् ॥१०५॥ महा घण्टा निनावैर्वा तर्जयन्तं घनाघनम् । कृष्णागरूल सत्धूपैस्सुगन्धीकृत भूतलम् ॥ १०६ ॥ दर्शनेन जगत्पाप ताप संदोह नाशनम् । अनेक रचनोपेत भव्य चेतोऽनुरञ्जनम् ॥१०७॥ तस्य द्वारञ्च संवीक्ष्य दत्त वज्र कपाटकम् । तत्रयं च समान स विश्मयः ॥ १०८ ॥ सप्त अन्वयार्थ - (तु) किन्तु ( श्रीपाल : ) श्रीपाल तो ( तदा) उस समय ( तम्मिन्) उम ( द्वीपे ) रत्नद्वीप में (त्रैलोक्य तिलका) त्रैलोक तिलक ( श्राह्वयम् ) नामक ( सहस्रकूट ) एक हजार शिखरों से (संयुक्त) सहित ( जिनालयम् ) जिनमन्दिर को (वा) देखकर चकित हुआ कैसा था वह जिनालय - ( सुरासुर ) सुर और असुरों से ( नमस्कृलभ ) नमस्कार की जाने बाली (सोवयम् ) सुवर्ण निर्मित ( पञ्चधा ) पाँच प्रकार के ( रत्न कान्त्या ) रत्नों की कान्ति से ( रञ्जित) चमत्कृत करदो हैं ( दिङ्गमुखम् ) दिशाएँ जिन्होंने ऐसी (जिनेन्द्रप्रतिमोपेतम् ) श्रीजिन भगवान की प्रतिमाओं से सहित ( सहस्र ) हजार (शिखर आबद्ध ) शिखरों पर बन्धी हुई ( मस्त्) वायु से (उद्धतेः) फहराती ( ध्वजातेः ) ध्वजासमूहों से (वा) मानों (भव्यानाम् ) भव्य जीवों के लिए (स्वर्ग) स्वर्गं (अपवर्गयोः) मोक्ष का ( मार्गम् ) राहू - रास्ता ( दर्शयन्तम् ) दिखा रहा हो - ( मेरो :) मेरू पर्वत की (म्) चोटी ( इव) समान ( उत्तुङ्गम) उन्नत ( नमोऽङ्गनम् ) गगनसीमा को (गरणयन्तम् ) मापता हुआ ( भव्य देहिनाम् ) भव्य प्राणियों को (महिम्ना) अपनी महिमा से (परमानन्दम् ) महा श्रानन्द ( कुर्वन्तम) करता हुआ, (महाघण्टा ) बड़े-बड़े घण्टों के ( निनादः ) भंकार द्वारा (वा) मानों ( घनाघनम् ) सघनमेघों को (तर्जयन्तम् ) धमका रहा हो ( कृष्णागरु ) कृष्ण अगुरु चन्दन की ( लसत) सुन्दर सुगंधित (धूपैः) धूप धुंआ से ( भूतलम् ) पृथ्वीमण्डल ( सुगन्धीकृतम् ) सुवासित कर दिया, ( दर्शनेन ) दर्शनमात्र से ( जगत् ) संसारी जीवों के ( पापतापसंदोहम् ) पाप से उत्पन्न ताप के समूह को (नाशनम् ) नाश करने वाले ( अनेक ) नाना प्रकार ( रचनोपेतम् ) रचना से रचित ( भव्यचेतः) भव्यजीवों का चित्त (अनुरजनम् ) प्रसन्न करने वाले (च ) और (दत्तकपाटकम् ) जड़े हैं वञ्चकिया जिसमें ऐसे ( तस्य ) उसके ( द्वार) दरबाजे को ( संवीक्ष्य) देखकर (च) और ( सविस्मयम्) आश्चर्य चकित हो ( तत्र ) वहाँ ( स्थ) बैठे (द्वारपालम् ) द्वारपाल को ( सम् ) सम्यक् ( अपृच्छत् ) पूच्छा | भावार्थ - जिसका मन जहाँ अनुरक्त होता है वह वहीं रमता है। सेठ आदि व्यापारी भोजन-पान से निवृत्त हो रत्नद्वीप में व्यापार के लिए चले गये। इधर श्रीपालजी ने उद्यान में विशाल भवन देख उधर प्रयाण किया। वहाँ "त्रिलोक तिलक" नामके, स्वर्गसम्पदा को तिरस्कृत करने वाले परम रम्य एक हजार शिखरों से सुशोभित सहस्रकूट चैत्यालय देखा । वह जिनालय सुर असुरों से पूज्य था । देवगणों से नमस्करणीय था । स्वर्ण निर्मित, विविध Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] [ २४७ प्रकार मणियों से खन्वित जिनप्रतिमाओं से सहित था । वे प्रतिमाएँ अनेक भवों के उत्पन्न पापों का नाश करने में समर्थ थीं। दर्शकों के भव-भव के पाप ताप उसी प्रकार विलीन हो जाते थे जैसे पवन के झोंके से सघन मेघ क्षणमात्र में विखर जाते हैं। एक हजार शिखरों पर अनेक रंगों की अनेकों ध्वजाऐं वायु से फहरा रहीं थीं । उन चञ्चल ध्वजाओं से ऐसा प्रतीत होता था। मानों वे भव्य नर-नारियों को स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग दिखा रहीं हैं । सुमेरू पर्वत समान विशाल उन्नत शिखर कह रहे थे मानों आकाश की माप करना चाहते हैं | अपनी अपरिमित महिमा से भव्यजीवों को परमानन्द देने वाला था। घण्टों को तुमुलनाद से घनघोर मैत्रों की गर्जना को तिरस्कृत करता था । धूप घटों से सुगन्धित खूप की धुंआ से सारा भूमण्डल सुगन्धित हो रहा था । दर्शनमात्र से भव्यभक्तों के पाप समूह को नष्ट करने वाला था । श्रनेक प्रकार की मनोज्ञ रचना के द्वारा भव्यजीवों को प्रसन्न करने वाला था । उस मनोहारी जिनालय का द्वार वज्रकपाट से बन्द था । यह देख कर श्रीपाल आश्चर्य चकित हुआ। वहाँ पर बैठे हुए द्वारपाल से इस वज्रकपाट का कारण पूछा ।। १०२ से १०८ तक / द्वारपालक ब्रूहि त्वं केनेदमररद्वयम् । दत्तमुच्चैस्स च प्राह शृणुत्वं भो विचक्षण ।। १०६ ॥ अन्वयार्थ - - ( द्वारपालक: ) भो हार रक्षक (क्रेन) किसके द्वारा ( हदम्) ये ( अरर) अर्गल ( द्वयम् ) दो (उच्च) इतने कठोर ( दत्तम् ) दिये गये हैं, (च) और तब ( स ) वह द्वारपाल ( प्राह ) बोला ( भो ) हे ( विचक्षण) सुबुद्धि ( त्वम् ) श्राप ( श्रृण) सुनिये । भावार्थ – उस सहस्रकूट चैत्यालय के द्वार पर द्वार रक्षक बैठा हुआ था । श्रीपाल ने उसे जिनालय के वज्रकपाट के विषय में पूछ-ताछ की। उस द्वारपाल ने विनम्रता से उत्तर दिया कि हे विलक्षमति ! आप जानना चाहते हैं तो सुनिये मैं इसका विवरण करता हूँ ।। १०६ ।। एतत् कपाटयुग्मश्च देवैरपि न शक्यते । समुद्घाटयितु तत्र कस्समर्थः परो नरः ॥ ११०॥ श्रन्वयार्थ - ( एतत् ) इन ( कपाटयुग्मम् ) दोनों किवाडों को ( समुद्घाटयितुम् ) खोलने के लिए (देवैः ) देव (अपि) भी (न) नहीं ( शक्यते ) समर्थ हो सकते हैं (तत्र ) वहाँ और (क: ) कौन ( पर: ) दूसरा ( नरः ) मनुष्य ( समर्थ : ) समर्थ है ? (च) और भी भावार्थ - - वह द्वारपाल कहने लगा "हे देव ये दोनों कपाट वज्रमय हैं इनको खोलने में देवता भी समर्थ नहीं हो सकते हैं, फिर ग्रन्य कौन पुरुष खोलने की सामर्थ्य रख सकता है ? और भी कहने लगा। ये देवोपुनोत हैं क्या ? ॥ ११०॥ ततस्सोऽपि करोतिस्म हस्तेन स्पर्शनं यदा । तदा तत्पुण्यपान तत् कपाद्वयं स्वयम् ॥ १११ ॥ जातमुद्घाटितुं शीघ्र परमानन्ददायकम् । यथा नेत्र द्वयं रम्यनौषधेन महात्मना ।। ११२॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद अन्वयार्थ-(ततः) यह सुनकर (यदा) जैसे ही (सः) उस (श्रीपालः) भक्तशिरोमणि श्रीपाल ने (हस्तेन) हाथ से (स्पर्शनम् ) स्पर्श (करोतिस्म) किया (तदा) तब (तत्पुण्यपाकेन) उसके प्रचुर पुण्योदय से (तत्) व (कपाट द्वयम्) दोनों किवाड (स्वयम्) अपने आप ही (परमानन्द) परम प्रानन्द को (दयाकम् ) देने वाले (शीघ्रम्) तत्क्षण (उद्घाटितुम्) खुले हुए (जातम्) हो गये। (यथा) जिस प्रकार (महात्मना) महान विशेषज्ञ द्वारा प्रयुक्त (औषधेन) औषधि से (नेत्रद्वयम् ) दोनों विकारी नेत्र (रम्यम् ) सुन्दर, रोग रहित (जातम्) हो जाते हैं। भावार्थ-द्वारपाल की बात सुनकर कोटिभट श्रीपालजी ने ज्यों ही किवाड़ों को हाथ से छ आ त्यों ही वे दोनों किवाड स्वयम् ही खुल गये । जिस प्रकार किसी सुबुद्ध U3M AIIMAR JRIWha LAKHMAN RULI ITI . SETTE - - - वैद्य द्वारा नेत्रों में उचित औषधि लगाने से दोनों नेत्र निर्मल हो जाते हैं। रोग रहित हा जाते हैं : परम आनन्द को देने वाले कपाटों के खुलते ही चारों और प्रानन्द की लहर दौड़ गई ।।११२।। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] [२४६ निधानं वा समासाद्य तदा सन्तुष्ट मानसः । जय कोलाहलं कुर्वन् प्रविष्टो जिनमन्दिरम् ।।११३।। अन्वयार्थ-- (वा) मानों (निधानम्) निधि ही (समासाद्य) प्राप्त हुयो हो ऐसा (तदा) उस समय (सन्तुष्ट) प्रसन्न (मानसः) चित्त (जय) जय जय ध्वनि (कोलाहलम्) जोर जोर से (कुर्वन्) करता हुआ श्रीपाल (जिनमन्दिरम् ) जिनेन्द्र भगवान के मन्दिर में (प्रविष्टः) प्रविष्ट हुआ। भावार्थ--वत्र किंवाड खुलते ही श्रीपाल के हर्ष की सीमा नहीं रही। उसे लगा मानों कोई अपूर्व निधि ही मिली हो । ॐ जय-जय, निः सही निः सही करते हुए महावनि के साथ श्री जिनालय में प्रवेश किया ।।११३।। तत्र श्रीमज्जिनेद्राणां प्रतिमाः पापनाशनाः प्रोत्त ङ्गारत्ननिर्माणाः पश्यतिस्म जगद्धिताः ।।११४।। अन्वयार्थ--(तत्र) वहाँ (पापनाशनाः) पापों का नाश करने वाली, (प्रोत्तुङ्गा) विशाल (रत्ननिर्माणाः) मिनिष रहनों में बनी तिसंगार का कल्याण करने वाली (श्रीमज्जिनेन्द्राणाम् ) श्री वीतराग भगवान की (प्रतिमा:) प्रतिमाएं (पश्यतिस्म) देखीं । दर्शन किये ॥११४॥ कृत्वा महाभिषेकं स तासां सम्पद्विधायकम् । पञ्चामृतैर्जगत्सारः प्रचुरैः परमादरात ।।११५॥ पुनस्ताः पूजयामास सुधीः देवेन्द्र पूजिताः । कापूरवासितः स्वच्छतोयधाराभिरुत्तमः ॥११६।। अन्वयार्थ--(सः) उस श्रीपाल ने (तासाम्) उन मनोज्ञ प्रतिमाओं का (परम) अत्यन्त (आदरात्) बिनय से (जगत्सारैः) संसार के उत्तम (प्रचुरैः) बहुत से (पञ्चामृतैः) पञ्चामृतों से (सम्पत्) सुख (विधायकम् ) देने वाले (महाभिषेकम्) महामस्तकाभिषेक (कृत्वा) करके (पूनः फिर. (उत्तमैः) उत्तम (कपरवासितस्वच्छतोयधाराभिः) परादि सुगन्धित पदाथों से सुवासित नीर धारादि द्वारा (सुधी:) उस बुद्धिवन्त श्रीपाल ने (देवेन्द्रपूजिताः) इन्द्रों से पूजित उन (ता:) प्रतिमाओं की (पूजयामास) पूजा की। भावार्थ.. श्रीपाल महराज ने परम भक्ति और श्रद्धा से उन सौम्य, मनौज लथा पाप भजक प्रतिमाओं का सुन्दर-सुन्दर उत्तम गुद्ध पदार्थों से पञ्चामृताभिषेक महा अभिषेक Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] [ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद किया । भगवान का पञ्चामृताभिषेक पाप का नाशक और पुण्य का वर्द्धक होता है । वे प्रतिमाएँ देवेन्द्रों द्वारा पूज्य थीं । परम पावन, पापविनाशक थीं । वस्तुतः साक्षात् जिनेन्द्रदर्शन का जो फल होता है वही जिनबिम्ब दर्शन का भी प्राप्त होता है कर्पूरादि से मिश्रित शुद्ध जलधारा से श्री जिनेन्द्र प्रभु की पूजा की ।। ११५ - ११६ । । चन्दनागरुकाश्मीर सरस्सर्व शान्तये । विशुद्धाक्षतरुच्चैः पुण्य पुजैरिवामलैः ॥११७॥ जातिचम्पकपुन्नागपद्याः कुसुमोत्करैः । पूजाञ्चकार पूतात्मा भव्यचेतोनुरञ्जनैः ॥ ११८ ॥ श्रन्वयार्थ - ( पूतात्मा ) पवित्रात्मा श्रीपाल ने ( सर्वशान्तये ) सर्वताप सन्ताप की शान्ति के लिए ( चन्दनागुरुकाश्मीर हो ) चन्दन, गुरु, केशर, समान शीतल पदार्थों से, ( पुण्यपुञ्ज रिव) पुण्यरूप पुञ्ज के समान ( अमले : ) स्वच्छ ( उच्चकैः ) अनेक अखण्ड ( विशुद्ध ) परम पवित्र ( प्रतर्क : ) अक्षतों से तथा (जाति) मल्लिका ( चम्पक) चम्पा ( पुन्नाग) नागकेशर (पद्म) कमल (आद्य : ) इत्यादि (कुसुमोत्करैः) उत्तम पुष्पों से ( भव्यतीनुरञ्जनः ) भव्यात्माओं के मन को हर्षित करने वाली (पूजाम) पूजा ( चकार ) की । I मायार्थ- संसारजन्य विविध तापों को नाश करने वाली चन्दनादि से पूजा की अखण्ड अक्षतों से की गई पूजा भव्यों को प्रखण्ड अक्षय सूख प्रदान करती है। अतः अमल, अखण्ड, शुद्ध उत्तम अक्षत पुञ्जों को चढाया । मदनवाण से सारा संसार पीडित है । यह काम मोह की पाश है। और तो क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे महापुरुष भी इसके चंगुल में फंस गये | वस्तुतः यह काम भोग आकांक्षा जीव को अन्धा बना देती है। ऐसे दुर्जयभट काम का नाश करने वाली श्री जिनभगवान की पुष्प पूजा है । यतएव श्रीपाल ने नाना प्रकार के विविध पुष्पों से श्रीमज्जिनेन्द्र भगवन्त की वैभव महित पूजा की। अर्थात् भव्य करने वाली भव्य पूजा की ।। ११७-११८ ।। तथा जनों का चित्त हरन - नैवेद्येर्बहुभिर्भेदे दुख दारिद्रयहारिणिः । रत्नकपूर दीपोधे: दीपिताखिल दिड् नुखैः ।। ११९ ।। कृष्णागरु समुद्भूतैधू पैस्सौभाग्यदायकः । नालिकेरा जम्बीरः फलैर्मुक्तिफलप्रदः ।। १२० ।। अर्ध्यादिभिः समभ्यर्च्य वस्तुस्सा रेस्सुखाकरैः । सवार स्तुतिति शर्मसन्दोहदायिनीम् ।। १२१॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद] [ २५१ अन्वयार्थ ---(दुखदारिद्रय) दारिद्रय जन्य दुःख को (हारिरिंग) हरण-नाश करने वाली (बहुभिः) बहुत से (भेदैः) प्रकारों से निमित (नैवेद्यः) नैवेद्यों, चरुओं से (अखिल) सम्पूर्ण (जिङ्ग निशा कोपीविता) प्रकाशित करने वाले (रत्नक' रदीपोधे:) रत्नकपूर आदि के दीपों से (सौभाग्यदायक) सुख सौभाग्य सम्पत् प्रदायक (कृष्णागरु) कृष्ण अगरु आदि से (समुद्भूतः) उत्पन्न निर्मित (धूपैः) धूप से (मुक्तिफलप्रदै:) मुक्तिरूपी फल के देने वाली (नालिकेराम्रजम्बीरैः) नारियल, प्राम, बिजौरादि (फलैः) फलों से, (सुखाकरः) सुखदायक (वस्तुसारैः) उत्तम-उत्कृष्ट पाठों द्रव्यों के समूह रूप (अादिभिः) अर्घ्य आदि से (समभ्यर्च्य ) पूजा करके (शर्म) शान्ति (सन्दोह) सुखसमूह (दायनीम )देने वाली (च) और (स्तुति) स्तुति (सञ्चकार) करना प्रारम्भ किया। भावार्थ--जो भव्यात्मा नैवेद्य से पूजा करता है उसे कभी भी दारिद्रय जन्य पीडा नहीं होती। उस श्रीपाल महाराज ने अनेकों प्रकार की सुस्वादु मधुर चरुओं नैवेद्यों से श्री जिनेश्वर भगवान की पूजा की । गोला की चटक नवेद्य नहीं होती, अपितु घत, शक्करादि से बनाये भोज्य पदार्थ नवेद्य कहे जाते हैं अर्थात् लाडू, पूरी, रोटी, भात, रसगुल्ला आदि। ये स्वयं शुद्धता पूर्वक ताजे बनाना चाहिए। रत्न, एवं कर्पूर तथा घृतादि के दीपों से श्री जिनदेव की पूजा की । यह दीपपूजा मोह काम मद का नाश करने वाली होती है । सुगन्धित शरीर और सौभाग्यवर्द्धक दशाङ्गादि धूपों से पूजा की । मुक्ति रूपी फल को देने वाली श्रीफल, आम, अनार केलादि फलों से उत्तम अर्चा की। तथा अनध्यपद प्रदाता अनेकों शुभ सुन्दर पदार्थों से मिश्रित अर्ध्य से अर्चना कर प्रभु की स्तुति करना प्रारम्भ किया । अर्थात् जिनराज गुनगान करने लगा--।।११६-१२०-१२१।। जय त्वं जिन सर्वज्ञ वीतराग जगद्धित । जय जन्मजरातपर प्रक्षालन क्षम ॥१२२॥ अन्वयार्थ - (जिन) हे जिन, (सर्वज्ञ) हे सर्वज्ञ (वीतराग) भो वीतराग, (जगद्धित) हे संसार हितकर्ता (त्वम्) आप (जय) जयशील हों (जन्मजरातङ्कप्रक्षालन ) जन्म, बुढापा और मृत्यु के नाश करने में (क्षम) समर्थ प्रापकी (जय) जय हो । भावार्थ हे जिनेश्वर. सर्व के ज्ञाता, मोहकर्मधाता वीतरागप्रभो ! पाप ही समस्त संसार के कल्याण करने वाले हैं पाप सतत जयशील हों । प्रापही जन्म, वृद्धत्व और मरण का नाश करने में समर्थ हैं, आप सतत जयवन्त रहें । अ पकी जय हो, जय हो ।।१२२।। जयदेव जगद्वन्द्यपादपद्मद्वयप्रभो । जय निश्शत निर्द्वन्द्व निर्मक प्रभुताप्रद ॥१२३॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद अन्वयार्थ--(प्रभो) हे प्रभो ! (देव !) हे देव (जगद्वन्धपादपद्मद्वय ) संसार से वन्दनीय हैं आपके चरणकमल दोनों (जय) ऐसे अापकी जय हो (निश्सङ्क) आप शङ्का विहीन हैं (निर्द्वन्द्व) अप्रतिम प्रतापी हैं (निर्मद) मदर हित (प्रभुता प्रदम्) प्रभुता के देने वाले (जय) आपकी जय हो ।। भावार्थ-हे प्रभो आप जगद्वन्ध हैं । हे देव सारा संसार आपके चरणों में नम्रीभूत है । आप शङ्का विहीन हैं. अप्रतिम प्रतापी हैं, मद बिहीन हैं, दोष रहित हैं अद्वितीय प्रतिभाधारी हैं तथा भक्तों को इन गुणों के प्रदाता हैं। हे भगवन ! आपकी जय हो, जय हो ।।१२३।। जय श्रीजिन सद्भानो, लोकालोक प्रकाशकः । जय श्रीजिनचन्द्र स्वां, शान्तिकान्ति प्रदायकः ।।१२४।। अन्वयार्थ ---(श्रीजिन ! ) हे श्रीजिनभगवन् आप (लोकालोक) लोक और अलोक को (प्रकाशक:) प्रकाशित करने वाले गभानो हम दु वा साप (शान्तिकान्तिप्रदायक:) शीतलला एवं ज्ञानज्योति देने वाले (श्रीजिन) हे जिनप्रभो (चन्द्र) चाँद है (जय जय) आपकी जय हो, जय हो । भावार्थ- भानु दिन में उदित रहता है, कुछ ही स्थान के सीमित पदार्थों को ही प्रकाशित करता है, किन्तु हे श्री जिनदेव आप अद्वितीय भानु-सूर्य हैं। अर्थात् आपका ज्ञान रवि निरन्तर प्रकाशित-उदित रहकर युगपत तीनों लोकों के समस्त पदार्थों को अनन्तपर्यायों सहित प्रकाशित करने वाला है। आप की जय हो । रात्रि में चन्द्र क्षणिक शीतलता और कान्ति प्रदान करता है परन्तु आप चिरशान्ति और अनन्त आत्मज्योति प्रदान कर चिरसुख प्रदाता हैं, आप जयशील रहें ।।१२४।। जय त्वं मुक्त सङ्गोऽपि, सर्व सम्पद्विधायकः । जय तेजोनिधदेव, दर्शिताखिल भूतल ॥१२॥ अन्वयाथ – (सङ्गः) परिग्रह (मुक्तः) रहित (अपि) भी (स्वम् ) आप-तुम (सर्व) सम्पूर्ण (सम्पत्) सम्पत्ति (विधायक:) देने वाले (जय) आपकी जय हो, (अखिल ) समस्त (भूतल) भूमण्डल (दर्शितः) दिखलाने वाले (तेजोनिधे !) हे प्रकाशपुञ्ज, (देव) हे देव (जय) जयवन्त हो। मावार्थ--संसार में प्रसिद्धि है कि "जिसके पास जो होता है वही वह अन्य को देता है।" आनार्य भी कहते, "ददासि वस्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वच" किन्तु परम आश्चर्य है कि सर्व-अशेष परिग्रह रहित होकर भी आप संसार को सर्व सम्पत्तियों के विधायक हैं। भक्तों Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] [ २५ ३ को अभिलषित पदार्थों को देने वाले हैं। आप महान् तेजपुञ्ज स्वरूप है अक्षय प्रकाश से समस्त भूमण्डल को प्रकाशित करने वाले हैं है परम देव आपकी जय हो जय हो ।। १२५ ।। जय संसारवारासौ दत्तहस्तावलम्बनम् । त्वमेव भव्यजीवानां दुःखदावघनाघन ॥ १२६ ॥ अन्वयार्थ – (संसारवारासी) संसारसागर में ( दत्तहस्तावलम्बनम् ) हाथ का सहारा देने वाले ( जय) आपकी जय हो ( भव्यजीवानाम् ) भव्यजीवों के ( दुःखदाय ) दुःखरूपी दावानल को बुझाने वाले (तथम्) भाप (एव) ही (घनाघन ) मेघमाला हैं (जय ) आप जयवन्त हों । भावार्थ हे भगवान यह संसार समुद्र है इससे पार करने वाले आप ही हैं। आप तावलम्बन देने वाले हैं । दुःखरूपी दवाग्नि में संसारी जीव धायधांय जल रहे हैं, भस्म हो रहे हैं. इस ज्वाला को शान्त करने के लिए आप सघन गर्जना कर बरपने वाले मेघ हैं। आपकी जय हो ।। १२६ ।। त्वमेव परमानन्दस्त्वमेव गुणसागरः । त्वमेव करुणासिन्धुर्बन्धुस्त्वं भव्यदेहिनाम् ॥१२७॥ श्रन्वयार्थ -- हे प्रभो (त्वम् ) आप (एव) ही ( परमानन्दः) परमोत्कृष्ट श्रानन्द ( स्वम्) तुम एच) ही ( गुणसागरः ) गुणों के आकर ( त्वम् एव ) श्राप ही ( करुणा सिन्धु ) दयासागर ( त्वम एवं ) आप ही ( भव्यदेहिनाम ) भव्यजनों के (बन्धु) सच्चे बन्धु हैं । भावार्थ - हे भगवन ! आप परम श्रानन्द के धाम हैं । आप ही गुणों के सागर हैं। आप ही दयानिधि हैं भव्य जीवों के सच्चे बन्धु दुःखनिवारक सुखकारक आप ही हैं। अतुलगुणों के धाम आप ही । अर्थात् आपका दर्शन परम सुख का निशन है। सर्व दुष्कर्मों के नाशक आप ही हैं ||१२७।१ त्वं देव महतां पूज्यो महान पुण्य निबन्धनः । दुर्लभस्त्वमपुण्यानां प्राप्तोमयाति पुण्यतः ॥ १२८ ॥ अन्वयार्थ - - (देव) हे देव (त्वम् ) आप ( महताम् ) महानजनों से ( पूज्य : ) पूजने योग्य हैं - पूजनीय हैं ( महान् ) सातिशय (पुण्यनिबन्धनः ) पुण्यबन्ध के कारण, (अपुण्यानाम ) पापियों के लिए (दुर्लभः ) दुष्प्राप्य, (मया) मेरे द्वारा (अति) अत्यन्त ( पुण्यतः ) पुण्य योग से ( प्राप्तः ) प्राप्त हुए हैं । भावार्थ - श्रीपाल करबद्ध स्तुति कर रहा है कि "हे भगवान् आप महापुरुष नरपुङ्गव चकी, ऋषि, मुनि यतियों, इन्द्र धरणेन्द्रादि से पूज्यनीय हैं। पुण्यशाली प्राणियों को ही Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] [ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद आपका चरणसान्निध्य प्राप्त होता है। पुण्य विहीन को आपका दर्शन दुर्लभ, अति कठिन है, श्रापका दर्शन कर मैं प्राज धन्य हुआ हूँ। मेरे किसी विशेष पुण्य से आपके चरणकमल का दर्शन हुआ है ।। १२८ ॥ प्रद्यनाथात्र धन्योऽहं सफलं जन्मजीवितम् । विघ्न जालानि नष्टानि मेऽद्यत्वद्भजनाद्भ वि ॥ १२६ ॥ अद्य मे सफले नेत्रे देव त्वमूर्ति वीक्षणात् । कृतार्थी सत्करौ जातौ त्वद्विम्बस्तवनाच्चनात् ॥ १३०॥ अन्वयार्थ - (नाथ) हे नाथ ! ( अत्र ) यहाँ ( अद्य ) आज ( अहम् ) मैं ( धन्यः ) धन्य हूँ, (जन्म जीवितुम् ) मेरा जन्म और जीवन (सफलम् ) सफल हुआ ( भुवि ) पृथ्वीमण्डल पर ( त्वद् ) आपके ( भजनात् ) स्तुतिपाठ करने से ( अ ) आज ( मे) मेरे ( विघ्नजालानि ) कष्टजाल सब ( नष्टानि ) नष्ट हो गये ( अद्य ) श्राज (मे) मेरे (नेत्र) दोनों नयन ( सफले ) सफल हुए (देव) हे देव ( त्वत्) आपका (मूर्ति) विम्ब ( वीक्षनात् ) देखने से तथा ( त्वद्) आपकी ( विम्ब) प्रतिमा की ( श्रचंनात् ) पूजा करने से (च) और ( स्तवनात् ) स्तवन करने से ( सत्करों) मेरे दोनों हाथ ( कृतार्थी ) कृतकृत्य (जाती) हो गये । भावार्थ --- हे परम देवाधिदेव भगवन् आज यहाँ श्राकर में धन्य हुआ, मेरा जन्मसफल हुआ, तथा जीवन सार्थक हुआ। संसार में उसी का जन्म सार्थक है जो सर्वदोष रहित जिनेश्वर की उपासना कर अपनी आत्मा को भी कर्मकालिमा रहित बनाने का प्रयत्न करे । उसी का जीवन सफल हो जो जिनगुणगान में लगा हो । अतः हे प्रभो ! आपके दर्शन और स्तवन से मेरे समस्त विघ्नजाल कट गये। आज ही मुझे नेत्रों के पाने का यथार्थ फल मिला है । मेरे दोनों नयन आपके दर्शन करके सार्थक हो गये । आपका प्रनुपम विम्ब देखकर अवलोकन कर मैं सफल हुआ। आपकी पूजा और स्तवन से मेरे दोनों हाथ आज पावन हो गये, सार्थक हो गये । यथार्थ फल प्राप्त कर सफल हो गये। जिन चरणाम्बुज पूजा ही मानवता का श्रृंगार है ।। १२६-१३० ॥ श्रद्य धन्य हि मत्यादौ स्वामिस्त्वन्मूर्ति यात्रया । सफलं स्वशिरोमेऽद्य प्रणमत्त्वत्पदाब्जयोः ।। १३१ ॥ अन्वयार्थ - ( अद्य ) श्राज ( स्वामिन् ) हे भगवन (वत्) आपकी (मूर्ति) बिम्ब ( यात्रया) यात्रा करने से (हि) निश्चय से ( मत्यादी ) मेरे पौत्र ( धन्यो ) धन्य हो गये । (अ) आज ( त्वत्पादाब्जयोः ) तुम्हारे चरणकमलों में ( प्रणमत् ) प्रणाम - नमस्कार करते हुए (मे) मेरा ( स्वशिरो) अपना मस्तक ( सफलम् ) सफल हुआ। नाबार्य हे जिनेश्वर ! आपके बिम्ब की यात्रा करने से अर्थात् रथोत्सव में चलने Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] [ २५५ से मेरे दोनों चरण-पांव आज सार्थक हुए । अर्थात् पैरों के पाने का फल आज मुझे प्राप्त प्रमा। मेरे पर धन्य हो गये । मस्तक का पाना भी आज ही सफल ना क्योंकि आपके च णाविन्दों का स्पर्श करना ही मस्तक की सफलता है। जो मस्तक श्रीजिनचरणों में नहीं झुकता बह शिर नहीं अपितु थोथा नारियल समान व्यर्थ है । मैं आज ही मस्तक का धारी हुआ हूँ॥१३॥ कृतार्थसद्धचोमेऽद्य प्रभो त्वद्गुणभाषणात् । चपुस्ते सेण्या पूर्त मनान गुणजितनात् ।।१३२।। प्रन्ययार्थ (प्रभो) भो प्रभुवर ! (अद्य) आज (त्वदगुणभाषणात्) आप के गुणों का वखान करने से (मे) मेरे (सद्वचः) श्रेष्ठ बचन (कृतार्थम् ) कृतार्थ हुए, (ते) आपको (सेक्या) मेवा से (वपुः) शरीर (पूर्व) पवित्र हुअा (च) और (गुणचिन्तनात्) गुणों का चिन्तवन करने से (मनः) मन (पूतम् ) पवित्र हुया ।।१३२।। भावार्थ-हे दीनदयाल, जगदीश्वर ! आज आपके गुणों का चिन्तवन करने से मन और गुण कीर्तन करने से मेरी रसना, मेरे वचन सार्थक हो गये। भवत्पूजनतो नाथ ! त्रिजगत्पूज्यतापदम् । प्राप्यते च पराकीतिस्त्वद्गुणस्तवनाम्दुधौ ॥१३३॥ अन्वयार्थ – (नाथ ! ) हे प्रभो ! (भवत्पूजनतः) आपकी पूजा करने से (बुधाः) सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जन (त्रिजगत्) तीनलोक से (पूज्यतापदम्) पूजितपद को (च) और (स्वदगुणस्तवनात) पाएके गुणों का स्तवन करने वाले (पराकीति) सर्वव्यापी यश को (प्राप्यते) प्राप्त करते हैं । भावार्ग है जिनदेव जो भव्यात्मा भक्तिभाव से आपकी पूजा करता है वह स्वयं आप महश ही पूज्य हो जाता है। तीनों लोकों से पूजनीय बन जाता है। तथा जो आपके गुणों का गान करता है यश गाता है उसका यश भी त्रिलोकव्यापी हो जाता है । अभिप्राय यह है कि आप अपने भक्तों को अपने समान ही बना लेते हैं । इस प्रकार की शक्ति आप ही में है । पारशमणि लोहे को सुबरण बना सकती है, पारसमणि नहीं । चिन्तामणिरल चिन्तित पदार्थ दे सकती है, चिन्तामणि नहीं बना सकती है । आप ही एकमात्र अपने पाराधक को भाराध्य बनाने वाले हैं । अचिन्त्य है प्रभाब आपका भगवन ।।१३३।। नाथ तेंघ्रिनमस्कारादुच्चोत्रंसुराच्चितम् । भक्त दिव्यंवपुःकान्तं लभ्यते भाक्तिकरिह ।।१३।। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] [ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद अन्वयार्थ---(नाथ ! ) भो नाय (ते) आपके (अंघ्रिनमस्कारात्) चरणों में नमस्कार करने से (भाक्तिकः) भक्तों द्वारा (इह) यहाँ (सुराचितम् ) देवों से पूजित (उच्च:) उत्तम (गोत्रम ) गोत्र तथा (भक्त :) भक्ति करने से (दिव्यम ) शोभनीय (कान्तम् ) कान्तियुक्त (वपुः) शरीर (लभ्यते) प्राप्त किया जाता है। भावार्थ -हे जिनेश्वर भगवन ! जो भक्त, श्रद्धा, भक्ति और विनय से प्रापके पवित्र चरण कमलों में नमस्कार करता है उसे लोकमान्य, देव पूजित उत्तम कुल मोत्र की प्राप्ति होती है । तथा जो भक्त सुदृढ, निष्कपट भक्ति करता है उसे अत्यन्त सुन्दर प्राकृति वाला कान्तिमान, दिव्यरूपलावण्य युक्त शरीर की प्राप्ति होती है । अभिप्राय यह है कि जिन भगवान की भक्ति उभयलोक सम्बन्धों सत्सम्पदा प्रदान करता है ।।१३४॥ अनन्तांस्त्वद्गुणानीश तेऽत्रासाधारणान् परान् । मुक्त्वा गणाधिपं कोऽन्यः स्तोतुमर्हति सद्बुधः ॥१३५।। अन्धयायं--(ईश:) हे परमेश्वर ! (त्वद्) आपके (अनन्तान्) अन्तातीत (असाधारणान्) असाधारण (परान्) अन्य-अन्य (गुणान्) गुणों की (स्तोतुम ) स्तुति करने में (गणाधिपम ) गणधर भगवान को (मुक्त्वा ) छोड़कर (अन्यः) दुसरा (क:) कौन (सबुधः) बुद्धिमान (अर्हति) समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई भी नहीं। भावार्थ हे जगदीश ! आपके गुण अन्तातीत हैं । गणधर देव हो उनकी स्तुति करने में समर्थ हो सकते हैं। अन्य बुद्धिमान उन्हें स्तुति का विषय बनाने में समर्थ नहीं हो सकता । क्योंकि वे गुण असाधारण हैं अर्थात् आपके सिवाय अन्य किसी में भी नहीं पाये जा सकते हैं । फिर भला मैं तुच्छ बुद्धि किस प्रकार स्तुति करने में समर्थ हो सकता हूँ ? अर्थात् नहीं हो सकता ।।१३५।। मत्त्वेति देव तीर्थेशत्वद्गुणग्राम भाषणे। मया स्वल्पधियाप्यद्य कृतोद्यमः तव भक्तितः ।।१३६।। अन्वयार्थ – (इति) इस प्रकार (मत्त्वा) मानकर (देव) भो भगवन् (तीर्थेश ! ) हे तीर्थप्रवर्तक ! (अद्य) प्राज (स्वल्पधिय!) अल्पबुद्धि (अपि) भी (मया) मेरे द्वारा (त्वद् गुणभाषणे) आपके गुण वर्णन में (तव) आपकी (भक्तितः) भक्ति में (कृतोद्यमः) उद्यम किया गया। मावा ...हे तीर्थ प्रवर्तक, हे देव आपके गुण अनन्त हैं । मेरी बुद्धि अल्प है । मैं जानता है कि आपके गुणों का एक अंश भी मैं वर्णन नहीं कर सकता । तो भी आज जो मैंने आपकी स्तुति करने का साहस किया है वह आपकी भक्ति का ही प्रभाव है। आपकी प्रबल Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] [२५७ भक्ति वश हो आज मैं आपका गुणानुवाद करने के लिए तत्पर हुआ हूँ। यह सब मेरी शक्ति नहीं पी का प्रभाव है ।। १३६ ।। अत्र देव नमस्तुभ्यं नमस्ते दिव्यमूर्त्तये । नमो मुक्तयङ्गना भर्त्रे, धर्मतीर्थप्रवत्तने ॥१३७॥ अन्वयार्थ - ( अ ) यहाँ, अब (देव) भो देव ! ( तुभ्यम् ) आपके लिए (नमः) नमस्कार है (दिव्यमूर्तये) हे दिव्यमूर्ति (ते) आपको (नमः) नमस्कार हो, (मुक्तिमना) मुक्तिरुपी भार्या के (भ ! ) पति ! ( धतीर्थप्रवतिने ! ) हे धर्म तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थङ्कर प्रभो ! (नमः) आपको नमस्कार हो । भावार्थ हे देवों के देव ! में अल्पज्ञ मात्र नमस्कार कर ही आपके गुण समूह का गान कर सकता हूँ अतः हे दिव्यमूतें आपको नमस्कार हो । मुक्ति कन्या का वरण करने वाले प्रभो आपको नमस्कार है। हे जिनाधीश, हे धर्मेश ग्राप हो धर्मतीर्थंकर हैं आपके चरणों में बारम्बार नमस्कार है ।। १३७ ।। ग्रहो स्वामिन जडोलोकस्तावदुःखभवायेंगे | यावत् त्वं भक्तिभारेख वीक्षितो न दुखी नरः ॥ १३८ ॥ अन्ययार्थ ( श्रहो स्वामिन् ) हे भगवन् ( जडोलोक: ) मूर्ख संसारी जन ( नरः ) मनुष्य (दुःखभवार्णवे ) दुःखरूपी संसार में ( तावत्) तभी तक ( दुखी) पीडित हैं ( यावत् ) जब तक (स्वम् ) आप ( भक्तिभारेण ) भक्तिभाव से (न) नहीं ( वीक्षितः ) देखे गये । भावार्थ - हे परमात्मन् ! अन् स्वामिन् यह संसार दुःख का भयङ्कर समुद्र है । समस्त प्रज्ञानी प्राणी इसमें दुःखानुभव कर रहे हैं। इसका कारण आपके दर्शन और भक्ति का अभाव है। जो भक्तिभाव से अपका दर्शन करता है उस संसार जन्य दुःख, ताप, सता नहीं सकता । अतः हे भगवान् जीव तभी तक दुःखी रहता है जब तक भक्तिभा से आपका दर्शन नहीं करता ।। १३८ ॥ संसारमतो देव पूतं ते चरणद्वयम् । अनन्यशरणीभूतं भूयाम्मे शरतं प्रभो ॥१३६॥ प्रन्वयार्थ - - ( श्रतः ) इसलिए (देव) हे देव ! (आसंसारम् ) मुक्ति प्राप्ति पर्यन्त (ते) आपके ( पूतम् ) पवित्र (अनन्यशरणीभूतम् ) प्रप्रतिमशरण स्वरूप (चररणडयम) दोनों चरण कमल (में) मेरे लिए (प्रभो ) हे प्रभो ( शरणम ) शरणरूप ( भूयात्) होवें । भावार्थ- हे प्रभो, इसीलिए मैं चाहता हूँ कि जब तक मुझे मुक्ति प्राप्ति न हो तब Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] [ श्रीपाल चरित्र चतुथं परिच्छेद तक भव भव में आपके परम पावन, अनन्य शरणरूप दोनों चरणों की शरण प्राप्त होती रहे । अर्थात् जैनधर्म और जिनभक्ति हो प्राप्त होती रहे ।। १३६ ।। रम् इत्यादिकं महास्तोत्रं पवित्रं शर्मकार कृत्वा जपादिकं नत्था निर्ययौ जिनमन्दिरात् ॥ १४० ॥ 1 अन्वयार्थ --- ( इत्यादिकम ) उपर्युक्त प्रकार ( पवित्रम् ) निर्मल ( महास्तोत्रम ) महास्तोत्र ( शर्मकारणम ) शान्तिदायक ( जपादिकम् ) जप आदि ( कृत्वा ) करके ( नत्वा ) नमस्कार करके (जिनमन्दिरात्) जिनालय से ( निर्ययौ) बाहर निकला । भावार्थ — उपर्युक्त प्रकार नाना प्रकार परम पवित्र स्तोत्र पढकर पुनः पुनः नमस्कार कर जपादि करके श्रीपाल आनन्द से जिनालय से बाहर आया ।। १४० ।। तावत्तत्र समागत्य विश्वाधरनरेश्वरः । कश्चिज्जगावतं प्रीत्या श्रीपालपरमोदयम् ।। १४१ ।। अन्वयार्थ -- ( तावत् ) जिस समय श्रीपाल मन्दिर से निकला उसी समय ( तत्र ) वहाँ ( कश्चिद्) कोई (विद्यावर नरेश्वरः ) विद्याधरों का राजा ( समागत्य ) श्राकर (तम् ) उस ( परमोदयम् ) परम उदय को प्राप्त ( श्रीपाल म् ) श्रीपाल को ( प्रीत्या ) प्रेम से ( जगाद ) बोला । भावार्थ जिस समय श्रीपाल जिनालय से बाहर आये उसी समय कोई एक विद्याधरों का नृपति वहां आया। श्रीपाल को अत्यन्त प्रेम से देखकर निम्न प्रकार बोला कहने लगा ।। १४१ ।। शृणत्वंभोमहाभाग रूपनिजितमन्मथ । अहं विद्याधरो राजा रत्नद्वीपेऽत्रशमंदे ॥ १४२ ॥ अन्वयार्थ - - ( भो महाभाग ! ) हे महाभाग्यशालिन् ( रूपनिर्जित) सौन्दर्य से जीत लिया है ( मन्मथ ! ) कामदेव तुमने ( त्वम् ) श्राप (वण) सुनिये ( श्रत्र ) यहाँ ( शर्मदे ) शान्तिदायक (रत्नद्वीपे ) रत्नद्वीप में ( अहम् ) मैं ( विद्याधर : ) विद्याधर (राजा) राजा हूँ । मावार्थ - वह श्रज्ञात व्यक्ति बोला, हे विशिष्ट भाग्यशालिन् ! आपने अपने परम सौन्दर्य से कामदेव को भी जीत लिया है। मैं इस शान्तिदायक रमणीय द्वीप का अधिपति हूँ विद्याधर राजा हूँ ।। १४२ ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] राज्यं करोमि मत्पत्नी मेघमाला गुणोज्वला । पुत्रौचित्रविचित्राख्यो समुत्पन्नौ मनः प्रियौ ॥ १४३॥ [२५६ अन्वयार्थ --- राजा कहता है इस द्वीप में ( राज्यम् ) राज ( करोमि ) करता हूँ ( मत्पत्नी ) मेरी पत्नी (गुणोज्वला ) उत्तम गुणों से निर्मल ( मेघमाला ) मेश्रमाला ( मनः प्रियो ) मन मोहक प्रिय ( चित्रविचित्राख्यो ) चित्र और विचित्र नाम के (पुत्र) दो पुत्र ( समुत्पन्नी) उत्पन्न हुए तथा -- पुत्री मा सर्वतः। रूपलावण्य सौभाग्यशील रत्नाकर क्षितिः ॥ १४४ ॥ । प्रन्वयार्थ - ( सर्वलक्षणसंयुता ) नारी सुलभ सम्पूर्ण शुभ लक्षणों सहित ( रूपलावण्य ) सौन्दर्य, श्राकर्षण (सौभाग्य) सुवासिनी ( शीलरत्नाकर क्षितिः) शील, सदाचार आदि की रत्नाकर भूमि सदा है । भावार्थ हे महाशय ! मैं इस द्वीप में राज्य करता हूँ । अत्यन्त उज्वल गुणों की खान "मेघमाला" नाम की मेरी धर्म पत्नी पटरानी है। उससे उत्पन्न चित्र और विचित्र नाम के दो गुणवन्त पुत्र हैं तथा रूप की राशि लावण्य से चन्द्र का उपहास करने वाली, सौभाग्यमण्डित, शोल की खान अनेक गुणों की भूमि, मानों गुणरत्नों की सागर हो ऐसी मदनमञ्जूषा नाम की मेरी पुत्री है ।। १४३ - १४४ ।। एकदाहं महाप्रीत्या ज्ञानसागरयोगिनम् । सम्प्रणम्यकृतप्रश्नो भो स्वामिन् मे सुतावरः ।।१४५।। को भावी त्वं कृपां कृत्वा सुधीवक्तुमर्हसि । ततो जगौयतिश्चैवं भो विद्याधर भूपते ॥ १४६॥ अस्मिन् द्वीपे जिनेन्द्राणां सहस्रशिखरान्विते । चैत्यालये महावज्रकपाट युगलंदृढम् || १४७।। उद्घाटयिष्यति व्यक्तं महाकोटिभटः पुमान् । यस्भर्त्ता सुतायास्ते भविष्यति न संशयः ।। १४८ ।। चतुष्कम् ।। अन्वयार्थ - ( अहम् ) मैंने राजा (एकदा) एक समय ( महाप्रीत्या ) अत्यन्त अनुराग से ( ज्ञानसागर योगिनम् ) ज्ञानसागर नाम के मुनिराज को ( सम्प्रणम्य ) सम्यक प्रकार ननस्कार करके ( प्रयन: ) प्रश्न ( कृतः ) किया. ( भो स्वामिन् ) हे मुनिवर ! (मे) मेरी ( सुताबर: ) कन्या का वर ( को ) कौन (भावी ) होनहार है ? ( कृपाम् ) दया ( कृत्वा) करके ( सुधीः ) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६.] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद हे बुद्यिमन् (त्वम् ) आप (मे) मुझे (वक्तुम् ) कहने को (अर्हसि) समर्थ हैं ? अर्थात् बतायें (ततः) इस प्रकार पूछने पर (यतिः) मुनिराज (एवम् ) इस प्रकार (जगी) कहने लगे (भो) हे (विद्याधरभूपते) विद्याधर नरेश ! (अस्मिन्) इस (द्वी) द्वीप में (जिनेन्द्राणाम ) जिनेन्द्र भगवान के (सहस्रशिखर) एक हजार शिखरों से (अन्विते) युक्त ( चैत्यालये) जिनालम में (इढम् ) मजबूत (महावज्रकपाट) महावज्र के किवाड (युगलम ) युगल को (यः । जो (व्यक्तम ) स्पष्ट (उद्घाटयिष्यति) खोलेगा (सः) वह (महाकोटिभटः) महाकाटिभट (पुमान्) पुरुष (ते) तुम्हारी (सुतायाः) कन्या का (भर्ता) पति (भविष्यति) होगा (नसंशयः) इसमें संशय नहीं ।।१४५ से १४८।। भावार्थ-वह राजा पुन. श्रीपाल से कहता है, हे महानुभाव सुनिये । एक दिन मैं ज्ञानसागर नाम के यतिश्वर के दर्शनार्थ गया। वे यासराय थयानाम तया गुम" थे । विज्ञानलोचन के धारी थे। संसार शरीरभोगों से सर्वथा बिरक्त प्रात्मध्यान लीन थे। तो भी करुणा के रत्नाकर, परोपकार परायण थे। मैंने बड़े भक्ति भाव से उनकी पवित्र चरण वन्दना की । नमस्कार कर बैठा । पुन: सविनय नमन कर हाथ जोड़ प्रार्थना की कि हे ज्ञानमुर्ते! हे योगीश्वर ! मेरी सर्वलक्षण संयुक्त कन्या का पति कौन होगा ? इस प्रश्न का उत्तर देने में आप पूर्ण समर्थ हैं। प्रतः कृपाकर मेरा सन्देह निवारण करें। आप दया निधान है। इस प्रकार प्रार्थना करने पर मुनिराज ने कहा, हे नरोत्तम हे विद्याधर नरेश ! सुनो, आपके द्वीप में सहस्रकूट जिनालय है। यह एक हजार अद्भुत शिखरों वाला जिनमन्दिर बनकिवाडों से जड़ा है। कोई भी आज तक इन वज्रकिवाडों को नहीं खोल सका । अब जो महानुभाव यहाँ पाकर इन दोनों किवाडों को खोलेगा वहीं कोटिभट महापुरुष तुम्हारी कन्या का बर होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है। निश्चित ही वह महासुभट आयेगा ॥१४५ से १४८।। -- अद्य प्रकृष्ट पुण्येन स त्वञ्चात्र समागतः । श्रुत्वाहं सेवकावत्र त्वां दृष्टुञ्च सुधीरितः ॥१४६।। अन्धयार्थ...-मुनिराजकथित (सः) वह महानुभाव (रबम.) आप (अ) प्राज (प्रकृष्ट) महान (पुण्येन) पुष्य से (अत्र) यहाँ (समागतः) आये पधारे हैं (इति) इस प्रकार Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद]] (सेवकात्) अपने सेवक से (श्रुत्वा) सुनकर (अहम ) मैं (सुधोः) हे बुद्धिशालिन (त्वाम् ) आपको (दृटुम ) देखने के लिए (अत्र) यहाँ (इरित:) आने को प्रेरित हुआ हूँ। मावार्थ - राजा कहता है, आज हमारे महान् पुण्य योग से प्राप यहाँ पधारे हैं । यह समाचार मुझे प्राप्त हुआ। जिस दिन मुनिराज की भविष्यवाणी हुयी उसी दिन से मैंने यहाँ द्वार पर सेवक नियुक्त कर दिये थे, कि “जो महापुरुष इन सुदृढ दोनों किवाडों को खोले, उसी समय तुम मेरे पास प्राकर यह शुभ समाचार दे देना।" तदनुसार अपने सेवक से यह मङ्गलमय समाचार ज्ञात कर आपके दर्शनों को दौडकर पाया हूँ। आपको देखकर मुझे अपार हर्ष है । मैं शुभ पुण्याधिकारी हूँ ऐसा मानता हूँ । हे बुद्धिमन् आपको पाकर मुझे परमानन्द हुपा है ।।१४६॥ अतो मन्दिरमागत्य मदीयं पुण्यपावनम् । परिणय सुतां मे त्वं सत्यं कुरु मुनेर्वचः ॥१५०॥ मार्थ- (.) इसलिए (म्) आप (पुण्यपावनम्) पवित्रपुण्य रूप (मदीयं) मेरे (मन्दिरम्) घर को (आगत्य) पाकर (मे) मेरी (सुताम )पुत्री को (परिणय) विवाहो, तथा (मुनेः) गुरुवचन को (सत्यम ) सत्य (कुरु) करो। भावार्थ विद्याधर भुपति ने श्रीपाल से प्रार्थना की "हे महानुभाव मेरे घर में पधारिये । परमपवित्र मेरा मन आपके योग्य है । कृपाकर मेरी मुरूपा गुणवती कन्या को वरण करिये । आपके इस कार्य से मुनिराज के वचन सत्य प्रमाणित होंगे । अतः पाप मेरे साथ पधार कर मुनिराज की भविष्यवाणी को सत्य करें ।।१५०।। इत्याकर्ण्यवचस्तस्य विनयेन समन्वितम् । .. श्रीपालस्तु जगादोच्चैरेवमस्तु तदा मुदा ।।१५१३॥ अन्वयार्थ -- (इति) इस प्रकार (विनयेन) नम्रतापूर्ण विनय से (समन्वितम्) युक्त (तस्य) उस राजा के (वचः) बचा (आकर्ण्य) सुनकर (श्रीपाल:) श्रीपाल कोटि भट (तु) निश्चय से (तदा) तब (मुदा) हर्षित हो (उच्चैः) स्वाभिमान से (जगादः) बोला (एवम् इसी प्रकार (अस्तु) हो । अर्थात् चलता हूँ। भावार्थ--उस नराधिप के विनय से संयुक्त वचनों को सुनकर श्रीपाल कोटिभट ने भी स्वीकृति रूप में कहा “ऐसा ही हो" अर्थात् मैं आपके साथ चलता हूँ । आपकी इच्छा पूर्ण करूंगा ।।१५।। ततो विद्याधरो राजा सन्तुष्टो मानसे तराम् । श्रीपालं गृह्मानीय गुणरत्नविभूषितम् ।।१५२।। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद शुभे लाने दिने रम्ये महोत्सवशतैरपि । विवाह विधिना तस्मै श्रीपालाय सुतां ददौ ।।१५३॥ अन्वयार्थ (ततो) तब (तराम् ) अत्यन्त (मानसे) मन में (सन्तुष्टः) सन्तुष्ट हुए (विद्याधरराजा) विद्याधर भूपाल ने (गुणरत्नविभूषितम्) गुणरूपोरनों से विभूषित (श्रीपालम् ) श्रीपाल कोटीभट को (गृहम् ) घर (आनीय) लाकर (शुभे) शुभ (लग्ने) लग्न में (रम्ये) शोभनीय (दिने) दिन में (शतैः) सैंकड़ों (महोत्सवः) महा उत्सवों के (अपि) भी द्वारा (विवाहविधिना) विवाह की समस्त विधि सहित (तस्मै) उस (श्रोपालाय) श्रीपाल के लिए (सुताम् ) अपनी कन्या को (ददी) प्रदान किया। ।।। AN . भावार्थ ...कोहिम श्रीपाल को स्वीकृति पाकर उसे अत्यन्त हर्ष हुआ। प्रानन्दाभिभूत हो उस गुरणरूपीरत्नों के सागरश्रीपाल को अपने घर में प्रवेश कराया। हर प्रकार से उसकी पाहुनगति को। सत्कार-पुरस्कार कर अपने को धन्य माना ठीक ही संसार में कन्या के युवती होने पर माता-पिता को जो आकुलता होती है वह भुक्तभोगी ही समझ सकता है। उसका रक्षण करते हुए योग्य अनुकूल वर की खोज करना उन्हें कठिन हो जाता है। ग्राज के युग में तो यह समस्या इतनी जटिल हो गई है कि वेचारे मातापिता ही नहीं सारा परिवार ही चिन्ताग्रस्त हो जाता है । इस परिस्थिति में स्वयं घर बैठे योग्य बर मा जाने पर कन्या को तातमात, स्वजनों को हर्षातिरेक होना स्वाभा विक ही है। अस्तु, विद्याधर नरेश्वर ने शीघ्र ज्योतिषियों को बुलाकर मुहर्त निकालने की आज्ञा दी। तदनुसार उत्तम लग्न, श्रेष्ठ दिन और पावन घड़ी में सैकड़ों नत्य, गीत, वादित्र, संगीतादि उत्सवों के साथ-विपुल वैभव पुर्वक अपनी सर्वाङ्ग सुन्दरी कन्यारत्न का, अशेष विवाह संस्कार विधि पूर्वक श्रीपाल के साथ कर दिया । यह पाणिग्रहण संस्कार आज के युवकों को महत्वपुर्ण प्रेरणा देता है । इस समय कोटिभट श्रीपाल के पास तन पर वस्त्र छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं था । बर्बर राजाओं से प्राप्त सम्पदा को भी वहीं वितरण कर दिया था । इस अवस्था में भी राजकन्या के पिता से कोई प्रकार की "वरदक्षिणा" की याचना नहीं की। दहेज नहीं मांगा । उसे अपने वल पुरुषार्थ और भाग्य पर अटल विश्वास था । वह जानता था कि संसार में किसी से किसी भी प्रकार - - Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] [२६३ की लधु से लघु वस्तु को याचना मनीषियों के लिए लज्जा का विषय है ! मांगने और मृत्यु में कोई अन्तर नहीं है अपितु मांगना मृत्यु से भी अधिक नोच है खोटी है । लोक व्यवहार में भी नीतिकार कहते हैं "हे मन वे नर मर गये जो भर मांगन जाय ।" अतः हमारे समाज के थोथे धन के अभिमानी और युवक समाज को इस रहस्य को समझने की चेष्टाकर नारी जानि पर किये जाने वाले प्रत्याचारों का निराकरण करना चाहिए ।।१५२. १५३।। सती मदनमञ्जूषां दिव्यभूषां गुरगोज्वलाम् । कोमलां कल्पवल्लीव मनोनयनबल्लभाम् ॥१५४।। नानारत्न सुवर्णादि मणिमुक्ता फलोत्करम् । पट्टकूलानि चित्राणि सुवस्त्राणि पुनर्ददौ ॥१५५।। अन्वयार्ग-- दहेज की मांग नहीं होने पर भी राजा ने अपनी प्रियपुत्री को सब कुछ दिया (दिव्यभूषाम् ) दिव्य-मनोहर अलङ्कारों से अलकृत, (गुणोज्वलाम् ) गुणरूपी किरणों से प्रकाशित, (कोमलाम्) अत्यन्त सुकुमारी (कलावल्लीइव) कल्पलता के समान (मनोनयनवल्लभाम्) मन और नयनों को प्रिय (सतीम् ) शीलवती (मदनमञ्जूषाम् ) मदनमञ्जूषा को (नानारत्न) अनेकों रखन, जवाहिरात (सुवर्णादि) सुवर्ण के (मणिसुक्ताफलोकरम्) मणि, मुक्ताफलों से जटल आभूषण तथा (पट्टकूलानि) सुवर्णादि के वस्त्र, रेशमी जड़े वस्त्र (पुनः) फिर और भी (चित्राणि) अनेक प्रकार के (सुबस्त्राणि) पोषाकादि (ददी) दिये। भावार्थ -विद्याधर नरेश्वर ने अपनी पुत्री को कन्यादान में अनेको वस्तुएँ प्रदान की । वह सुता दिव्यवस्त्राभूषणों से सजायी गई थी। स्वभाव से ही अनेकों उत्तम गुणों से विभूषित थी, शिरीस कुसुम के समान उसके आङ्गोपाङ्ग सुकोमल थे, वह साक्षात् कल्पलता के समान प्रतीत हो रही थी। उसके अङ्ग-अङ्ग सं रूप, लावण्य, सौन्दर्य की छटा छन-छन कर रही थी । आबालवद्ध सभा के मन अरि नयन उस पर न्याछावर हो रहे थे । महासती, विनय, लज्जा और शोल से नम्रीभत थी। इस प्रकार की गुणरत्नों को भमि स्वरूप उस अपनी पुत्री को राजा ने अनेकों उत्तम रत्न, रत्नजटित सुवर्ण के वस्त्राभूषण, मणिमुक्ताफलों से जटित अनेकों हार, शूगार के साधन पदार्थ भेंट किये अनेकों प्रकार के बहुमूल्य पदार्थ भेंट में दिये ।।१५४-१५५।। और क्या-क्या दिया दासीदासगजाश्वादि समूह गुरपशालिने । चन्दनागरूकपूर सारवस्तुशतानि च ॥१५६।। तथा सन्तुष्टचित्तस्सन सुविद्या बन्ध मोचिनीम् । परशस्त्रहरांविद्यां ददातिस्म जगद्विताम् ॥१५७।। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद अन्वयार्थ --- (गुणशालिने) उस गुणा श्रीपाल के लिए (दासीदासगजाः) दासियाँ, सेवक, अनेक हाथी (अश्वादि) घोड़ आदि का (समूहम्) समूह, (चन्दनागुरु कारादि) चन्दन, अगरू, कपूर आदि सुवासित (शतानि) सैकडों (सारवस्तुनि) उत्तमोत्तम वस्तुएँ (च) और (सन्तुष्ट चितसन्) प्रसन्नचित्त हुए उस राजा ने (बन्धमोचिनीम) बन्धनमुक्त करने वाली (सुचिद्याम् ) उत्तम विद्या (तथा) एवं (जगद्धिताम्) जगतहितकारी (परशस्त्रहाम्) दूसरे के शस्त्रों को हरने वाली (विद्याम्) विद्या (ददातिस्म) प्रदान को । भावार्थ -उस राजा ने अपनी पुत्री और जंवाई को अनेकों सेविकाएँ-सेवक दिये। गज और घोडों के समूह प्रदान किये गुणीजनों पर किसको प्रीति नही होती ? सभी का अनुराग हो जाता है । फिर अब तो दामाद हो गये श्रीपाल जो, फिर क्यों न भेट करता ? यही नहीं प्रसन्नचित्त है, सन्तुष्ट भूपति ने अगर, तगर, चन्दन, कर्मुरादि अनेकों प्रकार की सुगन्धित पदार्थ दिये । साथ ही "बन्धविमोचिनी" नाम की विद्या प्रदान की । इस विद्या के प्रभाव मे कोई शत्रु कितने ही कठोर बन्धन में क्यों न डाल दे, शीघ्र ही बन्धन खूल जाय । सर्वहित करने वाली "परशस्वहारिणी” विद्या भी उसे प्रदान की । इस प्रकार अतुल वैभव के साथ कन्यादान किया। यह सब कुछ राजा ने स्वयं स्वेच्छा से प्रानन्द से प्रदान की । कोई विवशता या बलात्कार से नहीं दी। देने वालों को देकर उत्साह और आनन्द हो वही दान सार्थक है ॥१५६-१५७।। सत्यं धर्मवतां पुसां जिनधर्मप्रसादतः । सम्भवन्ति तदा सर्व सम्पदः शर्मदा मुदा ॥१५८।। अन्वयार्थ -(सत्यम्) सत्य ही (धर्मवतांपुसाम्) धर्मात्मापुरुषों को (जिनधर्मप्रसादतः) जिनधर्म के प्रभाव से (तदा) उस धर्म सेवन काल में (मुदा) प्रसन्न हो (सर्वसम्पदः) सम्पूर्ण विभूतियाँ (सम्भवन्ति) उत्पन्न हो जाती हैं । भावार्थ -जैनधर्म विश्व में अद्भुत और श्रेष्ठतम धर्म है। जो भव्य इसका पालन घारण करता है उसे अनायास ही सम्पूर्ण सम्पदाएँ प्रसन्न होकर स्वयं आ घेरतो है । अनायास सुख सामग्नियाँ प्राप्त हो जाती हैं। तीन लोक की विभूति उसके चरणों की दासी बन जाती है ॥१५॥ श्रीपालोऽपि स्वपुण्येन समादाय स्वकामिनीम् । महाविभूति संयुक्तः श्रेष्ठिनः पार्श्वमाययौ ॥१५६।। अन्वयार्थ-(श्रीपाल:) श्रीपाल (अपि) भी (स्व पुण्येन) अपने पुण्य से (स्व) अपनी (कामिनीम् ) वल्लभा को (समादाय) लेकर (महाविभूति) महान वैभव (संयुक्तः) सहित (श्रेष्ठिनः ) धवल सेठ के (पार्श्वम्) पास (प्राययो) पाया। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद] [२६५ भावार्थ-श्रीपाल कोटिभट प्रानन्द से विवाह कर अपनी अद्वितीय सुन्दरी परमभीलवती पत्नी मदनमञ्जूषा को लेकर आया । अतुल वैभव साथ में मिला ही था । सब सामग्री सहित सागरतट पर पहुंचा 1 वहीं धवल सेठ था । अतः पिता तुल्य उस सेठ के पास सर्वविभूति सहित आया। सज्जन व्यवहार कुशलता का त्याग नहीं करते । तत्वज्ञ वैभव पाकर विमूढ नहीं होते। विनय का त्याग नहीं करते । कृतज्ञ जिनधर्म परायण, सिद्धाराधक श्रीपाल भला सेठ का उपकार कैसे भूलता ? नहीं । अतः पिता समान उस सेठ का समादर कर उसे अपना प्राप्त सर्व वैभव दिखलाया ।।१५६।। एकदा तं प्रियं प्राह मञ्जूषा मदनादिका । कति प्रमाणास्ते सन्ति कामिन्यो गुणमण्डिताः ।।१६०॥ अन्वयार्थ (एकदा) किसी एक समय (मदनादिका मञ्जूषा) मदनसुन्दरी (तम्) उस अपने (प्रियम्) प्रिय पतिदेव से (प्राह) बोली (ते) आपके (गुणमण्डिताः) गुणों से विभूषित (कामिन्यः) पत्नियां (कतिप्रमाणा) कितनी संख्या में (सन्ति) हैं। श्रीपाल अपनी कामिनी मदनमक्षा को पाकर विषय भोगों में अनुरक्त हो गया। जाके मेने से दिौर चांदी गाने नीतने लगी ! किन्तु मोहान्ध नहीं हुआ । धर्म ध्यान और तत्त्व चर्चा एवं धर्मकथाएँ उसके परम मित्र समान स्मृति में थे । अर्थात् धर्मध्यान पूर्वक रहने लगे । एक दिन उसकी प्रिया ने प्रश्न किया - भावार्थ--एक दिन विनोद करते हुए मदनमञ्जूषा ने अपने प्राणवल्लभ से पूछा । हे नाथ मुझ से अतिरिक्त गुणविभूपिता कितनी प्रिया हैं ? पति के मन की थाह लेना नारी का सहज स्वभाव है । अत: यह स्वाभाविक प्रश्न किया ।।१६०।। तथा और भी अपने पति का परिचय जानने की जिज्ञासा व्यक्त की--- अस्ति ते जननी कुत्र सती सद्गुरणशालिनी । वदत्वं प्रेमतस्सर्व वृत्तं ते शर्मदायकम् ॥१६॥ अन्वयार्थ --मदनमञ्जूषा विनम्रता से पूछ रही है. हे देव ! (ते) आपकी (सती) शीलवती (सद्गुणशालिनी) श्रेष्ठ गुण विभूषिता (जननी) मातेश्वरी (कुत्र) कहाँ (अस्ति) है ? कृपया (ते) आपका (शर्मदायकम् ) सन्तोष प्रदायक (सर्वम्) सम्पूर्ण (वृत्तम् ) चरित्रपरिचय (प्रेमतः) अानन्द से (वद) कहिए। भावार्श-मदनमञ्जूषा विनम्र हो अपने पतिदेव से उनका जन्म परिचय ज्ञात करने की प्रार्थना करती है । आपकी साध्वी-शीलवती, सद्गुणघारिणी माता जी कहाँ हैं। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद प्रापने किस पुर को अपने जन्म से अलङ्कृत किया है ? आपका वंश, कल कौनसा है ? राज्य कहाँ हैं ? यहाँ शुभागमन किस कारण से हुअा इत्यादि सम्पूर्ण वृतान्त प्रेभ स काहए । मेरे प्रश्न पर कोप न करें । सरलता से मैं अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए पूछ रही हूँ। अतः मेरी अभिलाषा पूर्ण करने का कष्ट करें ।।१६१।। उचाय कामिनी सोऽपि श्रीपालः शृण सुन्दरि । अवन्तिविषये पुर्यामुज्जयिन्यां गुणोज्वले ।।१६२॥ अस्ति मे जननी पूता स्वनाम्ना कमलावती। भामिनी राजपुत्री च सती मदनसुन्दरी ॥१६३। अन्वयार्थ---(सः) वह (श्रीपाल:) श्रीपाल भूपाल (अपि) भी (कामिनी) प्रिया के प्रति (उवाच) बोले, (सुन्दरि ! ) भो सुन्दरि ! (शृण) सुनो, (गुगोज्यले ) अनेक गुण गौरव से समुज्वल (अघन्तिविषये) अवन्तिदेश में (उज्जयिन्याम्) उज्जयिनी नामकी (पुर्याम् ) पुरी में (पूता) पवित्रात्मा (स्त्रनाम्ना) अपने नाम (कमलावतो) कमलावती से विख्यात (मे) मेरी (जननी) जन्मदात्रीसविता (माता) (अस्ति) है (च) और (भामिनी) पलि (राजपुत्री) राजकुमारी (सती) शीलशिरोमणि, पति भक्ति में (परायण) तत्पर (मन्दनसुन्दरी) मैनासुन्दरी (अस्ति) है । तथा और भी अन्य परिवार, साथो जन हैं सुनो-- अङ्गरक्षक शूराश्च शतसप्त प्रमाणि मे। तथाङ्गविषय चम्पापुर्या चाद्यप्रवर्तते ॥१६॥ वीरादिदमनो नाम पितृव्यो भूपतिस्तथा । जगौ वृत्तान्तकं सर्व स्वकीयां कामिनी प्रति ॥१६५।। ___ अन्वयार्य- (च) और (सप्त) सात (शत) सौ (मे) मेरे (प्रमाणि) संख्या प्रमाण (मे) मेरे (शूराः) सुभट (अङ्गरक्षकाः) अङ्गरक्षक हैं (तथा) तथा (अद्य) इस समय (अङ्गविषये ) अङ्गदेश में (चम्पापुर्यम् ) चम्पापुरी में (वीरादिदमनों) वीरदमन (नाम) नामका (पितृव्य) मेरा चाचा (भूपतिः) राजा (प्रवर्तते) शासन कर रहा है (तथा) उसी प्रकार (सर्व) सम्पूर्ण (वृत्तान्तकम् ) चरित्र (स्वकीयाम ) अपनी (कामिनीम ) प्रियबल्लभा के (प्रति) प्रति (जगी वणित किया। भावार्थ .. श्रीपाल कोटिभट अपनी अनिंद्य सुन्दरी भार्या से कुछ भी छ पाना नहीं चाहता था। क्योंकि उसकी जिज्ञासा का असमाधान उसकी मनोव्यथा का कारण बन सकता था । उसे उदास देखना कोटिभट को असह्य था । अतएव उसने विस्तार से अपना सकल वृतान्त बताना उचित समझा । वह कहने लगा 1 "हे प्राबल्लभे! सुनों, मेरे अत्यन्त शूरवीर Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६७ भोपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद] गुणवान सातसी प्रमाण बॉडीगाई अङ्गरक्षक सेवक हैं । तथा प्रजनामक विशाल, सुरम्य देश है उसमें गतान्तमनोहर, पर्म को खान स्वरूपा 'चम्पापुरी' नामकी राजधानी है। इस समय वहां मेरा त्राचा ग्रानन्द से राज्यशासन सरचालन कर रहा है। कारणवश मुझे राज्यच्युत होना पड़ा और अनेक शरीरजन्य दुःखद वेदना सहनी पडी। मेरी प्रिया मदनसुन्दरी के सत्प्रयत्न और तीन पुण्य से यह मुझे, शुभावसर प्राप्त हुआ है । इस प्रकार आद्योपान्त सम्पूर्ण अपनी जीवन गाथा सुनाई । आनन्द पूर्वक कथित वृत्तान्त को जानकर मदन मञ्जुषा का हर्ष और भी अधिक हो गया ॥१६४-१६५।। साऽपि भर्तस्समाफर्य सर्बसम्बन्धमुत्तमम् । सन्तोषमधिकंप्राप सत्यं भर्ता गुणाकरः ॥१६६॥ अन्वयार्थ--(सा) वह मदनमञ्जूषा (अपि) भी (मत्त :) पतिदेव के (उत्तमम् ) उत्तम (सर्वसम्बन्धम् ) सम्पूर्ण सम्बन्ध को (समांकर्ण्य) सम्यक् प्रकार ज्ञात कर-सुनकर (अधिकम् ) अत्यन्त (सन्तोषम् ) सन्तोष को (प्राप) प्राप्त किया क्योंकि (सत्यम् ) सचमुच हो मेरा (भर्ता) पतिदेव (गुणाकर:) गुणसमुद्र हैं । भावार्थ-मदनञ्जूषा ने अपने पतिदेव का यथार्थ परिचय श्रवण किया । उसे सुनकर तथा यथार्थ कोटिभट जानकर उसे परम सन्तोष हुअा । ठीक ही पातिव्रत धर्म रक्षिका नारियां उच्च, कुलीन, गुणवन्त सज्जातीय वर को प्राप्त कर क्यों ना प्रसन्न होती ? अर्थात् होती ही हैं ॥१६॥ इति विषद् धिभूत्या सार कन्यावि रत्नम् । परमगुरण समुद्रः ध्यादिपालो नरेन्द्रः प्रचुर गुणमुदारं प्राप्तवान् शर्मसारम, स जयतु जिनदेवो यस्य धर्म प्रसादत् ।।१६७।। अन्वयार्थ--(इति) इस प्रकार (यस्य) जिसके (धर्मप्रसादात) धर्मप्रसाद से (परमगुणसमुद्रः) श्रेष्ठगुणों का सागर (श्यादिपालः) श्रीपाल (नरेन्द्रः) भूपति ने (शर्मसारम् ) उत्तमशान्ति (प्रचुरगुणम्) अनेवागुण अलङकृत (उदारम्) उदार तथा (विशद् ) विशाल (विभूत्या) विभूति सहित (सारकन्यारत्नम्) सारभूतकन्याख्या रत्न को (प्राप्तवान्) प्राप्त किया (सः) वह (जनदेवः) जिनेन्द्र भगवान (जयतु) जयलील होवें। मावार्थ--इस परिच्छेद को पूर्ण करते हुए श्री १०८ आचार्य परमेष्ठी सकलकीति जो महाराज सारभूत तत्त्व का प्रतिपादन कर रहे हैं। साथ ही उस सुग्त्र-शान्ति के कारणभूत थी वीतरागजिनेश्वर प्रभ को आशीर्वादात्मक ढंग से स्तुति भी कर रहे हैं। जिनेन्द्रोक्त धर्म ही संसार में सार है । दुःखों का संहारक, मुखों का विधायक और कल्याण का दायक है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] [श्रोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद श्रीमन् श्रीपाल महाराज ने इसी धर्म के प्रसाद से भयङ्कर सङ्कटों को पवन से उड़ाये गये सूखे पत्रों के समान क्षण मात्र में उड़ा दिया। बिना किसी श्रम के बिना उपाय किय ही सारभूत नाना प्रकार की अनेक अपरिमित विभूतियों के साथ कन्यारम प्राप्त किया ससार सुख की खान, अनेक गुण मण्डित, शील धुरंधर, धर्मज्ञा, कुलकमल विकाशक अंशुभाली, पतिभक्ता पत्नी को प्राप्त किया, यह सब धर्म का ही माहात्म्य है। प्राचार्य कहते हैं ऐसा वह जिन राजभगवान जयवन्त हों जिनक प्रवर्तित धर्म संसार उद्धारक और परमधाम मुक्ति का भी एक मात्र सधक है ।।१६७।। इति श्रीसिद्धचक्र पूजातिशय समन्वित धीशलमहाराज चरिते भट्टारक थी सफलकीति विरचिते श्रीपाल मदनमञ्जूषा विवाह व्यावर्णनं नाम चतुर्थ: Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीमत्पञ्चगुरुभ्यो नमः ॥ ॥अथ पञ्चम परिच्छेदः प्रारभ्यते॥ अथ श्रेष्ठी विधायोच्च ापार तत्र लीलया । रत्नद्वीपेषु रत्नाद्यैर्यस्तुसार समुच्चकैः ॥१॥ यानपात्राणि सम्भृत्त्वा विधानानीव वेगतः । स्वदेशं गन्तुकामस्सन् प्रचचाल परिच्छदैः ॥२॥ अन्वयार्थ -(अय) तदनन्तर (श्रेष्ठो) धवलसेठ (रत्नदीपेष) रत्नद्वीपों में (उच्चैः) विशेष रूप से (व्यापारम्) व्यापार (विधाय) करके (तत्र) वहाँ (रत्नाद्य:) हीरा, माणिक, पन्नादि सारभूत रत्नों से तथा (सारवस्तूसमूच्चकैः) अनेकों उत्तमोत्तम वस्तुओं से (लीलया) आनन्द से (यानपात्राणि) जहाजों को (सम्भरवा) भरकर (निधानानि) निधियों के (इव) समान (परिन्छदै :) परिकरों से युक्त हो (स्वदेशम् ) अपने देश को (गन्तुकामः) जाने की इच्छा (मन) करता हुआ विगतः) शीघ्रता से (प्रचचाल:) चल दिया र बाना हुआ। भावार्थ धवल सेठ ने वहाँ रन द्वीप में श्रीपाल के सहयोग से ग्ध व्यापार किया तथा लाभ उठाया । अनेकों प्रकार के असंख्य रत्नादि से अपने यानपात्र भर लिए। वहां की अनेकों उत्तम बस्तुओं का संग्रह किया। आनन्द सं अटूट सम्पत्ति को जहाजों पर लाद लिया। अपने सभी साथियों से घर वापिस चलने की इच्छा व्यक्त की । अतः सम्पूर्ण परिकर को लादकर-साथ लेकर शीघ्र ही वहां से रवाना हो गया !!१-२॥ पोतस्थस्सागरे गच्छन् दृष्ट्वा श्रीपालकामिनीम् । रूप सौभाग्यसम्पन्नां तिरस्कृत सुराङ्गनाम् ॥३॥ पापी कामातुरश्चित्ते चिन्तयामास दुष्ट धीः । अहो यस्य गृहे संषानारी धन्यस्स एव हि ॥४॥ अन्वयार्थ-- (पोतस्यः) यानपात्र में बेटा (सागरे) समुद्र में (गच्छन्) जाते हुए (रूपसौभाग्यसम्पन्नाम् ) रूप लावण्य युक्त (तिरस्कृतसुराङ्गनाम् ) देवङ्गनानों को भी अभिभूत करने वाली (श्रीपाल कामिनाम् ) श्रीपाल की पत्नी को (दृष्ट्वा ) देखकर (पापी) वह पापचारी धवलसे3 ( कामातुरः) काम से व्याकुल (दुष्टधीः) दुर्जन ( चित्ते) मन में (चिन्तयामास) विचार करने लगा (अहो) प्राश्चर्य है ! (यस्य) जिसके (गृहे) घर में (ऐसा) इस प्रकार की (मारी) स्त्री है (हि) निश्चय से (सः) वह (एव) ही (धन्यः) घन्य है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०] [ोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद भावार्थ-सुखपूर्वक समस्त व्यापारी जन जहाजों में सवार हो गये । यानपात्र सागर की लहरों से खिलवार करते हुए जाते थे कि सहसा एक समय उस धवल की दृष्टि, मदनमञ्जूषा पर जा पड़ी । अवलोकन मात्र से उसकी आँखें उसी के रूप सौन्दर्य में उलझकर रह गई । वह आश्चर्य चकित हो गया । यह देवाङ्गनाओं, अप्सरानों के भी लावण्य को तिरस्कार करने वाली है । इसके समक्ष संसार का सम्पूर्ण सौन्दर्य फीका है । जिसके घर में इस प्रकार की रूपराशिनारी हो उसी का जीवन धन्य है। इस प्रकार वह दुष्टबुद्धि कामवाण से विद्ध हो, विह्वल हो उठा । पापीजन को विवेक कहाँ ? वह महापापी इस प्रकार अनेकों ऊहा-पोह मन ही मन करने लगा । तथा और भी ।।३-४॥ वह सोचता है - यावन्न प्राप्यते भोक्त कान्तारलमिदंमया। तावत्सर्व वृथा मेऽत्र सम्पदा जीवजीवितम् ॥५॥ अन्धयार्थ--पापी धबन विचारता है- (यावत) जब तक (इद) इस (कान्तारत्नम्) स्त्री रत्न को (मया) मेरे द्वारा (भोक्तम् ) भोगने के लिए (न) नहीं (प्राप्यने) प्राप्त किया जाता है (तावत् तब तक (भत्र) यहां, इस संसार में (में) मरा (जीव) जोवन (सम्पदा) सम्पत्ति (जीवितम्) जीवन के साधन (सर्वम्) सब कुछ (वृथा) व्यर्थ हैं। भावार्थ--वह दुराचारी विचार करता है कि इस प्रकार की अपूर्व सुन्दरी नारी Vacadox.N Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [ २७१ यदि मैं नहीं प्राप्त करूँ तो मेरा जीवन व्यर्थ है । इसके साथ भोग करने से ही मेरा जन्म सफल है अन्यथा इस वैभव से क्या प्रयोजन ? इस लश्कर का क्या फल ? इस पर्याय का ही क्या फल | अभिप्राय यह है कि वह सबकुछ समर्पा कर भी इस दुर्लभ नारी रत्न को प्राप्त करने को लालायित हो उठा सत्यं दुरात्मनश्चित पर वस्तु प्रियं सदा । रक्तपा पररक्तस्य पानरक्ता यथा सदा ||६|| अन्वयार्थ ( सत्यम् ) ठीक ही है (दुरात्मनः ) दुर्जनों के ( चित्ते) मन में (सदा) निरन्तर (परवस्तु) पराई चीज ( प्रियम्) अच्छी लगती है ( यथा) जिस प्रकार ( रक्तपा ) जोंक (सदा) सतत (पररक्तस्य) दूसरे का खून (पानरक्ता) पीने में लीन रहती है । भावार्थ- - इस श्लोक में धवल सेठ की विकार भावना का बडा ही स्वाभाविक aria किया है । उदाहरण भी सर्वविदित रोचक दिया है। निश्चय से तो संसार में अपनी प्रात्मा के प्रतिरिक्त सब कुछ पर ही है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से लोक पद्धति के अनुसार जो जिसका स्वामी कहा या माना जाता है, उसके सिवाय शेष जीवों को वह पर वस्तु है । मालिक की आज्ञा बिना उसे ग्रहण करना चोरी है । महा पाप है। लोक में वह दण्ड का पात्र होता है । दुरात्मबुद्धि faris हो जाने से इस दण्ड आदि की परवाह नहीं करता । वह अपनी पांचों इन्द्रियों का दास होता है । उसकी श्रांखें, मन बुद्धि, हाथ-पाँव आदि हर समय परवस्तु के ग्रहण में लगी रहती हैं। आशा शान्त होती नहीं । विषय सामग्री जिधर दृष्टिगत हुयी कि बस मन नहीं जा अटकता है, मृत्यु की भी चिन्ता नहीं करता । आचार्य कहते हैं स्वभाव के परिवर्तन में कौन समर्थ है ? कोई नहीं । जोंक (एक प्रकार का कीड़ा ) स्वभाव से यदि दूध भरेथन में भी लगा दिया जाय तो भी वह उसका रक्तपान ही करेगी। वह सदा दूसरों का खून ही चूसती है। इसी प्रकार दुष्ट मनुष्य, पापी, व्यसनी सदैव पराई वस्तुओं के ग्रहण में ही लगा रहता है || ६ ॥ ततः कामाग्निसन्तप्तो गृहीतो वा पिशाचकैः नानाविध विकारोऽभूदुन्मत्त इव पापधी ॥७॥ अन्वयार्थ - ( ततः ) इसलिए ( पापधी :) पापी धवलसेठ ( कामाग्निः ) कामरूपी आग से ( सन्तप्तः ) जलता हुआ ( उन्मत्त ) पागल के ( इव) समान (वा) अथवा (पिशाचकैः ) पिशाच द्वारा (गृहीतो ) ग्रस्त हुआ हो, इस प्रकार ( नानाविध ) अनेक प्रकार से ( विकार: ) विकार चेष्टा करने वाला (अभूत) हो गया । भावार्थ - श्रीपाल को रमणी - पुत्रवधू सदृश मदनमञ्जूषा पर आसक्त उस दुष्ट बुद्धिबल सेठ की दशा पिशाच, भूत-प्रेत आदि से ग्रसित जन स हो गई । वह होश - हवास सब भूल गया । हिताहित बुद्धि नष्ट हो गई। उस पापी की चेष्टा उन्मत्त के समान हो गई । पागल के समान हिताहित भूलकर मात्र उस रूपसुन्दरी के धसान में एकाग्र हो गया । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद तथा विधं तमालोक्य दशावस्थाध्वगामिनम् । पापिनं मन्त्रिरणोपेत्य पप्रच्छ भो वरिकपते ||८|| कि ते वपुषि कोऽप्यासीद् दुर्व्याधिरुवराविजः । किंवा हि वेदना तीव्र शिरस्तापादिसंभवा ॥६॥ श्रन्वयार्थ -- ( दशावस्थाऽध्वगामिनम् ) काम की दशमी अवस्था के मार्ग में आये ( पापिनम् ) पापी (तम ) उस धवल की ( आलोक्य) वेखकर (मन्त्रिणः ) मन्त्री ( उपेत्य ) उसके पास आकर (पप्रच्छ ) पूछने लगे ( भो ) है ( वणिक्पते ) वणिक राजा (ते) आपके ( वपुषि) शरीर में ( किम) क्या (कोन) कोई भी ( उदरादिजः ) पेटादि से उत्पन्न ( दुर्व्याधिः ) खोटीपीडा ( प्रासोत् ) हो गई ? (वा) अथवा (हि) निश्चय से ( किन ) क्या कोई ( शिरस्तापादिसंभवा ) मस्तक की पीडा से उत्पन्न ताप है ? जिससे ( तीव्र वेदना ) भयकर वेदना है क्या ? भावार्थ धवलसेट को कामातल उत्तरोत्तर बढती गयो । मदन बेदना से उसकी शक्ति, विवेक सबकुछ नष्ट हो गया । यह काम पिशाच से भी अधिक भयङ्कर है। इसके चङ्गल में बड़े-बड़े हरि-हर ब्रह्मा विष्णु भी फंस गये. साधारणजन की बात ही क्या है ? सेठ का जीवन दुर्लभ हो गया । काम की दश अवस्थाएँ नीतिकारों ने बतलाई हैं । अन्तिम दम दशा में मरणासन्न हो जाता है। उस धवलसेठ की बीमारी ने अन्तिम रूप धारण किया । इस विपरीत अवस्था को देखकर मन्त्रियों को चिन्ता हुयी। वे उसके पास आये । रोग क्या हैं ? इसका निर्णय करने के लिए उससे पूछा, हे व्यापारियों के अधिपति ! आपको क्या वीमारी है ? क्या उदरशूल है । अथवा उदर से जन्य कोई अन्य दुर्व्याधि है ? अथवा सिर दर्द है क्या ? या माथे से निकली कोई अन्य असाध्य वेदना है ? यह असह्य कष्ट क्या है ? कृपया बतायें ? क्यों कि तदनुसार औषधि उपचार ग्रादि करने का प्रयत्न किया जाय ॥६-६ ॥ I ततोऽवादीत् स पापात्मा न मे व्याधिर्न वेदना | किन्तु श्रीपालकान्तायामासक्तं मन्मनोऽभवत् ॥ १०॥ अन्वयार्थ - - ( ततः ) मन्त्रियों के पूछने पर ( स ) वह ( पापात्मा ) पापी ( आवादीत् ) बोला (मे) मुझे (न व्याधिः ) न कोई पीडा रोग है ( न वेदना ) न हो वेदना ही है ( किन्तु ) परन्तु (श्रीपालकान्तायाम् ) श्रीपाल की प्रिया में ( मत्) मेरा ( मनः ) मन ( आसक्तम ) आसक्त (अभवत् ) हुआ है । भावार्थ – विषयान्ध को न लज्जा रहती है न भय । वह धवल भो इसी प्रकार वेशरम और निडर होकर बोला, मन्त्रिजन हो, मुझे न कोई रोग है, न संताप व पोडा है किन्तु मेरी दुर्दशा का कारण दूसरा ही है। जिस समय मैंने श्रीपाल की अनुपमरूपसुधा स्वरूपा कामिनी को देखा उसी समय से मेरा मन उसमें आसक्त लीन हो गया है। उसे पाने का ही मात्र रोग-शोक और ताप है ||१२|| Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] अस्यास्संयोग वानेन दीयन्तां जीवितं मम । अन्यथा मित्र विद्धि मां यदि श्रन्वयार्थ - वह दुरात्मा सेट कहता है - (मित्र) हे मित्र ! (अस्याः ) इस कामिनी के ( संयोग ) सम्बन्ध ( दानेन ) कराने से ( मम ) मुझे ( जीवितम् ) जीवन ( दीयन्ताम् ) दीजिये (अन्यथा ) यदि ऐसा नहीं किया तो ( त्वम) तुम (माम ) मुझको ( यममन्दिरम ) मृत्यु गृह में (एम) गया ( विद्धि) जानो । [ २७३ भावार्थ - धवल सेठ मन्त्री से प्रार्थना करता है, हे सुहृद सुनों, यदि तुम मेरा जीवन चाहते हो तो इस सुन्दरी का शीघ्र संयोग कराने का प्रयत्न करो। इसे भोगने से ही मेरी जीवन यात्रा रह सकेगी अन्यथा निश्चय ही मृत्यु मुख में गया ही मुझे समझो इसके बिना मेरा भरण सुनिश्चित है || ११ ॥ तं निशम्य सुधी कोऽपि संजगाद वरिग्वरम् । अहो श्रेष्ठिन् महापापं परस्त्री चिन्तनं च यत् ॥१२॥ दुर्गतिर्मानभङ्गश्च धननाशो यशोहतिः । परस्त्री सङ्गमेनाशु सम्भवेन्नरकनितिः ॥१३॥ अन्वयार्थ ( तम् ) उस सेठ की बात को (निशभ्य ) सुनकर ( कोऽपि ) कोई भी एक ( वरवरम् ) वणिकोत्तम ( सुश्री) बुद्धिमान ( संजगाद ) बोला (अहो ) है ( श्रेष्ठिन् ) सेठ (परस्त्री) पराई स्त्री का ( चिन्तनम् ) विचार करना ( महापापम् ) महान् भयंकर पाप है (च) और (यत्) क्योंकि इस ( परस्त्री सङ्गमेन ) परनारी के सेवन से ( प्राशु ) शीघ्र ही ( दुर्गतिः) नरकादि गमन ( मानभङ्गः ) मानहानि (च) और (धन) सम्पत्ति (नाश:) नाथ ( यशोहति) कीर्ति विनाश ( नरकक्षितिः ) नरकभूमि ( सम्भवेत् ) संभव होगी । भावार्थ - इस पाप और घृणित बात को सुनकर उनमें से कोई एक उत्तम, बुद्धिबन्त श्रेष्ठ वणिक् बोला, हे सेठ, यह तुम्हारा विचार अत्यन्त हेय है पापरूप है । परनारी का विचार मात्र दुर्गति का कारण है । परस्त्री संगम की लालसा निश्चय ही स्वाभिमान, उज्वलकीर्ति और धन को नाश करने वाली है। तुम अवश्य ही प्रभोगति नरकद्वार खोलने के चेष्टा कर रहे हो। तुम्हारी मान हानि तो होगी ही परलोक में नरकों को असह्य वेदना भी सहनी पड़ेगी। यह पाप क्यों विचारा है ? इसे छोडो। यह तुम्हारे योग्य नहीं । स्वयं को सङ्कट डालते हो | यह उचित नहीं ।। १२, १३ ॥ में परस्त्रीरजपरागेण बहवो नष्टबुद्धयः । बिनाशम्प्रापुरत्रोच्चैः पावके वा पतङ्गकाः ॥ ११४॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] [ श्रीपाल चरिज्ञ पश्चम परिच्छेद अन्वयार्थ - (पत्र) इस लोक में ( परस्त्रीरजपरागेण ) पर नारी के राग से उत्पन्न पाप से ( बहवा : ) अनेकों ( नष्टबुद्धयः) मूर्खजन (उच्च) प्रत्यन्त ( विनाशम् ) नाश को ( प्रापुः) प्राप्त हुए (वा) यथा (पावके ) श्रग्निशिखा में ( पतङ्गकाः) पतङ्ग जेल कर भस्म होते हैं । भावार्थ -- जिस प्रकार अज्ञानी चक्षुरिन्द्रियविषय लम्पटी पतङ्ग दीपशिला पर गिर गिर कर भस्म हो जाते हैं। उसी प्रकार जडबुद्धि मनुष्य, परनारीरत होकर नष्ट हो जाते हैं । इसलिए यह विचार आपका उचित नहीं है। आगम में इस प्रकार के अनेकों उदाहरण उपलब्ध होते हैं || १४ || देखिये- श्रम ते वचनं सदा । रावणाः कीचकाद्याश्च तद्दोषेण क्षयं गताः ॥१५॥ श्रन्वयार्थ - ( सदा ) हमेशा ( श्रीमज्जिनागमे ) श्री जिनेन्द्र भगवान के आगम में ( प्रोक्तम् ) कहे हुए ( वचनम ) वचन ( श्रूयते) सुने जाते हैं, (तद्दोषेण) उस परस्त्री सङ्गम के दोष से (रावणः ) रावण (च) और ( कीचकाय: ) कीचक आदि ( क्षयम) नाश को ( गताः) प्राप्त हुए। भावार्थ -- मित्र कहता है, है भाई सुनो ! श्री जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित आगम में इस परनारी लम्पटता के कटुफल के अनेकों दृष्टान्त भरे हैं। रोज ही कहे जाते हैं और सुने जाते हैं कि त्रिखण्डाधिपति रावण महाबली, कीचक आदि सोतासती और द्रौपदी महासतियों पर श्रासक्त होने से नष्ट हो गये। जीवन, धन, यश और जनसर्वरहित होकर दुर्गति में जा पड़े | अतः प्राप इस दुबुद्धि का त्याग करो। इस महा पाप की पङ्क में फंस कर व्यर्थ जीवन को बरबाद मत करो || १५ || और भी कहते हैं। अन्येषां का कथायेन नीयते वा पुनर्गजाः । कथं संतिष्ठते तत्र वराको मशको ध्रुवम् ॥१६॥ अन्वयार्थ - (वा) अथवा (पैन) जिस वेग से ( गजाः ) हाथो ( लीयते) ले जाये जांयें (तत्र) वहाँ (अन्येषाम् ) अन्यों की ( कथा ) कहानी (का) क्या ? ( वराक: ) वेचारा ( मशक : ) मच्छर ( धवभ) निश्चय ही ( कथम) किस प्रकार ( संतिष्ठते) स्थिति पा सकता है ? भावार्थ- नदी में बाढ आने पर, या वेग से जलप्रवाह होने पर बड़े-बड़े विशाल दिग्गज यदि वह जाँय तो अन्य साधारण जीवों की क्या कथा ? कुछ भी नहीं ! फिर भला वहाँ वेचारा अत्यल्पशक्ति मच्छर किस प्रकार ठहर सकता है ? अभिप्राय यह है कि बड़े-बड़े राजा, महाराजा, पदवीधारी, अथवा साधु महात्मा भी यदि विषयासक्त हो गये तो वे भी जड़मूल से नष्ट हो गये । फिर तुम तो मच्छर के समान हो इस परस्त्री संग की दुराशा के भीषणगर्त Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] [२७५ से किस रच सकोगे नहीं कह सकते . अतः जब अपने नाश का उपाय भूत इस पापबुद्धि का परित्याग करो ॥१६॥ परस्त्री सङ्गमेश्वच लभन्ते लम्पटाश्शठाः । बधबन्धादिकोटिश्च नाशं दिव्यकुलात्मनाम् ।।१७।। अन्वयार्थ-(परस्त्री) परनारी (सङ्गमे) सहवास में (लम्पटाः) लम्पटी (पाठाः) मूर्खजन (अव) इस लोक में ही (कोटि:) करोडों (बधवन्धनादि) बध, बन्धन आदि कष्टों को (च) और (दिव्यकुलात्मनाम्) अपने निर्मल कुल के (नाशम) नाश को (लभन्ते) प्राप्त करते हैं। भावार्थपराई भार्या को जो लम्पटी, मूर्ख, दुर्बुद्धिजन चाहते हैं । उनके सेवन की इच्छा करते हैं या सेवन करते हैं । उन्हें यहीं इसी पर्याय में करोडों यातनाओं को सहना पड़ता है। राजा द्वारा दण्डित होते हैं, बध, बन्धन, च्छेदन भेदन आदि के कष्ट उठाते हैं । समाज द्वारा तिरस्कार पाते हैं । उस स्त्री के कुटुम्बीजनों से भी ठोके-पीटे जाते हैं। हाथ-पैर टूट जाते हैं । सभी के द्वारा निंद्य हो जाते हैं । अविश्वास के पात्र बन जाते हैं । जहाँ जाते हैं वहीं तिरस्कार पाते हैं ॥१७॥ श्रीपालस्सटेवाऽपि परोपकृति तत्परः। बोरामणी रणेयेन मोचितस्त्वं च बर्बरात् ॥१८॥ अन्ययार्थ--(च) और (अपि) भी है (परोपकृतितत्परः) परोपकार करने में उद्यत (वीराग्रणी) सुभटों में प्रथम (धीपाल.) श्रीपाल है (येन) जिससे (सङ्कटे) सङ्कटाकीरण (रणे) संग्राम में (त्वम्) तुम (बर्बरात्) बरबर लुटेरों से (मोचितः) छु डाये गये (वा) और भी भावार्ष—इतना ही नहीं और भी विचारो, वह श्रीपाल महान पुरुष है । सदा परोपकार में तत्पर रहता है । जिस समय तुम दस्युओं से घेर लिए गये, तुम्हारा सारा धनोमाल वे ले गये उस समय किसने रक्षा की ? तुम्हारा धन भो छ डाया और संग्राम में तुम्हें भी बचाया, विजय करायी । उस उपकारी के साथ वञ्चना करना महापाप है। थोडा विचार तो करो । अथवा--||१८|| विचार करो अस्याऽपि पञ्चने चात्र मत्पापं प्रजायते । पूर्व त्वया सुतोऽयं मे भणितमिति धी धनः ॥१६॥ अन्वयार्थ–(प्रयम ) यह (बी धनः) बुद्धिधन का धनी श्रीपाल (मे) मेरा (सुत:) पुत्र है (इति) इस प्रकार (त्या) तुम्हारे द्वारा (पूर्व) पहले (भणितम.) कहा गया था (च) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद और (अत्र) अब (अस्य) इसके (वञ्चने) ठगने पर (मत्यापम ) मुझे पाप (प्रजायते) होगा यह बिचार करना चाहिए ।।१६।। भावार्थ-तुम पहले की बात सोचो. आपने कहा था कि यह बुद्धिवन्त श्रीपाल मेरा बेटा है, अब इसको ठगते हो । इसके साथ वञ्चना करने से मुझे कितना पाप होगा यह क्यों नहीं विचारते हो ? पर वञ्चना महा अधम पाप है ।।१६।। एषा मदनमञ्जूषा वधूस्तस्मात्कथं ध्रुवम् । रमते तस्य कान्ता त्वं लज्जसे कि न पापधीः ।।२०।। अन्वयार्थ-क) यह (नवनगरपा) मा सुन्दगी तप) उस श्रीपाल को (कान्ता) भार्या, (तस्मात्) इसलिए (ध्र वम ) निश्चय ही (वधूः) पुत्रवधू हुयी (कथम् ) किस प्रकार (पापधीः) दुर्बुद्धि (त्वम) तुम (रमते) रमने में (कि) क्या (न) नहीं (लज्जसे) लज्जित होते हो ? | भावार्थ-दूसरी बात यह है कि यह मदनमञ्जूषा श्रीपाल की रानी है । इसलिए निश्चय ही तुम्हारी पुत्रवधू है.। पुत्र की पत्नी पुत्री सहश होती है । हे पानात्मा तुम उसके साथ रमते लज्जा को प्राप्त क्यों नहीं होते हो ॥२०॥ एष कोटिभटश्चापि मत्वा ते दुष्टचिन्तम् । क्षणार्द्धन महाकोपात् क्षयं ते चकरिष्यति ॥२१॥ अन्वयार्थ-(चापि ) और भी सोच लो, (एषः) यह (कोटिभट:) कोटिभट (ते तुम्हारे (दुष्टचिन्तनम ) इस खोटे विचार को (मत्वा) ज्ञातकर (महाकोपात्) भयङ्कर त्रोध से (च) और (क्षणार्द्धन) आधे ही क्षण में (ते) तुम्हारा (क्षयम ) नाण (करिष्यति) करेगा। भावार्थ-तुम यह निश्चय समझ लो, यह महाबीर कोटिभट है, जिस समय इसे ज्ञात होगा कि तुम्हारा इतना नीच विचार है तो बस समझो भयङ्कर कोप से निमिष मात्र में तुम्हें यमलोक की राह दिखा देगा। तुम जोवित नहीं रह सकोगे । इसलिए इस प्राण घातक विचार को त्यागना ही श्रेष्ठ है । इस खोटे, पापमय अभिप्राय को छोड़कर जीवन धन और यश को रक्षा करो ।।२१।। अहो श्रेष्ठिन् महापापीकामसर्पोऽयमुदतः । त्वया सन्तोषमन्त्रेणजेतव्यः प्राणनाशकः ।।२२।। अन्वयार्थ-- (अहो) हे (श्रेष्ठन्) सेठ ! (अयम्) यह (महापापी) भयङ्कर पाप स्वरूप (उद्धतः) अवश (कामसर्पः) कामरूपी भुजङ्ग (प्राणनाशक:) प्राणों को हरने वाला (त्वया) तुम्हारे द्वारा (सन्तोषमन्त्रेण) सन्तोपरूपी मन्त्र से (जेतव्यः) जीतना चाहिए । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७७ भावार्थ - हे वणिक्पति ! सबका सार एक है तुम इस निद्य विचार को छोडो। यह काम भयङ्कर पाप है । महाविषधर है । अत्यन्त मदोन्मत्त है, दुर्गंति का द्वार है, प्रापत्तियों का निमन्त्रण है । इसे वश करो। इसके जीतने का सरल उपाय है सन्तोष । सन्तोषमन्त्र के द्वारा इसे प्राधीन कर सकते हो। जिस प्रकार गारुडी, सपेरा मन्त्रविद्या से सद्यप्राणहर भुजङ्ग को भी अपने अधीन कर लेता है और सुखी होता है, उसी प्रकार तुम काम सर्प को सन्तोष मन्त्र से वशी करो ||२२|| श्रीपाल चरि पञ्चम परिच्छेद ] इत्येवं बोधितश्चापि स श्रेष्ठी पापकर्मरणात् । न मे ने वचनं तस्य भाविदुर्गतिदुःखभाक् ॥२३॥ प्रन्वयार्थ - - (इति) इस प्रकार ( भाविदुर्गतिदुःखभाक् ) भविष्य में दुर्गति के दुःखों के पात्र ( स ) उस (श्रेष्ठ) सेठ ने ( पापकर्मणात् ) पापकर्म के उदय से ( एवं ) इस प्रकार ( बोधितः) समझाये जाने पर (अपि) भी ( तरय ) उस मित्र के ( वचनम् ) वचनों को ( न मे ने) नहीं माना । भावार्थ – अनेक प्रकार से उस सेठ को समझाया किन्तु कमलपत्र पर जलबिन्दु समान उसके पापरूप चित्त में कुछ भी असर नहीं हुआ । चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता उसी प्रकार उसके मन पर मित्र का उपदेश टिक नहीं सका 1 ठीक ही है दुष्कर्म के प्रभाव से जीव की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। विवेक नष्ट हो जाता है ||२३|| ततोऽन्य वणिजं प्राह पापीकामग्रहाहनः लक्ष द्रव्यं प्रदाष्यामि श्रीपालं पातयाम्बुधौ ॥ २४ ॥ श्रन्वयार्थ - ( ततः ) उस सज्जन की शिक्षा न सुनकर पुन: वह (कामगृहातः ) काम रूपी ग्रह से ग्रस्त (पापी) पापी सेठ ( अन्य वणिजम् ) दूसरे वणिक को (प्राह) बोला, (लक्षद्रव्यम ) एक लाख द्रव्य ( प्रदास्यामि ) दूँगा ( श्रीपाल म् ) श्रीपाल को ( अम्बुधौ ) ( पातय ) डाल दो | सागर सें भावार्थ - - इस धर्मात्मा वणिक् के समझाने पर भी उस दुराचारी ने अपना ह्ठ नहीं छोड़ा | बल्कि, एक दूसरे अपने समान ही दुरात्मा वणिक् को बुलाया। उससे कहा, मैं तुम्हें एक लाख स्वर्णमुद्रा दूँगा, तुम होशियारी से येन केन प्रकार इस श्रीपाल को समुद्र में डाल दो | इसके मरने पर मेरा कार्य सुलभ सिद्ध हो जायेगा । वह पापी लोभी था । "लोभ पाप का बाप बखाना" लोभी मनुष्य धन के लिए क्या- क्या पाप नहीं करता । सब कुछ कर सकता है । अतः उस लालची बरिंग ने सेठ का आदेश स्वीकार कर लिया ||२४|| तथा उसने - सोऽपि पापी दुराचारी धनलोभेन मायया । उच्छितोऽयं महामत्स्यस्सर्वनाशं करिष्यति ॥ २५॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद य इति कोलाहलं कृत्वा कारयित्वा परानपि । श्रीपालपातनोपायं सञ्चके दुष्टमानसः ॥२६॥ अन्वयार्य---(पापी) पापकर्मी (दुराचारी) दुष्ट (सः) उस वणिक् ने (अपि) भी (धनलोभेन) धन के लोभ से (मायया) मायाचार पूर्वक, "अयम) यह (महामह विशालमगरमच्छ (उच्छितः) उछल पाया (सर्वनाशम ) सम्पूर्ण विनाश (करिष्यति) करेगा" (इति) इस प्रकार (कोलाहल करवा) जोर से हल्ला मचाकर (परान) दूसरों से (अपि) भो (कारयित्वा) करवाकर (दुष्टमानसः) खोटे अभिप्राय से (श्रीपालपातन:) श्रीपाल के सागर में गिराने के (उपायम ) उपाय को (सञ्च) किया। मावार्य-धबल सेठ के कथनानुसार उस लुब्धक पापी व्यापारी ने उपाय सोच ही लिया । ठीक ही है हेय और असत् कार्यों में स्वयं हो बुद्धि प्रवर्तती है, पि.र निमित्त मिला तो क्यों न जाती। उस दुष्ट ने श्रीपाल के मारने के अभिप्राय से मायाचार का जाल फैलाया । रात्रि का सन्नाटा छा गया । सर्वत्र निन्द्रा को गोद में पड़े नर-नारियों को नाशिकास्वर घरघर करने लगे। उस समय उस पापात्मा ने असन्य कोलादल मनाना प्रारम्भ किया. नथा अन्य साथियों से भी करवाया कि "जहाज में महामत्स्य उछलकर आया है, यह सर्वनाश करेगा।" संभव है जहाज डूब जाये" आओ, दौडो, उठा, भगो के साथ चारों ओर दौडा-दौडी मच गई। सभी भय से थरथराने लगे । जाने-अनजाने सर्वजन उसी के स्वर में स्वर मिला कर रोने, चिल्लाने कूदने-फोदने लगे। यान पात्रों में सर्वत्र यह अशुभ किन्तु झूठा भय का भूत व्याप्त हो गया। उसी समय कोटिभट की निद्राभङ्ग हुयी, वह जागा और वेग से इस अप्रत्याशित घटना का यथार्थ पता लगाने का प्रयास करने लगा। सत्य ही दयाल, परोपकारी महात्मा जन पर की रक्षा में अपने अपाय को चिन्ता नहीं करते । वह सबको धैर्य बंधाता इस सङ्कट के निवारण में जुटा ।।२५, २६।। श्रीपालस्तु तवाकणं तं द्रष्टु सुभटाग्रणी। रज्जास्तम्भोपरि यदा संझटन् जवतो महान् ।।२७॥ रज्जु छित्वा तवा शीघ्र पातितस्तेन सागरे । तारशस्स पवित्रात्मा कि पातकमतः परम् ॥२८॥ अन्ययार्थ--(तदा) उस समय (सुभटाग्रणो) वीर शिरोमणि (श्रीपालः) श्रोपाल (तु) तो (त) उस मत्स्य को (दृष्टुम ) देखने के लिए (महान्) अत्यन्त (जवत:) वेग से (यदा) ज्यों हो (रज्वास्तभोपरि) रस्सी के सहारे मस्तूल पर (संझटन्) उछलकर चढने लगा (तदा) उसी समय (तादृशः) वह श्रीपाल (पवित्रात्मा) पावन भाव रखने वाला (सः) वह श्रीपाल (शीघ्रम् ) शोघ्र ही (तेन) उस मायाचारी वणिक् द्वारा (रज्जु') रस्सी को (छित्वा) काटकर (सागरे) समुद्र में (पातितः) गिरा दिया गया, (अत: परम) इससे बढ़कर (पातकम् ) पाप (किम ) क्या ? Page #309 --------------------------------------------------------------------------  Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [२७६ भावार्थ- दुर्जन मकडो के समान पर के विनाश के अभिप्राय से अपने ही नाश का जाल स्वयं पूरता रहता है । यही हाल था उस पापी मायावी वणिक् का । उसने मायाचारी का अधम कार्य कर ही डाला । दुर्जनों का हृदय गहन तमसाच्छन अटयों के समान अज्ञात रहता है उसकी चालें अगम्य होती हैं । उसी के समान मायावी उन्हें समझ सकता है। बेचारा भोला, सरल परिणामी, जिनधर्म परायण, सिद्धभगवन्त के ध्यान का अनुरागी श्रार्जव धर्मपालक श्रीपाल भला कहाँ समझ पाता ? निष्कपट, उपकारभावी वह इस कोलाहल को सुनते हो "नमः सिद्धेम्य: " उच्चारण करता हुआ उठ खड़ा हुआ । वेग से इसका कारण ज्ञात किया, उस महाप के प्रकीविका लगाने के लिए वेग से सहसा रस्सी पर चढ़कर जहाज के मस्तूल के स्तम्भ पर चढने लगा । उसी समय उस पापाचारी ने बीच ही में रस्सी को काट दिया । बेचारा निरपराध, जिनभक्त दयालु, परोपकारी श्रीपाल एक ही निमिष में सागर की उत्ताल तरङ्गों के साथ आ मिला। अब उसका महामन्त्र स्मरण के साथ सिन्धु के ज्वारभाटों से संग्राम होने लगा । आचार्य कहते हैं अपराधी को अपराध का यथायोग्य दण्ड देना तो किसी प्रकार क्षम्य हो सकता है, महापाप नहीं कहा जाता। किन्तु निरपराध धर्मात्माओं के साथ इस प्रकार अत्याचार करना क्या क्षम्य है ? इससे बढ़कर क्या कोई अन्य पाप हो सकता है ? नहीं हो सकता । यह तो वही हुआ "जिस हांडी में खाया, उसी में छेद कर दिया ।" उस महा मनीषी के सहयोग से करोड़ों का व्यापार कर मालोमाल हुआ, पाँचसो जहाज अटूट धन से भरे और उसी के प्रारण नाश का असफल प्रयत्न किया ||२७, २८|| धर्मात्मा धर्म की नौका पर सवार रहते हैं भला सागर को उत्ताल तरङ्ग अपने क्षणिक स्वभाव से उसका क्या बिगाड़ कर सकती हैं ? कुछ नहीं । श्रीपालोऽपि सुधीस्तत्र सागरे सम्पतन्नपि । स्मरन् पञ्चनमस्कारान् सिद्धचक्रं पुनः पुनः ||२६|| निमज्य जलधौ शीघ्र प्रवाहात् समुच्चलन् । जलोपरि स्वपुण्येन सम्प्राप्तः पद्मवत्तराम् ॥३०॥ श्रवोक्ष्य पोतकं तत्र वञ्चितोऽपि दुराशयैः । भुजाभ्यां सन्तरन्तुच्चैस्समुद्रमपि दुस्तरम् ॥३१॥ धन्वयार्थ - ( सुधीः) ज्ञानी ( श्रीपाल : ) श्रीपाल (तत्र) उस ( सागरे ) समुद्र में (अपि) भी ( सम्पतन् ) गिरता हुआ (अपि) भी (पुनः पुनः ) बार-बार (पञ्चनमस्कारान् ) पञ्चनमस्कार मन्त्र (सिद्धचक्रम् ) सिद्धचक्र को (अपि) भी ( स्मरन् ) स्मरन करता हुआ ( जलधी ) सागर में ( निमज्य ) डूबकर ( शीघ्रम ) शीघ्र ही ( प्रवाहात्) जल प्रवाह से ( समुच्चलन् ) बहता हुआ जाता ( स्वपुण्येन) अपने पुण्य से ( जलोपरि ) जल के ऊपर (पद्मवतराम् ) कमल जैसा तैरता फलक (सम्प्राप्तः) प्राप्त किया ( तत्र ) वहाँ (पोतकम् ) जहाज को (अवीक्ष्य) नहीं देखकर ( दुराशयः ) दुरभिप्राय से ( वञ्चितः) ठगा गया (अपि) भी Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०] [श्रापाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद (दुस्तरम) कठिनसाध्य तेरना होने पर (अपि) भी (समुद्रम् ) सागर को (उच्च) वेग से (भुजाभ्याम्) दोनों हाथों से (संतरन्तु) तैरने लगा, तैरू । । भावार्थ -धर्मज मनुष्य सङ्कट के कठोर समय में भी धर्म नहीं छोड़ते । क्योंकि उनका यह जन्मजात संस्कार होता है । बित्ति में धैर्य रखना सत्पुरुषों का लक्षण है। सागर का उत्ताल तरङ्गे, विकट जन्तुओं से व्याकीर्ण जल प्रवाह में गिराया गया श्रीपाल पञ्चनमस्कार मन्त्र का जाप करता है, सिद्धसमूह का स्मरण करता है । पञ्चारमेष्ठी का ध्यान करता हुन ही ज्वार-भाटों में युद्ध करता है। ज्यों ही वह असीम सागर के मध्य पड़ा कि गहरे जलहर में डबा, पुनः उछला जल प्रवाह के साथ चलने लगा। "जाको राखे साइयाँ मार सके न कोय।" जिसका पुण्य प्रबल होता है और दोर्घ आयु रहती है उसे मारने वाला स्वयं मरण की तैयारी करता है। नोति कारों ने कहा, "जितने गगन में तारिका, उत्तने शत्रु होंय कृपा रहे भगवान की, मार सके न कोय ।" .. 17 N - । Mad : . RAYmaa अर्थात् -प्रख्यात गत्रु भी अकेले पुण्य जीव से परास्त हो जाते हैं । श्रीपाल ने फलक का सहारा पकडा, कुछ आश्वत हुआ। इधर-उधर नजर दौडाई किन्तु सिवाय जलराशि के कुछ भी दृष्टिगत नहीं हुआ । पोत नहीं दिखने पर उसे निर्णय करते देर न लगी । वह समझ गया, मैं ठगा गया हूँ। किसो षडयन्त्री ने मुझे धोखा दिया है, मैं निश्चय हो वञ्चित हुआ हूं तो भी मुझे पर।क्रम. तो करना ही होगा । चलो, अब भुजाओं से ही यह उदधि चोरना है । यद्यपि यह कार्य महा दुःसाध्य था परन्तु अन्य उपाय भी तो नहीं था । वह कोटिभट धर्म की नौका पर सवार था उसे निराशा क्यों होती ? उसकी नाव सुद्ध और निश्छिद्र थी, अर्थात् पवित्र देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धारूपी जहाज उसके पास था उसो का आलम्बन लिया । सिक्षचक्र का ध्यान करता हुआ चलने लगा, बढ़ने लगा, कहाँ, किधर, क्यों जाना है, कब तक तट न मिले । पुण्य का सम्बल लिए यह निर्भय वीर बढने लगा। जिनभक्ति रसायन से पुष्ट भव्यात्मानों को भय कहाँ ? वह हताश नहीं हुआ, अपूर्व साहसी दोनों भुजाओं से निरन्तर अथाह जलराशि को भेदता बढ़ने लगा । उसे यही कोई अदृश्य शक्ति प्रेरणा दे रही थी कि डरो मत बढे जायो, यह पार करना ही है ।।२६, ३०, ३१।। HMNEPAL Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [२८१ तं समुद्रं समुत्तीर्य क्रमेण शुभयोगतः । अनेक जन्तु सङ्कोणं निर्भयः सुभटाग्रणीः ॥३२॥ द्विधा रत्नत्रयेणोच्चैः भव्याब्जः पारमुतमम् । मुनि स तदा प्राप दलवर्तन पत्तनम् ॥३३॥ माल्यार्थ. - (ला) यथा नै महान (भव्याजैः) भव्य पुण्डरीकों द्वारा (द्विधा) निश्चय-व्यवहार रूप दो प्रकार वाले (रत्नत्रयेण) रत्नत्रय से (उत्तमम् ) मुक्तिरूप (पारम्) तट, (वा) अथवा (मुनिः) मुनिराज संसार सागर का पार, (प्राप) पाते हैं (तथा) उसी प्रकार (सः) उस (निर्भयः) निडर (सुभटाग्रणीः) सुभटशिरोमणि ने (शुभयोगत:) शुभ-पुण्ययोग से (क्रमेण) कम-कम से (तम्) उस (अनेकजन्तुसङ्कीर्णम्) नाना प्रकार के ऋ र जन्तुओं से भरे (समुद्रम्) रत्नाकर को (समुत्तीर्य) पार करके (तदा) तब (दल बर्तनपत्तनम् ) दलवर्तन नाम के रत्नद्वीप को (प्राप) प्राप्त किया । मावार्थ---यहाँ श्री पूज्य आचार्य श्री ने संसार को सागर बताया है। सागर में अथाह जल भरा होता है, संसार में प्राणियों की तृष्णा असीम है अतः यही आशारूपी नीर है, सागर का जल खारा होता है, संसार का विषय-वासनाजन्य सुख भी म्हारे जल की भाँति अतृप्ति और अशान्ति का कारण है । समुद्र में मगरमच्छ, घडियाल नर-चक्र होते हैं संसार में रोग, शोक, आधि-व्याधि रूपी भयङ्कर जन्तु भरे हैं । विशाल ज्वार-भाटा अपने उदर में जीवों को ले लेते हैं, उसी प्रकार यहाँ मृत्यु और जन्म रूपी ज्वार-भाटे प्राणियों को निगलते-उगलते रहते हैं। सागर में अनेकों रन भरे रहते हैं यहाँ भी योगीजन-भव्यजनों को रत्नत्रय रत्नों का पुञ्ज प्राप्त होता है । सुदृढ, छिद्र रहित, तूफानादि रहित नौका से जिस प्रकार सागर को पार किया जा मकता है उसो प्रकार जिनभक्ति की सुद्ध, राग-द्वेषादि के भकोरों रहित, संयमरूपी यानपात्र से इस संसार उदधि को पार किया जाता है। जिस प्रकार समुद्र में शेवालादि होते हैं जिनमें उलझ कर नौकाएं डूब जाती हैं उसी प्रकार संसार में पञ्चेन्द्रिय विषयों के पौवाल सदृश जाल में फंसकर दुर्गति के पात्र होते हैं अर्थात नरकादि दुर्गम दुखसागर में जा पड़ते हैं। यहाँ श्रीपाल राजा उस भयङ्कर नक्र चक्रादि से व्याकीर्ण, विशाल सागर में जा पड़ा 1 जिस प्रकार पुण्य क्षीण होने पर स्वर्ग से देव मर्त्यलोक में आ पड़ते हैं । परन्तु श्रीपाल पुण्यशाली महापुरुष इस असह्य विपत्ति से तनिक भी नहीं घबराया, जिस प्रकार संसार भय से भीत योगिराज उपसर्ग परोषहो से चलायमान नहीं होते । उसने पञ्चनमस्कारमन्त्र और सर्व विपद्विनाशक सिद्धचक्र का ध्यान किया और जुट गया उभय भुजाओं से उस असीम सागर को पार करने में । जिस प्रकार भव्यपुण्डरीक जन व वीतरागो मुनिवर निश्चय और व्यवहार नय के विषयभूत निश्चय एवं व्यवहार रत्नत्रय का अवलम्बन लेकर सागरसागर को निर्भय होकर पार करते हैं, मुक्तिपत्तन को पा लेते हैं उसी प्रकार वह वीर सुभट निर्भीक कायबल और मनोवल का सहारा लेकर क्रमश. बढ़ा चला जा रहा था। पूर्वोपार्जित पुण्योदय से शनैः शनैः वह "दलवर्तन" नामक पत्तन द्वीप के निकट जा लगा । उस तट को पाकर उसका एक मास Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद का श्रम सफल हुआ । धर्म के प्रभाव से क्या नहीं होता ? असंभव भी सम्भव हो जाता है। सिद्धभगवान के ध्यान से योगीजन संसार सागर को पार कर मुक्तिनगर में जा बसते हैं । अनन्त गुणरत्नों के आगार अक्षय अनन्त सुख के पात्र हो जाते हैं, फिर इस सागर को तैर कर पार करना कौन बड़ो चोज है । अटल जिनशासन को भक्ति सकल दुःखों को विनाशक होतो है । अनाद्यनिधन महामन्त्र का प्रभाव अचिन्त्य है ।।३२, ३३॥ सत्यं पञ्चनमस्कारः प्रभावः केन वर्ण्यते । जलं स्थलायते येन वह्निश्वापि जलायते ॥३४॥ अन्वयार्य--(सत्यम् ) यथार्थ ही (पञ्चनमस्कारः) पञ्चनमस्कार मन्त्र की (प्रभावः) महिमा (केन) किसके द्वारा (वर्ण्यते) वर्णित हो सकती है (येन) जिसके द्वारा (जलम ) जलराशि-समुह (स्थलागते) निदेर हो गाता है (क) गौर (वह्नि) अग्नि (अपि) भी (जलायते) जलरूप परिणम जाती है । भावार्थ-महामन्त्र णमोकार की शक्ति अद्भुत है, इसका प्रभाव अचिन्त्य है । जो व्यक्ति शुद्ध मन से इसकी आराधना करता है, जपता है, ध्यान करता है उसके असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं, जल के स्थान में स्थल और अग्नि के स्थान में जल हो जाता है। श्रोपाल को इसी ही मन्त्रराज के प्रभाव से भीषण उदधि स्थल' समान हो गया । कृष्ण को ले जाते समय वलदेव जी को यमुना का उत्ताल जलसमूह पक्की रोड़ बन गई । महारानी सती सोता देवी का अग्निकुण्ड सागर जंसा विशाल सरोवर बन गया, कमल प्रफुल्लित हो गये, सिंहासन रच गया । सुदर्शन सेठ को तलवार का वार फूल माला बन गयी। क्या अपार प्रभाव वर्णित हो सकता है ? ।।३४।। सिद्धयन्ति सर्वकार्याणि मन्त्रराज प्रसादतः । पाप राशिः क्षयं याति भास्करेणेव सत्तमः ॥३५॥ सिंह व्याघ्रादयः क्रूराः पशवः प्राणहारिणः । तेऽपि सर्वप्रशाम्यन्ति त्यक्तवैराः स्वभावतः ॥३६॥ दुःखदारिद्यदौर्भाग्य राज्यसङ्कट रोगजम् । भयं श्चाऽपियशंयाति शान्तिस्सम्पद्यते यतः ॥३७।। कुक्कुरोऽपि सुरोजातो यत्प्रभावेन भूतले। चोरश्चाऽपि दिवं याति प्रसिद्धमिदमद्भुतम् ॥३८।। राक्षसा व्यन्तरा क्रूरामन्त्रेणतेन सर्वथा । मुक्तवैराश्च ते नित्यं सेवां कुर्वन्ति सादराः ॥३६।। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद [२८३ दुर्गतिश्च क्षयं याति मन्त्रराज प्रभावतः । पुन नं याति रुण्टे व सतां जन्मनि जन्मनि ॥४०॥ सद्गतिस्वयमायाति सत्पश्चत्रिंशवक्षरैः । धाकृष्टे व सदा लोकत्रयलक्ष्मी समन्विता ॥४१॥ इन्द्रनागेन्द्र चनयादि पदं शर्मशतप्रदम् । प्राप्यते भो महाभ व्यास्सन्मात्रात्परमेष्ठिनाम् ॥४२॥ मन्त्रोऽयं कल्पवृक्षश्च चिन्तामरिपरनुत्तरा । कामधेनुश्च भव्यानां वाञ्छितार्थ स्वरूपिणी ॥४३॥ माता पिता तथा बन्धुमित्रं मन्त्रोऽयमुत्तमः । ततो भव्येस्समाराध्यस्सुखी दुःखी च सर्वदा ॥४४॥ अहो श्रीतीर्थनाथस्य जायन्तेऽत्र विभूतयः । सतां सन्मन्त्रमाहात्म्यात का कथा परसच्छियः ॥४५॥ कि बहुक्त न भो भव्या मन्त्रगतेन निश्चितम् । क्रमेणभव्यः सम्प्राप्य स्वर्ग मोक्षश्च शर्मवः ।।४६।। अन्वयार्थ-(मन्त्र राजप्रसादत:) महामन्त्रराज णमोकार के प्रसाद से (भास्करण) सूर्य के द्वारा (सत्तमः ) घोर अन्धकार (इव) समान (पापराशि:) पापरूपी अन्धकार का समूह (क्षयम् ) नष्ट याति) हो जाता है. तथा (सर्वकार्यारिण) सम्पूर्ण कार्य (सिद्धयन्ति) सिद्ध हो जाते हैं ।।३५।। (प्राणहारिणः) प्राण घातक (राः) क्रू रहिंसक (सिंहढ्याघ्रादयः) सिंह, व्याघ्र प्रादि (पशव:) पशु (अपि) भी (स्वभावतः) स्वभाव से (त्यक्तवैराः) पत्रुभाव त्याग कर (सर्वे) सभो (प्रशाम्यन्ति। शान्तचित्त हो जाते हैं ॥३६।। (यतः) चूकि (दुःखदारिद्यदर्भािग्यराज्यसयूटरोगजम ) प्राधि-व्याधि, दारिद्र, दुर्भाग, राज्यविप्लव, आपत्ति, और रोगों से उत्पन्न (भयम ) भय (अपि) भी (वशम् ) वश (याति) हो जाता है (च) और (शान्ति ) सन्तोष-आनन्द (सम्पद्यते) प्राप्त होता है ।।३७।। (यत्प्रभावेन) जिस मन्त्रराज के प्रभाव से (कुक्कुरः) कुत्ता (अपि) भी (सुर:) देवता (जातः) हो गया (च) और (भूतले) पृश्वीपर (अद्भुतम् ) पाश्चर्य (इदम ) यह (प्रसिद्धम् ) प्रख्यात है कि (चौरः) चोर (अपि) भो (दिवम ) स्वर्ग को (याति) जाता है ॥३८॥ (एतेन) इस (मन्त्रेण) मन्त्र प्रभाव से :) दुष्ट (राक्षसाः) राक्षस (च) और (व्यन्तराः) भूत प्रेतादि (सर्वथा) पूर्णत: (मुक्तवराः) शत्रुभाव त्याग (नित्यम ) सदा (ते) वे (सादराः) आदर भक्ति से (सेवाम ) सेवा (कुर्वन्ति) करते हैं ।।३६।। (मन्त्रराजप्रभावतः) पञ्चणमोकार मन्त्र के प्रभाव से (दुर्गतिः) नरकादिगति (क्षयम ) नष्ट (याति) होती है (च) और (सताम ) सज्जनों के पास (रूप्टा) रूठी हुयी (इव) के समान (जन्मनि-जन्मनि) जन्मजन्मान्तर में (पुनः) फिर Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद (न) नहीं (याति) आती ॥४०॥ (पचत्रिशदक्षरे:) पैतीस अक्षरों वाले इस मन्त्र से (आकृष्टा) प्राकषित (इब) सदृश (सन् ) होती हुयी (सद्गतिः) उत्तमति (सदा) हमेशा (अयलोकलक्ष्मो) नोन लोक को सम्पदा से (समन्विता) सहित (स्वयम्) अपने प्राय (प्रायाति) आजाती है ॥४१।। (भा) हे (महाभव्याः) महाभन्यजनहो (परमेष्ठिनाम । पञ्चपरमेष्ठो बाचक (सन्मन्यात्) श्रेष्ठ मन्त्र से (शतशर्मप्रदम् ) संकडों सुख शान्ति देने वाला (इन्द्रनागेन्द्रचक्रयादि) शक्र, धरणेन्द्र चक्रवर्ती, वलदेव आदि का (पदम ) पद (प्राप्यते) प्राप्त किया जाता है ॥४२॥ (इह इस लोक में (भव्यानाम) भव्यों का (अयम ) यह (मन्त्रः। मन्त्र (कल्पवृक्षः) कल्पवृक्ष (अनुत्तरः) अद्वितीय (चिन्तामणि:) चिन्तामणि रत्न (च) और (वाहितार्थ) इच्छित पदार्थ (स्वरूपिणी) रूपिणी (कामधेनुः ) कामधेनु (च) और ।। ४३।। (अयम ) यह (उत्तम:) श्रेष्ठतम (मन्त्रः) मन्त्र (माता पिता) माता पिता (तथा) तथा (बन्धुः) भाई है (ततः) इसलिए (सुखी) सुखी (च) और (दुःखी) दुखो भिव्यैः) भव्यों द्वारा (सर्वदा) हर समय (समाराध्यः) सम्यक् अाराधना योग्य है ।।४४।। (अहो) पाश्चर्प (अत्र) लोक में (सताम् ) सम्यग्दृष्टि को (सन्मन्त्रमाहात्म्यात्) उत्तम मन्त्र के प्रभाव से (श्री तीर्थनाथस्य श्री तीर्थङ्करभगवान को (विभूतयः) सम्पत्तियाँ (जम्यन्ते) प्राप्त होती हैं (परः) दूसरी (सच्छियः) सम्पदा को (क.) क्या (कथा) कहानो ? ।।४५।। (भो भन्याः) हे भन्यो ! (बहुः) अधिक (उक्तन) कहने स (किम् ) क्या ? (एतेन) इस (मन्त्रण) मन्त्र से (निश्चितम्) निश्चय ही (भव्यैः) भव्य (स्वर्गम् ) स्वर्ग (सम्प्राप्य) प्राप्त कर (च) और (कमेण) क्रम से (शर्मद:) शान्ति-सुख देने वाला (माक्षः) मोक्ष (प्राप्यन्ते) प्राप्त करते हैं ।।४६।। भावार्थ-पञ्चपरमेष्ठी वात्रक पञ्चनमस्कार मन्त्र लोकोत्तर महिमा और प्रभावधारी है। इसके महात्म्य को कौन अल्पज्ञ वर्णन कर सकता है ? कोई भी नहीं। इसके प्रभाव से जल स्थल हो जाता है और अग्नि जलरूप परिणम जाती है। एक समय वर्षाकाल में एक थावक गहन अटवी में जा पहुँचा । मार्ग खोजता-खोजता एक नदो के किनारे पाया । वर्षा हो जाने से नदी में पुर-बात आ गई । उसो समय वहाँ एक मौलवी साहब प्राये और तनिक ध्यानकर नदी में चल दिये । श्रावक (जैन) भौंचक्का सा देखता रहा । उसके पार हो जाने पर पूछा भाई तुम किस प्रकार पार हुए ? मुझे भी किनारे ले जानो न ? मियाजो ने पुनः इस पार पाकर उसे साथ ले नदी पार कर ली। दोनों ही को लगा कि वे रोड़ पर चल रहे हैं। दूसरे किनारे पर पहुंचने पर उस श्रावक ने उससे पार होने का कारण पूछा, उसने कहा मुझे एक दिगम्बर सन्त ने मन्त्र दिया था और कहा था कि यह मन्त्र असम्भव कार्य को भी संभव करने वाला है तथा वन, पर्वत गुफा मशान सर्वत्र सहायता देने वाला है । मेरे अनेकों कार्य इससे सिद्ध हुए हैं । याज भी इसी के ध्यान से मैं इस घटना को पार कर सका हूँ। उस जैन का आश्चर्य असोम था । पूछा, भाई ! "वह मन्त्र कौनसा है ? मुझे भी बता सकते हो क्या ? उसने सहज स्वभाव से मन्त्र सुना दिया "गमो अरहताणं.... इत्यादि । सेठ जो बोले इसे तो मैं अच्छो तरह जानता हूँ, मैं ही नहीं मेरे घर के चूहे-बिल्ली भी रटते हैं ।" उस श्रद्धालु ने कहा, हजर "आप जानते हैं पर मानते नहीं, मन्त्र-तन्त्र श्रद्धा के विषय हैं न कि कोरी तोता रदन्त के।" देखिये महामन्त्र से पानी स्थल हो गया । इसी प्रकार श्री रामचन्द्र द्वारा सीता Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [ २८५ को अग्नि परीक्षा ली गई । उस समय उस महासती ने इसी परम पावन मन्त्र के प्रभाव से सफलता प्राप्त की। अग्निकुण्ड को शीतल जल भरा सरोवर बना दिया। यही नहीं देवों से पूज्य भी हुयी। इस मन्त्रराज के प्रसाद से सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। सुदर्शन मेठ की शूली सिंहासन बन गई । महाशीलवन्ती सोमा के घड़े में स्थित सर्प सुन्दर मुक्ताहार बन गया। इतना ही नहीं इसके प्रभाव से जन्मजन्मान्तर में अर्जित पाप समूह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार रत्रि के उदय होते ही घोर अन्धकार विलोन हो जाता है । भयङ्कर प्रटदो निवासी र हिंसक, दुष्ट सिंहव्याघ्न, भालू आदि पशु भी शान्त हो जाते हैं, स्वभाव से बैर त्याग देते हैं, मित्रवत् सरल हो जाते हैं । प्रागहारी भी सहायक बन जाते हैं । दु:ख, दरिद्रता, दुर्भाग्य, राज्य विप्लव रोग, शोक जन्य कष्टों का भय नहीं रहता । श्राकस्मिक घटनाओं का आत प्रक्रमण नहीं कर सकता | बल्कि विपत्तियाँ सम्पत्तियाँ हो जाती हैं। दुर्जन सज्जन और शत्रु मित्र हो जाते हैं । इस मन्त्रराज के प्रभाव से बेचारा दुर्गति में पड़ा कुत्ता भी क्षणमात्र में सुन्दर सुख सम्पन्न देव हो गया । शिशकते कुत्ते को दयालु जोबन्धर कुमार ने पञ्चनमस्कार मन्त्र सुनाया, जिसे अवधारण कर वह दूसरे स्वर्ग में ऋद्धिधारी देव हो गया । क्या विशाल महिमा है इसकी कि एक नीच चोर भी अन्तर्मुहूर्तमात्र में स्वर्ग में जा बसा । यह सर्वत्र प्रसिद्ध है । इस मन्त्र द्वारा राक्षस, भूत, व्यन्तर पिशाचादि क्रूर जीव भी दूर भागते हैं, वैर-विरोध छोड़ देते हैं यहीं नहीं सेवक बन कर सेवा करने लगते हैं। भक्त बन जाते हैं । यादर-सत्कार करते हैं । इस मन्त्रराज से दुर्गतियाँ नहीं होती। वे रुष्ट हो जाती हैं । भव भव भी पास नहीं प्राती : सद्गति स्वयंमेव चली आती हैं । जिस प्रकार मन्त्रवादी इच्छित पदार्थ को आकर्षित कर लेता है, उसी प्रकार तीनों लोकों का वैभव, सुख सामग्री इस मन्त्र के प्रभाव से बिना चाहे, स्वयमेव चली माती है । आचार्य श्री कहते हैं भो भव्यजन हो यह पञ्चपरमेष्ठी वाचक मन्त्र पैंतीस अक्षरों, अठ्ठावन मात्राओं से युक्त है, इसके आराधना से शुद्ध नन वचन, काय से ध्याने से इन्द्र, अहमिन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि की सम्पदा सहज ही प्राप्त होती है । सुख-शान्ति का साम्राज्य मिलता है, जो चाहे वह प्राप्त होता है | यह मन्त्र क्या है ? वस्तुतः यह इच्छितदाता कल्पवृक्ष हैं, कल्पवृक्ष तो जिस कोटि का होता है उसी कोटि की वस्तु देता है यथा 'भूषणाङ्ग' जाति का आभूषण, पानाङ्ग जाति का पेय आदि परन्तु यह तो अकेला हो दशों प्रकार के कल्पवृक्षों के कार्य को कर देने की सामर्थ्य रखता है । यह चिन्तित फलदायी चिन्तामणि रत्न है। यही नहीं जो भक्तिभाव से इसका ध्यान करता है वह बिना चिन्त ही फन पाता है । वाञ्छित फलदायी "कामधेनु" हैं यह । आचार्य परमेष्ठी परमगुरु आदेश देते हैं कि हे सुखार्थी भव्यजन हो आप निश्चय समझो, यह मन्त्र आत्मरक्षण का पिता, पालनकर्ता माता, सहायक बन्धु तथा मित्र है अतः सदैव ही भव्याशियों द्वारा दुःख-सुख हर हालत में इसका प्राराधन करना चाहिए । अहो, इस मन्त्र वो प्रभाव से तीर्थङ्कर को विभूति प्राप्त होती है तो फिर अन्य लौकिक सम्पदाओं की क्या कथा ? अधिक क्या कहें इस महामन्त्र के प्रसाद से स्वर्गादि की विभूति तो घास-फूस जैसे बिना ही श्रम के अनायास प्राप्त हो जाती है । परम्परा से मुक्ति लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है जो अचल अक्षय, अव्यय, अखण्ड, अविनाशी अनुपम सुख की खान है । इसके समक्ष स्वर्गादि का ara महातुच्छ है क्योंकि वह नश्वर और परिवर्तनशील है । अतः सुखेच्छों को निरन्तर इस मन्त्र का स्मरण करते रहना चाहिए। क्योंकि सुखी जनों के सुख की अभिवृद्धि होगी और r Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ [ोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद दुःखियों का दुःख नष्ट होगा । कारण कि पुण्य सञ्चय और पाप संक्षय का यह अमोघ मन्त्र है ।।३४,से ४६।। इति मन्त्र प्रभावेन पत्तनं दलवर्तनम् । स श्रीपालो यदा प्राप तदा तत्र महीपतिः ।।४७॥ विख्यातो धनपालाख्यो वनमाला प्रिया सती। तयोः पुत्रास्त्रयो जाता विख्यातास्ते स्वपौरुषः ॥४६॥ मनोहरस्सुतो ज्येष्ठः सुकण्ठश्चापरोमतः श्रीकण्ठस्तृतीयो ज्ञेयस्त्रयस्ते कुलदीपकाः ॥४६॥ ' अन्वयार्थ- (इति) इस प्रकार (मन्त्रप्रभावेन) उस अपराजित मन्त्र के प्रभाव से (यदा) जिस समय (सः) वह (श्रीपाल :) श्रीपाल (दलवर्तनम) दलवर्तन (पत्तनम्) द्वीप को (प्राप) प्राप्त हुआ (तदा) उस समय (तत्र) वहाँ द्वीप में (विख्यातः) प्रसिद्ध (धनपाल:) धनपाल (आख्यः) नामबाला (महीपतिः) राजा (सती) शीलवती (वनमाला) धनमाला (प्रिया) भार्या (तयोः) उन दोनों के (श्रयः) तीन (पुत्राः) पुत्र (जाता) हुए (ते) वे पुत्र (स्व पौरुषैः) अपने पुरुषार्थ (विख्याता:) विख्यात हुए (ज्येष्ठः) बडा (सुत्तः) पुत्र (मनोहरः) (ज्येष्ट:) प्रथम (सुतः) पुत्र (मनोहरः) मनोहर (अपरः) दूसरा (सुकण्ठः) सुकण्ठ (च) और (तृतीयः) तोसरा (श्रीकण्ठः) श्रीकण्ठनाम का (ज्ञ यः) जानना (ते) वे (त्रयः) तीनों (कुलदोपकाः) कुल के प्रदीप (मतः) माने जाते थे । भावार्य -अतीव पुण्य और अपराजित महामन्त्र के प्रभाव से थका मादा श्रीपाल कोटिभट दलवर्तन रत्नद्वीप के किनारे जा लगा । नया जीवन मिला भूख प्यास से क्लान्त अत्यन्त श्रमित तट पर स्थित वृक्ष को सघन छाया में विश्राम हेतू लेट गया । उस समय उस द्वीप का नरेश धनपालथा । उसको प्रिय भार्या का नाम बनमाला था । वे दोनों धर्मात्मा और न्याय-नीति सम्पन्न थे। उनके तान पूत्र थे। प्रथम-सबसे बड़ बेटे का नाम मनोहर था, दूसरे सूत का नाम सूकण्ठ और तीसरा पुत्र श्रोकण्ठ नाम से विख्यात था। ये तीनों ही यथा नाम तथा गुण थे। क्षत्रियोचित रूप लावण्य, विद्या कला विज्ञान एवं अपने पुरुषाथ से यशस्वी थे । सर्वत्र प्रसिद्ध थे । तीनों ही कुल प्रकाशक दीपक थे । अर्थात् अपने कुल, वश परम्परा के संरक्षण में पूर्ण समर्थ थे। ।।४७, ४८, ४६।। . HA - Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] पुत्री च गुणमालाख्या सज्जाता स्वगुणान्विता । रत्नमालेव पूतात्मा सती सज्जनसंस्तुता ॥ ५०॥ अन्वयार्थ - (च) और ( रत्नमाला ) रत्नों की माला ( इव) सरण ( पूतात्मा ) पविआत्मा (सती) मीलवतो ( सज्जन संस्तुता) सत्पुरुषों से प्रशंशित (स्वगुरणान्विता ) अपने नायेंचित गुणों से सम्पन्न ( गुणमाला) गुणमाला ( प्राख्या) नामक (पुत्री) कन्या ( सञ्जाता ) हुयी थी । भावार्थ - उपर्युक्त तीन पुत्रों के अतिरिक्त उस धनपाल भूपाल की एक कन्या हुयी । वह महान सुन्दरी, रूपवती तथैव गुणवती, शोलरूप आभूषण की धारक, रत्नमाला समान सर्वप्रिय, निर्विकार पवित्र नारी के गुणरत्नों की खान थी। उसका नाम गुणमाला था । वस्तुतः वह गुणरूपी मरिण माणिक्यों से गूंथी माला ही थी । रति और अप्सराओं को तिरस्कृत करतो थी । साक्षात् सरस्वतों का ही अवतार थी ।। ५० ।। एकदा भूपति सोऽपि धनपालस्सुभक्तितः । पपृच्छ मुनिमानम्य ज्ञानिनं परमादरात् ॥५१॥ [ २८७ अन्वयार्थ - (एकदा) किसी एक समय (सः) उस ( धनपाल ) धनपाल ( भूपतिः ) राजाने (अपि) भी ( भक्तितः ) भक्तिपूर्वक ( परमादरात्) प्रत्यन्त विनय से (ज्ञानिनम् ) अवधिज्ञान (मुनिम्) मुनिराज को (आनभ्य) नमस्कार कर (पपृच्छ) पूछा । भावार्थ- एक दिन उस धनपाल राजा ने अवधिज्ञानी मुनिराज के दर्शन किये। परमभक्ति से विनयपूर्वक नमस्कार किया । तथा इस प्रकार पूछा ।। ५१ ।। हो स्वामिन् सुताया मे को वरीsa भविष्यति तन्निशम्य जगादोच्चमुनिः शृण महीपतेः ॥ ५१ ॥ योभुजाभ्यां समुत्तीर्य समुद्रञ्चागमिष्यति । स ते सुतापतिर्भावी, तत्समाकर्ण्य भुततिः ॥ ५३ ॥ तदाप्रभृति सद्भृत्यान् स्वाँस्तमन्वेषणे क्षणात् । योजयामास सर्वत्र तवा तत्पुण्य योगतः ॥ ५४॥ तत्र वृक्षतले संस्थं श्रीपालं श्रमहानये । स्थिरच्छायं तमालोक्यपादपञ्चाति भक्तितः ।। ५५ ।। सत्यं स एव पूजात्मा समायातः स्वपुण्यतः । मत्त्वेतिमानशे तुष्टा गत्वा तं भूपति जगुः ॥ ५६॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद न्ययार्थ–राजा धनपाल मुनिराज से प्रश्न करता है-(ग्रहो) भो (स्वामिन्) गुरुदेव (पत्र) अब (मे) मेरो (सुतायाः) पुत्री का (वरः) पत्ति (क:) कौन (भविष्यति) होगा (तग्निशम्य) उसे सुनकर (मुनिः) मुनिमहाराज (उच्च.) विशेषता से (जगाद:) बोले (महीपतेः) हे भुप (श्रण,) सुनो (यो) जो (भजाभ्याम् ) हाथों से (समुदम् । सागर को (समुत्तीर्य) तर कर (च) और (आगमिष्यति । आयेगा (सः) वह (ते) तुम्हारी सुतापति) पुत्री का पति (भावी) होनहार है (तत्समाकर्ण्य) मुनिवाणी को सुनकर (भूपतिः) राजा ने (तदाप्रभृतिक्षणात्) उसी समय से (तम् ) उसे (अन्वेषणे) खोजने में (स्वान्) अपने (सद्भृत्यान्) श्रेष्ठ नौकरों को (सर्वत्र) सब जगह (योजयामास) नियुक्त कर दिया, (तदा) तब (तत्पुण्ययोगत:) उसके पुण्य योग से उन्होंने (स्थिरच्छायम ) सघनच्छा या वाले (पादपम् ) । (तत्र) वहीं (वृक्षतले) उस वृक्ष के नोच (थमहानये) थकान दूर करने को (संस्था ) विराजे हुए (तम्) उस (श्रीपालम्) श्रीपाल को (मालोक्य ) देखकर (च) और (स्वपुण्यत:) अपने पुण्य से (सत्यं) निश्चय ही (स एव वही (पूतात्मा) पुण्यात्मा (समायातः) आगया (इति) ऐसा (मत्वा) मानकर (मानसे) मन में (तुष्टाः) संतुष्ट हुए (तम्) उस (भूपतिम्) राजा के पास जाकर (भक्तित:) भक्ति से (जगुः) समाचार काहा।। भावार्थ - --धनपाल राजा अपनी रूपसुन्दरी गुणवी कन्या के पाणिग्रहण का विचार करने लगा । यौवन की देहली पर पदन्यास करती कन्या की कौन माता-पिता अपेक्षा करंगे ? अस्तु पुण्ययोग से एक दिन महाराजा धनपाल ने अवधिलोचन मुनिराज के दर्शन किये । NI ' - : : - । - बर १ -: Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] [२८६ अत्यन्त भक्ति से सरकार किया। विनय नम्र निदेवन किया, हे दयानिधान गुणसिन्धो, कृपया बतलाइये कि “मेरो कन्या रत्न का सुयोग्य वर कौन होगा ?' करुणासागर मुनिराज ने प्रश्न के उत्तर में बतलाया कि हे भूपते ! मुनिये, जो सत्पुरुष, वीराग्रणी अपने पुण्य प्राताप से और भुजवल से समुद्र को तैर कर यहाँ प्रायेगा वही इस आपकी कन्या का पति होगा 1 सम्यक्त्वी उस राजा ने गरूवाणी को अकाट्य, अटल रूप से स्वीकार किया । बिना किसी ऊहा-पोह के उसी समय अपने योग्य, चतुर सेवकों को बुलाया और सागर के तौर पर नियुक्त कर दिया । उसने उनसे कहा "पाप पूर्पसावधानी से अहनिश देखते रहें कौन व्यक्ति उदधि को भुजाओं से पार कर आता है । इस में तनिक भी प्रमाद नहीं करना । ऐसा न हो कि आ कर अन्यत्र चला जाय अथवा कोई नाव-जहाज से आकर पूर्तता से तैरकर आया हूँ ऐसा कह दे । अतः पूर्ण सतर्कता से अन्वेषण करना । इस प्रकार आदेशानुसार सेवकजन रात्रि-दिवस धानी से प्रतीक्षा करने लगे । एक दिन आया। उनका पुरुषार्थ सफल हा । खोजते हए उन लोगों ने एक विशाल, सघन छायादार पादप देखा तथा वहीं थकान दूर करने के लिए उस वृक्ष के नीचे स्वस्थचित्त विराजे धीपाल को भी देखा। उनके हर्ष का ठिकाना न रहा । आनन्द से रोमाञ्चित हो गये । उन्होंने विचारा “निश्चय ही अपने पुण्य से यह सत्पुरुष बही आपहुँचा है" इस प्रकार पुर्ण निश्चय कर प्रसन्नचित्त वे राजा के पास पहुंचे और भक्ति से नम्रता पूर्वक यह शुभ समाचार अपने स्वामी राजा को सुना दिया ।।५२ से ५६।। श्रुत्वा तद्धनपालोऽपि स्वयमागत्य भूपतिः । तं विलोक्य निधानं वा सन्तुष्टो लक्षणयुतम् ॥५७॥ वस्त्राभरग सन्दोहैस्सुधीस्संमान्यसावरम् । मन्दिरं निजमानीय सर्वलोचन सुन्दरम् ॥५॥ शुभेल ग्ने दिने रम्ये सज्जनः परिवारितः । विवाह विधिना तस्मै ददौ कन्यां गुणोज्वलाम् ॥५६॥ तां सती गुणमालाख्या सर्वाभरण भूषिताम् । कोमलां कल्पवल्लीव मनोनयन बल्लभाम् ॥६०॥ महोत्सवशतैः कृत्या परमानन्द निर्भरः । नानारत्न सुवर्णा/वाहनाघस्समन्विताम् ।।६१॥ अन्वयार्थ-- (तत्) उस शुभ समाचार को (श्रुत्वा) सुनकर (धनपाल:) धनपाल (भूपति) नृपति (अपि) भी (स्वयम्) स्वयं (आगत्य) आकर(लक्षणयुतम् )अनेक उत्तम लक्षणों सहित (तम्) उम श्रीपाल को (विलोक्य) देखकर (सन्तुष्टः) सन्तुष्ट हुआ (वा) मानों (निधानम्) वह खजाना ही मिला, (सुधीः) उस बुद्धिमान राजा ने (वस्त्राभरणसंदोहै:) अनेक प्रकार के वस्त्राभूषणों से (सम्मान्य) सत्कार कर(तम) उस (सर्वलोचनसुन्दरम्) सर्व Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६.०] [श्रीपाल चरित्र 'पञ्चम परिच्छेद जनों के नपनों को प्रिय लगने वाले श्रीपाल को (सादरम्) आदर सहित (निज) अपने ! मन्दिरम्) राजमहल में (ग्रानोय) लिवा लाकर (शुभे लग्ने) शुभलग्न में (रम्ये) महोहर-शुभ (दिने) दिन में (सज्जन:) पुरजन परिजनों से (परिवारितः) समन्वित हो (विधिना) विधिवत् अग्निसाक्षी पूर्वक (गुणोज्वलाम्) उत्तम गुणों से शोभित (सर्वाभरणभूषिताम् ) नाना अलङ्कारों से सजी, (कोमलाम्) सुकुमारी (कल्पवल्ली) कल्पलता (इव) समान (मनोनयन मन और नेत्रों को (बल्लभाम्) प्रिय (सतीम् ) साध्वी (गुणमालाख्याम् ) गुणमाला नाम वाली (नानारत्न) अनेकों रत्नों (सुवर्णाद्य:) सुवणादि (वाहनीय:) गज' अश्व रथादि के समूहों से (समन्विताम् ) सहित (ताम् ) उस (कन्याम् ) कन्या को (परमानन्दनिर्भरः) परम आनन्द से उल्लसित नरपति ने (महोत्सव शतः) सैकड़ों महा उत्सव (कृत्वा) करके (तस्मै) उस श्रोपाल को (ददौ) प्रदान की। भावार्थ--अपने सेवकों को द्वारा प्राप्त समाचार से महीपति धनपाल को बहुत प्रसन्नता हुयी । वह समस्त राज्यकार्य छोडकर दल-बल सहित स्वयम् उस पुण्यवन्त वीर गिरीमणि को देखने के लिए चल पड़ा। कुछ ही क्षणों में भूपति सागर तट पर प्रा पहुंचे । पाते क्यों नहीं संसार में योग्य वर की तलाश को दूर-दूर द्वीप, समुद्र अटवी पार कर जाना पड़ता है, वर्षों खोज करना होता है, अनेकों कष्ट और श्रम उठाना पड़ता है, फिर भला घर बैठे ही अनुपम रूप गुण, विद्या, कलाधर स्वयं आ जाय तो उसका स्वागत क्यों न किया जाता । उस अनुपम लावण्य और अनेकों उत्तम । ज्योचित चिन्हों से अलंकृत नवयुवक सत्पुरुष को देखते हो राजा के आश्चर्य और कन्या के पुण्योदय का ठिकाना न रहा । बस्तुतः सर्वगुण सम्पन्न योग्य वर पूर्वोपाजित विशेष पुण्यकर्म का ही फल है । भूपाल ने बड़े ही प्रेम, अनुराग वात्सल्य विनय और आदर से कृशल समाचार पूछा । क्षार जल से क्षत-विक्षत श्रीपाल को स्वच्छ निर्मल, शीतल, मधुर जल से स्नान कराया। उसके योग्य गंध पुष्प, माला, बस्त्र, अलङ्कार, यान-सवारी आदि भेंट की । कण्ठ में रत्नहार धारण कराया। अन्यजनों ने भी विनयभक्ति से उसका भरपूर आदर सम्मान किया । इस समस्स सज्जा घज्जा, भान-सम्मान से मनीषी श्रीपाल को न विस्मय था न हर्ष और न ही शोक । क्यों तत्वविद वैषयिक सूख सामग्री के पाने पर हर्ष और जाने पर विषाद नहीं करते । वे जानते हैं कि ये दोनों ही अवस्था कर्माधीन और क्षणिक हैं । धर्म और आत्मा को छोडकर कोई भी कुछ भी स्थायी नहीं है । अत: कोटिभट कर्मोदय समभ. इस वातावरण को भी तटस्थभाव से देख रहा था। स्नानादि होने पर नरेश धनपाल ने अपने महल में पधारने का अनुरोध किया। वह भी वालकवत निविकारभाव से उसके यहाँ जाने को तैयार हो गया । अत्यन्त टाट-बाट उत्सव, नृत्य, गान, बाजा-गाजा सहित श्रीपाल को नगर प्रवेश कराया जिसकी दृष्टि उस पर पडती, वहीं अटक जाती । सभी सतृष्णनेत्रों से उसे निहारते। अत: सर्वप्रिय नयनतारा हो गया वह पुण्यभण्डारी श्रीपान । राजा-रानी को परम सन्तोष हुमा उसे राजमहल में प्रवेश करा कर राजकुमारी ही नहीं समस्त परिजन-पुरजन उन होनहार भावी वर-वधू को शीघ्र ही तद् प देखने को लालायित थे। अस्तु, धनपाल राजा ने विद्वान ज्योतिषियों से निर्णयकर शुभलग्न, शुभदिन और शुभ वातावरण में अपने परिवार जन समूह और पुरजनों से समन्वित हो बडे ही महोत्सव सहित, समस्त Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद [२६१ विवाह विधि आगमानुकूल कराकर, अग्निसाक्षी पूर्वक अपनी गुणगणमण्डित मनोज्ञ कन्या गुणमाला का विवाह श्रीपालकोटिभट के साथ कर दिया । कामदेव और रति सदृश ये दोनों शोभित हुए । धर्मानुकूल विवाह क्रिया समाप्त कर माता-पिता को परमानन्द हुआ ! वस्तुतः वह कन्या नागकन्या सदृश सुकुमारी, कल्पलता समाज मनोहर, मन और नयनों को हरण करने वाली थी। राजा धनपाल इस प्रकार के वर-वधू संयोग से आनन्दित हो संकर प्रकार के मण्डप, तोरण, बंजा, माला, प्रादि से विशाल विवाहमण्डप सजवाया। कहीं नत्यशाला, कहीं गायनशाला. कहीं चित्रशाला आदि सजायीं गई थीं । सौभाग्यवती नारियों ने संगीत के साथ नानारत्नचों से मिश्रित चौक पूरे, रमणीय वादित्रों की मधुर ध्वनि से मंडप गूज रहा था । पाठकगण विरद बखान कर रहे थे। जिनालयों को घण्टा, तोरण, ध्वजा, चमर छत्रसिंहासनादि से अलङ्कृत किया गया था। अनेक प्रकार की पूजा, विधि विधान कराये । अनेकों भूपघटों के बुआ से सर्वत्र सुरभि व्याप्त थीं । कन्यादान में राजा ने स्वयं की इच्छा से अनेकों रत्न, सुवर्ण, गज, अश्व, रथ, पालकी, दास दासियाँ आदि प्रदान किये । परम हर्ष से कन्या को योग्य सभी सामग्री प्रदान की। गृह वस्त्राभरण आदि की कमी न हो इस प्रकार की वस्तुओं से उसे समन्वित कर विदा किया ॥५७ से ६१।। तथा महीभुजा तेन श्रीपालः पुण्यसंवलः । सम्प्राप्य परमानन्दं भाण्डागारी पदे धृतः ॥६३।। अन्वयार्थ-(तथा) कन्या विवाह कर (परमानन्दम) परम उल्लास को (सम्प्राप्य) प्राप्तकर (तेन) उस (महीभुजा) महीपति द्वारा (पुण्यसम्बलः) पुण्य ही आधार जिसका ऐसा (श्रीपाल:) श्रोपाल (भाण्डागारी) भण्डारी के (पदे) पद पर (धृतः) नियुक्त कर दिया गया। भावार्थ-अनेकों वस्तु, वास्तव्य, धन, धान्यादि के साथ कन्यादान विधि के अन्तर राजा ने श्रीपाल की योग्यता पुण्य, प्रताप, सदाशीलतादि से प्रभावित हो उसके योग्य भण्डारीपद पर आसीन किया। इससे राजा को बहुत हर्ष था। उसके ग्रानन्द की सीमा नहीं थी । सर्वगुण सम्पन्न, वय, रूप, कुल, गुण, ज्ञान, विद्या, कला आदि वर के सभी गुण श्रीपाल कोटिभट में निरवकाश समावे थे। अतः राजा उसे हृदय से चाहने लगा और पूर्ण आश्वस्त हो उसका सम्मान करता ॥६॥ सत्यं सतां महापुण्यमाहात्म्यं भुवनादिकम् । येन भव्याश्च सर्वत्र लभन्ते सर्व सम्पदम् ॥६३॥ अन्वयार्थ - (सत्यम्) ठीक ही है (सतांपुण्यमाहात्म्यम् ) सज्जनों की पुण्यमहिमा विचित्र होती है (येन) जिसके प्रभाव से (भव्याः ) भव्यजन (सर्वत्र) सब जगह (भुवनादिकम्) घर, मकान महलादि (सर्वसम्पदम्) सर्वसम्पत्तियाँ (लभन्ते) प्राप्त करते हैं । भावार्थ-नीतिज्ञ प्राचार्य कहते हैं कि महापुरुषों का पुण्य वेजोड होता है । पुण्यानु Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद बन्धी पुण्य के महात्म्य से भव्यजन जहाँ भी जाते हैं. जिस भी अवस्था में रहते हैं उन्हें भुवनादिक सभी वस्तुएं अनायास ही प्राप्त हो जाती हैं ।। ६३ ।। एवं स्वपुणणाकेन स भोपालो गटोशलः । राजपुत्रों समासाद्य भुजन् भोगान्सुखं स्थितः॥६४।। कुर्वन् धर्म जिनेन्द्राणां दानं पूजावतादिकम् । यावत्तावत्प्रवक्ष्यामि संजातं तत्र सागरे ॥६५।। • अन्वयार्थ—(एवं) इस प्रकार (गुणोञ्चलः) निर्मल, पवित्र गुणशाली (सः) वह (श्रीपाल:) कोटिभट श्रीपान (स्वपुण्यपाकेन) अपने पुण्योदय से (राजपुत्रीम् ) राज कन्या को (समासाद्य) पत्नीरूप में प्राप्तकर (भोगान्) इन्द्रियजन्य भोगों को (भुजन्) भोगता हमा (जिनेन्द्राणाम् ) जिनभगवान द्वारा निरूपित्त (दानपूजावतादिकम्) दान, पूजा व्रत, जप, तप आदि (धर्मम्) धर्म को (कुर्वन्) पालन करता हुआ (यावत्) जबकि (मुखम् ) सुखपूर्वक (स्थित:) रहने लगा (तावत्) तब (तत्र) वहाँ (सागरे) समुद्र में (सञ्जातम् ) जो कुछ हुअा उसे अब (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा। भावार्थ--सांसारिक विकास, पारिवारिक जीवन का सार सुलक्षणा नारी है। कोटिभट महाराज श्रीपाल ने अपने महान पुण्य से उत्तम राजपुत्री से विवाह किया। साथ अनेकों प्रकार की भोग सामग्री प्राप्त हुयीं । संसार में मानव को साधारणतः तीन वस्तुओं की आवश्यकता होती है पाबास, भोजन और बस्य, ये तीनों ही उसे अनायास प्राप्त हो गये । कन्यारत्न पाकर श्रोपाल महाविवेकी भोगों में आसक्त नहीं हुअा अपितु प्रात्मशुद्धि के साधनभूत जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रशीत दान पूजा, व्रत, नियम, जप, सयमादिरूप धर्म को भी यथाविधि पालन करने लगा। दोनों दम्पत्ति सुखसागर में निमग्न हो रहने लगे। प्राचार्य कहते हैं पुण्य और पाप का फल जीव की यहीं प्राप्त हो जाता है। अब उधर सागर में विचरण करते धवल सेठ के यहाँ यानपात्र में क्या हुअा इसका विवरण करूगा । पाठक ध्यान दें और देखें दुर्जनता का परिणाम और धर्म की महिमा ।।६४ ६५:: समुद्रे पतिते तस्मिन श्रीपाले गुणशालिनि । कश्चित् दुर्जनकः साद्ध स श्रेष्ठीधवलः खलः ॥६६।। पापी मायान्वितस्तत्र कि जातमिति सम्वन् । मायया रोदनंचके शिरो धृत्वा च दुर्जनः ॥६७।। अन्वयार्थ-(गुणशालिनि) गुणवान (तस्मिन्) उस (श्रीपाले ) श्रीपाल के (समुद्र) सागर में (पतिते) गिर जाने पर (स) वह (खल:) दुष्ट (धवलः) धवल (श्रेष्ठी) सेठ (कश्चित्) कुछ (दुर्जनः) दुर्जनों के (सार्द्धम् ) साथ (मायान्वितः) मायाचारी (पापी) Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [ २६३ पालकी (तत्र) वहाँ (कि) क्या (जातम्) हुआ (इति) इस प्रकार (संय वन्) बार बार बोलता हुआ (च) और (मायचा) मायाचारी से (शिरः) मस्तक (धृत्वा) पकड़ कर (रोदनम्) रोना (चक्र) प्रारम्भ किया। भावार्थ--धूर्त धवल सेठ का दाव अचूक हुअा। उसने जाल रचकर धृता द्वारा उस बेचारे, सरचित्त परोपकारी श्रीपाल को रस्सा कटवा कर गहरे रत्नाकर के मध्य गिरवा दिया । मन ही मन हर्षित था । किन्तु कपटी का मन, बचन, काय की क्रिया भिन्न-भिन्न होती हैं । ऊपरी, मायाचारी से वह दुष्ट धवल नाम से धवल किन्तु भाव से काला "वहाँ क्या हुना क्या हुआ ? कैसे हुआ ? श्रीपाल कहाँ जा पडा ? अब क्या होगा । इत्यादि झूठमूठ चिल्लाता हुप्रा माथा धुनने लगा । शिर पकड कर रोने लगा। मानों वास्तविक दुःख उसे हुआ है । उस गुणज श्रीपाल के प्रति बनावटी कृतज्ञता दिखाने लगा । चारों ओर सर्वत्र जहाजों में कोलाहल मच गया । हाहाकार होने लगा । नाना प्रकार से लोग श्रीपाल का गुनगान करते-करते रोने लगे । हाय हाय कर उठे । कोई वास्तविक रूप में आंसू बहा रहे थे कोई बनावटी दिखावटी। पर रो सभी रहे थे ।।६६ ६७।। अब चारों ओर हा हा कार मच गया। श्रीपाल सागर में जा पड़ा। श्रीपाल कोटिभट गया । इस प्रकार की पीडाकारक ध्वनि मदनमञ्जूषा के कान में पडी। सुनकर उसका क्या हुआ। वह सब वृत्तान्त सुनिये । शील की महिमा, शासन देवी देवताओं का आह्वान, उनका चमत्कार पाठक ध्यान से पढ़ें-- श्रीपालः पतितस्सिन्धौ जनकोलाहलं तदा । श्रुत्वा मदनमञ्जूषा महादुःख भरा हता ॥६॥ विद्युत्पातेन वल्लीव पापत किल मूछिता । सखीभिर्जलसेचाधे रुदन्ती सोस्थिता तदा ॥६६॥ अन्वयार्थ--(तदा) उस समय (सिन्धौ) सागर में (श्रीपालः) कोटिभट श्रीपाल (पतितः) गिर गया इस प्रकार (जनकोलाहलम् ) लोगों के कोलाहल को (श्रुत्वा) सुनकर (हता) पीडित (महादुःख भरा) अत्यन्त दुःख से ब्याकुल (मदनमञ्जूषा) मदनमञ्जूषा (किल) निश्चय ही (विद्य त्पातेन) वज्रपात से (वल्ली इव) लता समान (मूच्छिता) वेहोश (पपात) गिर गई (तदा) तब (सखीभि) सखियों द्वारा (जलसंचाद्य :) जल छींटना, पंखाझलना आदि उपायों द्वारा (सा) वह पतिव्रता (रुदन्ती) रोती विलाप करती (उत्थिता) चेतनायुक्त की गई अर्थात् होश में आई । उठकर पुन: विलाप करने लगी। भावार्थ-संसार में शीलवती नारियों का पति ही देवता, रक्षक, पालक, ईश्वर और आराध्य होता है। उसी का दुःख सुख उसका होता है । क्योंकि सौभाग्यमण्डिता महिला ही जगत में मान्य, पूज्य, उत्तम सुखी और सम्पन्न मानी जाती है। पति ही उसकी शोभा है । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेव अस्तु जन कोलाहल सुन कर मदनमञ्जूषा को ज्ञात हो गया कि उसका प्रायोश्वर श्रीपाल सागर के अथाह जल में जा गिरा। यह विदित होते ही उसे मानों वज्र प्रहार हुआ। वह तिलमिला उठी, व्याकुल हो गई। जिस प्रकार बिजली गिरने से लता वृक्ष का श्रावार छोड़ भूमि में लोट जाती है। उसी प्रकार इस आकस्मिक वज्रप्रहार से मदनमञ्जुवा संज्ञाशून्य हो वसुन्धरा की गोद में जा पड़ी। संसार में मां की ममता प्रसिद्ध है। माता सच्ची रक्षिका होती है यही समझ कर मानों धरा माँ में अपने असा दुःख को समेट छपना चाहती हो। उसके भूमि पर पडते ही नौका में भगदड मच गयी । अध यहाँ वसुधा या भूमि से अभिप्राय नाच की ही आधार भूत जगह समझना क्योंकि यह सब कुछ जहाज में ही हो रहा है । इधर-उधर से उसकी सखियाँ, सेविकाएँ दौड़ पड़ीं। कोई शीतल जल सेचन करने लगी, कोई चन्दन, उशीर छिड़कने लगी तो कोई पंखा झलने लगी । इस प्रकार नानाविध उपचार कर शीघ्र ही उसे सचेत कर लिया, किन्तु दुःख तो उद्वेलित हो उठा । मूर्च्छासखी ने मानों उसे तीव्र दुःख की दाह से बचाने का उपाय किया था । किन्तु इन सखियों ने उसे भगाकर पुनः इसके दुःख को उदीरित कर दिया। परन्तु यह भी है कि दुःख विखर कर फैल जाता है ओर उसका आघात लघु हो जाता है। इसीलिए उसकी हितैषिणी सखियों ने उसे सचेत किया और वह भी गला फाड़-फाड़ कर अपना सन्ताप वितरण करने लगी ।। ६६ ६६ ।। हा नाथ क्व गतोसि त्वं मां विहायात्र सागरे । चक्रवाकोमि काकि महाभयशतङ्करे ||७०।। अन्वयार्थ --चह्न मदनमञ्जूषा बिलखने लगी (हा ) हाय (नाथ) हे स्वामिन् (महाभयशङ्करे) सैकडों प्रकार के भयों को उत्पन्न करने वाले ( सागरे ) समुद्र में ( एकाकम् ) अकेली (चक्रवाकी) चकवी ( इव) के समान ( माम्) मुझको ( विहाय ) छोड़कर ( त्वम् ) आप ( क्व) कहाँ (गतोसि ) चले गये हैं. भावार्थ --- मदनमञ्जूषा का धैर्य बांध टूट गया। उसका हृदय क्षत-विक्षत हो गया । उसे चारों ओर अन्धकार और भय भासने लगा। वह कहने लगी, हे स्वामिन्, आप कहाँ हैं, हाय हाय मुझे अकेलो छोड़कर आप कहाँ गये । यह सागर महा भयङ्कर है। सर्वत्र सैकड़ों भयों से भरा पड़ा है । कहीं कोई रक्षक नहीं । इस दशा में मैं नवा की सदृश एकाकी अकेली किस प्रकार रह सकूंगी । चक्रवाक् बिना जैसे चक्रवो निराकुल नहीं रह सकती उसी प्रकार आपके बिना मेरा जीवन नहीं रह सकता । हाय हाय अब मैं क्य करू ? आप कहाँ हैं, अपना पता तो बताओ आप किधर गये ? || ७० ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद [२६५ अहो स्वामिन् क्व तिष्ठामि क्य गच्छामीति साम्प्रतम् । यूथभ्रष्टेव सारङ्गी विरहानल वेष्टिता ॥७१।। हा हा ! स्वामिन् क्व पश्यामि त्वां मे प्राणप्रियं प्रभो। नाथ सान्धकारा क्व भूमिश्चनिशा वा चन्द्रजिता ।।७२।। पद्मानीव गतच्छाया भास्करेण विना भुवि । जाताऽहं त्वां विना नाथ पादपेनविनालता ॥७३॥ हा मया मुनिसन्तापः कृतो वा पूर्व जन्मनि । तेन पापेन हा नाथ विगोगस्तेऽजनिभ्र वम् ॥७४॥ कि वा कस्याश्च कामिन्या वियोगो विहितो मया । मिथ्याभावेन वा दग्धं काननं वह्निना धनम् ॥७५।। इत्येवं सा प्रकुर्वाणा रोदनं शोक पूरितम् । अश्रुपात प्रवाहेण स्नाता वा दुःख सागरे ॥७॥ अन्वयायं-(अहो) हे (स्वामिन्) प्राणाधार (साम्प्रतम्) इस समय (यूथभ्रष्ट) अपने झण्ड से बिछडी (सारङ्गी) मृगी (इव) समान (विरहानल) विरह रूपी अग्नि से (वेष्टिता) घिरी मैं (क्व) कहाँ (तिष्ठामि ) बैठू (क्व) (गच्छामि) कहाँ जाऊँ (इति) इस प्रकार यहाँ (चन्द्रवजिता) चाँदरहित (निशा) रात्रि है (वा) अथवा (च) और (सान्धकारा) तमतोम से आच्छादित (भूमि) पृथ्वी है (नाथ) हे स्वामिन् (मे) मेरे (प्राणप्रियम्) प्राणाधार (प्रभो) स्वामिन् (हा हा) हाय हाय (त्वाम् ) तुमको (क्व) कहाँ (पश्यामि) देखू (नाथ) हे वल्लभ ! (त्वाम्) आपके (बिना) बिना (अहम्) मैं (भुबि) संसार में (भास्करेण) सूर्य विना (पद्मानि) कमलों (इव) सदृश (गतच्छाया) मुरझाई, (पादपेन) वृक्ष के (बिना) रहित (लता) बल्लरी (इव) समान (जाता) हो गई हूँ। (हा) हे भगवन् (मया) मेरे द्वारा पूर्वजन्मनि ) पूर्वभव में (मुनिसन्तापः) मुनि को सन्तापित किया गया क्या' (नाथ) हे नाथ (तेन) उसी (पापेन) पाप से (हा) कष्टपूर्ण (ते) आपका (वियोग) वियोग (ध्र बम्) निश्चय ही (अजनि) उत्पन्न हुआ है क्या (बा) अथवा (किंवा) क्या (कस्या) किसी (कामिन्या:) कामिनी का (मया) मेरे द्वारा (वियोग:) वियोग (विहितः) कराया गया (किं) क्या (वा) अथवा (मिथ्याभावेन) मिथ्यात्व के उदय से (घनम् ) सघन (काननम्) अटवी (वह्निना) अग्नि से (दग्धम्) जलाया गया ? (इति) इस प्रकार (एव) नाना प्रकार से (शोकपूरितम्) महाशोक से भरा (रोदनम्) रुदन (प्रकुर्वाणा) करती हुयी (सा) वह मदनमञ्जूषा (अश्रुपातप्रबारणेन) प्रांसुओं को अविरलधारा प्रवाह से (दुःखसागरे) दुःखरूपी रत्नाकर में (वा) मानों (स्नाता) डूब गई। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद भावार्थ-हृदय द्रावक विलाप करती हयो मदनमञ्जुषा कुररी की भांति छट-पटाने लगी। उसके रोदन से मनुष्य ही नहीं पाषाण भी द्रवित हो जाय इतना उग्र था। उसकी अविरल अश्रुधारा पावसकाल की मेध धारा समान प्रवाहित हो रही थी ।कण्ठ सूख गया । नेत्र अरुण हो टेसू के फूल की भाँति फूल गये । गला रूध गया। वह कहने लगो, हे प्राणवल्लभ आपको कहाँ पाऊँ ? किधर जाऊँ ? कहाँ खोजू ? इस समय आपके बिना कहाँ रहूँ ? किस प्रकार जीवन धारण करूं ? जिस प्रकार मोली मृगी अपने समूह से बिछड कर भयङ्कर अटवी में फंस जाय और चारों ओर उसने मा प्रज्वलित हा उके, उस समय उस बेचारी मगो को क्या दा होगो, वही हाल था इस समय इस एकाकी, परिवार कुटुम्ब विहीन पति वियुक्ता मदनभञ्जूषा की। वह बिरह रूपी ज्वाला से वारों पोर प्रज्वलित सी हो रही थी। उसके ओठ सूख गये । मुख म्लान हो गया । वह गला फाड-फाड कर चिल्लाने लगी, हाय, हाय पर मैं क्या करू! हे प्राणाधार, प्राणप्रिय स्वामिन् आपको कहाँ देख, किस प्रकार प्रापका मुदर्शन होगा ! आओ प्रभो, एक बार तो अपना मुख चन्द्र दिखाओ ! क्या इस सघन तमातोम आच्छादित भयावमी काली रात्रि में मुझे एकाकी छोड़ जाना उचित है ? अाप महा विज्ञ हैं ! चारों ओर अन्धकार व्याप्त भूमि पर मैं किस प्रकार प्रापका अनुसरण कर सकती हूँ। जाना ही था तो मुझसे कह तो जाते ! हे नाथ मेरी दशा तो देखो ! और एक बार आकर मेरी दर्दशा का अवलोकन तो करो ? मैं सूर्य बिना कमलों समान छाया विहीन हो गई हूँ, कान्तिहीन इस शरीर में न जाने प्राण भी क्यों रहना चाहते हैं । हे प्रभो! हे स्वामिन् आज मैं पादप रहित लता समान असहाय, दुखिया, भिखारिणी हो गई हूँ। नारी का आश्रय एकमात्र पति ही होता है । आपके बिना मैं किस प्रकार जीवित रह सकती हूँ। रोते-रोते हताश हुयी वह दुर्भाग्य को उलाहना देती है । अपने पूर्वकृत दुष्कर्मों का चिन्तवन करती है । हे भगवन यह वज्रपात क्यों हुया ? यह असह्य है । क्या मैंने पूर्व जन्म में बीतरागी, निर्दोष, आत्मचिन्तन लीन किन्ही महा मुनिराज का सन्ताप उपजाया वया ? हाँ हाँ अवश्य ऐसा ही घोर पाप किया है। मुनि निन्दा से बढ़कर अन्य कोई महापाप नहीं है । हे आराध्य देव, हे. प्राणनाथ उसी पाप का यह फल है । निश्चय ही गुरू निन्दा के पाप से ही आपका बिधोग जन्य यह भीषण सङ्कट आ पडा है । अथवा किसी प्रेमी युगल का वियोग कराया होगा, कि वा किसी कामिनी को उसके प्रियपति के मिलन में बाधा डाली गई होगी? मिथ्यात्व भाव के तीव्र उदय से मैंने दर्भाब से अटवो को भस्मकरा या कराया होगा ? अर्थात् बन दाह लगाया होगा। यहां आज कल जङ्गल जलाने की लोग एजेंसो लेते हैं. ठेका लेते हैं, थ्यापार करते है। उन्हें यह सिद्धान्त विचारणो है । अर्थात् बनदाह भयङ्कर पाप कार्य है, अहिंसा धर्म पालकों को इसका ठेका लेना व्यापार करना सर्वथा निषिध्य है। इस पाप से परिवार-कुटुम्बादि का वियोग जन्य भयङ्कर दुःख भोगना पड़ता है । वंश- निश हो जाता है । वह सती कहती है क्या यह वन दाह ही मेरे द्वारा किया गया है ! इस प्रकार अनेक प्रकार से ऊहा-पोह करते हुए उसने जल-थल अाकाश का भो दहलाना बाला करुण बिलाप किया। शोक भार से लदो उस विरहनी ने अपने नयन जल प्रभाव से दुसरा ही सागर मानों भर दिया और स्वयं ही उस शोक जलधि में डूब गई। दुःख उदधि में निमग्न उसका विलाप उसी के समान था । सागर के ऋ र प्राणी भी द्रविल हो गये । उसके रुदन से पेड़-पौधे, बनस्पति भी पिघल गयी । यही नहीं स्वयं सागर भी अपनी Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] २६५ तीव्र गर्जना से मानों हितंषी समान उसके स्वर में स्वर मिलाकर चीखने-चिल्लाने लगा। इस प्रकार वह महासती, शीलशिरोमणि वियोगजन्य दुःख से अभिभूत थी, उसी समय क्या हुआ ? ॥७१ से ७६।। उसो समय वह पानो धवल पाता है -- यावत्तावत्स पापिष्ठो धवलो मलिनो हृदि । तां सती स्ववशीकर्तृ दूतीः संप्राहिरणोत् कुधीः ॥७६।। अन्वयार्थ-(यावत्) जबकि बह विलाप कर रही थी (तावत्) तब उसी बीच में (सः) उस (हृदि) हृदय में (मलिन:) कुटिल (पापिष्ठः) पायो (धवलः) धवल सेठ (कुधीः) दुर्बुद्धिने (ताम् ) उस (सतोम् ) सती को (स्ववशोकतु म्) अपने प्राधीन करने के लिए (दूती:) दूती (सम्प्राहिणोत्) भेजी भावार्य--जिस समय मदनमञ्जूषा पति वियोग से विहल होकर अति रुदन कर रही थी, बिलख-बिलख कर तडप रही थी, उसी समय उस पापात्मा धवल सेठ ने उसे वश करने के लिए दूतो भेजीं । ठीक ही है "अर्थी दोषान्न पश्यति" स्वार्थी विषयासक्त को विवेक कहाँ ? दोष-मुरा विचार कहाँ ? दबंदी सेठ ने भी उस अवला के द:ख को और अधिक उदीरित करने का षडयन्त्र किया। उस सती को वश में करने को दासियों का भेजना "जले पर नमक डालना" था। ऋ र हृदय में यह विचार कहाँ ? पापियों का मायाचार अगम्य होता है ।।७७।।। जगुस्तास्तां समभ्येत्य शृणु त्वं सुन्दरी ध्र वम् । श्रीपालस्सागरेमानः पुन याति ते पतिः ॥७॥ श्रेष्ठिनं सद्धनैः पूर्ण दातारं भोगिनं सदा रूपसौभाग्यसम्पन्नं भज त्वं राजपुत्रिके ॥७॥ शरीरसुन्दरं गाढं रूपं ते भुवनोत्तमम् । मा वृथा कुरू भो भने पुष्पं वा निर्जनेवने ॥५०॥ अन्वयार्थ . . (ताः) वे दासियाँ (ताम् ) उस मदनमञ्जूषा को (समभ्येत्य) प्राप्तकर पास जाकर (जगुः) बोलीं, (सुन्दरी) हे मनोरम (त्वम्) तुम (शृण ) सुनो (घ्र वम्) निश्चय ही (श्रीपाल:) श्रीपाल (सागरे) समुद्र में (मग्नः) डूब गया (ते) तुम्हारा (पति:) भर्ता (पुन:) फिर (न आयाति) नहीं पाता है (राजपुत्रि के) हे राजकुमारी (त्व) तुम (सद्धन:) धन से (पूर्णम्) यात-धनी (दातारम्) दानी (सदा) हमेशा (भोगिनम्) भोगी (रूपसौभाग्यसम्पन्नम् ) रूप लावण्य सौभाग्य से सहित (श्रेष्ठिनम् ) धवल सेठ को (भज) सेवन कर (भो) हे (भद्र) भद्रा (४) तुम्हारे (भुवनोत्तमम्) तीनों लोकों में उत्तम (शरीरसुन्दरम् ) सुन्दर शरीर (गाढम् ) अत्यन्त (रूपम् ) सौन्दर्य को (निर्जने) सुनसान (वने) वन में (पुष्पम्) फूल (था) समान (वृथा) व्यर्थ (मा) मत (कुरु) करो। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद भावार्थ---धवनसेठ को भेजी दुतियां सती पर असफल रंग चढाने का प्रयत्न करने लगीं। धूर्त मालिक हो तो दास-दासी क्यों न जालिम होंगे। वे सान्त्वना का ढोंग मचाने लगी, हमदर्दी दर्शाती हैं, दया वर्षाती हैं मानों, बड़े विनय और प्यार से शनैः शन: उसके पास जाती हैं ठीक ही है" मच्छर स्वभाव से प्रथम चरणों में प्राता है, पुन: ललाट पर जा डंक मारता है, कान में गुनगुनाता है।” दुर्जन का यही स्वभाव है । वे दूतियाँ भी उस सती से इसी प्रकार विष भग मधुर आलाप करने लगी । हे सुन्दरि ! आपका पतिदेव निश्चय ही सागर में जा गिरा है । इस अथाह जलराशि में क्या जीवन संभव है ? अवश्य ही वह मरण को प्राप्त हो गया होगा । मृत्यु से बचाने वाला कोई नहीं और भरे को जीवनदान दाता भी संसार में कोई न हुआ न हो सकता है। अतएव हे भद्रे निश्चित ही तुम्हारा पति अब वापिस नहीं आ सकता । उसके मिलन की आशा छोड । व्यर्थ शोक करने से भी क्या प्रयोजन ? तुम्हारा रूप लावण्य अद्वितीय है । यह यौवन काल है। भोगों को अमराई में रहने योग्य तुम्हारा कोमल, कमनोय, आकर्षक रूप है । सरस, मधुर इस यौवन काल को व्यर्थ ही निर्जन वन में विकसित सुवासित सुन्दर पुष्प के समान व्यर्थ मत करो। अर्थात एकान्त जन विहीन अटवी में गि बाला पुष्प किसी के भी उपभोग योग्य नहीं होता, व्यर्थ ही अपनी सौरभ विस्वेर कर नष्ट हो जाता है । इसी प्रकार तुम्हारा नवयौवन रूपी पुष्प भी व्यर्थ न जाये इसके लिए उपाय करो। अच्छा है कि यह प्रवल सेठ रूप-लावण्य में तुम्हारे सदृश है, धन भी असीम है. युवक है, दाता है और भोगी भी है । हर प्रकार तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण करने में समर्थ है । अतः तुम आनन्द से इसके साथ भोग कर अपने यौवन को सार्थक करो । प्राप्त वस्तु को त्याग अप्रान के पीछ दौडना उचित नहीं। भला, बिचारो यह प्रोढावस्था ढल जाने पर क्या वापिस पा सकेगी? अच्छा तो यही है कि तुम अब शोक त्याग कर आनन्द से भोग कर जीवन और यौवन को सफल बनायो । सेठ को प्रसन्न करने में ही तुम्हारी कुशल और शोभा है । इस प्रकार दुतियों के पाप भरे, उभय लोकनिदित दुःख के कारण, नरक-निगोद के खुले द्वार सदृश बचनों को सुन बह महासती देवी तिलमिला उठी ।।७८ ७६ ८० ।। तत्समाकर्ण्य सा तासां पचनेन प्रपीडिता। दग्धादाथानलेनेव संसिक्ता क्षारवारिणा ।।१।। अन्वयार्य--(तत्) उस प्रपञ्च को (समाकर्ण्य) सुनकर (सा) बह सती (तासाम् ) दासियों के (वचनेन) वचनों से (प्रपीडिता) अत्यन्त व्यथित हुयी (इव) मानों (दावानलेन) दावाग्नि से (दग्धा) जली हुयी (क्षारबारिणा) खारे जल से (संसिक्ता) सींची गई। भावार्य--उन कुलटा दूतियों के शीलविहीन, व्यभिचार भरे पाप रूप वचनों को सुनकर शीलवती सती छटपटाने लगी । उसकी पीडा असह्य थी । उस समय की मनोव्यथा का कौन पार पा सकता है । आचार्य कहते हैं भयङ्कर दावानल से जले पर खार पानी सींचने के समान यह पीडा उसे व्यथित करने लगी। परन्तु सम्यक्त्व, शील की शीतल किरणें विवेक और घेर्य को जानत रखती हैं ॥८॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पचम परिच्छेद ] दूतीं प्रति क्रुधा प्राहरे पापिन्याः खलाः किल । शीलवत्यः कथं नार्यास्सेवन्ते पुरुषान्तरम् ॥८२॥ वयार्थ - - ( धा) क्रोधित सभी ( दूतप्रति ) दूनी के प्रति ( प्राह ) बोली (रे) हे (पापन्याः) पापिनी ( खलाः) दुष्टनीयों (किल) निश्चय ही ( शीलवत्यः) शीलवती (नार्याः) नारिया ( पुरुषान्तरम् ) परपुरूष को ( कथम् ) कैसे ( सेवन्ते ) सेवन कर सकती हैं। [२९६ भावार्थ मदनमञ्जूषा क्रोध से लाल ताती हो गई । होती क्यों नहीं शील हो तो नारी का श्रृंगार है, जीवन है। भला उसके घातक बचन किस प्रकार उपेक्षनीय हो सकते हैं ? वह कहने लगी भरे यो पापनियों. दुष्टाओ तुम यह अयोग्य पापरूप बच्चन क्यों कह रही हो ? नारी का एकमात्र पति ही भोगने वाला होता है। क्या भला सती साध्वी महिलाएँ पर पुरुष सेवन कर सकती हैं ? नहीं नहीं कदापि नहीं। यह कार्य सर्वथा अनुचित है। मदनमञ्जूषा का बचन आज के मनचले विधवा विवाह पोषकों को विशेष ध्यान देने योग्य है । शील ही एकमात्र नारों के नारित्व का रक्षक है ||२|| और भी सुनो hea चलति स्थानात्सिन्धुर्मु चति वा स्थितिम् । अग्नि जलतामेति नत्र हानिस्सतीव्रते || ३ || अन्वयार्थ - - (वा) अथवा ( मेरुः ) सुमेरुपर्वत् (स्थानात्) अपने स्थान से ( चलति ) चलायमान हो जाय, (वा) अथवा (सिन्धु) जलधि ( स्थितिम् ) मर्यादा को ( मुञ्चति ) छोड़ दे (बा) अथवा (अग्नि) आग ( जलताम् ) जलरूप ( एति ) हो जाय तो भी ( सतीव्रतेः ) शीलव्रत की ( हानि ) हीनता (तंब ) नहीं हो सकती । भावार्थ-संसार नश्वर है । क्षणभङ्गुर है । श्रर्थात् संसार के समस्त पदार्थ परिणमनशील हैं परन्तु धर्म कभी भी चलायमान नहीं होता । धर्म और आत्मा ये दो ही सतत स्थिर रहने वाले हैं । शील नारी का धर्म है। भला उसमें परिणमम कैसे हो सकता है ? सती मदनमञ्जूषा कह रही है, अहो, दूतकर्म करते करते आप लोग बुद्धि, विवेक और ज्ञान शून्य हो गई | तुम्हें यह अटल समझना चाहिए कि कदाचित अचल सुमेरु पर्वत चल हो जाय, मर्यादित सागर कदाचित् अपनी सीमा का उल्लंघन कर बैठे, श्रग्नि भी धर्म व तन्त्र मन्त्र सिद्धि द्वारा शीतल हो जाय, परन्तु किसी भी काल में किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में शील धर्म चलायमान नहीं हो सकता । क्योंकि पतिव्रताओं को शील के सिवाय अन्य क्या हो सकता है ? एकमात्र शील ही उनका जीवन, पति पुत्र सन्तान, धन सम्पत्ति आदि सब कुछ है । कन्या के एक ही पति होता है ||३|| सर्वेषां मण्डनं शीलं स्त्रीणांचाऽपि विशेषतः । शीलहीना वृथा नारी कुक्कुरीवखरी यथा ॥४॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद । शीलं रक्षरित लोकेऽत्र निर्मलं प्रारणवत्सदा । ये नरायोषिताश्चाऽपि तें पूज्यन्ते सुरादिभिः ।।५।। दूतिका लूतिकायूयं पापिन्यः शृण तादरात् । अयं पितृसमः श्रेष्ठी नष्टधीः किं प्रजल्पति ॥८६॥ शीलच्छेदेन लोकेऽत्र नासिकाच्छेदनं ध्र वम् । मस्तकंच्छेदनं चाऽपि प्राप्नुवन्ति दुराशयाः ।।८७॥ ततो घोरे महाश्वभ्र छेदनं भेदनं धनम् । ताडनं तापनं दुःख सहन्ते पाप कर्मणा ॥८॥ स खलो धवलो मूढो विकलो मदनातुरः । मद्यपानीव निर्लज्जो वक्तीदं पापदं वचः ।।८।। पापिन्यो योषितायूयं नोचालोके स्वभावतः । युष्माकं न कथं लज्जा कुक्कुरोणामिव क्षितौ ॥१०॥ इत्युत्तरमहादस्तास्संहतः प्राघु शताः । महामन्त्रप्रभावैर्वा सधिण्यो दुष्ट चेतसः ॥६१॥ (सर्वेषाम् ) मनुष्यमात्र का (अपि) भी (शोलम्) शोल (मण्डनम् ) ङ्गार है (1) और (स्त्रीणाम नारियों का विशेषतः विशेषरूप से है (शोलहोना) कशीला स्त्री (यथा) जैसे (कुक्कुरी) कुतिया (खरो) गधी (इब समान (वथा) व्यर्थ है, (अत्र यहाँ (लोके) संसार में (ये) जो (नरा:) पुरुष (च) और (योषिताः) नारियाँ (अपि) भी (सदा) निरन्तरसदाकाल (प्राणवल) अपने जीवन समान (निर्मलम् ) पवित्र ( शीलम् ) शीलधर्म को (रक्षन्ति) रक्षा करती हैं (ते) वे नर-नारी (सुरादिभिः) देव, इन्द्र, मनुष्य आदि सभी द्वारा (पूज्यन्ते) पूजे जाते हैं (यूयम्) तुम (पापिन्य:) पापिनी (दुतिका) दुती (लूतिका) मकडो हो (प्रादरात्) यान्ति से (ऋण) सुनो (अयम ) यह (नष्टधी:) नष्टबुद्धि (श्रेष्ठा) सेठ (पितृसमः) पिता के समान (किम् ) क्या (जल्पति) बोलता है (शीलच्छेदेन) शीलभङ्ग करने से (अत्रलोके) इस लोक में (घ्र वम्) निश्चय ही (नासिकाच्छेदनम् ) नाक काटना (मस्तकम्) शिर (छेदनम् ) काटना (भेदनम् ) भेदन (तथा) और भी (दुराशयाः) खोटे अभिप्राय से (मस्तक) शिर (च्छेदनम्) छेदन (प्राप्नुवन्ति) प्राप्त करते हैं (ततो) तदनन्तर (महा) अत्यन्त (घोरे) भयङ्कर (श्वभ्र) नरक में (धनम् ) धन से (ताउनम्) ताड़ना, (तापनम् ) सन्तापादि (पापकर्मणा) इस पापकर्म के (दुःखम् । दुख (सहन्ते) सहन करते हैं (स.) बह (खलः। दुष्ट (मूढः) मूर्ख (विकलः) विवेकहोन (मदनातुरः) काम से पीडित ( निर्लज्जः ) लज्जारहित (धवल:) सेठ (मद्यपानीक) मद्यपायी समान (इदम्) यह (पापदम् ) पाप करने वाले (वचः) वचन Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [ ३०१ ( वक्तिः ) बोलने वाला है ( लोके) संसार में (स्वभावतः ) स्वभाव से ( यूयम्) तुम दृत्तियाँ लोग ( नीचा ) नीच ( पापिन्यः) पापिनी ( योषिताः) स्त्रियाँ ( क्षितौ ) पृथ्वी पर ( कुक्कुरीणाम् ) कुतियों के ( इव) समान ( युष्माकम् ) आप लोगों को ( लज्जा ) शर्म ( कथम् ) कैसे (न) नहीं है (इति) इस प्रकार (उत्तरप्रहारैः ) सती के उत्तर रूपी प्रहारों से (ता: ) वे दूतियाँ ( खलाः ) दुष्टा (वा) मानों (महामन्त्रप्रभावः) पञ्चणमोकार महामन्त्र के प्रभाव से (दुष्टचेतसः ) दुष्टचित्त (सर्पिण्य) सर्पिणि समान ( संहताः) पीडित हुयीं । मदनमञ्जूषा नारी जीवन का उपहार क्या है ? सार्थक्य क्या है ? यह स्पष्ट करती हृमी धवल तेल की कुतियों की भर्त्ता करती है। साथ ही नदी धर्म की प्रटल, अकाट्य स्वभाव को स्थापना भी करती है । धर्म अपरिवर्तनीय होता है, बहु सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक आदि किसी भी धारा से प्रभावित होकर बदल नहीं सकता । शील एक पतिव्रत नारी का धर्म है। यह भी कालिक अकाट्य सत्य है। इसका स्वरूप ध्रुव है वह बदल नहीं सकता। सूर्योदय हर एक काल में पूर्व में ही होता है, अस्त भी पश्चिम में ही होता है। उसी प्रकार कन्या का हो विवाह होता है विवाहित पति ही उसे भोगने योग्य हैं, अन्य पुरुष कदाऽपि सेवनीय नहीं हो सकता । अतः वह दूतियों के प्रस्ताव धवलसेठ को सेवन करो" की महानिन्दा करता है। उन कुलटाओं को शील का माहात्म्य बतलाती हूं कि संसार में सर्वत्र स्त्री हो या पुरुष सब का शृङ्गार शीलव्रत है तो भी नारियों का तो विशेषरूप से शीलधर्म अनुपम ङ्गा कहा है। शीलव्रत विहीन कुलटा नारी कुत्ती एवं गधी समान पराभव और निन्दा की पात्र नीच कहलाती है । जो स्त्री व पुरुष इस लोक में अपने शीलवत का रक्षण करते हैं । वे अपने प्राणों समान निर्मलशील पालते हैं, सदा उसे निर्दोष बनाने का प्रयत्न करते हैं वे नर और नारियाँ देवेन्द्र, सुर असुरादि द्वारा पूज्य होते हैं मनुष्यों की क्या बात ? अरे दुष्टाओ एक तो दूतकर्म ही निद्य है फिर तुम लूतिका मकडी समान यह नीच घृणित कार्य रूप जाल फैलाने के उपाय करते ग्रायी हो यह महान नीचतम और दुःखद कार्य है। तुम सुनो, जरा ध्यान तो दो, यह सेठ मेरे पिता के समान हैं, फिर वह दुर्बुद्धि, विवेकहोन हो क्यों इस प्रकार के पापाय वचन बोलता है। क्या वह नहीं जानता कि "शीलनाश करने वाले व्यभिचारी पुरुष को शीलनाथ का दण्ड नासिका कर्तन, शिरच्छेदन, यादि भोगना पडता है । दुरभिप्रायों इस लोक में हो नहीं, परलोक में भी घोर नरक में जा पडता है वहाँ भी छेदन भेदन, घनों से ताडन-मारन, कूटन बध बन्धनादि दुःखों को भोगता है। पापकर्म के उदय से अग्नि में पकाया जाना, उपाया जाना, भूना जाना प्रादि यातनाओं को भोगता है। लाल-लाल अग्निस्वरूप लोह की पुतलियों से चिपकाया जाता है । वह धवला महा मूढ हैं पापी और नीच, कामवाण से घायल, विवेकशून्य हुआ शराची के समान उन्मत्त हुआ, वेशर्म हो गया है और इस प्रकार के पाप भरे बचन बोलता है। उस पापी की दूती तुम उस से भी अधिक दुर्जन और पापिष्ठा हो, जो स्वभाव से नीचकर्म करती हुयी इस प्रकार निर्लज्ज हो कुत्तियों समान भूमि पर इधर से उधर पूँछ हिलाती, डण्डे खाती टुकडों के लिए घूमती फिरती हो। तुम महा नीच, अधम और पापिनी हो । यहाँ ठहरने योग्य नहीं जाओ यहां से निकल जाओ। इस प्रकार महासती वचन प्रत्युत्तररूप वचनों से ताडित हुयी वे विलखती, विसूरती चुप हो गई । भय से काँप Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद उठी, स्थिर होकर मौन हो गई मानों सपिणियों के विष भरे फुकारों को महामन्त्रणमोकार के प्रभाव से स्थम्भित कर दिया गया हो। उनको दुध चेष्टाओ का स्थम्भित कर दिया हो। प्रस्तु, धर्म से परास्त हुया अधर्म भाग खड़ा हुआ ।।८४ से ६१॥ "कहावत है विपति अकेली नहीं आती" पूरे दलबल से एक पर एक सवारो लेकर आती हैं। बेचारी मञ्जूषा पर इधर पतिवियोग का पहाड गिरा और उधर वें दूतियां क्षतविक्षत हृदय पर खारा जल सींचने याई । ज्यों-त्यों धर्य बटोर विवेक को सावधान कर उन्हें मुंह को खाकर भगाया। परन्तु क्या इतने मात्र से अशुभोदय संतुष्ट होता ? फिर क्या हुआ देखिये कर्मों का बदरङ्ग - ततः श्रेष्ठी स्वयं प्राप्तः पापी तां बोधित खलः । देहि मे सुरतं भद्रे नो चेत्प्राणान् त्यजाम्यहम् ॥ २॥ अन्वयार्थ-(ततः) दूतियों के पराजित होने पर (पापी) पापात्मा (खलः) दुष्ट (श्रेष्ठी) धवलसेठ (ताम्) उस सती को (बोधितुम) समझाने को (स्वयम् ) आप (प्राप्तः) आमा (भद्रे !) हे सुलक्षणे (मे) मुझे (सुरतम्) रतिभोग (देहि ) प्रदान करो (मो चेत्) यदि नहीं दोगी तो (अहम्) मैं (प्राणान) प्राणों को (त्यजामि) छोडता हूँ। मावार्थ -"कामाथिनो कुतो लल्जा" कामातुर मनुष्य धर्म, कुल, समाज आदि सबकी शर्म लाज को खो देता है । मोहान्ध धवल नामधारी कृष्णकाक दूतियों द्वारा मदनमञ्जषा के वश में न आने पर स्वयं हो धर्तशिरोमणि वहाँ पहुँचा । प्राचार्य कहते हैं "अन्धादपि महान्धः विषयान्धी कृतेक्षणः" विषय-वासना से अन्धा मनुष्य जन्मान्ध से भी बढ़कर अन्धा है क्योंकि "चक्षषा अन्धो न जानाति विषयोन्धो न केनचित' आँखों से अन्धा तो मात्र देख ही नहीं सकता किन्तु विषयों के जाले से अन्धा देखता हुआ भो अच्छे-बुरे को नहीं देख सकता। यही हाल था इस कामातर मूर्खराज धवल का। पुत्री समान, पुत्र-बधु जिसे कहा था उस ही के समक्ष निर्लज्ज हो सुरतदान को याचना करता है। क्या यह पशुत्व नहीं ? महानीचता है । वह कहता है हे भद्र ! मुझे पतिरूप में स्वीकार कर मेरी कामवासना की तृप्ति करो। यदि तुम मेरे साथ रति करने को तैयार नहीं हुयी तो निश्चय समझो मैं भी तेरे समक्ष प्राण त्याग कर दूंगा ।।१२।। मदनमञ्जूपा का सम्यग्ज्ञान पूर्ण जाग्रत है । वह दु:खी है पर संकट में किं कर्तव्य विमूढ नहीं है, यही तो सम्यग्दृष्टि का साहस है। वह निर्भय, वीरता पूर्वक योग्य उत्तर देती है Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०३ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] सा जगौ रे दुराचारी पापी त्वं धर्मवर्जितः। मा बादीः पापदं वाक्यं क्षयंयासि क्षणार्द्धतः ।।६।। अन्वयार्थ—(सा) वह (जगौ) बोली (रे) अरे (पापी) पापिष्ठ (दुराचारी व्यभिचारी (धर्मवजितः) धर्मबिहीन (त्वम्) तुम (पापदम्) पापोत्पादक (वाक्यम् ) वाक्यबचन (मा वादी:) मत कहो अन्यथा (क्षणार्द्धतः) प्राधे हो क्षण में (क्षयम् ) नाश को (यासि) प्राप्त हो जाओगे। भावार्थ-मदनमञ्जूषा उस धूर्त सेठ की प्रार्थना सुनकर तिलमिला उठती है । उसकी नीच याचना को ठुकराती हुघी कहती है अरे नीच, पापी, दुरात्मा तु इस प्रकार के पापकारी वचन मत कह । अन्यथा निमिषमात्र में तेरा नाश हो जायेगा । जिस प्रकार दीपक की लो पर पड़ते ही पतङ्गा भस्म हो जाता है उसी प्रकार अधर्मी तुम भी मृत्यु का वरण करोगे ।।१३।। और भी वह उसे कहती है - सत्यं त्वं नरकेघोरे गन्तुकामस्तु जल्पसि । याहि याहि कुधीवक्त्रं लात्वा कृस्यमतः कुतः ॥१४॥ नाहं शोलं जगत्सारं स्वर्गमौक्षक साधनम् । स्वप्ने चाऽपि त्यजामीह किं पुनर्बहुजल्पनैः ॥६५॥ स्व भर्तृ दर्शनं कृत्वा गृहीत्वा वा जिनोदितम् तपश्शर्मकरं नूनं कार्य पानाशनं मया ॥६६॥ इत्यादि नियमं कृत्वा स्मरन्ति परमेष्ठिनः । यावदास्ते सती तत्र तावच्छोलस्य पुण्यतः ॥१७॥ निजासन प्रकम्पेन जिनशासन देवताः । च्यन्तराश्च समागत्य महाकोपेन दारूणाः ॥९॥ महावातशतैस्तीवंर्यानपात्राणि सागरे । कल्लोलेश्चालयामासुश्शीघ्र वा प्रलयोद्धवैः ॥६६॥ धूमन्ते चक्रिरे गाढं पापं वा तस्य पापिनः । पद्मावती चपेटाद्यः तन्मुखेऽमारयभृशम् ॥१०॥ क्षेत्रपालोऽपि लातेन जघान श्रेष्ठिनं खलम् । प्रथोमुख बबन्धोच्चैः पृष्ठपाणि सुरः परः ॥१०१॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [थोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद पोतान् प्रज्यालयामास देवी ज्वालादिमालिनी। साधूनां सर्वदा सत्यं पीडा प्राणापहारिणी ॥१०२॥ तथा तस्य मुखे क्षिप्त्वा-शुचि कोपेन ते जगुः । पुनः पापिन् करोषीत्थं पापकर्म वव त्वकम् ।।१०३॥ एवं तैः पीडितो गाढ़ स पापो भयकम्पितः । पतित्वा पादयोस्तस्यास्त्वं मे पूज्या सती ध्रुवम् ।।१०४।। सर्व क्षमस्व मे देनि मनपरा पापिला वनम् । शीघ्र तां साधु संस्तुत्य सुप्रसन्नाञ्चकार सः ॥१०५।। सत्यं सतां मतिः पूर्व दुधिया पीडिते सति । यथा चान्धो न जानाति ललाटे ताडनं बिना ॥१०६॥ अन्वयार्थ (सत्यम्) निश्चय ही तुम (त्वम् ) तुम (घोरे) भयङ्कर (नरके) नरक में (गन्तुम ) जानेका (कामः) इच्छक हो (तु) इसी कारण ऐसा (जरूपसि) प्रलाप करते हो (याहि याहि) जाग्रो-जाग्रो (कुधी:) हे दुबुद्धि (अकृत्यम्) कुकर्म है (अतः) इसलिए (वक्त्रम्) मुख (लात्वा) लेकर (कुतः) कहीं हो (याहि) जाग्रा हटो (जगत्सारम्) विश्व का सारभूत (स्वर्गमोदकसाधनम्) स्वर्ग और मोक्ष का एक मात्र साधन (शोलम् ) शीलव्रत को (अहं) मैं (स्वप्नेऽपि) स्वप्न में भो (न) नहीं (त्यजामि) छोड़ने वाली हैं (पुनः) फिर (बहुजल्पनैः) अधिक बोलने से (किम्) क्या ? (मया) मेरे द्वारा (नूनम् ) निश्चय ही (स्वभतु दर्शनम् ) अपने पति का दर्शन (कृत्वा) करके (वा) अथवा (प्रामकरम् ) सुखदायो (जिनोदितम् ) जिन भगवान कथित (तपः) तप (गृहीत्वा) ग्रहण कर हो (पानाशनम् ) भोजन पान (कार्यम् ) किया जायेगा। (इत्यादिकम् ) इत्यादि (नियमम्) प्रतिज्ञा (कृत्वा। करके (परमेष्ठिन:) पञ्चपरमेष्ठा का (स्मरन्ती) ध्यान करती हुयी (याबद्) जैसे ही तत्र वहाँ (सती) वह प्रोलवता (प्रास्ते) स्थिर होती है कि (तावत्) उसी समय (शीलस्य) पातिव्रत धर्म के (पुण्यतः) पुण्यप्रभाव से, (निजासन) अपने आसन वे (प्रकम्पेन) कम्पायमान होने से (जिनशासनदेवताः) जिनशासन रक्षक देवगण (च) और (व्यनारा:) व्यन्तर देव (महाकोपेन) भोपण क्रोध से (समागत्य) आकर (दारुणा:) भयंकर (तीव्र:) तेज (या) मानों (प्रल बोद्भवैः) प्रलयकाल में उत्पन्न (महावानशतैः) संकड़ों महा वायूओं से (सागरे) समुद्र में (कल्लोलः) लहरों द्वारा (शीघ्रम् ) शीघ्र ही (यानपात्रारिण) जहाजों को (चालवामामः) कम्पायमान कर दिया (बा) उस समय मानों (तस्थ) उस {पापिनः) पापी धवल का (गाइम्) अत्यन्त कुकर्मरूप (पापम् ) पाप (घूमन्ते) धुआधार अन्धकारमय चिक्रिरे) हो गया ! (च) और (पद्मावती) पद्मावती देवी ने (पेटाद्य :) चांटे, घसा लातों से (तम्ख ) उसके मुखपर (भृशम् ) बार-बार (अमारयत्) मारा (खलम्) दुर्जन (धष्टिनम्) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] सेठ को (क्षेत्रपाल:) क्षेत्रपाल ने (अपि) भी (लातेन) लातों से (जघान) मारा (परः) दूसरे (सुर:) देव ने (पृष्ठमाखिम्) पीछे हाथ (मुखम्) मुख (अघः) नीचे (उच्चैः) जोर से (बबन्धः) उसे वांच दिया, (ज्वालादिमालिनी) ज्वालामालिनी (देवी) देवी (पोतान्) जहाजों को (प्रज्वालयामास) जला दिया (सत्यम्) ठीक ही है (साधूनाम् ) साधुओं की (पीडा) कष्ट-विपदा (पारणापहारिणी) प्राणों की नाशक है (लथा) उस प्रकार मार-पीट बांध कर (ते) वे देवी देवता (कोपेन) कोध से (तस्य) उसके (मुखे) मुख पर (अशुचिम्) मलमूत्रादि (निप्त्वा) क्षेपण कर (जगुः) बोले (पापिन्) हे पापी (त्वकम् ) तुम (बद) वोलो (पुनः) फिर (इस्थम । इस प्रकार का (पापकर्म) पाप कार्य (करोषि) करोगे ? (एवम् । इस प्रकार (तै:) उनके द्वारा (गाढम्) अत्यन्त (पीडितः) पीडित हुआ (स:) वह (पापी) पापात्मा (भवकम्पितः) भय से कापता (तस्याः) पतिव्रता उस सती के (पादयोः) चरणों में (पतित्वा) गिरकर (सती) हे सती (ध्र वभ) निश्चय ही (त्वम्) प्राप (मे) मेरी (पूज्या) पूजनीय हो (देवि:) हे देवते ! (मया) मुझ (पापिना) पापी से (कृतम ) किया गया (सर्वम्) सब कुछ कुकर्म (मे) मेरा (क्षमस्व ) क्षामा करो (एक) इस प्रकार स: बहस (ताम् । उस शीलवती को (साधुः) सम्यक् प्रकार (संस्तुत्य) स्तुति करके (शीघ्रम्) शीघ्र ही (सुप्रसन्ना) भलोभांति प्रसन्न (चकार) किया ।।१४ से १०५ ।। (च) और भी प्राचार्य कहते हैं-(पूर्व) पहले (पीडिते) दु:खी (सति) होने पर (दुधिया) खोटी बुद्धि (सतां मतिः) सद्बुद्धि (जायते) होती है वह (सत्यम्) यथार्थ है (यथा) जिस प्रकार (अन्धः) अन्धा पुरुष (ललाटे) ललाट पर (ताडनम) मारे (बिना) बिना (न) नहीं (जानाति) जानता है। भावार्थ-अत्यन्त कुपित सिंहनी सदृश निर्भय सती उस अत्याचारी की भत्स्ना करते हुए धर्मनीति, आगमोक्त बाणी का स्मरण दिलाती है कि "हे दुर्बुद्धि तुम निश्चय ही घोर नरक में जाने की इच्छा से इस प्रकार बकवाद कर रहे हो । परनारी लम्पटी नरक का पात्र होता है । कोचक, रावण आदि जो जो परनारी सेवन की अभिलाषा किए बे सब नरकगामी हुए यह आर्ष वचन है । तुम्हें भी यहीं जाना हागा। हे दुधिया अपना काला मुह लेकर यहाँ से चलते बनो । जाओ, निकलो कहीं भी अपने कलको मुख को छपा लो। इस अकृत्य-पापकर्म को छोड । त क्या ? कितने हो तेरे जेसे कीट आ जाये । मेरा सुमेरु मन चलायमान नहीं हो सकता। प्रलयकालीन वायु भी सुमेरु पर्वत को चलायमान कर सकती हैं ? नहीं । कदाऽपि नहीं । अपितु वही टकराकर चली जाती है । अरे पापी ! चया Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ 1 [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद तु नहीं जानता यह शोलरत्न अनर्थ है, अमूल्य है, आत्मस्वभाव है, स्वर्ग का देने वाला है, ब्रह्मचर्यनल समान जगत में अन्य कुछ भी सार नहीं है। इस लोक में यश, वैभव सम्मान दानक्षता है पर लोक में सद्गति देने वाला है तथा परम्परा से मुक्ति रमा का सङ्गम कराने वाला है । इस अमूल्य शोल धर्म को मैं कदापि, स्वप्न में भी नहीं त्याग सकती हैं। जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक मेरे शील पर तनिक भी आंच नहीं आ सकती । अधिक कहने से क्या ? मैं किसी भी मूल्य पर अपने शील का त्याग नहीं कर सकती। इस प्रकार इत उत्तर दे कर उस महासती ने सुदृढ प्रतिज्ञा भी घोषित को। मैं या तो अपने पतिदेव का दर्शन कर अथवा जिनेन्द्रोक्त प्रायिकावत धारणकर ही अन्न-जल ग्रहण करूंगी, अन्य प्रकार नहीं । निश्चय ही जिनदोक्षा दुःख मंहारिणी और सुखकारिणी है । स्त्रीलिङ्गाछेदन की एकमात्र यही कुठार है। प्रस्तु. मैं पाप ताप नाशक दीक्षा ले पाणिपात्र में भोजन करूगी। पुण्य योग से पतिदेव का मिलन हुआ तो ठोक है अन्यथा जिनागम ही शरण है । इस प्रकार दृढ नियम कर शुद्ध मन से एकाग्रचित्त हो पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान करने लगी। महामन्त्र णमोकार की अचिन्त्यशक्ति है, धर्मात्मा शोलवतो नारियों का सतीत्व भी उतना ही शक्तिशाली है. दोनों के योग की ताकत का कहना ही क्या है ? ज्योंही वह ध्यानस्थ हुयी कि ध्यान की लयता का तार भूमिप्रदेश से स्वर्गलोक में जा टकराया । तरक्षा शासन देव-देवियों के प्रासन कम्पित हो गये । आसनों के डगमगाते ही उन्होंने अपने अवधिज्ञान लोचन का उपयोग किया और तत्काल ज्ञात कर लिया कि महासती पर घोर संकट आया है। धर्म मर्यादा रक्षणार्थ उसका निवारण करना हमारा कर्तव्य है। क्योंकि "न धर्मों धामकविना" धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं रह सकता । अतएब हमें अपराधियों को दण्ड देकर धर्मात्मानों का रक्षण करना ही होगा। वस क्या था स्वर्गीय सुख-वैभव को तिलाजलि देकर उसी समय भूलोक में आ घमके । जिन शासन देवीदेव और व्यन्तरों का जमघट लग गया । आते ही सर्वप्रथम महादेवी JASTHANI पद्मावती ने उस मूर्ख विषयान्ध धवल की चांदों-थप्पड़ों और लातों से पूजा को । महाकोष से भयङ्कर प्रलयकारी झझा बायु चलायी। चारों पार अन्धकार व्याप्त हो गया। पोर तभ-तोम छा गया । सुचीभेद्य अन्धकार में roy Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [ ३०७ I चारों ओर हाय-हाय मच गयी । जहाज डगमगाने लगे। चारों ओर ऊपर-नीचे जहाज डगमगाने लगे । सर्वत्र हा हा कार मच गया। मरे चले, बचाओं का स्वर गूंज उठा। कौन किसकी सुने ? न कोई कहने वाला न सुनने वाला । ऐसा प्रतीत होता था मानों उस धवल पापी का घोर पाप अन्धकार बन कर छा गया है उसी पर नहीं उसके साथियों के शिर पर भी मानों कालच घूमने लगा | इधर यह आकस्मिक दुर्घटना और उधर महादेवी पद्मावती के घूसे लात | सेठ की दुर्दशा वा दयनीय अवस्था थी । कहाँ जाय ? कोई शरण नहीं ? कोई सहाई नहीं । क्षेत्रपाल महाराज भी अपना गदा लेकर आगये और लगे उस दुष्ट प्रन्यायी सेठ की भद्रा उतारने। लातों से धमाधम कुचल डाला बेचारे दुर्बुद्धि को । वि.सी देव ने उसके दोनों हा नीट की जिसमे किनारों को रोक भी न सके। किसी ने शिर नीचे कर उलटे पाँव लटका कर ताडना दी। महादेवी ज्वालामालिनी क्यों चुप रहतीं। उन्होंने तो और भी गजब ढाह दिया। चारों ओर जहाज में आग उत्पन्न करदी कौन कहाँ जाय ? "इधर कुआ उधर खाँई " जहाज जलने लगे कूदें तो सागर की उत्ताल तरङ्ग | आचार्य कहते हैं कि साधु-सज्जन-सत्पुरुषों पर आई आपत्ति सबको प्राणापहारिणी होती है। क्योंकि धर्मात्मा का धर्मका सङ्कट है । धर्म और धर्मात्मा एक सिक्के के दो पहलू हैं । इस प्रकार धर्म संरक्षक उन शासन देवी-देवताओं ने तथा व्यन्तरादि देवताओं ने जिनसे सहायता की मदनमञ्जूषा ने प्रार्थना को थी उन सभी ने उसे ( सेठ को ) यथोचित दण्ड दिया । अन्त में उससे कहा कि यदि तुझे जीवित रहना है तो इस महासती के चरणों में पड़ । इसे प्रसन्न कर | यदि यह क्षमाप्रदान करती है तो तू बच सकता है अन्यथा नहीं। इस प्रकार कहते हुए उसके मुख पर मल-मूत्रादि अपवित्र पदार्थ क्षेपण किये और क्रोधित हो बोले क्या पुनः इस प्रकार का कुकर्म करोगे ? फिर सतियों के शीलधर्म पर कुदृष्टि डालोगे ? रे रे पापी, नीच प्रथम तू क्या पाप का फल नहीं जानता ? क्या तुझे मतिभ्रम हो गया है ? नरकगामी ! अभी भी कुछ नहीं faगडा है । महासती से प्राणभिक्षा मांग ले । यही एकमात्र जीवन का उपाय है अन्यथा श्रतिशीघ्र तेरा मरण अवश्यम्भावी है। इस महादेवी का प्रसाद - प्रसन्नता ही तुम जीवनदान दिलाने में समर्थ है । इस प्रकार नानाविध कदर्थ हुआ वह पापात्मा भय से कांपने लगा । शिर से पैर तक थर-थरा उठा। हाथ जोड़ शिर नवा कर उस शीलशिरोमणि के चरणों में गिरकर प्रार्थना करने लगा "हे देवि तुम मेरी पूज्या माँ हो, निश्चय ही आपका सतीत्व अटल है । मुझ पापी ने श्रापको अनेक प्रकार दुर्गम कष्ट दिये हैं उन सबको क्षमा कीजिये | आप क्षमा मूर्ति हैं क्षमा स्वरूप हैं हे देवि ! मैं अज्ञानी, पापी, लोभो दुव्यर्सनी दीन-हीन आप द्वारा क्षम्य योग्य हूँ । मुझ पर दया करो, कृपा करो, जीवनदान दो, हे मातेश्वरी बचाओं, मैं अधम, नीच पापी बालक हूँ । मेरे सभी अपराधों को क्षमा कर मुझे जीवन भिक्षा प्रदान करो। इस प्रकार नानाविध उस सती साध्वी की स्तुति कर उसे प्रसन्न कर लिया । सत्य ही है, नीतिकारों का कथन है कि बुद्धिविहीन को कुमति पीडित होने पर ही सुमतिरूप से परिणत होती है जैसे को अन्धे पुरुष को उसके ललाट पर मारने पर ही बोध होता है। बिना मस्तक पर ताडना किये उसे अन्त निकट पडी वस्तु का भी भान नहीं होता। यही हाल हुआ इस विषयान्ध का ! विषय लोलुपो चर्म चक्षु रहते हुए भी महाअन्ध हो जाता है । अतः देवी-देवताओं से सम्यक् प्रकार कुट पिट कर इस घवला को सही बुद्धि आई ।।६४ से १०६ ।। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र पञ्चा परिच्छेद तवा ता देवदेव्यश्च जिनशासन वत्सलाः । सती मवनमञ्जूषां शीलसद्रत्नभूषिताम् ॥१०॥ दिव्याभरणवस्त्रायः पूजयन्तिस्म सादरम् । नत्वा स्तुत्वा स्वभावेन स्व स्व स्थानं ययुस्सुखम् ॥१०८॥ अन्वयार्थ-(तदा) धवलसेठ को सद्बुद्धि आने पर (ता) वे जिनशासनवत्सलाः) जिन शासन के भक्त (देव) देव (च) और (देव्यः) देवियां (शीलसद्रत्नभूषिताम् ) शील रूपी उत्तम रत्न से सुसनिक सतीम् माती (बदामजवाय) बनाएनषा की (सादरम् ) आदर पूर्वक (दिव्याभरणवस्त्राद्य :) देवोपनीत सुन्दर आभूषण, वस्त्र, माला रत्न, मणि, मुक्ता आदि से (पूजयन्ति स्म) पूजा को पुनः (नत्वा) नमस्कार कर, (स्तुत्वा) स्तुति करके (स्वभावेन) स्वभाव से (सुखम् ) सुख पूर्वक (स्व स्व) अपने-अपने (स्थानम )स्थान को (ययुः) चले गये । भावायं—परनारी रति महा भयङ्कर दुःख की खान है, यह धवलराज को प्रत्यक्ष हो गया । मार-पोट से प्राकुल-व्याकुल हो छटपटा गया । अन्तत: महासतो के चरणों की शरण में जाना पडा । क्षमा याचना की । अपने अपराधों के लिए पश्चात्ताप किया। सती मदनमजूषा का उपसर्ग निवारण कर, तथा उसे पतिमिलन का आश्वासन दे, एवं धवल को उसकी सेवा में नियुक्त कर वे देव-देवियाँ प्रसन्न हुए। ठोक ही है अयोग्य कार्य को सिद्धि होने पर भी प्राणियों को सन्तोष होता है तो फिर सुयोग्य धर्म कार्य को सिद्धि होने मे आनन्द एवं संतोष क्यों नहीं होगा ? अवश्य ही होगा । अपने कर्तव्य को पूर्णता कर ने जिन शासन रक्षक देव-देवियां अपने-अपने स्थान पर जाने को उद्यत हुयीं। उसी समय उन्होंने महासती मदनमब्जषा को अभ्यर्थना की । शोलरूपो उतम रत्न धारिणी उसको दिव्य बस्त्र लङ्कारों से सुसज्जित किया । अत्यन्त विनय और पादर से रत्न, मणि, चीनपट, माला मुक्ता, हार प्रादि से पूजा की, उच्चस्थान-आसन पर पधराया । अनेक शुभवाक्यों से स्तुति की अर्थात् प्रशंसा को । बार-बार नमस्कार किया । हर्षातिरेक से गद्गद् हो उसका यशोगान करती आनन्द से यथायोग्य अपने-अपने स्थान पर चली गई । अब मदनमञ्जूषा उन जिनशासन वत्सल देव-देवियों से रक्षित, सेवित और पूजित हो निराकुल हुयी ।।१०७, १०८।। सापि श्रीमज्जिनाधीशपादपद्वयेरता । स्मरन्ती मानसे तस्थौ पोते श्रीपरमेष्टिनः ।।१०६।। अन्ययार्थ—(सा) वह मदनमषा (अपि) भी (श्रीमज्जिनाधीशपादपद्मद्वयेरता) श्री जिनेन्द्र भगवान के दोनों चरणकमलों में लोन (श्री परमेष्ठिन:) पञ्च परमेष्ठी का (मानसे) मन में (स्मरन्ती) स्मरण करतो हुयो (पोते) जहाज में (तस्थी) स्थित हुओ। भावार्थ -- अब मदनमञ्जूषा पति मिलन को प्राशा में श्रीजिनेन्द्र प्रभु के चरणाब्जय की भ्रमरी हो गई । निरन्तर श्रीपञ्चपरमेष्ठी का स्मरण करती हुई यान-पात्र में रहने लगो । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [ ३०६ संसार में सभी नारियों का पति ही एकमात्र देव होता है उसके अतिरिक्त धर्म- पञ्चपरमेष्ठी ही शरण हैं अन्य नहीं । धर्म तो सर्वदा ही रक्षक है किन्तु पतिवियुक्ता नारी को विशेष रूप से अर्हत-सिद्ध साधु ही शरण हैं । अतः वह एकाग्रता से सतत मन में महामन्त्र का ध्यान करने लगी | जिनेन्द्र भगवान की पूजा भक्ति, स्तुति, नुति ही उसका नित्य नैमित्तिक कार्य था । तत्रचिन्तन और धर्म कथा करते हुए समय बीतने लगा ।। १०६ ।। अथ श्रेष्ठी दिनैः कश्चित्समं पोतैविधेवशात् । उल्लंध्य सागरं प्रायत् पत्तनं बलवर्त्तनम् ।। ११०॥ अन्वयार्थ -- ( अथ) मदनमञ्जूषा का सेवक होने पर ( श्रेष्ठी) घवलसेट ( विधेः) भाग्य के ( वशात् ) वश से (पोले समम ) जहाजों के साथ ( कैश्चित् ) कुछ ( दिनैः) दिनों के बाद ( सागरम् ) समुद्र को ( उलङ्घ्य ) लांघकर ( दलवर्त्तनम ) दलवर्तन नामक ( पत्तनम् ) द्वीप को (प्राय) प्राप्त किया । भावार्थ — धवल सेट अधर्म से परास्त हुआ । धर्म की शरण आया और अपने जहाजों को लेकर सुख से आगे चल पडा। कुछ ही दिनों में सागर को पार कर लिया। भाग्यवश दलपत्तन रत्नद्वीप में आ पहुँचा। यहीं सागर पार कर श्रीपाल भी आया था । पाठकों को स्म रण होगा कि यहां के राजा की कन्या गुणमाला का विवाह भी श्रीपाल के साथ हो गया और वह राजा ने कोषाध्यक्ष के पद पर नियुक्त कर दिया था। अब ये महाशय-धवल जी भी आ पहुचे | देखिये अब क्या होता है । क्योंकि दोनों का मिलन तो होना ही है ।। ११०३ ॥ रत्नादिकं समादाय प्राभृतं स्वजनैर्वृतिः । गत्वा राजालयं श्रेष्ठी वृत्त्याग्रं तं ननाम च ॥ १११ ॥ अन्वयार्थ धवलसेठ (स्वजनंवृतः ) अपने साथियों से सहित ( श्रेष्ठी ) धवलसेठ ( रत्नादिकम) हीरा, पन्नादि को ( प्राभृतम् ) भेंट में ( समादाय ) लेकर ( राजालयम् ) राज दरवार में (गत्वा) जाकर (च) और ( अ ) आगे राजा के सामने (धृत्वा ) घरकर (तम ) उसे (नाम) नमस्कार किया । भावार्थ -- घवलसेठ तो निश्चित सा था कि श्रीपाल परलोक चला गया होगा । अतः वह निर्भय हो राजा से भेंट करने चला । "रिक्त हस्तं न पश्येत राजानं देवता गुरु" उक्ति के अनुसार उसने प्रत्यन्त सुन्दर बहुमूल्य रत्नादि सुवर्ण थाल में भरे और राजदरबार में जाकर राजा के सम्मुख जगमगाता थाल रख दिया। उस अपूर्व प्राभुत को प्रदान कर उसने राजा को बारम्बार नमन किया । ठीक ही अपने कार्य की सिद्धि को कौन पुरुष नहीं चाहेगा ? उसे व्यापार करने की अनुज्ञा लेनी थी राजा से फिर भला क्यों न भेंट करता ? करता ही ।। १११ ॥ भूपतिः प्राभृतं वीक्ष्य कृत्वा संभाषणं पुनः । तस्मै श्रीपालहस्तेन स ताम्बूलमदापयत् ।। ११२ ।। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद अन्वयार्ग--(भूपतिः) राजा (प्राभृतम् ) भेंट को (वोक्ष्य ) देखकर (च) और (सम्भाषणम ) कुशल समाचारादि विषय में बात-चीत (कृरवा) करके (पुनः) फिर उचित स्थानादि देकर (सः) उस राजा ने (तस्मै) उस सेठ के लिए (थोपालहस्तेन) श्रीपाल के हाथ से (ताम्बूलम् ) पान-सुपारी ( अदापयत) दिलवायी ।।११२।। मावा सेठ द्वारा प्रदत्त भेट से राजा प्रसन्न हुआ। उससे यथायोग्य कुशलसमाचार पूछा । पाने का उद्देश्य एवं उसका मार्ग सम्बन्धी समाचार भात किया। उचित आसन दिया। आस्वस्थ बैठ जाने पर उसे सम्मानित करने को राजा ने अपने जंवाई, कोषाध्यक्ष श्रीपाल को उसे पान-सुपारी आदि देने का आदेश दिया। श्रीपाल ने भी यथायोग्य विधि से उसे ताम्बूल दिया ।।११२।। तदा श्रेष्ठी समालोक्य श्रीपाल महिमास्पदम् । स्वाननं स मषीवर्णं चके कोऽयं विचिन्त्ययत् ।।११३।। त्वया --- (तदा) उस समय (श्रेष्ठी) सेठ (महिमास्पदम् ) महिमाशाली (श्रीपालम ) श्रीपाल को (समालोक्य) भले प्रकार देखकर (अयम् ) यह (क:) कौन है ? (विचिन्तयत्) मन में विचारते हुए (स) उसने (स्वाननम् ) अपने मुख को (मषीवर्णम ) काला (चक्र ) बना लिया । भावार्थ-ताम्बूल देने वाले श्रीपाल पर दृष्टि पडते ही सेठ जी का हाल बेहाल हो गया । वह आँख गड़ाकर देखने लगा। यह कौन है ? यह विचार करते ही उसके चेहरे का रङ्ग उड गया। मुख काला पड़ गया। मानों काली स्याही पुत गई हो । प्राश्चर्य और भय से कम्पित हो गया। क्षणमात्र में न जाने कितने विकल्प पाये और चले गये । वह भ्रम में पड़ गया यह सत्य है या स्वप्न ? मैं क्या देख रहा हूँ ? यह कौन हो सकता है ? यदि वही श्रीपाल है तो पाया कैसे ? बच गया फिस प्रकार ? अब होगा क्या यदि वही है तो ? इत्यादि न जाने कितने तर्क-वितर्क हुए उसके मानस में । फिर भी वह किसी प्रकार भी धैर्य न पा सका ||११३।। प्राचार्य कहते हैं - - सम्जनं वीक्ष्य दुष्टात्मा दुर्जनो दुर्मदो भवेत् । भास्करस्योदये युक्तं घूकः स्यादन्धकः कुधीः ।।११४॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद [ ३११ अन्ययार्थ--नीतिकार कहते हैं - (दुष्टात्मा ) दुष्ट (दुर्जनः ) दुर्जन मनुष्य ( सज्ज - नम ) सत्पुरुष को ( वीक्ष्य ) देखकर (दुर्मदः) मदोन्मत्त ( भवेत ) हो जाता है ( युक्तम) ठीक है (कुधीः) दुर्बुद्धि (धूकः ) उल्लू ( भास्करस्थ ) रवि के ( उदये ) उदय होने पर ( श्रन्धकः ) अन्धा (स्यात्) हो जाता है । मायार्थ यहाँ श्राचार्य श्री दृष्ट, परिचित उदाहरण देकर नीति का प्रतिपादन कर रहे हैं। संसार में दुर्जन स्वभाव से ही पर का उत्कर्ष नहीं देख सकते, अपितु स्वयं दुःखी हो उसके आनन्द को मिटाने की चेष्टा करते हैं। कौशिकशिशु उल्लू प्रभात होते ही अन्धा हो जाता है, सर्वोपकारी सूर्य के उज्ज्वल प्रकाश को देख नहीं सकता । वह करे भी क्या ? उसका स्वभाव ही देश है। उसकी कीफिरों को निरखने की योग्यता ही नहीं है । यही दशा थी श्रीपाल रूपी सूर्य को देखकर धवलसेठ रूपी उल्लू की । उसकी खि तिल-मिला गई। चारों ओर अन्धेरा छा गया । होश हवाश सब हवा हो गये । पर करे क्या ? जाय कहाँ ? कहे क्या ? किससे कहे ? कि कर्त्तव्यविमूढ या बेचारा मतिविहीन । ज्यों त्यों कर वेग से सभा के बाहर आया ।। ११४ ।। स निर्गत्य सभायाश्च पप्रच्छ द्वारपालकम् । कोऽयं श्रीपालकश्चेति ब्रूहि भो द्वाररक्षकः ।। ११५।। अन्वयार्थ - ( स ) वह सेठ ( सभायाः ) सभा के बाहर (निर्गत्य ) निकल कर जाता है (च) और (द्वारपालकम् ) द्वारपाल को ( पप्रच्छ) पूछता है ( प्रथम ) यह (श्रीपालक : ) श्रीपाल ( क ) कौन है (च) और कहाँ से, केसे आया (इति) इत्यादि वृत्तान्त ( भो ) हे ( द्वाररक्षक : ) द्वारपाल ( ब्रूहि ) कहो । भावार्थ - - कहावत् है "चोर के पाँव कितने" चोर तनिक सी माहट आवाज पाते ही भाग खड़ा होता है । उसी प्रकार धवल सेठ भी श्रीपाल की छाया देखते ही भाग खडा हुआ । ज्योंत्यों कर मुंह छिपाये राजसभा से बाहर आया। किसी से भी वार्तालाप करने का साहस नहीं हुआ। पता लगाये बिना भी चैन न था करे तो क्या करे । अन्ततः उसने द्वारपाल से रहस्य लेने का उद्यम किया। उसके एकान्त में रहने से ठीक रहेगा यह सोचकर उसे पूछा है द्वाररक्षक तुम सच सच बताओ यह श्रीपाल कौन है । कहाँ से कैसे आया है ? अथवा इसी द्वीप का है । इसके सम्बन्ध में मैं स्पष्ट जानना चाहता हूँ । आप द्वार रक्षक हैं तुम्हें सब कुछ शा होगा | अतः स्पष्ट इसका परिचय बताओ ।।११५ ।। अहो श्रेष्ठिन् स च प्राह श्रीपालोऽयं भटोत्तमः । भुजाभ्यां सागरं सोऽपि समुत्तीर्य स्वपुण्यतः ॥ ११६ ॥ त्रागत्य नृपस्यास्य सुतायाः समजायत । कन्याया गुणामलायाः प्राणनाथो विचक्षणः ॥ ११७ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] • [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद अन्वयार्थ-- (सः) वह द्वारपाल (प्राह ) सेठ से बोला (अहो) हे (श्रेष्ठिन् ) सेठ (अयम् ) यह (भटोत्तम: ( शूरो में शूरतम (श्रीपाल:) श्रीपान है (च) और (स्वपुण्यतः) अपने महापुण्य से (सः) बह (विचक्षणः) अद्भुत बुद्धिमान (भजाभ्याम् ) हाथों से (सागरम) समुद्र को (अपि) भी (समुत्तीर्य) पार कर-तैर कर (अत्र) यहाँ (आगत्य) पाकर (अस्य) इस (नृपस्य) राजा की (सुतायाः) पुत्री (गुणमालायाः) गुणमाला (कन्यायाः) कन्या का (प्राणनाथः) भर्ता (समजायत) हुआ। भावार्थ सेठ के प्रश्न को सुनते ही द्वाखाल मानों चोंका ! आश्चर्य से कहने लगा। क्या सेठ जी आप नहीं जानते ? यह एक महान भजवली बोराग्रगी, सूभटशिरोमणि है। इसका नाम श्रीपाल है । यह महान् पुण्यात्मा और धर्मात्मा एवं दयालु है । अरे महाशय जी ! इसका धेर्य भी अद्वितीय है। यह स्वयं अपने विशिष्ट पुण्योदय से भुजाओं से अगम्य सागर को तर कर यहाँ पधारा है यही नहीं, यहाँ के भूपति की मुगावती, सुकुमारी, अनिद्यसुन्दरो कन्या के साथ विधिवत विवाह कर राज जमाई बना है। राजा की पुत्री मुरणमाला का प्राणनाथ होकर यह विचक्षण सर्वप्रिय और सर्व मान्य हो गया है। हमारे महाराज को भी इससे अप्रतिम प्रोति और गौरव है ।।११६ ११७।। द्वारपाल के मुख से भोपाल कोटिभट का वृतान्त सुनतेसुनते ही धवल सेठ के पैरों तले की जमीन धंसने लगो। वह आश्चर्य, भय और पश्चाताप के गहन गर्त में फंस गया । वह विचार करने लगा--- तन्निशम्य भयस्त्रस्तः श्रेष्ठी चित्ते विचिन्तयत । अहो मया कृतंकार्य विधिश्चके तथान्यथा ।।११।। अन्धयार्थ -(श्रेष्ठी) धबल सेठ (तन्निशम्य ) श्रीपाल का वृतान्त सुनकर (चित्ते) मन में (व्यचिन्तयत् ) सोचने लगा (अहा) हाय-हाय (मया) मेरे द्वारा (कृतम् ) किया गया (कार्यम ) कार्य (विधिः) भाग्य ने (तथा) उससे (अन्यथा) विपरोत (चक्र) कर दिया । भावार्थ-धवल सेठ ने द्वारपाल का कथन सुना । उसे तो मानों तुषार मार गया । लगा कि शिर पर वचत्रहार हुमा । करे तो क्या करे । माथा घूमने लगा । वह विचार करता है आखिर यह हुया क्या ? क्यों ऐसा हो गया ? यह किस प्रकार सम्भव है ? मैंने तो कुछ और ही कार्य किया था किन्तु विधाता (भाग्य) ने दूसरा ही नाटक रच दिया । सागर की उत्ताल तरङ्गों में, विकराल, मगरमच्छ, घडियालों के मुख में पडकर सदा को इसे विदा किया था परतु यह तो जिन्दा ही है । यही नहीं राजाश्रय पाकर, राजजंवाई बनकर अत्यन्त बलिष्ट हो गया है ।।११८।। पुनः सोचता है जामातायन्नपस्यासीत् महाविभव संयुतः । इदानी मे न जानेऽहं किमप्यग्न भविष्यति ॥११६।। अन्वयार्थ--(यत ) यह जो कि (इदानीम्) इस समय (महाविभव) महान वैभव (संयुतः) सम्पन्न (नृपस्य) राजा का (जामाता) जंवाई (अपि) भी (प्रासीत्) हो गया Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] ( इदानीम् ) इस समय ( अहम् ) ( किम् ) क्या ( भविष्यति ) होगा । [३१३ (न जाने) नहीं जानता हूँ कि ( अ ) यागे (मे) मेरा भावार्थ - - अपराधी सदा व्याकुल रहता है। भय से त्रस्त होता है उसे निरन्तर अपने षड्यन्त्र के खुल जाने की श्राशङ्का बनी रहती है। जीवन में निराकुलता नहीं आती इसी से सुख और सन्तोष उससे दूर भाग जाते हैं । वेचारे धवल का भी होश हवाश हवा हो गया, वह विचार करता है देखो भाग्य की विडम्बना, मैं तो इसे यमलोक पहुँचा जान निश्चित सा हुआ, पर यह तो मस्त है। राजा परीखा धन-वैभव तो प्राप्त हुआ ही कन्यारत्न के साथ राजसम्मान और प्रजा वात्सल्य भी प्राप्त हो गया। मैं अपराधी हूँ क्योंकि इस निर्दोष को छल से सागर में गिरबाया, उसकी पत्नि के साथ अत्याचार किया। यदि यह रहस्य खुल गया तो न जाने मेरा क्या होगा । कहाँ मैं कोट और कहाँ यह सिंह ? ठीक ही है दुर्जन के विचार भी वैसे ही होते हैं। वह अपने समान ही अन्य को भी नीच सङ्कीर्ण विचारज मानता है । श्रीपाल की शालीनता और उदारता मेरु की चोटी समान भला उसके ऊपर तक उसकी धुंधली आंखें भला कैसे पहुँच सकती थीं ? अतः वह पुनः वही विचारधारा में खो गया। दूध भरे स्तन से भी जोक रक्तपान ही करती है। सर्प मधुर दुग्ध पीकर भी विष का परित्याग नहीं करता है। देव-देवियों से तिरस्कृत हुआ, अपने साथियों से अपमानित हुआ तो भी उसी प्रकार की कुचेटाओं के करने का प्रयत्न करता है । वह पापी सोचता है कि मेरा दुष्कृत्य प्रकट हो उसके पहले येन-केन उपायेन इस श्रीपाल को यमलोक पहुँचाना चाहिए । अन्यथा मेरा मरण निश्चित है । पापियों की चालें टेडी और पेचीदी होती हैं। सज्जन सरलस्वभावी भला कैसे समझ सकते हैं | अस्तु उस दुष्टात्मा धवल ने पुनः उस निरपराध वीर को मारने का निष्फल प्रयत्न आरम्भा ।।११६ ॥ इत्यनुव्याय पापात्मा मन्त्रं कृत्वात्र मन्त्रिभिः || चालकान्समाहूय बहुरूपविधायकान् ॥ १२०॥ अन्वयार्थ - ( पापात्मा) पापी धवल सेठ इस प्रकार पुनः कुत्सित विचार करके मन के लड्डू खाने की इच्छा करता है । दुरात्मा भला अपना स्वभाव छोड़ता है क्या ? (इति) इस प्रकार श्रीपाल के घात का उपाय ( अनुध्याय) चिन्तवन कर ( मंत्र ) फिर यहीं (मन्त्रिभिः ) मन्त्रियों के साथ ( मन्त्रम्) मन्त्ररणा ( कृत्वा) करके (बहुरूपविधायकान् ) अनेक रूप धारी ( चाण्डालान् ) बहुरूपियों को ( समाहूय) बुला कर कहा नृत्यं कृत्वा नृपस्याचं यूयं पश्चादहं पिता । अस्माकं त्वं सुतो वत्स श्रीपाल क्व गतोऽसि भो ॥१२१॥ अन्वयार्थ – भाव से कृष्ण नाम से बवल उन भांडों को कुयुक्ति सिखाते हुए कहता है ( यूयम्) आप लोग (नृपस्य ) राजा के ( अर्थ ) सामने ( नृत्यम् ) नाच ( कृत्वा) करके ( पश्चात् ) फिर श्रीपाल से कहना (हम) में (पिता) पिता हूँ ( त्वम् ) तुम ( अस्माकम् ) हमारे Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.१४ ] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद (सुतः) पुत्र हो (वत्स ) हे बच्च ! (श्रीपाल:) श्रीपाल (भा) हे पुत्र (क्व ) कहाँ गतोऽसि ) चले गये। भावार्थ: उम नीच पापी धवल सेठ ने पुनः निरपराध विचक्षण उस श्रीपाल को मरवाने का असफल प्रयास विचारा। जैसे हो वैसे इसे मृत्युघाट उतार देना चाहिए । इस प्रकार मन में सोचकर मन्त्रियों को बुलाया। यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार उन लोभी दुराचारियों ने भी उसके षड्यन्त्र को कार्यरूप करने की सलाह दी। फलत: सर्वजन से यह निर्णय किया कि चाण्डालों-नत्यकारों को बुलाया जाय । ये नट लालची होते हैं, नाना रूप बनाने में पद होते हैं। राजा भी न त्यगानादि का प्रिय है। ये लोग प्रथम अनेक प्रकार से नान, मायें, वजायें, नाना प्रकार से अपनी नट कला के प्रदर्शन करेंगे। राजा प्रसन्न हो इन इनाम देगा । इस कार्य के लिए बह अवश्य ही श्रीपाल को पारितोषक वितरण की आज्ञा देगा । वस, ये लोग उसे देखते ही चिल्लायें कि हे वेटा, हे भाई, हे सुत, हे मामा, भो भर्त्ता तुम कहाँ च गये ! क्यों रुष्ट हुए ? हम लोग रा-रो कर पागल हो गये इत्यादि कह-कह कर रोयेंगे-चिल्लायेंगे । राजा इसका कारण पूछेगा तो ये स्पष्ट कह देंगे कि श्रीपाल हमारा पुत्र है, जातीय है इत्यादि । बस राजा अब प्रय ही ऋद्ध हो उसे मृत्यु दण्ड दे देगा क्योंकि उसकी पुत्री को भांड ने व्याह लिया यह धर्मात्मा नीतिज्ञ राजा को महन न हो सकेगा । इस प्रकार मन्त्रणा कर उसने उसी समय चाण्डालों-नटों को बूलबाया और एकान्त में उन्हें भले प्रकार अपना मन्तव्य अत्रगत कराया। उसने उनसे कहा-भो नटराजो! आप नत्य, गान और उछल-कूद में पूर्ण निपूण हो। आप सर्व प्रथम राजदरबार में बड़ी चतुराई से अपना कौशल कला-विज्ञान प्रशित करना पूनः अपना जाल अत्यन्त सावधानी से बिछाना । यदि फन्दा सोधा डाला तो समझ लो तुम्हारा दुःख दारिद्रय पलायन बार जयेगा। तुम श्रीपान को अपना बेटा कहना, स्वयं को पिता बताना । इसी प्रकार सब जन सम्बन्ध जोड-जोड़ मायाबी आँसू बहाना । बस काम बन जायेगा ।।१२० १२१।। सिद्धे कार्ये च युष्मभ्यं दास्येऽहं भूरिसो धनम् । श्रीपाल प्रारगनाशार्थ तानेवं प्राह पापकृत् ॥१२२।। अन्वयार्थ - (कार्ये) काम के ( सिद्धे) सिद्ध होने पर श्रीपालप्राणनाशार्थम) श्रीपाल के प्राणनाश के लिए (युष्मभ्यम्) तुम लोगों को (भूरिसः) बहुत सा (धनम) धग (प्रहम् ) मैं (दस्ये) दूगा (एवम्) इस प्रकार (च) और (पापकृत्) पापी (प्रा) बोला । भावार्थ-इस प्रकार धवल सेठ ने उन्हें भलीभांति समझा दिया और आश्वासन दिया कि श्रीपाल के मर जाने पर मैं तुम्हें ययेच्छ धन दंगा । मुह मांगा द्रव्य देकर मालोमाल बना दुमा । तुम कोई चिन्ता मत करो ॥१२२।। तेऽपि नीचा धनाथं च लम्पटाः कपटाः खलाः। राजाने वेगतो गत्या कृत्वा राग मनः प्रियम् ।।१२३।। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] [:३१५ नानारूपेश्च नृत्यैश्च वादिश्च मनोहरैः । प्रेषणश्चलनश्चापि सस्त्रीकाहावभावकः ॥१२४।। गानादिभिस्तदासर्वे रञ्जयन्ति स्म भूपतिम् । सम्प्रदर्थ कलासर्यास्तान सभामनुरजयन् ।।१२५॥ तदा हृष्टो महीनाथस्तेभ्यो दापितवान् धनम् । सुधीः श्रीपालहस्तेन वस्त्रादिक समन्वितम् ।।१२६॥ अन्वयार्थ- (ते) वे (अपि) भो (नीचा) नीच (लम्पटा:) लालची (कपटाः) कपटी (च) और (स्वला:) दुर्जन (धनार्थम ) धन के लिए-लोभ से (वेगतः) शीघ्र हो (गजाने) राजा के सामने (गत्वा) जाकर (मन: प्रियम्) मन को अच्छा लगने वाला (रागम् ) रागोत्पादकदृश्य (कृत्वा) करके (नानारूपः) अनेक प्रकार के वेशों से (नृत्यै :) नाचों से (मनोहरैः) सुन्दर (वादिः ) बाजों में (च) और (प्रेषणः) भेजने (च) और (चलनः) हलन-चलन (च) और (अपि) भी (सस्त्रीका) अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ (हाव-भावकः) भों, नेत्रादि अङ्गों का चालान (गानादिभिः) मधुर राग भरे गानादि द्वारा (सर्वे) सर्वजन (भूपतिम्) राजा को (रजयन्तिस्म) प्रसन्न कर लिया (तदा) उस समय (सर्वान्) सम्पूर्ण (तान) उन (कलान) कौशलों को (सम्प्रदश्य) दिखाकर (सभाम) सभा को (अनुरजयन्) प्रसन्न करते हुए, (तदा) तब (हृष्ट:) प्रसन्न (महीनाथः) राजा ने (तेभ्यो) उन नटों को (सुधीः) बुद्धिमान (श्रीपालहस्तेन) श्रीपाल के हाथों से वस्त्रादिकसमन्वितम ) वस्त्रालाङ्कार सहित (धनम् ) धन (दापितवान्) दिलवाया। भावार्थ--"लोभ पाप का बाप बखाना" युक्ति के अनुसार उन चाण्डालों ने सेठ के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । ठीक ही है “प्रर्थीदोषान्नपश्यति" स्वार्थीजन दोष की ओर दृष्टि नहीं डालते । बे पापो, नीच, धनलोलुप, कपटी, महाक र दुर्जन, लम्पटी शीघ्र ही राजसभा में जा पहुँचे । द्वारपाल से आज्ञा ले राजा की अनुमति प्राप्त करली । अब क्या सपरिबार वे नृपति के मनोभावानुसार नृत्य, गान, नानारूप, वादिन वादन हाथ-पैर संचालन-कुद फांद भोह चलाना, नाक सिकोडना, ओठ चलाना, मुह मटकाना, कमर मटकाना आदि अनेक प्रकार के हाव-भाव ग्रादि प्रदर्शन करने लगे। स्त्रियों के साथ अपनी सम्पूर्ण नाट्य कलाओं का अत्यन्त चतुराई से प्रदर्शन किया । राजा मनोहर रूपराशि और अनूठे वाद्यवादन, नर्तन, गायन पर मुग्ध हो गये । यही नहीं समस्त सभासद् वाह-वाह, साधुवाद करने लगे। चारों और अपूर्व अानन्द की लहर दौड गयो । प्रत्येक सभासद उनकी प्रशंशा के गीत गाने लगे । पोरी-पोरी मटका-चटका कर किया गया नाटक सभी के मन और नयन में समा गया। इस प्रकार स्वर, ताल, लय का संयोजन कर जब समस्त जनों को रब्जायमान कर दिया तो राजा और अधिक मानन्दित हुा । भूपति ने प्रसन्न हो उसी समय अपने विश्वस्त, बुद्धिमान जंवाई श्रीपाल जी को बुलाया और उन नर्तक चाण्डालों या नटों को वस्त्र, अलङ्कार रुपये पैसे प्रादि घन देकर सन्तुष्ट करने की प्राज्ञा दो । मनोषो भोपाल ने भी श्वसुर भूपाल की आज्ञानुसार उनके योग्य Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद पोषाक गहने, होरा, मोतो, पन्ना, मुहर, सिक्के आदि उन्हें पारितोषक रूप में प्रदान किये 1 यही श्रीपाल उन्हें भेंट स्वरूप चीजें प्रदान करने लगे कि सारा रङ्ग ही भङ्ग हो गया । सबके चेहरों का रङ्ग ही उड गया । सब हक्का-बक्का आश्चर्य में डूबने लगे । आँखें खुली की खुली रह गई । देखिये कैसे क्या हुआ - ।।१२३ से १२६ ।। राजाज्ञया यदा सोऽपि श्रीपालो दातुमुधतः । तावत् ते तं समालोक्य कृत्वा संरोदनं खलाः ।। १२७ ।। तन्मध्ये कोऽपि चाण्डालो जगौ पापीति तं प्रति । गतोऽस्येतद्दिनावधि ॥ १२८ ॥ अरे काचिन्नीचा गले लग्ना रुदन्ती पुत्र-पुत्र भो । त्वं दृष्टोऽसि मम प्राणावल्लभो बहुभिर्दिनः ॥ १२६ ॥ करचिन्मे देवरोमूढा काचिन्मे बन्धुरजा । जामाता पापिनी काचिद् भागनेयश्च सा परा ।। १३० ।। एकश्चाण्डालकः प्राह भो राजन्नयमुत्सुकः । कुटुम्बकलहं कृत्वा रुष्टोऽसौ सागरेऽपतत् ॥ १३१ ॥ श्रद्यभाग्येन संजीवदृष्टोऽयमत्र भूतले । श्रन्यैश्चाण्डालकंश्चाऽपि स्वेच्छयालपितं खलैः ।। १३२ ।। अन्वयार्थ ( स ) वह (श्रीपाल : ) श्रीपाल (अपि) भी ( यदा) जिस समय ( राजाज्ञया ) राजा की प्राज्ञा से ( दातुम ) पारितोषिक देने को (उद्यतः) तैयार हुआ ( तावत् ) उसी समय (ते) के ( खलाः) मूर्ख नट (तम् ) उस श्रपाल को (समालोक्य ) आँख फाड देखते हुए ( सरोदनम् ) जोर जोर से रोना ( कृत्वा) करके (तन्मध्ये ) उनमें से ( क ) कोई (अपि) भी एक (पापी) पाप ( चाण्डाल.) नर्तक ( तं प्रति) धोपाल से (जगी) बोला ( अरे) भो (पुत्र) सुत ! (त्वम्) तुम (क्व) कहाँ ( गतः ) गये ( काचित् ) कोई (नीचा ) नीच ( गले लग्ना) गले में चिपटकर (एतत् ) इतने ( दिनाबधि) दिनों से ( गतोऽसि ) तुम चले गये, ( काचित् ) कोई स्त्री ( रूदन्ती) रोती हुयो ( भो ) है ( पुत्र) बेटा ( पुत्र ) लाल (मम्) मेरे ( प्राणवल्लभः) प्राणप्रिय ( बहुभिः ) बहुत ( दिन ) दिनों बाद ( दृष्टः ) देखे गये ( असि ) हो । ( काचित् ) कोई (मे) मेरे ( मूढ) मुर्ख (देवर) देवर ( काचित् ) कोई (मे) मेरे (अग्रजः ) बड़े (बन्धु) भैया ( काचित् ) कोई ( पापिनी ) पापिनी (जामाता ) जंबाई (अपरा ) दूसरो (सा) वह स्त्री ( भागनेयः) भानजा कहने लगी, (च) और (एक) एक ( चाण्डालक: ) चाण्डाल (प्राह ) बोला ( भो ) हे ( राजन् ) नृप ( अयम् ) यह ( उत्सुकः ) उत्तेजित (रुष्टः ) रूठकर ( कुटुम्बकलहं ) आपस में झगडा ( कृत्वा) करके (अस) यह ( सागरे ) समुद्र में Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] (अपतत्) गिर गया, (अद्य) आज (पत्र) यहाँ (भूतले) संसार में (अयम् ) यह (संजीवन्) जीवित (भाग्येन) शुभभाग्य से (दृष्टः) दिखा है, (च) और (अन्यः) दूसरे (चाण्डालकः) वे नीच बहुरूपिया (खलः) दुष्ट (अपि) भी (स्वेच्छया) इच्छानुसार यद्वा तद्वा (लपितम्) बोलने लगे। भावार्थ---महाराज धनपाल के आदेशानुसार कोटिभट श्रीपाल उन बहु वेषधारी नटों से इनाम लेने को कहने लगा । वह राजा के अभिप्रायानुसार उन्हें बस्त्रालङ्कार, मणि, मुक्ता, रुपया आदि वितरण करने को तत्पर हुआ। परन्तु यह क्या यहाँ तो रङ्ग-भङ्ग हो गया। किसी को कुछ समझ में ही नहीं पाया कि यह सत्य है या इन भांडों का कोई खेल प्रदर्शन है । ज्यों ही श्रीपाल उन्हें इनाम देने माया कि उन पूर्व पाठित-पहले सिखाये-पढाये खिलाड़ियों ने उसे चारों ओर से घेर लिया । किसी ने हाथ पकडा, किसी ने शिर । सब एक साथ फट-फट कर बनावटी रोदन करने लगे । मला फाड़-फाड़ कर विलाप करने लगे। उनमें से एक दुष्ट उस श्रीपाल की ठोडी पकड कर अत्यन्त प्रेमानुराग दिखाते हुए बोला, भो प्राणप्रिय सुत तुम कहाँ चले गये, दूसरी बोल उठी, बेटा-वेटा इतने लम्बे समय से कहाँ रहे, तेरे लिए देखने को ही मानों मेरे प्राण नहीं निकले, इस प्रकार बोलती हुयी उसके गले में लिपट गई । कोई हे प्राणनाय, प्रिय तुम बहुत दिनों से प्राज दिखे हो, । हे मूर्खाधिराज देवर ! वस्तुतः तुम निरे अज्ञानी हो, भला कोई अपना घर छोड़ता है ? क्या जुओं के भय से कोई लहंगा फेंकता है ! कोई बाली प्यारे भैया तुम कहाँ गये थे । कोई पापिनी कहने लगी मेरी बेटी को छोड़कर आपको जाना उचित था क्या ? जंवाई जो आपके जाने से उसे और हम लोगों को कितना कष्ट हुमा मालूम है ? कोई मामी बनकर बोल उठो भानजे जी आप को इतना अहंकार शोभा नहीं देता । घर-बार छोड़ा तो छोडा प्राणों की भी बाजी लगा बैठे। इस प्रकार नटानियों ने भरपूर-पूर्णत: अपना तिरिया चरित फैलाया । इसी बीच एक दुर्जन नटनायक, राजा धनपाल का सम्बोधित कर बोल उठा, भो भूपते ! यह बहुत गुस्सैल है, उतना ही भाबुक है, देखिये तो इसकी लीला ! एक दिन घर में सबके साथ कलह कर डाला । सारे कुटुम्बी त्रस्त हो गये । तो भी इसे सन्तोष नहुना । कोपानल से लाल ताता हो गय गया। आबदेखा-न ताब बस दौड़ चला और रोकते-रोकते भी भोषण समुद्र में कूद पड़ा । "क्रोध अन्धा होता है" कहावत चरितार्थ कर ही दी। उसी दिन से हम लोग इसकी छानबीन करते रहे। आज हे राजन आपके प्रसाद से हमारे इस कुलदीपक की प्राप्ति हुयी है । हमारा महान पुण्योदय है जो यह मृत्यु मुख में जाकर भी जीवित मिल गया । उसी समय अन्य अन्य वे धूर्त जोजो जैसा जिनके मन में आया बोलने लगे। नाना प्रकार उसे तायना-उलाहना देने लगे। रोरोकर आकाश गुजा दिया पर पीडा किसे थी ? बाहर मात्र शोक का प्रदर्शन, परन्तु अन्तरङ्ग में धन की चाह का आभा दोप जल रहा था, जगमगा रहा था । यह है उनकी दशा । अब जरा दर्शकों और मुख्यतः राजा की ओर आ जाइये । देखिये इधर क्या होता है ?।।१२७, १२८ १२६, १३०, १३१,१३।। धनपालस्तदा राजा महाविस्मय शोकभाक् । भो श्रीपाल जगादेतत् किं सत्यं मे वद द्रुतम् ॥१३३॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद अन्वयार्थ -- (तदा) उन नीचों के असद् प्रदर्शन से उस समय (राजा) भूपति (धनपालः) धनपाल (महाविश्मय) अत्यन्त आश्चर्य (शोकभाक) एवं शोक भरा (जगाद) बोला (भो) हे (श्रीपालः) श्रीपाल (एतत्) यह (किम् ) क्या ? (मे) मुझ से (द्र तम् ) शीघ्र (सत्यम्) यथार्ग (सा) कहीं। भावार्थ-उन असद्भाषी नर्तक-नर्तकियों के इस प्रकार वार्तालाप, रुदन-शोक प्रदनि को देखकर महाराज धनपाल को बहुत आश्चर्य हुआ। वह सोच भी नहीं पाया था कि उसके साथ इस प्रकार का धोखा हो सकता है । क्योंकि बोतरागी मुनिराज की भविष्यत्रागो के अनुसार उसने अपना कान्यारत्न अपार संभव सहित उसे दिया था। इस समय वह भोक से पीडित था क्योंकि कुल-बंग, जाति विहीन व्यक्ति जवाई हो गया । स्वयं इसका कुलवंश दूषित हो गया । अत. कन्या-पुत्री का क्या होगा ? वह घर की रही न घाट को" अब क्या करें ? अत: श्रीपाल हो प्रमाण है अब पूछे भी ता किसे ? अस्तु बह-राजा श्रीपाल ही से इसका रहस्य खोलने को कहता है । हे श्रोपाल ! तुम सच-सच बताओ, यह सब क्या है ? तुम कौन हो? यह किस प्रकार काण्ड हुआ है स्पष्ट करो ? क्या इनका कहना सत्य है ? यदि सत्य है तो तुम राजद्रोही महापातको दण्ड के पात्र हुए। यदि इनका स्वांग गलत है तो तुम अपना सही कुल-वंश-जाति सिद्ध करो अन्यथा तुम्हें महादण्ड का पात्र होना होगा । शीघ्र कहो यह सब क्या है ? ये कौन हैं ? इनसे तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ? आखिर इसका रहस्य क्या तन्निशम्य सुधीस्सोऽपि श्रीपालो निजमानसे । कर्मोदयोऽयमितत्युच्च स्तूष्णीभावेन संस्थितः ।।१३४।। अन्वयार्थ--(सः) वह (सुधीः) बुद्धिमन् (श्रीपाल:) श्रीपाल (अपि) भो (तत) उसे (निशम्य) सुन कर (निजमानसे) अपने मन में (अयम् ) यह (कर्मोदयम् ) कर्म का उदय है (इति) ऐसा विचार (उच्चैः) पूर्णत: (तूष्णोभावेन) मीन भाव से (संस्थितः) रह गया । भावार्थ--भूपति का आदेश सुनकर तथा उन नीच-अज्ञानी तुच्छ भाण्डो-चाण्डालों की कतत देखकर श्रीपाल को न प्रामचर्य था न विस्मय । तत्त्वज्ञ को संसार में न कुछ आश्चर्यकारी होता है न भयप्रद । अतः वह मन में तत्त्व विचार करता है । प्राणी अपने उपाजित कर्मानुसार दुःख-सुख का भागो होता है । यह मेरा ही कटुकर्म का फल है । अशुभोदय का यह दृश्य अवश्य भोगना होगा । चलो देखें यह कर्म क्या विडम्बना प्रदर्शित करता है ? इस प्रकार कर्म सिद्धान्त का स्मरण कर तथा यह सोचा कि मेरा गवाह यहाँ कौन है ? कोई नहीं । अत: समय आने पर इन्हें देखा जायेगा । अभी तो इस नाटक का और एक दृश्य देखना चाहिए" इस प्रकार ऊहा-पोह कर वह पूर्णतः शान्त-मीन हो गया। "मौनं सम्मति लक्षणम्' युक्ति के अनुसार राजा का कोप इसके मौन से असीम हो गया । क्रोधाविष्ट मनुष्य को विवेक कहाँ ? धर्य भी कहाँ ? बस क्या हुआ ? ||१३४॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] ततो भ्रान्त्यातिरुष्टेन भू भुजा तेन सत्वरम् । द्विधा कतु भिमंतीचं नोचहस्ते समर्पितम् ॥ १३५ ॥ । [ ३१६ अन्वयार्थ - - ( ततः) श्रीपाल से उत्तर न पाकर ( भ्रान्त्या ) भ्रमवश ( तेन ) उस ( अतिरुष्टेन ) अत्यन्त कुपित हुए ( भूभुजा) राजा ने ( सत्वरम् ) शीघ्र ही ( इमम् ) इस (नीम ) नीच श्रीपाल को (द्विधा ) दो टुकडे ( कर्तुं म) करने के लिए (नीचहस्ते ) चाण्डाल के हाथ में (समर्पित :) दे दिया | भावार्थ ओपाल के मौनभाव रूपी घृत ने भूपति की कोपाग्नि को प्रति तीव्ररूप में प्रज्वलित कर दिया । श्रागे-पीछे के विचार बिना ही उसने शीघ्रता से चाण्डाल शूलीरोहण करने वाले को बुलाया और उसे प्राज्ञा दे डाली कि "इस दुष्ट धोखे बाज मूर्ख श्रीपाल को मृत्यु के घाट उतार दो, बिना विलम्ब इसके दो टुकड़े कर डालो। फिर क्या था ? इधर जाल रचने वाले हर्षित हो रहे थे, उधर चाण्डाल श्रीपाल को हाथ-पांव में बेडी डाले ले जा रहे थे । इस अनहोनी प्राकस्मिक घटना से पूरा पुर उथल-पुथल हो गया । वेतार के तार की भाँतियह समाचार चारों और उस द्वीप के घर-घर में जा पहुँचा और सर्वत्र इसकी कटु आलोचना, क्रिया. प्रतिक्रिया, चर्चा वार्ता होने लगी ।। १३५।। तब क्या हुआ --- तदान्तः पुर पौराधैर्हाहाकारः पुरेऽभवत् अभ्येत्य गुणमालां काचित्सखीत्याह सुन्दरीम् ॥। १३६ ।। करोषि मण्डनं कस्यार्थं यतस्तेऽद्य बल्लभः । नीयते मारणार्थं स मातङ्गजाति- दोषतः ।। १३७॥ अन्वयार्थ - ( तदा ) तब ( पुरे ) पुर में ( अन्त: पुरपराद्यः) रनवासी और पुरवासियों द्वारा ( हाहाकार:) हा हा कार ( अभवत् ) फैल गया - हो गया उसी समय ( काचित् ) कोई (सखी) सहेली (सुन्दरी) सुन्दरी ( गुणमाला) गुणमाला को ( अभ्येत्य ) प्राप्तकर ( पासजाकर ) ( आह) बोली ( त्वम् ) तुम ( कस्यार्थम् ) किस के लिए ( मण्डनम) शृंगार ( करोषि ) करती हो ( यतः ) क्योंकि ( अद्य ) आज (ते) तुम्हारा ( वल्लभः) पतिदेव (सः) वह श्रीपाल ( मातङ्गजातिदोषतः ) चाण्डाल जाति का है इस दोषारोपण से ( मारणार्थम् ) मारने के लिये (नोयते) ले जाया गया है । भावार्थ - विद्यतगति से श्रीपाल का मृत्युदण्ड समस्त पुर में व्याप्त हो गया । गुणीउदार सज्जन किसका प्रिय नहीं होता ? उदार चरितानां वसुधैव कुटुम्बकम् उक्ति का श्रीपाल अपवाद न था । वह जिस दिन से राज जँवाई हुआ उसके पहले ही पुर प्रवेश समय से ही जन जन के गले का हार हो गया था। इस प्रप्रत्याशित कराल दुर्घटना से प्राबाल-वृद्ध सभी हा हाकार कर उठे । काम धाम आहार पान सब कुछ छोड़ कर श्रीपाल के पीछे दौड पडे । कोई राजा को निन्दा करना, कोई इन नटों को कोशता, कोई राजा की अदूरदर्शिता प्रकट करता, Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ries [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद नारियो अश्रुपात करती दौड़ पडी, कोई राजपुत्री के आकस्मिक दुर्भाग्य पर अफसोस करती, कोई राजा को कोशाती, कोई वृद्धा राजा की बुद्धि को निन्दा करती चली जा रही थीं। कोई राजकुमारी के सौभाग्य की चिन्ता कर रो रही थी तो कोई राजा की जल्दीबाजी पर बड बडा रही था। अनेकों प्रकार से अफवाह फैल गई । सर्वत्र दु:ख और शोक का वातावरण छा गया उसी समय एक दासी दौड़ती हुयी राजकुमारी गुणमाला के पास आई और बोली "हे सुन्दरि, भो भोली! अब शृंगार क्या कर रही हो ? किसके लिए यह साजसज्जा है ? छोडो सौभाग्य चिन्हों को, अरी सुनतो आज तेरे सौभाग्य का तारा सदा को प्रस्त होने जा रहा है । तुम्हारे प्राणवल्लभ-पति को राजा ने मृत्यु दण्ड दिया है । कुछ मातङ्ग जो अभी कुछ समय पूर्व राजसभा में नृत्यादि कर रहे थे, उनका कहना है कि श्रीपाल हमारी जाती वंश का है। , इसों से राजा कुपित हो गया है धे.पाल इस विषय में मौन है। प्रतः भूपति का क्रोध और अधिक भडक गया और उसने उसे जल्लादों के हाथ में देकर उसके दो टुकड़े करने की आज्ञा घोषित की हैं।" सुनते ही कुमारो पर गाज गिरी। मानों वज्र आ पड़ा। बिपत्ति का पहाड पाने पर भी उत्तम-बुद्धिमान जन धैर्य और विवेक नहीं स्वो देते । पुरुषार्थ से काम लेते हैं। प्रस्तु, कुमारी तत्क्षण शूलोरापण स्थान पर जाने को उद्यत हुयी और अविलम्ब जा पहुंची ।।१३६ १३७।। तवाकण्यं तंगत्वा श्रीपालं प्रत्युवाच सा । ग्रहो कान्त जिनेन्द्रोक्त ज्ञात सिद्धान्त सन्मते ॥१३८।। नाथ मत्कृपयात्मीयं कुलं कथयमेधूना । ततो वीरोऽवदत् कान्तवदन्येतेऽत्रमत्कुलम् ॥१३॥ अन्वयायं--(तदा) दासी द्वारा श्रीपाल के मारने की बात (आकर्ण्य) सुनकर (द्र तम) शीघ्र ही (गत्वा) जाकर (सा) वह (श्रीपालम ) श्रीपाल के (प्रति) प्रति (उवाच) KLA Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [३२१ बोली (जिनेन्द्रोक्तज्ञातसिद्धान्त) जिनेन्द्र भगवान प्रणीत सिद्धांत के ज्ञाता (सन्मते) श्रेष्ठ बुद्धिशालिन् (अहो) भो (कान्तः) पतिदेव (नाथ) भो प्राणनाथ ! (अधुना) इस समय (मरकृपया) मुझ पर दयाकर (मे) मेरे लिए (आत्मीयं) अपना (कुलम् ) कुल(कथय) कहिये । (ततः) यह सुनने पर (वीरः) सुभटाग्रणी श्रीपाल (अवदत्) बोला (कान्ते) हे प्रिये (एते) ये नट (मत्कुलम) मेरा कुल (बदन्ति) कह रहे हैं। भावार्थ-सी मुख से लनाचार सुन पति के प्राणनाश आशङ्का से वह महासती गुणमाला अबिलम्ब प्रमशान घाट में जा पहुँची । श्रीपाल को बन्धनबद्ध देख उसके दुःख और शोक असीम हो गये। वह अश्रुपात करती हुयी रुधिर वाणी में बोली भो देव, हे प्राणेश्वर यह सब क्या है ? आप जैनसिद्धान्त के पारङ्गत है। जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित जिनवाणी के सार के मर्मज्ञ हैं । परम दयालू हैं मुझ पर कृपा कीजिये, भो प्राणनाथ अति शीघ्र आप अपना कुल-वंश जाति म ज्ञात कराइये ! प्रभो मेरे सर्वस्व बोलिये यथार्थता क्या है इसे स्पष्ट कीजिये । पत्नी की प्रार्थना सुनकर धीर वीर, निर्भीक सिंहसम पराक्रमी श्रीपाल मुस्कुराता हुआ बोला, हे प्रिय, भो कान्ते ! ये नटलोग मेरा कुल कह रहे हैं न ? क्या तुमने नहीं सुना ? बस इसी को सत्य मान लो । ये पूरा परिचय दे रहे हैं ॥१३८, १३६।। विचक्षणाह सा स्वामिन्न वक्तव्यमिदं त्वया । प्रद्याऽपि फि त्वयानाथ कुलपूतं न गोप्यते ।।१४०।। किन्वादिशाशु मे याथातथ्येन स्वकुलोत्तमम् । नोचेप्राणान् मुञ्चामि पुरस्ते प्रारगवल्लभः ॥१४१। अन्वयार्थ--(सा) वह (विचक्षणा) विलक्षणमती (आह) वोली (स्वामिन्) हे म्वामी (इदम ) यह (स्वया) प्रापको (न) नहीं (वक्तव्यम् ) करना चाहिए। (किं) क्या (अद्याऽपि) याज भो (नाथ) प्रभो (त्वया) तुम्हारे द्वारा (पूतम् ) पवित्र (कुलम्) कुल (न गोप्यते) नहीं छ पाया जा रहा है क्या ? यह सत्य नहीं (किन्तु) परन्तु (याथातथ्येन) यथार्थ रूप से (मे) मुझ से (उत्तमम् ) उत्तम (स्वकुलम ) पाने कुल को (प्राशु) शीघ्र ही (आदिश) कहिये (नोचेत्) यदि आप नहीं बताते हैं तो (प्राणवल्लभः) भो प्राणप्रियनाथ (ते) आपके (पुरः) सामने ही (प्राणान् ). प्राणों को (मुञ्चामि) छोड़ती हूँ। मावार्थ-विलक्षणमति महासती गुणमाला भला इस असत्प्रलाप को किस प्रकार स्वीकार कर सकती थी। उसने कहा कि यह कदापि सत्य नहीं हो सकता है ? आप अभी भी इस प्रकार बोल रहे हैं । क्या यह सत्य है ? नहीं-नहीं कदापि यह सत्य नहीं हो सकता । भो स्वामिन पापको इस प्रकार नहीं कहना चाहिए ? आज इस समय भी पाप क्या अपने पवित्र कुला को नहीं छिपा रहे हैं ? नीच जाति कुलोत्पन्न भला भुजाओं से सागर की छाती चीरने में समर्थ हो सकता है ? उत्तम कुल का आचार-विचार, मदाचार, धर्मज्ञता, तत्त्वविज्ञान क्या कभी नीच कुलोत्पन्न व्यक्ति में पाया जा सकता है ? कभी नहीं । मैं जानती हूँ आप जसे Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२, [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद - DEVTA A शालीन महापुरुष क्या निद्यकुल में हो सकते हैं ? किन्तु राजा को विश्वास दिलाना अनिवार्य है। अत: आप मुझ पर अनुकम्पा कर अतिशीघ्र याथा तथ्य अपने उत्तम कुल का परिचय दीजिये। अब हास्य छोडिये । यह अपेक्षा का समय नहीं, परिहास का अवसर नहीं । आपको अपना सही परिचय देना ही होगा। यदि आप * नही बताइयेगा तो निश्चय हो वैषय के शाप के पूर्व यहीं आपके चरग सानिध्य में प्राण विसर्जन कर दूगी । हे प्राणेश ! इसमें तनिक भी सन्देह न समझे ? इस प्रकार अपनी प्राण प्रिया का हल संकल्प और उचित विचार ज्ञात कर श्रीपाल को उत्तर देना पड़ा .. ।।१४०. १६१।। N इत्याग्रहेण सोऽप्याह शृणु त्वं प्रियवत्सले । श्रेष्ठिनो धवलस्यास्य पोते कान्ताऽस्ति मेऽधुना ।।१४२॥ नाम्ना मदनमञ्जूषा विद्याधर नृपात्मजा । सा मे सर्व विजानाति कुलवृत्तादिकं घबम् ।।१४३।। तां सती पृच्छ शोकार्ता मद् वियोगावि तापनीम् । इत्येवं गुणमालाशु श्रुत्वा पतिमुखाम्बुजात ॥१४४।। शिवकां सा समारुह्य गत्वा तत्र व्रत सती। शुभ भावयुतां वीक्ष्य गुणमालाति शोकिनी ॥१४५।। सखीववेवं सद्भत्त: श्रीपालस्य कुलक्रमम् ।। तच्छ त्वाप्यमुदा साह श्रीपालः कोऽत्र सुन्दरि ! ॥१४६।। अन्वयार्थ--(इति) इस प्रकार (आग्रहेण) प्राग्रह-प्रार्थना करने से (स:) वह श्रीपाल (अपि) भी (ग्राह) बोला (प्रियवत्सले) वात्सल्यमयी प्रिय (स्वम ) सुम (धण ) Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] सुनो (अस्य) इस (धवलस्य) धवल (थेष्ठिनः) सेठ के (पोते) जहाज में (अधुना) इस समय (मे) मेरी (कान्ना) पत्नी (मदनमम्जूषा) मदनमञ्जूषा (नाम्ना) नाम की (विद्याधरनृपात्मजा) विद्याधर राजा की दोस्त : (.) : माकम् । कुल, वंश, जाति आदि (सर्वम् ) सम्पूर्ण विवरण (ध्र वम) निश्चय (विजानाति) जानती है (मत्) मेरे (वियोगादितापनीम् ) मेरे वियोग प्रादि से सन्तप्त (शोकार्ताम् ) शोक पोहित (ताम) उस (सतीम् ) सती को (पृच्छ) पूछो (पतिमुखाम्बुजात्। पति के मुखकमल से (एवम् ) इस प्रकार (श्रुत्वा) सुनकर (गुणमाला) गुणमाला (इति) ऐसा ही करती हूँ निश्चय कर (आशु) शीघ्र ही (शिविकाम ) पालकी में (आरुह्म) सवार होकर (दतम) शीघ्र-तत्काल (तत्र) वहाँ (गत्वा) जाकर (सा) उस (सती) माध्वी (अतिशोकिनी) अत्यन्तशोका कुलित (गुणमाला) गुणमाला ने (शुभभावयुताम) निर्मल परिणाम वाली उस मदनमञ्जूषा को (वीक्ष्य) देखकर पूछा (सखी) हे सखी ! (मद्भर्नु :) मरे पति (श्रीपालस्य) भोपाल का (कुल क्रमम ) कुल परम्परा (वद) काहो (एवं) इस प्रकार (तत्) उसे (श्रुत्वा) सुनकर (अमुदा) खिन्न (अपि) भी (सा) वह मदनमञ्जूषा (माह) बोली (सुन्दरि) हे शोभने ! (अत्र) यहाँ (कः) कोन (श्रीपालः) श्रीपाल है ? भावार्थ-प्रेमाग्रह का उलंघन सरल नहीं । गुणमाला के हृदय से उद्भुत प्राहें भरी प्रार्थना की उपेक्षा श्रीपाल नहीं कर सका । उसके दृढ सङ्कल्प के समक्ष उसे झुकना ही पड़ा । वह सौम्यमूति स्थिर और शान्तभाव से अपनी प्राण प्रिया गुणमाला को धंयें बंधा, आश्वासन देते हए कहने लगा fuो मनिता और शोक छोड़ो। तुम्हें शात है कि प्राज सागर तट पर - - IASON C : ted M Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४] . [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छे: व्यापारी धवल सेठ प्राया है । वह रत्नव्यापारी है । उसी के जहाज में मेरी प्राणवल्लभा है । वह विद्याधर राजा की पुत्रो है । उसका नाम मदनमञ्जूषा है । वह मेरा कुल वृत्तान्त अच्छी तरह जानती है । यदि तुम्हें जानना ही है तो वहाँ जाओ और सब कुछ ज्ञात करलो। "डबते को तिनके का सहारा" कहावत के अनुसार गुणमाला अपने पतिदेव के मुखपङ्कज से मुनते ही अविलम्ब शिविका (पालको) में सवार हो गई । हत्यारों को प्रादेश दिया "मैं जब तक बापिस न पा जाऊँ तुम मेरे प्राणनाथ का प्रारीर भी स्पर्श नहीं करना ।" अति वेग से कुछ ही क्षरगों में शिविका सागर तट पर जा पहुँची, बैठे-बैठे ही उच्च स्वर से पुकारा, बहिन मदनमञ्जूषा आप कहाँ, हैं, किधर हैं ? शोन बोनिये, मेरा अजेण्ट कार्य है। आयो, अपना मुखकमल दिखाओ। शोकाकलित, दखात स्वर सुनकर मदनमजपा का सूखा घाव हरा हो गया । दुखिया ही दुखिया का दुःख समभ सकता है । समान दुःख होने पर उसकी सीमा भी बढ़ जाती है । पतिवियोग की पीड़ा से पीडित वह खेद-खिन्न विचारती है यह सन्तापित नारी कौन होगी ? खैर, जो हो पूछना चाहिए । यह विचार वह पोत मे बाहर पायी और अत्यन्त बिनम्र एवं शान्तभाव से उस अपरिचिता से आने का, अपने परिचय नामादि के जानने का कारण पूछा । गुणमाला ने अश्रुविगलित नयनों से उसकी ओर निहारा और मुखाकृति से ही अपने हृदय की टोस का उसे परिचय करा दिया । तथा गद्गद् कण्ठ बोलो, हे सखि, हे प्रियभागिनी ! अविलम्ब आप मुझे श्रीपालकन्त का कुलक्रम बताओ । मेरे पतिदेव की जाति-वंश क्या है ? शीघबताओं हे बहिन ! मदनमजा , यदि मेरे वापिस लौट ने में विलम्ब हुआ तो न जाने प्रियकान्त का क्या होगा ? अतः आप शीघ्र ही आओ और मेरे पिता के समक्ष समस्त वृतान्त ययर्थ कहो। इस प्रत्याग्रह से चकित मदनमञ्जषा ने पूछा हे भगिनी ! यह श्रीपाल कौन है ? यहाँ कैपे माया ? कब आया ? जरा यह भी बतलाओं ? ||१४२ से १४६।। ततो नृपात्मजावादीतीयोऽम्बुधिमागतः । स्व भुजाभ्यामहं तस्मै दत्ता मज्जनकेन भो ॥१४७॥ अन्वयार्थ (ततः) मदनमञ्जूषा के पूछने पर (नृपात्मजा) राजपुत्री गुणमाला (अवादीत्) बोली (यः) जो (स्व) अपनी (भुजाभ्याम ) भजाओं से (अम्बुधिम् ) सागर को (तो.) तरकर (आगतः) पाया (भो) हे सखि ! (मत) मेरे (जनकेन) पिता ने (अहम्) मैं (तस्मै) उसके लिए (दत्ता) दे दी गई। ___ भावार्थ - श्रीपाल कौन है ? इस प्रकार पूछने पर वह राजपुत्री गुणमाला बोलो. सुनो बहिन, यह श्रीपाल स्वयं अपने हाथों से सागर को तैर कर आये थे। पूर्व में मुनि द्वारा भाषित वाणी के अनुसार मेरे पिता ने उसके साथ मेरा पाणिग्रहण संस्कार कर दिया । अत्यन्त वैभव और उत्साह से विवाह हो जाने पर उसे अपने भाण्डागार पद पर नियुक्त कर लिया। वदन्ति तस्य चाण्डालाश्चाण्डालिजातिकायतः । ततो भूपतिना दत्तो भूत्यानां मारणाय सः ॥१४॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [ ३२५ श्रन्वयार्थ - ( यतः ) क्योंकि ( चाण्डालाः ) चाण्डाल ( चाण्डालिम् ) चाण्डाल ( जातिकाम ) जाति का ( वदन्ति ) कहते हैं ( ततः ) इसलिए ( भूपतिना ) राजा ने (भृत्यानाम ) जल्लाद नौकरों को ( मारणाय) मारने के लिए (सः) उसे (दत्तः ) दे दिया | मावार्थ हे सखि ! क्या बताऊँ ! वही प्राश्चर्य की बात है कि चाण्डालों ने उसे अपनी जाति का बतलाया है। इसी से राजा ने रुष्ट होकर उसे मृत्यु दण्ड दिया है। इस समय बह जल्लादों के हाथों में है । यदि विलम्ब होगा तो अपाय की संभावना है अस्तु, आप शीघ्र ही उनका कुल कम कहो क्योंकि - - ।। १४८ ।। मया गत्वा ग्रहेणैव पुष्टः कुलमसौ ततः । त्वत्पार्श्वे प्रेषिता तेनाहं पृष्टुं स्व कुलक्रमम् ॥ १४६॥ श्रन्वयार्थ - ( मया ) मैंने (गत्वा) जाकर ( श्राग्रहेण ) आग्रह पूर्वक (एव) ही (असौ ) उसका (कुलम ) कुल ( पृष्ट: ) पूछा ( ततः ) इसलिए ( तेन ) उन्होंने - श्रीपाल ने ( स्वकुलक्रमम् ) अपनी कुल परम्परा ( पृष्ट म ) पूछने के लिए ( त्वत्पार्श्वे ) तुम्हारे निकट ( अहम ) मैं ( प्रषिता ) भेजी हूँ । भावार्थ - राजा द्वारा अकस्मात् बिना विचारे दण्ड देने पर मैं ज्ञात होते ही दौड़कर वहाँ पहुँची। मैंने अपने प्राणेश्वर से अपना कुलक्रम निरूपण करने का अत्याग्रह किया। मेरे हठ पूर्वक प्रार्थना करने पर उन्होंने स्वयं अपना परिचय न देकर आपके पास मुझे भेजा है । अब आप ही प्रमाण हैं आपके हाथ मेरा सौभाग्य या दुर्भाग्य है । आप शीघ्र यथार्थ कुलकम बताकर सनका सन्देह दूर करो ॥१४६॥ जग मदनमञ्जूषा शीघ्रमागच्छ सुन्दरी । राजानं दर्शय त्वं मे तवसे तत् कुलादिकम् ॥। १५० ।। वक्ष्येऽहं तत्समाकर्ण्य सा नीता गुरणमालया । तत्र राजा यदत्पुत्रि कोऽयमस्य कुलं किमु || १५१ ॥ अन्वयार्थ - गुणमाला से पति के प्राणदण्ड की वार्ता सुन मदनमञ्जूषा व्याकुल हो बोली - ( मदनमञ्जूषा ) मदनमञ्जूषा ( जग्री) बोली (सुन्दरी) हे सुन्दरी (शीघ्र ) शीघ्र ही ( आगच्छ ) आओ, (म्) तुम (मे) मुझे ( राजानम्) राजा को (दुर्शय) दिखाश्रो ( तद् ) उसके ( अ ) सामने ( तत) उसकी ( कुलादिकम् ) कुलपरम्परा को ( अहम् ) मैं (वक्ष्ये ) कहूँगी ( तत्समाकर्ण्य ) इस प्रकार सुनकर ( गुणमालया ) गुणमाला ने (सा) उसको (नीला) लाया गया (तत्र) वहाँ थाने पर (राजा) राजा ( अवदत् ) बोला, (पुत्रि ! ) हे बेटी बताओ (अपम्) यह (कः ) कौन है ? (अस्य) इसका ( कुलम् ) कुल ( किमु ) क्या है ? Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SATTA [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद भावार्थ-मदनमञ्जूषा ने अपने पति का दुःखद समाचार सुन गुणमाला से कहा बहिन! शीघ्र चलो, आओ! मुझे जल्दी राजाका दर्शन करायो । मैं उनके समक्ष समस्त श्रीपाल का चरित्र वर्णन करूंगी। उसकी कुल वंश परपर क्या है लागी। इस प्रकार सुनते हो गुणमाला भी उसे साथ ले अविलम्ब राजदरबार में जा पहुँची । उस महासती, सौम्य, सुशीला, परम लावण्ययुक्त सती को देख राजा ने उसे सम्मान पूर्वक आसन दिया और सनम्र उससे पूछा कि हे पुत्रि, आप जानती हैं तो शीघ्र मुझे बताओ कि यह श्रीपाल कौन है ? इसका कुलश्रम क्या है ? ||१५० १५१।। AL सती मदनमञ्जूषा जगाद श्रृण भो प्रभो । सर्वं तस्यात्र वृत्तान्त कथयामि महात्मनः ॥१५२॥ अन्वयार्थ -(सती) साध्वी (मदनमञ्जूषा) मदनमञ्जूषा (जगाद) कहने लगी (भो) हे (प्रभो) नृपति ! (शृण) सुनिये (अत्र) अब (तस्य) उस (महात्मनः) महात्मा के (सर्वम्) सम्पूर्ण (वृत्तान्तम्) चारित्र को (कथयामि) कहती हूँ। भावार्थ भूपति द्वारा पूछे जाने पर महासती मदनमञ्जूषा ने कहा भो राजन्, आप शान्ति से सुनिये, मैं उस महापुरुष के सम्पूर्ण वृत्तान्त को कहती हूँ। आपको समझने में देर न लगेगो ॥१५२।। अनदेशेऽत्र चम्पायां सिंहसेन नरेश्वरः । कमलाविवती राजी तयोः पुत्रोऽयमुज्ज्वलः ॥१५३।। अन्वयार्थ--मदनमञ्जूषा श्रीपाल का परिचय दे रही है (अङ्गदेशे) अङ्गदेश में (चम्पायाम् ) चम्पापुरी में (नरेश्वरः) भूपति (सिंहसेन) सिंहसेन (राज्ञी) रानी (कमलावती) कमलावती (तयोः) उन दोनों के (अत्र) यहाँ (अयम्) यह श्रीपाल (उज्ज्वल:) निर्मलगुणो (पुत्रः) पुत्र है। मावार्थ-भरतक्षेत्र के अङ्गदेश है। इस देश में प्रसिद्ध चम्पापुरी नाम की नगरी है। इस नगरी का महान प्रतापी नीतिज्ञ सिंहसेन नाम का राजा था उसकी मुख्यमहिधी-पटरानी कमलावती हुयी । उन दोनों का यह महासुबुद्धि, निर्मल गुणी पुत्र श्रीपाल कोटिभट है।।१५३॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद । वाणिज्यार्थं समायातः श्रीपालोऽयं भटोत्तमः । रत्नद्वीपे जिनेन्द्राणां त्रैलोक्यतिलका ह्वये ।। १५४॥ चैत्यालये महावज्रकपाटोद्घाटने प्रभो । प्राप्त मत्सङ्गमो धोरो मद्रूपासक्त चेतसा ।। १५५॥ पापनाश्रेष्ठिना तेन क्षिप्तो घोरे महार्णवे । सुधीः स्वपुण्ययोगेन समुत्तीर्थ महार्णवम् ॥ १५६ ॥ इहागत्य प्रभोनून' जमाताऽभवत्तराम् । श्रागतेन तेनाऽपि धवलेन दुरात्मना ।। १५७ ॥ महाकपटकूटेन मारणार्थं च साम्प्रतम् । एतद्विरूपकं देव ! सर्वच शृण प्रभो ।। १५८ ।। जिन सिद्ध महात्म्येन बालोऽयं हि सवामलः । चाण्डालः कथ्यते केन पापिष्ठेन प्रभी वद ।।१५।। [ ३२७ अन्वयार्थ - ( अयम् ) यह (भटोत्तमः ) बीरशिरोमणि ( श्रीपाल : ) श्रीपाल (वाणिज्यार्थम् ) व्यापार करने के लिए (रत्नद्वीपे ) रत्नद्वीप में ( समायातः ) श्राया ( तत्र ) वहाँ (त्रैलोक्य तिलकाह्वये) त्रैलोकतिलक नामक ( जिनेन्द्राणाम् ) जिन भगवान के ( चैत्यालये) सहस्कुट त्यालय में (प्रभो ) हे राजन् ( महावज्रकपाटोद्धाघने) अत्यन्त र वज्रकपाटों के खोलने पर ( श्रीर: ) इस धीर ने ( मत् ) मेरा ( सङ्गमः ) सङ्गम मुझे पत्निरूप में ( प्राप्तः ) प्राप्त किया, पुन: ( तेन) उस ( मपासक्त ) मेरे सौन्दर्य से प्रासक्त ( चेतसा ) चिंत्त हुए (पापिना) पापी (श्रेष्ठ) धवल सेठ ने (घोरे ) भयङ्कर ( महारांबे) विशाल सागर में (क्षिप्तः ) गिरादिया (स्व) अपने (पुण्ययोगेन) पुण्यकर्मोदय में ( सुधीः ) बुद्धिमान ( महारणवम् ) महासागर को (समुत्तीर्य) पारकर तैरकर ( इह ) यहाँ ( आगत्य ) आकर ( प्रभो ! ) हे भूपेन्द्र ( नूनम् ) निश्चय ही (ते) श्रापका ( जामाता ) जँवाई (अभक्तराम् ) हुआ है यह निश्चय समझो किन्तु (अ) यहाँ (अपि) भी ( श्रागतेन ) आये हुए (तेन) उस (दुरात्मना ) निद्यात्मा ( महाकपटकूटेन ) महाछल की खान ( धवलेन ) धवलं सेठ पापी ने (च) और भी ( साम्प्रतम् ) इस समय ( मारणार्थम्) उसे मार डालने के लिए ( एतत् ) यह ( सर्वम् ) सम्पूर्ण ( विरूपकम् ) कपट स्वांग(च) रचा है (देव! ) हे प्रजापालक ( प्रभो । हे राजन् (शृण) सुनो, (अयम ) यह ( बाल: ) कुमार ( जिनसिद्ध माहात्म्येन) जितभगवान और सिद्धच पूजा के महा प्रभाव से ( सदा ) सतत (अनलः ) पवित्र निरोग है ( प्रभो ) हे राजन् (केन) किस ( पापिष्टेन ) पापात्मा ने ( चाण्डालः) चाण्डाल ( कथ्यते ) कहा है ? ( वद ) मुझसे कहो तो ? भावार्थ - मदनमञ्जूषा आगे वर्णन करती है कि यह महाभाग, वीराणी, सुभटशिरोमणि श्रीपाल रत्न व्यापार करने के लिए रत्नद्वीप में आये थे । वहाँ के उद्यान में त्रैलोक्य Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८1 [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद तिलक नामका सहस्रकूट जिनालय था। उसके वज्रमयी किशड जड़े थे। जिन्हें स्त्रोलने में कोई समर्थ न था। दिगम्बर ज्ञानी मुनिराज के प्रादेशानुसार मेरे पिताने वहाँ अपने सेवक स्थापित कर दिये थे । इस वीरशिरोमणि ने यहां आकर उस अनेक वर्षो से बन्द अति मनोहर जिनभवन के द्वार सहज ही में खोल दिये । सेवकों द्वारा यह वृतान्त ज्ञात कर मेरा पिता राजा स्वयं अविलम्ब वहाँ आया और ससम्मान श्रीपाला को नगर प्रवेश करा यथायोग्य विधि से मेरा विवाह उसके साथ कर दिया । मैं सानन्द पोत में सवार हुयी। मेरे पतिदेव श्रीपाल दयालु जिनधर्म सेवी जिनसिद्ध भक्त सरलाचित थे । कुछ समय बाद एक दिन इस कवला धबला सेठ की दृष्टि मुझ पर पडीसीन रूपन्नासर के प्रमोशन करने में असमर्थ कामी प्रासक्त हो गया। उसी पापी ने कपट से कोटिभटः श्रीपाल को सागर में गिराया। मेरा शोल जिनशासनवत्सला पद्मावती आदि देवियों और क्षेत्रपालादि देवों द्वारा रक्षित किया गया। उनके भय से यह दुष्ट मेरा बाल बाँका न कर सका । हे राजन् ! हे देव ! अपने पुण्य. प्रताप से यह श्रीपाला स्वयं महाभीषण सागर को तैर कर यहाँ पाया है । हे भूप ! निश्चय ही यहाँ पाकर यह आपका जवाई बना है। यह महागङ्गाजल सदृश निर्मल है । जिन और सिद्धभक्ति से सदा पवित्र है महा उज्ज्वल गुणगणमण्डित है । इस समय उस पापी, दुराचारी, महाकपटी, दम्भी दुरात्मा घवल सेठ के पोत यहाँ आये हैं । यहाँ पाकर भी इस पापी ने अपना कपट जाल फैलाया है । यह विरूपक-नटों का षडयन्त्र सम्पूर्ण उसी दैत्य की करतूत है हे राजन् पाप निश्चय समझो । इस महामना को कौन चाण्डाल कहता है जरा मुझे बताओ तो ? आप कहिये वह कौन पापी है जो भाण्ड कह कर स्वयं नरकगामी होना चाहता है ।।१५६से १६०।। तदा श्रवणमात्रेण स भूपो धनपालथान् । नष्ट सन्देह सन्दोहः शीघ्रमुत्थाय सज्जनः ॥१६॥ साद्ध तत्र समागत्य श्मशाने भूरिभीतिदे ।। श्रीपालस्याग्रतः स्थित्वा प्राञ्जलिः प्राह भो स्फुधीः ॥१६२॥ ग्रहो श्रीपाल भूपाल जिनाज्ञापाल भूतले । मया चाज्ञानिना तीवपीडितोऽसि भटोत्तमः ॥१६३।। चाण्डालबञ्चितेनोच्च वं क्षमाकर्तुमर्हसि । यतस्सन्तो भवन्त्येव पीडितानां हितङ्कराः ।।१६४॥ प्रन्ययार्थ-तदा) तब (श्रवणमात्रेण) मदनमञ्जूषा के मुखारविन्द से श्रीपाल का सच्चा वृत्तान्त सुनते ही (स) वह (धनपालः) धनपाल (भूपः) राजा सन्देह) शङ्का (सन्दोहः) समूह से (नष्ट:) रहित हुआ (शीघ्रम्) तत्काल (उत्थाय) उठकर (सज्जनः ) सत्पुरुषों के माथ (साम) साथ (तत्र) वहाँ (भूरिभीतिदे) भयङ्कर भयोत्पादक (मशाने) श्मशान में (समागत्य) आकर (प्रालिः ) हाथ जोड (श्रीपालस्याग्रतः) श्रीपाल के आगे (स्थित्वा) खडा होकर (प्राह) बोला (भो) हे (सुधी:) बुद्धिमन (भूतले) संसार में आप (जिन प्राज्ञा Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२६ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] पाल:) जिनेश्वर की याज्ञा पालक हो (अहो) भो (भूपाल) पृथ्वीपति (श्रीपाल) श्रीपाल (भटोत्तमः) श्रेष्ठतमभर आप (मया) मुझ से (अज्ञानिना) अज्ञानता से (तीवम् ) अत्यन्त (पीडितः) पीडित (असि) हुए हो (च) और (चाण्डालः) चाण्डालों द्वारा (वञ्चितेन) ठगे गये (माम् । मुझे (त्वम्) आप (उच्चैः) विशेषरूप से (क्षमा) क्षमा (कुत्तु म्) करने को (अर्हसि) समर्थ हो (यतः) क्योंकि (सन्तः) सत्पुरूष (पीडितानाम्) दुखियों के ( हितकरा) हित करने वाले (एवं) ही (भवन्ति) होते हैं। भावार्थ-गुणमाला महासती पतिवियोग की आशङ्का से अातुर हो अतिशीघ्र मदनमञ्जूषा (मदनमषा ) को लेकर पायी । उसने अपने पति काटिभट श्रीपाल के कुल, वंश की पवित्रता और शुद्धता का पूर्ण यथार्थ परिचय दे दिया। जिसके सुनने मात्र से महाराज धनपाल का सन्देह दूर हो गया । अज्ञानवश उत्पन्न क्रोध रफूचक्कर हो गया। यही नहीं उसके स्थान, पर आपचर्य भरा पश्चात्ताप और लज्जा जाग्रत हो गयी । कोप के स्थान पर भय से कम्पन होने लगा। धैर्य हवा हो गया। दूसरे ही क्षरण, नंगे पर दौडता हुआ राजा अपने सत्पुरुषों साथियों के साथ श्मशान में या पहुंचा । श्रीपाल की अोर दृष्टि जाते हो लोट पायी और पलों के साथ गर्दन भी जमीन में जा लगी। मानों अपना मुख दिखाना ही नहीं चाहता हो । पर करे क्या ? मरना भी तो आसान नहीं है ? दैन्यभाव जागा कराजुलि जोड मस्तक नवाकर श्रोपाल के सम्मुख खडा होकर बोला "हे प्राज्ञ ! भो श्रीपाल ! संसार में आपके सदृश जिनभक्त. जिनशासन वत्सल अन्य कोई नहीं है, भो श्रीमन् आप जिनेश्वर की आज्ञा पालन में पटु और पुर्ण समर्थ हैं । जिनभक्त परोपकारी, दयालु और सर्वप्राणियों का रक्षक होता है । वह शत्रु-मित्र को समभाव मे ही देखता है। हे भटोत्तम ! मृझ अज्ञानी ने आप निरपराध को महान पीडा पईचाई है, मैं दुर्बुद्धि हूँ। इन धूर्त चाण्डालों ने मुझे ठग लिया है। इनसे वञ्चित होकर ही मुझसे यह अपराध हो गया है यद्यपि यह अक्षम्य है तो भी आप जैसे महान भाव द्वारा क्षम्य ही है क्योंकि अमृत का कितना ही मन्थन किया जाय, वह अपने सुख कर स्वभाव को नहीं छोडता, उसी प्रकार सज्जन दर्जनों द्वारा कितना ही पोडित किया जाय परन्तु वह अपने उदात्त क्षमागुण से चलित नहीं होता । पाप क्षमाशील हैं, उदार मनस्वी हैं, अपने समस्त अज्ञान जन्य अपराधों को क्षमा करने में समर्थ हैं । "क्षमावीरस्य भूषणम् ।" पाप वीरों के वीर हैं धयोंकि क्षमा के सागर हैं । मैं पुनः पुनः अपनी भूल के लिए क्षमाप्रार्थी आप अवश्य ही क्षमा करें ।।१६१ से १६३।। randir HAND Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद श्रीपालोऽपि तदा प्राह क्षण भूप मदोरितम् । श्रहं कोटिभो सीके नो शक्यो बाधितुं परैः ॥ १६४॥ ग्रन्वयार्थ - ( तदा ) राजा की प्रार्थना सुन, तब ( श्रीपाल : ) कोटिभट श्रीपाल (अपि) भी ( प्राह ) बोले ( भूप ! ) नरेन्द्र ! ( मत्) मेरा ( ईरितम् ) कथन ( श्रृण) सुनो, ( अहम् ) मैं (कोटिभटः ) कोटिभट हूँ ( लोके) संसार में (पर: ) अन्य किन्हीं के द्वारा (बाधितुम् ) बाधित होने में (नो - शक्यः ) समर्थ नहीं । मावार्थ - महाराज धनपाल को भयातुर और विनम्र देखकर कोटिभट श्रीपाल अपने सुर से बोला, हे भूपेन्द्र ! मेरा कथन सुनो, मैं कोटिभट हूँ । एक करोड़ महान वीरों को हाथ के चपेटों से मार भगा सकता हूँ। आप मुझे क्या बांध सकते हैं? मैं यहाँ यह बन्धन में दीख रहा हूँ यह मेरा कौतूहल मात्र है। मैं भाग्य की विडम्बना का नाटक देखने को यह सब कर रहा था ।। १६४।। सुनो--- किन्तु कर्मोदयं राजन् विनोदेन विलोकयन् । तूष्णीं स्थितो महाभाग किं पुनर्भूरि जल्पनः ॥ १६५॥ अन्वयार्थ ( राजन् ) हे पृथ्वीधर ! (किन्तु ) लेकिन ( महाभाग) भो महाभाग्यशालिन् (कर्मोदयम्) कम के उदय को ( विनोदेन ) कौतूहल से ( विलोकयन् ) देखते हुए ( तुष्णों) मौन से ( स्थितः ) बैठा ( भूरिजल्पनः ) अधिक कहने से (पुनः) फिर ( किम् ) क्या ? भावार्थ - श्रीपाल कह रहा है कि हे राजन् है महाभाग ! मैंने आपका प्रतीकार नहीं किया। आपके दण्ड को सहर्ष स्वीकार कर लिया, इसका अभिप्राय यह नहीं कि मैं असमर्थ था, प्रयोग्य था या नोच कुलोत्पन्न था, किन्तु उसका अभिप्राय मात्र इतना ही था कि मैं भाग्योदय के नृत्य को विनोद से देखना चाहता था । कर्म सूत्रधार क्या-क्या नाटक करता है। यह भी कौतूहल देखना चाहिए। अधिक कहने से क्या ? जो जो बन्धन मेरे शरीर पर हैं वे सब मेरी इच्छा से हैं तुम और ये तुम्हारे सेवक बेचारे क्या कर सकते थे ? तुम महामूढाधिराज हो ।। १६५ ।। पुनर्वीराग्रणीराह राजंस्त्वं मुग्ध मानसः । सद्विचारं न जानासि लक्षणं च नृपात्मजाम् ।। १६६ ।। श्रन्वयार्थ - - (पुनः) फिर ( वोरामणीः ) बोर गिरोमणि (ग्रह) बोला ( राजन् ) हे राजा ( त्वम् ) तुम ( मुग्धमानसः) मूढ - विचार शून्य हो. (सत् ) श्रेष्ठ ( विचारम) विचार को ( न जानासि ) नहीं जानते हो (च) और (नृपात्मजाम ) राजकुलोत्पन्न राजकुमारों के ( लक्षग्राम) लक्षणों को भो ( न जानासि ) नहीं जानते हो । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [ ३३१ मन्यते सागरं योऽत्र महान्तं गोष्पद प्रमम् । स कथं कुलहीनः स्याद् विचारो न त्वया वृतः ।।१६७॥ के टिभटेऽहमेकाकी जेतु कोटिभटान् क्षमः । स्वभटानादिशाद्यैव दर्शयामि स्वपौरुषम् ॥१६८।। अन्वयार्थ-- (यः) जो (अत्र) यहाँ (सागरम ) समुद्र को (गोष्पद प्रमम ) गाय के खुर के बराबर (मन्यते) मानता है (स) वह (कथम ) कैसे (कुलहीन;) नीचकूली (स्यात्) होगा (न) नहीं (स्वया) तुमने (विचार:) विचार (कृतः) किया गया (अहम ) मैं (एकाकी) अकेला (कोटिभटः) कोटिभट (कोटिभटान्) करोड सुभटों को (जेतुम ) जीतने में (क्षम:) समर्थ हुँ (अद्यः) आज (एव) ही (स्वभटान्) अपने वीरों को (आदिश) यादेश दो (स्व पौरुषम ) अपना पुरुषार्थ (दर्शयामि) दिखाता हूँ। भावार्थ- पुनः श्रीपाल न्यायोचित एवं उदात्त वाणी में कहने लगे. हे राजन् पाप विवेक शून्य हैं, मूढ़ और अज्ञानी हैं । सद्विचार शक्ति मानों पाप से रूठ गई है। साधारण मनुष्य जैसी भी आप में तकणा बुद्धि नहीं प्रतीत होती राजा होकर राजवंशी को पहिचान नहीं तुम्हें ? राज-सुत के लक्षण कैसे होते हैं यह सोचने का भी तुमने कष्ट नहीं किया ? क्या यह बुद्धिमत्ता है । राजपुत्र में कौन-कौन सा वैशिष्ट्र हो सकता है यह तो सोचना था ? जो व्यक्ति अगाध, असीम सागर को गाय के खर से बने गडढे के समान मानता है, भला वह नीच कुलीन हो सकता है ? वह चाण्डाल कुल में उत्पन्न कैसे हो सकता है ? यह भी विचार तुम न कर सके ? तुम क्या समझते हो मुझे ? मैं कोटिभट हूँ । अकेला ही एक करोड महावीर सुभटों को क्षणमात्र में जोतने की क्षमता रखता हूँ। मुझे कौन जीतने में समर्थ है ? ये बेचारे अनाथ तेरे सेवक मेरा बाल भी बांका कर सकते हैं क्या ? ये क्या मुझे बांध सकते हैं ? ये बन्धन मेरे लिए जली रस्सी के समान है, लो देख लो इसकी ताकत । तुम्हारे कितने बीर हैं, योद्धा हैं सबको बुलाओ उन सबको एक साथ मेरे ऊपर आक्रमण करने का आदेश दो, आज ही मैं तुम्हें अपना पौरुष दिखाता हूँ। भले प्रकार अपना परिचय देता हूँ उन्हें मच्छर के समान उडाकर । क्या धूल के उडने से सूर्य का प्रकाश रोका जा सकता है ! कदापि नहीं । फिर तुम राजा होकर भी इस राजसत्त्व को न समझ सके ? ठीक है अब रणाङ्गण में ही मेरा जाति कुल वंश सब तुम्हें समझ में भा जायेगा समझे. १ ।।१६६ से १६८।। धनपालोऽवदद्वाजा त्वं महान्मन्दरादपि । गम्भीरः सागराच्चापि क्षमासारः क्षमागुरपः ।।१६६॥ शीललीला प्रवाहेन जितः सिन्धुरपि त्वया सत्कुलेन कलङ्काङ्गी चन्द्रश्चाऽपि तिरस्कृतः ।। १७०॥ श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्राणां चरणार्चन कोविदः । त्वमेव सत्पात्रदानेन द्वितीयोऽवादि दानकृत् ।।१७१।। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] [ धोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छे परोपकार सद्रत्न रोहणाद्रिस्त्वमेव हि । चारु सौभाग्य सन्दोह स्सुधीः सन्मान्य भक्तितः ॥ १७२ ॥ कृपां विधाय भो भव्य ! समागच्छ पुरं सुधीः । मत् कृताघरजोराशि क्षालनाय क्षमाजलः ।। १७३ ।। इत्यादि मधुरैर्वाक्यं श्रीपालं नृपं सदा । कारयित्वा क्षमां गाढं विनयेन महोत्सवैः ।। १४७।। वस्त्राभरणसन्दोहैः सुधीः सम्मान्य भक्तितः । मत्तमातङ्गमारोप्य जय कोलाहल निस्वनः ॥१७५॥ चलच्चामर सच्छत्र ध्वजाद्यैः परिमण्डितम् । नानावादित्र सन्नादैर्दानमानादिभिस्तराम् ॥१७६।। समानीय पुरं रम्यं गृहे संस्थाप्य सादरम् । पुनः स्त्रीयुग्मसंयुक्त रत्नाद्यैस्समपूजयेत् ॥ १७७॥ अन्वयार्थ -- ( धनपालः) धनपाल (राजा) नृपति (अवदल) बोला, (त्वम् ) आप ( मन्दरादपि ) मेहपर्वत से भी अधिक ( महान् ) महान ( सागरान् ) समुद्र से (अपि) भी अधिक ( गम्भीर : ) गहरे (क्षमागुणैः) क्षमादि गुणों से ( क्षमासार : ) क्षमा के आधार स्तम्भ हो ( स्वया) तुमने (शील ) ब्रह्मचर्य के ( प्रवाहेन ) प्रवाह धारा से (सिन्धुः ) सागर को (अपि) भी ( जित : ) जीत लिया, ( सहकुलेन ) उत्तम, निर्दोष कुल से ( कलङ्क ) कलङ्की (ङ्गी) शरीर वाले ( चन्द्रः ) चन्द्रमा को (अ) भी तिरस्कृतः ) पराभूत कर दिया. (श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्राणाम) उभयलक्ष्मी के ईए जिनेन्द्र प्रभुओं के ( चरणार्चन ) चरण कमलों की करने पूजा मैं ( कोविदः ) वतुर - निष्णात तथा ( त्वम् ) आप (एव) ही (सत्तावदानेन ) उत्तम - मध्यमन्य पात्रों को दान देने से ( द्वितीयः ) दुसरे नम्बर के ( दानकृन ) दान करने वाले (अवादि ) कहे गये हो, (परोपकारसलरोहणः) पर का उपकार रूपी उत्तम रत्न के उल करने वाले (हि) निश्चय से ( त्वम् ) आप (एव) ही ( अद्रिः ) पर्वत हो, इस प्रकार ( सुधीः ) श्रीपाल विर को ( भक्तितः ) भक्ति से ( सन्मान्य) सम्मानित कर, ( भो ) बोला कि हे (मुधी:) विदाम्बर! ( भव्य ) भव्य ( कृपाम् ) अनुग्रह ( विधाय ) करके ( मन ) मेरी (कृन) की गई (घ) पाप (रजोराशि) रूपी धूलि समूह को (क्षभाजलैः । क्षमारूपी जल मे ( क्षालनाय) धोने के लिए (पुरम् ) नगर-पुर में ( समागच्छ ) आइये ( इत्यादि) इसी प्रकार अन्य भो (मधुर) मीठ वचनों से (तम् ) उस ( थोपलम् ) श्रीपाल (नृपम् ) राजा को (सदा) सर्वथा (गाई) प्रत्यन्त (क्षमांम) क्षमा ( कारयित्वा करवाकर (विनयेन) विनय पूर्वक (वस्त्राभरणसन्दोहैः ) नाना प्रकार उत्तमोत्तम वस्त्राभूषणों से ( सुधीः ) तस्बन श्रीपाल की ( भक्तितः ) भक्ति से ( सम्मान्य) सम्मानित कर ( मत्तमातङ्गम) उन्मत्तगजराज पत्र (आरोग्य) Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] पारोहन कर महोत्सव.) महान उत्सव पूर्वक, (अपि) और भी (जय कोलाहल ) जय-जय घोष (निस्वनः) ध्वनि के साथ (चजच्चामर) चञ्चल चमर दोरते, (सच्छत्रध्वजाद्य :) उत्तम छत्र, पताकामा से (परिमण्डितम) परिवेष्टिा कर (नानाबादिन) अनेकों बाजों के (सन्नादै: मधर शब्दों से सहित (तराम) विविध (दानसम्मानभिः) दान और सम्मान सहित (रम्यम ) सुसज्जित (पुर) द्वीप में (समानीय) ससम्मान लाकर (सादरम् ) आदर सहित (गृहे। घर में (संस्थाय) विराजमान कर पुनः। कर (नामसंयुक्तम्) दोनों पत्नियों सहित (रत्नाद्य ) रत्नादि द्वारा (समपूजयत्) सम्मानित किया । ___ भावार्य-धनपाल महाराज श्रीपाल से क्षमा कराते हुए उनकी प्रशंसा करते हैं हे प्रभो, आप सुमेरुपर्वत से भी अधिक उन्नत, महामना, स्थिर और गम्भीर हैं। सागर से भी अधिक उदार, क्षमागुणों से परिपूर्ण क्षमा के सागर ही हूं। 1 प्रापका शीलसरोवर महान उज्ज्वल और निर्दोष है, शील सलिल प्रवाह से सिन्ध को भी तिरस्कृत कर दिया। आप कूल पूर्णत: शुद्ध और निर्दोष हैं । चन्द्रमा यद्यपि उज्ज्वल हैं, परन्तु उसके मध्य को कालिमा से स्वयं हो कल वानी है अर्थात् सदोष है किन्तु आपने अपने पाबन कुल से उसे भी लज्जित कर दिया है, पाप सज्जनों को आह्लाद उपजाने वाले, प्रानन्द करने वाले हो । सर्वोपकारी आपका जीवन अापके कुल की उत्तमता का प्रतीक है । आप श्रो जिनन्द्र भगवान के चरणों की पूजा में महा चतुर पण्डित हैं । अद्वितीय जिनभक्ति और जिनार्चना से सर्व विख्यात हैं । उत्तम-मध्यम, जघन्य पात्रों को सतत दान देने से प्राप द्वितीय दाता कहे जाते हैं । अर्थात् प्रथम श्रेयांश महाराज आहारदान पद्धति प्रारम्भकर दानतीर्थ के कता कहलाये और प्रापने उसी मार्ग का पोपण किया, अतः दूसरा नम्बर प्राप ही का आता है। पर्वत के उदर से अनेकों बहुमूल्य, अमोघ रत्नों की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार आप से भी परोपकार नीति, क्षमा, दया आदि अनेकों गुणरत्नों की उत्पत्ति हुयी है, हो रही है। इस प्रकार सुन्दर, मनोरम, सौभाग्यवर्द्धक शब्द समूहों से सम्मान्य करके भक्ति पूर्वक उस परम गुणमण्डित श्रीपाल को प्रार्थना की कि हे भव्योत्तम मुझ पर कृपा करो, हे उदारमना ! हे क्षमाशील ! मेरे अपराधरूपी पापसमूह रूप धूली को क्षमारूपी जल से प्रक्षालित करने हेतु मेरे नगर में प्रवेश कीजिये। आप ही मेरे इस घनघोर भ्रम रूप मिथ्यानपान्धकार को नाश करने के लिए ज्ञानसूर्य हैं। इस प्रकार अनेक प्रकार के समधर कोमल, विनय भक्तियुत वाक्यों से क्षमा कराई । अत्यन्त गाढ प्रीति से सतत विनम्र प्रार्थना से उसे प्रसन्न किया । इस प्रकार क्षमा कराकर, नानाप्रकार के अनेकों प्रकार के वस्त्राभूषणों से अत्यन्त सम्मानित कर उत्तुङ्ग गजपर प्रारूत कर नाना प्रकार जय-जय घोष शब्द करते हए, चञ्चलचमर, उज्जवल छत्र, ध्वजादि से मण्डित कर, नानाप्रकार के वादित्रों की ध्वनि के साथ, अनेकों प्रकार के दान-सम्मान आदि सहित लाया । अत्यन्त रमणोक सुसज्जित पुर में लाकर, उच्चस्थान पर विराजमान कर पुनः दोनों पत्नियों सहित उसकी पूजा की, सम्मान किया ।।१६६ से १७७।। एवं सदा स्वपुण्येन स श्रीपालो भटोत्तमः । राजादिभिस्समभ्यय॑ यससा व्याप्तदिड्.मुखः ॥१७८।। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छे सजातो भो महाभय्याः सुपुण्यात्किं न जायते ? तस्मात् भव्यं सदाकार्यं सुपुण्यं परमादरात् ॥ १७६ ।। श्रन्वयार्थ -- ( एवं ) इस प्रकार ( स ) बह (श्रीपाल : ) श्रीपाल (भटोत्तमः) श्रेष्ठतम सुवीर ( स्वपुण्येन) अपने पुण्योदय से ( राजादिभिः ) राजा, मन्त्री, आदि द्वारा (समro) सम्यक् अर्चनीय होकर ( यससा) कीर्ति द्वारा (दिङ्मुखः ) दशों दिशाओं को (व्याप्तः ) करने वाला ( सञ्जात) हुआ, ( भो ) हे ( महाभव्याः ) महाभाग भव्योजनों! ( सुपुण्यात्) पुण्यानुबन्धी पुण्य से (कि) क्या ( न जायते) नहीं प्राप्त होता ? अर्थात् सब कुछ मिलता है ( तस्मात् ) इसलिए ( भव्यः ) भव्यजनों द्वारा ( परम ) अतिशय ( आदरात्) आवर से ( सदा ) निरन्तर (सुपुण्यम् ) शुभ रूपपुण्य ( कार्यम् ) करना चाहिए । भावार्थ यहां आचार्य श्री सम्यक्त्व पूर्वक पुण्यार्जित करने का फल बतलाने हुए उपदेश दे रहे हैं। देखो ! महाराज कोटिभट श्रीपाल वीराग्रणी तो था ही, किन्तु अपने निर्मल पुण्य से ही वह विपत्तियों से बाल-बाल बचता गया और राजा प्रजा सभी से सम्मानित पूज्य हुआ | आदर का पात्र वना यहीं नहीं उसका स्वच्छ निर्मल यश दशों दिशाओं में सर्वत्र व्याप्त हो गया । धवल कीति सर्वत्र व्याप्त हो भव्य प्राणियों को जाग्रत करने लगी। इसीलिए आचार्य श्री लिखते हैं कि हे भव्यात्मा सत्पुरुषों ! आप निश्चित समझो कि सम्यक्त्व पूर्वक उपार्जित पुण्य संसार का कारण कभी नहीं हो सकता, अपितु सांसारिक वैभव प्रदान कर परम्परा से मुक्ति का ही साधक बनता है इसलिए आप अत्यन्त उत्साह से, प्रयत्नपूर्वक आदर से उत्तम पुण्यार्जन करो। पुण्य स्वर्ग का सोपान तो साक्षात् है ही परम्परा से मोक्ष का भो कारण है साधक है । अतः पुण्यार्जन अवश्य करें ।। १७८ १७६ ।। पुण्यं श्रमज्जिनेन्द्राणां पादपद्मद्वयार्चनम् । पात्रदानं गुणाधानं व्रतं शीलोपदासकम् ।। १८०॥ तथा तत्र जगत्सार जैनधर्मप्रभावता । भव्यानां परमानन्ददायिनी समभूत्तराम् ॥१८१ ।। श्रन्वयार्थ - (श्रीमज्जिनेन्द्राणाम्) श्रीमज्जिनेन्द्रभगवान के ( पादपद्मद्वय ) चरणकमल युग्म की ( श्रर्चनम् ) पूजा ( पात्रदानम् ) सत्पात्रदान (गुणव्रत ) श्रेष्ठव्रतों का ( आधानम् ) धारण करना, ( शीलः) शीलाचार ( उपवासकम ) उपवास करना (तथा) तथा (तत्र ) उनके साथ ही (जगत्सार) संसार में सर्वोत्तम सारभूत ( जैनधर्मप्रभावना) जिनधर्म की प्रभावना करना ( भव्यानाम् ) भव्यजीवों को ( परमानन्ददायिनी ) उत्कृष्ट ग्रानन्द का दाता (पुण्याम् ) पुण्य (समभूत्तराम् ) ही होता है । अर्थात् यही पुण्य है । भावार्थ -- भव्यात्मा श्रावकों का पुण्य क्या है ? अथवा पुण्यार्जन का मार्ग क्या है। यह यहाँ स्पष्ट किया है । उभय लक्ष्मी के अधिपति श्रीपति श्रीजिनेन्द्र भगवान की पूजा करना, Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्य श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] [३३५ सामाधना में प्रवृत्त उत्तम अलि मनि अनगार. यति तथा आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिकादि उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों को दान देना पुण्य है । यहाँ कारण में कार्य का उपचार किया है। पूजा, दान पुण्यात्रव के कारण हैं यहाँ उन्हें ही पुण्य कहा है। इसके साथ ही पांच अणु व्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षाप्नतों का धारण करना, शीलवत पालन करना, उपवासादि करना संसार में सर्वोत्तम सारभूत जिनधर्म को प्रभावना करना अर्थात् विशेष पूजा, पञ्चकल्यागादि प्रतिष्ठाएँ, महाविधानादि द्वारा जिनशासन की वृद्धि करना, प्रकाशन करना कराना इत्यादि केहेत हैं साधन हैं। भव्यजीवों को ये क्रियाएँ परमानन्द प्रदान करने वाली होती हैं। अर्थात् परम्परा से मुक्तिदायिनी होती हैं। क्योंकि शुभपरिणामों के साथ साथ ये क्रियाएँ राग त्याग की कारण होने से बीतरागभाव को भी जाग्रत करती हैं जिससे संवर और निर्जरा भी होती है ।।१८० १८१।। अब पुनः कथा चलती है प्राक् श्रीमदनमञ्जूषा तदास्य चरणाम्बुजी। नत्था ह्य पाविशद्धत वचसासिने मुदा ॥१८२॥ अन्वयार्थ--(तदा) तब. राजा द्वारा सम्मानित होने पर (भत्तुं वचसा) पति की आज्ञानुसार (श्रीमदनमञ्जूषा) मदनमञ्जूषा (अस्य ) श्रीपाल के (चरणाम्बुजौ) दोनों चरणकमलों में (प्राक् ) पहले (मुदा) अानन्द से (नत्वा) नमस्कार करके (हिं) पुन: (असिने) आधं आसन पर (उपाविसत ) बैठ गयी । भावार्थ-- राजा ने दोनों पत्नियों सहित श्रीपाल का यथोचित आदर सत्कार किया। पुनः श्रीपाल को सिंहासन पर प्रारूट किया । तब श्रीपाल ने अपनो पूर्वपल्ली मदनमञ्जूषा से प्रेमपूर्वक अपने साथ बैठने का आदेश किया। पति वचनों के अनुसार उस पतिव्रता ने आमोद AN ५ . FEE: . . A Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद से प्रथम पतिदेव के चरणकमलद्वय में नमस्कार किया। प्रणाम कर विनम्र भाव से पुनः प्राधे प्रासन पर पतिदेव के समीप पासीन हुयी । सच है, बिनय कुलीनता की घोतक है । विनम्रमनुष्य अपने बड़प्पन का स्वयं हो प्रकाशक होता है ।।१८।। ततोऽन्योन्य वियोगोत्थां वर्ता निवद्यदम्पत्ती । प्रापतुः परमां प्रीति तौ सम्पूर्ण मनोरथौ ।।१८३॥ अन्वयार्थ --(ततो) तदनन्तर (आन्योन्य ) एक दूसरे को (वियोगोत्थाम वियोग से उत्पन्न हुयी (वार्ताम् ) वातों को (निवेद्य) कह कर (दम्पत्ती) दोनों पति पत्नी (सम्पूर्ण) सर्व (मनोर श्री मोरनों युक्त ) से दोनों लाम् । ॐा प्रीतिम) प्रेम को (प्रापतुः) प्राप्त हुए। भावार्थ-बिछ डे हुए दम्पत्ति संयोग प्राप्त कर हर्ष से विभोर हो गये । एक दूसरे ने आपस में अपने-अपने वियोग जन्य कष्टों का परिचय दिया। एक दसरे की व्यायाग्रा को ज्ञातकर एवं उनसे निवृत्ति प्राप्त कर वे दोनों ही अत्यन्त आनन्दित हुए। जिनका मनोरथ पूर्ण हो जाता है उसे भला प्रानन्द क्यों न होगा ? होगा ही। अत: जिनके सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण हो चुके वे परम सुख और सन्तोष को प्राप्त हुए, अर्थात् समस्त दुःख विस्मृत हो गये ।१८३ । इतिविघ्नवजं हत्वा श्रीपालः पुण्यपाकतः । भुञ्जमानः स्वभार्याभ्यां यावदास्ते परं सुखम् ।।१८४॥ अन्वयार्थ- (इति) इस प्रकार (विघ्नत्रजम ) विघ्नसमुह को (हत्वा) नाणकर (पुण्यपाकतः) पुण्योदय से (श्रीपालः) श्रीपालकोटिभट (स्वभार्याभ्याम् ) अपनी दोनों पत्नियों सहित (परम्) अत्यन्त (मुखम्) सुख (भुञ्जमानः) भोगता हुआ (पावन ) जब (प्रास्ते) स्थिर हुमा । भावार्थ -दोनों पत्नियों सहित श्रीपाल सूख पूर्वक विराजे । अपने विशेष पुण्योदय से समस्त विधनसमूह को नष्ट कर दिया । जीवन और भार्या दोनों का रक्षण हो गया । अब मिलन भी हो गया । इस प्रकार सांसारिक विषय सुखों को भोगता हुप्रा जब श्रीपाल कोटोभट निश्चिन्त हुआ कि उसी समय एक दूसरी घटना घटी। वह निम्न प्रकार है तावदाजा समाहूय मापारणैः श्रेष्ठिनं खलम् । इत्यदण्डयदेवादी कुण्डेण्मेध्यभृतेशुऽचौ ॥१५॥ मज्जनं तस्य पाणानामकारयत् क्रुधा पुनः । शिरोमुण्डनमारोहं खराणामप्यकारयत् ॥१६॥ ततोऽनि हस्तकर्यादि कत नस्तं च तस्समम् । हन्तुमारभते राजा कोपानल समन्वितः ।।१८७॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] अन्वयार्थ (तावत्) तब तक (राजा) राजा ने (मापाण ) उन चाण्डालों द्वारा (खलम्) मूर्ख (श्रेष्ठिनम् ) धबल सेठ को (समाहूय) बुलवाकर (अादी) प्रथम (अशुचौ) अपवित्र (अमेध्य) विष्टा (भूते) भरे (कुण्डे ) कुण्ड में (तस्य) उस सेठ का (पाणानाम् ) नटों का (मज्जनम् ) मज्जन-स्नान (अकारयत्) कराया जाय (पुनः) फिर (ऋथा) निर्दयता रो (शिरोमुण्डनम्) मूड मुडाना (स्वराणाम ) गधा (आरोहणम्) आरोहण (अपि) भी (अकारयत्) कराया जाय (ततः) तदनन्तर (तैः) उन दुष्ट नर्तकों (समम् ) के साथ (तम्) उस दुराचारी धवल के (अंधि) पैर (हस्त) हाथ (च) और (कर्णादि) कान आदि (कर्तनैः) काट कर मारना (इति) इस प्रकार (कोपानल) कोपरूपी पाग से (समन्वित:) सहित (राजा) नृपति ने (अदण्डयत्) दण्ड दिया (एवं) तथा (हन्तुम्) मारने को (आरभते) तैयार हुमा । भावार्थ-इधर राजा ने उन चाण्डालों को बुलवाया और साथ ही उस दुराचारी, मागी धवल होदा को भो । नगाग्नि से दाय रजा ने उन्हें अत्यन्त कठोर मृत्युदण्ड तो घोषित किया ही परन्तु यह दण्ड भयङ्कर यातनानों के साथ दिया जाय । अर्थात् प्रथम इन दुष्टों को विष्टा से पूरित गर्त में डुबाओ, पुनः शिर मुण्डन करा गधों पर चढानो, दोल वजाकर घुमायो फिर सबके हाथ-पैर कान, नाकादि प्रथक्-प्रथक अवयवों को कटवाना चाहिए । कोपानल से कम्पित गात जिसका, अरुण हो गई है याखं जिसकी ऐसे उस राजा न मारने को को और मारने वालों ने भी अपना कार्य कोलाहल के साथ प्रारम्भ कर दिया। चारों ओर भयङ्कर कोलाहल मच गया ।।१८५ से १८७।। तदा कोलाहलं श्रुत्वा, काहलादिकमुत्कटम् । श्रीपालस्सुदयालुत्वात् समागत्य महीपतिम् ।।१८।। अन्वयार्थ-(तदा) तब (कोलाहलम् ) शोर गुल (श्रुत्वा) सुनकर (काहलाादकम् ) झांझ आदि के (उत्कटम्) उच्चस्वर-पावाज को (श्रुत्वा ) सुनकर (सुदयालुत्दाद्) अनुकम्पा. भाव से (श्रीपालः) कोटीभट श्रीपाल (महीपतिम् ) राजा के पास (समागत्य) पाकर । जगौ धर्मपिता मेऽयं हन्यते न महीपते । इत्याग्रहेण तं शीघ्र श्रेष्ठिनं धवलं खलम् ॥१८॥ मोचयित्वा कृपाशूरः प्रेषयामासतत्पदम् । सत्यं सन्तः प्रकुर्वन्ति सर्वेषां सर्वतो हितम् ॥१६॥ अन्वयार्थ - (जगी) कहने लगा (महीपते ! ) भो भूपाल (अयम् ) यह धबल सेठ (मे) मेरा (धर्मपिता) धर्मपिता (न हन्यते) नहीं मारना चाहिए (इति) इस प्रकार (आग्रहेण) आग्रह कर (तम ) उस (स्थलम ) दुर्जन (धवलम.) धबल (अष्टिनम ) सेठ को Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _३३८] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद (शीघ्रम) शोघ्र ही ( मोचयित्वा ) छ डाकर ( कृपाशुर : ) दयालु वीर श्रीपाल ने (तत्पदम् ) उसके स्थान पर (प्रेषयामास ) भेज दिया (सत्यम ) ठोक ही है ( सन्तः ) सत्पुरुष ( सर्वेषाम | सभी का ( हितम) कल्याण (प्रकुर्वन्ति ) करते हैं । भावार्थ -- उन धोखेबाज प्रपञ्चियों को इस प्रकार अत्यन्त कडी सजा राजा ने घोषित की तो चारों ओर हल्ला-गुल्ला मच गया । हा हा कार होने लगा । राजदरबार गूंज उठा । इस कोलाहल को सुनते ही, कृपालु श्रीपाल ने इसका कारण पूछा। कारण ज्ञात होते हो उसका हृदय दया से श्राप्यायित हो गया । करुरणा की धारा फूट पडी । वह तत्काल ही घातकों के स्थल पर जा पहुँचा । पुनः भूपति के सन्निकट आकर अति याग्रह, विनय और आदर से कहने लगा, "हे! आ यह क्या कर रहे हैं" बाप जानते हैं ? यह धवल मेठ मेरा धर्मपिता है, इसका रक्षण करना मेरा धर्म है और आपका भी कर्तव्य है। आप इन्हें अविलम्ब छोड़ दें । यह ठीक है कि ये अपराघो है आपकी दृष्टि में महा दुर्जन है, फिर अहिसा धर्म का प्राण है । जीवरक्षा धर्मात्मा का प्रमुख कर्त्तव्य है अतः इन सभी निरपराधियों को आप छोड़ दें ।" इस प्रकार आग्रह पूर्वक उन्हें बन्धनमुक्त कराया उस वञ्चक घवल मेठ का शीघ्र ही सम्मानपूर्वक उसके साथियों के साथ उसके निवासस्थान को भेज दिया। नीति है कि "न मध्यमानेऽपि विषायऽमृतम् ।" अमृत को मथे जाने पर भी वह विषरूप नहीं होता, अपितु अपने ही स्वभाव में स्थिर रहता है । इसी प्रकार मनस्वी, उदार चेता, उत्तम मज्जन जन सताये जाने पर भो अपकारी का उपकार है। करते हैं ।। १८८ से १६० ।। एते वद्धाः किमर्थं भो चाण्डालाश्च वराका ये । भणित्वेति च तान् सर्वान्, मोचयित्वा गृहंगतः ।। १६१ ॥ अन्वयार्थ - (च) और ( भो ) हे नृप ( एते ) ये ( वराकाः ) बेचारे ( चाण्डलाः ) चाण्डाल ( किमर्थम् ) किस लिए ( ये ) ये ( बद्धाः ) बन्धन में डाले है । (इति) इस प्रकार ( भणित्वा ) कहकर ( तान् ) उन ( सर्वान् ) सबों को ( मोचयित्वा ) छुड़ा दिया (च) और (गृहम ) स्वयं घर ( गतः ) चला गया ।। १६१॥ भावार्थ - धवलसेठ को विसर्जन कर उसने चाण्डालों को बन्धन बद्ध देखा । उसका हृदय काँप उठा । अरे! राजन् इन बेचारे निरपराधों को क्यों सताते हो ? क्यों बन्धन मे डाला है ? तो नर्तक हैं, जो पैसा दे उसी को ग्राज्ञानुसार स्वांग रचते हैं। पेट के लिए वेचारे घर-घर दर-दर भटकते रहते हैं । दया के पात्र हैं। इस प्रकार कहकर उन सबको बन्धन मुक्त कर दिया। ठीक ही है "उन्नतं मानसं यस्य यशस्तस्य समुज्जवलम् ।" जिसका मन हृदय विशाल होता है उसका यश-कीर्तिलता गगनचुम्बी विस्तृत हो जाती है। इस उदार और करुणापूर्ण व्यवहार से श्रीपाल की यशवल्लरी ग्राकाश में लहराने लगी २११६१।१ ततो दिने द्वितीयेस श्रीपालोऽति दयान्वितः । धवल श्रेष्ठिनं दुष्टमामन्त्रय सपरिच्छदैः ।। १६२ ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] स्वगृहे विनयेनोच्चग्ने भोजयितुं मुदा । स्वयं च व्यजनेनोच्चश्चकारपवतं द्रुतम् ॥ १६३॥ वीक्ष्य तेन कृतां भक्त महतीं धवल मृतः । निहत्य स्वयमात्मानं तत्कालार्जित पापतः ॥ १६४॥ ततोऽ' त पाप पाकेन रौद्रध्यानेन पापधीः । सर्वदुःखाकरीभूतं सोऽगमत् नरकं वणिक् ॥ १६५॥ [३३६ प्रन्ययार्थ - ( ततः ) सबको बन्धन मुक्त कर ( द्वितीये) दूसरे (दिने ) दिन (अति) अत्यन्त ( दयान्वितः ) दयालु ( स ) उस ( श्रीपाल : ) श्रीपाल ने ( सपरिच्छदः) साथियों व परिवार सहित (दुष्टम् ) क्रूर ( धवल श्रेष्ठिनम् ) धवलसेठ को ( श्रामन्त्रय ) ग्रामन्त्रित करके (स्वगृद्दे) अपने घर पर ( विनयेन ) विनय पूर्वक (उच्च) अतिमान से ( भोजयितु' ) भोजन कराने के लिए (लग्ने) तैयार होने पर ( मुदा ) प्रसन्न हो (स्वयम् ) अपने आप (व्यजनेन ) पंखे से (उच्च) विशेष रूप से (च ) और (द्र तम ) वेग से ( पवनम् ) हवा ( चकार ) करने लगा, ( तेन ) श्रीगल द्वारा (कृताम् ) की गई ( महतीभ) महान ( भक्तिम् ) भक्ति को ( वीक्ष्य ) देखकर (घवलः) घवल सेठ ( प्रजित ) संचित (पापतः ) पाप से ( तत्काल ) उसी समय (स्वयम् ) अपने आप ( श्रात्मानम ) आत्मा को ( निहत्य) नाशकर ( मृतः ) मर गया (ततः) इसलिए (पापधोः) दुर्बुद्धि पापो ( प्रति) अत्यन्त ( पापपाकेन ) पापोदय से (रोद्रध्यानेन व्यान द्वारा (सर्वदुःखाकरीभूतम) सर्वप्रकार के दुःखों को करने वाले ( नरकम् ) नरक को (सः) वह ( वणिक् ) वैश्य धवल ( आगमत् ) चला गया । 1 भाषार्थ - उदार चेता, कर्त्तव्यनिष्ठ कोटीभट श्रीपाल ने दूसरे दिन धवल सेठ को निमन्त्रण दिया । उसके साथी-संगी स्वजन परजन सभी को भोजन का आमन्त्रण दिया । प्रीतिभोज को महामोद से बुलाया । कितनी विचित्र बात है एक ओर महा र पापी दुराचारी और दूसरी ओर परम दयालु, नीतिज्ञ, विनयी ? अधर्म और धर्म जा सामंजस्य भला कैसे हो ? हुआ क्या ? श्रीपाल राजा ने नाना प्रकार सुन्दर, सुस्वादु शुद्ध व्यञ्जन तैयार कराये । अत्यन्त अनुराग से सेठ को सपरिवार बुलाया, उच्च श्रासन दिया। प्रेमालाप किया । पुनः यथायोग्य स्थान पर भोजन कराने को ले गया । शान्ति से बिठाया ! भोजन करने लगा । स्वयं श्रीपाल महाराज पंखा लेकर तेजी से हवा करने लगा । पिता तुल्य वृद्ध वणिक राजा को किसी प्रकार आकुलता न हो इस प्रकार की सेवा में तत्पर हुआ । परन्तु हुआ क्या श्रीपाल के इस विनम्र व्यवहार' भक्तिसंचार से पापी धवल सेठ का हाल-बेहाल हो गया । ठीक ही है सूर्य को देखकर सारी प्रकृति प्रफुल्ल हो जाती है परन्तु उल्लू आँखें बन्द कर छप जाता है । अपने कुकर्म से उपार्जित पाप से अभिभूत हुया धवल सेठ स्वयं ही श्रात्मघात कर या मानसिक असह्य वेदना से अभिभूत हुआ सदा के लिए छप गया। अर्थात् मरण को प्राप्त हो गया । हिंसानन्दी ध्यान के फलस्वरूप पप बुद्धि असंख्य दुःखों का स्थान घार नरक में जा पड़ा। कमों 1 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद की लोला विचित्र है। परिणामों की शतरञ्ज जीवन रूपी मञ्च पर निरन्तर चलती रहती है। हार-जीत का कोन ठिकाना ? स्वयं जोव शुभाशुभ कर्म उपार्जित करता है और स्वयं ही उसका फल भो भोगता है । कहाँ सुविख्यात वणिक् पति और कहाँ दुःखों का सागर नरक ? हृदयगति रूक गई एक क्षण में षट्स पदार्थ रह गये जहाँ के तहाँ और मिल गई दुका राह । कितना प्रद्भुत है संसार ? ।। १६२ से १६५ ।। ग्रहो दुरात्मनां नूनं दुराचारेण नश्यति । इहामुत्र सुखं सर्वं ढौकन्ते दुःखराशयः ॥ १६६ ॥ अन्वयार्थ - ( अहो ) आश्चर्य है ( नूनम ) निश्चय ही ( दुराचारेण ) व्यभिचार रूप आचरण से ( दुरात्मनाम् ) दुर्जनों का ( इहामुत्र) इस लोक व परलोक का ( सर्वम) सम्पूर्ण ( मुखम् ) सुख ( नश्यति) नष्ट हो जाता है तथा ( दुःखराशयः) विविध विपत्ति समूह (ढोकन्ते) प्राप्त होते हैं । भावार्थ - महान आश्चर्य है कि दुराचार के द्वारा दुराचारियों के उभय लोक सम्बन्धी समस्त सुख हवा हो जाते हैं । उन पर सर्वत्र संकटों के बादल घिर प्राते हैं । अर्थात् जिधर जॉय उधर ही उन पर विपत्तियों गजब ढाहती हैं। एक क्षण भी सुख प्राप्त नहीं होता । बेचारे धनिक धवल सेठ दुर्बुद्धि के वश हुआ अत्याचार में पडा, दुराचार की भावना से अपने को नरकगामी बनाया। क्षण भर में कायापलट हो गई । जहाँ एक क्षण पूर्व महासुभट को ट भट शिर पर पंखा भल रहा था वहाँ दूसरे क्षण उसकी आत्मा शूलों की शैया पर असहाय संताप ज्वाला में झुलसने लगी । स्पर्शनेन्द्रिय लम्पट की यही दुर्दशा होती है। यह काम महा नीच ओर दुःखद है। जो इस मदनवेदना से पीडित हो अनधिकार चेष्टा करते हैं वे दुर्गति के पात्र होते ही हैं ।। १२६ ।। धिक् कार्म धिक् दुराचारं धिक् परस्त्री कुचिन्तनम् । येन प्राणी विमूढात्मा प्रयात्येवमधोगतिम् ॥ १६७॥ ततो भव्यः प्रकर्त्तव्यं परस्त्री संगमोज्झनम् । येन स्वर्गापवर्गीरू सम्पदां प्राप्यते सुखम् ।। १६८ ।। शुद्धात्मनां स्वभावेन नश्यन्ति विघ्न कोटयः । जायन्ते विश्वशर्माणि ह्यत्रामुत्र स्वयं शुभात ।।१६६॥ अन्वयार्थ - ( कामम् ) मदनपीडा की ( धिक् ) धिक्कार है ( दुराचारम) दुराचार को ( धिक् ) धिक्कार ( परस्त्री) परमारी ( कुचिन्तनम् ) की दुरभिलाषा को भी ( धिक् ) धिक्कार है ( येन ) जिसके द्वारा ( मूढात्मा ) दुर्बुद्धि (प्राणी) मनुष्य (अधोगतिम) दुर्गति को (एव) ही ( प्रयाति) जाता है । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपर - राजा द्वारा ढोंगो नर्तकों को सजा सुनाते हुए (देखें पृष्ठ ३३८ श्लोक १६०)नोचे - श्रीपाल अपनी वाकला का प्रदर्शन करते हुए (पृष्ठ ३४७ श्लोक ३ से १२ तक) Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] [३४१ मायार्थ आचार्य खेद प्रकट करते हैं कि संसार में कामदेव का मोहन मन्त्र सर्वत्र व्याप्त है । हरिहर, ब्रह्मा आदि को भी इसने परास्त कर दिया। यह महा ठग है बडे-बडे ऋषि, मुनि, त्यागी भी इसके चंगुल में फंस जाते हैं। इस काम को धिक्कार है। परस्त्री लम्पटी का तो कहना हो क्या है ये तो महाधिक्कार के पात्र हैं। परस्त्री सेवन के लोलुपियों को धिक्कार हैं। परनारी सेवक नियम से अधोगति के हो पात्र होते हैं। इसलिए भव्यजीवों को परस्त्री संभोग का सर्वथा त्याग करना ही चाहिए। जिससे स्वर्गादि सुख और वैभव प्राप्त होता है पुनः क्रम से मोक्षसुख की भी प्राप्ति होती हैं । मुक्ति प्राप्त जीव अनन्तकाल तक अनन्त सुख में निमग्न रहता है। जो जीव शुद्ध रूप परिणति करते हैं वे स्वभाव से करोड़ों विघ्नों का नाश कर देते हैं अर्थात् उनके करोड़ों संकट दूर हो जाते हैं । संसार में अनेकों सुख-शान्ति उन्हें प्राप्त होती है । उभय लोक में अपने आप ही नाना शुभफल प्राप्त हो जाते हैं । १६७ से १६६ । स श्रीपालस्तदा धीमान् तद् पदित्वा महीपतिम् । स्वकीयं धनमादाय सप्त पोतादिकं शुभम् ॥२००।। सांगि घाम पानामि तदा तालक सुनीतिवित् । प्राहिणोद्धगुकच्छाख्य पत्तनं धामिकाग्रणीः ॥२०१॥ स्वयं स्वपुण्यपाकेन तत्र श्रीवलवर्तने । राज्ञा प्रदत्त देशादि राज्यं प्रापप्रमोदतः ॥२०२॥ अन्वयार्थ----(तदा) घवल सेठ का हार्ट फेल होने पर (सः) वह (धीमान् ) बुद्धिमान श्रोपालः) श्रीपाल (महीपतिम् ) राजा को (तद्) वह वृत्तान्त (गदित्वा) विदित कर (शुभम ) शोभनीय (स्वकीयम् ) अपने (सप्त) सात (पोतादिकम् ) यान पात्रों भरे (धनम् ) धन को (आदाय) लेकर (तदा) तब (सुनीतिवित) सम्यक् नीतिज्ञ (धार्मिकाग्रणी:) धर्मामाओं में अग्र श्रेष्ठ उस श्रीपाल ने (तस्य) धवल सेठ के (सर्बाणि) सम्पूर्ण (यानपात्राणि) जहाजों को (भृगुकच्छाख्य) भृगुकच्छ नामक (पत्तनम्) नगर को (प्राणिोत ) भिजवा दिये (स्वयम् ) अपने स्वयं श्रीपाल (तत्र) वहीं (श्रीदलवर्तने) दलवर्तन द्वीप में (स्वपुण्यपाकेन) अपने पुण्योदय से (प्रमोदतः) आनन्द से (राज्ञा) राजा द्वारा (प्रदत्त) दिये गये (देशादि) देशों व (राज्यम् ) राज्य को (प्राप) प्राप्त किया। भावार्थ - धवल सेठ श्रीपाल की निर्मल, पवित्र विनय भक्ति से पानी-पानी हो गया । उसका हृदय इस सज्जनता का फल कैसे चखता ? शेरनी के दूध को सुवर्णपात्र ही धारण करने में समर्थ होता है । अत: उसका हृदय फेल हो गया । मरण को वरण कर सदा के लिए मुह छिपा लिया । श्रीपाल तन्त्रवित था । अत: समस्त घटना राजा को ज्ञात करा दो। उसको Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद अन्त्येष्टी आदि समस्त क्रिया सम्पन्न कर यान पात्रों को संभाला। वर्वर राजाओं को श्रीपाल ने युद्ध में परास्त किया था, उन्हें बन्धनबद्ध कर पुनः प्राधीन कर छोड़ दिया। प्राणदान पाकर उन्होंने भक्तिभाव से प्रसन्न हो श्रीपाल को सात जहाज धन-धान्य रत्नादि से भरे भेंट किये थे। यह कथा पहले पा चुकी है। पाठक गण विचार करें कि श्रीपाल कितना न्यायवन्त, उदार, सदाचारी व विशाल हृदय बाला है । इस समय सेठ धवल के ५०० जहाज इसके हाथों में हैं। परन्तु उसने उस अटूट धन को ओर दृष्टि भी नहीं डाली । अपने ही सात जहाजों को स्वीकार किया। महान संतोषी श्रीपाल के इस आचरण से आज के धनकुवेर जो अपने धन की बुद्धि के लिए अनधिकार चेष्टा करते हैं शिक्षा ग्रहण करें। अपने लोलुपी. मन की शूद्धि कर पाप के बाप लोभ का त्याग करें । अस्तु धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि श्रावक श्रीपाल ने शेष समस्त पाच सा जहाज धवल सेठ के भगुकच्छ नाम के पत्तन को अविलम्ब भेज दिये। उसके परिवार को किसी प्रकार कष्ट न हो तथा साथियों का मार्ग सुखपूर्वक तय हो इत्यादि प्रबन्ध भी राजा द्वारा करा दिया। स्वयं भी राजा धनपाल से प्राप्त राज्य एवं देशादि को लेकर आनन्द से रहने लगे। अपने विशिष्ट पण्य से स्वयमेव प्राप्त भोग भोगने लगा। "संतोषं परमं सुखम ।" ॥२०० २०१२०२।। सती मदनमजूषा गुणमाला गुणोज्वला । द्वाभ्यांसार प्रियाभ्यां च, संयुतो गुणमण्डितः ॥२०३॥ भुञ्जन्मोगान्मनोऽभीष्टान् विपुण्यजन दुर्लभान् । संस्थितः श्री जिनाधीशधर्मकर्मणि तत्परः ।।२०४।। अन्वयार्थ-(श्री जिनाधीशधर्मकर्मणि) उभय लक्ष्मीनायक श्री जिनेन्द्र भगवान के धर्म कार्यों में (तत्परः) सन्नद्ध वह श्रीपाल (गुणमण्डितः) श्रेष्ठ गुणों से अलङ्कृत (गुणोज्ज्वला) शुभगुणों से मण्डिता (सती) साध्वी (मदनमञ्जूषा) मदनमञ्जूषी (गुरणमाला) गुणमाला नाम की (द्वाभ्याम ) दोनों (प्रियाम्याम ) पत्नियों के साथ (संयुतो) सहित (अभीष्टान् ) इच्छित (च) और (विपुण्यजन) पापी जीवों को (दुर्लभान ) कठिन (भोगान ) भोगों को (भुञ्जन ) भोगता हुआ (संस्थितः) स्थित हुआ रहने लगा। भाषार्थ-तत्ववित् सुख दुःख में समान रूप से प्रवर्तन करते हैं । न सुख में फूलते हैं न दुःख में घबराते हैं । किन्तु हर हालत में अपने धर्मकार्यों में सावधान रहते हुए कर्त्तव्य में तत्पर रहते हैं। श्रीपाल भी अब अपनी दोनों प्रियाओं मदनमञ्जूषा व गुणमाला के साथ सारभूत, पुण्यपाक से प्राप्त पञ्चेन्द्रिय विषयों को धर्म पुरुषार्थ को लक्ष्य बना भोगने लगे । पुण्यवान को बिना प्रयास ही इष्ट भोगों की उपलब्धि हो जाती है। पुण्यहीन जी तोड प्रयास कर भी उन्हें नहीं पा सकते । परन्तु विवेकी जन सुलभता से प्राप्त उन भोगों में प्रासक्त नहीं Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] होते-विमूढ नहीं होते, अपितु औषधि के समान उनका सेवन पूर्ण उपेक्षा भाव से करते हैं । गृद्धता पूर्वक भोगों का सेवन दुर्गति को निमन्त्रण है । अत: ज्ञानी इस भय से मुक्त नहीं होता अपितु सावधान होकर इस से बचने का प्रयत्न करते हुए धर्म का सेवन करते हार भोगता है । ।१२०३ २०४।। कोटिभटो गुणज्ञश्च कृपालुश्च विशेषतः । स श्रीपालः सुखं तस्थौ यावतावत्कथान्तरम् ॥२०५॥ नित्यं श्रीजिनसिद्ध पूजनपरस्सत्पात्रदानेरतो । नित्यं शास्त्रविनोद रञ्जितमतिदिग्व्याप्तकीर्तिद्युतिः नित्यं सारपरोपकारनिरतः श्रीपाल नामा नपः । स्तत्रोच्चैप्रेमदाद्वय प्रमुदितो भुञ्जन्सुखं संस्थितः ।।२०६।। अन्वयार्थ-(कोटिभट:) कोटीभट, (गुणज्ञः ) गुणों का ज्ञाता (विशेषतः) विशेष रूप से (कृपालुः) दयातत्परा (च) और (दयालुः) परोपकारी (सः) वह (श्रीपाल:) श्रीपाल (यावत ) जबकि (सुखम् ) सुख से (तस्थी) वहाँ था (तावत ) तय हो (कथातरम् ) अन्य कथा चली (श्रीपालनामा नृपः) थं पाल नामका राजा (नित्यम् ) प्रतिदिन (श्रीजिनसिद्ध पुजन परः) श्री जिनेन्द्र भगवान और सिद्धों की पूजा में लपर (सत्पात्र) उत्तमादि पात्रों को (दाने रतः) दान देने में नीन (नित्यम् ) प्रतिदिन (शास्त्रविनोद) शास्त्राध्ययन (विनोदरञ्जित) विनोद में मग्न (मति :) बुद्धि (दिग्व्याप्तकोतिः) दिशाओं में व्याप्त कीति (युतिः) कान्ति युत (नित्यम् ) सतत (परोपकार) दूसरे की भलाई रूप (सार) तत्त्व (निरतः) लीन (प्रमदाद्वय ) पत्नियों से (प्रमुदितः) आनन्दित (उच्चैः) उत्तम (सुखम् ) सुख (भुजन) भोगता हुन। (तत्र) वहीं (संस्थितः) रहने लगा। भावार्थ -भूपाल श्रोपाल वहाँ दलवर्तन पतन में रहने लगा । अपनी दोनों रमिणियों सहित वह नित्य श्री जिनेन्द्र भगवान एवं सिद्ध परमेष्ठी को पूमा में तत्पर रहता था । प्रतिदिन उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों को यथायोग्य चारों प्रकार का दान देने में हर्षित होता था। भक्ति श्रद्धा से साधु सन्तों की सेना, वैयावति करता था। प्रति दिवस स्वाध्याय, तत्त्वचिन्तन धर्मकथादि ही उसके बिनोद के साधन थे । परोपकार दो उसका प्राण ही था । प्राणीमात्र का रक्षण करना अपना कर्तव्य समझता था। ये ही उसकी वृद्धि के व्यायाम थे। यूगल कामिनियों सहित प्रानन्द से विषय सखों को भी भोगता था, परन्तु उन्हें सतत उपेक्षा भाव से ही देखता था, विरस ही जानता था। इस प्रकार नारों पुरुषार्थों को समान रोति से सेवन करते हुए वहाँ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४] [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद सुख स रहने लगा । वह कोटमः गुरामाही, णो को शाता था, विशेषरूप से दया तत्पर था। महान था । इस प्रकार सुख शान्ति से समय चला जा रहा था कि उसी समय अन्य ही कथा प्रारम्भ हुयी । जिसका वर्णन अगले परिच्छेद में आचार्य करने वाले हैं ।।२०५ से २०६।। ।।इति श्रीसिद्धचक पूजातिशय प्राप्ते श्रीपालमहाराज चरिते भट्टारक श्री सकलकोति आचार्य विरचिते श्रीपालमहाराज विघ्न निवारण गुणमाला विवाह वर्णन नाम पञ्चमः परिच्छेदः श्री पञ्चगुरुभ्यो नमः शुभम् "प्रस्तु शान्तिरस्तु।। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || अथ षष्टमः परिच्छेदः॥ अथैकदा सुधीस्तत्र, दलबर्तन पत्तने । स श्रीपाल प्रभुसौख्यं भुञ्जन् श्रीजिनभक्तिभाक् ॥ १॥ तत्र यातान् वणिग्वर्यान्, संविलोक्य जगाद तान् । कुतस्समागतायूयमपूर्वं च वदत्व हो ||२|| श्रन्वयार्थ - ( अथ) अथानन्तर (एकदा) एक समय ( तत्र ) वहाँ ( दलवर्तन ) दलवर्तन नामक ( पत्तने) रत्नद्वीप में (सः) वह ( सुधीः) बुद्धिमान ( श्रोजिनभक्तिभाक् ) श्री जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में लीन ( प्रभुः ) महान ( श्रीपाल : ) श्रीपाल भूपति ( सौख्यम् ) सुख ( भुञ्जन् ) भोगते हुए विराजे, (तत्र ) उस समय वहाँ ( यातान् ) प्राये हुए ( वणिक्वर्यात्) श्रेष्ठ व्यापारियों को (संविलोक्य) अच्छी तरह देखकर (च ) और ( तान् ) उनको ( जगाद ) बोला (पूर्वम्) पहले नहीं देखे गये ( यूयम् ) तुम लोग ( अहो ) भो महाशय : ( कुतः ) कहाँ से ( समागताः ) आये हैं (तु) कहिए I भावार्थ - - अब श्रीपाल जी भार्या ओर राज्य पाकर श्रानन्द अपना समययापन करने लगे । दलवर्तन रत्नद्वीप में अनेकों व्यापारी आते जाते थे। बुद्धिमान् श्री जिनचररणाम्बुजों का भ्रमर श्रीपाल महाराज अपने प्राप्त राज्य का उपभोग करने लगा। उसके बाद एक नवीन कथानक प्रारम्भ होता है । उस द्वीप में कुछ अभूतपूर्व वणिक्जनों का आगमन हुआ । महाराज श्रीपाल ने उन वणिकों को पहले कभी नहीं देखा था । अतः प्रद्भुतजनों को देख, आश्चर्य से उनको देखा और पूछा कि "आप लोग कहाँ से पधारे हैं ?" अपना परिचय कहिये ? ।।१२।। तेऽपि नत्वा जगू राजन् कुण्डलाख्य पुराद्वयम् । समागताः प्रभुस्तत्र मकरध्वज संज्ञकः ॥ ३॥ कर्पू रतिलका तस्य राज्ञी जाता गुणान्विता । तयोर्द्वयोस् समुत्पन्नः पुत्रो मदनसुन्दरः ||४|| तथा वभूव सत्पुत्रोऽमरसुन्दर संज्ञकः । चित्रलेखा वृहद् पुत्री स्युरन्या शतकन्यकाः ॥५॥ जगद्रेखा सुरेखाऽथ गुणरेखा ततः परा । मनोरेखाse जीवन्ती रम्भा भोगवती सुता ॥६॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६] [श्रीपाल चरित्र पष्टम परिच्छेद रतीरेखा मिधेत्यादि नामिन्यश्च पृथक्-पृथक् । प्रतितामिति तदा यो रगति भूपतिम् ॥७॥ नत्यन्तीनाम् पुरेऽस्माकं यः कोऽपि पुरुषोत्तमः ।। गीत वादिविद्याभिः रञ्जयिष्यति मानसम् ।।।। सोऽस्माकं पतिरित्युच्चै भावोनान्यः परो ध्र वम् । तदाकर्ण्य वचस्सोऽपि श्रीपालो भूपतिर्मुदा ॥ कुण्डलाख्यपुरं गत्वा तास्समालोक्य कन्यकाः । रूप सौभाग्य संभार सत्सुधारस कूपिकाः ।।१०।। सर्व विज्ञान सम्पन्नस्सुधीस्त्रैलोक्य मोहनम् । कृत्वा गानादिकं सर्व मोहयित्वा च तन्मनः ॥११॥ तत्कन्यकाः शतश्चासौ परिणीयमहोत्सवः । सुखेन संस्थितस्तत्र सुपुण्यात् किन्न जायते ॥१२।। अन्वयार्थ-(ते) वे परिणक (अपि) भो (नरवा) नमस्कार करके (जगू) बोले (राजन्) हे भूप ! (कुण्डलाख्य) कुण्डल नामक (पुरात्) नगर से (वयम् ) हम लोग (समागताः) आये हैं (तत्र) उस नगर का (मकरध्वजसंज्ञकाः) मकरध्वज नामका (प्रभुः) भूपति है (तस्य) उसको (कप्पू रतिलका) कप्पू र शिलका (गुणान्विता) गुणों से अलंकृत (राज्ञी) रानी (जाता) है (तयोः) उन दम्पत्ती से (समुत्पन्नः) उत्पन्न (मदनसुन्दरः) मदन सुन्दर (पत्रः) पुत्र (तथा) एवं (अमरसुन्दरः) अमर सुन्दर (संज्ञक:) नाम वाला (सत्पुत्रः) श्रेष्ठ पुत्र (बभूव) हुए (चित्रलेखा) चित्रलेखा (वृहद् ) बडी (पुत्री) पुत्री (शत) सौ (अन्या:) दूसरी (कन्यकाः) कन्यायें (पृथक-पृथक् ) अलग-अलग (नामिन्याः) नाम वाली (जगदरेखा) जगतरेखा (सुरेखा) सुरेखा (गुणरेखा) गुणरेखा (अथ) एवं (मनारेखा) मनोरेखा (जीवन्ती) जीवन्ती ( रम्भा) रम्भा (भोगवती) भोगवती (अथ) तथा (ततः परः) इसके अलावा (रतिरेखा) रतीरेखा (पिधाः) नामवाली (इत्यादि) आदि (सुता) कन्या है (ताः) उन्होंने (इति) इस प्रकार (प्रतिज्ञाम् ). प्रतिज्ञा (चक:) की है कि (य:) जो (नृत्यन्तीनाम् ) नृत्य करती हुई (अस्माकम् ) हम लोगों के (पुरे) सामने (यः) जो (कोऽपि) कोई भो (पुरुषोत्तमः) उत्तम पुरुष (गीत वादित्र) गाना बजाना (विद्याभिः) विद्याओं द्वारा (भूपतिम) राजा के (मानसम ) मन को (रजयिष्यति) रजायमान करेगा (सः) दही (ध्र वम् ) निश्चय से (अस्माकम् ) हमलोगों का (पति) भर्ता (भावी) होगा (न अन्यः) अन्य नहीं (इति) इस प्रकार के (वचः) वचन (उच्च:) सम्यक रूप से (आकर्य) सुनकर (तदा) उसी समय (सः) वह (भोपाल:) श्रीपाल (भूपति) राजा (अपि) भी (मुदा) अानन्द से (कुण्डलाख्यपुरं) कुण्डलपुर को (गत्वा) जाकर (रूपसोभाग्य सम्भार सत्सुधारस कूपिकाः) लावण्य, Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] [३४५७ सौभाग्य के भार से अलकृत उत्तम सुधारस की वापिका स्वरूप (ता:) उन (कन्यकाः) कन्याओं को (समालोक्य) अबलोकन कर (सर्वकलाविज्ञानसम्पन्न:) समस्त कला-विज्ञान में निपुण (सुधी:) बुद्धिमान श्रीपाल ने (त्रैलोक्यमोहनम्) तीनों लोकों को मुग्ध करने वाले (गानादिकम् ) गानादिक (कृत्वा) करके (सर्व) राजा प्रजा सबको (मोहयित्वा) मोहित कर (च) और (तन्मनः) उन कन्याओं को भी प्रसन्न कर (असो) उसने (महोत्सवः) महान् उत्सव के साथ (तत्कन्य काणतम् ) उन सौ कन्याओं को (परिणीय) विवाह कर (तत्र) वहीं (सुस्वेन) सुख से (संस्थितः) रहने लगा (सुपुण्यात्) श्रेष्ठ पुण्य से (किम्) ज्या (न जायते) प्राप्त नहीं होता ? अर्थात् सब कुछ होता है। ___ भावार्थ-श्रीपाल द्वारा पूछे जाने पर वे व्यापारी अपना परिचय देते हैं। प्रथम विनय से नमस्कार किया । पुन : कहने लगे हे भूपाल हम लोग कुण्डलपुर नगर से आये हैं । वहाँ मकरध्वज नामका राजा प्रजापालन करता है । उसकी गुणवती सुन्दरी का नाम का रतिलका है। उन दोनों दम्पत्ति से उत्पन्न जन्मे मदनसुन्दर और अमरसुन्दर नामके कलागुण सम्पन्न दो पुत्र हैं । तथा रूप लावण्य सुधास्वरूप सौ कन्यायें है। ये एक से एक सुन्दरी पीयूषधाग समान सुख की खान हैं । सभी संगीत, नत्य, बादित्र कलाओं में निपूण हैं। इनमें ज्येष्ठ पत्री का नाम चित्ररेखा है। दूसरी जगदरेखा, सुरेखा, गुणरेखा, मनोरेखा, जीवन्ती, रम्भा, भोगवती, रतीरेस्त्रा इत्यादि यथा नाम तथा गुण १०० कन्याए हैं। इन सभी ने कठोर प्रतिज्ञा की है कि "जो महानुभाव, सत्पुरुष हम लोगों के नृत्य करते समय वाद्यवादन, गान गायन विद्याओं का प्रदर्शन करते हुए राजा का हृदय अनुरजित करेगा अर्थात् भूपति को प्रसन्न करेगा वही हम सबका प्राणवल्लभ होगा। यह हमारी घ्र व प्रतिज्ञा है। अन्य किसी भी पुरुष के साथ हम लोग विवाह नहीं करेंगी।" इस प्रकार उन वणिजनों से कन्याओं का वृत्तान्त ज्ञात कर श्रीपाल भूपाल तत्क्षण वहाँ जाने को तैयार हो गये । अतिशीघ्र वे कुण्डलपुर जा पहुंचे । शचि, रति समान उन अप्सरारूपिणी कन्याओं का अवलोकन किया । वास्तव में वे चन्द्रकला सरण सर्वाङ्ग सुन्दरी, नाना कला-गुणों को खान स्वरूप थीं। श्रीपाल कोटीभट के आदेशानुसार कन्याओं ने नत्यारम्भ किया । इधर गान योर वाद्य कलानों के पारङगत श्रीपाल ने अपना कोशल प्रदर्शित किया उस समय सभा का रूप यथार्थ इन्द्रसभा समान था । कुछ ही समय में राजा-प्रजा तन्मय हो गए । अपनी सुध-बुध भूल गये । फलत: राजा हर्ष विभोर हो गया और साथ ही वे कन्याए भी आकृष्ट हो निजभान खो बैठी। श्रीपाल महाराज ने तीनों लोकों को मोहित करने वाला गान गाया । समधुर कण्ठध्वनि से हृदय तार मंकृत हो गये और सारी सभा मस्ती मे भूमने लगी। मधुर बाद्यवादन भी तो वेजोड ही था। इस प्रकार विजयो श्रीपाल ने महावैभव और उत्सव के साथ उन सौ कन्याओं के साथ घूम-धाम से विधिवत पाणिग्रहण क्रिया । समस्त वधुओं के साथ वहीं स्थित हो गया । सत्य ही है पुण्य से जीव को क्या प्राप्त नहीं होता ? सब कुछ अनायास ही मिल जाता है । सुन्दर रमणियों के साथ अनेक प्रकार को भोगोपभोग की सामग्रियाँ भी प्राप्त हुयीं ॥३, ४, ५, ६, ७, ८, ६. १० ११ १२।। यथा स राजाऽपि तदा तस्मै सन्तुष्टो मकरध्वजः। श्रीपालाय ददौ तत्र नाना रत्नादि सम्पदः ॥१३॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] [ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छ्रेट गजाश्वरथ पादाति दासी दासादिकं बहु | सत्यं सर्वत्र पुण्येन भव्यैस्सम्प्राप्यते ध्रुवम् ॥ १४॥ प्रथात्रैव सुखेनासौ यावदास्ते प्रियान्वितः । ताछ तो मुदागत्य तं नत्वेदं वचोऽब्रबीत् ॥ १५ ॥ श्रन्वयार्थ - ( तदा तत्र (सः) उस ( सन्तुष्टः ) सन्तुष्ट ( मकरध्वजः ) मकरध्वज (राजा) भूपति ने (अपि) भी ( श्रीपालाय ) श्रीपाल दामाद को ( गजाः ) हाथी ( अश्वाः ) घोडे ( रथः ) रथ ( पदातिः) पैदल सेना ( दासी दास) सेविका सेवक (नाना ) अनेकों (बहु ) बहुत से ( रत्नादि) रत्न माणिक्य, पन्ना आदि नवरत्न ( सम्पदः ) विभूति ( तस्मै ) उस बाई को (ददी) दहेज में प्रदान की, (सत्यम् ) नीति है ( पुण्यन) शुभकर्म से ( भव्ये :) भव्य जीवों के लिए ( स ) सब जगह ( ध्रुवम् ) निश्चित रूप से ( सम्प्राप्यते ) सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं (थ) विवाह बाद (असौ ) वह श्रीपाल ( यावत्) जबकि ( अत्रैव ) इसी नगर में ( प्रियान्वितः ) अपनी कामिनियों के साथ ( सुखेन ) सुख से (आस्ते ) विराजा ( तावत् ) तब ही ( मुदा) हर्ष भरा ( दूतः ) दुत ( आगत्य ) आकर (तम् ) उसे ( नत्वा) नमस्कार कर ( इदम् ) इस प्रकार ( वचः ) बचन ( अब्रवीत. ) बोला । भावार्थ - - अपनी प्रिय एकसी कन्याओं का विवाह कर मेदनीपति मकरध्वज को Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] [ ३४६ अपार हर्ष हुआ । यौवन प्राप्त कन्याओं की यही गति है । कौन माता-पिता अपनी पुत्रियों को सौभाग्य सुन्दरी रमणी रूप में देखना नहीं चाहते ! राजा ने आनन्द से वर दक्षिणा रूप में श्रीपाल को अनेकों विशाल गज, सुन्दर चञ्चल अश्व, रथ, पादाति नाना प्रकार रत्नादि, वस्त्रालङ्कार प्रदान किये । महल मकान दिये । इस प्रकार श्रीपाल राजा भी धन सम्पदा के साथ १०० रमणियों के साथ सुखोपभोग में तन्मय हो गये 1 जिस समय उनका हास-विलास पूर्वक जीवन चलने लगा कि उसी समय कोई दूत हर्ष भरा आया और श्रीपाल जी को नमन कर इस प्रकार के वचन कहने लगा ।।१३, १४, १५।। क्या कहा सो सुनिये ... काञ्चनाख्यं पुरे राजा वज्रसेनोऽस्य बल्ल पा अभूत्काञ्चनमालाख्या तयोस्सुशील संज्ञकः ॥१६॥ गन्धयोख्यो यशाधौती, विवेकशील मामकः । कन्या विलासमत्याद्याख्यास्युर्नवशत प्रभाः ॥१७॥ अन्वयार्थ—(काञ्चनाख्यपुरे) काञ्चन नामक पुर में (वज्रसेनः) बज्रसेन (राजा) नृपति (अस्य) इसको (काञ्चनमालाख्या) काञ्चनमाला नामक (बल्लभा) भार्या-रानी (अभूत्) थी (नयोः) उन दोनों के (सुशीलसंज्ञकः) सुशील नामक, (गन्धर्वाख्यः) गन्धर्वनाम वाला एवं (यशोधौतः) कीर्ति जल से स्वच्छ (विवेकशीलनामक:) विबेक शील नाम वाला पुत्र (विलासमत्याद्याख्या) विलासमती आदि नामवाली (नवशतप्रभा:) नी सो प्रमाण (९००) (कन्याः ) पुत्रियाँ (स्युः) हुयी । भावार्थ -- कर्मठ दूत कहता है कि महाराज काञ्चनपुर नामक नगर है उसमें वज्रमेन नामक राजा है। उसकी प्राण प्रिया काञ्चनमाला है। उन दोनों के सुशील, गन्धर्व एवं अपने यश से पवित्र विवेकशील नामक पुत्र तथा विलासमती आदि नामवाली नवसौ कन्याएं हैं ।। १६, १७।। सर्वास्ता रूपलावण्यखन्यो देव स्व पुण्यतः । शीन परिणय त्वञ्च तत्रागत्य नपात्मजः ॥१८॥ अन्वया--(ताः) वे (सर्वाः) सनी (रूपलावण्यखन्याः) रूप सौन्दर्य की खान हैं (देव ! ) हे देव (नृपात्मजः) हे नृपकुमार ! (स्व पुण्यतः) अपने पुण्य से (तत्र) वहाँ (आगत्य) आकर (त्वम्) प्राप (शीघ्नम् ) शीघ्र (परिणय) विवाह करें। मावार्थ -हे देव, भो राजकुमार ! वे सभी कुमारियाँ रूप गुण का खान हैं आप अपने पुण्य प्रताप से शीघ्र ही वहाँ पधारिये और उन सौभाग्य शालिनियों को वरण कर उनके नाथ होइये ॥१८॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] श्रीपः । सारिन 'पष्ट श्रीपालोऽसौ ततः प्राह वक्षास्सन्ति नृपा न किम् । यतस्त्वत्पतिरेवाऽत्र कन्यास्सर्वा ददाति मे ।।१६।। अन्वयार्थ-(ततः) दूत वचन मुन (असौ) वह (श्रीपालः) धोपाल (प्राह) चोला (किम् ) वया (त्वत्) तुम्हारा (पतिः) स्वामी (नपा) राजा (दक्षा) चतुर (न) नहीं है (यतः) क्योंकि (सर्वाः) सभी (एव) हो (कन्या:) पुत्रियों को (मे) मुझे (ददाति) दे रहा है। भावार्थ-श्रीपाल विनोद से दूत को कहता है कि तुम्हारा स्वामी एवं राज के लोग क्या मूर्ख है। उन्हें बुद्धि नहीं ? मुझ अपरिचित को अपनी इतनी पुत्रियों को देना चाहता है। यह विचार करना चाहिए ।।१६।। तत्प्रश्नादाह दूतोऽपि नैमित्तिकेन भाषितम् । भर्तायश्चित्रलेखायास्तासां पुण्यात्स एव हि ॥२०॥ इति नैमित्तिकेनोक्तं श्रुत्वामत्स्वामिनाद्भुतम् । प्राज्ञापितोऽस्म्यहं स्वामिस्तस्मादागम्यतां द्रुतम् ॥२१॥ अन्वयार्थ (तत्प्रश्नात्) श्रीपाल द्वारा प्रश्न करने पर (दूत:) वचोवह (अपि) भो (आह्) बोला, (नैमित्तिकेन) निमित्तज्ञानी ने (भाषितम्) कहा था कि (यः) जो (चित्रलेखायाः) चित्रलेखा का (भा) पति हो (पुण्यात्) पुण्य प्रभाव में (हि) निश्चय पूर्वक (स.) वह (एव) ही (तासाम् ) उनका है (इति) इस प्रकार (नैमित्तिकेन) निमित्तज्ञानी द्वारा ( उक्तम् ) कथित को (त्या) सुन कर (मत्) मेरे (स्वामिना) स्वामी ने (दूतम्) शीघ्र ही (अहं) मुझ (अज्ञापिनोऽमि) आज्ञा दी है (स्वामिन्) हे स्वामिन् (तस्मात्) इसलिए पाप (द्र तम) अविलम्ब (पागम्यताम् ) आइये । भावार्थ--दूत के निमन्त्रण को पाकर श्रीपाल कोटिभट ने पूछा कि तुम्हारा राजा अपनी इतनी कन्याओं को मुझे हो क्यों देना चाहते हैं ! इसके उत्तर में वह पत्रवाही बोला, स्वामिन् सुनिये, इसका कारण मैं बताता हूँ । एक दिन राजा ने अपनी नव यौवना सुन्दरी पुत्रियों को देखकर उनके विवाद का विचार किया । इसके लिए भूपति ने नैमित्तिज को बुलाया और कन्याओं के भावी पति के विषय में पूछा। उसने कहा कि जो पुण्यात्मा महापुरुष चित्रलेखा का पति होगा, वही कलाविद् आपकी कन्याओं का भी वर होगा । यह ज्ञात कर हमारे स्वामी ने मुझे आपको लाने की आज्ञा देकर भेजा है। अत: अब आप अविलम्ब मेरे साब पधारिये और उन कन्याओं के स्वामी बनिये ॥२०, २१।। दूत वाक्यं समाकई श्रीपालोऽपि प्रसन्नधीः । गत्वा तत्र महाभूत्या पतिस्तासां बभूव सः ।।२२।। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] [३५१ अन्वयार्थ--(दूतवाक्यम्) दूत के वचन (रामाकर्ण्य) सुनकर (प्रसन्नधीः) प्रमुदितमति (श्रीपालः) श्रीपाल (अपि) भी (महाविभूत्या) महानवैभव के साथ (तत्र) वहाँ (गवा) जाकर (स:) वह (तासाम् ) उन कन्याओं का (पतिः) भर्ता (वभूव) हो गया। भावार्थ- समाचार लाने बाले उस दूत के वचन सुनकर श्रीपाल को अत्यन्त हर्ष हुआ । बहुत वैभव के साथ प्रस्थान किया । वहाँ पहुँच कर उन कन्याओं का वरण कर लिया। सबका पति हुा ।।२२।। काञ्चनाख्यपुरे तत्र प्राप्त कन्यादि सम्पदा । कानिचिच्च दिनान्युच्चैः स्थित्वा परिवृढस्सुखम् ॥२३॥ ततश्चान्तः पुरे नाम श्रीपालो महिमास्पदम् । चक्रे प्रयारणकं चाग्ने गन्तुकामस्तदा मुदा ॥२४॥ यावत्ताबच्चरः कोऽपि तं प्रणम्य जगाद च श्रूयतां भो प्रभो सतां मदीयं वचनं शुभम् ॥२५॥ अन्वयार्थ---(तत्र) वहाँ (काञ्चनाख्यपुरे) काञ्चन नामक पुर में (कान्यादि) पुत्रियाँ आदि (सम्पदा) सम्पत्ति (प्राप्तः) प्राप्त करने वाला (कानिचित) कुछ (च) और (दिनानि) दिन (उच्चः) विशेष (सुखम् ) सुम्न (परिवृतः) वृदिगत करता हुआ (स्थित्वा) रह कर (तत:) पुन: (महिमास्पदम) महिमा का स्थानभूत (अन्तः पुरे) अन्तः पुर में (श्रीपान नाम) श्रीपाल राजा (अन) आगे (गन्तुकामः) जाने के लिए इच्छावान (च) और (मुदा) प्रसन्न (प्रयागकंचक्र) प्रयाण को उद्यत हुआ (तदा) तभी (यावत्) जैसे ही (तावन्) उसी समय (कोऽपि) कोई भो (चरः) दूत (तम्) उसे (प्रणम्य ) नमस्कार कर (जगाद) बोला (भो) हे (प्रभो) स्वामिन् (मदीयम् ) मेरे (सत्यम्) यथार्थ (च) और (शुभम्) कल्याणकारी (वचनम् ) वचन (श्रूयताम) सुनिये-- कणाख्ये महाद्वीपे रत्नराशि समुज्वले । तद्देशाधिपतिः ख्यातः सुधीविजय सेवनात् ॥२६॥ भूपतेस्तस्य संजाताः पूर्वपुण्येन निर्मलाः यशोमालामहादेयी प्रमुखाश्चारू बल्लभाः ॥२७॥ सर्वाश्चतुरशीतिस्तास्सद्रूपादि गुणान्विताः । लावण्यरस सम्पूर्णा सिन्धोर्वेला यथाखिलाः ॥२८॥ अन्वयार्थ- (रत्नराशिसमुज्वले) रत्नों के ढेर से चमत्कृत (कणाख्ये) कण नाम के (महाद्वीपे) विशाल रत्नद्वीप में (विजय सेवनात्) विजयी होने वाला (ख्यातः) प्रसिद्ध (सुधीः) मतिमान् (तद्देशाधिपतिः) उस देश का अधिपति राजा है (तस्य) उस Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद (भूपतेः) राजा के (पूर्व पुण्येन) पूर्वोपार्जित पुण्यकर्म से (निर्मला:) अत्यन्तशुद्धशीला (यशोमालामहादेवी प्रमुखाः) यशोमाला है प्रधान जिनमें ऐसी (सर्वा) सभी (सद्र पादि) उत्तम सौन्दर्य (गुणान्विताः) नाना विज्ञान कला मण्डिता (च) और (लावण्य रस) लावण्य रूपी रस से (सम्पूर्णाः) भरी हुपी (अखिला:) सभी (यथा) जैसे (सिन्धोर्वलाः) सागर की लहरें हों ऐसी (चतुरशीतिः) चौरासी (ताः) बे (वल्लभाः) प्रियाएँ (संजाताः) हुयीं । अर्थात हैं। भावार्थ---अब कोटीभट श्रीपाल अनेकों रानियों के साथ नानासम्पदाओं को पाकर सुख पूर्वक वहीं काञ्चनपुर में रहने लगा। उसका अन्तपुर महामहिमा और मुख की वृद्धि का स्थान हो गया। इस प्रकर नानाभोगों में रमण करते हुए उसके कुछ दिवस निकल गये । मनस्वी और पुरुषार्थी मानब कितने ही भोगोपभोग के साधन क्यों न प्राप्त कर ले किन्तु वह कर्तः कि नहीं होत. : नीतिकारों गे रहा है कि ... स्थानमुत्सृज्य गच्छन्ति सिंहसत्पुरुषः हयः. तत्रैव मररणं यान्ति, काकः कापुरुष: गजः ।। अर्थात--सिंह, उत्तमपुरुष और अश्व अपने कार्य की सिद्धि के लिए अयवा बिपत्तियों के परिहारार्थ जन्मस्थान को त्याग कर अन्यत्र यथोचित स्थान में चले जाते हैं । हर प्रकार से अपना कार्य सिद्ध कर लेते हैं । जीविकोपार्जन के साधन जुटा लेते हैं, परन्तु काक कायर पुरुष और हाथी दुःखी भी होकर कहीं नहीं जाते अपितु पालसी टू वहीं पडे-पडे मर जाते हैं । अत: अन्तःपुर स्वर्ग समान रहते हुए भी श्रीपाल अन्यत्र गमन को तत्पर हुया । वह जिस समय प्रयाण करने की बात सोच ही रहा था कि उसी समय एक दूत आया । नमस्कार विनय पूर्वक हर्षित हुआ बोला हे प्रभो ! भो स्वामिन् मेरे वचन सुनिये । एक कङ्कण नामक महान रत्नद्वीप है । इसमें चारों और रत्नों की राशियाँ लगी रहती हैं । इन नवरत्न राशियों से समस्त महाद्वीप जग-मगाता रहता है । वहाँ का अधिपति राजा मेरा स्वामी विजय का प्रेमी मतिमान और गुणवान विजयसेन प्रसिद्ध है । उस राजा के उसके पूर्वसंचित पुण्य का मूर्तिमान रूप समान चौरासी (८४) देवियाँ रानियाँ हैं। इनमें मुख्य पट्ट देवी यशोमाला है जो पातिव्रत धर्म से यश की पताका ही है । ये सभी अनिंद्य सुन्दरी, रूप, लावण्य, शील गुणादि से भरी सागर की लहरों समान मन मोहनी-हास विलास सम्पन्न हैं। जग मोहक इनका सौन्दर्य प्रद्वितीय है । राजा की प्राणप्रिया सतत पति को अनुगामिनी सुख की खान हैं ।।२३ से २८।। हिरण्यगर्भा नामादि पुत्रास्तस्य महीपतेः । बभूवुर्बहवश्शूराः कुलस्य तिलकोपमाः॥२६॥ शतानि षोडशप्रोक्ताः सुतास्सार गुणोज्वलाः रूप सौभाग्यसद्रत्नखानयो वा हितकराः ।।३०॥ अन्वयार्थ-- (तस्य) उस (महीपतेः) राजा के (हिरण यगर्भनामादि) हिरण्यगर्भ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] [ ३५३ यादि नाम वाले (कुलस्य) कुल के (तिलकोपमाः) तिलक की उपमाधारी (शूराः) शूरबीर (बहवः) बहुत से (पुत्राः) पुष (बभूवुः) हुए हैं (वा) तथा (रूपसौभाग्यसदत्नखानयोः) रूप, सौभाग्य प्रादि रत्नों की खानभूत (सारमुगणोज्वला:) गुणों से मण्डित-उत्तम गुणों से शोभित (षोडश) सोलह-१६ (प्रतानि) सौ (सुताः) पुत्रियाँ (प्रोक्ताः) कहीं हैं। भावार्थ उस राजा के हिरण को आदि लेकर अनेक शूरवीर गुणज्ञ पुत्र हैं। मानों वे कुल के तिलक स्वरूप हैं । सभी कुल दीपक हैं। इसी प्रकार सौन्दयं की खान, गुणों को भण्डार और उभयकुल विकासिका १६०० सोलह सो हितकारी कन्याएँ हैं । सभी पुत्रियाँ गुएरा यौवन सम्पन्न हैं ।।२६-३०।। प्राया सौभाग्य गौरी, सा पुत्री श्रृंगार गौर्यपि । पुत्री पौलोमी तृतीया, रण्णादेवी तथा परा ॥३१॥ सोमाख्या पञ्चमी पुत्री, लक्ष्मी षष्ठी च पधिनी। सप्तमी चाष्टमी चन्द्र रेखा, चाष्टौ विचक्षणाः ॥३२॥ सर्व विज्ञान सम्पन्नास्सर्वशास्त्र परायणाः । सत्कलापमिनि श्रेणिप्रकाशे वा रवि प्रभाः ॥३३॥ तन्मुख्यास्ता जगुश्चैवं योऽस्माकं पूरयिष्यति । समस्याः कोऽपि सच्छ रः होऽस्माकं पतिरेव च ॥३४॥ सर्वासांसार कन्यानां नान्यः कोऽपि प्रियो ध्र वम् । इत्याकर्ण्यवचस्तस्याः श्रीपालः प्रभुसत्तमः ॥३५॥ गत्वा तत्र समालोक्य ताः कन्यकास्संजगौ प्रभुः । स्वाभिप्रायमहो कन्या ब्रूहि धन्या यथेप्सितम् ॥३६॥ समस्या पूरयिष्यामि युष्माकं शर्मदायकाः । तन्निशम्य क्रमेणौच्चैः प्रोचुस्ताः स्वमनोगतम् ॥३७॥ अन्वयार्थ आगे भृत्य कहता है उन कन्याओं में (आद्या) प्रथम (सा) वह (पुत्री) पुत्री (सौभाग्यगौरी) नौभाग्यगौरी, (शृङ्गारगौरी) श्रृगारगौरी (तृतीया) तीसरी (पुत्री) कन्या (अपि) भी (पौलोमी) पौलोमी (तथा) तथा (परा) चतुर्थी (रपादेवी) रण्णादेवी (पञ्चमी) पांचमी (पुत्री) कन्या (सोमाख्या) सोमानामको (च) और (षष्ठी ) छटवीं (लक्ष्मी) लक्ष्मी (सप्तमी) सातवीं (पद्मिनी पद्मिनी (च) और (अष्टमी) प्रारवीं (चन्द्ररेखा) चन्द्ररेखा (च) और (अष्टी) आठों ही (विचक्षणा:) विचक्षणा-चतुरा (बा) मानों (सत्कला पद्मिनिश्रेणो) उत्तमकला रूपी कमलिनियों की पंक्ति को (प्रकाशे) विकसित करने में (रविप्रभा:) Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] [ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद सूर्य की किरों हैं ( ता ) जो (तन्मुख्या) उनमें प्रमुख ( एवं ) इस प्रकार बोली कि ( यो ) जो (क) कोई (अपि) भी (सत् ) उत्तम ( बुरः ) शूरवीर ( श्रस्माकम् ) हमारी ( समस्या . ) समस्याओं को (पुरमिष्यति ) पूरी करेगा (सः) वह (एव) ही (अस्माकम् ) हमारा ( पतिः ) भर्ता हो, (च) और ( सर्वासाम् ) उन सभी क्या ( सारकन्यानाम् ) उन उत्तम कन्याओं का ( ध्रुवम् ) निश्चय ही (अन्य ) दूसरा ( कोऽपि ) कोई भी ( प्रियः) प्रिय (न) नहीं है। ( प्रभुः) प्रतिमाधारी (सत्तम: ) महान् ( श्रीपाल : ) श्रीपाल ( तस्याः ) उन कन्याओं के सम्बन्धी ( इति ) इस प्रकार के ( वचः ) वचन ( आकर्ण्य ) सुनकर ( तत्र ) वहाँ ( गत्वा ) जाकर (ता: ) उन ( कन्यकाः ) कन्याओं को ( समालोक्य) सम्यक् अवलोकन कर ( प्रभुः ) श्रीपाल ( सजग ) बाला ( अहो ) भो ( धन्या ) धन्य धन्यरूपा (कन्या) कन्याओं ( यथा ) जैसा ( इप्सितम् ) इष्ट आपका ( स्वाभिप्रायम् ) अपना अभिप्राय (ब्रूहि ) कहो ( युभाकम् ) आपको (शर्मदायकाः) शान्ति देने वाली ( समस्या ) समस्याओं को ( पूरियिष्यामि) पूर्णकरूंगा (तत्) उसे ( निशम्य ) सुनकर (ता: ) उन्होंने ( क्रमेण ) क्रमश: ( उच्चैः ) पुर्णतः ( स्वमनोगतम्) अपने-अपने मनोगत बिचार (प्रो: ) कहने प्रारम्भ किये। भावार्थ---प्राय वर की महामटेके उन कन्याओं का परिचय देता है । १६०० कन्याओं का नाम लिखना और समस्याओं का निरूपण करना एक पृथक हो शास्त्र तैयार करना है । अतः यहाँ मात्र प्रमुख प्राठ कन्याओं का ही विशेष वर्णन किया है। उन ग्राठों में भी प्रथम का नाम सोभाग्यगौरी, दूसरी श्रृङ्गारगोरी, ३ पौलोमी ४ रण्णादेवी, ५. सोमा, ६ लक्ष्मी, ७ पद्मिनी और चन्द्ररेखा नाम की पुत्रियाँ हैं । ये सभी एक दूसरी से होड लगाये ज्ञान, विज्ञान, कला शास्त्रों को ज्ञाता हैं, विलक्षणमति सम्पन्ना है, उनके प्रभाव से प्रतीत होता है मानों कलारूपी पद्मिनियों की पंक्तिमाला को विकसित करने वाली रवि को किरण ही धरा पर आई हैं । वह दूत वाहता है हे प्रभो ! इनमें सर्व ज्येष्ठ कन्या ने कहा है कि जो बुद्धिशाली, गुणवान् महाशूरवीर सत्यपुरुष हमारी समस्याओं को पूर्ण करेगा वही हमारा भर्त्ता होगा अर्थात् पत्ति बनेगा । हम सभी कन्याओं का निश्चय से यही प्रण है अन्य से हमें कोई प्रयोजन नहीं । उन सारभूत गुणों की खान कन्याओं के विषय में इस प्रकार की विज्ञप्ति सुनकर श्रीपाल महाराज कङ्कणपुर में उपस्थित हुए। उन रूप लावण्यमयी गुणज्ञकन्याओं को अवलोकन कर प्रमोद से बोला, भो धन्यभागिनियो ! आप लोग अपने-अपने मनोभावों को व्यक्त करिये में शान्तिदायक, सुख प्रदायक समस्या पूरती करूँगा । आपका युक्ति-युक्त समाधान करूँगा । इस प्रकार श्रीपाल महाराज के वचन सुनकर वे क्रमशः अपनेअपने मनोगत विचारों को प्रकट करने लगीं ।। ३१ से ३७ ।। श्राह सौभाग्यगोरीति "सिद्धि साहसतो भवेत्" । शेवत्रय पदान्येषाः स्वधियाशुजगी बुधः || ३८ ॥ अन्वयार्थ - - ( सौभाग्यगौरी) सोभाग्यगौरी (इति) इस प्रकार ( ग्राह) बोली, ("सिद्धिसाहसतो भवेत् " ) “सिद्धि साहस से हो" ( ऐपा:) इसके ( शेष ) बाकी (त्रय) तीन Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] [३५५ (पदानि) पदों को (स्वधिया) अपनी बुद्धि से (बुधः) भो बुद्धिमन् (आशु) शीघ्र (जगौ) कहिए। भावार्थ -प्रथम कन्या सौभाग्यगौरी, इस प्रकार बोली हे भद्र ! बुद्धिमन् मैं समस्या रखती हूँ आप अपनी बुद्धि से शीघ्र पूर्ति करिये । प्रथम चरण है "सिद्धि साहस तो भवेत् ।" इसके तीन चरण आप बनाइये ।।३।। इस प्रकाप्रकार सुन श्रीपाल जी निम्न प्रकार श्लोक के तीन चरण जोडकर श्लोक पूरा करते हैं-- प्रात्मनो जायते सत्यं, पुण्यात्संजायते धनम् । वैवात्संजायते बुद्धिस्सिद्धि साहसतो भवेत् ॥३६॥ अन्वयार्थ---(सत्यम् ) सत्य (आत्मनः) मात्मा से (जायते) प्रकट होता है, (धनम् ) धन (पुण्यात) पुण्य से (संजायते) प्राप्त होता है (बुद्धिः) मति (दैवात्) भाग्य से होती है (सिद्धिः) कार्य सिद्धि (साहसत) बर्थ से (ये) होती है। भावार्थ -सत्य धर्म, प्रात्मा का स्वभाव है । स्वभाव स्वभाववान से भिन्न नहीं हो । अत: सत्यधर्म का प्रादुर्भाव प्रात्मा से ही होता है। पूर्वोपाजित अथवा तद्भव उपाजित पुण्य के होने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । सदबुद्धि-सम्यक् मति देवाधीन-भाग्य के अाधीन मिलती है । तथा कार्यसिद्धि पराक्रम-साहस से होती है। कायर के मनोरथ तो बिजली की चमक समान आये-गये हो जाते हैं ।।३८, ३६।। "सिद्धिस्साहसतस्सतामिति च पाठः" उपर्युक्त समस्या में यह भी पाठ है । अर्थ एक ही है ।।३६॥ दूसरे प्रकार की पंक्ति की पूर्ति निम्न प्रकार है-- स्वात्माधीनोऽत्र सत्यः स्याद्बुद्धिर्दैवानुसारिणी। अत्र मा कुरु भो भ्रान्ति, सिद्धिस्साहसतस्सताम् ॥४०॥ अन्वयार्ग-(अत्र) यहाँ संसार में (सत्यः) सत्य (स्वात्माधीनः) प्रात्मा के आथित्त (बुद्धिः) मति (देवानुसारिणी) देव-भाग्यानुसार होती है (अत्र) इसमें (भ्रान्ति) विभ्रम (मा) नहीं (कुरु) करो (भो) हे जन हो (सताम् ) सज्जनों को (सिद्धिः) सिद्धि (साहसतः) साहस से (स्यात्) होती है। भावार्थ--इस लोक में संसारी जीव को सत्य की उत्पत्ति आत्मा से. बुद्धि भाग्य से होती है इसमें कोई संदेह नहीं है तथा सिद्धि साहस से होती है ।।४।। प्राह शृङ्गारगौरीति पश्यतो सकलंगतम् । श्रीपालरुत्तरं तस्येत्युवाच स्वमनीषया ॥४१॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद न दत्तं न स्वयं भुक्त संचितं कृपणौर्धनम् । धूतचोराग्निभूपायः पश्यतां सकलं गतम् ॥४२॥ अन्वयार्थ--(शृङ्गारगौरी) शृङ्गारगौरी (इति) इस प्रकार (प्राह) बोली ("पश्यतांसकलंगतम्") देखते-देखते सब चला गया" (श्रीपाल:) श्रीपाल ने (तस्य) उस प्रश्न का (उत्तरम् ) उत्तर (स्वमनीषया) अपनी बुद्धि से (इति) इस प्रकार (उबाच) दिया बोला (कृपणीः) कंजूष का (धनम् ) धन (न दत्तम्) न तो दिया (न) न (स्वयम् ) स्वयं (भुक्तम्) भोगा अतः ( तचौराग्निभूपाद्य :) जुआ, चोरी, अग्नि राजादि द्वारा (पश्यताम् । देखते-देखते (सकलंगतम्) सारा ही चला गया । ___ भावार्थ--द्वितीय शृङ्गारगारी कन्या ने श्रीपाल के समक्ष यह समस्या रखी कि "देखते देखते सब चला गया" (पश्यतां सकलं गतम्) । उसके उत्तर में श्रीपाल ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से उत्तर दिया कि कञ्जूष व्यक्ति न तो दान देता है और न स्वयं ही भोगता है अत: पुण्य क्षीण होते ही उसके धन को देखते-देखते राजा ले लेता है, अग्नि में जल जाता है, चोर ले जाते हैं अथवा जुना में हार जाता है। कब कैसे कहाँ जाता है पता ही नहीं चल पाता है ।।४१, १२॥ पौलोमीत्यवदद्वाक्यं तेषामिष्टं हि दुःश्रुतम् । तस्या उत्तरमाप्तोक्तया ददौहितं विचक्षणः ॥४३॥ प्रहन्मुखेन्दु सजातं जन्ममृत्यु जरापहम् । ज्ञानामृतं न यैः पीतं तेषामिष्टं हि दुःश्रुतम् ॥४४।। (स नरः पाप पण्डित इति च पाठः) अन्वयार्थ--तीसरी (पौलोमी) पौलोमी (इति) इस प्रकार (वाक्यम्) वचन (अवदत् ) बोली ("तेषामिष्टं हि दुःश्रुतम्" उनके लिए निश्चय ही इष्ट सिद्धि असंभवश्रुत है, (विचक्षण:) चतुर श्रीपाल ने (आप्तोक्त्या) सर्वज्ञ प्रणीत उक्ति द्वारा (हितम्) हितकारी (उत्तरम्) उत्तर (ददौ) दिया, (जन्ममृत्युजरापहम् ) जन्म, मरण, और बुढ़ापे का नाश करने वाला (अर्हन्मुखेन्दुसंजातम) अर्हन्त भगवान के मुख रूपी कमल से उत्पन्न (ज्ञानामृतम्) ज्ञान रूपी अमृत (यः) जो (न) नहीं (पीतम्) पिया गया (तेषाम् ) उनके (इष्टम् ) इष्ट कार्य (हिं) निश्चय से (दु:श्रुतम्) कठिन श्रुत हैं। दूसरे प्रकार से पाठान्तर का उत्तर दया धर्ममजानानो निर्ग्रन्थानाम सेवकः योऽश्रुतोऽहत्प्रणोतार्थं स नरः पापपण्डितः ॥४५।। अन्ययार्थ-(यः) जो (दयाधर्ममजानानः) दयाधर्म को नहीं जानता. (निर्ग्रन्था Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - N YEH -- M क - rine APAT Pory राजकन्याएँ श्रीपाल से अपने श्नों के उपर मुनते हुए। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद | [ ३५७ नाम् ) दिगम्बर साधुओं की ( असेवक : ) सेवा नहीं करता (अर्हत्प्रणीतार्थम् ) सर्वेज़ प्रणीत अर्थ को ( अद्भुतः ) नहीं सुनता (सः) वह ( नरः ) मनुष्य ( पापपण्डितः ) पाप पण्डित है । I भावार्थ - तीसरी कन्या पौलोमी ने श्रीपाल के समक्ष अपनी समस्या उपस्थित की कि उनकी इष्टसिद्धि निश्चय ही दुःश्रुत है" उसका उत्तर महाराज कोटीभट श्रीपाल ने सर्वज्ञ प्रणीत युक्ति द्वारा यथार्थ उत्तर दिया । विलक्षण मति वाले को दुर्लभ भी कार्य सुलभ हो आते हैं । अतः श्रीपाल तत्क्षण बोले, सुनो विचक्षणे ! जिसने अपने जीवन में जन्म, मरण और वुढापे को नाश करने वाले ज्ञानामृत रूप वचनों को नहीं पिया। उसके इष्टसिद्ध होना शुरू ही है । अर्थात् इष्टसिद्धि हुई यह सुना ही नहीं गया ॥ ३ईको पार उत्तर निम्न प्रकार है- जो व्यक्ति दयारूपी धर्म को नहीं जानता, दिगम्बर निर्ग्रन्थ साधुओं की कभी सेवा भी नहीं की, तथा अर्हत प्रभु की दिव्यवाणी को भी जिसने कभी नहीं श्रवण किया वह मनुष्य पापियों में शिरोमणि है । पाप पण्डित है। मिथ्यात्व सर्वोपरि पाप है। सच्चे देव शास्त्र और गुरु की शरण से वहिर्भूत रहने वाला मिथ्यादृष्टि- पाप रूप ही है ।। ४५ । रण्णादेवी ततोऽवादीत् " नृसिहास्ते नरोत्तमाः ।" स्व बुद्धयेति महादक्षस्तस्याः प्रत्युत्तर जगौ ॥४६॥ शील होना नरा येऽत्र पशवस्ते नरा न च व्रताद्यै: निर्मलाः येsहो नृसिंहास्ते नरोत्तमाः ॥२४७॥ ( स भवेन्नर केसरीति च पाठ: ") सम्यक्त्वज्ञान चारित्र तपश्शीलादि निर्मलः । नारो वा यदि वा नारी स भवेन्नर केसरी ||४८ || अन्वयार्थ --- (तनः ) अनन्तर ( रण्णा देवी ) रण्णादेवी (अवादीत्) बोली " '(नृसिंहास्तेनरोत्तमाः ) " वे मनुष्य नरों में उत्तम हैं (इति) इस समस्या का ( महादक्षः) हे महा चतुर ( स्वया) अपनी तीक्ष्ण वृद्धि मे पूर्ति करो (तम्या : ) उसका ( प्रत्युत्तरम् ) उत्तर (जग) उसने दिया । ( यत्र ) यहाँ ( ये ) जो ( नराः) मनुष्य ( शीलहीना ) शीला चार विहीन है (ते) त्रे ( नरा) मनुष्य ( पशवः) पशु है (च) और ( नराः) मनुष्य (न) नहीं हैं (च) और ( ये ) जो मानव ( ताद्य : ) व्रतादि द्वारा ( निर्मलाः ) पवित्र हैं ( "ते नृसिहानरोत्तमा: ! " ) वे मानवों में सिह समान उत्तम जानों । अथवा ( स ) वह ( नरकेसरी भवत् ) मनुष्य में सिंह होता है। यह पाठान्तर है अर्थात् यह पाठ भी है। इसका उत्तर ( यदि ) अगर ( नरः ) मनुष्य पुरुष (वा) अथवा (नारी) नारी स्त्री ( सम्यक्त्व) सम्यग्दर्शन ( जान ) सम्यग्ज्ञान ( चारित्र) सम्यक् चारित्र ( तपश्शीलादिः) तप शील आदि से ( निर्मलः) पावन है ( स ) वह ( नरकेशरी, मनुष्य पर्याय में सिंह ( भवेत् ) होता है । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] [ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद भावार्थ-इसके बाद रण्णादेवी बोली, "वे मानसिंह उत्तम है" इस पहेली को हे महापुरुष पूर्ण करिये । अपनी सुक्ष्म बुद्धि का परिचय दीजिये । उसके प्रत्युत्तर में महामति बह श्रीपाल कहने लगा, जो मनुष्य शील-सदाचार बिहीन हैं वे पशु हैं मनुष्य नहीं तथा जो व्रतशीलाचारादि मण्डित हैं गुणों से उज्ज्वल हैं, हे पवित्रे वे मनुष्यों में सर्वोत्तम नरसिंह हैं : प्रथवा बह मनुष्य मानवों में केशरी होता है ।।४६-४७।। द्वितीय पाठ के उत्तर में श्रीपाल जी कहते हैं कि पुरुष हो या स्त्री जो रत्नत्रयमम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक पारित्र से युक्त है, तपशीलादि द्वारा जो पवित्र है उज्ज्वल है, बहो पुरुषकेशरी (नरसिंह) कहा जाता है ॥४८|| सोमोवाच पदहीवं सद्धर्म नियते मया श्रीपालो निजबुद्धयेदं, सुक्त पावत्रयं व्यधात् ॥४६।। लक्षणर्दशभियुक्तो दयामूलस्तपो ,युतः। मुक्तिवः केवली प्रोक्तस्सद्धर्म क्रियतेमया ॥५०॥ पुनश्च:--अहिंसा लक्षणोपेतो विश्वश्री शिवशर्मवः । जिनोदितस्सतां सेव्यस्सधर्मः क्रियतेमया ॥५१॥ पादक सम्पदाख्यात्यत्सान दृष्टोमया महान् । शेषपादत्रयं दक्ष उवाचेदं स्वबुद्धितः ॥५२॥ यो धत्ते ध्यानमात्मज्ञः स्वस्य द्वीपाब्धि संस्थितौ । स्वनिन्दा नान्यनिन्दाश्च स न हष्टोमया महान् ॥५३॥ (ददृशे न मया शक इति च पाठ,) परानिन्दो गुणग्राही करुणा रसिकोऽपि यः । भ्रमन पि जगद्विश्वं दहशे न मया शकः ॥५४।। अन्वयार्थ - (सोमा) सोमा (उवाच) बोली (हि) निश्चय ही (इदम्) यह (पदम्) पद ("सद्धर्मक्रियते मया") सद्धर्म मेरे द्वारा किया गया, (श्रीपालः) श्रीपाल (निजबुद्धया) अपनी बुद्धि से (युक्तम्) योग्य (इदम् ) यह (पादत्रयं) तीनपाद (व्यधात्) रखता है बनाता है कि जो (दशभिः) दश (लक्षणैः) लक्षण से (युक्तः) सहित (दयामूल:) दया रूपी मूलवाला (तपः युतः)तप सहित (मुक्तिदः) मुक्ति देने वाला (केवलीप्रोक्तः)सर्वज्ञ कथित (सः) बह (सद्धर्मः) श्रेष्ठधर्म (मया) मेरे द्वारा (क्रियते) किया गया। पुनश्च-फिर भी (अहिंसालक्षण उपेतः) अहिंसा लक्षण सहित (विश्व श्री) सांसारिक वैभव (शिवशर्मदः) और मोक्ष सुख देनेवाला (जिनोदितः) जिनभगवान प्रणीत (सताम्) सज्जनों से सेवनीय (सः) बह (धर्मः) धर्म (मया) मेरे द्वारा (क्रियते) किया गया ।।५१।। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०] [श्रीपाल चरित्र पष्टम परिच्छे । अश्यार्थ तदनन्तर (पश्विनी) पमिनी नाम वाली राजकुमारो (स्वचित्तस्थम्) अपने मन में स्थित विचार (आह) बोली (कि) क्या (सः) वह (भूतलें) पृथ्वीमण्डलपर (जीवति ) जीता है ? (तदा) तब (आकर्ण्य) इसे सुनकर (सः) उस श्रोपाल (सुधीः) बुद्धिवन्त ने (तरय) उस चरण का (इदम् ) इस प्रकार (उत्तरम् ) उत्तर दिदौ) दिया ।।५।। दानं चर्चा तपश्शीलं श्रुतधर्मजयादिकम् । यो क्षमः न हितं कर्तुं कि स जीवति भूतले ॥५६।। (तस्य भो जीवितेन किमिति च पाठः) अन्वयार्य-(यः) जो व्यक्ति (दानम्) दान (अर्चाम् ) पूजा (तपः) तय (शीलम्) पील (था धर्म जमादिमम) आगम का पठन, धर्म सेवन, जपध्यादि (हितम्) हित (कर्तुम् ) करने को (क्षमः) समर्थ (न) नहीं (सः) वह (किं) क्या (भूतले) संसार में (जीवति ) जीता है ? ॥५६॥ पाठान्तर का उत्तर देता है-- दानपूजा तपश्शीलधर्मेषु य इह क्वचित् ।। नानुरागी तथा भोगी, तस्य भो जीवितेन किम् ॥५७।। अन्वयार्थ-(इह) संसार में (य) जो (दानपूजातपशील धर्मेषु ) दान, पूजा, तप, शीलादि धर्मकार्यों में (क्वचित्) कभी भी (अनुरागी) प्रेमी (न) नहीं होता (तथा) अपितु (भोगी) भाग ही भोगता है (भो) हे भव्यो ! (तस्य) उसके (जीवितेन) जीवन से (किम् ) क्या ? ||५७।। भावार्थ-लक्ष्मी देवी के प्रश्नोत्तर हो जाने पर पभिनी देवी ने अपने मनोगत भाव ध्यक्त किये । उसने एक चरण समस्या के रूप में उपस्थित किया कि किस जोधति भूतले" क्या बह पृथ्वी पर जीवन्त है ? इसके शेष तीन चरण आप अपनी बुद्धि कौशल से बनाइये? यह सुनकर विचक्षण श्रीपाल ने तत्काल तीन चरणों को बनाकर नं० ५६ के श्लोक में युक्तियुक्त उत्तर दिया-- जो व्यक्ति चतुर्विध संघ को चार प्रकार का दान. श्री जिनेन्द्रप्रभु की अभिषेकपूर्वक अष्टप्रकारी पूजा, यथाशक्ति तप शोल धारण पालन अागम का अध्ययन, धार्मिक क्रिया, जप आदि हितकर कार्यों के करने में समर्थ नहीं होता अर्थात् इन उपर्युक्त कार्यों के करने में प्रवृत्त नहीं होता वह व्यक्ति-नर हो या नारी क्या भूमितल पर जीवन्त है ? अर्थात् मृतक समान है। उसका जीना निष्फल व्यर्थ है ।।५६ ।। इसी समस्या के दूसरे पाठ का उत्तर भी श्लोक नं० ५७ में निम्न प्रकार है जो व्यक्ति संसार में कभी भी दान नहीं देता, जिनपूजा नहीं करता, त्याग-संयम-तप धारण नहीं करता, शीलाचार पालन नहीं करता अन्य भी धर्मकार्यों का सम्पादन नहीं करता Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] उनमें प्रीति-अनुराग नहीं रखता अपितु सतत. भोगों में रत रहता है, हे भव्यजन हो उसके जीवित रहने से क्या प्रयोजन ? अर्थात् वह मात्र पृथ्वी का भार है, जीवन-मरण उसका एक समान ही है । अभिप्राय यह है कि दान पूजा करना तथा शील पालन, तप धारणादि ही मनुष्य जीवन के कर्त्तव्य हैं जो कर्तव्यनिष्ठ है उन्हीं का जीवन सफल है ।।५७।। चन्द्रलेखा वचोऽवादीत कि करोति तयात्र सः । श्रीपालो बुद्धिमान् प्राह तस्येदमुत्तरं स्फुटम् ॥५८।। अतिकान्तवयो वृद्धो बालां परिणयेत् यः। पार्श्वे तिष्ठतु तस्यषा "किं करोति तयात्र सः" ॥५६॥ पाठान्तर भी है—"तद्वाञ्छा निष्फलैव हीति च पाठः ।।" इसका उत्तर-- वृद्धा रोगी सवा दुःखो तथा यूक्कियारतः । विवाहति यः कन्या तहाउछा निकलेवहिं ॥६०॥ अन्वयार्थ अन्तिम समस्या उपस्थित करते हुए चन्द्रलेखा बोली, "उस स्त्री के साथ वह यहां क्या करता है ?' (किं करोति तयात्र सः ?) यह एक चरण है, तीन चरण बाकी के श्रीपाल जी अपनी बुद्धि से संयोजित करते हैं, जिसके फल स्वरूप ५८ वां प्रलोक है । इसकी रचना कर श्रीपाल जी ने अपनी हाजिर जवाबी बुद्धिकला का परिचय दिया । वह उत्तर में कहता है, जिसकी विवाह करने की बय-आयु बीत चुकी है, अर्थात् वृद्धावस्था आगई है वह पुरुष बाला छोटी कन्या के साथ यदि विवाह करे तो, बगल में बैठी ही भी उस कन्या से बह पूरुप क्या प्रयोजन सिद्ध करता है ? अर्थात भोग्य योग्य न होने से उसके परिणयन से कुछ भी साध्य नहीं हो सकता। अभिप्राय यह है समान वय गुण शोल वाली कन्या को परण कर ही मनुष्य रति सुख का अनुभव करने में समर्थ होता है अन्यथा नहीं। वेमेल बिवाह दुःख का कारण है ।।५८ ।। पाठान्तर का उत्तर निम्न प्रकार है बद्ध, रोगी, ध तक्रीडा में तल्लीन रहने वाला, सतत दुःखी जीवन बिताने वाला जो व्यक्ति कन्या के साथ विवाह करता है, उसकी इच्छा-आकांक्षा व्यर्थ ही है। अर्थात् वृद्ध भोग करना चाहता है किन्तु इन्द्रिय शक्ति क्षीण होने से स्त्री संभोगादि हास-विलास कर नहीं सकता। ईमृतक समान उसकी दशा से बह कन्या भी प्रसन्न नहीं हो सकती, उसे भी प्रसन्न करने को वह करे भी क्या ? इसी प्रकार रोगी पुरुष भी स्पर्शनेन्द्रिय जन्य भोग की वादा करता हुआ भी भोग का आन्नद ले नहीं सकता । जुयारी तो व्यसनासक्त हो उसे ही दाव पर लगा देता है वह रतिसुखानुभव क्या करेगा ? अहर्निग जो दारिद्रय से पीडित है तथा अन्य रोगादि से व्याकुल रहता है उसकी चाश्च्छा भो निष्फल हो जाती है। क्योंकि कन्या के साथ विवाह करने पर भी वह दाम्पत्य जन्य सुख नहीं पा सकता अतः उसके अरमान उसी में उठ-उठ कर विलीन होते रहते हैं। पानी के बबूले समान इच्छाएं उठकर विलीन होती रहती हैं ॥६॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद एवं पुण्याधिक श्रीमान् श्रीपालः स्वगुणोज्वलः । पूरयित्वा समस्यास्तास्सर्व विद्याविशारदः ॥६१।। तासां मनोऽम्बुजान्युचर्भास्करो वा जद्धितः । सुधीविकासयामास स्थ वाक्यकिरणोत्करैः ।।२।। अन्वयार्थ (एब) इस प्रकार (सर्व विद्याविशारदः) सम्पूर्ण विद्याओं में पारङ्गत (स्वगुणोज्वल:) अपने उत्तम गुणों से निर्मल, (पुण्याधिक श्रीमान्) तीन पुण्योदय से अपार लक्ष्मी का अधिपति उम् (श्रीपालः) श्रीपाल ने (ताः) उन (ममस्या) समास्याओं-पहेलियों को (पूरयित्वा) पूर्ण करके, (वा) जिस प्रकार (भास्कर:) सूर्य (अम्बुजानि) कमलों को (बिकासयति) विकसित करता है । उसी प्रकार (जगद्धितः) संसार का हित करने वाले (सुधीः) सम्यग्यानी भोपाल ने (स्व) अपनो (वाक्यकिरणोत्करः) वचनरूरो किरणों के समूह द्वारा (तासाम्) उन कन्याओं के (मनोऽम्बुजानि) मन रूपी कमनों को (उच्चैः) पूर्ण रूप से (विकासयामास) विकसित किया-प्रफुल्ल कर दिया। समस्या पूरणात्तत्र संतुष्टस्स महीपतिः । ख्यातो विजयसेनाख्यस्तस्मै सत्पुण्यशालिने ॥६३।। अन्वयार्थ (तत्र) वहाँ (समस्या) समस्या (पूर्णात्) पूरी करने से (स्यातः) प्रसिद्ध (विजयमेनाख्यः) विजयसेन (महोपतिः) भूपति (सन्तुष्ट:) सन्तुष्ट हुपा (मः) उसने (सत्) श्रेष्ठ (पुण्यशालिने) पुण्यशाली (तस्मै ) उस श्रीपाल के लिए। कन्या शतान्वितास्सर्वा षोडशविराजिताः । वस्त्राभरणसन्दोहैर्यथा कल्पतरो लताः ॥६४॥ विवाह विधिनाप्रोच्चमहोत्सव शतरपि । श्रीपालाय बदौ हेमनानारत्नादिकं पुनः ॥६५॥ गजाश्वरथपादाति छत्र चामर स ध्वजान् । दवाति स्म प्रमोदेन सत्यं पुण्यवतां श्रियः ॥६६॥ अन्वयार्थ--(श्रीपालाय) श्रीपाल के लिए (विवाहविधिना) पाणिग्रहण विधि पूर्वक (शतः) सैकडों (उच्चैः) महान (महोत्सवः) उत्सवों द्वारा (वस्त्राभरणसन्दोहै:) वस्त्र और अलङ्कारों के समूह से युक्त (यथा) जैसे कल्पनरोलता) कल्पवृक्ष की लता ही (प्रविराजिताः) सुशोभित हो ऐसी (षोडश) सोलह (शतान्त्रिता:) सौ कन्या (सर्वा:) सभी कन्याः) कन्याएँ (ददौ) प्रदान की (पुनः) पुनः, फिर (नाना) अनेक (हेम) सुवर्ग (रत्नादिकम् ) नव रत्नादि (गजाः) हाथो (अश्वाः, घोड़े (रथपादाति) रथ, पंदल सेना Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद . (छत्र चामर सध्वजान्) छत्र, चमर ध्वजाएँ आदि (प्रमोदेन ) आनन्द से (ददाति स्म) प्रशन कों (सत्यम) नोतिकार कहते हैं वास्तव में (पुण्यवताम्) पुण्यात्मानों को ही (श्रियः) लक्ष्मी है। भावार्थ. सर्व विद्याओं और कलानों में निपुण कोटिभट श्रीपाल ने अपने वाक्चातुर्य और प्रत्युत्पन्नमति द्वारा उन श्रीपाल महीपति ने अपने वाक्य-वचनरूपी किरणों के प्रसार से उन कन्यानों के मनरूपी अम्बुजों को उसी प्रकार प्रफुल्ल-विकसित कर दिया, जिस प्रकार रवि रश्मियाँ कमल समूहों को खिला देती हैं। कन्याओं को सन्तुष्ट देखकर और श्रीपाल के प्रज्ञा चातुर्य से आकृष्ट राजा विजयसेन अत्यानन्दित हुए। उन्होंने उन आठों कन्यारत्नों के साथ समस्त सौलहसी (१६००) कन्याओं को विवाहविधि पूर्वक श्रीपाल को विवाह दी । उस समय कन्याओं का शृगार और सौन्दर्य देखते ही बनता था । अद्भुत नाना प्रकार के रंगविरंगे वस्त्र अनेक प्रकार के रत्नों जडित प्राभूषण पहने वे कन्याएँ ऐसी शोभ रहीं थीं मानों कल्पवृक्ष की लताएँ ही रुन-झन करतीं नत्य कर रही हों । सर्वत्र आनन्द छा गया । संकडों प्रकार के गान, वाद्य, मंगलपाठ, रत्नचूर्ण से पूरे गये चौक, हासबिलास आदि उत्सव मनाये गये। आबालवृद्ध सभी प्रसन्न थे । महाराज ने वरदक्षिणा में अनेकों सुवर्णरत्नादि, गज, अश्व, रथ, पादाति दिये, छत्र, चमर, ध्वजा-पताकाम्रो की संख्या नहीं थी। अत्यन्त प्रमोद-उल्लास से अनेकों सम्पदाएँ प्रदान की। यहां प्राचार्य कहते हैं कि वास्तव में लक्ष्मी पुण्य की चेरी है। जिसके साय पुण्य है, धन-वैभव स्वयं प्राकर उसके चरण चूमता है ।। ६१ से ६६ ।। कङ्कणद्वीपनाथेन रक्षितोऽपि महाग्रहात् । तस्मादपि स्वसैन्येन संयुक्तो निर्ययौ महान् ।।६७।। अन्वयार्थ--(कवणद्वीपनाथेन) उस कङ्कणद्वीप के भूपाल द्वारा (महान् ) अत्यन्त (आग्रहात्) आग्रह से (रक्षित: अपि) रोके जाने पर भी (स्वसैन्येन) अपनी सेना के (संयुक्तः) साथ (तस्मादपि) वहाँ से भी (निर्ययो) निकल गया । भावार्थ.. कडुणद्वीप के महीपति ने अनेकों प्रकार के धन-धान्य, सम्पत्ति, सैनादि वैभव देकर अपनी कन्याओं का विवाह श्रीमान् श्रोपाल के साथ कर दिया और वहीं रहने का आग्रह किया । किन्तु मनस्वी श्रीपाल ने इस प्रार्थना की ओर दृष्टि न दे वहां से भी प्रस्थान कर दिया । अनेकों सेना, सेवक उसके साथ चले। ताभित्र/भिस्समायुक्तस्सलता वा सुरद्रुमः । पर्यटल्लीलया नित्यं याचकादींश्च तर्पयन् ॥६८।। पञ्चपण्डित नामनं देशं गत्वा स भूपतिः । श्रीपालः पालितानेक मण्डलो महिमान्वितः ॥६६॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] [ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद तत्र क्षत्रिय भूपानां महोत्सवशतैर्युतम् । सहस्रद्वितीयं कन्याः परणीय यथा सुखम् ॥७०॥ मल्लिवाल महादेशे कन्या सप्तशतानि च कलिंगदेशमध्ये च सहस्र कन्यकाः पराः ॥७१॥ परणीय पुनः प्राप पत्तनं बलवर्तनम् । तंत्र श्री धनपालास्यस्स राजा परया मुदा ।।७२।। महासैन्य समायुक्तं महासम्पद्विराजितम् । श्रीपालं संविलोक्योच्चैः परमानन्द निर्भराः ।। ७३ ।। सुधीरसन्मानयामास महोत्सव शतैरपि । भार्यास्सर्वाश्च संप्रापुः महाप्रीति परस्परम् ॥७४॥ श्रन्वयार्थ – ( ताभिः ) उन (स्त्रीभिः ) स्त्रियों से ( समायुक्तः) सहित (वा) मानों ( सुरद्रमः) कल्पवृक्ष के सह (पर्यटन) घूमते हुए ( लीलया ) विलास पूर्वक ( नित्यम ) प्रतिदिन ( यात्रकादीन् ) भिक्षुकों को (तर्पयन् ) संतुष्ट करते हुए (च) और (पञ्चपण्डित - नामानं ) पञ्चपण्डित नामक ( देशम् ) देश को (गत्वा) जाकर (सः) उस ( अनेकमण्डिलापालितः ) अनेकों मण्डलों को पालन करने वाले ( महिमान्वितः ) महा महिमा सम्पन्न ( भूपतिः ) राजा ( श्रीपाल : ) महीपति श्रीपाल ने ( तत्र ) वहाँ (क्षत्रियभूपानाम् ) क्षत्रियराजाओं की ( सहस्रद्वितयम् ) दो हजार ( कन्याः ) कन्याओं को ( यथासुखम् ) सुखपूर्वक ( महोत्सवशतैः ) सैंकडों उत्सवों के ( श्रुतम् ) साथ (परिणीय) विवाहकर (च) और (मल्लि - वालमहादेशे ) मल्लिवाल महादेश में (सप्तशतानिकन्या) सातसौ कन्याओं को (च) और ( क लिंगदेश मध्ये ) कलिङ्गदेश में (परा : ) दुसरी ( सहस्रकन्यकाः ) हजार कन्याओं को ( परिणीय) विवाह कर ( पुनः ) वापिस फिर ( दलवर्त्तनं पतनम् ) दलवर्तनपत्तन ( प्राप) आया (तत्र) वहाँ (परयामुदा) अत्यन्त हर्षित ( धनपालाख्यराजा ) धनपाल राजा (सः) उसने ( महासैन्यसमायुक्तम् ) महानविशाल सेना सहित ( महासम्पद्विराजितम् ) बहुत विभूति सहित (श्रीपाल ) श्रीपाल को ( संविलोक्य) देखकर (परमानन्दनिर्भराः) परम आनन्द से ( सुधीः ) बुद्धिमान को (अपि) और भी ( महोत्सवशतः ) सैकड़ों उत्सवों द्वारा ( सम्मानयामास ) सम्मानित किया (च) और (सर्वाः ) सम्पूर्ण ( भार्याः ) पलियाँ (परस्परम् ) आपस में ( महाप्रीतिम ) प्रत्यन्त प्रीति को (सम्प्रापुः) प्राप्त हुयीं। भावार्थ- महाभियाधिपति श्रीपाल नृपति १६०० कन्याओं को विवाह कर उनके साथ लीला पूर्वक विदेश जाने लगा तो ऐसा प्रतीत होता था मानों कल्पवल्लरियों से सुशोfor hoपवृक्ष ही हो । हास विलास विनोद पूर्वक वह पञ्चपण्डित नामक देश में जा पहुँचा । अनेकों प्रकार दान देता हुआ सबको संतुष्ट करता जाता । अनेकों मण्डलों का पालन कर महा Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ] [ ३६५ महिमा को उसने प्राप्त कर लिया था। उस देश के अनेकों क्षत्रिय राजाओं की दो हजार रूप लावण्य कलाविज्ञान चतुर कन्याओं के साथ विवाह किया। उस समय संकडों महोत्सव हुए। यथासुख भोगोपभोग में निमग्न वह आगे बढा । मस्लिवाल महादेश में जा पहुँचा । वहाँ भी उसके पुण्य प्रताप से अनेकों विभूति सहित सात सौ ( ७०० ) कन्या रत्न प्राप्त हुए। सबके साथ यथाविधि विवाह कर कलिङ्गदेश में पहुँचा । वहाँ पुनः एक हजार अन्य कन्याओं से विवाह किया। सबके साथ प्राप्त धन, बल, दल सेना आदि वैभव के साथ पुनः आमोद-प्रमोद करता हुआ दल पतन ( द्वीप ) में आया । विख्यात राजा धनपाल ने उसके राजवंभव को देख महान संतोष प्राप्त किया तथा अत्यन्त आनन्द से समस्त रानियों सहित उसका भव्य स्वागत किया । कुशल-क्षेम पूछी। प्रमोद भाव से परस्पर मिले। इसी प्रकार यहाँ उपस्थित रानियाँ इन नवागत रानियों के साथ मिलकर परस्पर परम हर्ष को प्राप्त हुयों मानों जन्मान्ध को निर्दोष स्वच्छ नेत्र ही प्राप्त हुए हो ।। ६५ से ७४ ।। तत्र स्थित्वा कियत्कालं स श्रीपाल महानृपः । सुधीस्सर्वं प्रियोपेत सुखं भुञ्जन्मनोहरम् ॥७५॥ एकदा स निशामध्ये चिन्तयामास मानसे । अस्थाहो शरणकालो गतो बहुतरो मम ॥ ६६॥ तो यदि न यास्यामि द्रुतभुज्जयिनी पुरिम् । स्वाध मत्प्रियाऽवश्यं ग्रहिष्यति तपोधनम् ॥७७॥ अन्वयार्थ - ( तत्र ) वहाँ दलबर्तनपुर में (सर्व) समस्त ( प्रियोपेत ) प्रियाओं सहित ( मनोहरम् ) सुन्दर प्रिय ( सुखम् ) सुख (भुजन ) भोगते हुए ( सुधी) विद्वान् ( महानृप ) महाभूपति ( स ) वह (श्रीपाल : ) श्रीपाल ( कियत्कालम् ) कुछ समय ( स्थित्वा ) रहकर (एकदा) एक समय ( स ) वह (निशामध्ये ) रात्रि में ( मानसे) मन में ( चिन्तयामास ) विचारने लगा, ( ग्रहो ! ) आश्चर्य ( मम ) मेरा ( बहुतर: ) बहुत सा (काल) समय ( शर्मा ) सुख पूर्वक ( गतः ) चला गया (अतः ) अनएव ( यदि ) अगर (स्व) अपनी (श्रवधौ ) अवधि पर ( द्रुतम) शीघ्र (उज्जयिनोपुरिम्) उज्जयिनी नगरी ( न यास्यामि) नहीं जाऊँगा तो ( मत्) मेरी (प्रिया) रानी (अवश्यम् ) अवश्य ही (तपोधनम् ) तप रूपी धन को (ग्रहिष्यति ) ग्रहण कर लेगी। भावार्थ सुख का समय व्यतीत होते देर नहीं लगता । श्रीपाल महाराज का भी अपनी नवोढा प्रियायों के साथ राग-रङ्ग में ग्रामोद-प्रमोद करते सुखपूर्वक कितना ही काल चला गया, कभी सोचा ही नहीं किधर समय जा रहा है और कितना निकल गया । फिर भी हृदयकोर में प्रति भाव कब तक दबे रह सकते हैं ? स्नेह का धागा हिला और उसके मानस को झकझोर दिया। एक दिन अर्द्धरात्रि का सन्नाटा | परन्तु श्रीपाल भूपाल के हृदया Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद काण में एक क्षीण प्रेमविद्य त की चिनगारी जल उठी वह सहसा चौका, निद्रादेवी भोत हो पलायन कर गई । विचारों का तांता यन्ध गया । वह सोचने लगा, अहो ! आश्चर्य है, मैं कितना कृतघ्न हूँ। अपना सारा समय भोगों में मस्त होकर बिता दिया । स्वयं मेरा समय सुख से जा रहा है. परन्तु मेरे जीवन को आधारभूत मेरी प्रिया मदनसुन्दरी का क्या होगा ? वह सती, धर्मज्ञा मेरो अवधि तक ही प्रतीक्षा करेगी । निश्चय ही यदि बारह वर्ष के अन्दर मैं उज्जयिनी नगरी नहीं पहुँचा तो वह अवश्य ही जिनदीक्षा धारण कर लेगी। क्योंकि मनस्वी अपने बचन पर अडिग रहते हैं। मुझे भी मेरी प्रतिज्ञा का अवश्य पालन करना चाहिए । अस्तु, अन्न अविलम्ब उज्जयिनी जाना ही चाहिए। इस प्रकार कृत निश्चय हुआ ॥७५, ७६, ७७।। पोक्त मवनसन्दर्या वचनं सत्य संयुतम् । स्मृत्वा तां भूपति प्रोक्त्या स्व यानं स्य पुरिं प्रति ॥७॥ चतुरङ्ग महासैन्यालंकृतोन्तः पुरा वृतः । पुरिपुज्जयिनी गन्तु संचचाल ध्वजादिभिः ।।७।। अन्वयार्थ - (सत्यसंयुतम् ) यथार्थता से भरे, सत्यपूर्ण (मदनसुन्दयाँ) मदन सुन्दरी द्वारा (प्रोक्तम् ) वाहे हुए (वचनम् ) वचनों को (स्मृत्वा) याद कर (ताम् ) उनको (भूपतिम् ) राजा को (प्रोक्रवा) कहकर (चतुरङ्गमहासैन्यालंकृतः) गज, सत्य, रथ, पदाति चतुर्बल सेना से शोभित (अन्तः पुरावृतः) अन्तः पुर से प्रावृत (स्वयानं) अपनी सवारी को (स्वपुरिम्) अपनी पुरी (उज्जयिनीम् ) उज्जयिनी को (प्रति ) ओर (गन्तुम् ) चलने को (ध्वजादिभिः) प्रजादि से सज्जित (संचचाल) चल पड़ा। भावार्थ - श्रीपाल महाराज को अब क्षण-क्षण भारी हो गया । वे एक पल भी विलम्ब करना नहीं चाहते थे । अतः मैंनासुन्दरी को कहे वचन कि 'बारह वर्ष के अन्दर मैं नहीं आऊँ तो तुम जिनदीक्षा ले सकती हो" अपने श्वसुर को विदित करा दिये और प्रस्थान की स्वीकृति ग्रहण की। तदनन्तर हाथी, घोड़ें, रथ, पयादे ये चार प्रकार के सैन्यदल तैयार किये और अपनी नगरी को प्रस्थान की घोषणा की । अंतः पुर को समस्त रानियां सजधज कर तैयार हो गयौं । दास-दासियों समन्वित हुयीं । घण्टा बजाओं से रमणीय यान सबारियाँ सजी । इस प्रकार पूर्ण दलबल के साथ वह श्रीमन् श्रीपाल उज्जयिनी नगरी की ओर चल दिया 11७८, ७६॥ मण्डितश्चक्रवर्तीव नदद्वादित्र सद्ध्वनिः । प्रावृट्काल घनोयोच्चैस्सिञ्चन वित्तजलर्जनान् ।।८०॥ ऊर्जयन्तगिरि प्राप परमानन्द निर्भरः । सर्व सिद्धिप्रदं तुङ्ग सिद्धिक्षेत्रमनुत्तरम् ॥८॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] अन्वयार्थ---(नवद्) बजते हुए (वादित्रसद्ध्वनिः) बाद्यों की मधुरध्वनि से (मण्डितः) मण्डित (प्राबट्काल) वर्षाकालीन (घना: इव) बादलों के समान (उच्चः) अत्यन्तरूप से (वित्तजलः) धनरूपी जल से (जनान्) मनुष्यों को (सिञ्चन् सींचते हुए (चक्रवर्ती) चक्रवर्ती (इव) के समान, (परमानन्द) परम उत्कृष्ट आनन्द (निर्भरः) से भरे हुए थोपाल ने (अनुत्तरम् ) जिसके उत्तर में कहा न जाय ऐसा (तुङ्गम्) उच्च (सर्व) सवको (सिद्धिप्रदम् ) सिद्धि प्रदान करने वाले (ऊर्जयन्त गिरि) ऊर्जयन्त पर्वत (सिद्धिक्षेत्रम्) सिद्धक्षेत्र को (प्राप) प्राप्त किया ।।५०, ८१॥ भावार्थ-नाना प्रकार के वादिनी की मधुर म हीयो । दुन्दुभि की ध्वनि ने पाबसकाल ही उपस्थित कर दिया । धनरूपी जल से जन-जन का सिंचन करते हुए अर्थात् किमिच्छक दान देता हुआ चक्रवर्ती के समान परमानन्द से भरा हुआ श्रीपाल महीपति अपनी नगरी की अोर चला जा रहा है । मार्ग में उसे परम पवित्र, उत्तुङ्ग शिखरों से शोभित, भव्य. जनों को सिद्धि प्रदान करने वाला ऊर्जयन्त (गढ गिरनार) निर्वाण क्षेत्र मिला । अर्थात् श्री नेमिश्वर जिन भगवान की निर्वाण भूमि गिरनार पर्वत पर पहुँचे । यह महापवित्र विशाल गिरि साक्षात् सिद्धस्वरूप ही आनन्द दाता है ।।८०, ८१।। मुक्तिक्षेत्रमिवव्यक्तं भव्यानां सौख्यकारणम् । लसद्वनस्पति सार निर्भरायेस्समुज्यलम् ॥२॥ सर्वपापहरं सारं मुनोनामिव मानसम् । तं विलोक्य सुधीस्तत्र निधानं वा मुदं ययौ ॥८३॥ तं समारुह्य पूतात्मा सकान्तस्सपरिच्छदः ।। दृष्ट्वा नेमिजिनं तत्र सुरासुर सचितम् ।।४।। तत्र फाल्गुणमासे च सुधीराष्टान्हिकोत्सवे । अष्टोदिनानि दिव्यानि महोत्सव शतानिच ॥८॥ कृत्वा श्रीमज्जिनाधीश महास्नपन मुत्तमम् । पञ्चामृतप्रवाहैश्चविधाय विधिपूर्वकम् ॥८६॥ कप्रवासितैस्वच्छतोय सच्चन्दनाक्षतः । सुगन्ध कुसुमंदिव्यनवधः दुःखनाशनः ।।८७॥ रत्नक र सद्दीप कालागरू समुद्भवः नालिकेराम्रजम्बोर फलमुक्तिफलप्रदैः ॥८॥ श्रीमन्नेमिजिनेन्द्रस्य पादपनद्वयं मुदा । सम्पूज्य जगतांपूज्यं सोपचारः प्रियान्वितः ।।६।। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ [धीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद तथा श्री सिद्धचकं च समाराध्य सुखप्रदम् । शास्त्रं गुरुपदाम्भोजद्वयं चापि शुभावहम् ।।१०।। स्तुत्वानत्वा महास्तोत्रर्जप्त्वा जाप्य जिनेश्वरम् । महावानादिकंवत्वा समूतीर्य गिरेस्ततः ॥११॥ सज्जनस्संयुतो धीमान पात्रदानादिपूर्वकम् । पारणाञ्च विधायोच्चस्ततस्सयं गुणाकरः ।।२।। सौराष्ट्रदेश भूमीशकन्याः पञ्चशतानि च। परिणीय महाभूत्या परमानन्द निर्भरः ।।१३।। अहिछत्राधिपं तत्र शक्त्यारिदमनाह्वयम् । महान्तंगर्वलक्ष्म्याढ्यं स साधाऽयौ स साधनः ।।१४।। प्रन्वयार्थ --(भव्यानाम् ) भव्य प्राणियों को (व्यक्तम् ) साक्षात् (सौख्यकारणम् । सुख का कारण (मुक्तिक्षेत्रम्) मोक्षपुरी (इव) समान (सार) सारभूत (वनस्पति) वनस्पति को धारण करने बाला (निर्भराय:) झरने आदि से (समुज्वलम्) शुभ्र (लसद्) शोभायमान्, (मुनीनाम्) मुनिराजों के (मानसम्) मन के (इव) समान (सर्व) सम्पूर्ण (पापहरम् ) पापों को हरने वाला (सारम्) सारभूत (तम्) उस गिरिराज को (विलोक्य ) देखकर (सुधी:) वह ज्ञानी श्रीपाल (निधानम् वा) मानौ निधि हो (मुदा) आनन्दित (ययौ) हुआ (तत्र) वहाँ (तम् ) उस ऊर्जयन्तगिरि पर (समारुह्य) चहकर (सुरासुरसमचितम्) सुर और असुरों से पूजित (मिजिनम् ) नेमिनाथ जिनेश्वर को (दृष्ट्वा ) देख कर (सकान्ताः ) अपनी रमणियों सहित (सपरिच्छदः) समस्त परिकर युक्त (तत्र) वहीं (पूतात्मा सुधीः) पवित्रात्मा बह विवेकी नृपति (फाल्गुनमासे) फागुन मास में पाये (आष्टातिकोत्सवे) आष्टाह्निकपर्बोत्सव में (अप्टौदिनानि) आठ दिन तक (शतानिमहोत्सव) सैकडौं महोत्सव (कृत्वा) करके (च) और (विधिपूर्वक) विधिवत् (पञ्चामृतप्रवाहै) पञ्चामृतों के प्रवाह से (श्रीमज्जिनाधीशस्य) श्रीमज्जिनेश्वर प्रभु का (उत्तमम् ) सर्वोत्कृष्ट (महास्नपनम) महाभिषेक (विधा करके तथा(क' रवासित:) कर्पूर से सुगन्धित (स्वच्छतोयैः)निर्मल जल से (सच्चन्दनाक्षतैः) चन्दन, अक्षतों से (सुगन्धकुसुमैः) रुगन्धित पुष्पों से (दिव्यः) दिव्य (नैवेद्यः) चरुनों से जो (दुःखनाशन:) दुखों की नाशक है, (रत्नकर्पू रसद्दीपः) रत्न, कर्पूर से निर्मित उत्तम दीपकों से, (कालागरुसमुद्भवः) कालागरुचन्दनादि से निर्मित धूप से (मुक्तिफलप्रदेः) मुक्तिरूपी फल को देने वालो (नालिकेराम्रजम्बीरफल:) श्रीफल, प्राम, विजारादिफलों से (प्रियान्वितः) रानियों के साथ (सोपचारः) पञ्चोपचारी (जगताम् पूज्यम) विश्वपूज्य (श्रीमन्नोमिजिनेश्वरस्य) श्रीमान् नेमिनाथ भगवान के (पादद्वयम्) युगल चरणों को (मुदा) अानन्द से (सम्पूज्य) पूजकर (तथा) तथा (सुखप्रदम् ) सुख देने बाले (श्री सिद्धचक्रम् ) श्री सिद्धचक्र की (समाराध्य) सम्यक् आराधना कर (च) और (शुभावहम् ) सुख-शान्ति प्रदाता (शास्त्रम् ) Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] [३६६ जिनवाणी (च) और (गुरुपादाम्भोजद्वयम ) गुरुदेव के उभयचरण कमलों को (अपि) भो (महास्तोत्रः) उत्तम स्तोत्रों द्वारा (स्तुत्वा) स्तुति करके (नत्वा) नमस्कार करके (जिनेश्वरम्) (जिनराज प्रभू को (जाप्यैः) जपद्वारा (जप्त्वा) जाप करके (ततः) पुनः (गिरेः) पर्वत से (समुत्तीर्य) उत्तर कर (महादानादिकं दत्वा) महा दानादि देकर पुनः (धीमान्) उस बुद्धिमान ने (पात्रदानादिपूर्वकम् ) सत्पात्रदानादि सहित (सज्जनः संयुतः) सत्पुरुषों सहित (पारणाम् ) पारणा (विधाय) करके (ततः) इसके बाद (सर्वगुणाकरः) सर्वगुणयुक्त उस श्रीपाल ने (उच्च:) अत्यन्त (महाभूत्या) महाविभूति से (परमानन्दनिर्भरः) परम प्रमोद से भरे उसने (सौराष्ट्रदेशभूमीशकन्याः पञ्चशतानि) सौराष्ट्रदेश के भूपति की पांच सौ कन्याओं को (परिणीय) विवाह कर (च) और पुनः (महान्तम्) अत्यन्त (गर्वलक्ष्मादयम्) अहंकार रूप लक्ष्मी से भरे (अहिछत्राधिपम् ) अहिक्षेत्र के अधिपति (शक्त्यारिदमनाओं यम) शक्ति से यथार्थ नाम अरिदमन राजा को (ससाधन: ) योग्य साधनों से (असौ) इस नृप श्रीपाल ने (ससाघ) जीतावश किया। मावार्थ यहाँ आचार्य श्री ऊर्जयन्त गिरि का जीवन्त, यथार्थ मनोहर वणन करते हैं । मुक्ति और भुक्ति का दाता यह महापवित्र क्षेत्र अत्यन्त अनोखा और रमणीय है। भव्य जीवों को परमसुख देने वाला है। ऐसा प्रतीत होता है मानों सिद्धशिला का ही अंश हो । नाना प्रकार की अमोघ वनस्पतियों का भाण्डार है। निर्भरणों से कल-कल निदान करती हुयी स्वा, गिल जाम महती है जामका को साप्रक्षालन की प्रेरणा दे रही हो । वह पर्वतराज वीतराग मुनिराज के मन के समान विकार रहित परम पावन था। उसे अवलोकन कर उसका हृदय आनन्द से भर गया मानों कोई अद्ध त निधि ही प्राप्त हथी हो। वह उत्साह और उमङ्ग से उस गिरिराज पर समस्त रानियों एवं अन्य समस्त परिजनों सहित पारोहित हुआ । बहां सुर-असुरों मे सचित-पूज्य श्री नेमिनाथ जिनेश्वर प्रभु के दर्शन किये । उसी दिन फाल्गुनमास का आष्टाह्निक महापर्व आ पहुँचा । अतः श्रीपाल भूपति ने अपनी पत्नियों सहित नहीं आय दिन पर्यन्त विराज कर सैकडों महोत्सवों के साथ इस महापर्व को मनाया । पञ्चामृतों के महा प्रवाह से कान्ताओं सहित श्रीमन्नेमीश्वर जिन का महामस्ताभिषेक किया । पुन: क्रमशः विधिपूर्वक सुगन्धित निर्मल जल से, उत्तम मलयागिरिचन्दन से, अखण्ड स्वच्छ अक्षतों से नाना प्रकार सुवासित पुष्पों से, दुःखनाशक मधुर चरुओं से, रत्न, कञ्चन के कर्पूर ज्योति सहित दीपों से, कालागरु आदि को सुगन्धित धूप अग्नि में खेकर, धूप से, श्रीफल, आम, जम्बीर, आदि समधुर, सुपक्व फलों से मुक्ति प्रदायी पूजा की। तथा अर्घ्य उत्तारण कर श्री नेमिश्वर प्रभ की महाभक्ति से अर्चना की । प्रभु के चरण-कमलद्वय में बार-बार अर्घ्य उतारण किया । इस प्रकार सोपचार पूजा को । अपनी प्रियाओं के साथ सुख को देने वाले सिद्धचक्र की सम्यक् आराधना की । तदनन्तर सुखदायक शास्त्र पूजा कर गुरुचरणम्बुजद्वय की भक्ति व से पूजा की। महास्तोत्रों से भगवान की स्तति कर, नमस्कार कर तथा जाप जपकर पर्वत से नीचे उतर कर महादानादिक देकर, सत्पात्रों को आहारादि दान देकर पुनः समस्त साधर्मीजनों से सयुक्त हो पारगणा किया । गुणसागर उस श्रीपाल ने वहाँ से प्रस्थान करने का बिचार किया। प्रस्थान के पूर्व उसने सौराष्ट्र नरेश की पांचसौ कन्याओं के साथ महाविभूति, Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०] [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद परमानन्द और महामंगल पूर्वक पाणिग्रहण किया । पुन: अहिछत्र का अधिपति जो अपने बल के मद से उन्मत्त हो रहा था । शक्ति के अनुसार ही जिसका अरिदमन नाम विख्यात था उस पराजित उसको मदलक्ष्मी का दमन किया । अनेकों अनुकूल साधनों से वश में किया। ___ यहाँ सम्यष्ट का लक्षण हमारे सामने सट उपस्थित होता है । जिस समय आत्मशोधन और कटुकर्मों के संहारक देव, शास्त्र, गुरु की पूजा, भक्ति, स्तुति, गुनगान करता है तो संसार, भोग, विषय कषायों को भूल जाता है । स्तुति किसे कहते हैं ? इसका समाधान करते हुए श्री समन्तभद्र स्वामी श्री अरहनाथ भगवान की स्तुति में कहते हैं --- गुरण स्तोकं सदुल्लंघ्य तद्बहुत्व कथा स्तुतिः । प्रानन्त्यात्तंगुणा वक्त मशक्यास्त्त्वयि सा कथम् ।। तथाऽपि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामाऽपि कीर्तितम् । पुनाति पुण्यकीतनस्ततो व याम किञ्चन ।। अर्थात् विद्यमान अल्पगुणों का उलंघन कर विशेषगुणों का कथन करना स्तुति कल्लाती है । अर्थात् कुछ मुणों को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ा कर कहना स्तुति कहा जाता है किन्तु हे भगवन ! आपके गुण तो अनन्त हैं फिर बढाना-चढाना किस प्रकार हो सकता है । तो भी हे मुनीन्द्र ! आपका नाम मात्र लेना या कथन करना भो पुण्य वृद्धि का कारण है । इसलिए हे प्रभो! मैं कथन करता है। इसी प्रकार श्रीपाल जी श्री नेमिनाथ भगवान का गमगान कर पाप नाश और पुण्यार्जन कर चल पड़े। पुण्य से असाध्य भी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । अतः अरिदमन जैसे महावीर को जोतने में उसे तनिक भी कलेश नहीं हुअा ।।८२ से १४।। मान भङ्गन सम्प्राप्य वैराग्यं शिवकारणम् । स वैरिदमनाख्यो स्वानुजे राज्यं वितीयं च ॥६५।। यशोधर मुनि विश्वहितं नत्वा शिवाप्तये । जग्राह परया शुध्या जगद्वन्ध सुसंयमम् ॥६६।। मन्वयार्थः- (मानभङ्गन) पराजित होने से (सः। वह अरिदमन (शियकारणम्) मुक्ति का कारणभूत (वैराग्यम्) बैराग्य (सम्प्राप्य) प्राप्त कर (वैरिदमनाख्ये) वैरीदमन नामक (स्वानुजे) लघुभाई को (राज्यम्) राज्य (वितीर्य) देकर (विश्वहितम्) जग के हितकारी (यशोधरमुनिम्) यशोधर नामक मुनि को (नत्वा) नमस्कार कर (शिवाप्तये) मोक्ष के लिए (जगद्वन्द्य) विश्ववन्द्य (सुसंयमम्) उत्तम संयम को (परयाशुध्या) उत्तम शुद्धि से (जग्राह) धारण किया । भावार्थ-संसार के दुःखों में “मानभङ्ग" सबसे बड़ा कष्ट है । मानखण्डित होने पर, मूर्ख प्रात्मघात और ज्ञानो वैराग्य धारण कर लेता है । अर्थात् मानभङ्ग करवा कर जीना मरना ही है । अस्तु अरिदमन का श्रीपाल द्वारा मानभङ्ग हुअा । उसे एक क्षण पूर्व जो राज्य - Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ] [ ३७१ वैभव गौरव और सुख का साधन दिखता था वही अब विषधर समान प्रतिभाषित होने लगा। संसार, शरीर और भोग तृणवत् त्याग दिये । राज्यभार अपने लघुभ्राता वैरिदमन को समर्पित कर दिया, स्वयं यशोधर मुनिराज के चरणों में जाकर परम विशुद्धि से मुक्तिदाता दिगम्बरजिनदीक्षा धारण कर ली । उत्तम सकल संयम धारण कर कर्मोच्छेदन में संलग्न हो गये। पराभव ने क्षणभंगुर संसार का यथार्थ चित्र खोल दिया । यह शरीर क्षणभंगुर है । शरीर से आत्मसाधना नहीं की तो वह शक्ति पशुबल है, संसार वर्द्धक है, त्याज्य ही है । उसी शक्ति को त्याग-वैराग्य के लिए अपए कर दी तो चिर सुख और शान्ति का हेतु हो जाती है । अस्थिर शक्ति से स्थिर शक्ति-अनन्तबल प्रकट कर लेना ही बुद्धिमानों का कार्य है । अतएव अरिदमन ने अपना जीवन संयम की खेती में अर्पण कर दिया । दुर्द्धर तप धारण किया ।।६५, ६६।। तस्येव सेवको वैरिदमनोऽभूभयंवहन् । किं किं न जायते स्वेष्टं पुण्यात् तपसोप्यसौ ॥१७॥ अन्वयार्थ - (असौ) वह (वैरिदमनः वैरिदमन राजा (भयम् ) भय (वहन् ) धारण करता हुआ (तस्य) श्रीपाल का (एब)ही (सेवक:)सेवक (अभूत्) हो गया, सत्य है (पुण्यात्) पुण्योदय से (तपसा) तप से (किं किम्) क्या-क्या (स्व) अपना (इष्टम्) इष्ट (न) नहीं (जायते) होता ? भावार्थ बह वैरिदमन राजा तो हुना परन्तु श्रीपाल राजा के बल-पराक्रम के सम्मुख टिक न सका भयातुर हो उसी की शरण में जा गिरा अर्थात् श्रीपाल की प्राधीनता स्वीकार की। पुष्य और तप से क्या-क्या सिद्ध नहीं होता ? अर्थात् सब कुछ साध्य हो ही जाता है । इसलिए भव्य जीवों को प्रयत्नपूर्वक पुण्यार्जन अवश्य ही करना चाहिए ।।१७।। श्रीपालस्सद्वतोपेतो लीलया साधयन्महीम् । भूरिसंन्यो महाराष्ट्रदेशं, गत्वा महोत्सवः ।।६८॥ तद्देशानेकराजेन्द्र कन्यापञ्चशतानि च । परिणीयततोधीरो देशे गुर्जर संज्ञके ||६|| जित्वा गौर्जर भूपालान् स्वपुण्यपरिपाकतः । कन्यास्सप्तशतान्युच्चस्तेषां लात्वा धनादिभिः ॥१०॥ मेदपाटस्थ भूपानां सारकन्या शतद्वयम् । विवाहविधिना धीमान् समादाय गुणोज्वलः ॥१०१॥ ततोऽन्तथासीनां राज्ञा सारकन्याविभ तिभिः । सुधीष्पण्णवतिश्चाति संभ्रमेण मनोहराः ॥१०२॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२] [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद परिणीय ततोमध्ये बहुदेशाधिनायकान् । जित्वातान् रत्नमाणिक्य प्राभ तानांशतानि च ॥१०३।। गृहीत्वा मत्तमातङ्ग तुरङ्ग धनादिकम् । गृह णन् पदे-पदे पुण्यात् सोत्साहपालयन्महीम् ।।१०४।। आज्ञा विस्तीर्य च स्वस्य चतुरङ्ग बलयुतः । रूपलावण्यसम्पन्नः स्वान्तः पुर समन्वितः ।।१०।। अत्यन्त पुण्यपाकेनपूर्ण दिशवत्सरैः । प्रोगय महानश्वर श्रीसुखाङ्कितः ॥१०६।। समागत्य प्रभ स्तत्र भेरीनादशतैस्तदा । उज्जैन्या बहिर्देशं व्याप्यसर्वत्र संस्थितः ॥१०७॥ अन्वयार्थ- (सबूतोपेतो) उत्तमव्रतधारी (श्रीपाल:) श्रीपालराजा (महासन्यः विशाल सेना सहित (लीलया) क्रीडामात्र से (महीम्) पृथ्वों को (साधयन्) जोतता हुआ (महोत्सवैः) महाउत्सवों से (महाराष्ट्रदेशम्) महाराष्ट्रदेश को (गत्वा) जाकर (तद्) उस (देशानेक) देश की अनेक (राजेन्द्र) राजा (च) और (पञ्चशतानि कन्याः) पानसी कन्याओं को (परिणीय) विवाह कर (ततः) पुन: (धीर:) वह धीर (गुर्जरसंज्ञके ) गुर्जरनामक (देशे) देश में (स्व पुण्यपरिपाकतः) अपने पुण्योदय से (गौर्जर) गुर्जर (भूपालान्) राजाप्रो को (जित्वा) जीतकर (तेषाम् ) उनकी (सप्तशतानि) शानसौ कन्या:) कन्याओं को (उच्चैः) बहुत (घनादिभि:) धनादि के साथ (लात्वा) लाकर (धीमान् ) बुद्धिशाली (मेदपाटस्थभूपानाम्) मेदपाटस्थ देश के राजाओं की (शतद्वय) दो सौ (सारकन्याः) उत्तम सुन्दरी गुणवतो कन्याओं को (विवाहविधिमा) विधिवत् विवाह कर (समादाय) लाकर (ततः) इसके बाद (गुणोज्वल:) निर्मलगुणों से दीप्तिमान् बह (अन्तवासीनाम् ) निकटवर्ती अन्य देशों के (राज्ञाम्) राजाओं को (मनोहरा:) सुन्दर (सारकन्याः ) अनुपम बालानों (पष्णवति) छियानवे (सारकन्या:) अप्सरा समान कन्याओं को (सम्भ्रमेण) उत्साह (च) और (अतिविभूतिभिः) अत्यत वैभव के साथ (परिणोय) परणकर (सुधी:) विद्वान् (ततोमध्ये) वहाँ मध्य में (बहुदेशाधिनायकान्तान्) बहुत से देशों के अधिपति राजाओं को (जित्वा) जीतकर (च) और (शतानि) सैकडों (रत्नमाणिक्य प्राभूतानाम् ) रत्न, मागिाक्य आदि उपहारों (भेटों) को (गृहीत्वा) लेकर, (पुण्यात्) पुण्य से (पदे-पदे) पग-पग पर (मत्तमातङ्ग) मदोन्मत्त विशाल गज (तुरङ्ग) अश्व (धनादिकम् ) अनेक प्रकार धनादि को (गृहणन् ) स्वीकार करता हुआ (सोत्साह) उत्साह से (महोम्) पृथ्वो को (पालयन् ) पालन करता हुआ (च) और (चतुरङ्गबलैः) चतुरङ्गबल (युतः) सहित (स्वस्य) अपनी (आज्ञाम ) प्राज्ञा को (विस्तीर्य) विस्तृत करके (अत्यन्त पुण्याकेन) तोव्रतम पुण्योदय से (रूपलावण्यसम्पन्नाः) रूपलावण्ययुक्त (स्व:) अपने (अन्तःपुर) अन्तःपुर से (समन्वितः) परिवेष्टित (क्रमेण) क्रम से (द्वादशवत्सरैः) Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ] [ ३७३ बारह वर्ष (पू) पूर्ण होते होते ( महामण्डलेश्वर श्री सुखान्वितः ) महामण्डलेश्वर की राज सम्पदा से सुखानुभव करता हुआ ( तत्र ) बहाँ उज्जयिनी में ( समागत्य ) आकर ( नदा) तब ( प्रभुः ) प्रभुतासम्पन्न श्रीपाल ( भेरीनादशतः ) सकडा भेरी आदि वादियों के नाव से (उज्जैन्या) उज्जयिनी के (बहिर्देशम् ) वाह्य प्रदेश को ( सर्वत्र ) चारों ओर ( व्याप्य) घेरकर (संस्थितः ) ठहर गया । भावार्थ — श्रीपाल धर्मज्ञ नीतिज्ञ तथैव राज्यशासन कला मर्मज्ञ भी था । त्यागवैराग्यभाव उसके चिर साथी हो गये थे । सर्वत्र आतङ्क विहीन प्रेम और वात्सल्य द्वारा विजयी होता और सबका प्रियपात्र, आदरणीय बन जाता । अरिदमन को पराजित कर और वैरिदमन उसके छोटे भाई को स्वाधीन बना वृहद् सेना लेकर अबिलम्ब सौराष्ट्र से महाराष्ट्र देश में आ पहुँचा । यहाँ लीलामात्र में अनेकों राजाओं को जोत लिया। अपना स्वामी बना यहां के अधिपति अपने को धन्य समझे। वहां के राजाओं ने अप्सराओं से भी अधिक सुन्दरी, गुणमfear, पाँचौ कन्याएँ प्रदान की । श्रीपाल भूपाल ने विधिवत् पाणिग्रहण कर उन्हें स्वीकार किया । वह परम संयमी, व्रती और धर्मकार्यनिष्ठ था । मात्र लोक व्यवहार के लिए युद्धादि करता । अतः शीघ्र ही पुनः वह धीर-वीर रणकौतूहली गुजरात देश में आ धमका। अपने पुण्यप्रताप की किरणों का प्रसार कर वहाँ के राजाओं को जीता। उनकी सात कन्याओं का महान विभूति और उत्सवों सहित विवाहा । पुनः वह राजनीतिज्ञ दूरदर्शी महाराज श्रीपाल मेघपाटस्थ देश के राजाओं को वश किया। उनसे सम्मान और अनेकों भेटों के साथ दो सौ उत्तम शोलवन्ती कन्याएँ प्राप्त की अर्थात् उनके साथ पाणिग्रहण किया । तदनन्तर गुणभूषण उस भूप ने अपने उस प्रान्तीय प्रास-पास के राजाओं को वश किया। तथा उनकी ६६ छियाणव मनोहर गुणवती सुशील कन्याओं के साथ पाणिग्रहण किया । इस प्रकार मार्ग में प्राप्त अनेकों राजाओं को पराजित कर उन्हें स्वाधीन बनाया, उनकी सुकुमारी अनि सुन्दरी कन्याओं को विधिवत् परणी । उनके द्वारा प्रदत्त अनेकों भेंट स्वीकार की । रत्न माणिक्य धन सम्पत्ति प्राप्त की । स्वयं भी उन्हें दान सम्मान प्रदान कर स्नेह पात्र बनाया। सर्वत्र प्रजा के साथ पुत्रवत् स्नेह रखता, सद्वान्धव समान प्रेम का व्यवहार करता। उनके द्वारा प्रदत्त अनेकों मत्तहस्ती, अश्व एवं अन्य धनादि को स्वीकार करता हुआ पद-पद पर अपनी प्रभुता और वात्सल्य का प्रसार करता हुआ जाता । सर्वत्र उदार हृदय से यथायोग्य श्रथिजनों को धनादि वितरण करता सन्तुष्ट मानस निर्विघ्न मार्ग पर वढने लगा। जिसके पास पुण्य है सुख, शान्ति, क्षेमकुशल उसके चरणों में स्वयमेव श्रा उपस्थित होते हैं । इस प्रकार बिना प्रयास के श्रीपाल अपने विशिष्ट पुण्योदय से प्राप्त चतुरङ्ग बल रथ, हाथी, घोडे-पयादे द्वारा अपनी आज्ञा का विस्तार करता हुआ, रूपलावण्य की खान, गुरणों की राशि रानियों सहित बारह वर्ष पूर्ण होतेहोते अर्थात् मात्र एक दिवस शेष रहने पर क्रमश: महामण्डलेश्वर समान श्री विभूति से विभू षित हो दल-बल के उज्जयिनी में जा पहुंचा। आठ हजार राजा इसकी आज्ञा शिरोधार्य करते, आठ चमर दुरते । यतः महामण्डलेश्वर हो गया । नाना भेरीनाद, सुमधुर वादित्रों की ध्वनि, नाना उत्सवों से संयुक्त श्रीपाल ने उज्जयिनी के बाहर प्रदेश में नगरी को चारों ओर से व्याप्त कर लिया अर्थात् घेरा डाल कर स्थित हुआ ।।६८ से १०७ ।। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४] [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद परचक्रं समायातमिति श्रुत्वा भयाकुलः । प्रजापालस्तदा राजा संजातो मानसेतराम् ॥१०॥ प्रत्ययार्थ--(तदा) जब श्रीपाल जी ने उज्जयिनी को घेर लिया और चारों ओर उसका जय-जय कार गुज उठा तो (प्रजापालराजा) वहाँ का प्रजापाल राजा (परचक्र) शत्रुसमूह (समायातम् ) पाया है (इति) इस प्रकार (श्रुत्वा) सुनकर (मानसे) मन में (तराम्) अत्यन्त ( भयाकुलः) भयभात (सजातः) हुआ। भावार्थ--श्रीपाल के दल-बल की और अपनी नगरी के प्रेरा की बात सुनकर उज्जयिनी का अधिपति प्रजापाल महीधर थराथरा रा ! इतना पट निर्भोक, शक्ति गालो शत्रुदल अचानक आक्रमण कर बैठा है यह सोचकर वह भय से प्राकुल-व्याकुल हो गया । प्रजा रक्षण राजा का प्रधान कर्तव्य है क्योंकि "यथा राजा तथा प्रजा" होती है। राजा पिता TAINERHITRA ALAN L YOG YOG ambadi LEARTHI JAIMER समान होता है तो प्रजा भी सन्तान-वत होती है । अतः प्रजापाल राजा प्रजारक्षा के उपायों को सोच अधीर हो उठा ।।१०।। युद्धार्थं समयस्त्रस्तो गजाश्व सुभटोत्करः । सामग्री कारयामास नानावस्तुशतैरपि ।।१०।। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद) [३७५ अन्वयार्थ---(सभयः) भय सहित (प्रस्तः) दुखो राजा ने (गजाश्व सुभटोत्करैः) हाथी तुरङ्ग. वीर सभटों के साथ (नानाबस्तुगत:) सैकड़ों प्रकार की अन्य सामग्री (अपि) भी (युद्धार्थम् । युद्ध करने योग्य (सामग्रीम्) अस्त्र-शस्त्रादि को कारयामास) तयार करायाएकत्रित किया । भावार्थ--प्रजापाल राजा पर चक्र के आक्रमण के प्राभास को पाकर तत्काल ही संग्राम की सामग्री तैयार करने में जुट गया । सत्य ही है कर्त्तव्यनिष्ठ अवसरानुसार कर्तव्य से च्युत नहीं होता । उसने गज, अश्व, अस्त्र, शस्त्र सुभट आदि समस्त सामग्री तैयार एकत्रित की। महाबली शत्रु का सामना करना है यह सोचकर वह अधीर हो गया फिर भी धैर्य छोडा नहीं ।। १०६ ।। उधर राजा प्रजापाल संग्राम की तैयारी में जुटा है । इधर श्रीपाल के मन में अपनी प्राणप्रिया के देखने की अभिलाषा उमंग के साथ वृद्धिगत हो रही है, वह क्षणभर भी अब समय खोना नहीं चाहता था क्योंकि मैनासुन्दरी को दीये समय की अवधि का यह अन्तिम दिन है । अत: वह प्रिया के भाव को ज्ञात करने की इच्छा से प्रच्छन्न रूप में कान्ता के पास जाने को तैयार हुए. तवा श्रीपाल राजोऽपि सैन्ये सेनापति निजम् । संस्थाप्य सर्वरक्षार्थ यी प्रान्छन तः ११ सारमुल्लंघ्य वेगेन स्वान्तरायमिवोन्नतम् । एकाकी तन्मनोज्ञातु कान्तावासं समाययौ ॥१११॥ अन्ययार्थ--(तदा) रात्रि में ही (श्रीपाल राज:) कोटिभट थीपाल नृप (अपि) भी (सैन्ये ) सेना में (निजम्) अपन (सेनापतिम) सेनापति को (सर्वरक्षार्थम्) सबकी रक्षा के लिए (संस्थाप्य) नियुक्त कर (रात्री) रात में (सारम् ) सीमा को (उल्लंघ्य) उलंघन कर (प्रच्छन्न) द्र पे (भावतः) भाव से (वेगेन) शोघ्र ही तीव्रगति से (स्वान्तरायमित्र) अपने अन्तराय के समान हो (उन्नतम) उन्नत (तन्मनोज्ञातुम् ) कान्ता के मनोगतभावों को जानने के लिए (एकाको) अकेला ही (कान्तावासम् ) प्रिया के निवासकक्ष में (समाययो) पाया ।।१११।। भावार्थ .. श्रोपाल उज्जयिनी के बाहर है परन्तु उसका मन अपनी प्राणप्रिया के पास है । रात्रिमात्र भी अब प्रिया के वियोग को सहने में समर्थ न हो सका । पवनञ्जयकुमार की भाँति रात्रि में हो जाने की तैयारी की। उसी समय अपने सेनापति को बुलाया, समस्त सेना को रक्षा तुम्हें करनी है यह आदेश दिया । उसे नियुक्त कर स्वयं प्रच्छन्न रूप से अकेला ही प्रिया के मनोभाव ज्ञात करने के अभिप्राय से निकल पड़ा। सच है प्रेम अन्धा होता है । लोक और समाज की मर्यादा का उल्लंघन इसे कठिन नहीं । लौकिकी विधियों में निपुण भो श्रीपाल अधीर हो भूल गया । उसे भय भी तो था कि "कहीं मेरी कान्ता दीक्षा न ले ले ।" अस्तु वह महासती पतिभक्ता एवं जिनभक्ता रमणी मैनासुन्दरी के भवन में पहुंच गया। वहीं Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद द्वार की प्राढ से उसकी गतिविधि को जानना चाहा । मन तो कभी का यहाँ पा चुका था अब शरीर ने भी उसी का अनुकरण किया । मानस ही उन्नत क्यों रहे शरीर भी तो उसका साथी है । अतएव श्रीपाल राजेन्द्र प्रिया महल में आ छ पकर बैठ गया ॥११० १११|| प्रच्छन्नं संस्थितं यावत् तावन्मदनसुन्दरी। स्वभावे संस्थितां श्वश्रू सतों संम्प्राह सादरम् ॥११२॥ अन्वयार्थ--(यावत्) जब कि श्रीपाल (प्रच्छन्नम् ) गुप्तरूप से (संस्थितम् ) आकर बैठ गये (तावत) उसी समय (मदनमुन्दरी) मैंनासुन्दरी (स्वभावे संस्थिताम) शान्तस्वभाव में स्थित बैठी (सतीम् ) साध्वोरुपा (श्वम्) साजो को (सादरम्) विनयभक्ति से (सम्प्राह ) कहने लगी। भावार्थ-उधर भूपेन्द्र श्रीपाल चुप-चाप आ बैठा, इधर उसी समय अपनी सती माध्वी शान्तस्वभावी सासू के पारा गाकर नमना और प्रादरभाव से विनयशोला मदनसुन्दरी अपना निर्णय कहने लगी । अर्थात् आगे क्या करना है-अभिप्राय बोली ।।११२।। क्या कहती है ययुस्संवत्सरा भो मात ! द्वादशव निरन्तरम् । प्रद्याऽपि नो समायात पुत्रस्ते वल्लभो मम ॥११३॥ इदानी संग्रहिष्यामि संयमं श्रीजिनोदितम् । पापसंताप दावाग्नेश्शमनैक धनाधनम् ।।११४॥ प्रन्धयार्ण—मैंनासुन्दरो अपनी साम से कहती है (भो मात ! ) हे मातेश्वरी ! (निरन्तरम् ) दिन-दिन करके (द्वादश) बारह (एव) हो (सम्बन्तरा:) वर्ष ही (ययुः) बोत गये किन्तु (अद्य) आज (अपि) भी (ते) अापका (पुत्र) बेटा (मम) मेरा (वल्लभः) प्राणबल्लभ (न) नहीं (समायालः) पाये। (इदानीम्) इस समय मैं (पाप सन्ताप दावाग्ने:) पाप, सन्ताप रूपी दावाग्नि को शान्त करने के लिए (शमनैक) शमन करने के लिए (घनाएनम् ) सघनबादल है ऐसा (श्रीजिनोदितम् ) श्रीजिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित (संयमम् । संयममहावत (गृहिष्यामि । ग्रहण करूंगी। भावार्थ - मदनसुन्दरी रात्रि के समय अपनी सास कमलावती से कहती है हे मातेश्वरी प्रतीक्षा करते हुए एक-एक कर ग्राज बारह वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं, परन्तु वचनानुसार आपके प्रिय पुत्र और मेरे प्राणेश्वर बल्लभ पतिदेव लौटकर नहीं आये। अब इस गहवास से मुझे. क्या प्रयोजन ? मैं इस समय पाप और सन्ताप का नाश करने वाला सबम धारण करूगी। हे माते ! स्त्री पर्याय के नाशक संयम का ही शरण मुझे. श्रेयस्कर है। श्रीजिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित तर हो मेरा आधार है । अस्तु, पाप तप को प्रान्ना दें ॥११३ ११४|| Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] [ ३७७ इति श्रुत्वा ततः प्राह सा सती कमलावती । भो स्नुषे शृण मत्पुत्रस्सुधीस्सत्य परायणः ॥११५।। जिन प्रवचने चञ्चुस्तस्य वाचा न चान्यथा । कि मेरुश्चलति स्थानात् किं सिन्धूमूञ्चति स्थितिम् ॥११६।। तिष्ठ त्वं साम्न बाले पुनचिन्न चरस . धर्मध्यानेन ते सत्यं भविष्यन्ति मनोरयाः ॥११७।। मन्वयार्थ-(इति) इस प्रकार मैंना सुन्दरी का निश्चय (श्रुत्वा) सुनकर (ततः) अनन्तर (सा) वह (सती) शीलवती (कमलावती) कमलावती (प्राह ) बोली (भो) हे (स्नुषे) ववू ! (श्रण ) सुनो (मत्पुत्र) मेरा सुत (सुधी) विद्वान है, (सत्यपरायणः) सतस सत्य भाषी, (जिनप्रवचने) जिनागम में (चञ्चुः) प्रवेश करने वाला है (किं) क्या (मेहः) सुमेरु पर्वत (स्थानात्) अपने स्थान से (चलति) चलायमान होता है ? (किम् ) क्या (सिन्धुः) सागर (स्थितिम्) सीमा को (मुञ्चति) छोडता है ? नहीं उसी प्रकार (तस्य) उसके-श्रीपाल (वाचा) वचन (अन्यथा) विपरीत (न) नहीं होंगे (च) और (बाले ! ) हे पुत्री ! (त्वम् तुम (साम्प्रतम) इस समय (धर्मध्यानेन) धर्म ध्यानपूर्वक (दिनचतुष्टयम ) चार दिन (तिष्ठ) ठहरो (पुनः) फिर (सत्यम ) निश्चय ही (ते) तुम्हारे (मनोरथाः) मनोरथ (भविष्यन्ति) पूर्ण होंगे। भावार्थ --मैनासुन्दरी दीक्षा को तैयार हुयी। उसने अपना मन्तव्य मपनी सास के Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८] [श्रीपाल चरित्र पष्टम परिच्छेद समक्ष प्रकट किया। उसके निर्णय और निश्चय को सुनकर कमलावती कहने लगी प्रिय बेटी! हे बधूटि के ! यह क्या कहती हो ? मेरा पुत्र सामान्य पुरुष नहीं है वह नरपुङ्गव है, विद्या का धनी है, सत्य का प्रतिपालक है, जिनागम का कीडा है, अहर्निश जिनागम के अनुसार चलने वाला है । क्या कभी सुमेरुपर्वत अपने स्थान से चल विचल होता है ? क्या कभी सागर अपनी मर्यादा-सीमा छोड सकता है ? नहीं कदापि नहीं। उसी प्रकार मेरा पुत्र अन्यथा वादी नहीं हो सकता । वह कभी असत्य भाषण नहीं कर सकता । हे बाले ! निर्विकार सुकुमारी मेरी बात सुनो और उस पर विश्वास करो, मानों। अभी तुम धर्मध्यान पूर्वक मात्र चार दिन घर में रहो इसके बाद मागास हो तुम्हारी न काम पूई होगी । और पुत्र प्रायेगा यह निश्चित समझो ॥११५ से ११७।। कमलावती पुन: अपनी प्रिय पुत्रवधू को समझाती हुयी कहती है श्रूयते परचक्रं च समायातं सुदारुणम् पश्य पुत्री पिता ते च साम्प्रतं किं करिष्यति ॥११८। अन्वयार्थ -(पुषि ! ) हे पुत्रि ! (श्रूयते) सुना है (सुदारुणम् ) महाभयङ्कर (परचक्रम ) शत्रुदल (समायातम् ) आया है (च) और भी (पश्य) देखो (साम्प्रतम ) इस समय (ते) वे तुम्हारे पिता (किम् ) क्या (करिष्यति) करेंगे ! (च) और पुन: मैना सुन्दरी कहने लगी ततो मदनसुन्दर्या पुनः प्रोक्त च तां प्रतिम् । भो मातम स्फुरत्युच्चश्चक्षुर्बाहुश्च वामकः ॥११६।। अन्वयार्थ-(ततो) कमलावतो जब कह रही थी उसी बोच में (पुनः) फिर से (मदनसुन्दर्या) मदनसुन्दरी (ताम् ) उसके (प्रतिम् ) प्रति (प्रोक्तम) बोली (भो) हे (मात) माता जी (में) मेरी (वामकः) बायो (चक्षुः) आँख (च) और (बाहुः) भुजा (उच्चः) तेजी से (स्फुरति) फडक रही है ।।११६॥ भर्ता मे श्रेयसांकर्ता सुभक्तो जिनशासने । दूरे सन्तिष्ठते मातस्संयोगः कीदृशो भवेत् ॥१२०।। अन्वयार्थ-~-(श्रेयसाम) कल्याणों के (कर्ता) करने बाले (जिनशासने) जिनशासन में (सुभक्तः) अत्यन्त भक्त (मे) मेरा (भर्ता) बल्लभ-पतिदेव (दूरे) अति दूर (सन्तिष्ठते) ठहरे हैं (मातः) हे माते ! आप ही कहो (संयोगः) समागम (कीदृशः) किस प्रकार (भवेत्) होवे ? भावार्थ - श्रीपाल महामण्डलेश्वर की मातु श्री कमलावती अपनी पुत्रीवत् प्रिय पुत्रबधु को समझाती है। बेटी सुनो, सुना है कि महादारण, भयङ्कर परचक्र ने आक्रमण किया Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] [३७६ है। नगरी को चारों ओर से घेर लिया है। इस समय तुम्हारा पिता राजा प्रजापाल क्या करता है यह सोचनीय है । राजा पर सङ्कट पाया है इस समय तुम्हारा गृहत्याग क्या शोभनीय होगा ? अत: थाडा धैर्य धरो । देख प्रात: क्या होता है । आकुल नहीं होना चाहिए । आदरणीय माँ की बात सुनते हुयो पूनः बह बोली ! माते ! यह क्या आश्चर्य है देखिये जरा मेरी बायीं आंख तेजी से फड़क रही है, इधर बायीं भुजा भी बेग से आपे से बाहर हो रही है । ये चिन्ह तो प्रिय मिलन के हैं परन्तु पाप ही कहिये यह किस प्रकार संभव हो सकता है ? क्योंकि मेरे प्रियतम तो यहाँ से बहुत दूर विराज रहे हैं, फिर भला संयोग कैसा ? मरे प्राणवल्लभ सभी कल्याणों के आधार हैं और जिनशासन के परम भक्त हैं, दूरदर्शी हैं. परन्तु हैं तो अति दूर, फिर मिलन की आशा किस प्रकार पूर्ण हो । यहाँ प्राचार्य श्री लौकिक घटनाओं का अत्यन्त स्वाभाविक और आकर्षक चित्रण किया है। सास बह की ग्रीति, संयभित संवाद, अन्त:करण के भावों का प्रभाव कितना सजीव जीता-जागता चित्रण हुआ कि प्राज की समाज को पूर्णत: आदर्श स्वरूप है । वर्तमान समाज की वे सास बनी माताएँ जो धन-दौलत की चाह में अपनी सुकुमारी बधुनों को अग्नि और पानी की शरण में वलात् पहुँचाने में नहीं हिचकतीं और वे बहुएँ जो अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्तियों की पूर्ति के लिए अपनी माता रूप सासों को बुलाने के लिए यमराज से प्रार्थना करती रहती हैं, इन्हें इस सास-बहू के जीवन से शिक्षा लेना चाहिए । इस प्रादर्श को माता-बहनें अपने जीवन में उतारलें तो निश्चय ही उनके हृदय में वसा दैत्य-दानव मानव और देवत्व के रूप में परिणमित हो जावे अर्थात् नारकीय जीवन स्वर्गीय जीवन बन जाय । देखिये अन्तःकरण की ध्वनि किस प्रकार साकार रूप धारण कर लेती है-- एवं परस्परालापं तयोः श्रुत्वा सहृष्टवान् । श्रीपालोऽपिजगौ मात ! समायातोहमत्र भो! ॥१२॥ अन्वयार्थ -(तयोः) उन दोनों सास-बहू का (एवम ) इस प्रकार (परस्परालापम्) आपस में होती बातों को (श्रुत्वा) सुनकर (सहृष्टवान्) अत्यन्त हर्षित होकर (श्रीपाल:) श्रीपाल (अपि) भी (जगी) बोल उठा (भो) है (मात ! ) माता (अहम् ) मैं (त्र) यहाँ (समायात:) पा गया। . भावार्थ- उन दोनों (सास-बहू) का वार्तालाप छ पकर सुनता हुआ श्रीपाल नपति परमानन्द को प्राप्त हुआ। उसका रोम-रोम उल्लसित हो उठा। जननी की ममता और पत्नि का प्यार एक साथ उमड पडा । इस आनन्द सिन्धु की उछाल को वह रोक न सका । भावाति रेक से सहसा उसकी प्रिय-मधुर ध्वनि गूज उठी, "माँ, मैं तुम्हारा दुलारा पुत्र यहाँ धा पहुंचा। यह अमृतवाणी उन दोनों के कर्ण कुहर से प्रविष्ट हो हृदय सरोवर में जा भरी । तब क्या हुआ वह अगले श्लोक में देखिये ।।१२१।। श्रीपाल श्रुतिमाकर्ण्य परमानन्दनिर्भरा । द्वारमुद्घाटयामास सती मदनसुन्दरी ॥१२२॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० । [ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद - अन्वयार्थ -(परमानन्दनिर्भरा) अत्यानन्द से आनन्दिता (मदनसुन्दरी) मैनासुन्दरी ने (श्रीपालश्रुतिम् ) श्रीपाल प्राणनाथ की वाणी (आकर्ण्य) सुनकर (द्वारम ) दरवाजा (उद्घाटयामास) खोला। भावार्थ -"ह मा ! आपका दुलार। पुत्र यही सेवा में उपस्थित है" इस वाणी को सुनते ही माता और भार्या के हर्ष की मीमा न रही। अविलम्ब सुन्दरी ने उठकर द्वार खोल दिया । द्वार खुलते ही समक्ष महासती मैंनासुन्दरी पर-दृष्टि पड़ी । किन्तु सद्बुद्धि विवेक का त्याग नहीं करती लोकव्यवहार और गुरूजनों को मर्यादा का पालन करना सुबुद्ध मानब का परम कर्तव्य है । तदनुसार प्रथम मातृधरण वन्दन करता है ।।१२२।। सन्मार्ग वा मुनेर्मेधा सारशर्मविधायका । तदा श्रीपाल भूपालो मातुः पादाम्बुजद्वयम् ॥१२३॥ ननाम परया प्रीत्या कुर्वन् सन्तोषमुत्तमम् । सत्यं सन्तोष कर्तारः सुपुत्राः कुलदीपिकाः ॥१२४॥ अन्वयार्थ--(वा) जिस प्रकार (सारशर्मविधायका) यथार्थ सुख विधायक (मुने:) मुनिराज की (मेधा) बुद्धि (सन्मार्गम् ) सम्यकमार्गानुगामिनी होती है उसी प्रकार (तदा) उस समय (श्रीपाल भूपाल.) श्रीपाल राजा ने (उत्तम) श्रेष्ठ (सन्तोषम् ) सन्तोष (कुर्वन ) करते हुए (परया) महा (प्रीत्या) प्रीति से (मातु:) माता के (पादाम्बुजद्वयम् ) चरण कमल युगल में (ननाम) नमस्कार किया (सत्यम) ठीक ही है (सन्तोवकारः) सन्तोष करने वाले (सुपुत्राः) उत्तम पुत्र ही (कुलदोपिका:) कुल प्रकाशक होते हैं । भावार्थ-इन फ्लोकों में सामाजिक लोक मर्यादा का जीवन्त चित्रण किया है। पञ्चेन्द्रियों के विषय सेवन करते हुए कुलमर्यादा की रक्षा करते हुए क्रिया करता है वही विवेकी है। विषयान्ध मान मर्यादा का उल्लंघन कर देता है। श्रीपाल को द्वार खुलते ही समक्ष महासती. विनयावनता उसकी प्रिया दिखती है । इसी की प्रेमडोरी से वलात् खिंचकर आया था, परन्तु तो भो उसमें सन्तोष कम न हुआ । यद्यपि चाहता तो प्रथम प्रिया का पालिङ्गण कर सकता था, किन्तु यह लोक दृष्टि में अशोभन और अभद्र होता। अतः अपने प्रेम में वह अन्धा नहीं हुआ। पूर्ण सावधानी से मुनिराज की सद्बुद्धि के अनुसार योग्य कार्य में प्रवृत्त हुआ । अर्थात् जिस प्रकार उत्तम ज्ञानी मुनिराज की बुद्धि सांसारिक पदार्थों में न जाकर तत्वविवेचन में सन्मार्ग में ही जाती है, उसी प्रकार जिनधर्मज्ञाता श्रीपाल की दृष्टि जन्मदात्री जननी--माँ के चरणों में जा पहुँची अत्यन्त प्रीति, भक्ति, विनय और आदर से उसने अपनी माने प्रवरो के दोनों चरण कमलों में नमस्कार किया । अत्यन्त सन्तोष से माता की चरणधूलि मस्तक पर चढ़ायी । सत्य ही है सन्तोषी पुत्र ही संसार में कुल के दीपक होते हैं । अर्थात् कुल को प्रकाशित करने बाले पुत्र ही प्रदीप होते हैं ।।१२३, १२४।। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल परित्र षष्टम परिच्छेद] | || दर्शक अवार्य Y.com -. । - \ - - ---- --- !.. T.NIAAN ... . H Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] [श्रीपाल धरित्र षष्टम परिच्छेद श्रीपालं तं विलोक्योच्चस्सा माता कमलावती। सन्तुष्टा मानसे गाढं स्वतत्त्वं वा मुनेर्मतिः ।।१२५॥ ततः तदर्शनेनोच्चर्भार्या मदनसुन्दरी । प्रकाशं कमपि प्राप भास्करस्येव पधिनी ॥१२६॥ अन्वयार्थ - (तम ) उस (श्रीपालम ) श्रीपाल पुत्र को (गाढं) अत्यन्त प्रेम म (विलोक्य) देखने से (सा) वह (माता कमलावती) मां कमलावती (मानसे) मन में (सन्तुष्टा) सन्तुष्ट हुयी (वा) मानों जैसे (मुने:) मुनिराज की (मतिः) बुद्धि (स्वतत्त्वम् ) स्व-यात्म तत्त्व को पा लिया हो (ततः) इसी प्रकार (तदर्शनेन) उस श्रीपाल के दर्शन से (उच्चैः। विशेषरूप से भार्या; माद ) मदनसुन्दरी (कमपि) कोई भी मानों (प्रकाशम् ) प्रकाश ही (प्राप) प्राप्त किया हो (भास्करस्य) मूत्र का प्रकाश्य (एव) ही (पद्मिनी) पद्मिनी को मिला हो । भावार्थ--अपने आज्ञाकारी, विनम्र, गुणान्वित पुत्र श्रीपाल को देखकर माता कमलावती को असीम आनन्द हुआ । उसका मन उमंग और शरीर रोमाञ्चों से पुलकित हो गया । उस समय ऐसा लगता था मानों कोई आगम के अध्ययन में संलग्न मुनिराज किसी तत्त्व को पागये हों । अर्थात् तत्वान्वेषी साधु तत्त्व का परिज्ञान कर जिस प्रकार आनन्दित होते हैं उसी में डूब जाते हैं उसी प्रकार कमलावतो पुत्र प्रेम में निमग्न हो गई। उसी प्रकार महासती मैंनासुन्दरी को भी मानों प्रकाश की किरण मिली । जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से पचिनो प्रफुल्ल हो जाती है उसी प्रकार श्रीपाल नृप की प्रेमभरी दृष्टि से मदनसुन्दरी का म्लानमुख विकसित हो गया । अन्तःकरण की किरणें नेत्रों से प्रस्फटित हो निकलती हैं । यद्यपि श्रीपाल जी ने अपनी पत्नी का प्रालिंगन नहीं किया, स्पर्श भी नहीं किया क्योंकि यह माता के समक्ष अशिष्टता का प्रतीक है । तो भी जिस प्रकार सूर्य दूर रहकर भो अपना किरणों से कुमुद को विकसित वार देता है उसी प्रकार श्रीवाल की अनुराग भरी दृष्टि ने अपनी भार्या को प्रसन्न कर दिया ।।१२५, १२६।। तदा स्वयं यथालाभ कथानकमनुत्तमम् । गदित्वा च तयोश्चितं रञ्जयामास धीर धीः ।।१२७।। अन्वयार्थ-(तदा) यथास्थान स्थित हो तब (स्वयम ) स्वयं थोपाल ने (यथालाभम ) जिस-जिस प्रकार लाभ-धन मम्पदादि प्राप्त किये वे (अनुत्तमम् ) अद्भुत और अश्रुतपूर्व महान (कथानकम ) कथानकों को (गदित्वा) कहकर (च) और सुनकर (तयोः) उन दोनों का (चित्तम्) मन (धीर धी:) स्थितप्रज्ञ श्रीपाल ने (रज्जयामास) अनुरजित किया । भावार्थ-माताजी की अभ्यर्थना कर कोटीभट स्थिरता से विराजे । सभी एक अनूपम आनन्द तरङ्गों में हिलोरे लेने लगे । उसी समय महाराज श्रीपाल ने अपने प्रवास के Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेव] [३८३ अनोखें अनुभव, अद्भुत घटनाएं, धन-जन प्रियादि लाभ की मनोरञ्जन कथाएँ सुनायीं। जिससे उन दोनों का मन अति प्रसन्न हुआ। इन कथाओं का कथन करते समय स्वयं स्थितप्रज्ञ था । क्योंकि तत्त्ववित को न आश्चर्य होता है न क्षोभ और न हर्ष-विषाद ही । अतः मध्यस्थभाव से उन दोनों सास-बहू को प्रसन्न किया ।।१२७।। ततः प्रासाद भूगर्भ गत्वा मदनसुन्दरीम् । समालिड़.य च सम्भाज्य स चके सुखिनों तराम् ।।१२८॥ अन्वयार्ण--(ततः) तत्पश्चात् (प्रासाद) महल में (भूगर्भम ) अपने एकान्त शयनागार में (गत्वा) जाकर (मदनसुन्दरीम् ) मैंनासुन्दरी को (समालिङ्य) आलिङ्गन कर (च) और (सम्भाष्य) मधुर भाषण कर (सः) उसने (तराम ) अत्यन्त (सुखिनीम् ) उसे सुखी (चक्र) किया। मावा-एकान्त पाते ही दोनों प्रेमियों का प्रेम उमड पाया। भूपाल श्रीपाल ने तत्क्षण अपनी प्रिया को बाहुपाश में ले लिया । श्रम से आलिङ्गान किया। पुबनादि से उसे चिरकाल वियोग का दम्ब विस्मत हो गया। मधर-मधर चाटकारी भाषण से, उसका सारा सन्ताप विलीन कर दिया । दोनों ही रतिक्रीडा में निमग्न हो गये । अनन्तर श्रीपाल ने अपने प्राप्त वैभव का परिचय दिया ।।१२८।। पुनस्सैन्यश्रियं श्रुत्वा तदा मदनसुन्दरीम् । ता इष्टुमुत्सुफा मत्वा रात्रावेव भटाग्रणी ॥१२॥ तां समानीय थेगेन स्वसंन्यं सम्पदान्वितम् । दर्शयामास सद्रूपास्ताश्च सर्वाः स्वकामिनीम् ॥१३०॥ प्रन्वयार्थ—(पुनः) तदनन्तर (श्रियम् सैन्यम् ) सेना, वैभव को (श्रुत्वा) सुनकर (तदा) तब (ताम् ) उस सुन्दरी (मदनसुन्दरीम } मैंनासुन्दरी को (रष्टुम्) देखने के लिए ( उत्सुकाम् ) उत्कण्ठित (मत्वा) मानकर (रात्री) रात में (एव) ही (भटागणी) सुभटशिरोमणि (ताम) उसको (समानीय) लाकर (वेगेन) शीघ्र ही (सम्पदान्वितम्) वैभवसहित (स्वसैन्यम् ) अपनी सेना को (च) और (सर्वाः) सभी (सद पाः) सुन्दर रूपाकृत्ति (स्वकामिनी:) अपनी प्रियाओं को (ताम् ) उसे (दर्शयामास) दिखलाया। भावार्थ-श्रीपाल ने अपनी सार सम्पदा, विशाल सेना और मधुरभाषिणी प्रियाओं का इस प्रकार वर्णन किया कि मैंनासुन्दरी उन्हें देखने को अधीर हो उठी । सुनते-सुनते ही वह उत्सुक और आतुर होने लगी। महाराज श्रीपाल की तीक्ष्ण ष्टि ने उसके मनोभावों को परख लिया । उसी समय रात्रि में ही अतिवेग से उस प्राण प्रिया को लेकर वह अपनी छावनी में प्रा पहुँचा । उस अभूतपूर्व सेना. अद्भुत सम्पदा के साथ रूप, यौवन, लावण्यमयी उसकी Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ३८४ ] [ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद प्रियाओं को देखकर परम सन्तोष हुआ । अर्थात् श्रीपाल ने अपनी प्राणप्रिया मदनसुन्दरी को एक-एक करके अपना पूरा दल-बल रानियां आदि दिखलायीं ||१२६ १३०॥ तदा ताभिः समस्ताभिस्तां समालोक्य सुन्दरीम् । मञ्जरीचाम्रवृक्षस्य सर्वलक्षण सुन्दरीम् ॥१३१॥ संभ्रमेण समुत्थाय परमाह्लाद पूर्वकम् । प्रस्माकं स्वामिनीत्युच्चैस्त्वं सम्भाष्य नमस्कृता ॥ १३२॥ मन्वयार्थ - ( तदा ) तब ( आम्रवृक्षस्य ) ग्राम के वृक्ष की (मञ्जरी) मञ्जरी ( सर्वलक्षण) सम्पूर्ण लक्षणों से ( सुन्दरीम् ) सुन्दर (ताम् ) उस ( सुन्दरीम् ) मैंनासुन्दरी को ( समालोक्य) देखकर ( सम्भ्रमेरण) सहसा उत्साह से ( समुत्थाय ) उठकर (परमाह्लाद) पर - मानन्द ( पूर्वकम् ) सहित ( ताभिः ) उन ( समस्ताभिः) सभी रानियों ने (ताम् ) उसको ( त्वम् ) आप (अस्माकम् ) हमारी ( स्वामिनी ) मालकिन हैं (इति) इस प्रकार ( सम्भाष्य ) बोलकर (उच्चः ) अति विनय से ( नमस्कृता) नमस्कार किया । I भावार्थ — वहाँ समस्त श्री और अन्तः पुर को देखकर महासती मदनसुन्दरी अत्यन्त हर्षित हुयी । उस परम अनिंद्य सुन्दरी, ग्राम की मञ्जरी के समान अत्यन्त सुकोमलाङ्गो, सम्पूर्ण नारी के शुभलक्षणों युक्त उसे देखकर श्रीपाल की समस्त रानियाँ वेग से उत्साह पूर्वक उठकर खड़ी हो गई । ज्येष्ठ और श्रेष्ठ जनों का सत्कार- पुरस्कार करना सज्जनों का कर्त्तव्य है | अतः सबों ने विनम्र स्वर में कहा आप हमारी स्वामिनी हैं। प्रर्थात् हम सब में बड़ी हैं, नमस्करणीय हैं। इस प्रकार बोलकर बिनयावत करबद्ध हो सबों ने उसे नमस्कार किया । पारस्परिक प्रेम और वात्सल्य का कितना वेजोड आदर्श है यह । ग्राज सपत्नी का नाम सुनते ही हृदय डाह, ईर्ष्या और घृणा से भर जाता है जबकि यहां हजारों रमणियाँ प्रेम, वात्सल्य देख दूसरे के प्रति सम्मान का भाव रखती आनन्दानुभव करती हैं। हमारी माता और बहिनों को इससे आदर्श और शिक्षा ग्रहण करना चाहिए ।। १३१ १३२ ।। सिद्धचक्र प्रसादेन त्रैलोक्य सुखकारिणा । ज्येष्ठावाष्टसहस्त्रस्त्रीणामुपर्यभवत्तदा ॥१३३॥ अन्वयार्थ - ( तदा) तब ( त्रैलोक्यसुखकारिणा ) तीन लोकों के सुख का हेतू (सिद्धप्रसादेन ) सिद्धचकविधान के माहात्म्य से (अष्टसहस्र ) अठारह हजार (स्त्रीणाम) रानियों के (उपरि ) ऊपर ( ज्येष्ठा) बडी ( अभवत् ) हो गई । भावार्थ -- धर्म की शक्ति अचिन्त्य है । कहीं कुष्ठी पति और कहाँ कञ्चन सी हो गई काया । कहाँ कङ्गालरूप और कहाँ श्राज महामण्डलेश्वर, कहाँ पति बियोग और पुनः बारह वर्ष में यह मधुर संयोग । आज उसी सिद्धचक्र आराधना के फल स्वरूप महासतो मैंनासुन्दरी आठ हजार देवाङ्गना समान रानियों की स्वामिनी अग्रमहिषी हो गई । अर्थात् पट्टरानी पदा Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- IL. 1॥ ॥ . माह " शिमा CNMITTEITTER Mahanti-LALHI 1MLA LAUNINTHIRRIAL T P ISATTAHHILE T H -- a S I : अपर--श्रीपाल अपनी रानियों से मैना सुन्दरी का परिचय कराते हुए। नीचे- महाराज श्रीपाल एवं पट्टरानी मैना सुन्दरी सिहंसनारुद हुए। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ] [ ३८५ सीन हुयी। सभी भव्य प्राणियों को सुखदायक विषद् विनाशक धर्म सेवन करना चाहिए । पुण्यार्जन करना चाहिए। सिद्धपरमेष्ठी की प्राराधना पूजा और भक्ति करना चाहिए । वैराग्य पञ्चपरमेष्ठी की भक्ति से सांसारिक सकट टल जाते हैं, आत्म शुद्धि होती है त्याग, और दयाभाव जाग्रत होता है । अतः धर्म सेवन अनिवार्य है ।। १३३ ।। श्रीपालस्तु तदा प्राह तां सतीं मुख्यकामिनीं । कया रीव्या प्रजापालो द्रष्टव्यो ब्रूहि सुन्दरी ।। १३४ || अन्वयार्थ - ( तदा ) तब ( तां सतीं मुख्यकामिनी) उस सती पटरानी की ( श्रीपाल : तु प्राह ) पाल ने पूछा (सुन्दरी ! ब्रूहि ) हे मुन्दरी कहो, ( प्रजापालो ) प्रजापाल राजा अर्थात् तुम्हारे पिता (कया रीव्या) किस रीति से ( द्रष्टव्यो ) देखे जायें ? भावार्थ - तदनन्तर कोटिभट महामण्डलेश्वर राजा श्रीपाल अपनी मुख्य रानी-पट्टरानी मैना सुन्दरी से पूछते हैं कि हे सुन्दरी ! अब मैं तुम्हारे पिता प्रजापाल से मिलना चाहता हूँ सो बताओ कि किस प्रकार से उनसे मिलना चाहिये ।। १३४ ।। ततः श्रीपालमित्यास्य द्वेषान्मवन सुन्दरी । भो नाथ मत्पिता गर्यो कर्मस्थापन तत्परा ।। १३५|| क्रुधा दुःखाय मां तुभ्यमददात्कर्म परीक्षः । अतो मद्वेष शान्त्यर्थं तस्येदं दण्डमादिश ।। १३६ ।। स्था अन्वयार्थ - - ( ततः ) तदनन्तर ( कर्मस्थापनतत्परा ) धर्म स्थापना में तत्पर अर्थात् कर्मसिद्धान्त पर विश्वास करने वाली ( मदनसुन्दरी ) मैंनासुन्दरी ने ( श्रीपाल ) श्रीपाल महाराज को (इति) इस प्रकार ( आख्य) कहा ( भो नाथ ! ) हे स्वामी ! ( मतत्पिता ) मेरे पिता (गर्वी) श्रहंकारी हैं (द्वेषात् ) द्वेष से ( कर्मपरीक्षः) कर्म की परीक्षा के लिये (धा) क्रोध से युक्त होकर (माँ) मुझको ( दुःखाय तुभ्यं ) दुःखो तुम्हारे लिये ( अददात् ) दे दिया ( श्रतो ) श्रतः (मत् द्वेषशान्तयर्थ ) मेरे साथ जो द्वेष किया उसको शान्ति के लिये ( तस्य इदं ) उसके लिये ऐसा ( दण्डम् ) दण्ड रूप ( आदिश ) आदेश करो । भावार्थ--तब मैंन। सुन्दरी ने श्रीपाल महाराज को कहा कि मेरे पिता अहंकारी हैं उनके मन में इस प्रकार की धारणा बनी है कि मैं ही सबका पालन पोषण रक्षण करने वाला हूँ पर का सुख दुःख भी मेरे श्राश्रय से है । अस्तु विवाह के प्रसङ्ग में मैने यह कहा कि शीलवती कन्या कभी अपने मुख से यह नहीं कहतीं कि मुझे प्रमुख पुरुष पसन्द है मतः हे पितृवर ! आप ही मेरे लिये प्रमाण हैं। योग्यवर देखकर ही पिता अपनी कन्या को श्रर्पित करते हैं और उसके बाद सुख दुःख आदि तो कर्माधीन है । अपने-अपने कर्मानुसार यह जीव सुख और दुःख की सामग्रियों को प्राप्त करता है। इस प्रकार के मेरे वचन को सुनकर पिता के अहंकार को धक्का लगा और ऋद्ध होकर उन्होंने हमारी कर्म को परीक्षा के लिये कुष्ट रोग से पीडित अति Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद दुःखी आपके साथ मेरा विवाह कर दिया था। पिता के उस अज्ञानता पूर्ण व्यवहार के प्रति मेरा द्वेष है, उससे हमारा मन उद्विग्न है, प्रशान्त है अतः उसकी शान्ति के लिये तथा पिता के मिध्या अहंकार को मिटाने के लिये उनको इस प्रकार प्रादेश रूप दण्ड देना चाहिये - कम्बलं परिधाय त्वं स्वदेहे स्थगले तथा। धृत्वा परशुमाशूच्चैः पादचारी च साम्प्रतम् ॥१३७॥ दलाजीवस्य वेषेण समागत्य परिच्छदैः । सत्यमेतद्धि पादाब्जौ तदाते कुशलं ध्रुवम् ॥१३८।। अन्वयार्थ- (त्वम् ) तुम (स्वदेहे स्वगले तथा) अपने शरीर तथा गले में (कम्बल परिधाय) कम्बल लपेटकर अर्थात् प्रोढ़कर (परशु धृत्वा) कुल्हाडी लेकर (लाजोवस्यवेशेण) हल से जीबन चलाने वाले कृषक के वेष से (पादचारी) पैदल (परिच्छदः) राज्य परिकारों के साथ (साम्प्रतम ) अभी (उच्चैः) शीघ्र (पादाब्जी समागत्य) चरण कमलों में आकर पड़ो (सत्यमेहद् हि) निश्चय से यह सत्य है कि (तदा) तभी (ते ध्र वम, कुशल) तुम्हारी घ्र व कुशलता सम्भब है । भावार्थ-वह प्रजापाल राजा अहंकारी है अतः अहकार के मर्दन हेतु उससे कहलाओं कि तुम अपने शरीर को कम्बल से ढक कर, गले तक कम्बल लपेट कर कुल्हाड़ी लेकर पैदल ही अपने राज्य परिकरों के साथ शीघ्र अभो हो आओ और थोपाल महाराज के चरणकमलों में शरण लो तभी तुम्हारी ध्र व कुशलता संभव है अर्थात् ऐसा करने पर हो तुम्हारा जीवन और राज्य सुरक्षित रह सकता है । इस प्रकार हमारे पिता को आप अपने पास मिलने के लिये बुलावें। क्योंकि उनके मिथ्या मान को दूर करने का यही श्रेष्ठ उपाय हो सकता है। इस प्रकरण को पढ़कर पाठकगण यह न समझे कि मैंनासुन्दरी ने प्रतिशोध की भावना से अथवा द्वेष भाव से पिता के साथ यह अनुचित व्यवहार किया है । मैंनासुन्दरी का हृदय स्वच्छ पवित्र है तथा पिता के प्रति प्रीति और श्रद्धाभाव भी है फिर भी इस प्रकार की प्राज्ञा अपने पिता के लिये जो दी उसका कारण यह है कि वह अपने पिता को जैनधर्म का प्रभाव दिखाना चाहती थी और उनके मिथ्या अहंकार को दूर कर उनको जिनधर्म में आरूढ़ करना चाहती थी। जैसा कि अगले मलोक में स्पष्ट किया है. ॥१३७, १३८।। मिथ्यागर्वोऽस्ति भी नाथ मानसे तस्य भूपतेः । यथा गर्वो गलत्येषस्तथा कार्यं त्वया प्रभो ॥१३॥ अन्वयार्थ ...(भो नाथ! ) हे नाथ ! (तस्य भूपतेः उस प्रजापाल गजा के (मानसे) मन में (मिथ्या गर्वो) मिश्या अहङ्कार (अस्ति । है (प्रभो। अत: हे प्रभ ! (त्वया तथा कार्य) सुम्हारे द्वारा वैसा ही किया जाय (यश्रा) जैस (एषःगर्यो गलति) यह मिथ्यागर्व नष्ट होने । भावार्य--अहंकार समस्त दोषों का मूल है, विवेक को नष्ट करने वाला है उस Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद । अहंकार से हमारे पिता का चित्तमलिन है अतः मदनसुन्दरी कहती है आप वैसा ही कार्य करें जिससे हमारे पिता मिथ्या गर्व को छोड़ देवें ।। १३६ ।। तन्निशम्याववत्सोऽपि श्रीपालो भो प्रियोत्तमे । सोऽस्माकमुपकारी स कथं तत्किय ते शुभे ॥१४०॥ अन्वयार्थ--(तत निशम्य) मैंनासुन्दरी के उस वचन को सुनकर (सो श्रीपालोअपि अवदत् ) वह श्रीपाल भी बोला (भो प्रियोत्तमे) है प्रियतमा ! (शुभे) शुभलक्षणो ! (सो) वह प्रजापाल (अस्माकं) हमारा (उपकारी) उपकारी है । (तत् स ) अत: वैसा कार्य उसके प्रति (कथं क्रियते) कैसे करूं ? अर्थात् वैसा करना योग्य नहीं है । भावार्थ-वह श्रीपाल मनासुन्दरी की बातों को सुनकर कहने लगा कि मेरे लिये तो प्रजापाल ने अच्छा ही किया । वह मुझको अपनी पुत्री को देकर हमारे कुष्ट रोग के निवारण में सहायक बना, फिर मैं इस प्रकार का अनुचित व्यवहार अपने उपकारी के प्रति कैसे कर सकता हूँ? हमारे लिये यह योग्य नहीं है । इस प्रकार का निकृष्ट आदेश में प्रजापाल को नहीं दे सकता हूँ ॥१४०॥ सम्यक्त्वशालिनी प्राह पुनर्मदनसुन्दरी। ताचिन भो मो शोके जै वभाव न ॥१४१॥ अन्ययार्थ- (पुन:) तदनन्तर (सम्यक्त्वशालिनी) सम्यग्दर्शनगुण से अलङ्कृत (मदनसुन्दरी प्राह) मदन सुन्दरी बोली (तत् बिना) उसके बिना अर्थात् वैसा किये बिना (भो प्रभो ! ) हे प्रभु ! (लोके) लोक में (जैनधर्म प्रभाव) जैन धर्म की महिमा का प्रकटीकरण जैन धर्म का वैशिष्ट्य (न) परिज्ञात नहीं हो सकता है। भावार्थ-मैना सुन्दरी श्रीपाल से आग्रह करती है कि आप हमारे पिता को यदि इस प्रकार अनुजा नहीं देते हैं और साधारण गति से उनसे मिलेंगे तो पिता को तथा लोक के साधारण जन समुदाय को जिनधर्म का अनुपम प्रभाव तथा जैन सिद्धान्त में उल्लिखित कर्मबाद की यथार्थता समझ में न आ सकेगी। जिन पूजा के प्रभाव से दुष्कर दूनिवार्य कुष्ट रोग भी बिना औषध के सहज दर हो गया यह विषय भी घर-घर में सबको मालम हो सके । सभी लोग मिथ्या धर्म को छोड़कर सच्चे धर्म को स्वीकार करें। कोई भी पिता की तरह मिथ्या दम्भ कर अयोग्य आचरण न करे इस तथ्य वा लक्ष्य को दृष्टि में रखकर ही मैंने पिता प्रजापाल से मिलने की यह अनुविधि आपसे कही सो आप जिनधर्म की प्रभावना के लिये ऐसा ही करें इस प्रकार मेरा आपसे नम्र निवेदन है ।।१४१।। तस्मात्तस्य तदेवात्र कर्तव्य प्राणवल्लभ । येन श्रीजिनधर्मस्य प्रभावो भवति ध्र वम ।।१४२॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८] [ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद __अन्वयार्थ- (तस्मात् ) इसलिये (प्राण वल्लभ) हे प्राणवल्लभ ! (अत्र) इस अवसर पर (तस्य ) उस पिता प्रजापाल के साथ (तदेव) बैसा ही (कर्तव्यं) करना चाहिये (येन) जिससे (श्रीजिनधर्मका श्रेष्ठ दिनधर्म का प्रमो प्रभाग, महान (ध्रुवम् ) अचल या निरन्तर स्थिर (भवति) रहे या रहना है। भावार्थ---जैन धर्म का महान वैशिष्ट्य स्थाई रूप से इस पृथ्वी पर अंकित रहे । जन-धर्म में असाध्य रोग को भी दूर करने की शक्ति है सभी दुःसाध्य कार्य जैन धर्म के प्रभाव से सरल हो जाते हैं तथा जीवन से विपत्ति रूपी बादल सदा के लिये विलीन हो जाते हैं इस तत्व को सर्व जनता समझ सके इसके लिये पिता प्रजापाल के साथ वैसा व्यवहार करन इस अवसर पर ठीक है। अतः आप वैसा ही करें इत्यादि वचन मैनासुन्दरी ने श्रीपाल से कहा ।।१४२॥ तदा सोऽपि प्रिया वाक्यं श्रुत्वा कार्य विदाम्वरः । बुद्धि सागर नामानं दूतं संप्राहिणोद्रुतम् ।।१४३।। प्रजापालं प्रति वक्त गदित्या स्वमनोगतम् । सोऽपि वृतस्तदा सर्व कार्याकार्य विचक्षणः ॥१४४॥ वक्ता समर्थों निर्लोभी निर्भय स्वामि सम्मतः । ज्ञातादेशः स्वभावज्ञो लेखं लात्वा विनिर्ययोः ॥१४५।। अन्वयार्थ-(तदा) तब (कार्य विदाम्बरः) कार्य कुशल अथवा कार्य विशेषज्ञ (सोऽपि) वह श्रीपाल भी (प्रियावाक्यं) प्रिया के बाक्य को (श्रुत्वा) सुनकर (प्रजापालं प्रति वक्त) प्रजापाल को कहने के लिये (बुद्धिसागरनामानं) बुद्धिसागर नामक (दूतं) दूत को (स्वमनोगतं गदित्वा) अपने अभिप्राय को कह कर (द्र तं) शीघ्र (संप्राहिणोद्) भेज दिया (तदा) तब (कार्याकार्थ विचक्षणः) कार्य अकार्य को विशेष रूप से जानने वाला (समर्थो वक्ता) सुयोग्य वक्ता (निर्लोभो) निर्लोभी (निर्भयः) भय रहित (स्वामिसम्मत:) स्वामी को सम्मति के अनुकूल कार्य करने वाला (स्वभावज्ञो) स्वभाव से ही बुद्धिमान (ज्ञातादेश:) प्राप्त है आदेश जिसको ऐसा (सोऽपि दूतः) वह दूत भी (लेख) लिखित प्रादेश पत्र को (लात्वा) लेकर (विनिर्ययो) निकल गया। भावार्थ - तदनन्तर प्रियतमा मदन सुन्दरी के अभिप्राय को श्रेष्ठ जानकर श्रीपाल महाराज ने बुद्धिसागर नामक दूत को बुलाया । वह दूत अति बुद्धिमान कार्य अकार्य को समभने वाला दरदर्शी. स्वामी की आज्ञानसार प्रवत्ति करने वाला कशल वक्ता, मिलोभी, निर्भय और विनयशील था। श्रीपाल ने उसको अपने मनोगत अभिप्राय को बताकर तथा प्रजापाल राजा के प्रति अपना आदेश पत्र लिखकर दूत को देकर भेज दिया । वह दूत सन्देश वा आदेश पत्र लेकर शीघ्र उज्जयनो नगरी में प्रजापाल राजा के पास पहुंच गया। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] [३८६ गत्वा तं भूपति नत्वा दत्त्वा पत्रं जगाविति । भो प्रभो मे प्रभुर्नाम्ना श्रीपालः परमोदयः ॥१४६।। साधयित्वा बहून् देशान् जित्या भूपशतानि च । कन्यारत्नसहस्राणि परिणीय गुणोज्वलः ॥१४७।। नानारज जुन गदि मणिमुक्ताफलादिकम् । गृहीत्वा सम्पदासारं प्रतापजित भास्करः ।।१४।। दानी दीनादिकेषच्चः कोटिभट शिरोमरिणः । सुधीस्सर्व बलोपेतस्स स्वामी त्वां समादिशत् ।।१४६।। अन्वयार्थ--उस दूत ने (गत्वा ) जाकर (तं भूपति) उस प्रजापाल राजा को (नया) नमस्कार कर (पत्रं दत्त्वा) पत्र देकर (इति जगौ) इस प्रकार कहा (भो प्रभो!) हे स्वामी ! (मे प्रभः) मेरा राजा (श्रीपाल:) श्रीपाल है (परमोदयः) जो परम उदयशाली है अर्थात् भाग्यशाली है परमोन्नति को प्राप्त हैं। (गुणोज्वल:) उज्जवल गूगों का धारी है। (भपअतानि जित्वा) सैकड़ों राजाओं को जीतकर (बहून् देशान् साधयित्वा) बहुत देशों को स्वाधीन कर (कन्यारत्नसहस्राणि परिणीय) सैकड़ों कन्याओं के साथ विवाह कर (नानारत्मसुवर्णाह) अनेक प्रकर के रत्न, सुवर्णादि और (मणिमुक्ताफलादिकम् ) मणि और मोतियों को (सम्पदासारं गृहीत्वा) सारभूत सम्पत्तियों को लेकर (प्रतापजितभास्कर ) अन्य राजाओं को अपने प्रताप से जीत लिया है जिनने ऐसे प्रभावशाली सूर्य स्वरूप (दीनादिकेषु उच्चः दानी) दीन दुःखियों को इच्छित उत्तम वस्तु प्रदान करने वाले श्रेष्ठ दानी हैं (सुधीः) बुद्धिशाली (सर्व बलोपेतः) सबमें वलिष्ठ (कोटिभट शिरोमणिः) कोटिभट शिरोमणि (स: स्वामी) उस श्रीपाल महाराज ने (त्वां) तुमचो (यह) (समादिशत ) आदेश दिया है । भावार्थ ...उस दूत ने विनय पूर्वक प्रजापाल राजा को नमस्कार कर आदेश पत्र देकर सर्वप्रथम अपना तथा अपने स्वामी का परिचय दिया । वह कहने लगा कि आपके लिये आदेश पत्र देकर महामण्डलेश्वर महाराजा श्रीपाल ने मुझको भेजा है। मैं श्रीपाल महाराज का दूत हैं। हमारे स्वामी परम उज्ज्वल गुणों के धारी और परम अभ्युदयशाली हैं। उन्होंने सैकड़ों राजाओं को अपने बल प्रताप से जीतकर बहुत देशों को अपने आधीन कर लिया है और सैकड़ों कन्याओं के साथ विवाह कर मणि मुक्ता, सुवर्ण रत्नादि श्रादि सारभूत सम्पतियों के अधिपतित्व को पाकर महामण्डलेश्वर पद को प्राप्त कर लिया है । हमारे स्वामी कोटिभर शिरोमणि अर्थात सबमें बलिष्ठ हैं तथा परंम उदार दानी भी हैं । प्रजाजनों को तथा याचकजनों श्रेष्ठ इन्दितवस्तु प्रदान कर सन्तुष्ट करने वाले वे जन-जन के लिये मनोहारी और प्रशंसनीय भी हैं ऐसे श्रेष्ठ गुणों के निधि सूर्य से भी अधिक प्रतापशाली श्रीपाल महाराज ने आपके लिय यह आदेश पत्र दिया है ।।१४६ से १४६।। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] [ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद पत्रेऽस्मिन् लिखितं राजन् यत्सर्वं त्वं विधेहि तत् । ततो विज्ञाय तत्त् प्राप्य प्रजापालोति गर्ववान् ।। १५०।। प्रोवाच व्रतं रे याहि समर्थोऽहं रणाङ्गणे । सिंहः कि मृगसन्दोहैबध्यतेऽहो महीतले ।। १५१ । अन्वयार्थ - ( राजन् ) हे राजा ! ( अस्मिन पत्रे ) इस पत्र में ( य लिखितं ) जो लिखा है ( तत् सर्व ) वह सब ( त्वं ) तुम ( विधेहि ) करो। (ततो) तदनन्तर ( अति गर्बवान् प्रजापालो ) प्रति अहंकारी प्रजापाल ने (तत्) उस आदेश को (विज्ञाय ) जानकर ( प्राप्य ) पत्र को प्राप्त कर ( दूतं प्रोवाच ) दूत को कहा (रे याहि ) अरे ! जा (अहं) मैं ( रणाङ्ग) युद्ध स्थल में (समय) कितना समर्थ हूँ बता दूँगा । ( अहो कि महीतले ) अरे क्या पृथ्वी तल पर (मृगसन्दोहैः ) हिरणों के द्वारा ( सिंह: वाध्यते ? ) सिंह बाधित होता है । अर्थात् नहीं होता है । भावार्थ - तदनन्तर बुद्धिसागर नामक दूत ने प्रजापाल राजा को कहा कि आप इस आदेश पत्र को अच्छी तरह पढ़ लें और जो कुछ इसमें लिखा है उसे शीघ्र सम्पन्न करें तब दूत के इस प्रकार के दबावपूर्ण वचन को सुन कर उस अहंकारी राजा प्रजापाल ने कहा कि अरे दूत ! तू यहाँ से जा मैं युद्धस्थल में तुम्हारे राजा को अपनी सामर्थ्य दिखा दूँगा । हिरणों के समूह से सिंह कभी बाधित पीड़ित नहीं होता है । यहाँ प्रजापाल राजा श्रीपाल महाराज को हिरणियों के समान निर्बल बताता है और अपने को सिंह के समान पराक्रमी । वह श्रीपास के आदेश पत्र की अवहेलना करते हुए युद्ध के लिये उसका आह्वान करता है । उसने दूस कह दिया कि युद्ध में ही इस आदेश पत्र का उत्तर दूँगा, प्रभो नहीं । rrived fक यां भास्करो महिमाकरः । अहो स दुर्मदायेव मया सह कि युध्यते ॥ १५२॥ तिष्ठ त्वमत्रैव संग्रामे पश्यामि त्वत्पराक्रमम् । इत्यादिकं क्रूधा जल्पन् प्रजापालस्तु मन्त्रिभिः ।। १५३१ : बोधितो देव कर्तव्यो नैव गर्वस्त्वया प्रभो । देव क्रोधो न कर्त्तव्यो धर्मध्नः स्वात्मनाशकृत् ।। १५४ ।। अन्वयार्थ - (महिमाकरः) महिमाशाली अर्थात् प्रकाशशील ( भास्करो ) सूर्य ( किं) क्या ( खद्योतैः) जुगुनुनों के द्वारा (छाद्यते ) ढका जा सकता है ? तिरस्कृत हो सकता है ? श्रर्थात् नहीं हो सकता है । ( अहो ) अरे ! ( दुर्मदाड्येव ) निश्चय से मिथ्या अहंकार से भरा हुआ वह (मयासह ) मेरे साथ ( कियुध्यते ) क्या युद्ध करेगा ? (स्वम् तिष्ठ ) तुम ठहरी, रुको ( अत्रैव संग्रामे ) यहीं युद्ध में ( स्वत पराक्रमम । तुम्हारा पराक्रम (पश्यामि) देखता हूँ (इत्यादिकं धा जल्पन) इत्यादि वचन क्रोध से बोलता हुआ (प्रजापालस्तु ) वह प्रजापाल राजा Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ] [३६१ (मन्त्रिभिः बोधित:) मन्त्रियों के द्वारा इस प्रकार संबोधित किया गया-(प्रभो ! देव!) हे प्रभु ! हे स्वामी (त्वया) तुम्हें, तुम्हारे द्वारा (गर्व:) अहंकार (नैव) निश्चय से नहीं (कर्तव्यों) करना चाहिये (देव ! ) हे स्वामो ! (स्वात्मनाशकृत) अपनी आत्मा का घात करने बाला {धर्मध्नः) धर्मनाशक (क्रोधो) क्रोध (नकर्तव्यो) नहीं करना चाहिये। भावार्थ----पुन: अहंकार से भरा हुआ यह कहने लगा कि जुगुनुओं के प्रकाश से सूर्य का प्रकाश कभी आच्छादित नहीं होता है अतः क्षीणशक्ति बाला पराक्रम हीन वह श्रीपाल मेरे साथ क्या युद्ध करेगा ? मुझे तिरस्कृत करने का उसका जो मिथ्या दम्भ है, अहंकार है उसका दुष्फल उसे युद्धस्थल में ही भोगना पड़ेगा मैं उसके पराक्रम को युद्धस्थल में ही देखू गा तदनतर इस प्रकार क्रोधावेश में बोलते हए उस प्रजापाल को देखकर मंत्रियों को चिन्ता हुई। यों को श्रीपाल का पराक्रम ज्ञात था. वे जानते थे कि यह, श्रीपाल को कभी नहीं जीत सकता है यह कोटिभट श्रीपाल महापुण्यशाली है उसको जीतना सर्वथा अशक्य है । मंत्री बारवार प्रजापाल को सम्बोधित करते हैं कि हे स्वामिन् ! आप मिथ्या अहंकार न करें, विवेक से काम लें । कोष से स्वात्मघात के साथ साथ धर्म का भी नाश होता है अत: क्रोध न करें। श्रोध ही इस जीव का सबसे बड़ा शत्रु है । दूरदर्शिता, गम्भीरता और विवेकशीलता ही श्रेष्ठ राजाओं के चिन्ह है। आप इस समय क्रोध को छोड़कर यथार्थ परिस्थिति को समझने का प्रयत्न कीगि बलवानहमत्रेति न वक्तव्यं क्वचित तथा । यतो बलवता मध्ये स्युर्महाबलिनोद्भुताः ॥१५५।। संसारे सन्ति भो राजन् महान्तो महतामपि । चनियोऽपि मतद्वेषी यथाभूभुजविक्रमी ।।१५६॥ अन्वयार्य-(तथा) तथा (अत्र यहाँ, इस लोक में (अहम ) मैं (बलवान्) बलवान हूँ (इति) ऐसा (क्वचित्) कभी (न बक्तव्यम् ) नहीं बोलना प्राहिये। (भो राजन्) हे राजन् (संसारे) संसार में (महतामपि) महान् बलिष्ठों में भी (महान्त:) महान् बलिष्ठ (सन्ति) हैं (भुजविक्रमी) हे भुजविक्रमी ! (यथा) जिस प्रकार (चक्रिणोमतद्वेषी) चक्री अर्थात् चक्रवर्ती के मत से भी द्वेष करने वाले (अपि) भी (सन्ति) होते हैं । भावार्थ-मंत्री राजा को संबोधित करते हुए कहता है कि हे राजन् ! आप यह न समझना कि संसार में सबसे अधिक बलिष्ठ मैं ही हूँ क्योंकि बलवानों में भी बलवान अथवा महानों में भी महान पुरुष संसार में विद्यमान हैं। हे भुज विक्रमी ! देखो, चक्रवर्ती षट्खण्ड का अधिपति होता है किन्तु उससे भी द्वेष रखने वाले शत्रु संसार में होते ही हैं यथा भरत चक्रवर्ती का मान बाहुवलो से खंडित हुआ । जब चक्रवर्ती के भी विरोधी हो सकते हैं तब तुम्हारी क्या बात ? अत: अपने बल का अहंकार करना व्यर्थ है ॥१५५ १५६।। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद सिंहस्यापि सुधीरस्ति जेता चाष्टापदः क्षितौ । घनाधनलवो भानोः प्रभाप्रच्छादनक्षमः ॥१५७।। अन्वयार्थ--(सुधो:) हे श्रेष्ठ बुद्धि के धारो ! (क्षितौ) पृथ्वी पर (सिंहस्य) सिंह को (अपि) भी (जेता) जीतने वाला (अष्टापदः च) अष्टापद होता है (भानो:) सूर्य की (प्रभाप्रच्छादनक्षम:) प्रभा को ढकने में समर्थ (घनाघनलवो) जलकरणों से युक्त बादल होते हैं । मावार्थ--पुनः वह मंत्री राजा के अहंकार भाव को मिटाने के लिये दृष्टान्त देते हुए कहता है कि लोक में सिंह यद्यपि बहुत बलिष्ठ होता है पर उसको भी जीतने वाला अष्टापद है । जिस प्रकार सूर्य अप्रतिम तेज को धारण करने वाला महाप्रतापशाली है पर सघन बादलों से उस सूर्य का प्रकाश भो ढक जाता है अत: आपको अपने बल का अहंकार नहीं करना चाहिये ||१५७।। अयं सूरस्समायातो महाबलसमन्वितः । प्रताप िजतारातिः श्रीपालः श्रूयतेप्रभु ॥१५८।। पुरीते वेष्टिता येन महासन्येन भूपते । अकस्मादत्र चागत्य न सामान्यस्सभूतले ।।१५६ । । अन्ययार्थ-(प्रतापनि जतारातिः) प्रताप शील शत्रुओं को भी जिसने जीत लिया है ऐसा (प्रभुः धीपाल:) राजा श्रीपाल है (श्रूयते) सुना जाता है कि (अयम, सूरः) यह शूरवार (महाबलसमन्वितः) विशाल सैन्यदल के साथ (समायातो) पाया हुआ है। (भूपते ! ) हे राजन् (येन महासन्येन) जिस महान सेना के द्वारा (ते पुरी) तुम्हारी नगरी (वेष्टिता) घेर ली गई है। (अकस्मात् अत्र आगत्य च) और अकस्मात् यहाँ प्राकर (स) नगरी को घेरने दाला वह (सामान्यः न) सामान्य पुरुष नहीं हो सकता है । भावार्थ-मंत्री राजा से कहता है कि हे राजन् मैंने सुना है कि प्रतापगाली बलिष्ठ शत्रुओं को भी जीतने वाले शूरवीर श्रीपाल अपनी विशाल सेना के साथ यहाँ पाये हुए है उन्होंने आपकी नगरी को चारो ओर से घेर लिया है । अचानक यहाँ आकर इस प्रकार निर्भय होकर अपने सैन्यदल से नगरो को वेष्टित करने वाला सामान्य पुरुष नहीं हो सकता है। तस्मात् त्वयाराज्यरक्षार्थ त्यक्त्वागवं च दुःखदम् । सेवनीयो महानेषः श्रीपालः प्रभरुत्तमः ॥१६॥ अन्वयार्थ (तस्मात् ) इसलिये (राज्य रक्षार्थ ) राज्य की रक्षा के लिये (त्वया) तुम्हारे द्वारा (दुःखदम् गर्व च त्यक्त्वा) दुःखदायी अहंकार को छोड़कर (प्रभुरुत्तमः) राजाओं मैं श्रेष्ठ (एष:महान्) यह महान् (श्रीपाल:) श्रीपाल (सेवनीयो) से बने योग्य है। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] भावार्थ-मंत्री राजा को कहता है कि हे राजन् ! यदि तुम अपनी या राज्य की रक्षा चाहते हो तो अहंकार को छोड़कर उस श्रेष्ठ गुणों के धारी, शक्ति से महान उन श्रीपाल महाराज की सेवा में तत्पर हो जाओ। ये श्रोपाल महाराज अापके द्वारा सेवने योग्य हैं ।१६०1 इत्यादि मत्रिभिः प्रोको श्रुत्वा सन्तुष्टभानतः। प्रजापालः प्रशान्तोऽभूवग्नि, जलयोगतः ॥१६१।। प्रन्ययार्थ--(मत्रिभिः प्रोक्तं) मंत्रियों के द्वारा कहे गये (इत्यादि) उक्त वचनों को (श्रुत्वा) सुनकर (सन्तुष्टमानस:) सन्तुष्ट मन वाला (प्रजापाल:) राजा प्रजापाल (प्रशान्तोअभूत्) पूर्णतः शान्त हो गया (जलयोगतः अग्निः वा) जसे जल के योग से अग्नि शान्त हो जाती है। भावार्थ-मंत्री के वचन सुनकर प्रजापाल राजा क्रोध रहित हो गया । मंत्री के बचन राजा के श्रोध रूपी अग्नि को शान्त करने के लिये जल के समान फलीभूत हुए अर्थात् जैसे जल के संयोग से जलतो हुई अग्नि तत्काल शान्त हो जाती है। उसी प्रकार मंत्री के बचनों से सन्तुष्ट मन बाला हुआ प्रजापाल प्रति शान्त हो गया ।।१६१।। जगौ भो दूत यत्प्रोक्तं स्वामिना तेन ते ध्र वम् । तत्सर्व संकरिष्यामि याहि त्वं तन्निवेदय ।।१६२॥ अन्वयार्थ-- तदनन्तर राजा ने (जगी) कहा (भो दूत!) हे दूत (तेन स्वामिना) उस राजा श्रीपाल के द्वारा (यत प्रोक्तं) जो कुछ कहा गया है (ते ध्र वम् ) वे ध्र व रूप हैं अर्थात् सर्वथा मुझे मान्य हैं । (तत् सर्व) वह सब (संकरिष्यामि) सम्यक् प्रकार करूंगा (त्वं याहि) तुम जानो और (तत्) वह अर्थात् आदेश स्वीकृति रूप हमारा वचन (निवेदय) राजा को निवेदित करो। भावार्य--प्रजापाल राजा ने पुनः शान्तचित्त से दूत को बुलाकर कहा कि तुम्हारे स्वामो महाराज श्रीपाल ने मेरे लिये जो आदेश पत्र दिया है वह मुझे पूर्णतः मान्य है तुम अपने स्वामी की आज्ञा ध्र व रूप से सफल जानो । मैं महाराज श्रीपाल के आदेश पत्र के अनुसार ही सर्व कार्य करूगा अतः तुम जानो और हमारी स्वीकृति रूप वचन अपने स्वामी को निवेदित करो ।।१६।।। एवं दूतं च सन्मान्य वस्त्राद्यस्तं व्यसर्जयत् । सोऽपि गत्वा प्रभु नत्वा तत् सर्व संजगाद च ॥१६३॥ अन्वयार्थ-(एवं) इस प्रकार (वस्त्राद्य :) वस्त्रादि के द्वारा (सामान्य) सम्मान कर (तं दूत) उस दूत को (व्यसयत्) भेज दिया (च) और (सोऽपि) उस दुत ने भी Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद (गत्वा) महाराज श्रीपाल के पास जाकर (प्रभु नत्वा) स्वामी को नमस्कार कर (तत् सर्व उस सम्पूर्ण स्वीकृति रूप वचन को (संजगाद) कह दिया। ___ मावार्थ- प्रजापाल राजा ने, इस प्रकार दूत को, स्वीकृति रूप सन्तोपकारी वचनों से और वस्त्राभरण आदि उपकरणों से प्रसन्न कर महाराज श्रीपाल के पास भेज दिया दुत ने भी अपने स्व. रामाश्रीप.ला बोलानुरक्षा समावृति का वचन कह दिया तथा प्रभु को नमस्कार कर विनम्रता पूर्वक सम्पुर्ण वृतान्त कह कर राजा के चित्त को हर्षित करने वाला हा ।।१६।। तन्निशम्य दयालुत्वात् सुधीविताशयः । श्रीपालो युक्तिमद्याक्थैः कोपशान्तिं विधाय च ।।१६४॥ स्वकान्तायाः निजप्राणप्रियायास्सुखदायकः । श्रीमज्जिनपदाम्भोज सद्भक्तस्संजगौ पुनः ॥१६५।। दूतं त्वं याहि ते भूपं कथयेति प्रभो ध्र वम् । गजमेनं समारूह्य विभूत्या गच्छ भूपते ॥१६६। भावार्थ-(तन्निशम्य) दूत के उस वचन को सुनकर (सुधीः) बुद्धिमान (गदिताशयः) स्वाभिमानी (श्रीमज्जिनपदाम्भोजसद् भक्तः) श्रीजिनेन्द्र प्रभु के चरण कमलों का सञ्चा भक्त (सुखदायकः) सुखदायी (श्रीपालो:) श्रीपाल (दयालुत्वात् ) दया भात्र से (युक्तिमद् वाक्यः) युक्ति युक्त वाक्यों से (निजप्राणप्रियायाः) अपनो प्राण प्रिया (स्वकान्तायाः) स्वकान्ता मैनासुन्दरी के (कोपशान्ति विधाय च) क्रोध को शान्त करके (पुनः) फिर (दूतं संजगी) दूत को बोला (त्वं याहि) तुम जानो (तं भूपं) उस प्रजापाल राजा को (इति कथय) ऐसा कहो (भूपते ! प्रभो) हे भूपति, हे राजन् (एनं गजं समारूह्म इस हाथी पर चढ़कर (विभूत्या) (गच्छ) जानो। भावार्थ - दुत के उस विनय युक्त शिष्ट वचन को सुनकर परम बुद्धिमान् स्वाभिमानी श्रीजिनेन्द्रप्रभु के सच्चे भक्त, समस्त प्राणीमात्र के लिये सुखदायक मनोज्ञ श्रीपाल महाराज ने दया से अभिसिञ्चित चित्त वाला होने से क्रोध को छोड़ दिया और युक्ति युक्त वाक्यों से अपनी प्राण प्रिया स्वकान्ता मैना गुन्दरो को सन्तुष्ट कर पुनः दूत से कहा कि तुम जानो और प्रजापाल राजा को ऐसा कहो कि हे स्वामी ! आप इस हाथी पर सवार होकर बड़ी बिभूति के साथ महाराज श्रीपाल के पास जाओ।। गदित्वेति स्वकीयञ्च प्राहिणोद्भद्रहस्तिनम् । सत्यमासन्नभव्यानां कोपो नैव स्थिरो भवेत् ॥१६७।। अन्वयार्थ - (गदित्वा इति) ऐसा कह कर (स्वकीयं) अपने (भद्र हस्तिनं च) और Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -वाहगागरजी AM . - . SR .. ..- SM - vaa -. .- : --::-. alihiKHERI aamanni-SITERARivikrama .. Li Pariusron.' अपर ख मागर मान मनर को सूचना देते हए । मोर-- राज दरबार में मैंमा मन्द बयान बैठे है मैमा माद के पिता करने जाये। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ] [ ३६५ श्रेष्ठ हाथी को ( प्राहिणोद्) भेज दिया । (सत्यं ) वस्तुत: ( श्रासन्नभव्यानां ) प्रसन्न भव्य जीवों का (कोपो ) क्रोध (स्थिरो न एव भवेत् ) निश्चय से स्थिर नही रहता है । भावार्थ - ऐसा कहकर श्रीपाल महाराज ने अपने श्रेष्ठ हाथी को राजा प्रजापाल के पास भेज दिया । यहाँ श्रीपाल महाराज के भद्र परिणाम को दृष्टि में रखकर प्राचार्य कहते हैं। अल्प काल में ही मोक्ष जाने वाले हैं उनका क्रोध स्थिर नहीं अथवा जल में खींची लकीर के समान चित्त में उत्पन्न ोध की है, कि जो आसन्न भव्य जीव रहता है। शीघ्र ही बालू में रेखा मिट जाती है । ततस्सोऽपि प्रजापालो राजा हृष्टः स्वमानसे । प्रोत्तुङ्ग गजमारुह्य चामरादि विभूतिभिः ।। १६८ ।। पुरान्निर्गत्य वेगेन समागत्य सुभक्तितः । श्रीपाल सज्जनं दृष्ट्वा सामालिड्य परस्परम् १६६ ॥ महादरं प्रहर्षेण कृत्वा संभाषणं शुभम् । सन्तुष्टी तो तथा गाढ़ सज्जनं परिवारितौ ॥ १७० ॥ श्रन्वयार्थ - ( ततः ) तदनन्तर (स्वमानसे) अपने मन ( हृष्टः ) प्रसन्न हुआ ( सो प्रजापालो राजा अपि) वह प्रजापाल राजा भी ( चामरादि विभूतिभिः ) चामरादि विभूतियों के साथ (प्रोत्तुङ्गगजमारुह्य ) विशाल हाथी पर चढ़कर ( पुरात् बेगेन निर्गत्य ) नगर से वेग के साथ निकल कर ( समागत्य ) वहाँ पहुँच कर (सज्जनं श्रीपालं हष्ट्वा ) श्रेष्ठ पुरुष श्रीपाल को देखकर ( सुभक्तितः ) अति भक्ति पूर्वक ( परस्परं समालिङ य ) परस्पर सम्यक् प्रकार आलिङ्गन कर ( प्रहर्षेण ) प्रत्यन्त हथ से ( महावरं शुभं संभाषणं कृत्वा ) प्रति श्रादर पूर्वक शुभ संभाषण कर सज्जनः परिवारितो ) सज्जनों से परिवृत घिरे हुए ( तदा) उस समय (तो) वे दोनों यर्थात् प्रजापाल राजा और महाराजा श्रीपाल (गाढं सन्तुष्टी) अत्यन्त सन्तुष्ट हुए । भावार्थ - तदनन्तर वह प्रजापाल राजा भी मन में बहुत प्रसन्न और चामरादि विभूतियों के साथ विशाल हाथी पर चढ़कर नगरी से बाहर निकला और महाराजा श्रीपाल के पास शीघ्र ही पहुँच गया तथा प्रति भक्ति से श्रीपाल को देखकर गाढ़ आलिंगन कर विनय और हर्ष के साथ शुभ संभाषण कर बहुत सन्तुष्ट हुआ सज्जनों से घिरे हुए वे दोनों अति प्रसन्न हुए। उनका समागम परमानन्द को उत्पन्न करने वाला था । श्रीपालः श्वसुरं प्राह श्रृण त्वं भूपते ध्रुवम् । सिद्धचक्रप्रसादेन सर्व सिद्धमिदं मम ।। १७१ ॥ भन्वयार्थ - - ( श्रीपाल : ) श्रीपाल ने ( श्वसुरं प्राह ) श्वसुर को कहा ( भूपते ! ) हे Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६] [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद राजन् (त्वं शृण ) तुम सुनो (ध बम् ) निश्चय से (इदं सर्वम्) यह सब (मम) मुझे (सिद्धचक्रप्रसादेन सिद्धं) सिद्धचक प्राराधना के प्रभाव से प्राप्त हुआ है। भावार्य तदनन्तर श्रीपाल ने अपने श्वसुर प्रजापाल राजा को कहा कि हे राजन् ! सुनो, निश्चय से यह सम्पूर्ण वैभव मुझे श्री सिद्धचक्र अाराधना के प्रभाव से प्राप्त हुआ है । ।।१७१।। तबाकण्यं प्रभुस्सोऽपि प्रजापालो महोत्सवः । दाननिर्महाध्यानावित्रशतसंभवैः ॥१७२।। पुरी प्रवेशयामास विलसद् रत्नतोरणम् । श्रीपाल सबलं शान्तः पुरं नृत्यादि संभृतः ।।१७३॥ अन्वयार्थ-- (तद् आकयं) उसे सुनकर (शान्तिः सो प्रभुः प्रजापालो अपि) शान्त चित्त वाले उस प्रजापाल ने भी (महोत्सवैः) बड़े उत्सव के साथ (दान: मानैः) दान सम्मान पूर्वक (वादित्रशतसंभव:) सैकड़ों प्रकार के वादित्रों से उत्पन्न (महाध्वान:) महाध्वनि के साथ (नृत्यादिसंभवः) नृत्यादि कार्यक्रमों के साथ (सवलं) सैन्यबल के साथ (विलसद्रत्नतोरणम्) शोभायमान रनमयी तोर बार वाले पुरी दुरी श्रीपाल प्रवेशयामास ) श्रोपाल को प्रवेश कराया। भावार्थ--श्रीपाल से उस वचन को सुनकर प्रजापाल राजा बहुत सन्तुष्ट हुग्रा । अहंकार भाव के मिट जाने से शान्तचित्त हुआ वह मन में प्रति आनन्दित हुआ। वह बड़े HELLATIONAL 17FERALE ARSA २ 1-16 TOM 13 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद } [ ३६७ उत्सव के साथ सैकड़ों प्रकार के बाजों को मधुर संगीत ध्वनि और नृत्यादि से सच के चित्त को प्रमुदित करते हुए अपनी नगरी में प्रवेश करने के लिये, श्रीपाल को बड़ी भक्ति से ले गया तथा रत्नमयी तोरणों से शोभित हैं द्वार जिसके ऐसी अपनी नगरी में महान उत्सव के साथ प्रवेश कराया ।।१७२, १७३॥ तत्र राजादयस्सर्वे राजवर्गाश्च सज्जनाः । सिंहासनं समारोप्य सुताकान्तं प्रियान्वितम् ॥१७४।। नानावस्त्र - सुथरः सद्रत्नैः परमादरात् । पूजयतिसरया कोटिभ शिरोमणिम् ॥ १७५॥ सहित कान्त श्रीपाल को ( सिंहासनं समारोप्य) अनेक प्रकार के वस्त्र और सुवर्णादि से तथा शिरोमणिम् ) कोटिभट शिरोमणि श्रीपाल की प्रीति पूर्वक ( पूजयन्तिस्म) पूजा की। श्रन्वयार्थ -- ( तत्र ) वहाँ नगरी में ( सर्वे राजादय.) सभी राजाओं ने ( राजवर्गाः सज्जनाः च) राज परिवार के श्रेष्ठ जनों ने ( सुता प्रियान्वितं कान्तं ) राज पुत्री अर्थात् प्रिया सिंहासन पर बैठाकर ( नानावस्त्र सुवर्णाद्य : ) (सद्रत्नैः) श्रेष्ठ उत्तम रत्नों से ( कोटिभट( परमादरात् ) परम आदर से ( सत्प्रीत्या ) अति भावार्थ- वहाँ नगरी में पहुँचने पर वहां रहने वाले सभी अन्य राजाओं ने तथा राज परिवार के सभी सज्जनों ने मिलकर श्रीपाल महाराज का बड़े उत्सव के साथ स्वागत किया, भक्ति की, प्रिया मैनासुन्दरी सहित श्रीपाल महाराज को सुन्दर सिंहासन पर बैठा कर नाना प्रकार से उनकी स्तुति की, उत्तमोत्तम वस्त्राभरण सुवर्ण रत्नादि भेट कर परम आदर और प्रीति के साथ उनकी पूजा की अर्थात् सत्कार वा सम्मान किया ।। १७४, १७५ ।। युक्तं पुण्यविपाकेन सर्वत्र सुलभाः श्रियः । तस्मात् पुण्यं प्रकर्त्तव्यं सदा भव्यंजिनोदितम् ॥ १७६ ॥ के श्रन्वयार्थ -- ( युक्तं ) ठीक ही है ( पुण्यविपाकेन ) पुण्य के फलस्वरूप अर्थात् पुण्य प्रभाव से ( श्रियः ) लक्ष्मी अर्थात् विभूतियाँ ( सर्वत्र सुलभा : ) सर्वत्र सरलता से प्राप्त हो जाती हैं ( तस्मात् ) इसलिये ( भव्येः ) भव्यपुरुषों को (सदा) निरन्तर (जिनोदितम् ) जिनेन्द्रप्रभु के द्वारा कहे गये (पुण्यं) सातिशय पुष्य को ( प्रकर्तव्यम्) करना चाहिए । एवं तत्र प्रभु सोऽपि श्रीपाल बहुभूमिपैः । सेव्यमानो महासैन्यसंयुतोगुण मण्डितः ।। १७७ || साथिकाष्टसहस्रोरुवनिता वृन्दसंयुतः । भजन्भोगान् सुखं तस्थौ दानैः कल्पतरूपमाः ।। १७८ ।। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८] [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद अन्वयार्य-(एवं) इस प्रकार (तत्र) वहाँ उज्जयनी नगरी में (बहुभूमिपैः) बहुत राजाओं से (सेव्यमानो) सेवित (महासन्यसंयुतो) विशाल सेना से युक्त (साधिकाष्टसहस्र ) कुछ अधिक पाठ हजार (उस्वनितावृन्दसंयुतः) श्रेष्ठ अर्थात् रूप गुण सम्पन्न स्त्रियों से सहित (भोगान् भुजन) भोगों को भोगता हुआ (दान:) दान क्रियानों के द्वारा (कल्पतरूपमा) कल्प वृक्ष के समान उपमा को धारण करने वाला (गुराणमण्डितः) गुणों से मंडित शोभित (सो प्रभुः श्रीपालोऽपि) वह राजा श्रीपाल भी (सुखं) सुखपूर्वक (तस्थी) रहने लगा। भावार्थ-इस प्रकार बहुत से राजाओं से सेवित, विशाल सेना सहित, कुछ अधिक आठ हजार श्रेष्ठ रूप गुण सम्पन्न स्त्रियों के साथ इच्छित भोगों को भोगता हुआ और उत्तमोतम वस्तुओं का निरन्तर दान करने से कल्पवृक्षं को उपमा को धारण करने वाला, श्रेष्ठ मणों से सम्पन्न वह राजा श्रोपाल अनुपम शोभा को प्राप्त हुआ। निरन्तर जिनभक्ति में चित्त को लीन रखने वाला महापुण्यशाली वह श्रीपाल इस प्रकार वहाँ सुख पूर्वक रहने लगा। १७६, १७॥ श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्राणां कुर्वन पूजां जगद्धिताम् । सिद्धचकं समाचित्ते चिन्तयन् परयामुदा ॥१७॥ इत्थं पुण्यविपाकतो जिनपतेद्धर्म जगत्द्योतकम् । कुर्वन् सर्वपरिच्छदैः परिवृतः श्रीपाल नामा नृपः नानाभोगविलासरजित जगत्सर्वज्ञशास्त्रेमतिः । नित्यं सारपरोपकार चतुरस्तत्रस्थितस्सौख्यतः ।।१०।। अन्वयार्थ -(श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्राणाँ) चन्द्रमा से भी अधिक सुखकर शोतल ऐने यो जिनेन्द्र प्रभु को (जगद्धिताम पूजां) जगत् हितकारी पूजा को करते हुए (समाचित्ते) निर्मल चित्तभूमि में (सिद्ध चक्र चिन्तयन) सिद्धचाराधना का चिन्तन करते हुए (परयामुदा) परमानन्द का अनुभव करने वाले (जगत्द्योतकम् ) जगत् का द्योतन प्रर्यात उद्धार करने वाले (जनपतेद्धी) जिनधर्म को (कुर्वन्) पालन करता हुमा (पुण्यचिपाकतो) पुण्योदय से प्राप्त (नानाभोगविलासरजित) नाना प्रकार को भोग विलास की सामग्रियों से शोभित तथा (जगत्सर्वज्ञ) लोक के समस्त पदार्थों को जानने वाले ऐसे जिनप्रणीत (शास्त्र) शास्त्र में (मतिः) संलग्न है बुद्धि जिनकी तथा (सारपरोपकार चतुरः) सारभूत श्रेष्ठ परोपकार के कार्यों में निपुण या कुशल हैं जो ऐसे (श्रीपालनामानृपः) श्रीपाल नामक राजा (सर्वपरिच्छदः परिवृतः) सर्वपरिकरों से घिरे हुए (इत्थं) इस प्रकार (सौख्यतः) सुख पूर्वक (तस्थितः) वहाँ रहने लगे। भावार्थ - जो चन्द्रमा से भी अधिक कान्ति और शीतलता को धारण करने वाले ऐसे श्री जिनेन्द्र प्रभु की पूजा सर्व जगत का हित करने वाली है उस परम हितकारी जिन पूजा को करते हए तथा अपनी निर्मल चित्त भूमि में निरन्तर सिद्धचक्र पाराधना का चिन्तन करते हुए वे श्रोपाल महाराज सदा सातिशय पुण्य का अर्जन करते रहते थे तथा पुण्योदय से प्राप्त Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] नाना प्रकार की भोग विलास की सामग्रियों को भोगते हुए भी अपने मन को जिनागम के अध्ययन में तत्त्व चिन्तन में रत रखते थे। जिनप्रणीत श्रावक धर्म का तत्परता पूर्वक पालन, संरक्षण और उद्योतन करने वाले श्रीपाल महाराज सारभूत परोपकार के कार्यों में सदा प्रयत्न शील रहते थे । इस प्रकार पुण्य की निधिस्वरूप अर्थात् पुण्य की साक्षात् मूर्ति स्वरूप गुणरूपी आभूषणों से मांडित श्रेष्ठ यश वा कीति को प्राप्त वे श्रीपाल महाराज श्रेष्ठ और प्रतापशाली परिकरों के साथ वहाँ उज्जयनी नगरी में रहने लगे। इति श्री सिद्धचक्रपूजातिशयप्राप्ते श्रीपाल महाराज चरित्रे भट्टारक श्री सकलकीर्तिविरचिते श्रीपाल महाराज बहुकन्यका सहस्र विवाहलाभेन सह कमलावती माता मदनसुन्दरी भार्या सन्दर्शन व्यावर्णनो नाम षष्ठम् परिच्छेद: समाप्तः । इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति प्राचार्य विरचित श्री सिद्धचक्रपूजातिशय के फल को पाने वाले श्रीपाल चरित्र में श्रीपाल महाराज का सहस्र कन्याओं के साथ विवाहलाभ के साथ माता कमलावती और भार्या मदनसुन्दरी के सम्यक् मिलन का वर्णन करने वाला छठापरिच्छेद समाप्त हुआ। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ सप्तम परिच्छेदः ॥ अथ तत्र स्थितस्सौख्य मुज्जयिन्यां महापुरि । स श्रीपाली महाराजो चिन्तयामास चेतसि ॥ १ ॥ अन्वयार्थ - ( अथ ) इसके बादें (तत्र ) वहाँ ( महापुरि उज्जयिन्यां ) महान नगरी उज्जयिनी में ( सौख्यं स्थितः ) सुखपूर्वक ठहरे हुए ( स श्रीपाल महाराजो) उन महाराज श्रीपाल ने ( चेतसि ) मन में ( चिन्तयामास ) विचार किया कि एकवासी नवेल्लोके वः भुत्रो क्षत्रियोद्भवः । गृहीतं स्वपितुः स्थानं शत्रुणा प्राणहारिणा ॥२॥ नैव गृह, जाति मूढात्मा सामर्थ्य सति भूतले । तस्य किं जीवितेनात्र चञ्च्या पुरुषवद्धुवम् ।।३। अन्वयार्थ - ( लोके) लोक में (यः) जो (क्षत्रियोद्भः पुत्रो) क्षत्रिय वंश में उत्पन्न पुत्र ( भवेत् ) है ( असौ ) वह (एकदा) क्वचित् (प्राणहारिणा शत्रुरगा) प्राणहारी शत्रु के द्वारा (गृहीत) ग्रहण किये गये ( स्वपितुः स्थानं ) अपने पिता के स्थान वा पद को ( भूतले सामथ्र्यसति) पृथ्वी पर सामर्थ्यशील होने पर ( न गृह णाति ) नहीं ग्रहण करता है तो (महात्मा एव) मूढात्मा ही है (त्र व चञ्च्चापुरुषवत ) निश्चय से पराई सम्पत्ति का भोग करने वाले चवा पुरुष के समान (तस्य जीवितेन ) उसके जीवन से ( अत्र ) यहाँ (किम ) क्या प्रयोजन है अर्थात् उसका जीवन व्यर्थ है । भावार्थ - तदनन्तर सुख पूर्वक उस उज्जयिनी नगरी में रहते हुए श्रीपाल महाराज इस प्रकार विचार करने लगे कि लोक में जो क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुआ पुत्र है वह प्राणहारी बलिष्ठ शत्रु के द्वारा भी ग्रहण किये गये अपने पिता के पद को अवश्य प्राप्त कर लेता है यदि नहीं पाता है और प्रमादी होकर पराई वस्तु को भोगता है तो चञ्च्वा पुरुष के समान उसका जीवन व्यर्थ है । पृथ्वी पर सामर्थ्यवान् होने पर भी यदि वह अपने पिता के पद को पाने के लिये प्रयत्न नहीं करता है तो उसके जीवन से क्या प्रयोजन है ? अतः क्षत्रिय कुल में उत्पन्न और कोटिभट होकर भी यदि मैं अपने पिता के राज्य को पाने के लिये प्रयत्न न करू और श्वसुर के राज्य में पराई सम्पत्ति का भोग करू तो मेरे इस जीवन से क्या प्रयोजन ? अत: अवश्य ही शीघ्र अतिशीघ्र अपने पिता के राज्य को पाने के लिये मुझे प्रयत्न करना हो चाहिए । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद । मृते पितरि पुत्रो यः स्वयंशं नैवचोद्धरेत् । स पुत्रः केवलं मातुः कृमिवद् वेदनाकरः ||४|| यः करोति कुलोद्योतं पौरुषेष सो भवेत् । स एव संभवेल्लोके सुपुत्रः कुलवोपकः ||५|| अन्वयार्थ – (च) और भी ( पितरि मृते ) पिता की मृत्यु हो जाने पर (यः) जो (पुत्री) पुत्र ( स्ववंशं) अपने कुल को ( न उद्धरेत) समुद्धत नहीं करता है, उद्धार नहीं करता है ( स पुत्रः ) वह पुत्र ( कृमिवद ) कोड़े की समान ( मातुः वेदनाकर एव ) माता के लिये वेदनाकारी ही है (लोके) लोक में ( कुलदीपक: सुपुत्रः ) कुल को प्रकाशित करने वाला कुल दीपक पुत्र ( स एव समवेत ) वही हो सकता है (यः) जो ( पौरूष ) पुरुषार्थ के द्वारा ( कुलोद्योतं एव) कुल का प्रकाशन उद्योतन हो ( करोति ) करता है । ( सो भवेत् ) वह कुलदीपक पुत्र ही होवे अर्थात् सभी माताओं को प्राप्त होवे । १४०१ भावार्थ इस प्रकार जिनके अन्तःस्थल में निरन्तर श्रेष्ठ विचार ही उत्पन्न होते हैं वे श्रीपाल महाराज इस प्रकार विचार कर रहे हैं कि पिता की मृत्यु हो जाने पर जो पुत्र अपने वंश, कुल की सुरक्षा और उन्नति के लिये प्रयत्न नहीं करता है वह उदर में पैदा हुए कृमि के समान माता की वेदना को बढ़ाने वाला है, माता के लिये कष्टकारी हो है तथा जो पुत्र अपने पुरुषार्थ से निरन्तर कुल का उद्योतन करने में तत्पर रहता है वह सुपुत्र ही कुलदीपक है वही माता के लिये सुखकारी होता है ऐसे पुत्र का होना ही सार्थक है क्योंकि वही कुल, देश वा राष्ट्र की रक्षा कर सकता है ।। ५ ।। प्रतोऽहं गतो गत्वा कृत्वा युद्धं च दारुणम् । अहो नाहं गृहीष्यामि यावद्राज्यं कुलागतम् ||६|| पितृव्यं संगरे जित्था लावत्स्वास्थ्यं कुतोऽत्र मे । विचिन्त्येति प्रजापालं प्रत्यवावीत् स तत्क्षणम् ॥७॥ अन्वयार्थ - ( अतो ) इसलिये ( अहं वेगतोगत्वा ) मैं शीघ्र जाकर (दारुणम् युद्धं च कृत्वा) और दारुण-भयंकर युद्धकर ( संगरे पितृव्यं जित्वा ) युद्ध में चाचा को जीत कर ( यावत् ) जब तक ( कुलागतम् ) कुल परम्परा से प्राप्त ( राज्य ) राज्य को ( श्रहं न गृहीष्यामि ) मैं नहीं ग्रहण करूगा (अहो ! ) अरे ! ( तावत् ) तब तक ( मे अत्र ) मुझे यहाँ ( स्वास्थ्यम् ) स्वस्थता वा शान्ति ( कुतो ) कहाँ अर्थात् कैसे संभव है ? ( इति विचिन्त्य ) ऐसा विचार कर ( तत्क्षणम् ) उसी समय ( स ) उसने ( प्रजापाल प्रति प्रवादीत् ) राजा प्रजापाल को कहा राजन् यास्याम्यहं नूनं स्वदेशं पितृभूतये । ततोऽवोचन् नृपो धोमन् अर्धराज्यं गृहारण में || ८ | Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ] ( भोपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद अन्वयार्थ - ( राजन् ) हे राजन् ! ( नूनं) निश्चय ही ( अहम् ) मैं ( पितृभूतये ) पिता की सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिये ( स्वदेशं ) अपने देश को ( यास्यामि ) जाऊँगा ( ततो ) तब ( धीमन् नृपो ) बुद्धिमान् राजा प्रजापाल ने (प्रवचन) कहा ( मे अर्ध राज्यं) मेरे आवे राज्य को ( गृहाण ) ग्रहण करो । भावार्थ - - श्रीपाल महाराज उक्त प्रकार विचार कर यह निश्चय किया कि मैं शीघ्र ही जाकर, भयंकर युद्ध कर, चाचा को युद्ध में जीतकर अपना राज्य प्राप्त करूंगा। जब तक कुल परम्परा से प्राप्त अपने पिता के राज्य को नहीं लेता हूँ तब तक मुझे शान्ति नहीं हो सकती है। ऐसा मन में राज्य प्राप्ति के लिये ध्रुव विचार कर उसी समय उन्होंने राजा प्रजापाल को इस प्रकार कहा कि मैं अपने पिता की सम्पत्ति को पाने के लिये अपने देश जाऊँगा तत्र बुद्धिमान राजा प्रजापाल ने कहा कि हे महानुभाव ! आप मेरा आधा राज्य ग्रहण करें अर्थात, मैं अपना आधा राज्य आपको देता हूँ आप यहीं सुख पूर्वक निवास करें ||६ से ८ || तिष्ठायैव सुखेन त्वं किं साध्यं पितृराज्यतः । तनोचितं स इत्युक्त्वा संचचाल ततो द्रुतम् ॥ अन्वयार्थ - ( त्वं ) तुम (अव) यहीं ( सुधेन तिष्ठ) सुख से ठहरो (पितृराज्यतः ) पिता के राज्य से ( कि साध्यं ) क्या प्रयोजन ? ( ततो ) तब ( तत न उचितं ) वह ठीक नहीं ( इति उक्वा ) ऐसा कहकर ( द्र ुतम ) शीघ्र ( संचचाल ) चल दिया अर्थात् प्रस्थान किया । भावार्थ -- जब राजा प्रजापाल ने श्रीपाल महाराज को यह कहा कि तुम यहीं सुख से ठहरो और इस राज्य का भांग करो तब श्रीपाल महाराज ने कहा कि यह ठीक नहीं है अर्थात् शूरवीरों के लिये यह शोभनीय नहीं है। इस प्रकार कह कर शीघ्र ही वहाँ से चल दिया अर्थात् अपने राज्य की तरफ प्रस्थान कर दिया |१६|| सारशृंगारभार्याभिस्सर्वाभिः परिमण्डितः । जंगमः कल्पवृक्षो वा लताभिः परिवेष्टितः ॥ १०॥ गजाश्व रथपादाति सहस्रः परिवारितः । छत्रचामर सद्भृत्या चक्रवर्तीय धोधनः ॥। ११॥ अश्वपादाहत क्षोणिरजोभिस्छावयन् नभः । पतापनिजिता राति मंडलो वा दिवाकरः ॥ १२॥ अन्वयार्थ - ( सारशृंगार ) सारभूत सुन्दर वस्त्राभरण से अलङ्कृत ( सर्वाभिः भाभिः) सुन्दर स्त्रियों से (परिमण्डितः ) सुसज्जित अर्थात् चारो तरफ से वेष्ठित हुए उस समय महाराज श्रीपाल ऐसे शोभित होते थे मानो ( लताभिः परिवेष्टितः ) लताओं से घिरा हुआ (जंगमः कल्पवृक्षोवा) पृथ्वीकायिक कल्पवृक्ष ही हो । ( गजाश्वरथपादातिसहस्र :) हाथी, घोड़े, रथ और पति रूप सैकड़ों सैन्यदल में तथा (छत्रचामरसद्भृत्या) छत्र, चमर और Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद ] ६४०३ श्रेष्ठ सेवकों से (परिवारितः ) परिवृत ( घीवनः ) बुद्धिमान श्रीपाल ( चक्रवर्ती दव) चक्रवर्ती के समान शोभता था । ( अश्वपादाहत ) घोड़ों के पैरो से क्षत विक्षत ( क्षोणिरजोभिः ) भूमि के रजकणों से (नभःछादयन् ) ग्राकाशमण्डल को ढकता हुआ तथा ( प्रतापनिजिताराति) प्रताप अर्थात् अपने शौर्यवीर्य से शत्रुओं को जीतने वाला वह श्रेणिक (दिवाकरवा ) अन्धकार को सर्वथा नष्ट कर देने वाले सूर्य के समान प्रतीत होता था । भावार्थ-अपनी नगरी चम्पापुरी की तरफ प्रस्थान करते समय विशाल परिकरों से चिरे हुए श्रेणिक महाराज ऐसे शोभते थे मानो चक्रवर्ती हो दिग्विजय के लिये प्रस्थान कर रहा हो । सुन्दर वस्त्राभरणों से अलंकृत देवाओं के सेनायें अर्थात् स्त्रियों से वे परिमण्डित थे । तथा श्रेष्ठ सेवकों से घिरे हुए और सेकड़ों हाथी, घोड़े, रथ और पादाति सेना से सहित युद्ध के लिये जाते हुए वे अणिक महाराज ऐसे प्रतीत होते थे मानो साक्षात चक्रवर्ती ही हो । उस समय दौड़ते हुए घोड़ों के पैरों से क्षत विक्षत भूमि के रज कणों से पूरा आकाश मण्डल व्याप्त हो रहा था तथा अपने शौर्य वीर्य से समस्त शत्रुनों को जीतते हुए श्रेणिक महाराज आगे बढ़ते हुए, सूर्य के समान प्रभावशाली दीखते थे। जैसे सूर्योदय होते हो अन्धकार दूर हो जाता है वैसे ही उनके तेज और प्रताप को देखते हो बलिष्ठ शत्रु भी शत्रुता छोड़ देते थे तथा चरणों में झुके हुए श्रीपाल महाराज की सेवा में सदा तेयार रहते थे । १० से १२ । बं तदा भूमिश्चचालोकचे सैन्य संदोहमर्दनात् । कम्पमाना च भीत्येव ससमुद्रा सपर्वता ॥ १३॥ अन्वयार्थ -- (तथा) उस समय ( उच्चैः सन्यसंदोहमर्दनात् ) विशाल सैन्यबल वा सेना समूह के पैरो के मर्दन मे (भूमिः चचालो ) पृथ्वी हिलने लगी । ( ससमुद्र सपर्वता) समुद्र और पर्वतों से सहित (कम्पमाना) कांपती हुई वह पृथ्वी भी ( भीत्येव ) भयभीत ही हो गई थी । भावार्थ ---- जब श्रीपाल महाराज अपनी चम्पा नगरी को जा रहे थे तब उनकी विशाल सेना के पैरों के मर्दन से समुद्र और पर्वतों से सहित पृथ्वी भी कांपने लगी मानो वह भी उनके पराक्रम से डर गई थीं। इस प्रकार का उनका पराक्रम लोक में अभूतपूर्व था ।। १३ । क्रमेण साधयन् देशान् नामयंस्तत् प्रभम्बहून् । संग्रहन् साररत्नानि नानावस्तुशतानि च ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ -- ( क्रमेण ) क्रम से एक के बाद एक ( देशान् साधयन् ) राज्यों की जीतते हुए (तत्) तद् स्थानीय ( बहून् प्रभून् ) बहुत राजाओं को (नामयन् ) झुकाते हुए अर्थात् अपना सेवक बनाते हुए (च साररत्नानि ) और सारभूत रहनादि (नाना ) अनेक प्रकार की ( वस्तुशतानि ) कड़ों वस्तुओं का संग्रह) संग्रह करता हुआ वह श्रीमान् श्रीपाल आगे बढ़ता गया || १४ || जिनेन्द्रसदनाद्युद्यद् वाद्यध्वनाति मंगलाम् । सोधप्रासादसत्केतुमालाभिस्तजितांवित्रम् ॥ १५॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] {श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद स्वचम्पानगरों गत्वा तद्वाह्मन्यवसत् सुधीः । ततोऽसौ प्राहिणोद् भद्रं पितृव्यं प्रति संधये ॥१६॥ अन्वयार्थ-(अतिमंगलांवाद्यध्वनि) अति मङ्गलमय मधुर वाद्य ध्वनि से गुजित (उद्यजिनसदनादि) उन्नत जिन भवन जहाँ है और (सोधप्रासाद सत्केतुमालाभिः) महलों वा उन्नत भवनों के ऊपर फहराती हुई ध्वजारों और मालाओं से (तजितांदिवं) स्वर्ग की शोभा को भी तजित करने वाली तिरस्कृत करने वाली (स्त्र चम्पानगरौं गत्वा) अपनी चम्पा. नगरी में पहुँच कर (सुधीः) बह बुद्धिमान श्रीपाल (तद्वाह्य न्यवसन्) उसके बाहर में ठहर गया (ततो) तदनन्तर (असो) उसने (पितृभ्यं प्रति संधये) चाचा के प्रति संधि के लिये (भद्र) भद्र नामक दूत को (प्राहिणोद्) भेज दिया । मावार्थ-वह चम्पा नगरी अपनी विभूति और शोभा से स्वर्ग को भी तिरस्कृत करने बाली थी वहाँ विशाल-विशाल प्रासाद महल तथा उन्नत जिन भवन थे जिन पर सुन्दर ध्वजायें फहराती हुई अपनी गुरूता-गरिमा को प्रदर्शित कर रही थी उन ध्वजारों के साथ शिखर पर रत्नमयी सुन्दर मालायें भी लटक रही थीं जो अपनी विभूति विशेष को प्रकट करती हुई सवको आकृष्ट कर रही थीं ऐसी उस चम्पा नगरी में पहुँचकर श्रीपाल महाराज नगरी के बाहर ही ठहर गये और चाचा वोरदमन के प्रति सधि के लिये भद्र नामक दूत को भेजा। स्वामी के प्रति य भक्ति रखने वाला वह भद्र नामक दूत भी शीघ्र राजा बोरदमन के पास पहुँच गया । सोऽपि गत्वा तं धीरदमनाख्यं जगाव च । भो प्रभोऽत्र समायातः श्रीपालः पालितारिवलः ॥१७॥ सर्यदेशान् समासाद्य गृहीत्वा सारसम्पदम् । महासैन्यशतेनोच्चैर्महासामर्थ्य संयुतः ।।१८।। अन्वयार्थ -(च) और (सोऽपि) वह भद्रनामक दुत मी (बीरदमनायं) वीर दमन नामक राजा के पास (द्र तंगत्वा ) शीघ्र जाकर (जगाद, बोला (भो प्रभो) हे प्रभु ! (सर्वदेशान् समासाद्य) सभी देशों को पहुँच कर (सारसम्पदम् गहीत्वा) सार भूत सम्पदा को लेकर (महासैन्यशतेनोच्चैः) सैकड़ों विशाल महासन्य के द्वारा (महासामर्थ्यसंयुतः) बहुत बड़ी शक्ति से सहित (पालिताखिलः) सम्पूर्ण देशवासी जिसके रक्षक है ऐसा (श्रीपाल:) श्रीपाल (अत्रसमायातः) यहाँ पाया है। भावार्थ---उस दूत ने वीरदमन राजा को सर्वप्रथम राजा श्रीपाल का संक्षिप्त परिचय दिया और कहा कि सम्पूर्ण देशों को जीतते हुए, वहाँ की सारभूत सम्पदाओं को लेकर, महासैन्य रुप विशाल शक्ति से सहित, बह श्रीपाल यहाँ आया है जिसकी सेवा में सभी राजा और देशवासी सदा तत्पर रहते हैं । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . Mad 4 1-4.i Hai SHAHI R m FFA 150 OUR . 15 . P TNA श्रीपाल महाराज के दूत के बचन सुनकर राजा वीरदमन अति ऋद्ध हए । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद ] तेनाहं प्रभूना दत्वा प्राभतं प्रेषितः प्रभो । गृहाण देव पत्रं च शृण त्वम् तेन भाषितम् ॥१६॥ राजस्व आवृणो का बेशरम् मतः । श्रीपाल भूपतिस्सोऽत्राद्यायातस्साधयन्नृपान् ।।२०। [¥‰ अन्वयार्थ - - ( प्राभृतं पत्रं च दत्वा ) उपहार रूप सामग्री और पत्र देकर ( तेन प्रभुना ) उस राजा के द्वारा ( प्रभो ) हे प्रभु ! ( बहु प्रेषितः) मैं भेजा गया हूँ ( तेन भाषितं ) उनके द्वारा कहे गये श्राज्ञा रूप बचन को (त्वशृण) तुम सुनो (च) और (देव) हे देव ! ( पत्र गृहाण ) पत्र को ग्रहण करो ( राजन् ) हे राजन् ! ( यः प्रागुत्व भ्रातृजो ) जो पहले तुम्हारा भतीजा था और ( बाल्ये ) बाल्य अवस्था में ( देशान्तरं गतः ) देशान्तर को चला गया था (सो) वह ( साधयन् नृपान् ) अनेक राजाओं को जीतता हुआ ( भूपतिः श्रीपाल ) राजा श्रीपाल ( श्रद्यअत्र आयातः) आज यहाँ आया है। भावार्थ - उसने कहा हे राजन् ! उस श्रीपाल महाराज ने आपके लिये भेट रूप सामग्री और पत्र देकर मुझे यहाँ भेजा है श्राप उनके आदेश रूप वचन को सुने और उपहार तथा पत्र को ग्रहण करें। वह दूत कहने लगा कि हे भूपति ! जो पहले तुम्हारा भतीजा था और बाल्यकाल में ह्री देशान्तर को चला गया था वह अपने उत्कृष्ट बल, शीघ्र वीर्य से समस्त राजाओं को जीतता हुआ आज यहाँ आया है ॥१६२० ।। तस्मै तत् पितृ राज्यं त्वं समप्यं तिष्ठ शर्मणा । भृत्य त्वं प्रतिपद्याशु नो चेद् वेशान्तरं व्रज ॥२१॥ इत्यादिकं समाकर्ण्य बचोहरवचोरिवलम् । स वीरदमनप्राह प्रभुः कोपाग्नि दीपितः ॥२२॥ श्रन्वयार्थ - - ( तस्मै ) उस श्रीपाल महाराज को ( तत्पितृ राज्यं समये) उनके पिता के राज्य को समर्पित कर ( त्वं शर्मणा तिष्ठ) तुम सुख पूर्वक ठहरो (आशु ) शीघ्र ( भृत्यप्रतिपद्म) सेवकपने की स्वीकार कर रहो ( नो चेद्) यदि नहीं, तो ( देशान्तरं व्रज ) देशान्तर को गमन करो (वचोहर इत्यादिकं वचारिवलम् ) दूत के इस प्रकार के सम्पूर्ण वचन को सुनकर ( कोग्निदीपितः ) क्रोध से उद्दीप्त हुम्रा प्रज्वलित हुआ ( स प्रभुः बीरदमन) वह राजा वीरदमन (प्राह ) बोला---- मावार्थ- पुनः दूत ने कहा कि आप श्रीपाल महाराज को उनके पिता का राज्य समर्पित कर सुखपूर्वक ठहरे और शीघ्र उनके सेवकत्व को स्वीकार करें अन्यथा देशान्तर को गमन करें । दूत के इस प्रकार के सम्पूर्ण वचनों को सुनकर क्रोध से उद्दीप्त हुआ वह राजा वीरदमन बोला- ॥२१२२ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६] [ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद कि ते श्रीपाल-कोपाचिः कि ते संन्य तृणोपमम् । एकोऽहं सकलान् शत्रून् जित्वा घोरे रणाङ्गणे ॥२३॥ भास्कर इव तमस्तोमं प्रेषयित्वा यमालयम् । श्रीपालं तं करिष्यामि स्वनाम सफलं क्षितौ ॥२४॥ अन्वयार्थ-(ले) उस (श्रीपालकोपात्रिः) श्रीपाल की क्रोधाग्नि (कि) क्या कर सकती है ? (तृणोपमम् ) तृग के समान(ते संन्यं कि) उसको सना क्या कर सकती है ? (घोरे रणाङ्गणे) घोर युद्ध भूमि में (एकोऽहम् ) मैं अकेला (सकलान् श बेन जित्वा) सम्पूर्ण शत्रुनों को जीतकर (तमस्तोमं भास्कर इव) जैसे सूर्य गहन अन्धकार को शीघ्र नष्ट कर देता है उस प्रकार (तं श्रीपाल) उस श्रीपाल को (यमालयम्) यमालय को (प्रेषयित्वा) भेज कर (क्षिती) पृथ्वी पर (स्वनाम) अपना नाम (सफल करिष्यामि ) सफल करूंगा ।।२३ २४।। भावार्थ -हे श्रीपाल का बचोहर दूत ! उस श्रीपाल की अल्प क्रोधाग्नि मेरा क्या कर सकती है ? और तृण के समान शक्तिहीन उसकी सेना भी मेरा क्या कर सकती है ? जैसे सुर्य, सघन अन्धकार को भी शीघ्र नष्ट कर देता है उसी प्रकार मैं अकेला ही युद्ध भूमि में सम्पूर्ण शत्रुओं को जीतकर और उस श्रोपाल को तत्काल यमालय में भेजकर अपनो यशोकोति से इस पृथ्वी को व्याप्त कर दूंगा अथवा पृथ्वी पर अपना नाम सफल करूंगा। तन्निशम्य पुनर्दू तो जगावित्थं त्वया प्रभो । नियते किं वृथा गर्यो मानभङ्गस्य कारणम् ॥२५॥ अन्वयार्थ-(तन्निशम्य ) राजा वीरदमन के उस वचन को सुनकर (दतो पूनः इत्थं जगौ) दूत ने पुनः इस प्रकार कहा (प्रभो !) हे राजन (वृथा कि गर्यो क्रियते त्वया) तुम व्यर्थ में क्यों ऐसा गर्व करते हो ? जो (मानभङ्गस्य कारणम्) मान भङ्ग का कारण है । भावार्थ ---उस दूत ने राजा वीरदमन को कहा कि हे राजन् ! तुम्हारा मिथ्या अहङ्कार मान भङ्ग का कारण है अत: व्यर्थ का अहंकार मत करो। श्रीपाल महाराज की शक्ति की परख करो।।२ अङ्गवनकलिङ्गाद्या गौर्जरामालवादयः। कौकुणाश्च महीपालास्त लङ्गास्सैहलास्तथा ॥२६॥ सेयन्ते त्वत, समास्सर्वे भूपाला बह्वो ध्र वम् । श्रीपालनाम-भ पालंपालितारिवलमंडलम् ॥२७॥ अन्वयार्थ---(अङ्गवङ्गकलिङ्गाद्या) अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग आदि देश (तथा )तथा (गौरामालवादयः) गुजरात, मालवादि देश (कौंकुणा: तैलङ्गाः सहला: च) और कौकुण, तेलगु धौर Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद] [४०७ संहलादि देश (स्वत् समाः सर्वे बहवोभूपालाः) तुम्हारे समान सभी अर्थात् बहुत राजागण (पालितारिवलमंडलम्) सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल का रक्षण वा पालन करने वाले (श्रीपालनामभूपालं) श्रीपाल नामक राजा को (सेवन्ते) सेवा करते हैं । मानार्थ-वन दत, महाराज श्रीपाल की गाक्ति की महानता को व्यक्त करते हुए कहने लगा कि अङ्ग देश, बङ्ग देश, कलिङ्ग, गुजरात और माल वादि देश तथा कौकुण, तेलमू और सैहलादि देशवर्ती सभी राजा और तुम्हारे समान बहुत राजागण सदा उस श्रीपाल महाराज की सेवा में तत्पर रहते हैं उस कोटिभट श्रीपाल का बल अतुल है अत: तुम मिथ्या अहंकार मत करो। तुम्हारा यह झूठा अहङ्कार मान भङ्ग का कारण है प्रतः अहवार को छोड़कर श्रीपाल महाराज के सेवकत्व को स्वीकार करो ।२६ २७। ततः कोपं परित्यज्य भो प्रभो सुभटोत्तमम् । कोटिभटं स्वरक्षार्थ भज त्वं स्वामिनं मम ॥२८॥ अन्वयार्थ--(तत:) इसलिये (भो प्रभो ! ) हे राजन् (कोपं परित्यज्य) क्रोध को छोड़ कर (स्वरक्षार्थ) अपनी रक्षा के लिये (त्वम् ) तुम (मम स्वामिन) मेरे स्वामी (कोटिभटं सुभटोत्तम) कोटिभट वीरोत्तम श्रीपाल को (भज) सेबो अर्थात श्रीपाल की सेवा में सत्पर हो जाओ। भावार्थ- दूत ने पुनः राजा वोरदमन को कहा कि तुम अपनी रक्षा के लिये क्रोध को छोड़कर वीरोत्तम कोटिभट श्रीपाल का सेवकत्व स्वीकार करलो ।।२८] वीरादिदमनो राजा तदाकोपेन संजगौ । अरे दूत त्वरं याहि यतो बद्धयो स नैव च ॥२६॥ अद्यय दर्शयिष्यामि सामर्थ्य स्वयं रणाङ्गणे । एवं विसज्यं तं दूतं स्वयं च रणतूर्यकम् ॥३०॥ अन्वयार्थ--(तदा) तब .(कोपेन) क्रोध से (वीरादिदमनोराजा) वीरदमन राजा ने (संजगी) कहा (अरे दूत ! ) हे दूत ! (त्वरं याहि) शीन जाओ (यतो) क्योंकि (बद्ध्यो स नंबच) बह अर्थात दुत निश्चय से बध्य नहीं होता है। (अयब) प्राज ही (रणाङ्गणे) यद्धस्थल में स्विं सामर्थ्य) अपने सामर्थ्य को दर्शयिष्यामि दिखा देगा एवं इस प्रकार (तं इतं) उस दूत को (विसर्य) भेजकर (च) और (स्वयं रतूर्ययम ) स्वयं रण भेरी बजवादी। दापयित्वा समारूह्य मत्तमातङ्ग मुत्तमम् । चतुरङ्गबलोपेतश्चामरादि विभूतिभिः ॥३१॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद तेन सार्द्ध पदायुद्धप्रकर्तुं निर्ययौ जवात । तदा क्षत्रियभार्याश्च स्नःस्वं नाथं जगुः किल ।।३२॥ जित्वा शत्रून हो स्वामिन हत मातङ्ग मस्तकात । महामुक्ताफलान्युच्चस्स्नं समानय मे प्रभो॥३३॥ अन्वयार्थ—वह वीरदमन (दापयित्वा) भेरी बजवा कर (मनमातङ्गमुत्तमम समारूह्य ) मदोमत्त श्रेष्ठ हाथी पर चढकर (चतुरङ्गबलोपेतः) चतुरङ्ग बल सहित (चामरादिबिभूतिभिः तेन सार्द्ध) चामरादि विभूतियों से युक्त-सहित (जवात्) शीघ्र (युद्धप्रक) युद्ध करने के लिये निर्ययो)निकल गया (तदा)तब (क्षत्रियभार्या: क्षत्रिय स्त्रियों ने स्वं स्वं नार्थ) अपने अपने स्वामी को (जगुः) कहा (अहो स्वामिन ) हे स्वामी (किल) निश्चय से (शशून् जित्वा) शत्रुओं को जीतकर (हतमातङ्ग मस्तकात ) मरे हुए हाथियों के मस्तक से (उच्चैः) श्रेष्ठ) महामुक्ताफलानि) महामुक्ताफलों मोतियों को (में) मेरे लिये (समानय ) लायो । ___ मावार्थ-वह बीरदमन राजा रणभेजो रजवाकर मदोन्मत्त श्रेष्ठ हाथी पर चढकर चतुरङ्ग बल (हाथी, घोडा, रथ, पयादे) साहंत चामरादि विभूतियों से युक्त शीघ्र युद्ध करने के लिये निकल गया। तब क्षत्रिय स्त्रियों ने अपने अपने पति-स्वामि से कहा कि हे प्रभो ! निश्चय से आप शत्रुओं को जीतकर मरे हुए हाथियों के मस्तक से श्रेष्ठ गजमुक्ताओं को लेकर आयो, अर्थात हमारे लिये गज मोती लाओ । इस प्रकार क्षत्रिय कुलवती स्त्रियों ने, अपने पति के विजय की मङ्गल कामना प्रगटकर, उनको मोत्साह बुद्ध के लिये विदा किया । ३ १से३३ काचिज्जगाद भो नाथ यशोराशिसमुज्वलम् । जित्वा रिपून सुधोया स्वं मे रत्नकदम्बकम् ॥३४॥ काचिदूचे प्रभो युद्धे निराकृत्य द्विषोभटान् । कोतिकान्त्या जगद्विश्यं कुर्याद चन्दयदज्ज्वलम् ॥३५॥ अन्वयार्थ-(काचित ) और भी किसी स्त्री ने (जगाद) कहा कि (भो नाथ) हे स्वामिन ! (यशोराशिसमुज्वलम) निमल यश रूप सम्पत्ति को प्राप्त कर (रिपून जित्वा) (शत्रुओं को जीतकर (सुधीः त्वम् ) उत्तम बुद्धि को धारण करने वाले तुम (मे) मुझे (रत्नकदम्बकम् ) रत्नराशि (देया) प्रदान करना (काचित ऊचे) किसो स्त्री ने कहा (प्रभो) हे स्वामिन पाप ! (युद्धे) युद्ध में (द्विषोभटान्) शत्रुपक्ष के योद्धाओं को (निराकृत्य) हराकर (चन्द्रवत उज्ज्वलम ) चन्द्रमा के समान धवल (कोतिकान्त्या) कीति रूपी कान्ति से (जगद् विश्वं कुर्याद्) सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करें। भावार्थ--किसी स्त्री ने युद्ध में जाते हुए अपने पति के प्रति मङ्गल कामना प्रकट करते हुए कहा कि आप निर्मल यश रूपी सम्पत्ति को प्राप्त करें। हे स्वामिन ! उत्तम बुद्धि को धारण करने वाले आप शत्रुओं को शीध्र जीतकर मुझे रत्न राशि प्रदान करें। किसी स्त्री Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल परित्र सप्तम परिच्छेद] [४०६ ने अपने पति को कहा कि हे प्रभो ! युद्ध में वीर शत्रुओं को जीतकर आप अपनी धवल प्रभा से विश्व को व्याप्त करने वाले चन्द्रमा के समान कीर्ति रूपी कान्ति से इस भूतल को व्याप्त करें। इस प्रकार की मङ्गलकामना के साथ उन वीराङ्गनानों ने अपने अपने स्वामी को युद्ध स्थल के लिये विदा किया ।।३४३५॥ भयभय जननी कानित्सती प्राह सुतं प्रति । अरे पुत्र रणेचापि स्मर्त्तव्याः निज मानसे ॥३६॥ सारपञ्चनमस्कारास्सर्व सिद्धि विधायकाः । येन से कार्य संसिद्धिस्सद्यशोभिर्जगत्त्रये ॥३७॥ अन्वयार्य-(भटस्य जननी) बोर सुभट की माता ऐसी (काचित् सती) किसी शीलवती ने (सुतं प्रति प्राह) पुत्र के प्रति काहा (अरे पुत्र ! )हे पुत्र ! (रणे) युद्ध में (अपि) भी (निजमानसे) अपने मन में (सर्व सिद्धि विधायकाः) सर्व सिद्धियों को प्रदान करने वाले (सारपञ्चनमस्काराः) सारभूत पञ्च नमस्कार मंत्र का (स्मर्तव्या:) स्मरण करो (येन) जिससे (जगत्त्रये) तीन लोक में (सद्यशोभिः) उत्तम-निर्मल यश के साथ (ते कार्य) तुम्हारे कार्य की (संसिद्धिः) सम्यक् प्रकार सिद्धि हो सके । भावार्थ शीलवती श्रेष्ठ विसी वीर सुभट की माता ने अपने पुत्र के प्रति कहा हे पुत्र ! युद्ध स्थल में भी तुम समस्त कार्यों को सम्यक् सिद्धि कराने वाले उस पञ्चनमस्कार मंत्र का सदा स्मरण रखना । उस पञ्चनमस्कार मन्त्र के प्रभाव से तुम, लोक में निर्मल यश से विश्व को व्याप्त करते हुए श्रेष्ठ विजय को प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हो ।। ३६ ३७।। भवेदुच्चः प्रजल्येति दधिचन्दनमक्षतान् । वधौ पुत्र-शिरोदेशे ललाटे च शुचान्विता ॥३॥ एवं शिक्षाशतोपेतै टैस्सार्थ विनिर्ययो । स वीर्यदमनो राजा सञ्जतु भ्रातृजन्तुजम् ।।३६॥ अन्वयार्थ- (भवेद् उच्च:) श्रेष्ठ विजय की प्राप्ति होवे (इति) ऐसा (प्रजलप्य) कह कर (शुचान्विता) मङ्गलमय पवित्र भावों से सहित माता ने (पुत्रशिरोदेशे) पुत्र के मस्तक प्रदेश में (ललाटे) ललाट पर (दधिचन्दनम अक्षतान्) दही, चन्दन अक्षतों को (दधौ क्षेपण किया (एवं) इस प्रकार (शिक्षाशत्तोपेतः) सैकड़ों शिक्षावचनों से संस्कृत किये गये (भटे: सार्थ) भटों के साथ (भ्रातृजन्तुजम् ) भतीजे को (सजेतुम ) जीतने के लिये (स राजा वीयंदमनो) वह राजा वीर्यदमन (विनियो) नगरी से बाहर निकला। भावार्थ-निरन्तर पुत्र के विजय की कामना करने वाली सुभटों की मातायें, मङ्गलमय पवित्र भावों से सहित पुत्र को कहने लगी कि तुम शीघ्र श्रेष्ठ विजयलक्ष्मी को । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद प्राप्त करो, यशोकीति से विश्व को व्याप्त करो । इत्यादि सैकड़ों आशीर्वचन तथा शिक्षा वचनों को कहते हुए उन्होंने अपने-अपने पुत्र के मस्तक पर और ललाट भाग पर दही, चन्दन अक्षतों का क्षेपण किया और उत्साह वर्धक वचनों के साथ उन्हें युद्ध के लिये विदा किया। इस प्रकार सैकड़ों भटों के साथ वह राजा वीरदमन भतोजे-श्रीपाल को जीतने के लिये नगरी से बाहर निकला ॥३८ ३६।। दूतोदितं समाकयं श्रीपालो विमलः प्रभः। कुपित्या सन्मुखं प्राप यमस्योपरि वायमः ॥४०॥ अन्वयार्थ-(दूतोदितं समाकर्ण्य) दूत के द्वारा कहे गये वचनों को सुनकर (विमल: प्रभुः) निर्मल श्रेष्ठ गुणों के धारी राजा (श्रीपालो) श्रीपाल (कुपित्वा) क्रोधित होकर (सन्मुखं प्राप) वीरदमन के सन्मुख आ गया जो ऐसे प्रतीत होते थे मानो (यमस्योपरि वा यमः) यम के ऊपर यम आ गया है अर्थात् दोनों की मुद्रा यमराज के समान दीखती थी । मावा-उसी समय अपने दूत के वचनों को सुनकर क्रोधित हुया श्रीपाल भी रण क्षेत्र में आ गया। वीरदमन के सन्मख उपस्थित श्रोधाविष्ट श्रीपाल को देखकर यह ऐसी उत्प्रेक्षा करते हैं कि मानो यम के ऊपर यम ही पा गया है। अर्थात् दोनों यमराज के समान भयङ्कर दीखते थे । परस्पर एक दूसरे को मारने के लिये तत्पर उनकी क्रूर दृष्टि यमराज के समान भय कारी यी ।।४।। ततस्तयोर्महायुद्धे नानाशस्त्रसहस्रकः । अश्वगंजैरथैस्तुङ्ग पादातिजनवृन्दकैः ॥४॥ प्रयत ने स्वराज्यार्थ क्षीयमाने भटोत्करः । तदा मन्त्रिवरक्ष्यि तयोयुद्धं प्रजाक्षयम् ॥४२॥ प्राज्ञा जैनेश्वरी दत्त्वा देवेन्द्राधैस्समच्चिताम् । सैन्ययोश्च द्वयोः प्रोक्त श्रूयतां भी प्रभोत्तमौ ।।४३।। अन्वयार्थ - (तत:) उसके बाद (नानाशस्त्रसहस्रके:) नाना प्रकार के हजारो शस्त्रों से (अश्वगजरथेस्तई विशाल-विशाल हाथी, घोडा और रथों से (पादानिजनवन्दकः) पैदल चलने वाली सेना समुह से युक्त (भटोत्करै:) सुभटों से होने वाले (तयोः) उन दोनों राजानों के (क्षीयमाने युद्धे) विनाशकारी सुद्ध में (स्वराज्याथ) अपने राज्याधिकार के लिये (प्रवर्तने) प्रवर्तित होने पर (तदा) उस परिस्थिति में (प्रजाक्षयम ) प्रजा का क्षय करने वाले (तयोः) उन दोनों के युद्ध को (वीक्ष्य ) देखकर (मन्त्रिवरः) श्रेष्ठ मन्त्रियों ने (देवेन्द्राचं स्समर्चिताम्) देवेन्द्र आदि से समचित ऐसी (प्राज्ञां जैनेश्वरी) जिनाज्ञा प्रदान कर (इयो: सैन्ययोश्त्र) और दोनों पक्षों की सेनाओं के राजामों को (प्रोक्तम् ) कहा (भो प्रभोनमौ) हे श्रेष्ठ राजाओ! (श्रूयताम ) मुनें--- Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद 1 [ ४११ भावार्थ- दोनों पक्षों को शक्तिशाली देखकर मंत्रियों ने विचार किया कि नाना प्रकार के हजारों शस्त्रों से सहित सुभटों के द्वारा तथा विशाल- विशाल हाथी, घोड़े, रथ तथा पादाति सेनाओं के द्वारा होने वाला यह युद्ध विनाशकारी है, प्रजा का क्षय करने वाली है अतः उन दोनों पक्षों के राजाओं को, देवेन्द्रादि से समचित जिनाज्ञा प्रदान कर वहा कि हे राजाओं ! आप सम्यक प्रकारनं - 1 ४१ से ४३ ।। जैतेश्वरं वचः पूतं सर्वप्राणिहितङ्करम् । ताश महतां गोत्रे युद्धं मम न युज्यते ॥ ४४॥ श्रतो मा प्रियतां लोको बराको भटः कोऽपि च । युद्धं युवां स्वसामर्थ्यात कुरुतं सेनया बिना ॥४५ ॥ अन्वयार्थ - ( सर्वप्राणिहितङ्करम् ) सभी प्राणियों का हित करने वाला ऐसा ( पूतं ) पवित्र (जैनेश्वरं वचः ) जिनेन्द्र भगवान का वचन है ( तादां महतां गोत्रे ) उस प्रकार के अर्थात् जिनेन्द्र प्रभु पवित्र कुल गोत्र में उत्पन्न हमारे बीच (युद्ध) विनाशकारी युद्ध होवे यह ( मम न युज्यते) मुझे ठीक नहीं जँचता है । ( अतो ) अतः ( वराको ) निर्दोष, निरपराध (लोको ) लांग (भटः कोऽपि च) और कोई भी भट ( मा प्रियतां ) न मरे इसके लिये (पुव:) तुम दोनों (सेनया दिना ) सेना के बिना (स्वसामर्थ्यात् ) अपनी सामर्थ्य से ( युद्धं कुरुतं ) युद्ध करो । भावार्थ -- जिनेन्द्र भगवान के बचन सभी प्राणियों का हित करने वाले हैं प्राणिमात्र काहित करने वाले उस पवित्र जिन कुल में उच्च गोत्र में उत्पन्न हिंसात्मक युद्ध होना मुझे अच्छा नहीं दीखता है अतः जिन कुल को पवित्रता को दृष्टि में रखकर और प्रजा की सुरक्षा हेतु आप दोनों ही परस्पर युद्ध करें। निर्दोष निरपराध सुभटों और प्रजाजनों का जिससे क्षय न होवे ऐसा, सेनाओं के बिना ही युद्ध करना, आप दोनों के लिये भी श्रेयकारी होगा । इस प्रकार मन्त्रियों ने दोनों पक्ष के राजाओं से निवेदन किया ||४४४५ ।। युवयोरत्र मध्ये यो जयप्राप्नोति सङ्गरे । स्वामी स एव राज्यस्य किं साध्यं सुभदक्षयैः ॥ ४६ ॥ मल्लयुद्धं प्रयुद्ध ताम् युवां साम्प्रतमुत्तमौ मन्त्रिवाक्यमिदं श्रुत्वा तौ द्वौ युद्धं प्रचक्रतुः ॥४७॥ श्रन्वयार्थ -- (अ) यहाँ ( युवयोः मध्ये ) तुम दोनों के बीच ( सङ्गरे) युद्ध में (यो) जो ( जयप्राप्नोति ) विजयी होता है ( स एव राज्यस्य ) बही राज्य का (स्वामी) स्वामी होगा ( कि साध्यं सुभक्षयेः) सुभदों के क्षय से क्या प्रयोजन ? (साम्प्रत ) अतः अभी (उत्तमी) श्रेष्ठ (युवा) आप दोनों (मल्लयुद्ध ) मल्लयुद्ध ( प्रयुद्धेताम् ) करें ( इदं ) इस ( मन्त्रिवाक्यं ) मन्त्रि के वचन को ( श्रुत्वा ) सुनकर ( तो द्वी) उन दोनों ने (युद्ध) युद्ध ( प्रचक्रतुः ) प्रारम्भ किया | Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद मावार्थ - मन्त्रियों ने कहा कि हे प्रजापालक ? प्रजाजनों वा श्रेष्ठ सुभटों का विनाश न होवे इसके लिये आप दोनों ही परस्पर यह मल्ल युद्ध करें । उस मल्लयुद्ध में जो विजयी होगा वही राज्य का अधिकारी होगा। उन श्रेष्ठ राजाओं ने मन्त्रियों के वचन स्वीकार कर वहाँ परस्पर मल्लयुद्ध करना प्रारम्भ कर दिया ||४६ ४७ ।। ४१२] मल्लयुद्ध तयोस्तत्र पादसंघातताडनः । धरातलं च प्रीत्येव रसातलमलं ययौ ।।४८ ।। बाहुदण्डै: प्रचडैश्च दण्डिनोऽपि भयङ्करः । वल्गनैर्बलनेश्याऽपि प्रतारणरवैः परैः ॥४६॥ अन्वयार्थ --- ( तत्र ) वहाँ ( तयोः) उन दोनों के ( मल्लयुद्धे ) मल्लयुद्ध में ( पादसंघातताडनैः ) पादसंघात तथा पादप्रहारों से ( प्रोत्या एव) हर्ष वा प्रीति से ( घरातलं ) मानों पृथ्वो ( रसातलं ) रसातल का (ययो) चली गई (ग्रलं एवं ) बस, युद्ध की भयङ्करा का बोध कराने के लिये इतना ही कहना पर्याप्त है। ( दण्डिनोऽपि भयङ्करः ) दण्डे से भी अधिक कठोर वा भयकारी (प्रचण्ड : बाहुदण्ड ) प्रचण्ड भुजा दण्डों से (च ) और ( वल्गन बेलन) गरजने और पैंतरा बदलने से ( परः प्रतारणवः श्रपि ) और एक दूसरे के प्रतारण से उत्पन्न स्वरों से ( दोनों में भयंकर युद्ध होता रहा) | भावार्थ- दोनों ही राजा अति बलिष्ट थे। दण्डे से भी अधिक भयकारी उनकी प्रचण्ड दोनों भुजाये थीं जिनसे वे एक दूसरे को प्रतारित कर रहे थे उस प्रतारण से भयङ्कर आवाज हो रही थी तथा उनके पाद प्रहार से ताडित पृथ्वी भी उनके शौर्य वीर्य से प्रीति को प्राप्त हुई । वस्तुतः धरातल को ही चली गई थी, ऐसा कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी अर्थात् उनका युद्ध अत्यन्त भयङ्कर था | अपनी सुरक्षा के लिये पंतरा बदलते हुए साथ में भयङ्कर गर्जना करते हुए मल्लयुद्ध करने वाले वे दोनों सुभट हृदय को कम्पित करने वाले थे । ॥४८ ४६॥ मल्लयुद्ध चिरं तौ द्वौ चक्रतुर्भदसत्तमौ । यथादि चक्रवद्वाहुलिनौ बलशालिनी ॥५०॥ श्रन्वयार्थ - ( बलशालिनी) बलिष्ठ ( श्रादिचक्रवबाहुबलिनो यथा ) प्रथम चक्रवर्ती भरत और बाहुबली के समान ( तौ द्वौ ) वे दोनों (भटसत्तमौ ) श्रेष्ठसुभट ( चिरं ) चिरकाल तक (मल्लयुद्ध ) मल्लयुद्ध ( चक्रतुः ) करते रहे । भावार्थ - प्रथम चक्रवर्ती भरत और बाहुवली के समान वे दोनों सुभटोत्तम बहुत समय तक इसी प्रकार मल्लयुद्ध करते रहे ।। ५० ।। एवं युद्ध ं विधायोच्चैः श्रीपालस्सुभटारिणः । बीरादिदमनं जित्वा बबन्धकिल पौरुषात् ।।५१॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद] अन्वयाथ -(एवं उच्चैः युद्धं विधाय) इस प्रकार घोर युद्ध कर (सुभटाग्रणिः) सुभटों में अग्रगण्य (श्रीपालः) श्रीपाल ने (वीरादिदमन) वीरदमन को (जित्वा) जीतकर (पौरूषात्) पौरूष से अर्थात् अपने बल से (किल) निश्चय से (बबन्ध) बांध दिया। भावार्थ--कोटिभट सुभटों में अग्रगण्य श्रीपाल ने भयङ्कर युद्ध कर उस वीर दमन राजा को अपने प्राश्चर्यकारी पौरुष बल से जीत लिया और बाँधकर डाल दिया ॥५१।। -- -- -... - --- मार्गदर्शक AR MIND सत्यं जयो भवेन्नित्यं भतले पुण्यशालीनाम् । तथा लक्ष्मीश्च कीर्तिश्च तेषां किञ्चिन्न दुर्लभः ॥५२॥ अन्वयार्थ ---(भूतले) पृथ्वी पर (पुण्यशालीनाम् ) पुण्यवान् जीवों की (नित्यं) सदा (जयो भवेत्) विजय होती है (सत्यं) यह सत्य है। (तथा) तथा (तेषां) उनके (लक्ष्मीः च कोतिः च) धनादि वैभव सम्पत्ति और यश कीर्ति प्रादि (किञ्चित् न दुर्लभः) कुछ भी दुर्लभ नहीं है। भावार्थ--यह बात पूर्ण सत्य है कि इस पृथ्वी पर जो पुण्यशाली जीव हैं उनकी सदा विजय होतो है । लक्ष्मी कीर्ति आदि कुछ भी उनके लिये दुर्लभ नहीं है । दुर्लभ से दुर्लभ वस्तु भी उसे पुण्य से अनायास ही प्राप्त हो जाती है ।।५।। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४] [श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद तदा ते साक्षिणस्सर्वे श्रीपालस्य च सैन्यकाः । जप कोलाहाल धनुः परमानन्द निमंराः ॥५३।। वीरादिदमनो राजा चर्को म्लानं मुखाम्बुजम् । रात्री हि हिमपासेन यथा पद्माकरो भुवि ॥५४॥ अन्वयार्य--(तदा) तब (परमानन्द निर्भराः) परम आनन्द से भरे हुए (धोपालस्य साक्षिण:) श्रीपाल के पक्ष वाले (ते सैन्यकाः) उन सैनिकों ने (जय कोलाहलं) जय रूप कोलाहल (चक:) किया और (वीरादिदमनो) वीरदमन (राजा) राजा ने (मुखाम्बुजम) मुख कमल को (म्लानं चके) उस प्रकार म्लान-उदास कर लिया (यथा) जैसे (भुवि) पृथ्वी पर (पाकर) कमल (रात्री हिमपातेन म्लान) रात्रि में होने वाले हिमपात से म्लान हो जाता है, कुम्हला जाता है। भावार्थ---श्रीपाल की विजय से परमानन्द को प्रात हुए उस पक्ष के सैन्यदन्न ने, जय रूप कोलाहल से, आकाशमण्डल को मुजित कर दिया और वीरदमन राजा का मुख उस प्रकार म्लान हो गया जैसे रात्रि में होने वाले हिमपात से कमल म्लान हो जाता है । राजा बीरदमन का मुख कमल जो सबके लिये सुखकारी था, वह आज युद्ध में पराजय के कारण अति उदास हो गया था । वह पराजय, रात्रि के गहन अन्धकार और हिमपात के समान वीरदमन के लिये अतिकष्टदायक प्रतीत हो रही थी ।।५३ ५४।। एकस्यापि महानन्दो द्वितीयस्य महाऽशुभः । संसारचेष्टितञ्चेति सुधियां बोधकारणम् ॥५५॥ तदा श्रीपाल भूपालो दयालुस्सर्वदा सुधीः । तं म्लानववनं वोक्ष्य विमुच्य जवतो बुधः ॥५६।। पितृव्यं भावतो नत्त्या तं जगौ गुणमन्दिरम् । भोस्सुधीस्त्वं सदा पूज्यो, पित्रासम मे दौजितः ॥५७।। अन्वयार्थ--वह युद्ध (एकस्य महानन्दोऽपि) एक के लिये महानन्दकारी होकर भी (द्वितीयस्यमहा-अशुभः) दूसरे के लिये महा अशुभकारी था। (संसारचेष्टितं च इति) संसार की यह चेष्टा (सुधियां) विद्वानों के (बोधकारणम्) बोधि रूप यथार्थ ज्ञान को उत्पन्न करने में कारण है। (तदा) तब (सर्वदा दयालु:) सर्वदा सभी जीवों पर दया करने वाले (मुधोः) श्रेष्ठ बुद्धि का धारी (बुधः भूपालो श्रीपाल) श्रेष्ठ राजा श्रीपाल ने (म्लानवदनं) म्लानमुख वाले (तं वीक्ष्य) उस वीरदमन को देख कर (जवतो) शीघ्र (विमुच्य) उसको बन्धन से मुक्त कर (गुणमन्दिरम्) गुणों के मन्दिर (तं पितृव्यं) उस चाचा को (भावतो नत्वा) भाव से नमस्कार कर (जंगी) कहा (भोः सुधी:) हे श्रेष्ठ बुद्धि के वारी ! (पित्रा सम दौजितः) पिता के समान अजेय (त्वं) तुम (मे सदा पूज्यो) मेरे लिये सदा पूज्य हो । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद] [ ४१५ भावार्थ इस समय वह युद्ध एक के लिये महा आनन्दकारी होकर भी दूसरे के लिये अति अशुभकारी था । आचार्य कहते हैं कि संसार को यह विचित्र चेष्टा विद्वानों के लिये बोधि रूप यथार्थ ज्ञान को उत्पन्न करने में कारण है । वीरदमन की दयनीय स्थिति को देखकर धोपाल महाराज का हृदय दया और बिनय से भर गया। वीरदमन के म्लानमख को देखकर स दयाल श्रीपाल ने शीघ्र ही उन्हें बन्धन से मुक्त कर दिया और कहने लगा कि आप हमारे लिये पिता के समान पूज्य हो । हे गुणों के मन्दिर और पिता के समान अजेय ! आपके लिये मैं पुत्र के समान हूँ । इस प्रकार वीरदमन चाचा को नमस्कार कर, उसने अपनी श्रेष्ठ विनयगोलता का परिचय दिया ।। ५५ से ५७।। मया बाल्येन तेऽनिष्टं यत्कृतं तत्क्षमस्व च । अतः परं पिता त्वं मे पुत्रोऽहं ते न संशयः ।।५।। लात्वा सप्ताङ्ग राज्य त्वं प्रभुर्भधमहीतले । सेवकोऽहं भविष्यामि तवोच्चस्सर्वकर्मकृत ॥५६।। क्षमस्व त्वं प्रभो यच्य मया धक्के विरूपकम् । विषादं मुञ्च भो देव मूढबालक कर्मणा ॥६॥ अन्वयार्थ (मयावाल्येन) मुझ बालक के द्वारा (तेऽनिष्टं यत.) आपके प्रति जो अनिष्ट व्यवहार (वृतं) किया गया है (तत क्षमस्व) उसे क्षमा करें। (अतः) इसलिये (सप्ताङ्ग राज्य लात्वा) सप्ताङ्ग राज्य लेकर (महीतले) पृथ्वी पर(त्वं प्रभुः भव) तुम राजा होकर रहो (वं मे पिता तम मेरे पिता हो (प्रहं पत्रोते मैं तम्हारा पत्र इसमें ( न संशयः) संशय नहीं है (प्रह) मैं (सर्वकर्मकृत) सभी कार्यों को करने वाला (तव) तुम्हारा (उच्चैः) श्रेष्ठ (सेवको भविष्यामि) सेवक होकर रहूँगा । (प्रभो !) हे प्रभु ! (मया यच्च विरूपकम् ) मेरे द्वारा जो भी अनुचित कार्य (चक्र) किया गया है उसे (त्वं) तुम (क्षमस्व) क्षमा करो (भो देव) हे देव (मुढबालककर्मणा) अशानी बालक के कार्य से हुए (विषादं मुञ्च) विषाद को छोड़ो। भावार्थ-विनय से जिसका चित्त अति द्रवित है ऐसा श्रेष्ठ गुणों का प्राकर-खान, वह श्रीपाल, चाचा बीरदमन के प्रति, कहने लगा हे प्रभो ! मुझ बालक ने आपके प्रति जो अनिष्ट व्यवहार किया है उसे क्षमा करें । तुम मेरे पूज्य पिता हो मैं तुम्हारा पुत्र है इसमें सन्देह नहीं है। तुम सप्ताङ्ग राज्य को लेकर राजा होकर रहो मैं सभी कार्यों को करने वाला श्रेष्ट सेवक होकर इस पृथ्वी तल पर रहूँगा। हे प्रभो ! मैंने जो कुछ अनुचित कार्य किया है उसे क्षमा करो। हे देव ! मुझ बालक के कार्य से उत्पन्न विषाद को छोड़ो ॥५८ से ६०।। यतः सन्तः प्रकुर्वन्ति क्षमा सर्वत्र सर्वथा । चन्दनो घृष्टमानः किं सौगन्ध्यं त्यजति प्रभो ॥६॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६] [श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद इत्यादिक शुभं वाक्यं श्रीपालस्य सुखप्रदम् । स वीरदमनो राजा श्रुत्वा वैराग्य भावनात ॥६२॥ तं प्रोवाच सुधीस्सोपि भो श्रीपाल विचक्षणः । धरजनो सोश शोफेम मम त्वयि ॥६३॥ अन्वयार्थ– (यतः) क्यों (सन्तः) सत्पुरूष (सर्वत्र सर्बथा) सब जगह सर्व प्रकार से (क्षमा प्रकुर्वन्ति) क्षमा भाव रखते हैं (प्रभो !) हे प्रभु (कि) क्या (घृष्टमानः) घिसा जाता हुआ (चन्दनो) चन्दन (सौगन्ध्य) सुगन्धि को (त्यजति ?) छोड़ देता है ? अर्थात नहीं छोड़ता है । (श्रीपालस्य) श्रीपाल के (इत्यादिक) ऐसे (सुखप्रदं शुभं वाक्यं) सुखकर शुभश्रेष्ठ वचनों को (श्रुत्वा) सुनकर (सोऽपि स राजा वीरदमनो) वह राजा बोरदमन भी (तं प्रोवाच) उस श्रोपाल को बोला (भो विचक्षणः सुधी: श्रीपाल) हे श्रेष्ठ बुद्धि के धारी विवेकशील श्रीपाल (लोके त्वं सज्जनः) लोक में तुम सज्जन पुरुष हो यह बात (सत्यं ) सही है अतः (मम) मेरा (त्वयि) तुम्हारे प्रति (किं शोकेन) शोक क्यों होगा ? अर्थात शोक रूप परिणाम नहीं हो सकता है । भावार्य-श्रीपाल के श्रेष्ठ विनय युक्त वचन और अनुपम बल शक्ति प्रभुत्व का सद्भाव, उसको लोकोत्तर महानता के द्योतक हैं। चाचा को हमारे निमित्त से कष्ट दो ऐसा वह श्रीपाल नहीं चाहता था अतः उनके मनोमालिन्य को दूर करने के लिये वह पुन: Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद] [ ४१७ कहता है कि हे प्रभो चन्दन घिसने पर भी अपनी सुगन्धि को नहीं छोड़ता है उसी प्रकार प्राप जमे श्रेष्ठ सुधी जन भी सर्वत्र सर्वप्रकार से क्षमा भाव रखते हैं ऐसो हमारो हड़ आस्था है आपके प्रति हमारा विश्वास है । श्रीपाल से पराजित हुए राजा वीरदमन उस शीतल अमृत के समान सुखकर श्रीपाल के वचनों को सुनकर शोक रहित हो गये और श्रीपाल के प्रति कहने लगे कि हे प्रज्ञावान् श्रेष्ठ उत्तम बुद्धि के धारी थीपाल ! वस्तुतः तुम लोक में सर्वोत्तम सरगुरुष हो फिर मुझे. तुम्हारे प्रति शोक कैसे हो सकता है ।।६१ से ६३।। प्रदीपे दीप्यमाने च नैव तिष्ठति वा तमः । सन्तुष्टोऽहं सुधीः पुत्र विनयेन तव घ्र वम् ॥६४॥ अहं दीक्षा ग्रहिष्यामि शुद्धा जैनेश्वरों शुभाम् ।। त्व मे सत्यं सहायत्त्व संजातोसि विचक्षणः ॥६५॥ अन्वयार्थ---(एव) यह निश्चित बात है कि (प्रदीपे दीप्यमाने) दीपक के जलने पर (तमः म तिष्ठति) अन्धकार नहीं ठहरता है (व वम् ) निश्चय से (सुधीः पुत्र) हे विवेकशील पुत्र घोपाल ! (तव विनयेन) तुम्हारे विनय भाव से (अहं सन्तुष्टो) मैं सन्तुष्ट हूँ। (अहं) मैं (शुद्धां शुभाम् जैनेश्वरों दीक्षां) निर्दोष हितकारी जनेश्वरो दोक्षा को (ग्रहिष्यामि) ग्रहण कामगा और इसके प्रति] (विचक्षण:) हे प्रज्ञावान ! (सत्यं) वस्तुतः (त्वं मे सहायत्त्वं सानोमि तुम मेरे सहायक हो । भावार्थ-वीरदमन राजा श्रोपाल को कहने लगे कि जैसे दीपक के जलने पर अन्धकार नहीं करता है उसी प्रकार तुम्हारे सारगर्भित श्रेष्ट विनम्र वचन और श्रेष्ठ व्यवहार ने हमारे अन्दर ज्ञान वैराग्य की ज्योति जागत करदी है अब वहाँ शोकपी अन्धकार को ठहरने के लिये अवकाश नहीं रहा 1 हे पुत्र ! मैं तुम्हारे बिनय से बहुत साता ट हैं । तुम हमारे उपकारी हो, तुम इस पृथ्वी पर सदा जयवन्त रहो, मैं तो अब निदोष हितकारी जनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करूगा उसमें भी तुम्हारा ही सहायत्व है ।।६५।। एतद्राज्यं महापापकरं श्वभ्रनिबन्धनम् । नित्यमस्तु तना होष्ट मनं जातु मे न च ॥६६॥ ग्रद्य धन्यो भवानासीद्ध तुर्मे तपसि स्फुटम् । तस्मारवं परमो बन्धुः क्षमा सर्वत्र वास्तु मे ॥६७।। अन्वयार्थ - (एतद्रराज्यं) यह राज्य (महापापकर) भयंकर पाप को उत्पन्न करने बाला (च) और नियनिश्चय मे (श्वननिवन्धनं) पाप का कारण है (धर्मधनं धर्मघातक रोभा राज्य (मे जात) मुमं कभी (इष्ट न) इष्ट नहीं हो सकता (अद्य व अस्त अब तृम्हाग राज्य यहां म्यापित हव । (त्यं) तुम (मे तपसि) हमारी तपस्या में (म्पुटम हेतु: आसीत् ) प्रत्यक्ष हेतु हुए निरमात्) अत: (भवान्) आप (अद्य) आज (धन्यो) धन्य हो । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८] [ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छे (परमो बन्धुः) और श्रेष्ठ बन्धु हो (वा सर्वत्र) अथवा सदा (में) मेरे प्रति (क्षमा अस्तु) क्षमा भाव रखना। भावार्थ राज्य के प्रति सर्वथा निस्पृह वीरदमन गजा धीपाल को कहने लगे कि यह राज्य धर्म का धात करने वाला है, महापाप को उत्पन्न करने वाला और नरक का कारण है ऐसा राज्य अब मुझे नहीं चाहिये । हमारे अन्दर वैराग्य को जागृत करने वाले तपश्चरण की भावना को पैदा करने वाले तुम वस्तुत: आज धन्यवाद के पात्र हो, हमारे परम बन्धु हो । सर्वत्र क्षमा के धारी तुम मेरे प्रति भी क्षमा भाव रस ना ।।६६, ६७।। इति धापा सताक्षरित्या जियोतिमि । परित्यज्य त्रिधा सर्व परिग्रहमहाग्रहम् ॥६॥ ज्ञानसागर नामान मुनीन्द्रं बोधसागरम् । नत्वा दीक्षां समादाय सजातो मुनिसत्तमः ।।६।। अन्वयार्थ- (इति) इस प्रकार (प्रियोनिभिः) प्रिय वचनों के द्वारा (क्षमयित्वा) क्षमा करा कर (ततः) पुन: (नम् च) और उसको क्षान्स्वा) क्षमाकर (विधा) मन वचन काय से (महाग्रहम् ) महाग्रह-पिशाच स्वरूप (परिग्रहसर्व) सम्पूर्ण परिग्रह को (परित्यज्य) छोड़कर (दोधमागर) समुद्र के समान गम्भीर ज्ञान के धारी (ज्ञानसागर नामानं) ज्ञानसागर नामक (मुनीन्द्र) मुनिराज को (नत्वा) नमस्कार कर (दीक्षां समादाय) दीक्षा लेकर (मुनि सत्तमः) मुनिपुङ्गव (सञ्जातो) हो गये। भावार्थ-अपने मधुर वचनों से थीपाल के चित्त को सन्तुष्ट करते हुए अपने किये अपराधों के लिये क्षमा करा कर और श्रीपाल को स्वयं क्षमा कर, पिशाच वा दुष्ट ग्रह के समान घातक बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहों का मन वचन काय से मर्बथा त्याग कर ज्ञान के सागर स्वरूप ऐसे ज्ञानसागर मुनिराज को नमस्कार कर पीरदमन राजा ने मुनि दीक्षा ले ली और मुनिपुङ्गव हो गये ।।६८, ६६॥ सत्यं सतां भवेदुच्चैरापदोऽपि शिवश्रियैः । यथाऽसौ संयम प्राप वीरादिदमनो नृपः ॥७॥ येन केनाप्यनिष्टेन हन्यन्से मोहशत्रवः । गृह्यतेऽहो परादीक्षा तदनिष्टं वरं सताम् ॥७१।। अन्वयार्थ---(सत्यं ) सत्य है ( उच्चैः आपयोऽपि) महान विपत्ति भी (सा) सज्जनों को (शिव श्रियैः) मुक्ति श्री को देने वाली ( भवेत्) हो जाती है (यथा) जसे (अमौ) उस वीरादिदमनोनृपः) वीरदमन राजा ने (संयम प्राप) संयम को धारण किया । (अनिष्टेन) अनिष्टकारी अर्थात् मोह का नाश करने वाले (येन केन) जिस किसी उपाय से (मोहशत्रवः) मोह वा राग द्वेष क्रोधादि शत्रु(हन्यन्ते) विनाश को शप्त होवें इसके लिये (अहो ! हे भव्य Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद ] [४१ जनो ! ( परादोक्षा) श्रेष्ठ दीक्षा (गृह्यते) ग्रहण की जाती है (तत्) वह मोह ( सताम् ) सज्जनों का ( वरं श्रनिष्ट) महा अनर्थ करने वाला है। भावार्थ उपर्युक्त घटनाओं को पढ़ने से यह विदित होता है कि सज्जनों पर आई हुई विपत्ति भी उसके लिए मुक्ति रूपी लक्ष्मी को देने वाली हो जाती है जैसा कि उपर्युक्त श्लोक में बताया भी है कि श्रीपाल से पराजित हुआ वीरदमन राजा वैराग्य को प्राप्त हो गया और ज्ञानसागर मुनिराज के पास जाकर जिन दीक्षा ले ली। वे वीरदमन राजा विचार करने लगे कि इस जीव का सबसे अधिक अनिष्ट करने वाला मोह है अतः जिस किसी उपाय से मोह तथा राग द्व ेष क्रोधादि शत्रुओं को नष्ट करने की भावना रखने वाले को जिन दीक्षा- जनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करनी परमावश्यक है। मोहशत्रु को जीतने में निर्ग्रन्थ मुनि ही समर्थ होते हैं । तदनुसार दीक्षा लेकर स्वयं भी मोह शत्रु को जीतने के लिये कठोर तपश्चरण करने लगे ॥७०७१ । तदा श्रीपालराजोऽपि स्वपुण्यपरिपाकतः । महोत्सवशतैश्चापि पुरीं चम्पां महद्धिकाम् ॥७२॥ रत्नादि तोरणोपेतां सम्पदां सार संभृताम् । पन्चवा स्त्यतां वा तदागमे ॥७३॥ राजभिर्बहुभिस्सा प्रिया वृन्वैः परिच्छदः । ar चामरसवो देवेन्द्रो वामरैर्धृतः ।। ७४ ।। सर्वसज्जन संध्यो नदद्वादित्र सुध्यति । चारण स्तुति पाठः स्तूयमानो विवेश सः ।।७५।। अन्वयार्थ - ( तदा ) तब ( स्वपुण्यपरिपाकतः ) अपने पुण्य के उदय से ( श्रीपाल - (राजोऽपि ) श्रीपाल राजा ने भी ( महोत्सवशतैः) सैकड़ों प्रकार के महोत्सवों के साथ (रत्नादितोरणोपेता) रत्नम तोरण द्वारों से सहित ( संपदांसार संभृतां ) सारभूत विभूतियों से भरी हुई (महािम्) अत्यन्त प्रतिशययुक्त (चम्पां) चम्पा नगरों में (पञ्चवध्वजप्रातः) पञ्चवर्ण की जाओ से सहित ( भूत्यतां ) सेवा में तत्पर ( प्रियावृन्दैः परिच्छदैः सार्द्धम ) प्रिया समूह और सम्पूर्ण परिकरों से युक्त ( बहुभिः राजभि: निवेश ) बहुत से राजाओं के साथ नगरी में प्रवेश किया (वा) जो ऐसा प्रतीत होता था मानो (नदत् वादित्रमुध्वनि) बजते हुए बाजों की मधुर ध्वनि तथा (चारणस्तुतिपाठीच) चारण भाटों के स्तुति पाठों से युक्त वह श्रीपाल (छत्रचामरसन्दोहैः श्रमरैः धृतः ) छत्र चमरों को धारण किये हुए देवों से सहित साक्षात् (देवन्द्रों) देवेन्द्र ही है । भावार्थ तदनन्तर श्रेष्ठ सहज विजय को प्राप्त हुआ वह श्रीपाल अपने पुण्योदय विशेष का सुखद फल भोगता हुआ, विशाल परिकरों के साथ उस वैभवशाली अतिशयकारी सुसम्पन्न मनोहर अपनी चम्पानगरों में प्रवेश करता है । श्रीपाल के स्वागत के लिये अपनी Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] [ श्रपान चरित्र सप्तम परिच्छेद अपनी श्रेष्ठ गुणवती पत्नियों-परिजन पुरजनों के साथ बड़े-बड़े राजा महाराजा भी बादित्रों की मधुर संगीत ध्वनि और पञ्चवर्ण वालों ध्वजाओं के साथ उपस्थित थे। सभी सज्जन पुरुष श्रीपाल महाराज की सेवा में तत्पर थे । इस प्रकार चारण भाटों के स्तुतिगान और वादित्र की सुमधुर ध्वनियों से युक्त राजा महाराजों से सेवित वह श्रीपाल ऐसा प्रतीत होता था मानो छत्र चमरों को धारण किये हुए देवों से सहित सत् देवेन्द्र हो है ।।७२ मे ७५।। तत्र चम्पापुरीमध्ये पितुः स्थानमनुत्तरम् । सुधोस्संप्राप्य संतुष्टो, मानसे भरतो यथा ॥ ७६ ॥ अन्वयार्थ - ( तत्र ) वहां (चम्पापुरीमध्ये ) चम्पापुरी नगरी के अन्दर ( पितुः ) पिता के ( अनुतरम् स्थानम् ) श्रेष्ठ राजपद को (संप्राप्य ) प्राप्त कर (मानसे सन्तुष्टो वे उस प्रकार चित्त में सन्तुष्ट हुए ( यथा ) जैसे ( भरती ) भरत चक्रवती दिग्विजय से संतुष्ट हुआ था । भावार्थ- अपनी चम्पापुरी नगरी में पिता के श्रेष्ट राजपद पर अवस्थित वह श्रीपाल ति में उसी प्रकार मन्तुष्ट हुआ जैसे दिग्विजय से षट्खण्डाधिपति भरत को सन्तोष हुआ था ।। ७६ ।। तदा ते भूमिपासवें परमानन्द निर्भराः । जिनेन्द्रस्नपनं कृत्वा सारपञ्चामृतादिभिः ॥७७॥ स्वर्ण सिंहासने तुङ्ग महोत्सवशतैरपि । श्रीपाल स्थापयित्वोच्चैस्वच्छतोयादिसंभूतैः ॥ ७८ ॥ लसत्काञ्चनसत्कुम्भेगत वादित्र मङ्गलैः । राज्याभिषेकमत्युचैः कृत्वा प्रीत्या शुभोदयात् ॥७६॥ वस्त्राभरणसंदोहैः पूजयन्तिस्म भक्तितः । सत्यं स्वपूर्व पुण्येन किं न जायेत भूतले ॥८०॥ अन्वयार्थ - - ( तदा ) तत्र ( परमानन्दनिर्भरा : ) परमानन्द से भरे हुए ( ते सर्वे भूमिपाः ) उन सभी राजाओं ने (सारपञ्चामृतादिभिः ) सारभूतपञ्चामृतजल, इक्षुरस, घुल, दुग्ध और सर्वोषधि से (जिनेन्द्रस्तपनं कृत्वा) जिनेन्द्र प्रभु का अभिषेक कर ( महोत्सवतैरपि सैकड़ों महाउत्सवों के साथ (तु स्वर्णसिहासने ) ऊँचे स्वग्भिय सिहासन पर (श्रीपाल स्थापयित्वा ) श्रीपाल को स्थापित कर ( उच्चैः ) श्रेष्ठ, उत्तम, ( स्वच्छतोयादिसंभूतः ) रवच्छ जल से भरे हुए( लसत्काञ्चन सत्कुम्भः) सुन्दर, सुवशमय उत्तम कलशों से ( गीत वादित्र मङ्गले) मङ्गलमय वादित्र ध्वनि के साथ ( उच्चैः प्रीत्या ) अत्यन्त प्रीति पूर्वक ( राज्याभिषेकं कृत्वा) राज्याभिषेक करके ( वस्त्राभरणसन्दोहैः ) वस्त्राभूषणों से ( शुभोदयात् ) पुण्योदय से अथवा शुभ परिणामों से (भक्तितः) भक्तिपूर्वक ( पूजयन्तिरम ) पूजा की। (सत्य) ठीक ही है (स्वपूर्वपुण्येन) अपने पूर्वपुण्य से ( भूतले) पृथ्वी पर (किं न जायेत ) क्या अशक्य है ? अर्थात् कुछ भी अशक्य वा अप्राप्त नहीं होता । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद [४२१ भावार्थ-तदनन्तर परमानन्द से भरे हुए उन सभी राजाओं ने उत्तम जल, इक्षुरस, घृत, दुग्ध पोर सर्वोषधि से अर्थात् पञ्चामृत मे जिनेन्द्र प्रभु का अभिषेक कर संकडौ महान उत्सवों के साथ श्रीपाल महाराज को ऊँचे सुवर्णमय सिंहासन पर विराजमान किया और श्रेष्ठउत्तम जल आदि से भरे हुए सुवर्णमय उत्तम मनोज कलशों से मङ्गलमय बादित्रध्वनियों के साथ अत्यन्त प्रीति पूर्वक उनका राज्याभिषेक किया। अतिशय पुण्यशाली उन श्रीपाल महाराज की भक्ति पूर्वक पूजा भी की, ठीक ही है अपने पूर्व पुण्य से इस पृथ्वी पर उसके लिये कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं होती है । पुण्य से धन, यश, कीति, राज्यादि विभूतियों सभी महज प्राप्त हो जाती हैं ।।७७ से ८०।। ततो भव्या जिनेन्द्रोक्त दानपूजा तपोव्रतम् । नित्यं पुण्यं प्रकुर्वन्तु सारशर्म विधायकम् ॥८१॥ अन्वयार्थ--(ततो) इसलिये (भव्या:) भव्य जन (सारशर्म विधायकम् ) सारभूत स्वर्ग मोक्षादि विभूतियों को प्रदान करने वाले (जिनेन्द्रोक्त) जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित (दानपूजा-तपोव्रतम् पुण्यम्) दाम. पूजा, तप, व्रत प्रादि पुण्य कार्य । नित्यं प्रकुर्वन्तु) नित्य करते रहें। भावार्थ--अतः मोक्षादि सुख के अभिलाषी भव्यपुरुषों को, सारभूत स्वर्ग मोक्षादि सुख को प्रदान करने वाले जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कहे गये दान, पूजा, तप, ब्रत आदि पुग्य कार्य निरन्तर करते रहना चाहिए ।।१।। पुण्येन दूरतरवस्तु समागमोऽस्ति । पुण्येन बिना लदपि हस्ततलात् प्रयाति । तस्मात् सुनिर्मल धियः ! कुरुत प्रमोदात । पुण्यं जिनेन्द्र कथितं शिवशर्मबीजम् ।।२।। अन्वयार्था-(पुण्यन) पुण्य से (दुरतरवस्तु) प्रतिदूरवर्ती दुष्कर पदार्थ (समागमोऽस्ति) मुलभ हो जाता है (पुण्यन बिना) पुण्य के बिना (तदपि ) बहू प्राप्त वस्तु भी (हस्तनलात्) हस्ततल से (प्रयाति) चली जाती है (तस्मात्) इमलिये (मुनिर्मल धियः) हे पवित्र बुद्धि बाले सुधोजन ! (शिवशर्म योजम्) शिव नुग्व का बीजभूत (जिनेन्द्रकथितं पुण्यं ) जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित पुण्य कार्य (प्रमोदात) हर्ष से प्रानन्द से (कुस्त) कार। __ भावार्थ- "पुण्य' इस जीव का सब प्रकार से हित करने वाला है। पुण्य से अतिदूरवर्ती दुष्कर पदार्थ भी अनायास प्राप्त हो जाता है और पुण्य के बिना वह प्राप्त होने के बाद भी हस्ततल से निकल जाता है अर्थात् प्रयत्न पूर्वक सुरक्षित करने पर भी नहीं ठहरता, बिलीन हो जाता है । इसलिये प्राचार्य कहते हैं कि उत्तम बुद्धि के धारी सुधीजन मोक्षरूपी सुख सम्पत्ति को देने वाले जिनेन्द्र प्रभु कथित सातिशय पुण्य का संपादन निरम करते रहें । हर्ष Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२] [श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद वा प्रमोद पूर्वक पुण्य कार्य को करने वाला हो अपनं समस्त इष्ट कार्यों को सिद्ध करने में समर्थ होता है ॥२॥ गहे गृहे तदा सर्वे सज्जनाः चित्तरञ्जनम् । चक्रमहोत्सवं दिव्यं गीतनृत्यादि मङ्गलैः ।।८।। रत्नचूर्ण चतुष्कश्च पट्रकुलादि वस्तुभिः । तदा चम्पापुरी रेजे निमिता सा महोत्सवैः ॥४॥ अन्वयार्थ (तदा) तव (गृहे गृहे) घर घर में (सर्वेसज्जनाः) सभी सज्जनों ने (गीत नृत्यादि मङ्गलै:) गीत नृत्यादि मङ्गल कार्यों से (चित्तरञ्जनम) चित्त को अनुरञ्जित करने वाला (दिव्य महोत्सव (चक्र :) किया (तदा) तब (रत्नच चतुष्कोः) चार प्रकार के रत्नमय चूर्णों से (च) और (पट्टकूलादि वस्तुभिः) रेशमी वस्त्रादि उत्तम बस्तुत्रों से (निर्मिता) सुसज्जित (सा चम्पापुरी) वह चम्पापुरी नगरी (महोत्सव:) महोत्सवों से (रेजे) सुशोभित भावार्थ---श्रीपाल महाराज का राज्याभिषेक महाउत्सब पूर्वक सम्पन्न हुआ दघर घर में सभी सज्जनों ने गीत नत्यादि माङ्गलिक कायों के द्वारा जन-जन के हदय को अनुरञ्जित करने बाला महान् उत्सव किया । रत्नमयी चार प्रकार के चर्गों से और रेणमो वस्त्रादि उत्तम वस्तुओं से सुसज्जित वह चम्पानगरी नगरी वासियों के सुखकार महोत्सबों के द्वारा अत्यन्त शोभित हुई ।।८३, ८४|| एवं श्रीपाल भूपालः समादाय महोत्सवः । पित राज्य महापुण्य दानमानशत युतः ।।८।। निष्कण्टकं कृतानन्द प्रीरिणताखिल सज्जनाः । सर्वदेशेषु भूपालासहस्राणां विशेषतः ॥८६॥ मूदिनमालाभियोत्तुङ्गां स्वाज्ञा चक्रेषुशर्मदाम् । संस्थितस्सुखतो नित्यंसोदितो भूरिभूमिपैः ॥७॥ अन्वयार्थ—(एवं इस प्रकार (श्रीपाल भूपालः) श्रीपाल राजा (महोत्सव:) महोरसव पूर्वक (दानमानशतयुत:) सैकड़ों प्रकार के दानमान और सम्मान के साथ महापुण्यं) अतिपुण्यशाली (पितृराज्यं) पिता के राज्य को (समादाय) लेकर (प्रीरिगताखिलसज्जना) सभी सज्जनों के चित्त को प्रसन्न प्रमुदित करने वाली (सर्वदेशेषु) तथा सभी देशवासी (भशाला सहस्राणां) सेकड़ों राजाओं का (विशेषतः कृतानन्दं विशेषत: आनन्द पहुंचाने वाली मूधिनमालां इव) गले में पड़ी हुई माला के समान (शर्मदा) सुम्बकर ऐसी (स्त्राज्ञा चक्रप) अपनो प्राज्ञा का प्रवर्तन करता था। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल महाराज का राज्याभिषेक | Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद [४२३ भावार्थ-श्रीपाल महाराज का शासन इतना श्रेष्ठ था कि पाबालवद्ध सभी उसके राज्य में विशेष सुख का अनुभव करने थे। महान उत्सब पूर्वक सैकड़ों प्रकार के मान दान सम्मान के साथ पिता के श्रेष्ठ राज्य को लेकर वह पुण्यशालो श्रीपाल, सज्जनों के चित्त को हर्षिा करने वाली तथा अन्तर्गत सभी राजाओं को भी विशेष आनन्दित करने वाली गले में पड़ी हुई माला के समान सुखकारी ऐसी अपनी आज्ञा का प्रवर्तन करता था। अर्थात् श्रीपाल महाराज का शासन सबके लिये प्रियकारी-सुखकारी था ।।८५ से ८७।। पट्टदेवीपदं प्राप्य तदामदन सुन्दरी । सा रेजे कामिनी तस्य यथा मदनसुन्दरी ।।८॥' दताद्यश्च प्रियावन्दर्जगत्तोनुरजनः । साधं सम्पूर्ण भोगाङ्ग स्सत्सुखं प्राप स प्रभुः ॥८६॥ अन्वयार्थ (तदा) सब (पट्टदेवी पदं प्राप्य) पटरानी के पद को प्राप्त कर (सा) वह (मदनसुन्दरी) मैंनामुन्दरी (कामिनी) रानी ! रेजे) उस प्रकार शोभित हुई (यथा मदनसुन्दरो) जैसे कामदेव की पत्नी साक्षात् रती देवी हो (तदाद्य:) उस मैंनासुन्दरी को आदि कर (जगत्चेतोनुरजन:) जगत के चित्त को अनुर जित करने वाली सुन्दर (प्रियावृन्दैः) कामिनियों के (माध) साथ (रा प्रभुः) वह श्रीपाल राजा (भोगाङ्गः) भोग सामग्रियों से (सत्सुखंप्राप) श्रेष्ठ सुख को प्राप्त हुआ। भावार्थ --तदनन्तर पटरानी के पक्ष को प्राप्त कर वह मैंनासुन्दरी उस प्रकार शोभित हुई मानों कामदेव की पत्नी साक्षात रति ही हो । श्रीपाल महाराज जगत के चित्त को अनुरञ्जित करने वाली मैनासुन्दरी को आदि कर सभी प्रिया वृन्दों के साथ सब प्रकार के भोगों को भोगता हुअा श्रेष्ठ सुख को प्राप्त हुया अर्थात् सांसारिक सुख को प्रदान करने वाली सभी इष्ट सामनो उनको पुण्योदय से प्राप्त हो गई थी ।।८८, ८६ ।। एवं राज्ये स्थितस्सौख्यं सेव्यमानो नराधिपः । सुखं पञ्चेन्द्रियोत्पन्नम् संभुञ्जन् परयामुदा ॥१०॥ चिरकाल जिनेन्द्राणां धर्म कुर्वन् जगद्वितम् । बान पूजावतोपेत परोपकृति तत्परः ।।१।। पालयन्पुप्रयत् प्रीत्या प्रजास्सस्सुिनीतिवित् । स श्रीपाल प्रभ सत्यं जातस्सद्राज्यपालनात् ॥२॥ अन्वयार्थ --(एवं) इस प्रकार (नराधिपः सेव्यमानो) राजाओं के द्वारा सेव्यमान (पञ्चेन्द्रियोत्पन्नं सुखं) पञ्चेन्द्रियों से उत्पन्न सुख को (परयामुदा) अत्यन्त प्रानन्द से (सम्भुजन ) भोगता हुप्रा (चिरकालं) चिरकाल पर्यन्त (जगद्वितम् ) जगत का हित करने Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४] [ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद वाले ( जिनेन्द्राणां ) जिनेन्द्र प्रभु के ( धर्मं कुर्वन ) धर्म को करता हुया ( दनपूजाव्रतोपेत ) दान पूजा प्रतादि से सहित (परोपकृति तत्परः) परोपकार में तत्पर वह श्रीपाल ( राज्ये ) राज्य में ( सौख्यं स्थितः ) सुखपूर्वक रहा ( स श्रीपाल ) वह श्रीपाल ( पुत्रवत ) पुत्र के समान ( सर्वाः प्रजाः प्रीत्यापालन ) समस्त प्रजा का प्रीति पूर्वक पालन करता हुआ (सद्राज्यपालनात ) राज्य का श्रेष्ठ रोति से पालन करने से ( सुनोतित्रित ) नीति को सम्यक् प्रकार जानने वाला (सत्य) यथार्थ (प्रजातः ) राजा हुआ । भावार्थ - इस प्रकार राजाओं के द्वारा सेव्यमान और पञ्चेन्द्रियों ने उत्पन्न सुख को अत्यन्त आनन्द से भोगता हुआ चिरकाल तक जगत का हित करने वाले जिनधर्म का अर्थात् श्रावक धर्म का अच्छी तरह पालन करता हुआ वह श्रीपाल निरन्तर दान पूजा में तथा व्रतानुष्ठान में तत्पर रहता था । | कहा है “नादाने किन्तु दाने हि सतां तुष्यन्ति मानस' सज्जनों का चित्त लेने से नही अपितु देने से त्याग से सन्तुष्ट होता है। इसी प्रकार श्रीपाल महाराज की प्रजा की सेवा कर वा परोपकार कर विशेष श्रानन्द होता था । उनका चित्त सदा परोपकार में संलग्न था । वे पुत्र के समान समस्त प्रजा का प्रीतिपूर्वक पावन करते थे। इस प्रकार राजोचित समस्त धष्ट गुणों से युक्त, नीति को सम्यक् प्रकार जानने वाले श्रीमान महाराज ही यथार्थ प्रभावशाली राजा हुए ।।६० से ६२ ।। धर्मेण निर्मलकुलं विमला च लक्ष्मी । धर्मेण निर्मलयो विमलं च सौख्यम् ।। स्वर्गापवर्गभ्रमलं जिनधर्मतश्च । तस्मात् सुधर्ममतुलं सुधियः कुरुध्वम् ||३|| अन्वयार्थ --- (अ) धर्म कार्य को करने से ( निर्मलकुलं ) श्रेष्ठ पवित्र कुल (विमला लक्ष्मी च ) न्यायोपात्त धन अथवा गद रहित, सातिशय पुण्य को उत्पन्न करने वाली सम्पत्ति प्राप्त होती है । ( धर्मेण ) धर्म से ( निर्मलयो) निर्मल यश (म) और (विमलं सौख्यम ) निर्मल अर्थात निराकुल स्थाई यथार्थ सुख प्राप्त होता है। ( च स्वर्गापवर्गम् अमलम् ) स्वर्ग और कर्मफल से रहित सिद्ध अवस्था अर्थात् मोक्ष ( जिनधर्मतश्च ) जिनधर्म से प्राप्त होता है। ( तस्मात् ) इस लिये (सुधियः) सुश्रीजन, विइञ्जन ( सुधर्म अतुलं ) श्रेष्ठ, अनुपम जिनधर्म को (कुरुध्वम् ) करें। भावार्थ - - श्रीपाल महाराज के पवित्र जीवन चरित्र को उपस्थित कर यहाँ धर्म के अतुल माहात्म्य को प्रकट किया है। धर्मान्तरण से उच्च, पवित्र कुल और न्यायोपात वा जो मदको पैदा न करे ऐसा धन वैभव प्राप्त होता है। कहा भी है "सा श्रीर्यान मंद कुर्यात " वही धन सुख को देने वाला है जो मद को पैदा न करें। ऐसा सातिशय पुण्य को उत्पन्न करने वालो लक्ष्मी भो धर्माचरण से प्राप्त होती है। धर्म से निर्मल यश और निराकुल स्थाई सुख प्राप्त होता है | इसलिये विद्वज्जनों को चाहिये कि वे निरन्तर श्रेष्ठ अनुपम उस जिनधर्म का पालन करते रहें ||३|| Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद ] [ ४२५ एवं जिनेन्द्रकथितं सुदयाप्रधानम् । धर्म जगत्त्रयहितं परमादरेण । श्रीपालनाम नपति सुखदं प्रकुर्थन् । राज्यं चकार सुचिरं स्वसमीहित सः॥४॥ अन्ययार्थ--(एवं) इस प्रकार (सः) उस (श्रीपाल नाम नृपति) श्रीपाल नामक राजा ने (सुदयाप्रधानम् ) सम्यक् दया है प्रमुम्ब जिसमें ऐसे (जगत्त्रयहित) तीन लोक का हित करने वाले (जिनेन्द्रकथितं) जिनेन्द्र प्रभु कथित (सुखदं धर्म प्रकुर्वन् ) सुखद धर्म को करते हुए (सुचिरं) चिर काल तक (स्वसमीहितं) अपने अभीष्ट (राज्य) राज्य को (चकार) किया। भावार्थ-जिनधर्म में दया भाद की प्रधानता है। सम्यक् दया है आधार जिसका ऐसे तोन लोक का हित करने वाले सुखकर जिनधर्म का आचरण करते हुए श्रीपाल महाराज ने चिरकाल अपने अभीष्ट राज्य को किया अर्थात् सदा पपूर्वक मार लोति के साथ राज्यशासन करते रहे ॥१४॥ ॥इति श्रीसिद्धचक्र पूजातिशय प्राप्ते श्रीपाल महाराज चरित्रे श्रीपाल महाराज चम्पापुरी राज्य प्राप्ति व्यावर्णनो नाम सप्तमः परिच्छेदः ।।शुभम् प्रस्तु।। इस प्रकार श्री सिद्धचत्र पूजा के अतिशयकारी फल को प्राप्त करने वाले श्रीपाल महाराज के चरित्र में श्रीपालमहाराज के द्वारा चम्पापुरी राज्य की प्राप्ति का वर्णन करने बाला सप्तम परिच्छेद समाप्त हमा। || शुभम् मस्तु । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ अष्टम परिच्छेदः ॥ अकस्मिन् दिने सोऽपि श्रीपालः पृथिवीपतिः । सभायां संस्थितो धीमान् सिंहासनमधिष्ठितः ॥११॥ वीज्यमानस्तिश्चारुचामरैर्वा महेश्वरः । सेव्यमानस्तुरैर्वोच्चैः परं भूयोविभूतिभिः ॥ २ ॥ श्रन्वयार्थ --- ( अथ ) इसके बाद ( पृथिवीपतिः सो श्रीमान् श्रीपाल : ) पृथ्वीपती वह बुद्धिमान श्रीपाल ( एकस्मिन् दिने ) एक दिन ( सभायां ) सभा में ( सिंहासनमधिष्ठितः ) सिंहासन पर बैठा था ( बीज्यमानः सितैः चारुचामर: ) ढोले जाते हुए श्रेष्ठ चमरों से उच्चैः परैः) प्रति उत्तम ( भूयो विभूतिभिः) बहुत विभूतियों के साथ ( संस्थितो) विराजमान श्रीपाल ( सुरैः सेव्यमानः ) देवों के द्वारा सेवमान (महेश्वर: बा ) महेश्वर इन्द्र के समान प्रतीत होता था । भावार्थ सुख पूर्वक राज्य करता हुआ वह बुद्धिमान श्रीपाल राजा एक दिन सभा में सिहासन पर बैठा था। श्वेत चामर जिसके ऊपर ढोले जा रहे थे और देवों के समान महान विभूतियों से युक्त राजागग जिनकी सेवा में सदा तत्पर रहते थे वह श्रीपाल उस समय देवों के अधिपति इन्द्र के समान प्रतीत होता था ।।१२।। विज्ञप्तो वनपालेन नानापुष्पफलोत्करैः । राजन् नृपवने रम्ये श्रुतसागर नाम भाक् ॥३॥ महा मुनिस्समायातो ज्ञातसर्वागमः प्रभो । सर्वजीवदयासिन्धुः स्वावधिज्ञान लोचनः ॥४॥ श्रन्वयार्थ -- उसी समय ( वनपालेन ) वन रक्षक के द्वारा ( नानापुष्पफलोत्करैः ) अनेक प्रकार के पुष्प फलों से अर्थात् नाना प्रकार के फल पुष्प अर्पित कर (विज्ञप्तो ) विज्ञप्ति की गई, निवेदन किया गया है ( राजन् ! ) हे राजन् ! ( प्रभो ! ) हे प्रभु ( रम्ये नृपवने) रभरीय राजवन में (ज्ञात सर्वागमः ) सम्पूर्ण श्रागम को जानने वाले ( स्वावधिज्ञानलोचनः ) अवधिज्ञान है रुव नेत्र जिनका ऐसे अवधिज्ञानो ( सर्वजीवदयासिन्धुः ) सम्पूर्ण जीवों पर दया करने वाले दया के सागर ( श्रुतसागरनाम भाक् ) श्रुत सागर नामक ( महामुनिः समायातो) महामुनि आये हैं । P C Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद ] [ ४२७ भावार्थ -- जब श्रीपाल महाराज महा विभूति के साथ सभा में सिंहासन पर आरूढ़ थे तब नाना प्रकार के पुष्प फलों को लेकर वनपाल आया और राजा को भेंट कर कहने लगा कि हे राजन् ! हे प्रभु! समस्त प्रागम को जानने वाले अवधिज्ञान रूप दिव्य नेत्र के धारी, समस्त जीवों पर दया करने वाले दयासिन्धु, श्रुतसागर नामक महामुनि राजवन में श्राये हुए हैं । इस प्रकार मुनिराज के श्रागमन की सूचना राजा को प्रति विनय पूर्वक देकर वह वनपाल वहुत सन्तुष्ट हुआ । मुनिराज के आश्चर्यकारो महा प्रभाव का वर्णन करते हुए वह वनपाल राजा को कहने लगा ॥३४॥ सर्वसङ्गविनिर्मुक्तस्संसक्तो जिनवत्र्त्मनि । मृतजयीवृष्ट्या तर्पयन् भव्यचातकान् ||५३ तत्प्रभावेन भो देव तरवो योऽवकेशिनः । तेऽपि पुष्पफलस्तोमेस जांता सर्वातिर्पिणः ॥६॥ सदया दानिनोवोच्चैस्तथा पूर्ण जलाशयाः । सिंहादयो महाक्रूरास्त्यक्त नैराश्च तेऽभवन् ॥७॥ अन्वयार्थ -- (सर्वसङ्गविनिर्मुक्तः ) समस्त बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह से रहित ( जिनवर्त्मनि ) जिनेन्द्र प्रणीत मोक्षमार्ग में (संसक्तो ) अनुरक्तः संलग्न ( धर्मामृतमयी वृष्ट्या ) धर्मामृत की वर्षा से ( भव्य चातकान् ) भव्य रूपी चातक पक्षियों को ( तर्पयत्) तृप्त करते हुए ( तत्प्रभावेन) उन मुनिराज के प्रभाव से ( भो देव ! ) हे स्वामी ! (योsव केशिनः तरवो ) जो फलहीन वृक्ष हैं ( प ) वे भी ( सर्वतर्पिणः ) सबको संतृप्त करने वाले सुमधुर (पुष्पफलस्तोमः ) पुष्पों और फल समूह से ( सजाता ) परिपूर्ण हो गये हैं (तथा) उसी प्रकार (पूर्णजलाशयाः ) सरोवर भी जल से भर गये हैं इस प्रकार प्रकृति भी ( सदया उच्च दानिना इव ) दयाशील श्रेष्ठ दाता के समान प्रतीत हो रही है। (सिंहादयो) सिंह आदि ( ते महाराः ) वे महाक्रूर पशु ( त्यक्तवैराः) बैर रहित (अभवन् ) हो गये हैं । भावार्थ- -वन में आये हुए मुनिराज सम्पूर्ण प्रकार के बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह सं रहित हैं तथा जिन प्रणीत मोक्षमार्ग में अनुरक्त, संलग्न हैं, धर्म रूपी वर्षा से भव्यरूपी चातक पक्षियों को सदा संतृप्त करने वाले हैं। उनके महाप्रभाव से पुष्प वा फलों से रहित वृक्ष भी सबको तृप्त करने वाले पुष्प और फलों के गुच्छों से भर गये हैं। सूखे सरोवर भी स्वच्छ जल से सहसा भर गये हैं। इस प्रकार उस वन में प्रकृति भी दयाशील श्रेष्ठ दाता के समान प्रतीत हो रही है । सिंहादि महाकर पशु भी वैर विरोध रहित हो चुके हैं। इस प्रकार मुनिराज का प्रभाव अतुल है, ग्राश्चर्यकारी है 11 ५ से ७।। तदाकर्ण्य मुदा सोऽपि सद्धर्म रसिको महान् सिंहासनात्समुत्थाय गत्वा सप्तपदानि च ॥८॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद जयकोलाहलं कुर्नन् ससभा परमादरात् । नत्वा तस्मै महादानं दत्त्वा सानन्द निर्भराः ॥६॥ दापयित्वा महाभेरो शुभांसन्मार्ग सुचिनीम् । नववादित्र सन्दोहैस्सज्जनः परिवेष्टितः ।।१०।। छत्रादिभिर्गजारूढः पूजाद्रव्यशतान्वितः । स्वप्रियापरिवारेण मण्डितः पौरसत्तमः ।।११॥ गत्वाशु तद्वनंरम्यं शुद्धाशोकतरोरधः । निश्चले शिला पीठे पवित्र संस्थितं मुनिम् ॥१२॥ अन्वयार्थ-(वदाकर्ण्य) उस समाचार को सुनकर (सद्धर्मरसिको) सच्चे धर्म में अनुराग रखने वाला (महान् सोऽपि) महापुरुष वह श्रीपाल भी (मुदा) आनन्द से भरा हुआ (सिंहासनात्) सिंहासन से (समुत्थाय) उठकर (च सप्त पदानि) और सात डग (गत्वा) जाकर (ससभा) सभा सहित (पर मादरात्) परम आदर पूर्वक (जय कोलाहलं कृत्वा) जय जय ध्वनि करके (नत्वा नमस्कार कर (सासन्न भिंग) अानन्द भरा हुमा (तस्मै महादानं दत्त्वा) उस वनपाल को प्रचुर धनराशि देकर (शुभां सन्मार्ग सूचिनीम्) शुभ मङ्गल वा सन्मार्ग को सूचित, प्रदर्शित करने वालो (महाभेरो दायित्वा) महाभेरी बजवाकर (नदद्वादित्र सन्दोहै:) वजते हुए बादित्रों और (सज्जनेः परिवेष्टित:) सज्जनों से परिवृत-घिरे हुए (पूजा द्रव्यशतान्वित:) सैकड़ों प्रकार के पूजा द्रव्यों से सहित (स्वप्रियापरिवारेण पौरसत्तमैः मण्डितः) अपनी प्रियाओं, श्रेष्ठ परिजन पुरजनों मे मण्डित-मुशोभित (छत्रादिभिः गजारूढः) छत्रादि से युक्त हाथी पर सवार हुमा (तद् रम्यं वनं) उस रमणीक वन में (प्राशु गत्वा) शीघ्र जाकर (शुद्धाशोकतरो: अधः शुद्ध पवित्र अशोक वक्ष के नीचे (पवित्रे निश्चले शिलापोठे) पवित्र निश्चल शिला पीठ पर (संस्थितं मुनि) बैटे हुए मुनिराज को, देखा । वे मुनिराज कैसें थे उसे आगे बताते हैं। भावार्थ-महातपस्वी, ऋद्धिधारी मुनिराज के आगमन का समाचार सुनकर सत्धर्मा. नुरागी श्रेणिक महाराज बहुत आनन्दित हुए और सिंहासन से उठकर सात डग जाकर सभा सहित उन मुनिराज को आदर पूर्वक नमस्कार किया और जय जय ध्वनि पूर्वक मुनिराज की स्तुति को। परमानन्द को प्राप्त हुए श्रीपाल महाराज ने वनपाल को प्रचुर धन राशि देकर विदा किया और मङ्गलकारो शुभ समाचार को सूचित करने वाली, सन्मार्ग का प्रदर्शन करने वाली महाभेरी बजवा दी तथा अपनो प्रियाओं, परिजन और पुरजनों सज्जनों के साथ, बजते हुए वादियों सहित, प्रभावना पूर्वक त्रादि से युक्त हाथी पर सवार होकर, शीध्र उस वन में पहुँच गये । वहाँ पवित्र शिला पर अशोक वृक्ष के नीचे बैठे हुए अत्यन्त निश्चल ध्यानस्थ श्रुतसागर मुनिराज को देखा । वे मुनि कैसे थे सो आगे बताते हैं ।।८ से १२।। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद] [४२४ निश्चलं मेरुवद् गाढं गम्भीरं सागरादपि । तं विलोक्य कृपासिन्धुश्चारुरलत्रयान्वितम् ॥१३॥ त्रिपरीत्य महाप्रीस्या समभ्ययंपदाम्बुजम् । तन्मुनेः संस्तुति कृत्वा नत्वा तत्पादयोरधः ॥१४॥ अन्वयार्थ--(मेरुवद् निश्चल) सुमेरु के समान निश्चल (सागरादपि) समुद्र से भी (गाढे गम्भीर) प्रति गम्भीर (चारु) उत्तम निर्मल (रत्नत्रयान्वितम्) रत्नत्रय से युक्त (कृपासिन्ध) दयासिन्धु (तं विलोक्य) उन मुनिराज को देखकर (महाप्रीत्या विपरीत्य) अत्यन्त प्रीति पूर्वक तीन परिक्रमा देकर (पदाम्बुजं समभ्य चर्य) चरणकमलों की सम्यक् प्रकार पूजाकर तथा (तन्मुनेः) उन मुनिराज की (संस्तुति कृत्वा) पवित्र स्तुति कर (नत्वा) नमस्कार कर (तत्पादयोः अधः) उसके चरणकमलों के नीचे (संस्थितो) बैठ गये। भावार्थ-वे मुनिराज अपने व्रतों में सुमेरु के समान निश्चल वा दृढ़ थे, तथा ज्ञान में समुद्र से भी अधिक गम्भीर थे । पवित्र रत्नत्रय से युक्त दया के सिन्धु थे। ऐसे उन मुनिराज की तीन परिक्रमा देकर महाप्रीति पूर्वक चरणकमलों की पूजा कर सम्यक् प्रकार स्तुति कर नमस्कार कर श्रेणिक महाराज, चरणों के समीप नीचे बैठ गये ।।१३, १४॥ . -पात - --- --- MA Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३०] [ोपाल चरित्र अष्टम परिच्छे । संस्थितो मुनिनादत्तं धर्मवृद्धया सुरक्रिया । सन्तुष्टोभूपतिर्गा मानसे सज्जनस्तह ॥१५॥ पुनर्नत्वा मुनिप्राह श्रीपालो विनयान्वितः । कृताञ्जलिरहो स्वामिस्त्वां सदा करुणाकरः ॥१६॥ भव्यपदमाकराणाञ्च प्रकाशन दिवाकरः । निस्पृहः श्री जिनेन्द्रोत सम्धान्बुिधिबन्द्रमाः ।। १७ ।। अन्वयार्थ - (मुनिना दत्तम्) मुनिराज के द्वारा दिये गये, (सुरश्रिया) स्वर्ग प्रादि सम्पत्ति को करने वाले (धर्मवृद्धया) धर्मवृद्धि रूप आशीर्वचन से (सज्जनैः सह) रज्जनों के साथ (संस्थितो भूपति) बैठा हुआ राजा (मानसे गाई सन्तुष्टो) मन में बहुत सन्तुष्ट हुआ। (कृताञ्जलिः) हाथ जोड़ हुए वे श्रीपाल महाराज कहने लगे (अहो) हे (स्वामिन्) स्वामी (त्वं सदा करूगाकरः) आप सदा करणा-या करने वाले हो (भपपद्माकराणाम् ) भव्य जोत्र रूपी कमलों के (प्रकाशन) विकाश के लिये (दिवाकरः) सूर्य के समान हो । (निस्पृह) निस्पृह हो (जिनेन्द्रोक्तं सद्धर्माम्बुधि चन्द्रमा) जिनधर्म रूपी समुद्र को वृद्धिंगत करने वाले चन्द्रमा के समान है। भावार्थ-स्वर्ग आदि सम्पत्ति को देने वाला, मनिराज प्रदत्त धर्मवृद्धिरस्तु आशीर्वाद रूप बचन से, सज्जनों के साथ बठं हए श्रीपाल महाराज बहन सन्तुष्ट हए और हाथ जोडे हए कहने लगे, हे स्वामिन् ! आप सदा दया वा करूणा करने वाले हो, भव्य जीव रूपी कमलों को विकसित करने के लिये सूर्य के समान हो । अति निस्पृह हो और जिनेन्द्र कथित सद्धर्म रूपो समुद को वृद्धिंगत करने वाले चन्द्रमा के ममान हो ।।१५ मे १७।। भगवन् कीडशोधर्मः कैस्साध्योऽत्रदयापरः । कि फलं तस्य भो नाथ सर्व त्वं वक्तुमर्हसि ॥१८॥ तन्निशम्य प्रभोर्वाक्यं मुनीन्द्रो धर्मतत्ववित । सजगाद शुभां बाणों सर्वपन्देह नाशिनीम् ॥१६॥ भाषिणों सर्वतत्वाना भानुभाइव निर्मलाम् । शीतला चन्द्रकान्ति वा परमाहाददायिनीम् ॥२०॥ अन्वयार्थ- (भगवन् ) हे प्रभ ! (दयापरः) दया प्रधान (धर्म:) जिन धर्म (कोरशो) कैसा है (अत्र) यहां, (बह धर्म) (केःसाध्यो) किसके द्वारा साध्य है (भोनाथ) हे स्वामी ! (तस्य कि फल ) उसका क्या फल है ? (सर्व) सव (त्वं ) ग्राम (बक्तु अर्हसि ) कहने में समर्थ हो। (प्रमो: तत वाक्यं निशम्य) राजा के उस वचन को सुनकर (धर्मतत्ववित ) धर्म के स्वरूप को जानने वाले (मुनीन्द्री) मुनिकुञ्जर ने (भानुभाइव) सूर्य की किरणों के समान Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद] [४३१ (सर्वतत्त्वाना भाषिणों) सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करने बालो (निर्मलाम) निदोष अर्थात् युक्तिसङ्गत (सर्वसन्देहनाशिनीम) सम्पूर्ण शताओं का निराकरण करने वाली (चन्द्र कान्ति बा) तथा चन्द्रमा की किरणों के समान (शीतला) शीतल (परमाह्लाददायिनीम् ) परमानन्द को देने वाले (शुभां) शुभ, मङ्गलकारी (वाणी सजगाद) वचन कहे। भावार्थ--श्रेणिक महाराज ने स्तुति और बन्दना पूर्वक विनय के साथ मुनिराज से प्रश्न किया कि हे प्रभ! जिनधर्म का स्वरूप क्या है, वह धर्म कैसा है ? यहाँ, किसके द्वाग प्रथबा किस प्रकार किस विधि से साध्य है ? हे स्वामी ! उसका फल क्या है ? आप ही कहने में समर्थ हो अत: आप धर्मोपदेश देकर हम भव्यजीवों को सन्तुष्ट करें। राजा के उस वचन को सुनकर धर्म के स्वरूप को जानने वाले मुनिकुञ्जर ने सूर्य की किरणों के समान सम्पूण तत्त्वों को प्रकाशित करने वाली, युक्ति प्रमाण सङ्गत निर्दोष तथा सम्पूर्ण शङ्गाना का निराकरण करने वाली, चन्द्रमा की किरणों के समान शीतलता वा आनन्द को देने वाली शुभ मङ्गलकारी वाणी कही । अर्थात् प्रश्नानुसार परमहितकारो अमृतमय धर्म का व्याख्यान किया ।।१८, १६, २०॥ भो भूपले स्थिर कृत्वा स्थचित्तं शृण साम्प्रतम् । वक्ष्येऽहं जिनधर्मस्य लक्षणं शुभलक्षणम् ॥२१॥ संसारसागरान्नूनं समुद्धृत्य सतः नरान् । योधरत्येव सत्सौख्ये स धमो जिनभाषितः ॥२२॥ अन्वयार्थ–(भो भूपते) हे राजन ! (साम्प्रतम्) इस समय (स्वचित्तं) अपने चित्त को (स्थिर कृत्या) स्थिर वारवे (शृण ) सुनो (अहम् ) मैं (जिनधर्मस्य) जिनधर्म का (शुभलक्षणं) श्रेष्ठ स्वरूप (वक्ष्ये) कहता हूँ। (यो) जो (सतः नरान्) सत्पुरुषों को (संसारसागरात्) संसार सागर से (नूनं) निश्चय से (ममुद्धृत्य) निवाल कर (सत्सौख्ये) उत्तम मुख में स्थापित करता है (स ) वह (जिनभाषितः) जिनप्रणीत (धमो) धर्म है । भावार्थ-मुनिराज ने कहा हे राजन् ! अभी अपने चित्त को स्थिर कर सुनो, मैं जिनधर्म का शुभ लक्षण कहता हूँ । जो सत्पुरुषों को संसार समुद्र से निकाल कर उत्तम सुख में स्थापित करता है वह जिन प्रणीत धर्म है ।।२१, २२।। द्विधा धर्मस्सविज्ञेयो मुनिश्रावक भेदतः । महाधर्मो भवेदाधो मुनीनां स्वर्गमोक्षवः ॥२३॥ साररत्नत्रयोपेतः मूलोत्तरगुणयुतः । तस्य भेदास्सुधीस्सन्ति बहवः परमागमे ॥२४॥ अन्ययार्थ - (सुधी ! ) हे सुधी (स धर्मः) वह धर्म (मुनि श्रावक भेदतः) मुनिधर्म Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छे श्रावक धर्म के भद्र से ( द्विधा विज्ञ यां) दो प्रकार का जानना चाहिये। (स्वर्गमोक्षदः ) स्वग और मोक्ष को देने वाला ( आयो ) प्रथम ( मुनीनां धर्मो) मुनिधर्म ( महाभवेत् ) महान् है । ( सार रत्नत्रयोपेतः ) सारभूत रत्नत्रय से सहित (मूलोत्तरगुणैः युतः ) मूल उत्तर गुणों से सहित ( तस्य भेदाः) उस मुनिधर्म के ( परमागमे ) परमागम में जिनागम में ( वहव: भेदा: सन्ति) बहुत भेद हैं । मावार्य पुनः मुनिराज ने कहा कि हे सुधी ! वह धर्म, सुनिधर्म और श्रावक धर्म के भेद से दो प्रकार का है उनमें स्वर्ग और मोक्ष को देने वाला प्रथम मुनिधर्म महान् है । सारभूत रत्नत्रय से सहित, मूल उत्तर गुणों से युक्त, उस मुनिधर्म के जिनागम में बहुत भेद हैं । २४। श्रावकानां भवेद्धर्मस्सारस्वर्गादिसौख्यदः । संक्षेपेक्ष प्रवक्ष्यामि तं प्रभो शृण सादरात् ॥२५॥ तत्रादौ च महाभव्यंः पालनीयं जगद्धितम् । जिनोत्तसप्त तत्वानां श्रद्धानं दर्शनं महत् ॥२६॥ श्रन्वयार्थ – (सारस्वर्गादिसांख्यदः ) सारभूत स्वर्गादि सुख को देने वाला ( श्रावकानां धर्मः) श्रावक धर्म ( भवेत् ) होता है ( प्रभो ) हे राजन् ! (संक्षेपेण) संक्षेप में (तं ) उस श्रावक धर्म को ( प्रवक्ष्यामि ) कहता हूँ ( सादरात् शृण) आदर पूर्वक - श्रद्धान पूर्वक सुनो। (तत्रादी) उनमें प्रथमत: ( जगद्धितम् ) जगत् का हित करने वाला (जिनोक्त सप्ततत्त्वानां ) जिनप्रणीत सप्त तत्वों का ( महत् श्रद्धानं ) ढ़ श्रद्धान रूप ( दर्शन ) सम्यग्दर्शन ( महाभव्यः पालनीयम् ) श्रेष्ठ भव्य पुरुषों के द्वारा पालने योग्य है । मावार्थ- पुनः श्रावक धर्म का प्रतिपादन करते हुए मुनिराज कहने लगे कि हे राजन् ! श्रावक धर्म भी सारभूत स्वर्गादि सुख को देने वाला है तुम श्रावक धर्म को मादर पूर्वक सुनो। जिनेन्द्र भगवान ने सात तत्त्व बताये हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इन पर दृढ़ श्रद्वान रखना सम्यग्दर्शन है। "उपयोगो जीवलक्षणम्" जिसमें जानने और देखने की शक्ति है वह जीव है। जिसमें जानने देखने की शक्ति नहीं है ऐसे पुद्गल, धर्मद्रव्य, आकाश और काल द्रव्य अजीव रूप हैं। पुण्यपापागम द्वार लक्षणं आस्रव:" पुण्य और पापरूप कर्मों के आने के द्वार को आसव कहते हैं । आत्मा और कर्म प्रदेशों का दूध और पानी की तरह परस्पर संश्लेष सम्बन्ध को प्राप्त हो जाना बन्ध है । अते हुए कर्मों का रूक जाना संवर है । पूर्ववद्ध कर्मों का एक देश क्षय हो जाना जिरा है और सम्पूर्ण कर्मों का अत्यन्त प्रभाव हो जाना मोक्ष है। इन सात तत्त्वों यथानुरूप र श्रद्धान होना व्यवहार सम्यग्दर्शन है । पर द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मस्वरूप जो रूचि श्रद्धान होता है उसे निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं। सच्चे देवशास्त्र गुरु का श्रद्धान भी सम्यग्दर्शन है। जैसा कि आगे बताया भी है ।। २५, २६ ।। देवोऽर्हन् दोष निर्मुक्तः सद्धर्मो दशधास्मृतः । निग्रन्थोऽसौ गुरुश्चेति श्रद्धासम्यक्त्वमुच्यते ॥ २७॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र भ्रष्टम परिच्छेद 1 सर्वव्रत क्रियासार दानपूजा तपस्सु च । तत् सम्यक्त्वं बुधैर्मोक्तं श्रृंगारं रत्नहारवत् ||२८|| }-- अन्वयार्थ - ( दोष निर्मुक्तः ) दोष रहित अर्थात क्षुधा, तृषा, जरा आदि अठारह दोषों से मुक्त (अन) घातिया कर्म से रहित अर्हन्त परमेष्ठी ( देवः ) सच्चे देव हैं 1 ( सद्धर्मोदशधा ) क्षमा, मार्दवादि १० प्रकार के उत्तमधर्म हैं (निन्थो ) जो वाह्य श्राभ्यन्तरपरिग्रह से रहित 'न साधु हैं (अस) वही ( गुरु: ) सच्चा गुरु है ( इति श्रद्धा ) इस प्रकार हह श्रद्धान होना ( सम्यक्त्वं उच्यते ) सम्यग्दर्शन है ऐसा जिनागम में कथन है। ( सर्वत्रत किया दान पूजातपस्सु ) सम्पूर्ण व्रत आचरण चारित्र, दान, पूजा और तपों सारभूत प्रधान ( तत् सम्यक्त्वं ) वह सम्यग्दर्शन है । ( रत्नहारवत् श्रृंगारं) रत्नमय हार के समान शोभावर्धक है ऐसा ( बुधैः प्रोक्तं ) विद्वानों ने कहा है । [४३३ भावार्थ - जो वीतरागी, सर्वज्ञ हितोपदेशी है तथा अठारह दोषों से रहित हैं वे ही प्राप्त देव हैं । "नियमसार" में श्राचार्य कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं "छत"हमी रूसो रागो मोहो चिन्ता जरा रूजा मिच्चू । सेदं खेदं मदो रद्द विम्यिरिणद्दा जण ब्वेगो ।।” "जो क्षुधा, तृषा, भीरुता, रोष, राग, मोह, चिन्ता, जन्म जरा मृत्यु रोग, स्वेद, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा और उद्वेग इन अठारह दोषों से रहित होते हैं ऐसे आप्त-अरहन्त परमेष्ठी हैं ।” पुनः जो जीवों को जन्म, जरा मृत्यु के दुःखों से छुड़ा कर उत्तम मोक्ष सुख को प्रदान करता है वही सच्चा धर्म है जो दस प्रकार का है। उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये १० धर्म ही इस जीव को संसार दुःखों से बचाने वाले हैं। इसी प्रकार जो बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह से रहित हैं सदा ज्ञान, ध्यान तप में अनुरक्त रहते हैं वे ही सच्चे गुरु हैं । "नियमसार" में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भी कहा है "वावार विमुक्का च उब्विा राहणासयारत्ता । fiथा निम्मोहा साहूते एरिसा होंति ।।" जो पञ्चेन्द्रिय विषय व्यापार से सर्वथा विरत हैं तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप चार प्राराधनाओं के पालन में सदा रत रहते हैं। मोह रूपी ग्रन्थी को खोलने वाले तथा समस्त परिग्रहों के त्यागी हैं वे ही सच्चे गुरु हैं, साधु हैं । इसी प्रकार ग्रागम भी वही हो सकता है जो जिन प्रणीत है तथा पूर्वापर दोष से रहित है अर्थात् जिसमें पूर्वापर विरोध नहीं पाया जाता है ऐसा सर्वज्ञ कथित श्रागम ही सच्चा आगम है । इन पर दृढ़ श्रद्धान रहना सम्यग्दर्शन है । सम्पूर्ण व्रत तथा धर्मकार्य दान, पूजा, तप श्रादि का सार सम्यग्दर्शन है क्योंकि Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ] [श्रोपान चरित्र अष्टम परिच्छेद सम्यक्त्व पूर्वक किया गया प्रत, दान, पूजा, नप आदि ही मुक्ति में साधक है तथा प्रात्मशुद्धि में समर्थकारण है । अत: आत्मा की शोभा सम्यग्दर्शन से है। वह सम्यग्दर्शन रत्नहार के समान प्रात्म का अलङ्कार प्राभूषण है ॥२८॥ तेन युक्तो महाभव्य समुत्तीर्य भवार्णवम् । स दुर्गत्यादिकं हित्वा क्रमात् स्वर्मोक्षभाग्भवेत् ॥२६॥ अन्वयार्थ - (नेन युक्नो) उस सम्यग्दर्शन से सहित (महाभव्य) महान भव्य पुरुष (भवार्णवम्) संसार रूपी समुद्र को (समुतीर्य) पारकर (दुर्गत्यादिकं हित्वा) दुर्गनि आदि का नाश कर अर्थात् नरक तिर्यञ्च आदि कुगति को दूर कर (क्रमात्) ऋम से (स्वर्मोक्षभाग्भवेत्) स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करते हैं । भावार्थ -सम्यम्दृष्टि महाभव्य-निकट भव्य जोव, सम्यक्त्व के प्रभाव से नरक तियंञ्च भयङ्कर दुःखों मे छट जाता है तथा संसार रूपी समुद्र को शीघ्र पार कर लेता है । प्रथमत: नरक और तिर्थञ्च गति का नाश कर फिर क्रम से स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त होता है ।।२६।। अहिपात्र सजीवानां पालनीया सुखाथिभिः । सांकल्पिकं परित्यज्याहिंसा पक्षोऽयत्ताः !!३०॥ अन्वयार्थ (सुखाथिभिः) सुख चाहने वाले जीवों को (अव) यहाँ (मजीवानां अहिंसा) समस्त प्राणियों के रक्षण रूप अहिंसा को (पालनीया) पालना चाहिये (सांकल्पिक परित्यज्य) संकल्पी हिंसा का त्याग कर (अयम् उत्तमः) यह उत्तम (अहिंसा पक्षो) अहिंसापक्ष वा धर्म (पालनीया) पालन करने योग्य है । भावार्थ-प्राणीमात्र के प्रति रक्षण का भाव होना अहिंसा है। सुख के इच्छक गृहस्थ को संकल्लो हिंसा का त्याग कर उस उत्तम अहिंसा धर्म का पालन करना ही चाहिये ।३०॥ प्रसत्यं दूरतस्स्याज्यं परद्रव्यच्च सर्वथा। परस्त्रियं परित्यज्य कार्यस्तोषः स्वयोषिति ॥३१॥ अन्वयार्थ-(दूरतः) दूर से अर्थात् हर प्रकार से (असत्यं परद्रव्यं च) असत्य वचन और परद्रव्यहरण रूप चोरी को (त्याज्यम्) छोड़ देना चाहिये (परस्त्रियं सर्वथा परित्यज्य) परस्त्री के मेवन का सर्वथा त्याग कर (स्क्योषिक्ति) अपनो स्त्री में (तोष : कार्य:) सन्तोष रखना चाहिये। मावा - सम्यग्दृष्टि श्रावकों को असत्य वचन, परद्रव्यहरण रूप चोरी का भी दूर से ही त्याग कर देना चाहिय । तथा पर स्त्रो के सेवन का सर्वथा त्याग कर अपनी स्त्रो में ही सन्तोष रखना चाहिये ।।३६।। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र प्रष्टम परिच्छेद ] परिग्रहेषु सर्वेषु प्रमाणं संविधीयताम् । येन जीवो भवेदुः सन्मुखीव भवे भवे ॥ ३३॥ अन्वयार्थ - ( सर्वेषु परिग्रहेषु) सम्पूर्ण परिग्रहों में (प्रमाणं ) परिमाण या सीमा ( संविधीयताम् ) कर लेनी चाहिये (येन) उस परिग्रह प्रमाण रूप अणुव्रत के प्रभाव से (जीवी) जीव ( भत्रे गवे) भव भव में (उच्च) श्रेष्ठ ( सन्मुखी भवेत् ) सम्यग्दर्शन आदि गुणों के उन्मुख रहे । [४३५ भावार्थ - श्रावकों को परिग्रह का प्रमाण भी अवश्य करना चाहिये जिससे परिग्रह में आसक्ति पैदा न होवे । बाह्य परिग्रह के १० भेद हैं- क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य (चाँदी), सुवर्णं, धन, धान्य, दासो, दास, कुप्य, भाँड इन सभी का परिमाण करने से इच्छाओं का निरोध होता होती है और जीभ में इस इरिग्रह परिमाण व्रत के संस्कार से श्रेष्ठ सम्यग्दर्शन यदि गुणों के सम्मुख रहकर मोक्ष मार्ग में रहता है ||३२|| सर्वदा च सता त्याज्यं पुरुप संतापकाररणम् । रात्रि भोजनमाचमसित विशुद्धये ॥३३॥ चर्मवारिघृतं तैलं हिंगुसंधृत चर्म च । Fantarvafai भोज्यं वर्जनीयञ्च सर्वदा ||३४|| प्रन्वयार्थ - ( सता ) सत्पुरुष के द्वारा (पापसंतापकारणम् ) पापवर्धक संतापकारक (रात्रि भोजनमात्रोत्र ) रात्रि भोजन मात्र सर्वत: ( सर्वदा त्याज्यं ) सदा त्याज्य है ( मांसव्रत विशुद्धये) मांस त्याग व्रत की विशुद्धि के लिये (चर्मवारिघृतं तैलं ) चर्म में रखे जल, घृत, और तेल ( ) और (चमसंतहिंगु) चमड़े में रखो हींग ( स्वभावात् चलितं भोज्यं ) स्वभाव से चलित अर्थात् विकृत अमर्यादित भोज्य पदार्थ ( सवेदा) सदा ( वर्जनीयं ) छोड़ने योग्य है अर्थात् सत्पुरुषों को अवश्य इनका त्याग करना चाहिए । मायार्य सत्पुरुषों को रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग करना चाहिये। क्योंकि रात्रि भोजन करने वाला हिंसा से नहीं बच सकता है। सूर्य के प्रकाश के प्रभाव में जो सूक्ष्म से सूक्ष्म ate हैं वे बाहर निकलकर वायुमंडल को व्याप्त कर लेते हैं और भोजन की सुगन्धी को पाकर उसमें गिरकर मर जाते हैं । तथा रात्रि में एलेक्ट्रिक के प्रकाश से प्राकृष्ट हुए सूक्ष्म मच्छर फर्तिगे श्रादि भी भोजन में गिरते हैं इसलिये रात्रि में खाया हुआ अन्न मांस पिण्ड के तुल्य हो जाता है । अतः मांस त्याग व्रत को विशुद्धि के लिये पाप वर्धक तथा नरकादि के दुःखों को उत्पन्न करने वाले रात्रि भोजन का त्याग अवश्य करना चाहिये । पुनः चमड़े की थैलियों में रखा हुआ जल घी अथवा तेल, होगड़ा आदि भी श्रावकों को प्रयोग में नहीं लाना चाहिये । चमड़े की चरस में लाया हुआ पानी पीने वाले को मांस भक्षरण का दोष याता है। साथ ही अमर्यादित वस्तु का सेवन करने से भी मांस त्यानव्रत में दोष लगता है। अचार, मुरब्बा, बड़ी Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद मंगौड़ी, पापड आदि की मर्यादा भी २४ घण्टे की ही है अर्थात् २४ घण्टे के बाद ये चीज अभक्ष्य हो जाती हैं । अष्ट मूलगुरण के धारी श्रावकों के लिये असेवनीय हैं ||३४|| कन्दमूलं च संधानं पुष्पशाकं च वर्जयेत् । कालिङ्ग नवनीतं च संत्यजन्तु विवेकिनः || ३५।। अन्वयार्थ – (कन्द मूल ) मूली गाजर आदि कन्दमूल (संधानं) अचार ( पुष्पशाकं व ) पुष्प और हरी पत्तियों का शाक ( वर्जयेते) नहीं खाना चाहिये ( विवेकिनः ) विवेकी पुरुष ( कालिङ्ग ) तरबूज (त्र) और ( नवनीतं ) मक्खन का ( संत्यजन्तु ) त्याग करें । भावार्थ -- कन्दमूल, साधारण वनस्पति में गर्भित हैं अर्थात् इनमें एक शरीर में अनन्त जीवों का समान रूप से निवास रहता है। जैसे एक बालू या माजर है तो उसमें भी अनन्त जीव हैं और उसको खाने से अनन्त जीवों के घात का पाप लगेगा | अचार भी जितना पुराना होगा उतनी ही अधिक जीव राशि उसमें उत्पन्न हो जाती है अतः अनन्त त्रसजीवों की उत्पत्ति उसमें हो जाने से मांस भक्षण का दोष लगता है, पुष्प अर्थात् फूल भी अभक्ष्य हैं किन्तु लवङ्ग, जावित्री, गिलावा, नागकेशर, और केशर ये पाँच प्रकार के फूल प्रासुक हैं धतः इनको छोड़कर सभी प्रकार के फूलों का भी प्रयोग नहीं करना चाहिये, वे अभक्ष्य हैं। हरी पत्तियों में जिनका शोधन अशक्य है ऐसी पत्तियों को भी नहीं खाना चाहिये, वे भो अभक्ष्य हैं। तरबूज भी अभक्ष्य पदार्थों में गर्भित है की हुकी है यही तिलने के बाद अन्तर्मुहूर्त से पहले, उसे खा सकते हैं उसके बाद उसमें उस जीव पैदा हो जाते हैं और वह अभक्ष्य हो जाता है । भिप्राय है कि अहिंसाण व्रत की रक्षा तथा अष्टमूल गुणों की विशुद्धि के लिये श्रावकों को भी भक्ष्य भक्ष्य का विचार करते हुए भोजन करना चाहिये। जिनके भक्षण से श्रनन्त जीवों का घात' होता है ऐसी वस्तुओं का सर्वथा त्याग करना चाहिए ||३५|| · दिग्ग्रतं च यथाशक्तिर्देशव्रतमनुत्तरम् । ये घरन्ति महाभव्यास्ते तरन्ति भवारयिम् ॥१३६॥ श्रन्वयार्थ - ( ये महाभव्याः ) जो निकट भव्य ( दिग्त्रत ) दिग्बत (च) और (यथाशक्तिः अनुत्तरं देशवृतं) यथाशक्ति श्रेष्ठ देवत्रत को ( धरन्ति ) धारण करते हैं (ते) वे ( भवाविम्) संसार रूपी समुद्र को ( तरन्ति ) पार कर जाते हैं । भावार्थ - अणुव्रतों की तरह दिव्रत, देशव्रतादि भी प्रयत्नपूर्वक पालनीय हैं। पुरु पार्थं सिद्ध पाय में श्राचार्य लिखते हैं 1 परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्तिशीनानि । व्रतपालनाय तस्मात् शीलान्यपि पालनीयानि ॥ जिस प्रकार परिधि ( बाउंडरी) नगर की रक्षा के लिये होती है उसी प्रकार ण व्रतों Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद] 1४३७ को सुरक्षा वा विशुद्धता के लिये परिधि के समान दिग्वत, देशनत और अनर्थदण्ड व्रत्त ये तीन दिग्द्रत हैं इनका पालन भी प्रयत्न साध्य है। जीवन पर्यन्त के लिये दनों दिशात्रों में प्राने जाने की मर्यादा कर लेना दिग्वत है । पुन: दिग्नत में की गई मर्यादा में भी यथाशक्ति गमनागमन का नियमित काल के लिये त्याग करना अर्थात उसमें भी यह नियम करना कि मैं इतने समय तक अमुक ग्राम, नगर, गली या मुहल्ल के बाहर नहीं जाऊँगा- यह देश व्रत है । दिग्वत पार देशव्रत धारो श्रावक के त्यक्त क्षेत्र संबंधी समस्त प्रकार की हिंसाओं का त्याग हो जाने स उपचार से महानतपना प्राप्त है क्योंकि अहिंसा की पवित्र भावना से उसका चित्त निर्मल है । इसी प्रकार बिना प्रयोजन पापास्रव की कारणभूत त्रियाओं का त्याग कर अनर्थदण्डवत है । जैसा कि आचार्य आगे बताते हैं ॥३॥ वृथा विराधना हेया पञ्चस्थायर केषु च । जीवाहारी तथा जोचो नैव पोष्यो बुधोत्तमः ॥ ३७॥ अन्वयार्थ-(पञ्चस्थावरकेषु च ) पञ्च स्थावरों की भी विथा) व्यर्थ में (विराधना हेया) विराधना नहीं करनी चाहिए (जीवाहारी जीवों) मांसाहारी जीव (बुधोत्तमैः) विवेकशील श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा (नैव पोष्यो) सर्वथा अपोषणीय हैं अर्थात इनका पोषण करने से हिंसा का ही पोषण होता है अत: यं अपालनीय है । कुत्ता, बिल्ली आदि हिंसफ जींचों को अपने घर में नहीं पालना चाहिये । भावार्थ-थावकों को निरन्तर अहिंसा की भावना को प्रधानभूत समझते हुए हर प्रकार के अनर्थ दण्ड का त्याग करना चाहिये । यद्यपि श्रावक मात्र संकल्पी हिंसा का त्यागी है वह त्रस जीवों की संकल्प पूर्वक हिंसा नहीं करता है और स्थाबर हिंसा का प्रत्यागी है । पर उसे व्यथं में स्थावर जीवों की हिंसा भी नहीं करनी चाहिये और आरम्भी हिंसा, उद्योगो हिंसा तथा बिरोधी हिपा को भी अल्प अल्पतर करने का प्रयास रखना चाहिये । आरम्भ, उद्योग आदि के द्वारा त्रस जीवों का भी घात हो जाता है अतः प्रत्येक कार्यों को समिति पूर्वक विवेक पूर्वक करना चाहिये जिससे बस जीवों की हिंसा नहीं होवे और बिना प्रयोजन हरी घाँस पर चलना, पत्तियों को तोड़ना, पानी ढोलना, पंखा चलाना तथा अग्नि व्यर्थ में जलाकर छोड़ देना इत्यादि कार्य नहीं करना चाहिये ये सभी अनर्थदण्ड हैं, विशेष पापास्रव के कारण हैं ॥३७॥ सामायिक व्रतं पुतं पालनीयं जिनोक्तिभिः । ने द्वित्रिसंध्यं स्वभावेन सर्वपापक्षयंकरम् ॥३८॥ । अष्टम्यां च चतुर्दश्यामुपवासो जगद्धितः । तथा श्रीशुक्लपञ्चम्यां वृतञ्च सुखराशिदं ।।३६॥ अन्वयार्थ-(जिनोक्तिभिः) जिनेन्द्र कथित (पूत) पवित्र (सामायिकं बत) सामायिक व्रत को (पालनीयं) पानना चाहिये (द्वित्रिसंध्यम्) प्रात: और सायंकाल दो बार प्रथचा Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४३८] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद प्रातः मध्याह्न और सायंकाल ऐसा त्रिकालवर्ती सामायिक (स्वभावेन) बाराक से (गर्वणा". क्षयङ्करम् ) सम्पूर्ण पापों का क्षय करने वाला है। (जगन्हितः) जगत के लियो हितकर (अष्टम्यां चतुर्दश्यां ) मष्टमी और चतुर्दशी के दिन किया गया (उपबासो) उपवास (तथा) तथा (श्री शुक्लपञ्चम्यां व्रतं) शुक्लपक्ष को पञ्चमी का व्रत (सुखराशिदं) सुखराशि को देने वाला है। मायार्थः- प्रती श्रावकों को नियमित रूप से प्रतिदिन सामायिक करनी चाहियो । सामायिक का स्वरूप श्री अमृचन्द्र स्वामी ने इस प्रकार बताया है - "रागद्वेषत्यान्निखिल द्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिक कार्यम् ।।" रागद्वेष रूप प्रवृत्ति का सर्वथा त्याग कर इष्ट अनिष्ट सभी पदार्थों में साम्य भाव रखना सामायिक है यही आत्मतत्त्व को प्राप्ति का बीज है मुख्य कारण है । सामायिक प्रतिमा का स्वरूप बताते हुए रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्री समन्तभद्रस्वामी लिखते हैं-- चतुरावतंत्रितयश्चतुः प्रणाम: स्थितो यथाजातः । सामायिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशद्धस्त्रिसंध्यमभिवन्दी ॥१३६ नं. श्लोक। चारों दिशाओं में तीन तीन पावत और एक एक प्रणाम करने वाला श्रावक यद्यपि संयम स्थान को नहीं पाता है फिर भी मूर्खा रहित होने से मुनि के समान वह जगासन अथवा पक्षासन लगाकर, मन, वचन, काय तानों को शुद्ध रयता हुया सुबह दोपहर और मनच्या तीनों समय सामायिक करने वाला सामाधिक प्रतिनाधारो है। चार शिक्षायतों में भी मामायिक नामक शिक्षा व्रत है जिसका लक्षण रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस प्रकार बनाया है आस मय मुक्तिमुक्त पञ्चाघानामशेष भाबेन । सर्वत्र च सामयिका: सामयिकं नाम शंसन्ति ।। सामयिक स्वरूप जोगणधर ग्रादि देव हैं उन्होंने मन, वचन. काय. कात. कारित ग्रीर अनुमोदना से सामायिक के लिये निश्चित समय तक पाँचो पापों के त्याग करने को सामायिक शिक्षाव्रत कहा है । सामायिक शिक्षा प्रत और सामायिक प्रतिमा में साहचर्य है ये एक दूसरे के पूरक हैं जिनेन्द्र प्रभु के द्वारा बताये गये उक्त सामायिक व्रत का यथाविधि पालन करना चाहिये । यह सामयिक समस्त पापों का क्षय करने वाला है । पुन: उस सामायिक के द्वारा डाले गये संस्कार को स्थिर सुरू करने के लिये प्रत्येक अष्टमो और प्रत्येक चतुर्दशी को उपवास भी अवश्य करना चाहिए । जगत् के प्राणियों के लिये सर्वप्रकार से हितकारी उपवास को प्रयत्न पूर्वक करना चाहिये । इन्द्रिय दमन और कयासों के शमन का कारण होने से उप- वास को हितकर कहा है। इसी प्रकार श्रेष्ठ सुखराशि को देने वाला शुल्कपक्ष की पञ्चमो का व्रत भी हमारे लिये सर्वप्रकार हितकर है। ये सभी व्रत आत्मविशुद्धि में साधक हैं ।३८, ६। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३६ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद] भोगोपभोगवस्तूनां श्रावकाचार चंचुभिः।। सदासंख्या प्रकर्तध्या परमानन्दवायिनी ।।४।। पात्र दानं सदा कार्य कार्यकोटिविधायकम् । येन जीवो भवेत् नित्यं सुखी चात्र परत्र च ।।४१॥ अन्वयार्थ ----(श्रावकाचार चंभिः ) श्रावकाचारनिष्ठ विवेकशील श्रावकों को (परमानन्ददायिनी) परमानन्द का देने वाला (भोगोपभोग वस्तूनां संख्या) भोगोपभोग की वस्तुओं का परिमाण रूप व्रत (सदा प्रकर्तव्या) सदा अर्थात् अवश्य करना चाहिये तथा कायकोटिनिया प्रकारको कार्यो काद्ध करने वाला (पात्रदानं) पात्रदान (सदा काय) सदा करने योग्य है अर्थात् करना चाहिये । (येन जीवो) जिससे जीव (अत्र परत्र च) इस लोक और परलोक में (नित्यं) सदा सुखी भवेत् । सुखी रहता है। भावार्थ -जो त्रस हिंसा से विरत और स्थावर जीवों की भी हिंसा से बचने के लिये निरन्तर प्रयत्नशोत्र हैं ऐसे विवेकशोल, श्रावकाचार में सावधान श्रावकों को भोगोपभोग की वस्तुओं का परिमारा भी अवश्य करना चाहिये यह भोगोपभोग परिमारण व्रत, सन्तोष भाव का जागृत करने वाला, परम ग्रानन्दकारी है प्रयत्न पूर्वक इसका पालन करना चाहिय । इसी प्रकार पान को दिया गया दान भी करोड़ों श्रष्ठ मधुर फल को देने वाला है हमारे जीवन को इस लोक में परलोक में भी सुखी बनाने वाला है। किन्तु पात्र किसे कहते हैं यह विषय विचारणीय है। मोक्ष के कारण रूप गण-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र इनका संयोग हो ऐसे अविरत सम्यग्दष्टि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती, धिरताविरत-देशविरत पंचमगुण स्थानवती और सकल विरत-छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज-ऐसे तीन प्रकार के पात्र कहे गये हैं। इस प्रकार पात्र का सामान्य लक्षण यह है कि जिस आत्मा में मोक्ष की कारणता उपस्थित हो अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र इन तीनों की प्रगटता जिस प्रात्मा में हो चुकी है अथवा केवल सम्यग्दर्शन ही प्रगट हो चुका हो वही आत्मा पात्र कहा जाता है। आहार दान, अभयदान, औषधदान और ज्ञानदान-ये चार प्रकार के दान हैं । पात्र को दिया गया दान, इह लोक और परलोक दोनों भवों में जीव को सुख देने वाला है। प्रतः श्रावकों को पात्र दान अवश्य करना चाहिये । कहा है-"नादाने किन्तु दाने हि सतां तुण्यन्ति मानसः" मत्पुरुषों को लेने में नहीं देने में प्रानन्द का अनुभव होता है, सन्तोष होता है । जो दान देकर हर्षित होता है वही श्रेष्ठ दाता है । पुनः दाता और पात्र के साथ देने योग्य सामग्नी भी उत्तम होनी चाहिये । प्राचार्य कहते हैं - "रागद्वेषा संयम मद दुःख भयादिकं न यत्कुरुते । द्रव्यं तदेव देयं सुतप: स्वाध्यायवृद्धिकरम् ।।१७० पुरुषा।। जो पदार्थ राग ऐष, असंयम, मद, दुःख, भय आदि को नहीं करता है तथा सुतप और स्वाध्याय की वृद्धि करने वाला हो, बही द्रव्य देने योग्य है । अर्थात् जो सयम का घात न करे ऐसा द्रव्य पात्र को देना चाहिए ।।४०, ४१॥ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660] [श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद पुण्यवभिरत्रोच्चः दातृसप्तगुणान्वितः । बदात्याहारदानं ये पात्रेभ्यो बहुभक्तितः ॥४२॥ ते भष्यास्सारसौख्यानि देवेन्द्रादि पदं तथा । संप्राप्य क्रमतो नित्यं प्राप्नुवन्ति सुखं परम् ।।४३॥ अन्वयार्थ---(अत्र) यहां (उच्चः नवभिः पुण्यः) श्रेष्ठ नवधाभक्ति पूर्वक (दातृसप्तगुणान्वितः यः) सात गुणां से सहित को बहभक्तित:) प्रांत भक्तिपूर्वक (पात्रेभ्यः) पात्र के लिये (पाहारदानं) आहार दान (ददाति) देते हैं (ते भव्या:) वे भत्र्यपुरुष (मार सौख्यानि) सारभूत उत्तम सुखों को (तथा) तथा (देवेन्द्रादि पर्द) देवेन्द्र आदि के पद को (संप्राप्य) प्राप्त कर (ऋमतो) क्रमशः (नित्यं परं सुस्त्रे) स्थाई मोक्ष सुख को (प्राप्नुवन्ति) प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ--सर्व प्रथम यहां दान देने की विधि बताते हुए प्राचार्य कहते हैं कि उत्तम पात्रों को नवधा भक्ति पूर्वक आहार देना चाहिये । उत्तम पात्र को पड़गाहन करना, उन्हें ऊंचा आसन देना, उनके पद प्रक्षालन करना, पूजा करना, प्रणाम करना, मन: शुद्धि रखना, बचन शुद्धि रखना, काय शुद्धि रखना और भोजन की शुद्धि रखना यही नवधा भक्ति है अथवा दान देने की विधि है । इस प्रकार विधिपूर्वक प्राहार दान करना ही श्रावक का मुख्य कर्तव्य है । मोक्षशास्त्र में कहा है-विधि द्रव्यदानृपात्र विशेषात् । तद्विशेष:-विधि, द्रव्य, दातृ, पात्र को विशेषता से दान में विशेषता पाती है । द्रव्य कैसा होना यह पूर्व श्लोक में बता चुके । अब दाता कैसा होना, यह बताते हुए आचार्य कहते हैं श्रेष्ठ दाता वही है जो सात गुणों से युक्त हो । दाता के सात गुण इस प्रकार हैं "ऐहिकफलानपेक्षा क्षांतिनिष्कपटतानसूयत्वम् । अविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः ।।पुरुषा १६६।। (१) इसलोक और परलोक सम्बन्धी फल की अपेक्षा नहीं करना अर्थात् दान देकर उसके फलस्वरूप मुझे लोक प्रतिष्ठा, यश, उत्तम इन्द्रादिका पद मिले इस प्रकार की वाञ्छा नहीं करना यह दाता का प्रथम गुण है। (२) पूर्ण क्षमा भाव होना किसी निमित्त से मुनियों का अन्तराय हो जाने से, किसी सामग्री की न्यूनता हो जाने से, अथवा बहुत लेने वाले हैं किस किस को हूँ इत्यादि प्रकार से क्रोध नहीं उत्पन्न होना चाहिए। (३) मायाचार नहीं होना चाहिये, किसी प्रकार की अशुद्धि रह जाने पर वचन से यह कहना कि हाँ, सब शुद्ध है, वाक्कपटता है । मन में कोई भाव हो उसे प्रकाश में दूसरे रूप से ही दिखा देना यह मन की कपटता है । मुख्यता से कपटवृत्ति मन में ही होती है । उसी का प्रयोग वचन वा काय द्वारा किया जाता है। माया एक शल्य है, यह दाता के गुणों का लोप Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद ] [४४१ करने वाली कषाय है। इसलिये सरल एवं शुद्धि-विकार रहित परिणाम रखना अति आवश्यक है। (४) ईर्ष्याभाव नहीं होना चाहिए। यथा-किसी दूसरे ने मुनिराज को आहर दान दिया और हम नहीं दे सके तो उसे देखकर उस देने वाले से ईर्ष्या करना कि इसके यहाँ क्यों आहार हो गया अथवा इसने तो केवल मांढ़ का पाहार दिया है मैं कल दूध आदि बहुमूल्य पदार्थों का दान दूंगा फिर इसकी अपेक्षा मुझे अधिक यश मिलेगा, इस प्रकार दूसरे दाता से ईर्ष्याभाव धारण करना असुया कहलाती है और कैसा भाव नहीं करना अनुसूया कहलाती है । जब निरपेक्ष शुद्धभाव से स्वपर कल्याण के लिये दान देने का उद्देश्य है तो दूसरे को देते हुए भी देखकर हर्षभाव धारण करना चाहिये। (५) किसी कारण के उपस्थित होने पर भी खेद नहीं करना किसी अन्तराय के हो जाने से मुनियों का यदि आहार न हो सके अथवा अपने यहाँ उनका आना ही न हो सके तो विषाद-खेद नहीं करना चाहिए । बिना कारण खेद करके पाप बन्ध करना मूर्खता है। (६) दान देकर हर्ष होना चाहिये--प्राज मेरे उत्तम पात्र का माहार हो गया है, मुझे अनेक गुणों का लाभ हो गया है। मेरे यहाँ आज उत्तम पात्र के चरण पधारे हैं, मेरा घर आज पवित्र हो चुका और मैं अपने को धन्यभाग्य समझता हूँ। इस रीति से हर्ष मानना धर्म की दृढ़ता एवं भक्ति का परिणाम है। (७) दान देने पर मान नहीं करना चाहिए, यह भाव हृदय में कभी नहीं लाना चाहिए कि मेरे यहाँ मनिराज का अथवा ऐलक महाराज का आहार दान हो गया है. दूसरे पड़ोसी के यहाँ नहीं हुआ है । इसलिये मैं ऊँचा हूँ, यह नीचा है । सरल एवं विनय भावों से रहना ही दाता का सद्गुण है । ये सात गुण दाता में रहने चाहिए, बिना इन गुरगों के दाता का महत्व नहीं है और न वह बिशेष पुण्य का लाभ करता है। सप्त गुणों से रहित जो भव्य पुरुष बहुत भक्ति पूर्वक आहार दान देते हैं वे देवेन्द्रादि के पद को तथा चक्रवर्ती आदि के सारभूत सुखों को सहज प्राप्त कर क्रम से निर्वाण सुख को भी प्राप्त करते हैं ॥४३॥ प्रतिग्रहोच्चस्संस्थानं पादक्षालनमर्चनम् । नतिश्चान्न त्रियोगेषु शुद्धया नवविधञ्च तत् ॥४४।। श्रद्धाभक्तिश्चतुष्टिश्च सद्विज्ञानमलुब्धकः । क्षमासत्वञ्च सप्तेति गुणाः दातु प्रकीर्तितः ॥४५।। अन्वयार्थ---(प्रतिग्रहोच्चस्संस्थानं) पड़गाहन करना उच्चस्थान देना (पादक्षालन) पद प्रक्षालन (अर्चनम् ) पूजा (नतिः) नमस्कार (च) और ( अन्न त्रियोगेषु शुद्धया) भोजन शुद्धि, त्रियोगद्धि-मन शूद्धि, बचनशुद्धि और कायशुद्धि रूप (नव विधञ्च सत्) नव प्रकार . की वह दानविधि है । (श्रद्धाभक्तिश्चतुष्टिश्च) श्रद्धा, भक्ति, और संतोष (सद्विज्ञानमलुब्धक:) Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद विवेक, निर्लोभता (क्षमासत्वञ्च) क्षमा और उदारता (दातुः) दाता के (सप्तेति गुणाः प्रकोर्तितः) ये सात गुण कहे गये हैं। भावार्थ-दान की विधि के नब ग्रावश्यक अङ्ग हैं । जिसे नवधाभक्ति कहते हैं । १. प्रतिग्रह -पड़गाहन, २. उच्चस्थान समर्पण, ३. पदप्रक्षालन, ४. पूजा, ५. नमस्कार ६. आहार शुद्धि, ७. मन शुद्धि ८. बचनशुद्धि ह. कायशुद्धि पुनः दाता के सात गुणों का नामोल्लेख करते हुए यहाँ आचार्य कहते हैं-१. श्रद्धा २. भक्ति ३. सन्तोष ४. सद्विज्ञान-विवेक, ५. निलोभता, ६. क्षमा ७. सत्व-उदारता ये सात गुणों से युक्त दाता ही श्रेष्ठ दाता है । दाता के उपर्युक्त सात गुण जिनागम में बताये गये हैं जिनका उल्लेख पहले कर चुके है । प्रत्येक का स्वरूपोल्लेख आचार्य प्रागे और भी करते हैं ।।४५।। पात्रं मे गृहमायातु तस्मै दानं दवाम्यहम् । इत्याशयो भवेदत्र श्रद्धावान् स प्रकीर्तितः ॥४६॥ अन्वयार्थ----(मे गृहं) मेरे धर को (पानं पायातु) पात्र पावें, अथवा मुनिराज पावें (तस्मै) उनके लिये (अहम् दानं ददामि) में दान देता हूँ (इत्याशयो) इस प्रकार का भावपरिणाम (भवेत्) होना चाहिये (अत्र) यहाँ (स) उक्त प्रकार के परिणाम को धारण करने वाला वह दाता (श्रद्धावान्) श्रद्धालु (प्रकीर्तितः) कहा गया है। भावार्य--मेरे घर अधिक से अधिक पाने सर्थात उत्तम, मध्यम, जघन्य सभी प्रकार के पात्र आहारार्थ पधारें तो मैं अपने को धन्य समझूगा । इस प्रकार की भावना जिनके पाई जावें वे श्रद्धालु-श्रद्धावान् हैं ऐसा जिनागम में कहा गया है ।।४६।। सम्पूर्णाहार-पर्यन्तं भक्ति कुर्वन गुरोस्सुधीः । पार्वे संतिष्ठते योऽसौ भक्तिनान् श्रावकोत्तमः ॥४७॥ अन्ययाधं--(सम्पूर्णाहार पर्यन्तं) आहार पूरा होने तक (गुरो:) गुरु की (भषितं कुर्वन्) भक्ति करता हुआ अर्थात् आहार देने में पूरी सावधानी रखता हुआ (यो) जो (पार्श्व संतिष्ठते) यास में सम्यक् प्रकार ठहरता है--स्थिर रहता है (असौ) वह (श्रावकोत्तम) श्रेष्ठ श्रावक (भक्तिमान् ) भक्तिमान है । मावार्थ -जब तक मुनिराज का प्राहार पूरा नहीं होता है तब तक निरन्तर सावधानी और भक्तिपूर्वक प्राहार देता हुना जो श्रावक पास में सम्यक् प्रकार ठहरता है, निरन्तर गुरु को भक्ति करता रहे, वह श्रावकोत्तम है, भक्तिमान् श्रेष्ठ दाता है ।।४७।। समायाते महापात्रे संतुष्टो यो भवेत्तराम् । संप्राप्ते या निधाने च दाता तुष्टिवान् मतः ।।४।। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४३ श्रीपाल चरित्र प्रष्टम परिच्छेद] अन्वयार्ग---(सं प्राप्ते निघाने) धन वैभव के प्राप्त होने पर (वा) जैसे बहुत प्रानन्द होता है उसी प्रकार (महापात्र समायाते) श्रेष्ठ उत्तम पात्र के शुभ प्रागमन होने पर (यो दाता) जो दाता (तराम संतुष्टो) बहुत सन्तुष्ट (भवेत्) होता है (वह) (तुष्टिवान् मतः) संतोष गुण से युक्त तुष्टिवान् दाता है । भावार्थ--जैसे जीव धन के मिलने पर बहुत सन्तोष अर्थात् सुख का अनुभव करता है उसी प्रकार जो दाता, श्रेष्ठ तपस्वीजनों के अर्थात् उत्तम महापात्र के शुभागमन होने पर बहुत सन्तुष्ट वा मानन्दित होता है प्राचार्य कहते हैं कि ऐसे दाता को ही संतोष गुण का धारी सन्तुष्टिवान् कहा गया है ।।४।। अभिप्रायं सुपात्रस्य कालदेशवयोगुणम् । जानाति यो दयायुक्तस्स दाता ज्ञानवान् भवेत् ॥४६॥ प्रासादा --- (काल देपाव्योगणम् काल, देश, वय-आयू तथा गुण को तथा (सुपात्रस्य अभिप्राय) सूपात्र के अभिप्राय को (दयायुक्तः यो दाता) दयाशील जो दाता (जानाति) जानता है (स) वह (ज्ञानवान् भवेत्) ज्ञानवान् होता है। भावार्थ--बही दाता श्रेष्ठ और ज्ञानवान् कहा गया है जो काल, देश आयु तथा पात्र की प्रकृति और उसके अभिप्राय को जानता है तथा दयावान है । जीव विराधना से जो भयभीत रहता है वह दाता ही समिति पूर्वक गृह कार्यों को करता हुआ शुद्ध प्राहार तैयार कर सकता है अत: दाता में दयागुण भी होना ही चाहिये । दयाशील जो दाता द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव का विचार करते हुए योग्य आहार, पात्र के लिये देता है यही ज्ञानवान विवेकवान् श्रेष्ठ दाता है। ऐसा आगम में कहा गया है। कार्यराज्यादिकं मेऽयं करिष्यति महामुनिः । धाञ्छति दानफेनैव यस्य यस्मादलुब्धकः ॥५०॥ अन्वयार्थ-(अयम् महामुनिः) ये महामुनि (मे राज्यादिकं कार्य) मेरे राज्यादि कार्य को (करिष्यति ) कर देंगे (इति) इस प्रकार (दान के) दान में (यस्य वाञ्छा न एव) जिसके निश्चय से वाञ्छा नहीं है बह (यस्मात्) लोभ न होने से (अलुब्धकः) अलुब्धक - निर्लोभी है। भावार्थ---जो दाता अपने राज्यादि कार्यों को सिद्धि के लिये, अथवा धन सम्पत्ति की इच्छा से अथवा सांसारिक सूत्र की बाच्छा रखकर मनिराज को आहार देता है वह लोभी है। जिस में ऐसी कोई वाञ्छा नहीं होती है वह अलुब्धक निर्लोभी दाता ही श्रेष्ठ दाता है ऐसा जिनागम में बताया है ।।५०।। , सान कालेकृते दोषे सुताकान्तादिभिश्च यः । नैव दुप्यति पूतात्मा क्षमावान् स बुधर्मतः ॥५१॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद अन्वयार्थ - ( सुताकान्वादिभिः ) पुत्रो, पत्नी यादि के द्वारा ( दानकाले ) दान देते समय ( दोषेकृते) दोष हो जाने पर ( यः पूतात्मा ) जो पवित्रात्मा (नैवः कुप्यति ) निश्चय से क्रोध नहीं करता है ( स क्षमावान् ) वह क्षमावान् है ( बुधः मतः ) गणधरादि बुधजनों का ऐसा कथन है । भावार्थ-पुत्री, पत्नी आदि के द्वारा दान देते समय दोष हो जाने पर जो पवित्रात्मा निश्चय से क्रोध नहीं करता है वही क्षमावान् है ऐसा बुध जनों अर्थात् गणधरादि देवों ने कहा है ||२१|| साधिके च व्यये जाते, यो गम्भीरस्समुद्रवत् । स दाता सत्त्ववान् सूरि, सत्तमं परिकीर्तितः ॥५२॥ अन्वयार्थ --- (च) और ( साधिके व्ययेजाते ) अधिक खर्च हो जाने पर ( यो ) जो ( समुद्रवत् ) समुद्र के समान ( गम्भीर :) गम्भीर रहता है ( स दाता) वह दाता ( सत्त्ववान् ) उदार चित्तवाला है ऐसा (सत्तमं ) श्रेष्ठ गणधरादि देवों के द्वारा (परिकीर्तितः) कहा गया है । भावार्थ ---- किसी कारणवश अधिक खर्च हो जाने पर भी जो दाता व खिन्न या कति नहीं होता है, समुद्र के समान सदा गम्भीर रहता है वह दाता उदारचित्त वाला है ऐसा श्रष्ठ गणधरादि देवों ने कहा है ||१२|| एवं त्रिविधपात्रेभ्यो अन्नदानं प्रकुर्वते । ते भव्या सुख संदोहं संलभन्ते पदे पदे ॥ ५३ ॥ अन्वयार्थ - - ( एवं ) इस प्रकार (त्रिविध पात्रेभ्यो ) तीन प्रकार के पात्रों के लिये जो ( अन्नदानं प्रकुर्वते ) अन्न दान करते हैं (ते भव्याः ) वे भव्यपुरुष ( सुखसंदोह ) सुख समूह को अथवा यथेष्ट सुखों को ( पदे पदे ) पद पद पर (संलभन्ते ) सहज प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ -- सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित उत्तम, मध्यम जघन्य तीन प्रकार के पात्रों को जो आहार दान करते हैं वे भव्य पुरुष यथेष्ट सुखों को पद पद पर अर्थात् सर्वत्र सहज प्राप्त कर लेते हैं ||५३॥ शुद्ध रत्नत्रयोपेतो यो मुनिस्तु दयापरः । उत्तमं संभवेत्पात्रं यानपात्रोपमं शुभम् ||५४ ॥ अन्वयार्थ - ( यो शुद्धरत्नत्रयोपेतो ) जो पवित्र रत्नत्रय से सहित ( दयापरः) उत्तम दया भाव सहित (यानपात्रोपमं) भव्य जीवों को संसार समुद्र से पार करने के लिये जहाज के समान (शुभम् ) परमहितकारी हैं वे ( उत्तमं पार्थ) उत्तम पात्र हैं ऐसा ( संभवेत् ) समझना चाहिये । भावार्थ - जो परम दयावान् तथा पवित्र सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद ] [४४५ से सहित हैं तथा भव्य जीवों को संसार समुद्र से पार करने के लिये जहाज के समान हैं वे ही उत्तम पात्र हैं ऐसा समझना चाहिये ।।५४।। तथा सुश्रावकः पात्रं मध्यमं श्राविकापि च । सम्यक्त्व व्रत संयुक्तो जैनधर्मप्रपालकः ॥५५॥ अन्वयार्थ -(सम्यक्ब) सम्यग्दर्शन (व्रत) पांच अण प्रत, तीन गुणद्रत, और चार शिक्षाव्रतों से (संयुक्तो) सहित है ऐसा (सुश्रावकः श्राविकापि च) श्रेष्ठ श्रावक और श्राविका भी (जैनधर्मप्रपालकः)जैन धर्म के प्रपालक (मध्यम पात्र) मध्यम पात्र है। भावार्थ-जैनधर्म का पालन करने वाले व्यक्ति दो प्रकार के हैं (१) श्रावक (२) मुनि-बाह्याभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी निर्ग्रन्थ साधु । अत: धर्म भी दो प्रकार का है। (१) गृहस्थधर्म (२) मुनिधर्म । गृहस्थ धर्म का यथाविधि उत्कृष्ट प्रकार पालन करने वाले पांच प्रण व्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत इस तरह बारह व्रतों से संयुक्त श्रावक अथवा श्राविका भी मध्यम पात्र हैं । जो सम्यग्दर्शन से सहित हैं वे ही पात्र कहे जाते हैं सम्यग्दर्शन के अभाव में अन्य गुणों का सद्भाव होने पर भी पात्रता नहीं रह सकती है । सभ्यम्दृष्टि वृत्ती श्रावक मध्यम पात्र है ऐसा प्रस्तुत श्लोक में बताया है ।।५५।। सम्यग्दृष्टि जिनेन्द्राणां पादपद्मद्वयेरतः। सत्पात्रं च जघन्यं स्याद्भाविमुक्तिवधूवरः ॥५६।। अन्वयार्थ-(च) और (जिनेन्द्राणां पादपद्मद्वयेरतः) जिनेन्द्र प्रभु के चरण कमल युगल में अनुराग एवं भक्ति रखने वाला (सम्यग्दृष्टि:) सम्यग्दृष्टि अन्नती श्रावक (भाविमुक्ति वैधवरः) भविष्य में मुक्ति रूपी वधू का वरण करने वाला (जघन्यं सत्पात्र) जघन्य सत्पात्र है। भावार्थ-जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों में अनुराग एवं भक्ति रखने वाला सम्यग्दृष्टि अवती श्रावक भविष्य में मुक्ति रूपी वधू का वरण करने वाला जघन्य सत्पात्र उक्तं च उत्कृष्टपात्रमनगारमण वृताढ्यम् । मध्यम, व्रतेन रहितं सुदृशंजघन्यम् । निदर्शनं व्रत निकाय युतं कुपात्रम । युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं हि विद्धि ॥५७।। अन्वयार्थ - (अनगारं उत्कृष्ट पात्र) अनगार-निर्ग्रन्थ साधु उत्कृष्ट पात्र है (अण . व्रतात्यम मध्यम) अण -देशव्रती श्रावक मध्यम पात्र है। (अतेन रहितं सुशां) व्रत रहित अर्थात् ३ गुण ४ शिक्षाबत रूप ७ शीलवतों से रहित सम्यग्दृष्टि श्रावक जघन्यपात्र है । (निर्द Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६] [ोपाल चरित्र अष्टम परिषद र्शनं) सम्यग्दर्शन रहित व्रतनिकाय युत) बतों से सहिन जो पात्र वह कुपात्र है। (युग्योज्झितं) सम्यग्दर्शन रहित और वनों से भी रहित (नरं) व्यक्ति को (अपात्रं विद्धि) अपात्र जानो (इदं) ऐसा जिनागम में बताया है। मावार्थ--वाह्याभ्यंतर परिग्रह के त्यागी निर्ग्रन्थ साधु उत्कृष्ट पात्र हैं । देशव्रती श्रावक मध्यम पात्र हैं। व्रत रहित अर्थात तीन गणपत और चार शिक्षाक्तों से रहित सम्यग्दृष्टि पुरुष का है ज सम्यग्दर्शन से भी रहिस और ब्रतों से भी रहित व्यक्ति अपात्र है ऐसा निश्चय से जानो अर्थात् जिनागम में उक्त प्रकार उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्र तथा कुपात्र और अपात्र का स्वरूप बताया गया है ।।५७।। इति त्रिविधपात्रेभ्यो यथाहारस्तथौषधं । बानं भव्यः प्रकर्त्तव्यं स्वर्गमोक्ष-सुखाथिभिः ॥५८।। जिनोक्त शास्त्रदानेन पात्रेभ्यः परमावरात । संभवेत् केवलज्ञानी सुभव्यः क्रमतो ध्र यम् ॥५६॥ अन्वयार्थ-(इति) इस प्रकार (त्रिविधपात्रेभ्यो) तीन प्रकार के पात्रों को (यथा. हार:) यथाविधि योग्य आहार (तथा औषधं) तथा औषध (दान) दान (स्वर्गमोक्षसुखाथिभिः) स्वर्ग मोक्ष सुख की इच्छा करने वाले (भव्यः) भव्यजनों के द्वारा (प्रकर्तव्यम्) प्रकर्षण कर्तव्य विशेष रूप से करना ही चाहिये (जिनोक्त शास्त्र जिनेन्द्रप्रणीत शास्त्रका (परमादरात) अति विनय पूर्वक (पात्रेभ्यः दानात्) पात्र के लिये दान करने से (ध्र वम ) निश्चय से (सुभव्यः) निकट भव्य जीव (क्रमतो) क्रम से (केवलज्ञानी) केवलज्ञानो (संभवेत्) हो जाते है अथवा होने को सुयोग्यता रखते हैं। भावार्थ--उत्तम, मध्यम और अधन्य तीन प्रकार के पात्रों को यथाविधि योग्य आहार, प्रकृति अनुसार शुद्ध प्राहार तथा औषध का दान करने से क्रमशः श्रेष्ठ स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति होती है अतः स्वर्ग मोक्ष सुख की इच्छा करने वाले भव्य जीवों को प्राहारदान औषध दान प्रादि अवश्य करना चाहिये । अनेक धर्मात्मक वस्तू का, अनेकान्त सिद्धा स्यादवाद के बल से यथार्थ प्रतिपादन करने वाला जो जिनागम है उसका परमादर पूर्वक पात्र के लिये देना ज्ञान दान है । एकान्त का पोषण करने वाले अन्य ग्रन्थ वा साहित्यों का प्रकाशन वितरणादि ज्ञानदान नहीं हो सकता है क्योंकि वैसे शास्त्र सम्यग्ज्ञान के कारण नहीं है उनसे मिथ्यात्व का पोषण होता है । जिनमें पूर्वापर विरोध न हो ऐसा जिनप्रणीत आगम ही सच्चा पागम है और उसको पात्र के लिये देना ज्ञान दान है। ज्ञान दानादि का फल बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि शानदान करने से श्रेष्ट भव्य पुरुष निश्चय से क्रमश: अल्पकाल में ही केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं जो परम अभ्युदय का प्रतीक है। कहा भी है ।।५८, ५६।। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र मष्टम परिच्छेद] [४४७ र "ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्व्याधिर्भेषजाद् भवेत् । 3 अन्नदानात्सुखो नित्यं निर्भयोऽभय दानतः॥६०॥ अन्वयार्थ--(ज्ञान दानेन) ज्ञानदान से (ज्ञानवान्) ज्ञानी (भैषजाद्) औषध दान से (निाधिः) निरोग (अन्नदानात्) अन्नदान से (नित्यं सुखी) सदा सुखी (अभयदानतः) अभयदान से (निर्भयो) निर्भय (भवेत्) होता है । भवार्थ- जीव ज्ञान दान से ज्ञानी और औषधदान से निरोग होता है तथा अन्नदान से सदा सुखी रहता है तथा अभयदान से-जोबों के रक्षण से निर्भय बनता है । यह पात्र दान का फल है ।।६०11 अभयाख्यं सदा देयं पात्रेभ्यो दानमुत्तमम् । अन्यत्राऽपि यथायोग्यं भयशोक विवर्जनम् ॥६॥ अन्वयार्थ- (अभयाख्य) अभयदान अर्थात् जीवों का प्राण का रक्षण करना (दानमुत्तमम्) श्रेष्ठ दान है (पात्रेभ्यो) पात्र के लिये (सदा) सदा (देयम् ) देने योग्य है (अन्यवाऽपि) पात्र के अतिरिक्त अन्य जीवों के भी (भयशोक विवर्जनम) भय शाक का निवारण (यथायोग्य) यथायोग्य करना चाहिये। __ भावार्थ --रत्नत्रय से अथवा मात्र सम्यग्दर्शन से युक्त व्यक्ति पात्र है उसके जीवन का रक्षण करना अभय दान है । यह अभयदान दयाप्रधान होने से अहिंसा का प्रतीक होने से श्रेष्ठ है। पात्र से अतिरिक्त अर्थात सम्यग्दर्शन से रहित अन्य जीवों का रक्षण उनके भ प्रादि का निवारण भी यथायोग्य करना चाहिये । एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीवों के द्रव्यप्राण और भावप्राणों का रक्षण करना भी अभयदान है ।।६१।। तथा राजन् महाभव्यः प्रासादः श्रीजिनेशिनाम । ध्वजादिभिर्महाशोभाशतः कार्यों जगद्धितः ॥६२॥ प्रन्ययार्य - (तथा ) नथा (राजन् ) हे राजन् (महाभव्यैः) महाभव्य पुरुषों के द्वारा (जगद्धित:) समस्त जगत का हित करने वाले (श्रीजिने शिनां) श्री जिनेन्द्र प्रभु के (प्रासादः) महल-जिनभवन (ध्वजादिभि: महाशोभा गतैः) महाशोभा को करने वाली सैकड़ों ध्वजा आदि बस्तुओं से (कृतः) अलंकृत किये जावें । भावार्थ --आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान और औषधदान के साथ-साथ भव्य पुरुष सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पायतन स्वरूप जो जिन भवन-जिनालय हैं उन्हें भी प्रलंकृत करें । द्वार पर तोरण-वन्दनवार लगावें । अष्ट मंगलद्रव्य जिनमंदिर में रख - . त्रिलोकसार में भी अष्टमङ्गल द्रव्यों का समुल्लेख है Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद मियार कलशदप्पण वियरणधय चामरादवत्तमहा | व मङ्गलाणि यसियाणिपत्तेयम् ॥ अर्थ-भृंगार ( झारी), कलश, दर्पण, व्यजन (पंखा ), ध्वजा, चमर, छत्र सुप्रतिष्ठ ( स्वस्तिक या साथिया ) ये अष्टमङ्गल द्रव्य हैं । इसी प्रकार शिक्षामा भी चढ़ानी चाहिए। मंदिर के शिखर पर ध्वजा अवश्य चढ़ानी चाहिये। कहा भी है "प्रासादे ध्वज निर्मुक्ते पूजा होम जपादिकम् । सर्व विलुप्यते यस्मात्तस्मात्कार्यो ध्वजच्छ्रयः ॥ जिस मन्दिर में शिखर पर ध्वजा नहीं है उस ध्वज रहित मन्दिर में की गई पूजा, प्रतिष्ठा, होम जपादि सभी व्यर्थ जाते हैं इसलिये ध्वजा अवश्य चढ़ानी चाहिए । वसुनन्दी श्रावकाचार में शिखर पर पताका लगाने का फल बताते हुए आचार्य लिखते हैं- "विजय पडा एहि परो संगाममुहेसु बिजइओ होइ । छक्खण्डविजयणाहो पिडिवक्खो जसस्सीय । " अर्थ --- जिन मन्दिर में विजयपताकाओं को देने से मनुष्य संग्राम के मध्य विजयी होता है तथा षट्खण्डरूप भारतवर्ष का निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता है । पुनः छत्र और चमर चढ़ाने का फल बताते हुए आचार्य कहते हैं कि - छत्ते एयछत्तं भुञ्जः पुहवी सबत्तपरिहोणो । चामरदारणेण तहा विज्जिज्जइ चमरणिवहेहिं || अर्थ – छत्र प्रदान करने से मनुष्य शत्रु रहित होकर पृथ्वी को एक छत्र भोगता है तथा चमरों के दान से चमरों के समूहों के द्वारा परिविजीत किया जाता है । अर्थात उसके ऊपर चमर ढोरे जाते हैं । इसी प्रकार सिहासन चढ़ाने से तीन लोक का प्रभुत्व प्राप्त करने की क्षमता प्राप्त होती है । ये सभी उपकरण वीतराग प्रभु के जिनालय में अवश्य चढ़ावें, इनसे वीतरागता का प्रभाव अथवा जिनालय में सरागता का प्रवेश नहीं होता है । जिनालय समवशरण का प्रतीक है । जब समवशरण में ये सभी वस्तुएं रहती हैं तो जिनमन्दिर में इनको रखना आगमानुकूल है । वस्तुतः विभूतियों के बीच भी विरक्त रहना ऐसी शिक्षा देने के लिये या उत्कृष्ट वैराग्य को जगाने के लिये ही समवशरण को इन्द्र ने अनेक प्रकार से सुसज्जित किया था। पुनः जिनालय यदि सुन्दर सुहावना आकर्षक होगा तो अधिक लोग मन्दिर में आकर बैठेंगे और अधिक लोगों को बीतराग प्रभु के दर्शन का लाभ मिल सकेगा अतः जिनालय को अलंकृत करना ही चाहिये । यह सम्यग्दर्शन के प्रभावना अङ्ग को पुष्ट करने वाला है अतः श्रात्मगुणों की सपुष्टि के लिये भी आवश्यक है । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र भ्रष्टम परिच्छेद ] रत्नस्वर्णमयोश्चापि प्रतिमाः पापनाशनाः । ये कारयन्ति सद्भव्याः शास्त्रोक्त विधिना शुभाः ।। ६३ ।। पञ्चकल्याणकोपेताः पवित्राः भुवनत्रये । ते सम्यग्दृष्टयो लोके लभन्ते परमं सुखम् ॥६४॥ [ rre अन्वयार्थ - (ये सद्भव्याः ) जो उत्तम भव्यपुरुष ( शास्त्रोक्त विधिना ) शास्त्रोक्त विधि से (शुभाः) सुन्दर, मनोज्ञ ( पापनाशनाः) पाप नाशक ( रत्नस्वणमयी: प्रतिमा: चापि ) रत्नमयी और सुवर्णमयी जिनप्रतिमाओं को भी ( कारयन्ति) प्रतिष्ठित करते हैं, विराजमान करते हैं (ते) वे ( सम्यग्दृष्टयो । सम्यग्दृष्टि पुरुष ( लोके) संसार में (भुवनत्रये परमं सुखं ) तीन लोक में जो सर्वोत्तम मोक्षसुख है उसको ( लभन्ते ) प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ - जो भव्य पुरुष जिनालय में शास्त्रोक्त विधि से रत्नमयी, सुवर्णमयी अथवा श्रेष्ठ धातुओं से बनी हुई उत्तम पाषाण से बनी हुई जिन प्रतिमाओं की पञ्चकल्याण प्रतिष्ठा कराकर मन्दिर में विराजमान करता है वह भव्य पुण्यशाली जीव, तीन लोक में सर्वोत्तम जो मोक्ष सुख है उसको शीघ्र प्राप्त कर लेता है ।। ६३, ६४ ।। श्रीमज्जिनेन्द्राणां महास्नपनमुत्तमम् । पातं प्रकुर्वन्ति स्नाप्यन्ते सुरैरपि ॥ ६५ ॥ ये च श्रीमज्जिनेन्द्राणां पूजां पाप प्रणाशिनीम् । प्रकुर्वन्ति तदा भव्या जलार्धस्सार वस्तुभिः ||६६॥ संस्तुति च तथा जाप्यं सर्वसम्पद् विधायकम् । ते च भव्या जगत्सारं धनं धान्यं सुसम्पदम् ॥६७॥ पुत्र मित्र कलादि सन्तानं शर्मदायकम् । इन्द्रादिपदमासाद्य लभन्ते मुक्तिजं सुखम् ॥ ६६ ॥ अन्वयार्थ – ( ये ) जो ( श्रीमज्जिनेन्द्राणां ) श्री जिनेन्द्र प्रभु का ( उत्तमम् ) श्रेष्ठ अर्थात विधिवत् (पञ्चामृतं महास्नपनं ) पञ्चामृत अभिषेक ( प्रकुर्वन्ति ) करते हैं (ते ) वे (सुरैरपि ) देवों के द्वारा भी ( स्नाप्यन्ते) प्रभिषिक्त होते हैं । (च) और ( ये ) जो ( भव्याः ) भव्य पुरुष (जला : सारवस्तुभिः) जलादि सार भूत वस्तुओं से (पापप्रणाशिनी) पारनाशनीपाप का समूल नाशकर देने वाली (श्रीमज्जिनेन्द्राणां ) श्री जिनेन्द्र प्रभु की (पूजां प्रकुर्वन्ति ) पूजा करते हैं (तथा) तथा ( सर्वसम्पद् विधायकम) सम्पूर्ण सम्पत्तियों को सहज प्रदान करने बाली (संस्तुति) जिप को (प्रकुर्वन्ति) करते हैं (ते भव्याः ) वे भव्य पुरुष (जगत्सार) जगत की सारभूत ( सुसम्पदं ) मुसम्पत्ति उत्तम सम्पत्ति को ( धनं धान्यं) धन धान्य को ( शर्मदायक) सुखदायक (पुत्र मित्रकलत्रादि सन्तानं ) पुत्र, मित्र, पत्नी, सन्तान Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ थोपाल घरित्र अष्टम परिच्छेद आदि को (इन्द्रपदं च असाय) और इन्द्र के पद को प्राप्त कर (मुक्तिजं सुखं) मोक्ष संबंधी शाश्वत सुख को (लभन्ते) प्राप्त कर लेता है। भावार्थ-श्री जिनेन्द्र प्रभु के पञ्चामृत अभिषेक, पूजा, स्तवन, जप आदि करने से जोव उत्तमोत्तम सुखों को अनायास प्राप्त कर लेता है इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए यहाँ आचार्य लिखते हैं कि जो जिनेन्द्र प्रभु का पञ्चामत अभिषेक करते हैं वे देवों के द्वारा स्वयं अभिषिक्त होते हैं अर्थात् कालान्तर में वह स्वयं भी तीर्थकर हो सकता है और इन्द्रादि देवों के द्वारा सुमेरु पर्वत पर अभिषिक्त किया जाता है। जिनेन्द्र प्रभु की पूजा जन्म जन्मातरों के पाप समूह को नष्ट करने वाली है उस जिन पूजा के फलस्वरूप लौकिक सम्पदायें भी उसे पुण्य से सहज प्राप्त हो जाती हैं पुण्य से ही चक्रवर्ती की सम्पदा को तथा सुखदायक पुत्र, मित्र, कलत्र आदि को भी प्राप्त करता है इस प्रकार जिनभक्ति के प्रभाव से भव्यपुरुष इन्द्रादि के पद का प्राप्त कर क्रमशः शाश्वत मोक्ष सुख को भी पा लेते हैं ।।६५ से ६८॥ अन्से भव्यः प्रकर्तव्या धोरस्सल्लेखना विधिः । सर्वकर्मक्षयंकरा दाता स्वर्गापवर्गयोः ॥६६॥ तथैकादश भो भव्य ! भूपते प्रतिमाश्शुभाः। श्रावकानां भवन्स्येवं श्रृण त्वं तास्समुच्यते ।।७।। अन्वयार्थ-(भव्यः) भव्यपुरुषों को (धोरं:) धैर्यशाली व्यक्तियों को (सर्बकर्मक्षयं करा) समस्त कर्मो का क्षय करने वाली (स्वर्गापवर्गयो: दाता) स्वर्ग और मोक्ष को देने वाली (सल्लेखना विधिः प्रकतंत्र्या) विधिपूर्वक सल्लेखना करनी चाहिए (तथा) तथा (भो भव्य !) हे भव्य पुरुष! (भूाते ! ) हे राजन् (श्रावकानां) श्रावकों की (शुभा:) श्रेयकारो (एकादश प्रतिमा: समुच्यते) ग्यारह प्रतिमा रूप व्रतों को कहते हैं (ताः) उन्हें (त्वं शृण ) तुम सुनो। भावार्थ---अन्त में धीर बीर उन भव्यपुरुषों को समस्त कर्मों का क्षय करने वाली, स्वर्ग और मोक्ष सुख को देने वाली सल्लेखनारिधि का प्रयत्न पूर्वक पालन करना चाहिये अर्थात् सल्लेखना पूर्वक शरीर का परित्याग करना चाहिये । अले प्रकार काय और कषाय के कारणों को घिसना, कम करना सल्लेखना है अथवा रागद्वेष विभाव परिणाम जो संसार वर्धक हैं उन्हें कम करना एवं शरीर, बन्धु बान्धव वा समस्त परिग्रह से ममत्व भाव हटाना सल्लेखना है । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में सल्लेखना का स्वरूप इस प्रकार बदाया है-- "इयमेव समर्था धर्मस्व मे मया समं नेतुम । सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ।।१७।।पु.।। अर्थात् यह सल्लेखना काय के साथ कपायों को कृश करना ही मेरे धर्म रूपी द्रव्य को भवान्तर में मेरे साथ ले जाने में समर्थ है । इस प्रकार निरन्तर भक्तिपूर्वक मरणकाल में Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद ] [ ४५ १ सल्लेखना का चिन्तवन करना चाहिये । किन्तु उस सल्लेखना की प्राप्ति के लिये निरतिचार व्रतों का पालन आवश्यक है | श्रावक के ११ प्रतिमा रूप व्रत होते हैं वे भी स्वर्ग सुख को और क्रमशः श्रतीन्द्रिय मोक्ष सुख को देने में समर्थ हैं अतः ग्यारह प्रतिमा रूप व्रतों को मैं अर्थात् सकल कीर्ति आचार्य जिनवचनानुसार कहता हूँ, हे भव्य पुरुष ! हे राजन् ! तुम ध्यान पूर्वक सुनो ।।६६, ७०।। दर्शन प्रतिमापूर्वा द्वितीया व्रत लक्षणा । सामायिकाख्यथा प्रोक्ता तृतीयामुनिसत्तमः ॥७१॥ चतुर्थप्रोषधारया च सचित्ताख्या च पञ्चमी । रात्रिभुक्ति परित्यागात् षष्ठी च प्रतिमा भवेत् ॥ ७२ ॥ सप्तमी ब्रह्मचर्याख्या प्रारम्भत्यागतोऽष्टमी । परिग्रह परिणामी महा तुमच्या या प्रतिमा दशमी शुभा । नोद्दिष्ट भ्रामरी चैकादशी प्रोक्ता सुधोत्तमः ॥७४॥ अन्वयार्थ --- (पूर्वा) पहली ( दर्शनप्रतिमा ) दर्शन प्रतिमा है ( द्वितीया ) दूसरी ( व्रत लक्षणा ) व्रत प्रतिमा है (तृतीया) तीसरी ( मुनिसत्तमः) श्रेष्ठ मुनिजनों के द्वारा ( सामायिकास्यथा प्रोक्ता ) सामायिक नामक प्रतिमा कही गई है ( च चतुर्थ) और चौथी (प्रोषधाख्या) प्रोषध नामक प्रतिमा है (पञ्चमी) पांचवी ( सचित्ताख्या) सचित त्याग प्रतिमा है ( च षष्ठी) और छठी प्रतिमा (रात्रि भुक्तिपरित्यागात् ) रात्रि भुक्ति परित्याग की अपेक्षा से है । ( सप्तमी ) सातवी प्रतिमा (ब्रह्मचर्याख्या) ब्रह्मचर्य नामक प्रतिमा है (अष्टमी आरम्भत्यागतो) प्रारम्भ परित्याग की अपेक्षा से श्रावी प्रतिमा है । ( नवमी ) नवमी ( परिग्रह परित्यागा) परिग्रह परित्याग नामक ( प्रतिमा मता) प्रतिमा मानी गई है ( दशमी) दशमी (शुभा ) श्रेयकारी ( नानुमत्याख्या) अनुमति त्याग नामक (प्रतिमा) प्रतिमा है । (च) और ( एकादशी ) ग्यारहवी प्रतिमा (नोहिष्ट भ्रामरी) उद्दिष्ट त्याग कर भ्रामरीवृत्ति से शाहार यदि लेना है ऐसा (सुघोत्तमैः प्रोक्ता ) श्रेष्ठ विद्वानों ने कहा है । भावार्थ - यहाँ प्राचार्य ने क्रम से ११ प्रतिमानों के नाम बताये हैं-- (१) दर्शन प्रतिमा ( २ ) व्रतप्रतिमा ( ३ ) सामायिक प्रतिमा ( ४ ) प्रोषध प्रतिमा ( ५ ) सचित्तत्याग प्रतिमा ( ६ ) रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा ( ७ ) ब्रह्मचर्यं प्रतिमा (८) श्रारम्भ त्याग प्रतिमा (६) परिग्रह त्याग प्रतिमा (१०) अनुमति त्याग प्रतिमा ( ११ ) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा इस तरह ग्यारह प्रतिमा रूप श्रावक के व्रत आगम में बताये गये हैं । यहाँ श्रावकों के इन ग्यारह दर्जी का नाम ही प्रतिमा है। प्रतिमा का अर्थ बिम्ब अर्थात् आकार विशेष नहीं है ।७१, ७४। एतासां लक्षणञ्चापि क्रमेण शिवकारणम् । श्रृण त्वं भो प्रवक्ष्येऽहं श्रीपालप्रभुसत्तम ॥७५॥ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५.२] [श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद अन्वयार्थ (शिवकारणम्) मोक्ष के कारण भूत (एतासां) इन ग्यारह प्रतिमाओं के (लक्षणम् चापि ) लक्षण भी (अह) मैं (प्रवक्ष्ये ) कहूँगा (भो श्रीपालप्रभुसत्तम) हे उत्तम गुणों के धारी राजन् ! (त्वं शृण ) तुम सम्यक् प्रकार सुनो। भावार्थ -आचार्य कहते हैं कि श्रावकों को ग्यारह प्रतिमाएँ भी प्रात्मशुद्धि का साधक होने से परम्परा से मोक्ष का कारण है । उन ग्यारह प्रतिमानों का लक्षण मैं यथाक्रम कहता हूँ, हे श्रेष्ठ गुणों के धारी राजन् ! तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ।।७।। जिनोक्त सप्ततत्वानां श्रद्धानं दर्शनं मतम् । पञ्चविंशति-दोषाः परिव्यक्तं त्रिशुद्धितः ॥७६॥ अन्वयार्थ:-(जिनोक्त सप्त तत्त्वानां) जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये सप्त तत्त्वों का (पञ्चविंशतिदोषाद्य : परित्यक्त) २५ दोषों से रहित (त्रिशुद्धित:) मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक (श्रद्धानं) श्रद्धान करना (दर्शनम् ) दर्शन प्रतिमा है । भावार्थ-जिनेन्द्र कथित जीव, अजीव, प्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सप्त तत्वों का यथोचित श्रद्धान करने वाला दर्शन प्रतिमा धारी है ऐसा जिनागम में बताया है । तत्त्व श्रद्धान में रढ़ता और पवित्रता भी होनी चाहिये इस बात का संकेत करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि शङ्का आदि २५ दोषों से रहित मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक जिनोक्त तत्व का दृढ़ श्रद्धान होने का नाम ही दर्शन प्रतिमा है ।।७६।। वे २५ दोष कौन-कौन हैं इसका उल्लेख प्रागे करते हुए कहते हैं : मूवनयं मवाचाष्टौ तथानायतनानिषट् । ' अष्टौ शङ्कादयाश्चेति हादोषाः पञ्चविंशतिः ॥७७॥ अन्वयार्य (मूढत्रयं) तीन मूढता (मदाचाष्टी) और पाठ मद (तथा) तथा (षट्अनायतनानि) छः अनायतन (च) और (अष्टौ आठ (शङ्कादयाः) शङ्का आदि दोष (इति) इस प्रकार (पञ्चविंशति) २५ (दग् दोषाः) सम्यग्दर्शन के दोष हैं । भावार्थ--सम्यग्दर्शन के २५ दोषों का निर्देश करते हुए आचार्य कहते हैं कि तीन भूदता, आठ मद, छः अनायतन, और माठ शङ्कादि दोष ये २५ दोष हैं जो सम्यग्दर्शन को मलिन करते हैं । मूढ़ता--मूहता का अर्थ अज्ञानता है। उस अज्ञानपूर्ण प्रवृत्ति को मूढ़ता कहते हैं जो सम्यग्दर्शन को मलिन करतो है । यह मूढ़ता तीन प्रकार की है - (१) लोकमुढ़ता - धर्म लाभ आदि मानकर-नदी या समुद्र आदि में स्नान करना बालु या पत्थर आदि का ढेर लगाना. पर्वत से गिरना, अग्नि में जलना आदि लोक मूढ़ता है। यहाँ यह ध्यान रखें कि धर्म मानकर आत्मशुद्धि का कारण मानकर नदी आदि में स्नान करना मूढ़ता है पर मात्र शरीर शुद्धि के लिये यदि नदी में कोई स्नान करता है तो वह मूद नहीं है । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद ] [४५३ (२) देवमूढ़ता-पुत्र प्राप्ति, रोग निवृत्ति और धनलाभ आदि ऐछिक फल की इच्छा से मिथ्याष्टि रागो द्वषो देवताओं की पूजन, उपासना करना देवमूढ़ता है । किन्तु सम्यग्दृष्टि, देव पर्याय में अबस्थित, पदमावती आदि देवी देवताओं का माह वान कर उनको अर्घ्य समर्पण करना देवमुढ़ता नहीं है क्योंकि लोग अरहन्त मानकर उनको नहीं पूजते हैं अपितु साधर्मी भाइयों की तरह यथा योग्य भेंट समर्पित कर उनका सम्मान करते हैं जो आगम विरुद्ध नहीं है जिनशासन की रक्षा करने वाले शासन देवी देवतामों को सम्मान देना ही चाहिये ताः शासमादि रक्षार्थ कल्पिताः परमागमे । अतो यज्ञांशदानेन माननीया सुदृष्टिभिः । श्रीराल चरित ।। • अर्थात् जिनशासन की रक्षा हेतु यज्ञांश देकर शासन देवी देवताओं का सम्मान सम्यग्दष्टियों को करना चाहिये ऐसा परमागम में बताया है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि रामचन्द्रजी ने भा क्षेत्रपाल को अर्घ्य समर्पित किया था । पद्मपुराण में मुनिसुव्रत भगवान के जन्माभिषेक के समय पर दिकपाल, लोकपाल को भी अर्घ्य दिया गया, ऐसा लिखा है "ततः शक्रेण दिक्पाला लोकपाला यथाक्रमम् । संस्थाप्य पूजिता अध्य: सर्धशान्तिक हेतवे ।" इन्द्र ने दिकपाल लोकपाल को यथाक्रम अर्श समषित कर सम्मानित किया अत: शासनदेवी देवताओं की उपेक्षा हमें भी नहीं करनी चाहिये उनको यथायोग्य सम्मान देना ही चाहिये क्योंकि वे भी जिनशासन के रक्षक हैं। इनको अर्घ्य देना देव मूढ़ता नहीं है । तीन मूढ़ताओं का प्रयत्न पूर्वक त्याग करना चाहियो क्योंकि यो सम्यग्दर्शन को मलिन करते हैं। इसी प्रकार पाठमद हैं जो सम्यग्दर्शन को दूषित करते हैं--रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्राचार्य लिखते हैं-- ज्ञान-पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपोवपुः । अष्टावाथित्य मानिरव स्मयमार्गतस्मयाः ।। १. ज्ञान का मद, २. पूजा-प्रतिष्ठा का मद, ३. कूल का मद, ४. जाति का मद, ५. बल का मद, ६. धन का मद, ७. तप का मद, ८. शरीर सुन्दरता का मद । सम्यग्दृष्टि इन आठ मदों से रहित होता है । तथा षड़ अनायतनों से भी दूर रहता है । कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र, कुमुरु सेवक, कुदेव सेवक, और कुशास्त्र सेवक को नहीं मामता उनकी उपासना भक्ति नहीं करता है । क्योंकि उससे मिथ्यात्व का बन्ध होता है नोतिकारों ने कहा भी है--- “एक बारे नमस्कारे पर देवेकृते सति । परदारेषु लक्षेषु पापं तस्मात् चतुर्गुणम् ।।" __ अर्थात् एक लाख परस्त्री के सेवन से भयंकर पाप होता है उससे भी चार गुणा पाप एक बार पर देव अर्थात् मिथ्या दृष्टि देवी देवताओं को नमस्कार करने से होता है । पुन: सम्य Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४] [श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद ग्दर्शन के दोष जो शङ्का, काञ्छा, विचिकित्सा, (अन्यदृष्टि प्रशंसा) अनुपगहन, अस्थिति करण, अचान्सल्य अप्रभावना और मूढष्टित्व हैं उनसे भो वह सतत् दूर रहता है ? अर्थात सम्यग्दृष्टि जिनवचन में कभी शंका नहीं करता है, सांसारिक भोगों की इच्छा विशेष नहीं रखता है, अर्थात् कर्मजन्य इन्द्रिय सुख को निज मुख नहीं समझता है । क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि में तथा मुनिराज के धूलि पानी से सहित मलिन शरीर में, मल, मूत्र आदि में ग्लानि वा घृणा का भाव नहीं रखता है । वस्तु स्वभाव का ज्ञाता दृष्टा मात्र बनकर साम्य भाव रखता है, उसे दुर्गध, सुगन्ध, सुरूप कुरूप आदि पदगल को पर्यायों में उसे रुचि या अरुचि नहीं रहतो है। मुनिराज का शरीर तो मलिन होते हुए रत्नत्रय से पवित्र है अत: उसे उस मलिन शरीर को देखकर धामिकी अनुराग ही होता है । इसी प्रकार किसी रोगी, कुष्टी, लंगड़े लले को देखकर भी उसे कभी प्रेरणा का भाव नहीं होता है किन्तु उसके चित्त में दया का भाव ही होता है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यादर्शन आदि तथा उन तीनों मिथ्या पायतनों की मन बचन काय से प्रशंसा नहीं करता है अर्थात् मूढता दोष से सर्वथा दूर रहता है । "किसी विपरीत तत्त्व में दूसरों को देखा देखी प्रवृत्त हो जाने को मूढ़ता कहते हैं" जिससे सम्यग्दृष्टि सदा विरत रहता है। दूसरे के दोषों को प्रवाट कर प्रसन्न होना अनुपगृहन दोष है । सम्यग्दृष्टि में यह दोष नहीं होते हैं। वह दूसरे के दोषों को ढककर रखता है जिससे धर्म की हसो न होबे तथा दोषी के प्रति इस प्रकार व्यवहार रखता है जिसमे वह दोषों को छोड़ देवे अर्थात् उसके दोष छ ट जायें। ___अस्थितिकरण का अर्थ है कर्मों का उदय आने पर अपने व्रत संयम नियम से हिंग जाना, लिये हुए व्रतों को छोड़ देना । सम्यग्दृष्टि में यह दोष नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि स्वस्थितिकरण और परस्थितिकरण दोनों में सदा दत्तचित्त रहता है। यदि काम क्रोध प्रादि के पावेग में अपना चारित्र या संयम शिथिल होता हुआ प्रतीत हो तो शास्त्रों का लक्ष्य रखकर अपने आपको भी तुरन्त ही सुमार्ग में दृढ़कर लेता है तथा कोई दूसरा न्यायमार्ग से (संयम, व्रत अथवा चारित्र से) गिरता हो तो उसे शास्त्रों का उपदेश देकर और प्रागम के अनुकूल युक्तियों से समझाकर उसी ग्रहण किये हुए सुमार्ग पर दृढ़ कर देता है, विचलित नहीं होने देता है। धर्म और धर्मात्मानों में प्रीति नहीं होना अवारसल्य है यह दोष सम्यग्दृष्टि में नहीं रहता है वह धर्म और धर्मात्माओं में उतनी ही प्रोति रखता है जितनी गौ-गाय को अपने वत्सबच्चे के प्रति प्रीति होती है। जैन धर्म की महिमा को सर्वत्र विस्तरित करने की भावना का न होना अप्रभावना है। सम्यग्दृष्टि में यह दोष नहीं होता है वह धर्म कार्यों में प्रमाद-अनुत्साह नही रखता है। जिनधर्म के प्रचार में सतत प्रयत्नशील रहता है वह रत्नत्रय से अपनी आत्मा की और दान, पूजा, प्रतिष्ठा आदि के द्वारा जिनधर्म को प्रभावना में यथाशक्ति संलग्न रहता है। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५५ श्रोपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद ] इस प्रकार शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीब उक्त २५ दोषों से रहित होता है ।।७७|| : मद्यमांसमधुत्यागस्सहोदम्बरपञ्चकः । 'अष्टौभूलगुणाः प्रोक्ताः गृहिरणां पूर्वसूरिभिः ॥७॥ : धूतमांससुरावेश्यापापधिपरदारतः । स्तेयेन सह सप्तेति व्यसनानि त्यजेद् बुधः ॥७॥ अन्वयार्थ--(पूर्वसुरिभिः) पूर्व प्राचार्यों के द्वारा (गृहिणां) गृहस्थों के (अष्टौ) पाठ (मूल गुणाः) मूलगुण (प्रोक्ता) कहे गये हैं (मद्यमांसमधुत्यागः) मद्य, मांस और मधु का त्याग करना और (सहोदम्बरपञ्चकैः) पाँच उदम्बर फलों का भी त्याग करना (छ त. मांससुरावेश्यापापधिपरदारतः) जूना, माँस, मदिरा, वेण्या सेवन, शिकार और परस्त्रीरमण (स्तेयेन सह सप्तेति) तथा चोरी इन सात व्यसनों का (बुधः त्यजेत) बुद्धिमान पुरुष त्याग करें। भावार्थ-मद्य, मांस और मधु का त्याग एवं बड़, पीपल, पाकर, ऊमर और कठूमर इन पांच उदम्बर फल का त्याग करके आठ मूल गुणों का धारी श्रावक ही सम्यग्दर्शन गुण को धारण करने की पात्रता-योग्यता रखता है अन्यथा नहीं क्योंकि मद्य, मांस आदि के सेवन से अत्यधिक जीवों की हिंसा होती है, अनयों कपात होना है इससस्य सहीनों का धात होता है । जो मनुष्य इन पाठों का परित्याग नहीं करता है बह जैन ही नहीं कहा जा सकता है । सर्वप्रथम मद्यपान के दोषों को बताते हुए प्राचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं-- मद्य मोहयति मनोमोहितचित्तस्तु विस्मरतिधर्म । विस्मृतधर्माजोवो, हिंसामविशंकमाचरति ॥६२।। पुरु० अर्थात् मदिरापायी पुरुष के धर्म, कर्म, विवेक सभी नष्ट हो जाते हैं, वैसी अवस्था में उसकी हिंसा में नि:शङ्क प्रवृत्ति होती है । मदिरा पोने वाले की हिंसा में ही क्यों प्रवृत्ति होती है ? इसका उत्तर यह है कि मदिरा से प्रात्मा में तमोगुण की बद्धि होती है उसके निमित्त से वह तीव्र कषाय एवं ऋ रता पूर्ण कार्य में प्रवृत्त होने के लिये बाध्य हो जाता है, कुचेष्टायें करता फिरता है, अभक्ष्य भक्षण कर लेना है, सप्त व्यसनों के सेवन में लग जाता है, ये सब तमोगुण के कार्य है। पुनः मदिरा की उत्पत्ति सड़ाये हुए पदार्थों से होती है। बहुत काल सड़ने से उन पदार्थों में तीव्र मादकता उत्पन्न हो जाती है । जो जितने अधिक दिन सड़ाये जाते हैं, उनसे उतनी ही अच्छी शराब तैयार होती है सड़ने से उनमें असंख्य तो स जीद पैदा हो जाते हैं और अनन्त स्थावर जोव पैदा हो जाते हैं 1 पीछे उन सड़ाये हुए पदार्थों को मथा जाता है, मथने से वे सभी जीव मर जाते हैं। इस प्रकार अनन्त जोवों का बध हो चुकने के बाद फिर जब मदिरा तैयार हो जाती है तो फिर उस दुर्गधित रस में असंख्य अस और अनन्त स्थावर जीब उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार मदिरापान महान् हिंसा और अनर्थों का घर है । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद इसी प्रकार माँस भी महाविकृति को पैदा करने वाला है। जो माँस पिण्ड को खाता है, वह अनन्त जीवराशि को तो खाता ही है साथ ही जो उस माँस पिण्ड को छ ूता है वह भी उन जीवों का घातक है। मांस का स्पर्श भी दुर्गति का कारण है, तीव्र हिंसा का मूलभूत है । क्योंकि कच्ची, पकी हुई, पकती हुई भी माँस की डलियों में उसी जाति के निगोत जीव राशियों को निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है। मांस के समान मधु भी महाविकृति का हेतु है कहा भी है "मधु कलमपि प्रायो मधुकर हिंसात्मकं भवति लोके । भजति मधु मूढधीको यः स भवति हिंसकोत्यन्तं || पुरुषा० ६६ ॥ मधु की एक बिन्दु भी बिना मक्खियों की हिंसा किये नहीं मिल सकती जो मधु एक बूँद भी खाता है वह असंख्य जीवों का घात करने वाला है तथा वह सात गाँवों को जला देने के बराबर हिंसा का भागी होता है । "सप्तग्रामेषु दग्धेषु यत्पापं जायते नृणाम् । तत्पापं जायते पुंसां मधुविद्वेन्क भक्षणात् ॥ 17 श्रावक ही मोक्षमार्ग में प्रवृत्त की भी होता है। वह इस प्रकार इनका त्यागकर आठ मूल गुणों का घारी हो सकता है आठ मुल गुणों का पारी यह जुम्रा, चोरी, मांस, मदिरा, वेश्यासेवन, शिकार और परस्त्रीरमण का त्यागी होता है। जूना सभी अनर्थों का मूल है ---- सर्वानर्थं प्रथमं मंथनं शौचस्य सद्म मायायाः । दुरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं द्यूतम् ।। १४६ ।। पुरुषा ।। जो सभी अनर्थों का मूल है, शौच धर्म को नष्ट करने वाला और माया का घर है चोरी और असत्य को जन्म देने वाला है ऐसे चत कर्म अर्थात् जुआ को दूर से ही छोड़ देना चाहिये। इसी प्रकार चोरी, मांस, आदि भी महाश्रनर्थों के कारण दुःखों के समुद्र जीव को डालने वाले हैं अतः इनका त्याग करना चाहिये । इनको व्यसन इसलिये कहा गया है कि ये सभो जीव को विपत्तियों में डालने वाले हैं। अतः उन सभी बुरी प्रादतों को व्यसन कहते हैं विपत्तियों में जीव को डालते हैं अत: सुख की इच्छा करने वाले भव्य जीवों को इनका त्याग करना ही चाहिए ॥७६ ७६ ॥ उक्तं गुणैर्युक्तः सप्तव्यसनवजितः । यो भव्यसारसम्यक्त्वं पूर्वोक्तं परति निर्मलम् ॥८०॥ 'अन्वयार्थ - (उक्त मूलगुणैर्युक्तः ) पूर्वोक्त श्रष्टमूलगुणों से युक्त (सप्तव्यसन वर्जितः ) सप्त व्यसनों का त्यागी ( यो भव्यः ) जो भव्य पुरुष वही (पूर्वोक्तं ) पूर्व कथित ( निर्मलं सार सम्यक्त्वं) निर्मल-निर्दोष सारभूत सम्यग्दर्शन की ( पाति) रक्षा कर सकता है अर्थात् रक्षण करता है ! Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद] मावार्थ-अतिचार अनाचारादि, शङ्काकाञ्छा आदि दोषों से रहित निर्मल सम्यग. दर्शन का पालन-रक्षण वही कर सकता है जो भव्य आठ मूल गुणों का धारी और सप्त व्यसन का त्यागी है। अनन्यशरणीभूत पञ्चश्रीपरमेष्ठिः । संसार देहभोगेषु विरक्तस्तत्त्वचिन्तनः ॥१॥ श्रीममिनपदामोअसेशन या कामासः । निन्थ मूनिनाथानां सदाराधनतत्परः ॥२॥ दयाधर्मरतो नित्यं सुधी सझान संयुतः । स स्याद् दार्शनिको भव्यः प्रथमः श्रावको भुवि ।।८३॥ अन्वयार्थ-(श्रीपञ्चपरमेष्ठिषु अनन्यशरणीभूत) श्रीपञ्चपरमेष्ठी के अद्वित्तीय शरण को प्राप्त हुआ (तत्त्वचिन्तनैः) तत्त्व चिन्तन में दत्तचित्त रहने से (संसार देह भोगेष विरक्त) संसार शरीर और भोगों में विरक्त रहने वाला (मधुव्रतः) तथा भ्रमर समूह के समान (श्रीमज्जिनपदाम्भोजसेवनक) श्री जिनेन्द्र प्रभु के चरण कमलों का अनःय भक्तसेवक (निर्ग्रन्थमुनिनाथानां) निर्ग्रन्थ मुनिराजों की (सदाराधनतत्परः) याराधना में सदा तत्पर रहने वाला (दयाधर्मरतो नित्यं) दया धर्म में सदा अनुरक्त (सद्ज्ञानसंयुत: सुधी) सम्यग्ज्ञान से युक्त जो सुधी (भव्य:) भव्य पुरुष है (स) बह (भुवि) पृथ्वी पर (दार्शनिको प्रथमः) प्रथम दर्शन प्रतिमा का धारी (श्रावको) श्रावक है । मायार्थ-- मुधी, भव्य पुरुष ऐसा विचार करते हैं कि शरीर की सेवा करने वालेपिता, पत्र, पत्नी बन्ध बान्धव हमारे लिये शरण देने वाले नहीं हो सकते हैं, ये सभी मोह को बढ़ाने वाले और संसार कीचड़ में फंसाने वाले हैं । अत: वे इनको शरणभूत नहीं मानते हैं अपितु जन्म-मरण के भयंकर दुःखों से छटकारा प्रदान करने वाले पञ्चपरमेष्ठी के चरण कमलों को ही अद्वितीय शरण समझते हैं क्योंकि जीवों को पाप रूपी कीचड़ से निकाल कर मोक्षमार्ग में आरूढ करने वाले पञ्चपरमेष्ठी ही है। उनमें प्रगाढ़ भक्ति रखने वाले ही निर्मल सम्यम्हष्टि हो सकते हैं। पुनः जो तत्त्व चिन्तन में अनुरक्त रहते हैं तथा संसार शरीर और भोगों के प्रति उदासीन-बिरक्त रहते है, निग्रन्थ मुनिराज की आराधना में सदा तत्पर रहते हैं तथा जिनका चित्त दया से अभिसिञ्चित है जो सदा दयाधर्म में रत रहने वाले और मम्यग्ज्ञान से सहित है वे भव्य पुरुष पृथ्वी पर प्रथम दर्शन प्रतिमा के धारी श्रावक है ऐसा जिनागम में बताया है। ॥८१ से २३ अण वृतानि पञ्चव त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षावतानि चत्वारि यो धत्ते स द्वितीयकः ।।८४॥ अन्वयार्थ—(पञ्चग्रण ब्रतानि) पांच प्रण व्रतों को (विप्रकारंगुणवतं) तीन प्रकार के गणव्रतों को (चत्वारि शिक्षाप्रतानि) चार प्रकार के शिक्षाग्रतों को (यो) जो श्रापक (धत्ते) धारण करता है (स द्वितीयकः) वह द्वितीय प्रतिमा का धारी है। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद भावार्थ - प्रहिमाण व्रत, सत्याण व्रत, अचौर्याण व्रत, ब्रह्मचर्याणि व्रत और परिग्रह परिमाणत्रत ये पांच प्रणत्र हैं तथा दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्ड व्रत में तीन गुगावत हैं। पुनः सामायिक, प्रोषोपवास और वैयावृत्य और अतिथि संविभाग ये चार शिक्षावत हैं । इन बारह व्रतों का निरतिचार पालन करने वाला द्वितीय प्रतिभा का धारी श्रावक है ऐसा जिलागम में बताया है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह सचय इनका एक देश त्याग करना अर्थात् स्थूल रूप से पांच पापों का त्याग करना अणुव्रत है। ऐसा श्रण तो द्वितीया प्रतिमाधारी श्रावक अपने अहिंसादि अणुव्रतों की सुरक्षा के लिये सप्तशील व्रतों का भी पालन करता है, जिस प्रकार नगर की रक्षा के लिए परकोटा लगाते हैं उसी प्रकार अणवतों की रक्षा के लिये परकोटा के समान उक्त सुप्त श्रीलव्रतों को धारण करना ही चाहिये। कहा भी है। - परिय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीमात्य पालनीयाणि ॥१३६॥ उक्त सप्तशील व्रतों का स्वरूप निर्देश संक्षेप में इस प्रकार समझें- जीवनपर्यन्त के लिये दशों दिशाओं में आने जाने की मर्यादा कर लेना दिग्वत । पुनः उसमें भी परिमित काल के लिये ग्राम, नदी, पर्वत आदि पर्यन्त आने जाने की जो मर्यादा की जाती है वह देशव्रत है तथा विना प्रयोजन पापास्रव की काररणभूत क्रियाओं को नहीं करना अनर्थदण्ड व्रत है। राग द्वेष की प्रवृत्ति का त्याग कर, समस्त द्रव्यों में साम्यभाव रखते हुए तत्व चिन्तन में मन बचन काय को स्थिर करना सामायिक है । षोडश प्रहर का पर्वकाल में उपवास करना प्रोषधोपवास है। अर्थात् प्रष्ट चतुर्दशी को उपवास करना और उपवास के पहले दिन तथा दूसरे दिन भी एकाशन करना प्रोषधोपवास है । रत्नत्रयधारी व्यक्तियों की इस प्रकार सेवा सुश्रुषा करना जिससे रत्नत्रय में दृढ़ता बनी रहे, यह वैयावृत्त्य है । और यथाविधि उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्र को आहारादि देना प्रतिथि संविभागवत है। इनका निरतिचार शलन सम्यक् प्रकार करना चाहिये। इनके पालन से अण-व्रती के भी उपचार से महाव्रतोपना होता है ऐसा कथन मिलता है। ये व्रत आत्मशुद्धि में साधक है और प्रयत्नपूर्वक ग्राह्य हैं। उक्त १२ व्रतों का सम्यक प्रकार पालन करने वाला द्वितीय प्रतिमाधारी श्रावक है ऐसा जिनागम में बताया है। अब तृतीय सामायिक प्रतिमा का स्वरूप बताते हैं - सामायिकं त्रिसंध्येयं यः करोति विशुद्धधीः । रागद्वेषौ परित्यज्य श्रावकस्सः तृतीयकः ॥८५॥ श्रन्वयार्थ -- (य: विशुद्धधोः ) पवित्र सात्विक बुद्धि का धारो ( रागद्रे पौ) राग द्वेष को (परित्यज्य ) छोड़कर ( त्रिसंयंत्र ) प्रातः मध्याह्न और सायंकाल इन तीनों संध्याकाल में ( सामायिक करोति) सामायिक करता है (सः) वह ( तृतीयक: श्रावकः) तृतीय प्रतिमा धारी श्रावक है। भावार्थ सात्विक पवित्र बुद्धिवाला जो श्रावक तीनों संध्या काल में राग द्वेष का त्याग कर मन वचन काय को स्थिर कर सामायिक करता है तत्त्व चिन्तन, आत्म चिन्तन Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद ] [४५६ जपादि करता है वह तृतीय प्रतिमाधारी है । तृतीय प्रतिमाधारी को प्रातः मध्याह्न और सायंकाल समस्त विकल्प वा आरम्भ प्रादि का त्याग कर विधिवत् सामायिक करनी ही चाहिये। कहा भी है-- चतुरार्वतश्रितयश्चत्तुः प्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।।रत्नकरण्ड,।। चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त अर्थात् १२ पावर्त और एक एक प्रणाम-इस तरह चार प्रणाम कर आभ्यन्तर और वाह्य परिग्रह रहित मुनि के समान मन वचन काय को शुद्ध रख कर स्वङ्गासन अथवा पदमासन आदि माड़कर सुबह, दोपहर और संध्याकाल-तीनों समय सामायिक करने वाला व्यक्ति तृतीय प्रतिमा धारी है । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में सामायिक को तत्वोपलब्धि का मूल हेतु कहा है-- "रागद्वेपत्यागानिखिलद्रव्येषु साम्यवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूल बहुश: सामायिक कार्यम् ।।१४८।। "रागद्वेष के त्याग पूर्वक समस्त इष्टानिष्ट पदार्थों में साम्य भाव धारण कर तत्त्वोपलब्धि का मूल-प्रधान हेतु जो सामायिक है उसे प्रयत्न पूर्वक करना चाहिये ।" उस सामायिक में तत्पर-प्रवृस धावक के समस्त सावद्य योग-पाप रूप प्रवृत्तियों का त्याग हो जाने से चारित्र मोहनीय का उदय होने पर भी उपचार से उस समय महावतपना है-- "सामायिकाश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात् । भवति महानतमेषामुदयेऽपि चरित्र मोहस्य ।।पुरुषा. १५०।। अब प्रोषध प्रतिमाधारी का स्वरूप बताते हैं-- अष्टम्यां च चतुर्दश्यां चतुः पर्येषु सर्वदा । उपवासवृती योऽसौ श्राद्धो लोके चतुर्थकः ॥८६॥ अन्वयार्थ . (यो) जो (चतुः पर्देषु) चारों पर्वकालो में (अष्टम्यां चतुर्दश्यां च ) अष्टमी चतुर्दशी के दिनो में (सर्वदा) सदा (उपवासवती) [पूर्व और उत्तर दिनों के प्रकाशन पूर्वक] उपवास करता है (असो लोके) वह लोक में (चतुर्थक:) चतुर्थ प्रोषधप्रतिमाधारी (श्राद्धो) सम्यकदृस्टि वाधक है। भावार्थ - प्रोषध प्रतिमाधारी हमेशा अष्टमो और चतुर्दशी रूप पर्व के दिनों में प्रोषधोपवास अर्थात् १६ प्रहर का उपवास करता है । प्रोषधोपवास करने वाला पर्व के दिन प्रारम्भ, विषय, कषाय और आहार का त्याग कर धारगणा और पारणा के दिन भी एकाशन करता है। प्रोषधोपथास शिक्षाबत में तो कभी अतिचार भी लग सकते हैं किन्तु प्रोषध प्रतिमा में अतिचार भी दूर करने पड़ते हैं। इस प्रोपधप्रतिमा की उपयोगिता एवं महत्व पर प्रकाश डालते हुए प्राचार्य बाहते हैं--- Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद "इति यः षोडशयामागमयति परिमुक्तसकलसावद्यः । तस्य तदानों नियतं पूर्णमहिंसावतं भवति ।" समस्त सावध योग का परित्याग कर १६ प्रहर का उपवास करने वाले के उस समय पूर्ण अहिंसावत उपचार से कहा है क्योंकि व्रती भाबक के मात्र भोगोपभोग के निमित्त से स्वल्प स्थावर जोवों का घात होता है । सदा योग्य पाचरण रखने वाला वह अनर्थदण्ड रूप साबद्ध क्रियाओं को तो स्वभाव से हो नहीं करता है तथा पर्व के दिनों में आरम्भादि का भी त्याग हो जाने से सदा धर्मभ्यान में ही समय बीतता है । यद्यपि वह संयम रूप स्थान को प्रापन नहीं करता है किन्तु सम्पूर्ण हिंसा रूप प्रवृत्ति का त्याग हो जाने से उसके उपचार से महाबृतित्व है ऐसा जिनागम में कहा है ॥८६॥ अब सचित्त त्याग प्रतिमा का स्वरूप बताते है-- फलं दलं जलं बीजं पत्रशाकादिकं तथा । नेय भुक्ते सचित यो दयामूर्तिस्स पञ्चमः ॥७॥ अन्वयार्थ (सचित्तं) सचित्त अर्थात् जिनका छेदन भेदन दलन नहीं किया है ऐसे अपक्व पदार्थ यथा (फलं दलं जलं) हरे फल, पत्ते, जल (तथा) और (बीजं पत्रणाकादिक बोज एवं पत्ते के शाक आदि पदार्थों को (यो दयामूतिः) जो परम दयावान् पुरुष (न एव भुक्ते) निश्चय से नहीं खाता है (स) वह (पञ्चमः) पञ्चम प्रतिमा धारी श्रावक है । भावार्थपञ्चम सचित्त त्याग प्रतिमा धारी श्रावक अपस्व या अच्छिन्न पदार्थ जिनका छेदन भेदन दलन नहीं किया गया है ऐसे हरे फल, पत्ते, जल, बोजादि तथा पत्ते के शाकादि पदार्थों को निश्चय से नहीं पाता है। वह प्रासुक पदार्थों का ही सेवन करता है । प्रासुक किसे कहते हैं यह यहाँ ज्ञातव्य है-- सुक्कं पक्कं तत्तं विललवण मिस्सयं दब्बम । जं जंतेग य खिण्णं तं सव्वं फासुयं भणि दम् ।। शुरुक-सूखा, पक्व, तप्स-गर्म, बटाई या लवण मिश्रित पदार्थ तथा यंत्र से छिन्न भिन्न पदार्थ प्रासुक होते हैं ।।१७।। अब रात्रि भुक्तित्याग प्रतिमा का स्वरूप बताते हैं - विवामथुननिर्मुक्तस्सदासंतोष संयुतः । षष्ठस्स श्रावको रात्रौ चतुर्धाहारजितः ।।८।। अन्वयार्थ----(दिवामैथुननिर्मुक्तः) दिन में मंथन का त्याग करने वाला और (सदासंतोषसंयुक्तः) सदा संतोप भाव से संयुक्त बा शोभित रहता है तथा (रात्री) रात्रि में (चतुर्धाहार वजित:) चारों प्रकार के आहार का त्याग कर देता है (स श्रावको) वह श्रावक (पाठः) छठा रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा धारी श्रावक है। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद] भावार्थ-दिन में मैथुन का त्याग करने वाला तथा स्वदारा में संतोष रखने वाला, विशेष प्रासक्ति नहीं रखने वाला तथा रात्रि में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय चारों प्रकार के आहार का त्याग करने वाला छठी प्रतिमा का पारी श्रावक है रोटी, चावल, दाल आदि पदार्थ खाद्य हैं तथा पेड़ा, मोदक, पकवान आदि भी खाध हैं, रबड़ी चटनी आदि लेह्म हैं, तांबूल इलायची, सुपारी, लवंग, अन्य औषधादि. स्वाद्य हैं जल, दूध, शर्बत आदि पेय हैं । इन चारों प्रकार के आहार का, मन वचन काय कृत, कारित, अनुमोदना ३ x ३-६ कोटि से त्याग करने वाला रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा धारी है ऐसा जिनागम में कहा है । किन्तु रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमाधारी माता अपने बच्चे को रात्रि में अपना दूध पिला सकती है क्योंकि नवजात शिशु को यदि दूध न पिलाया जाय तो वह मर जायेगा, उसके जीवन का रक्षण करना माता का कर्तव्य है। अब ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारी का स्वरूप बताते हैं--- विरक्त स्त्रीसुखे नित्यं ब्रह्मचर्यवतंशुभम् । यो विधत्ते विशुद्धात्मा सदाऽसौ सप्तमो मतः ॥६॥ अन्वयार्थ ... (यो) जो (विरलागतीखे नित्यं ली मुख हा हानि या विरक्ति भाव रखने वाला है (असी) वह (विशुद्धास्मा) विशुद्धारमा (शुभं) श्रेष्ठ (ब्रह्मचर्यव्रत विधत्ते) ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करता है वहीं (सप्तमोमतः) सप्तम प्रतिमाधारी माना जाता है। भावार्थ:-आजीवन नव कोटि से मैथुन का त्याग करने वाला, ब्रह्मचर्य व्रत का धारी विशुद्वात्मा स्त्रो मुख में सदा विरत रहता है, शरीर शृङ्गारादि क्रियायों में सदा उदासीन रहने वाला वह व्रती श्रावक सप्तम प्रतिमाधारी कहलाता है ।।१६॥ अब आरम्भ त्याग प्रतिमा का स्वरूप बताते हैं--- सेवाकृष्यावि वाणिज्य प्रारम्भं न करोति यः । हिंसा हे तु दयामूर्तिस्स भवेदष्टमस्सुधीः ॥१०॥ अन्वयार्थ -- (हिंसा हेतु ) हिंसा का हेतु अर्थात् जीव हिंसा के कारण (सेवाकृष्यादिबाणिज्यप्रारम्भं) नौकरी, खेती, व्यापारादि आरम्भ के कार्यों को (यः न करोति) जो नहीं करता है (स) वह (सुधीः) विवेकवान्, सम्यग्ज्ञानी (दयाभूति) दया की मूर्ति (अष्टम:भवेत्) अष्टम प्रतिमाधारी है। भावार्थ-प्रारम्भ त्याग प्रतिमाधारी धात्रक घर के झाडू बुहारी, कूटना, पीसना आदि कार्यों को प्रथवा नौकरी, खेती व्यापारादि कार्यों को नहीं करता है अर्थात् हिंसा के कारण भुत क्रियाओं का सर्वथा त्यागी होता है। जिनेन्द्रप्रभु की पूजा प्रादि धर्मकार्यों में भाग ले सकता है। पूजा के द्रव्यधोना, जिनालय को झाड़ बुहार कर स्वच्छ करना आदि कार्य वह कर सकता है तथा अपने वस्त्र को स्वयं धो सकता है बह भी इस प्रकार कि जीव विराधना न होने अर्थात् बिबेक पूर्वक समिति पूर्वक ही कार्य करता है । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाल चरित्र अष्टम परिच्छेद वाह्य दविध प्रोक्तं परिग्रहगरणेषु च । अन्तश्चतुर्दशग्रन्थाः विरक्तो मवमो मतः ।।६१॥ अन्वयार्थ- (वाह्य ) वाह्य (परिग्रहगणेषु) समस्त प्रकार के परिग्रहों में (दविधप्रोक्त) दशभेद कहे गये हैं (च) और (अन्तश्चतुर्दशानन्थाः ) अन्तरङ्गपरिग्नह के चौदह भेद [कहे गये हैं] (विरक्तो) उक्त २४ प्रकार के परिग्रहों से विरक्त रहने वाला, नवम परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी कहलाता है । मावार्थ जो १० प्रकार के वाह्म और १४ प्रकार के अन्तरङ्ग सभी प्रकार के परिग्रहों से एक देश विरत है, किसी भी वस्तु में मू भाव जिसके नहीं है, वह, परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है । जो पहनने के लिये धोती, दुपट्टा आदि तथा सोने के लिये शैया बिस्तर भोजन के लिये पात्र और जीव रक्षण के लिये रूमाल आदि रखता है, उनका भी यथाशक्ति प्रमाण कर लेता है और शेष सभी प्रकार के क्षेत्र, वस्तु (मकानादि) हिरण्य (चांदी) सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कप्य (सिल्क के वस्त्रादि! भाण्ड (चर्तन) आदि परिग्रहों का नवकोटि से त्याग कर देता है, गृह चैत्यालय में रहता है, निमंत्रण से भोजन करता है अपने कुटुम्बीजनों के साथ मोह भाव नहीं रखता है उनके साथ सहवास नहीं करता है, धर्मध्यान में सदा तत्पर रहता है वह नवमी परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी श्रावक है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी कहा है - "बाह्य षु दश सुवास्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरलः । स्वस्थ: सन्तोषपर: परिचितपरिग्रहाद्विरतः ।।" जो मनुष्य बाह्य दश प्रकार के परित्रहों से सर्वथा मगता छोड़कर निर्मोही होकर मायाचार रहित परिग्रह को आकांक्षा का त्याग करता है वह परिग्रहत्याग प्रतिमाधारी कहलाता है । अन्तरङ्ग परिग्रहों में अनन्तानुब धी की ४ और अप्रत्याख्यानावरण की ४ इन पाट प्रकार के कषायों के उदय का उसके अभाव होता है । वह माया, मिध्यात्व, निदान रूप मल्यों से रहित सरल परिणामी होता है ।।६५|| इस प्रकार नवम प्रतिमा का स्वरूप बताते हैं - अत्र अनुमति त्यामनामक दशमी प्रतिमा का स्वरूप बताते हैं सावद्यारंभके),विवाहादिषुकर्मषु । ददात्यनुमति व स च स्याद् दशमोगृही ॥२॥ अन्वयार्थ--(मायद्यारम्भकेषु) पापयुक्त प्रारम्भ आदि कार्यो में (विवाहादिप कर्मषु च ) और विवाहादि कार्यों में (अनुमतिः नव ददाति) अनुमति नहीं ही देता है (स गृही) वह श्रावक (दशमो स्यात् ) दसवी प्रतिभाधारी है। भावार्थ-दशवों अनुमतित्यागप्रतिमाधारी श्रावक पाप युक्त प्रारम्भादि कार्यों में तथा विवाहादि कार्यों में अनुमति भी नहीं देता है। वह संकल्पी हिंसा, आरम्भी हिसा, उद्योगी हिंसा और विरोधि हिंसा रूप नारों प्रकार की हिंसा का नवकोटि से त्याग कर देता है किन्तु Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद] [ ४६३ धर्म वा धर्मात्माओं की, जिन चैत्य-जिन चैत्यालयादि, धर्मायतनों को सुरक्षा के लिये, विरोध कर सकता है । पञ्चेन्द्रिय विषयों का पोषण करने वाले जो कार्य हैं उनके लिये अनुमति नहीं दे सकता है, प्ररणा नहीं दे सकता है अर्थात् करते हुए की अनुमोदना भी नहीं करता है । छेदन, भेदन, मारण, कर्षण, बाणिज्य चोरी आदि कार्य जो हिंसा में प्रवृत्ति कराने वाले कार्य हैं उनके लिये कभी किसी प्रकार अनुमोदना जो नहीं करता है ऐसा जो व्रती श्रावक है, वह अनुमति त्याग प्रतिमाधारी कहलाता है ॥१२॥ गृहं त्यक्त्वा गुरोः पायें ब्रह्मचारी शुचियती। भिक्षाचारी सुधीरेक बस्त्रश्चैकादशप्रमाः ॥३॥ अन्वयार्थ--(गृहं त्यक्त्या) घर को छोड़कर (गुरोः पार्वे) गुरु के पास (ब्रह्मचारी शुचित्रती) पवित्र ब्रह्मचर्य, वृत का थारी वृती (भिक्षाचारी) भिक्षा रो भोजन ग्रहण करने बाला (एकत्रमः) एक पल्ट धार करने वाला ऐका एक अधोवस्त्र एक उत्तरीयदुपट्टा रखने वाला क्षुल्लक (एकादशप्रमाः सुधीः) ग्यारह प्रतिमाधारी सुधी-श्रेष्ठ श्रावक है, ऐसा जिनागम में कहा है 1 मावार्थ-घर को छोड़कर गुरु के समीप रहने वाला, पवित्र ब्रह्मचर्य वृत्त को धारण करने वाला, भिक्षा से भोजन ग्रहण करने वाला एक वस्त्र धारण करने वाला ऐलक तथा एक अधोवस्त्र-लंगोट और एक उत्तरीय वस्त्र दुपट्टा रखने वाला क्षुल्लक उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी श्रेष्ठ श्रावक है ऐसा जिनागम में कहा है ।।६३॥ ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक दो प्रकार के होते हैं ऐसा प्रागे बताया भी है - तस्यमेव द्वयं प्राहुमुनिः स श्रुतसागरः। एक वस्त्रधरः पूर्वो यः कौपीनधरः परः ।।१४।। यः कौपीनधरो भन्यो जिनपाद द्वये रतः । रात्रौ च प्रतिमा योगं सदाधत्ते स्वशक्तितः ।।५।। पिच्छं गहणाति पूतात्मा स भु.क्त चोपविश्य च। पाणिपात्रेण नोद्दिष्टो भिक्षां स श्रावकालये ॥६६।। अन्वयार्थ - (स श्रुतसागर: मुनिः) उन श्रुतमागर मुनिराज ने (तस्य) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी के (भेमपंदो भेद (प्राहकहे हैं (एकवस्वधर:) एक उत्तरीय वस्त्र-पट्टा और (पर) दुसरा (कौपीन ) लंगोट (धरः) धारण करने वाला जिसे क्षुल्लक कहते है। पुनः (य: कोपोनघगे भव्यो) जो कोपीन-लंगोट मात्र धारण करने वाला भव्य थेष्ठ श्रावक ऐलक है वह (जिनसाद द्वये रतः) जितेन्द्रप्रभु के चरणकमलों में अनुराग रखने वाला (स्वशक्तितः) अपनो शक्ति के अनुसार (रात्री) रात्रि में (प्रतिमायोगं च) प्रतिमायोग भी (धत्ते) Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४] [श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद धारण करता है (स) वर (पृतात्मा! पवित्रामा पागच्छ महणाति! सदा पिच्छिका को रखता है (च) और (उपविश्य भुङ्क्ते) बैठकर खाता है-अर्थात् पाहार ग्रहण करता है। (न उद्दिष्टं) जो उद्दिष्ट नहीं है ऐसो (भिक्षां) भिक्षा को (पाणिपात्रेण) दोनों हाथ रूप पात्र से (श्रावकालये) श्रावक के घर में (गृहणाति) ग्रहण करता है । भावार्थ --आचार्य श्री श्रुतसागर मुनिराज ने भी उद्दिष्टत्याग प्रतिमाघारो के दो भेद बताये हैं (१) क्षुल्लक (२) ऐलक । क्षुल्लक एक चादर और एक लंगोट धारण करते हैं तथा जो उद्दिष्ट नहीं है ऐसे आहार को भिक्षावृत्ति से श्रावक के घर में अपने पात्र में बैठकर ग्रहण करते हैं । क्षुलक भोजन के लिये एक थान्नी, दो कटोरी और एक ग्लास इस तरह चार पात्र भी रख सकते हैं तथा शौच के लिये लकड़ी अथवा पीतल का कमण्डलु रखते हैं किन्तु ऐलक लकड़ी का ही कमण्डलु रखते हैं । तया आहार उक्त प्रकार ही भिक्षावृत्ति से अपने पाणिपात्र में बैठकर ग्रहण करते हैं। किन्तु दोनों ही उद्विष्टत्याग प्रतिमाधारी कहल' अर्थात ये स्वयं श्रावक को कह कर इच्छानुसार भोजन बनवाकर नहीं खा सकते हैं। तथा भोजन के समान अन्य उपकरणों को भी इसी प्रकार जो उहिष्ट नहीं है उन्हें ही ग्रहण करते है ।।१६।। इत्यादिकं जिनः प्रोक्तं श्रावकाचारमुत्तमम् । यो भयो भावतो नित्यं पालयत्येय दृष्टिभाक् ॥६७।। अच्युतस्वर्गपर्यन्तं स्थानं संप्राप्य शर्मदम् । चक्रधादिभागौषान्समासाद्य शुभोदयात् ॥६८।। क्रमादलत्रयं पूर्ण समाराध्यसुनिर्मलम् । क्षमादिलक्षणैः सारर्दशभिस्सतपोऽखिलैः ।।६।। गुण, लोत्तरेस्सर्वेश्चारित्रैः पञ्चभिः परैः । ध्यानाध्ययनकर्माद्यभुक्ते मुक्ति सुखं परम् ॥१००॥ अन्धयार्थ-(इत्यादिक) इत्यादि अनेक प्रकार (श्रावकाचारमुत्तमम् ) श्रेष्ठ श्रावकाचार को (यो भव्योदृष्टिभाक् ) जो भव्यसम्यादष्टि पुरुष (भावतो) भाव से (पालयत्येव) सम्यक् प्रकार पालन करता है (शर्मदम् ) सुखकर (अच्युतस्वर्गपर्यन्तं स्थानं) अच्युत स्वर्ग तक के स्थान को (संप्राप्य ) प्राप्त कर (चक्रवादिभागीधान्) चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण आदि के भोगों को (शुभोदयात् ) पुण्योदय से (समासाद्य) प्राप्तकर (क्रमात्) क्रम से (पूर्ण) पूर्ण (सुनिर्मलं रत्नत्रयं समाराध्य) अति पवित्र रत्नत्रय को सम्यक् आराधना कर (सार: दशभिः) सारभूत दश प्रकार के (क्षमादिलक्षणः) क्षमा आदि लक्षण वाले धर्मों के द्वारा (तपोऽखिल:) सम्पूर्ण अन्तरङ्ग बहिरङ्ग तपों के द्वारा (सर्वेः गुणः मूलोत्तरैः) सम्पूर्ण २८ मूलगुण और ८४ लाख उत्तर गुणों के द्वारा (पञ्चभिः परं: चारित्रः) पांच प्रकार के श्रेष्ठ प्राचारों के द्वारा (ध्यानाध्ययनकर्माद्य :) ध्यान अध्ययन आदि क्रियाओं के द्वारा (पर मुक्ति मुखं) श्रेष्ठ मुक्ति सुख को (भुक्ले) लोगता है, मोक्ष सुख का अनुभव करता है। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद । [४६५ भावार्थ---जो भव्य सम्यग्दृष्टि पुरुष श्रेष्ठ श्रावकाचार का-शवकों के १२ व्रतों का ११ प्रतिमा रूप बतों का मन बचन काय की शुद्धता पूर्वक सम्यक प्रकार पालन करता है वह उस व्रत के प्रभाव से अच्युतस्वर्ग-१६ वें स्वर्ग पर्यन्त तक जा सकता है अर्थात् समाधि पूर्वक प्राणोत्सर्गकर कल्पवासी देवों के अतिशयकारी सुखों को भोगता है। वहाँ से पुन: वह मध्यलोक में जन्म लेकर पुण्योदय से चक्रवर्ती, बलभद्रादि के पदों को प्राप्तकर सांसारिक सूत्रों र सांसारिक सुत्रों का धर्म पूर्वक भोग करता है और क्रम से महावत धारणकर, अतिपवित्र रत्नत्रय की सम्यक् प्रकार अाराधना करता है, उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शोच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचयं इन १० प्रकार के धन रूपी जल से कर्म कालिमा का प्रक्षालन करता है, ६ प्रकार के बाह्यतप ६ प्रकार के अन्तरङ्ग तपों के द्वारा आत्मा को तपा कर रत्नत्रय की पुष्टि करता है, आत्मा का शोधन करता है । २८ प्रकार के मूलगुणों और ८४ लाख उत्तरगुणों के पालन में तत्पर रहता हआ वह दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार, चारित्राचार, और विनयाचार-इन पांच आचार रूपी आभूषणों को धारण कर प्रात्मा को अलङ्कृत करता हा धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के द्वारा, स्वाध्याय में अपने को लगाकर, ज्ञानारूढ़ होकर, ज्ञानधन आत्म स्वरूप में स्थिर होकर, श्रेष्ठ मोक्ष रूपी सुख का अनुभव करता है। इतिमत्वा महाभव्यैः शक्तितो भक्तिपूर्वकम् । आराध्यो जिनधर्मोऽयं नित्यं स्वर्गापवर्गदः ॥११॥ करोति प्रत्यहं योऽत्र धर्मयत्नेन सवतः। सफलं जन्मतस्येदं तद्विना तन्निरर्थकम् ।।१०२॥ अन्वयार्था--(इतिभत्वा) ऐसा मानकर दह श्रद्धानकर (महाभव्ये.) महा भव्यनिकट भव्य पुरुषों के दाम (नित्यं ) सदा, निरन्तर (रवर्गापवर्गदः) स्वर्ग और मोक्षमुख को देने वाला (अयंजिनधर्मो) यह जिगधर्म (भक्तिपूर्वक) भक्ति पूर्वक (माराध्यो) अाराधनीय है, पालन करने योग्य है ।यो अब प्रत्यहं) जो यहाँ प्रतिदिन अर्थात् अहर्निश (यत्नेन) प्रयत्न पूर्वक (सबूतैः) उत्तम व्रतधारणादि क्रियाओं के द्वारा (धर्म करोति) धर्म का पालन करता है (तस्य इदं जन्म सफल) उसी का जन्म सफल है (तद् बिना) धर्म के बिना (तन्निरर्थकम् ) वह भमुष्य जन्म-मानव जीवन निरर्थक है । भावार्थ---जिनेन्द्र प्रभु के द्वारा कथित उवत धायक व्रतों के स्वरूप एवं महत्व को जानकर उन पर हट श्रद्धानकर, निकट गब्धजनों को, निरन्तर अहर्निश, स्वर्ग और कम से मोक्षमस्त्र को देने वाले जिनधर्म की आराधना में भक्तिपूर्वक संलग्न रहना चाहिये अर्थात प्रयत्न पूर्वक जिनधर्म का पालन करना चाहिये । जो उत्तम प्रतधारण यादि क्रियानों के हारा जिनधर्म का प्रयत्न पूर्वक आचरण करता है उसी का जन्म सफल है धर्म के विना मनष्य जीवन का कोई महत्व नहीं है । धर्म विहीन मानव जीवन निरर्थक है, व्यर्थ है ।।१०१ १०२।। मत्वेतीह विधीयते सभवता धर्मस्सुधर्मभज । धर्मेणानुचराखिलं शिवपथं, धर्माय नित्यं नमः ॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद धर्मावं किलमाश्रयान्यमसमं धर्मस्याधस्त्वाश्रयन् । धर्मे तिष्ठ तदाप्तये च नृपते धर्मोऽस्तु ते मुक्तये ॥ १०३ ॥ ( श्रन्वयार्थ – (नुषते ) हे राजन् ( इह ) यहाँ ( इतिमत्वा) ऐसा मानकर ( सधर्मः ) वह धर्म ( भवता ) आपके द्वारा ( विधीयते ) पालन किया जाये ( सुत्र भज ) तुम उस श्रेष्ठ धर्म का श्राचरण करो (धर्मेण ) जिन धर्मानुसार या धर्म के द्वारा ( अखिलं शिवपथ ) परिपूर्ण रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग को ( अनुचर ) ग्रहण करो, पालन करो किल धर्माय नित्यं नमः ) निश्चय से धर्म के लिये नित्य नमन है नमस्कार है ( धर्मात् अन्यं प्रसमं मा आश्रय ) जिनधर्म से भिन्न मिथ्या धर्म का आश्रय मत करो ( धर्मस्य अधः आश्रयन् ) धर्मं के नीने अर्थात् धर्म की छत्रछाया में रहते हुए ( तदान्तये) उभ प्रात्मधर्म को प्राप्ति के लिये (धर्मनिष्ठ) रत्नत्रय रूप धर्म में ही स्थिर हो जाओ ( धर्मो ते मुक्तये श्रस्तु ) वह धर्म तुम्हारी मुक्ति के लिये होवे । भावार्थ - - प्रस्तुत श्लोक में, षट्कारको में धर्म का सन्निवेश कर उस पवित्र धर्म की आचार्य बन्दना करते हुए कहते हैं - हे नृपति ! आपके द्वारा जिनेन्द्रोक्त वह धर्म प्रयत्न पूर्वक पालन किया जाये, यहाँ 'धर्म' में प्रथमा विभक्ति होने से कर्ता कारक है । पुनः तुम उस श्रेष्ठ धर्म को पालो आचरण करो यहां द्वितीया विभक्ति होने से यह कर्म कारक है। free के द्वारा परिपूर्णरत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग को ग्रहण करो, पालन करो यहां 'धर्मेण' में तृतीया विभक्ति है अतः धर्म करण कारक है तथा “निश्चय से धर्म के लिये नमन है -नमस्कार है" यहाँ धर्मा धर्म के लिये चतुर्थी विभक्ति सहित है अतः धर्म सम्प्रदान कारक है पुनः प्राचार्य कहते हैं कि जिनधर्म से भिन्न मिथ्याधर्म का आश्रय मतकरो यहाँ धर्मात् ग्रन्थं धर्म से भिन्न पद पञ्चमी विभक्त युक्त है अतः इसमें अपादान कारक हूं और धर्म के नीचे अर्थात् धर्म की छाया में रहते हुए उस आत्मधर्म को प्राप्ति के लिये रत्नत्रय रूप धर्म में ही स्थिर हो इस वाक्य में "धर्मस्य अधः-धर्म के नोचे" पद षष्ठी विभक्ति सहित है और "तिष्ठ धर्म में स्थिर हो जाओ" सप्तमी विभक्ति युक्त है यतः यहाँ धर्म में सम्बन्ध और अधिकरण कारक का प्रयोग है इस प्रकार षटुकारकों में विभक्त वह जिनधर्मं वर्णित हुआ । अन्त में प्राचार्य कहते हैं हे राजन् ! वह धर्म तुम्हारी मुक्ति के लिये होवे अर्थात् शीघ्र मुक्ति को प्रदान करे ||१०३ ॥ धर्मोष्टफल प्रदस्त्रिजगतां धर्मः सुखानां निधिः । धर्मोमुक्तिधूवशीकरपरो धर्मोमहाधर्मकृत् । धर्मः पापनिकृन्तनो शुभकरो दुःखादिविध्वंसको । धर्मोऽनन्तगुणाकरोऽहनिशं यस्तंस्तुवे मुक्तये ॥१०४॥ अन्वयार्थ -- ( त्रिजगतां ) तीनलोक के समस्त प्राणियों को ( श्रभीष्टफलप्रदः ) इच्छितफल को देने वाला (याः धर्मः ) जो धर्म (सुखानां निधिः ) सुखों का खजाना है ( धर्मो मुक्ति वशीकरrd) धर्म मुक्ति रूपी वधू को वश करने में समर्थ साधन है ( धर्मो महाधर्मकृत् ) जिन Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद प्रणीत जो श्रावक वा मुनिधर्म, महाधर्म स्वरूप प्रात्मा के अनन्त चतुष्टयादि को प्रकट करने बाला है (धर्मोअनन्तगुणा करो) जो जिन धर्म अनन्तगुणों का प्राकर-स्थान है (तं) उस धर्म को (मुक्तये) मुक्ति के लिये (स्तुवे) स्तुति करता हूँ। भावार्थ--प्राचार्य कहते हैं जो जिन धर्म तीन लोक के समस्त प्राणियों को इच्छित फल को देने वाला है, सुखों का खजाना है मुक्ति रूपी वधू को वश करने में समर्थ साधन है तथा प्रात्मा के अनन्त चतुष्टय आदि महाधर्मों को प्रकट करने वाला है, अनन्त गुणों का आकर-स्थान है उस जिनधर्म की मुक्ति के लिये मैं स्तुति करता हूँ। ___ इस प्रकार इस अध्याय के अन्त में यहां श्रावक के व्रतों, धर्मों का स्वरूप बताकर नाना प्रकार से जिनधर्म की स्तुतिकर आचार्य ने व्यवहार धर्म को मुक्ति का साधक बताया है। इति श्री सिद्धचत्र पूजातिशय प्राप्ते श्रीपाल महाराज चरिते भट्टारक श्रीसकल कीति विचिते श्रीपाल महाराज राज्यलाभधर्म श्रवणवर्णनकर: अष्टमपरिच्छेदः ।। इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति आचार्य विरचित श्री सिद्धचक्रपूजा के अतिशय को प्राप्त श्रीयाल महाराज चरित के अन्दर श्रीपालमहाराज के राज्य लाभ और धर्मश्नवण का वर्णन करने वाला अष्टम परिच्छेद समाप्त हुआ। "शुभमस्तु" यह सब के लिये मङ्गलकारी होवे । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नवम. परिच्छेदः॥ अथ श्रीपालभूपालो जिनधर्म जगद्धितम् । श्रुत्वा पुनविशेषेण ज्ञातु तं मुनिनायकम् ॥१॥ वन्दिस्वा प्राह भो स्वामिन् जगत्त्रय हितंकरम् । ब्रूहि भोकरुणासिन्धो, विश्वतत्व विदाम्बर ॥२॥ अन्वयार्थ-श्रुतसागर मुनिराज के मुखारविन्द से धीपाल भूपाल ने धर्मोपदेशामृत का पान किया किन्तु उसकी चिरपिपासा शान्त नहीं हुयो । अत: विशेष रूप से धर्म का लक्षण ज्ञात करने के लिए पुनः प्रार्थना करता है (अथ) श्राव। धर्म स्वरूप (श्रुत्वा) सुनकर (श्रीपाल भपाल:) श्रीपालनरेश्वर ने (जग द्धितम ) संसार का हितंकर (जिनधर्गम ज़िमधर्म को (एन: पुन: (विशेषेण) विशेष रूप से (ज्ञातुम् ) जानने के लिए (तम्) उन (मुनिनायकम ) मुनोन्द्र को (वन्दित्वा) नमस्कार कर (प्राह) बोला (भो) हे (स्वामिन्) प्रभो! (भो) हे (करुणामिन्धो ! ) करुणासागर ! (विश्वतत्त्व विदाम्बर ! ) भो विश्व के तत्वों के शायक प्रभुवर ! (जगत्त्रयहितंकरम) तीनलोक का हितकरने वाला (धर्मम्) धर्म (पुनः) फिर से (बहि.) कहिये । भावार्थ-थी श्रुतसागर वास्तव में श्रुतरूप महोदधि के पारगाभी थे । उनकी वारणी रूपी चन्द्रिका से श्रावकधर्म का प्रकाश प्राप्त कर श्रोपाल भूपेन्द्र को ज्ञानपिपासा अधिक बड गई । अतः और भी विशेष रूप से धर्म के रहस्य को पुण्य-पाप के फल को जानने समझने की उत्कण्ठा प्रबल हो गई । वे श्रीमुनिराज गुरुदेव को पुन: पुन: बन्दन कर, नमस्कार कर, करा जुलि मस्तक पर चढाकर बोले-हे प्रभो ! भो स्वामिन् ! भो करुणासागर ! अहो विश्व सत्त्व ज्ञाता ! संसार का हित करने वाला धर्म और भी विशेष रूप से जानना चाहता हूँ । ठीक ही तत्त्व जिज्ञासा इसी प्रकार की होती है । इसमें सन्तोप कहाँ ? तभी तो अहमिन्द्र लोक में तत्व विवेचना मात्र में ३३ सागर की दोर्ष प्रायु क्षणभर के समान निकल जाती है। भव्य नीबों को तत्त्वपरिझान अवश्य ही करना चाहिए ।।१,२॥ प्रागे श्रीपाल जी पुनः प्रश्न करते हैं .. भगवन् केन पुण्येन राज्यं प्राप्तोऽति शैशवे । नातः कोटिभटएचाहं केन पापेन राज्यतः ।।३।। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेद ] भष्टो बभूव कुष्टाङ्गः केन दुष्कर्मणा भूवि । समुद्रे पातिते वैश्यैः केनातिनिद्यकर्मणा ||४|| मातङ्गी घोषितश्चाहं चाण्डालेश्चण्डकर्मभिः । केन पुण्येन संशुद्धो जातोऽहं राजसत्तमः ||५| सार्द्धं मदनसुन्दर्या मे कि स्नेहस्य काररणम् । सत्सर्व पूर्व जन्मत्त्व सुधी में वक्तुमर्हसि ॥६॥ श्रीपाल चरित्र नवम, [×ë अन्वयार्थ---- (भगवन ) हे भगवन् ! ( अहम् ) मैंने ( केन पुण्येन ) किस पुण्य से ! अति ) बहुत ( शैशवे) बाल्यकाल में ( राज्यम ) राज्य ( प्राप्तम) पाया (च) और (कोटिभटः ) कोटीभट (जात) हुआ, पुनः ( केन पापेन ) किस पाप से ( राज्यतः ) राज्य से ( भ्रष्टः ) च्युत ( सूत्र ) हुआ, ( केन) किस ( दुष्कर्मणा ) कुकम से ( भुवि ) भूमण्डल पर ( कुष्ठाङ्गः ) कोढ पीडित शरीर हुआ तथा (क) किस (अधिकरण) वीचकर्म से अत्यन्त नीचकर्म से ( वेश्ये :) व्यापारी धवलसेठ द्वारा (समुद्र ) सागर में (पातितः ) डालागया (खण्ड कर्मभिः) प्रचण्ड दुष्कर्म द्वारा ( चाण्डालः) चाण्डालों द्वारा ( ग्रहम् ) मैं ( भावङ्ग) महतर ( घोषितः) कहा गया तथा (केन ) किरा (पेन) पुण्य से ( ग्रहम् ) में ( राजसत्तमः) राजाओं में श्रेष्ठ ( संशुद्धः) शुद्ध (जात:) हुआ, ( मदनसुन्दर्या ) मदनसुन्दरी के ( सार्द्धम ) साथ (मे) मेरे (स्नेहस्थ ) प्रेम का ( कारणम्) कारण ( किम ) क्या है ( सुधी ! ) हे सद्बुद्धे ! ( तत्सर्वम. ) वह सब ( पूर्व जन्मत्वम् ) पूर्वजन्म का हेतूपना आप (मे) सुभे ( वक्तुम ) कहने के लिए (हसि) समर्थ हो, अतः कहिए । भावार्थ - महामण्डलेश्वर श्रीपाल कोटिभट श्रीगुरु से अपनी भवावली ज्ञात करने के लिए प्रश्न करता है और श्रीगुरुदेव से उत्तर पाने के लिए आग्रह करता है । वह सविनय नमन कर पूछता है । हे भगवन् ! किस पुण्योदय से मुझे अत्यन्तलघु शिशु अवस्था में ही राज्य प्राप्त हुआ ? तथा कोटिभट कहलाया । पुनः किम पाप से राज्यच्युत होना पड़ा, पाया राज्य भी छोड़ना पड़ा ? किस पापकर्म से शरीर में कुछव्याधि हुई ? कौन ऐसा निद्य खोटा कर्म किया जिससे धवलसेठ बनिया ने समुद्र की उत्तालतरङ्गों की गोद में सुलाया । अर्थात् सागर में गिराया ? पुनः किस पुण्य से तैरकर पार हुआ और उत्तम राजा हुआ, पुन: किस पापोदय सेप्रचण्ड नीच कर्म से चाण्डालों द्वारा मातङ्ग घोषित किया गया ? पुनः शुद्ध होने और राजसत्ता पाने का क्या हेतु है ? मदनसुन्दरी के प्रति प्रगाह स्नेह का कारण क्या है ? हे सुबुद्ध ! विमल ज्ञानने ! यह सर्व पूर्व जन्म की करनी आप मुझे समझाने में समर्थ हैं कृपा कर समझाइये । इन प्रश्नों के समाधान से पुण्य-पाप का उपार्जन, उस का फल और उससे भय वैराग्य प्राप्त होगा ||३ से ६ || तत् समाकर्ण्य सम्प्राह मुनीन्द्रः श्रुतसागरः । शृण त्वं भो प्रभो वक्ष्ये सर्व श्रीपाल ते भवम् ॥७॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३०] [श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद अन्वयार्थ-(तत्समाकर्य) श्रीपाल के उन प्रश्नों को सुनकर (श्रुतसागरः) धतसागर (मुनीन्द्रः) मुनिराज (सम्प्राह) बोले (भो श्रीपालः) हे श्रीपाल (प्रभो ! ) राजन (ते) तुम्हारे (सर्वम् ) सम्पूर्ण (भवम ) भव की घटना को (वक्ष्ये) कहूँगा (स्वम ) तुम (शृण ) सुनो। भावार्थ-श्रीपाल के प्रश्नों को सुनकर आचार्य श्री श्रुतसागर जी महाराज कहने लगे भो श्रीपाल राजन् ! आपके पूर्व भव का सकल वृतान्त मैं निरूपगा करता हूँ आप ध्यान पूर्वक सुनिये । पाप पुण्य का परिणाम क्या होता है अापको स्पष्ट हो जायेगा ।।७।। इहैव भारते क्षेत्रे पवित्रे जिन जन्मभिः । विजयार्द्ध गिरौ रम्ये विद्यानामास्पबे शुभे ॥८॥ एकोन षष्ठिकं तत्र पुरं रत्नाकराभिधम् । उत्तरणिसंस्थन् तत्त्पतिविद्याधराधिपः ॥६॥ श्री कान्ताख्या सतीतस्य श्रीमती प्राणवल्लभा । जिनं स्नपनम् पूजाद्यैः पात्रदानरण व्रतः ॥१०॥ उपवासादिभिपुण्यं श्रीमती कुरुते सदा । श्रीकान्तः केवलं भोगान् भुनक्ति विषयान्ध धीः ॥११॥ अन्वयार्थ---(इहैव) यहीं (भारते क्षेत्रे) भरतक्षेत्र में जो (जिनजन्मभिः) जिनाकों द्वारा पवित्र) पवित्र उसमें (रम्ये) रमणीक (विजयार्द्धगिरी) विजयगिरि पर (भे) शुभ (विद्यानामास्पदे) विद्याधरों के निवास में (उत्तरश्रेणी संस्थन्) उत्तर श्रेणो में स्थित (एकौनषष्टिकं) उनसठवाँ (रत्नाकराभिधम् ) रत्नाकर नामक (पुरम् ) नगर था (तत्र) वहाँ (तत्पतिः) उस पुर का राजा (विद्याधराधिप:) विद्याधर भूपति (श्रीकान्ताख्याः) श्रीकान्तनामा राजा और (श्रीमती सती) सती श्रीमती थीं। (श्रीमती) श्रीमती रानी (सदा) हमेशा (जिनस्नपनम ) जिनाभिषेक (पूजाद्य :) अष्ट विधि पूजादि (पात्रदानः) सत्पात्रदान (अण व्रतैः) प्रण व्रतपालन, (उपवासादिभिः) उपवास आदि द्वारा (पुण्यम.) पुण्यकार्य (कुरुते) करती रहती थी किन्तु (श्रीकान्तः) श्रीकान्त राजा (विषयान्ध घो:) विषयों में अन्धबुद्धि (केवलम् ) मात्र (भोगान्) भोगों को (भुनक्ति) भोगता था । भावार्थ--भारत क्षेत्र में विजयाद्ध पर्वत है । यह गिरि श्री जिनेन्द्र प्रभु के जन्माभिषेकों द्वारा महा पवित्र है । इसकी उत्तर श्रेणी में ६० विद्याधर नगरियाँ हैं । उनमें से उन. सठवीं पुरी का नाम रत्नाकर है। यह पर्वत जितना पावन था उतना ही यह नगर भी सुन्दर था । उसका विद्याधर राजा श्रीकान्त नामका राजा था उसकी रानी श्रीमती थी। श्रीमती महा पतिव्रता, शीलवती थी। वह हमेशा प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक, अष्टविधपूजा, पात्रदान, अण व्रत पालन, उपवास, जप, तप आदि द्वारा पुण्य सम्पादन करती थी। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद] [४७१ परन्तु भूपति श्रीकान्त केवल अहनिश भोगों में ही प्रासक्त रहता था । वह विषयाध धर्म-कर्म से विहीन था। दोनों दम्पत्तियों की पुण्य-पाप रूप दो धाराएं चलतीं। विरोधी धराएं चलने पर भी रानी अपने धर्मध्यान में अडिग ही रही ।।८ से ११।। धर्माचारं न जानाति विचारं पुण्यपापयोः । एकदा सः प्रभूप्रीत्या श्रीकान्तः कान्तया समम् ॥१२॥ श्रीमत्या स्वबने रन्तुगतस्तत्र वनेघने सुगुप्ताचार्य-योगीन्द्रं निरीक्ष्य शिरसाऽनमत् ॥१३॥ अन्वयार्थ--(सः) वह राजा (धर्माचारम ) धर्माचरण (न जानाति) नहीं जानता है (पुण्यपापयोः) पुण्यपाप का (विचारम ) बिचार (न जानाति) नहीं जानता है (एकदा) एक समय (प्रभुः) वह राजा (श्रीकान्तः) श्रीकान्त (प्रात्या) प्रेम से (श्रीमत्या) श्रीमती (कान्तया) प्रिया के (समम ) साथ (स्व) अपने (वने) वन में (रन्तुम) क्रीडा करने (र.तः) गया (तत्र) वहाँ (घने वने) सघन वन में (सुगुप्ताचार्य योगीन्द्रम् ) सुगुप्ताधार्य मुनिराज को 1निरीक्ष्य) देखकर (शिरसा) मस्तक झुका (अनमत्) नमस्कार किया ।।१२, १३॥ मावार्थ--वह श्रीकान्त महाराज धर्माचार और पुण्य पाप के विवेक से शून्य था । - :-. - ---. - . . --- : . - seal +MA Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] [ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद एक दिन वह अपनी प्रिया श्रीमती के साथ अपने उपवन में रमण करने पोडा करने को आया । भोग-बिलास को गया। परन्तु वहाँ सघन वन में महातपस्वी सुगुप्ताचार्य योगिराज विराजे थे । राजा ने उन्हें देखकर मस्तक झुका सविनय नमस्कार किया ॥१२ १३।। मुनिस्तं प्रत्युवाचेति राजन् धर्म दयामयम् । घोर संसार दुःखौद्य-पाप सन्ताप नाशकम् ॥१४॥ कुर येन परं सौख्यमिहामुत्र भवेत सताम् । केवलं विषयासक्तं पापं मा कुरु चावृतः ॥१५॥ अन्वयार्थ- (मुनिः) दयालु मुनिराज (तं प्रति) उस राजा के प्रति ( उवाज) बोले (राजन) हे भूप! (घोरसंसारदुःखौद्य) भयङ्कर संसार के दुःख समूह (पाप-सन्ताप) पाप सन्ताप को (नाशकम) नाश करने वाले (दयामयम ) दयामयी (धर्मम ) धर्म को (कुरु) करो (इति) बस, (येन) जिसधर्म से (सताम् ) सत्पुरुषों को (इह) इसलोक में (अमुत्र) परलोक में (परमसुखम् ) उत्तममुख (भवेत्। होता है (च) और अवत) अवतों नागों द्वारा (केवलम् ) मात्र (विषयासक्तम् ) विषयों में लीन हो (पापम्) पाप (मा) मत (कुरु) करो ॥१४ १५।। मावार्थ-परोपकाररत महामुनिराज ने उस राजा श्रीकान्त की प्रवृति को समझ लिया। उस पर दया कर बोले भो भपाल ! आप धर्म का सेवन करिये। जिनेन्द्रोक्त धर्म दयामय है, यह धर्म संसार के घोर दुःस्त्रों से बचाने वाला है। पाप उनकी ताप को शान्त करने वाला सघन मेध समान है । उभय लोक में हितकारक है । सज्जनों को यही एक मात्र आधार है। उत्तम सुख का यह धर्म हो सफल हेतू है । आप प्रवृती होकर पापों स विषयासक्त हो अशुभ कर्मों को मत करो। अर्थात् पाप कर्म छोड़ो । मुख का निमित्त धर्म है इसे ही सेवन करो ॥१४-१५॥ येन पापेन पुसा स्यात् सर्वत्र दुःखमुल्यणम् । जनधर्मस्तु दुष्प्रापश्चिन्तामणिरिद प्रभो ॥१६॥ इति तद् बचसा राजा तं नत्वा श्रावक वृतम् । गृहीत्वाधर्मसिद्धयर्थं स्वसौख्याय गृहं ययौ ।।१७।। अन्वयार्थ-- (येन) जिस (पापेन) पापद्वारा (पुसाम् ) ग्रात्मा को (सर्वत्र) सन जगह (उल्वणम् ) भयङ्कर (दुःख) कष्ट (स्यात्) होगा (जैनधर्मस्तु) जैन धर्म तो (चिन्तामणि: चिन्तामणिरत्न (इव) समान (प्रभो ! ) हे राजन् (दुष्प्रापः) कठिनता से प्राप्त होने वाला है (इति) इस प्रकार (तद् वचसा) मुनिराज बचन से (राजा) पृथिवीपति (श्रावकवतम) श्रावक के व्रत (गृहीत्वा) लेकर (धर्म सिद्धयर्थम्) धर्म की सिद्धि के लिए (स्व. सौख्याय) अपनी सुख अभिलाषा के लिए (गृहम) घर (पयो) चला गया। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद] [४७३ भावार्थ-पापों से मनुष्यों को सर्वत्र भयङ्कर दुःख ही दुःख प्राप्त होते हैं । जैनधर्म ही इनसे बचाने वाला है। यह चिन्तामणिरत्न समान महान कठिन साध्य है। इस प्रकार गुरुराज के वचनामृत का पान कर राजा ने श्रावक के व्रत धारण किये । धर्म की सिद्धि के लिए और सुख पाने की अभिलाषा पूर्ण करने हेतू बह श्रीकान्त महीपति अपने घर चला गया। चला तो गया परन्तु निमित्तों का प्रभाव उसे विचलित किये बिना न रहा ॥१६-१७॥ आगे देखिये--- तानि पालयतस्तस्य दिनः कतिपयर्गतः । पापोदयेन सङ्गोऽभूमिथ्यादृशां तु पापिनाम् ॥१८॥ तेन कुत्सितसङ्गन त्यक्त्वा वृतानि सोऽबुधः । लम्पटोऽभूत्तरां पापी मिथ्याष्टिश्च दुर्जनः ॥१६॥ प्रन्ययार्थ--(तानि) उन व्रतों को (पालयत:) पालन करते हुए (कतिपय:) कुछ (दिनैः) दिन (गतैः) व्यतीत होने पर (पापोदयेन) पापकर्म के उदय से (पापिनाम ) पापात्मा (मिथ्यादृशाम्) मिथ्याष्टियों का (सङ्गः) सङ्गति (प्रभूत) हो गई (तु) निश्चय ही (तेन) उस (कुत्सितसङ्गेन) खोटे जन सम्पर्क से (सः) वह (अबुधः) अज्ञानी (प्रतानि) यतों को (त्यक्त्वा) छोड़कर (सराम्) अत्यन्त (सम्पः:) टी (प) और (नियाष्टि:) मिथ्यात्वी (दुर्जनः) दुर्जन (अभूत) हो गया । भावार्थ-श्रीकान्त विद्याधर राजा ने जितनी श्रद्धाभक्ति से व्रतों को धारण किया, उतने ही उत्साह और उमङ्ग से पालन भी किया। इस प्रकार व्रत पालन करते हए उसके कुछ दिन महाशान्ति से व्यतीत हो गये । पुनः पाप कर्म के उदय से बह मिथ्यादृष्टि दृष्टजनों की सङ्गति में फंस गया और उनके प्रभाव से व्रतों से च्युत हो गया अर्थात् व्रतों का त्याग कर दिया । यही नहीं पुनः भयङ्कर विषय लम्पटी हो गया । मिथ्यात्व सेवन करने लगा । कञ्चनरूप जिनधर्म का परित्याग कर पीतलरूप मिथ्याधर्म स्वीकार कर लिया। ठीक ही है वाह्य निमित्त भी जीव के हिता हित में कारण होते ही हैं ।।१५, १६।। अहो व्याघ्रो हि चौराणां वरं सङ्गः कृतो जनः । भक दुःखदो मिश्यादृक् सङ्गोऽनन्त दुःखकृत् ॥२०॥ तभङ्गाज पापेन तेन त्वं राज्य-विच्युतिः । जातोऽतः प्राणनाशेऽपि न मोक्तव्यं तमतमम् ॥२१॥ अन्वयार्थ---- (अहो ! ) हो भव्यजन हो (एक) एक (भव) भव (दुःखदः) कष्ट देने वाला (व्याघ्रः) व्याघ-बाघ (चौराणाम् ) तस्करों का (सङ्गः) सहवास (कृतः) किया गया (जनैः) मनुष्यों द्वारा (हि) निश्चय से (बरम् ) श्रेष्ठ है किन्तु (अनन्तदुःख कृत् ) अनन्तों दुःखों को करने वाला (मिथ्यारा) मिथ्या दृष्टियों का (सङ्ग) सङ्गः (न) उत्तम नहीं (तेन) Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४] [श्रीपाल चरित्र नत्रम् परिच्छेद उस (व्रतभङ्गज) प्रतच्युत से जन्य (पापेन) पाप से (त्वम् ) तुमको ( राज्यविच्युतिः) राज्य भ्रष्टता (जाता) हुयी (अत:) इसलिए (प्रणनाशेऽपि) प्राणनाश होने पर भी (उत्तमम् ) उत्तम (व्रतम.) व्रत को (न मोक्तव्यम ) नहीं छोड़ना चाहिए । भावार्थ-जो भव्य जन हो ! व्याघ्र, सिह, विष शस्त्रादि तो एक ही भव में प्राणघातक होते हैं, परन्तु मिथ्यावास-मिथ्यादृष्टि दुर्जनों की सङ्गति भव-भवान्तरों में भी कष्टप्रद होती है । अर्थात् कुसङ्गति से भव-भव में कष्ट देने वाला पापार्जन होता है । पापियों का सहवास पाप ही उपार्जन करायेगा ? जो अनन्तभवों तक कुफल देता रहेगा। हे राजन् श्रीपाल तुमने धारण किये वृतों का परित्याग कर दिया था, इसी कारण राज्यभ्रष्ट हुए । इसीलिए प्राणनाश होने पर भी कभी भी वृत लेकर नहीं छोड़ना चाहिए ॥२०२१।। अन्यवारण्यमध्यस्थं दिग्वस्त्रालड्कृतं मुनिम् । जल्लादि ऋद्धिसंयुक्त सावधिज्ञान वीक्षरणम् ॥२२॥ विलोक्याशुभ पाकेन कुष्ठीचाऽयमिति ध्र वम् । प्रकाशेत तस्य निन्दा सः भटस्सप्तशतैस्समम् ॥२३॥ तेन दुर्धाक्यजाघेन कुष्ठी जातो भवानिह । अङ्गरक्षभेटैस्सप्तशतैस्सहातिदुःखभाक् ।२४।। प्रतो राजन् न कर्त्तव्यं निन्दा प्राणात्यये क्वचित । यतीनां यतो निन्दातनिधःस्याद् स तु भवे-भवे ।।२५।। अन्वयार्थ—(अन्यदा) किसी समय (अरण्यमध्यस्थम् । अटबी के मध्य स्थित (दिग्व. स्वालकृत) दिशा रूपी वस्त्रों से शोभित (मुनिम् ) मुनिराज को जो(जल्लादिऋद्धिसंयुक्तम् । जल्लोषधि आदि ऋद्धियों के धारी (सावधिज्ञानबीक्षणम्) अवधि ज्ञानरूपी लोचन सहित थे उन्हें (विलोक्य ) देखकर (अशुभपाकेन) अशुभकर्मोदय से (अयम् ) यह (ध्र वम ) निश्चय हो (कुष्ठी) कोढी है (इति) इस प्रकार (भटेसप्तशतसमम.) सात सौ भटों के साथ (स:) उमने (तस्य) उन मुनिराज की (निदाम ) निन्दा अकरोत.) की (तेन) उस (दुर्बाक्यज) कटुवाक्य से उत्पन्न (अधेन) पाप से (भवान्) पाप (ह) इस भव में (कुष्टी) कोढी (जाल:) हुए हो (च) और उन (अङ्गरक्षः) अङ्ग रक्षक (सप्तशतै:) सात सौ (मेट:) सुभटों के (सह) साथ (अति दुःखभाक) अत्यन्त दुःख के पात्र (भवान) पाप ( जातः) हुए (अतः) इसलिए (राजन) भो राजन (प्राणात्यये) प्राण जाने पर भी (क्वचित) कभी भी (यतोनाम्) यतियों की (निन्दा) निन्दा (न) नहीं (कार्तव्यम ) करना चाहिए (यतो) क्योंकि (निन्दात्) निन्दा से (स:) वह मानव (भवे भवे) मत्र-भव में (निद्यः) निन्दनीय (स्यात्) होगा। मवार्थ---हे राजन थोपाल सुनो, उस धोकान्त राजा ने वृत नियम त्याग दिये । इसके Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSSM HAR ALTHS RA NARY मुनिराज राजा श्रीपाल को उसके पूर्व भव की घटना क्रम बलाते हुए। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद] [४७५ अनन्तर किसी एक समय वह महा भयङ्कर अटवीं में गया। वहां उसने एक महातपस्वी जल्लीषधि आदि ऋद्धियों एवं अवधिज्ञान लोचनधारी दिशारूपी बस्त्रों से जो अलङ्कृत थे उन मुनीन्द्र को ध्यानस्थ देखा । तोव पाप कर्म के उदय से उसने परमवीतरागी मुनीराज को देखकर अज्ञानवश कहा कि देखो यह महाकोही है। उस समय उसके साथ सात सौ महावीर अङ्गरक्षक सभट थे उन्होंने भी इसो निद्यवाक्य का समर्थन किया कि हाँ हाँ यह निश्चित ही कोट रोग से व्याप्त है । उस दुर्वाक्य स उत्पन्न घोर पाप से आप इस भव में उन सातसौ भटों के साथ आप भयङ्कर दुःखकारक कुष्ट रोग से पीडित हुए । अत: हे भूपते ! कभी भी भूलकर भो प्राण जाने पर भी यतियों दिगम्बर साधुनों की निन्दा नहीं करना चाहिए । क्योंकि गुरु निन्दा से जीव भव-भव में कठोर यातनाओं का पात्र बनता है। वर्तमान युग में कुछ पन्थ व्यामोही अज्ञानान्धकारवश निर्दोष, दिगम्बर साधनों की निन्दा करने में ही अपना गौरव समझते हैं उन्हें इस श्रीपाल के पूर्व जन्म की घटना से शिक्षा लेना चाहिए । अन्य को नहीं तो कम से कम स्वयं अपने को नो धोखा देने का त्याग करना चाहिए । साधु पीर साधुसंघ का अवर्णवाद करने से बचना चाहिए ॥२२ से २५।। प्रथान्येधुस्सरस्तीरे कायोत्सर्ग स्थित मुनिम् । निजामध्यात संत्रीनं मुक्ति श्रीचित्तरञ्जकम् ॥२६॥ रष्ट्व] पापधीः पापात् स निक्षिप्य सरोवरे । पुनस्तस्मात् समाकृष्य ममोच यतिनायकम् ॥२७॥ तेन पापेन भूपस्त्वं निक्षिप्तरतर्महाम्बुधौ । जीवितो निर्गतस्तस्मात् भुजाभ्यां यतिमोचनात् ।।२८।। अन्ययार्थ (प्रथ) इस घटना के बाद (अन्य ) दुसरे (:) दिन (सरस्तीरे) सरोवर के किनारे पर (निजात्मध्यानसंलोनम ) स्त्रात्मध्यान में तल्लीन (मुक्तिथोचित्तरञ्जकम्) मोक्ष लक्ष्मी के मन को प्रसन्न करने वाले (कायोत्सर्गस्थितम ) कायोत्सर्ग खडगासन से स्थित (मुनिम ) मुनिराज को (हष्ट्वा) देखकर । सः) उस श्रीकान्त राजा (पापाधी:) पापी में (पापात पापोदय से उन मुनि को (सरोवरे) तालाब में (निक्षिप्य ) फककर (पुनः) फिर (तस्मात्) उस तालाब से (समाकृष्य) खींचकर-निकालकर (यातिनायकम् ) मुनिराज को (मुमोच) छोड दिया (भूप !) हे श्रीपाल भूप (लेन) उस (पापेन) पाप से (त्वम ) तुम (महाजधौ) घोर सागर में (तेः) उन व्यापारियों द्वारा (निक्षितः) डाले गये (यतिमोचनात्) मुनिराज को वापिस निकालने से (भुजाभ्याम ) हाथों से तर कर (तस्मात् ) उस सागर से (जोवितः) जीवित (निर्गत:) निकला। ___ भावार्थ -मुनिराज को कुष्ठी कहने की घटना के बाद किसी एक दिन उस राजा श्रीकान्त ने उद्यान में विशाल सरोवर के तट पर एक महातपस्वी मुनिराज जी प्रात्मध्यान में तल्लोन थे, देखा । वे कायोत्सर्ग मुद्रा से ध्यान करने में लीन थे कि उसने पापबुद्धि से अज्ञानवश Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र नवम, परिच्छेद उन मुनिराज को सरोवर में फेंक दिया । पुनः कुछ शुभ विचार प्राने पर उन्हें वापिस निकाल लिया । हे श्रीपाल भूपाल ! सुनो! जीव जैसा कर्म करता है, वह वैसा ही फल प्राप्त करता है। आपने पूर्व भव में मुनीस्वर को फेंका उस पपोतुम्हें व्यपारियों मारापमा विलाल सागर में पड़ना पड़ा । उस घोर पाप का फल कठोर कष्ट तुम पर आयो । पुन: तुमने (श्रीकान्तराजाने) उन श्री मुनि को वापिस निकाल लिया, उस भाब के आगत पुण्यकर्म के उदय से तुम भुजानों से उस घोर सागर को पार करने में समर्थ हुए। हे भव्यो ! आपका सुख-दुःख आपको क्रियानों पर ही आधारित है। जीव स्वयं अपने अज्ञान भाव से दुःखी होता है और अपने ही ज्ञान भाव से सुखी होता है बन्धनमुक्त होता है ।।२६ २७ २८।। -- - --- - --- ---- ----...--:- -- - - : : - --:. . : - . -'' A . ATTA -- - - .. --- - प्रथ राजन बुराचारो स्वल्पोऽपि प्राणिनां भवेत । अनन्तदुःख सन्तानं तस्मात कायां न जातु सः ॥२६॥ अन्वयार्थ-(अर्थ) इसलिए (राजन् ) है भूपेन्द्र ! (स्वरुपः) अल्प (अपि) भी (दुराचार:) दुराचार (प्रोगिणनाम.) प्राणियों को (अनम्तदुःहसतान) अनन्त दुःख परम्परा (भवेत.) होती है (तस्मात ) इसलिए. (सः) बह दुराचार (जासु) कभी भी (म) नहीं (कार्य:) करना चाहिए। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५७ श्रोपाल चरित्र नवम् परिच्छेद] मावार्थ--अवधिज्ञानी मुनिराज उपदेश दे रहे हैं कि हे श्रीपाल नरेश ! तुमने पूर्व जन्म में जिस-जिस प्रकार मुनिराज को निन्दा, अपमान, व दुर्व्यवहार किया, तदनुसार उसका फल यहाँ भोगना पड़ा । मुनिनिन्दा से बढ़कर अन्य कोई बड़ा पाप नहीं है । यह प्राणियों को अनन्न दु:ख परम्पराओं का कारण होता है। अस्तु, कभी भी ज्ञात व अज्ञात अवस्था में साधुनों का अपलाप, अवतार, निन्दाह करावाहिका ततोऽन्यस्मिन्विने चोरोग्रमहातितपोवजः। अत्यन्तक्षीणसर्वाङ्ग शीतोष्णाविपरिषहैः ॥३०॥ बग्धद ममिवालोक्य तं मुनीन्द्रं स भूपतिः । चाण्डालोऽयं प्रजल्प्येति पानिधं व्यधान्मनेः ॥३१॥ तेन दुर्वाक्यजाघेन, पारणस्त्व घोषितो भूथि । चाण्डालोऽश्रेति मत्वाऽहो न वाच्यं दुर्वचः क्वचित् ॥३२॥ अन्वयार्थ---(ततः) इसलिए, किसी (अन्यस्मिन्) दूसरे (दिने) दिन में (उग्रोग्र) धोर (महातितपोव्रजः) महान विविधतपों द्वारा (च) और (शीतोष्णादिपरिषहै:) शीत, उष्ण आदि परीषहों द्वारा (दग्धद्र मः) जले वृध (इष) समान (तम् ) उन (मुनीन्द्रम) Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७= } [ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद मुनिराज को (प्रालोक्य ) देखकर (सः) उस ( भूपतिः) राजा ने ( अयम | यह ( चाण्डालः) चान है (इति) इस प्रकार ( प्रजय) प्रलापकर (नियम) नीच ( पापम) पाप (धात्) किया ( तेन) उस ( मुनेः ) मुनिराज के ( दुर्वाक्वज) दुर्वाक्य से उत्पन्न (पेन) पाप से (पाणैः ) चाण्डालों द्वारा (भवि ) संसार में ( अत्र ) यहाँ ( चाण्डाल : ) चाण्डाल ( घोषित : ) घोषित किया गया ( अहो ) भो भूप ! (इति) इसप्रकार ( मत्वा ) मानकर (क्वचित् ) कभी भी ( दुर्बच: ) खोटा वचन (न) नहीं ( वाच्यम ) बोलना चाहिए ३० ३१३२ ।। भावार्थ - मुनिराज पुनः कहने लगे हे महीपते। किसी एक दिन उस श्रीकान्त ने महान घोर तपस्वी, उग्रोग्रमहातपश्चरण और भीषण दुर्द्धर परिषहों के सहन करने से श्रग्निदाह से झुलसे वृक्ष के समान उन मुनिराज की क्षीण काया को देखकर कहा, यह चाण्डाल है । इस प्रकार महानिन्ध पापमय वचन कहे। इन कुवाक्यों से उत्पन्न पाप के फलस्वरूप इस भव में चाण्डालों द्वारा आपको चाण्डाल घोषित किया गया । अतः तपस्वियों के प्रति कभी भी दुर्वचन नहीं बोलना चाहिए। तपः पूत साधु-शरीर क्षीण और जल्ल मल्ल युक्त होने पर भी रत्नत्रय से परम पावन होता है। उसे देखकर ग्लानि भी नहीं रना चाहिए फिर कटुवचन का तो दुष्परिणाम होगा ही ।। २६ से २२|| इत्यादिकं दुराचारं प्रभोर्मत्वा तदा द्रुतम् । श्राविकाकाsपि शुद्धात्मा, सती गुणवती भृशम् ||३३|| श्रागत्य श्रीमती प्राह भो देवि त्वत्पतिर्वृथा । मिथ्यास. गेन संत्यज्य जैनधर्मं जगद्धितम् ||३४॥ तथा पीडां मुनोद्राणां चक्रे दुःखशतप्रदाम् । एवं सर्वदुराचारं पत्युः श्रुत्वा महासती ॥ ३५॥। श्रीमती जिनसद्धर्मसंसक्ता वा मुनेर्मतिः जगावित्थमहोगे हावासो वैषयिके सुखे ||३६|| भत्तू पापिनो मूनिवज्र' पततु निश्चितम् । विग्राज्यं धिक् कुराजानं धिग् भोगान् दुःखदायकान् ||३७|| प्रातरुत्थाय जैनेन्द्री बीक्षां दुष्कर्म नाशिनीम् । ग्रहिष्यामीति चोद्वेगं चकार गुणशालिनी ॥३८॥ श्रन्वयार्थ - ( प्रभो ) राजा के ( इत्यादिकम् ) उपर्युक्त प्रकार ( दुराचारम्) दुश्चरित्र को (मत्वा ) ज्ञातकर (काऽपि ) कोई एक (शुद्धात्मा ) सम्यग्दृष्टी (सती) शीलवती (पुराअती ) गुणमण्डिता ( तदा) तब ( भृशम ) अत्यन्त (दुतम ) वेग से ( श्रागत्य ) प्रकर (श्रीमती) श्रीमतो से ( प्राह ) कहा ( भो देवि ! ) हे देवि ! (दृथा ) व्यर्थ ही ( त्वत्पतिः ) Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपाल चरित्र नवम परिच्छेद ] [४७६ तुम्हारे पति ने (मिथ्यास ङ्गन) मिथ्याष्टियों को सङ्गति से (जगद्धिनम ) संसार का हितकारी (जैनधर्मम ) जिनधर्म को (संत्यज्य) छोड़कर (दुःखशतप्रदाम् ) सैकडों दुःखों को देने वाला (मुनीन्द्रारणाम ) मुनिराजों को (पीडाम ) दुःख (चक्र) दिया (तथा ) उस प्रकार (पत्युः) पलि का (सर्वदुराचारम् ) सम्पूर्ण दुराचार को ( श्रुत्वा) सुनकर (जिनसद्धर्मसंसक्ता) उत्तम जिनधर्म में लीन (महासती) परमसती (श्रीमती) श्रीमतो (वा) मानों (मुनेर्मतिः) मुनिराज की बुद्धि, (इस्थम ) इस प्रकार (जगौं) बोली (अहो ) आश्चर्य है (मे) मेरा (भर्तुः) पति (पापिन:) पापी (गेहावासः) यह गृहनिवास है क्या ? (निश्चितम्) निश्चय ही (देषयिके) विषयजन्य (सुले) सुख के (भूमिन) शिर पर (वयम) वज्र (पततु) गिरे इस (राज्यम) राज्य को (धिक) धिक्कार (कुराजानम ) दुराचारी राजा को (धिक) धिक्कार दुःखदायास दुध देने वाले मोशन) भोगों को भी (धिक) धिक्कार (प्रातः) सवेरे (उत्थाय ) उठकर (दुष्कर्मनामिनोम ) पापकर्म विध्वंमिनी (जैनेन्द्रीम) जनेश्वरी (दीक्षाम्) दीक्षा को (गृहिष्यामि ) धारण करूंगो (च) और (इति) इस प्रकार विचार कर (गुणशालिनी) गुणगग मण्डिता वह (उद्घ गम् ) पीडित (चकार) हुयी। __ भावार्थ हे नृप ! उस भूपति के इन अत्याचारों और दुराचारों को ज्ञात कर एक सती भव्यात्मा सम्यक्त्व मण्डिता श्राविका ने उसकी पत्नी श्रीमती रानी से सम्पूर्ण कुकर्म प्रकट किये । उसने कहा, हे सखि तुम्हारा पति मिथ्यात्वियों की सङ्गति से मूढ़ हो पापाचार कर रहा है । हे देवि ! बह निर्दोष बीतराग संयमों के प्रति दुर्व्यवहार करता है, उसने जिनधर्म छोड़. दिया, प्रतों का त्याग कर दिया । संसार का हितकारक धर्म छोड दुर्गति के कारण अधर्म का सेवक हो गया । नाना प्रकार दिगम्बर गुरुओं को पीडा देना, दुर्वचन बोलना आदि कुकर्म करने में लगा है । इस प्रकार अपने पति के दुराचारों को सुनकर श्रीमती महारानी संज्ञाशून्य सा हो गई । जिनधर्म में रक्त, सम्यक्त्व से युक्त, मुनिराज को परमपावन बुद्धि समान निर्मल चारित्र गुण से विभूषित वह सती कर्ने लगी, अहो यह जगवास, गृहवास ही स्यागने योग्य है। फिर यदि उस घर में पति ही विधर्मी हो, अनाचारी हो तो कहना ही क्या है ? उससे प्रयोजन ही क्या ? इन पञ्चेन्द्रिय जन्य विषयों से क्या लाभ ? इनके भोग से भी क्या ? इन विषय जन्य भोगों के शिर पर वन पड़े, बिजली गिरे, मुझे कोई मतलब नहीं । मैं तो प्रातः होते ही इसका त्याग करूंगी । इस राज्य वैभव को धिक्कार है, ऐसे कुमार्गी राजा को धिक्कार और दुःखों के उत्पादक इन विषयभोगों को भी धिक्कार है । ये महा कष्टदायो हैं । अब मुझे इनका त्याम ही श्रेयस्कर होगा । अस्तु, इस प्रकार विचार कर वह गुण शीलवती महादेवी अत्यन्त दु:खी और विरक्त हुयी। उसने दृढ़ निश्चय किया कि प्रात:काल सकल दुःखों की नाशक, कर्म विधातक जनेश्वरो-दिगम्बर दीक्षा धारण करूगी । आर्यिका व्रत धारण कर तपश्चग्ण करूगी । सत्य है वे व्यसन भी मित्र हैं जिनके आधात से वैराग्य जाग्रत हो जाये ।।३३ से ३८॥ तदा म्लानमुखां देवीं क्वचित् भृत्यो निरक्षत । प्रासाद्यनुपमित्याख्यद् देव त्वं धर्म मुत्सृजन ॥३६॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ] [ श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद महाघोरतमं पापं करोषि दुष्ट सङ्गतः । तच्छ स्वा पट्टराज्ञी ते तरां शोकाकुलाजनी ॥४०॥ अन्वयार्थ---(तदा) तब उस समय (क्वचित्) कोई समय (भृत्यः) सेवक ने (म्लानमुखम् ) खिन्नमुख (देवीम् ) महिषी को (निरक्षत) देखा (तथा) और (मृपम ) राजा को (असाद्य) प्राप्त कर (पास जा) (इति) इस प्रकार (ग्राख्यत्) सूचना दी कि (नृप देव ! ) हे राजन् (त्वम् ) तुम (धर्मम् ) धर्म को (सूजन्) छोडकर (महाघोरपापम् ) महाभयङ्कर पाप (करोषि) कर रहे हो । दुष्टसङ्गतः) दुर्जन की संगति से (तत्वछ स्वा) यह सब सुनकर (ते) अापकी (पट्टराज्ञी) पटरानी (शोकाकुला) अत्यन्त दुःखी (अजनी) हुयी है । भावार्थ---पत्ति के धर्मविरुद्ध प्राचरण को ज्ञात कर महादेवी रानी अत्यन्त शोकाकुलित हुयी । सत्य ही है पतिव्रता नारियों को पति ही परमेश्वर होता है उसके सुख दुःख और भलाई-बुराइयों में उसे भी सुख दुख का अनुभव होता है । अर्थात् पति का शुभ और अशुभ ही वह अपना अच्छा-बुरा मानती है। उसे खिन्न और उदास देखकर उसका कोई प्रिय भक्त सेवक राजा के पास पाया और कहा, हे देव ! अगकी पट्टदेवी प्रत्यन्त शोकाकुल है । उसने आपके जिनधर्म का त्याग और कुजात स्वोकार तथा उससे किये पापा का सुनकर वह पीडित है । - आपके घोर पापों को सुनकर वह बहुत ही शोकाकुल है, संसार से उद्विग्न हो गई है । उसको स्थिति देखी भी नहीं जाती ।।३९, ४०।। श्रीकान्तोऽपि स भूपालो विद्याधर नराधिपः । तां विलोक्य सतीं शोककुर्वन्तों दुःखभूरिशाम् ।।४१।। सञ्जगाव महादेवि कसं शोको विधियते । त्वयेत्याकर्ण्य सा प्राह भ पति प्रति कोपिता ॥४२॥ भो राजन् गृहवासेनाशा काचिन्न पूर्यते । संयमं संगृहिष्यामि प्रातरेव सुखप्रदम् ॥४३॥ भोगा रोगोपमास्सर्वे त्याज्यन्ते पाप कारिणाम् । इत्यादिकं समाकर्ण्य मत्वा तस्या मनोगतम् ।।४४।। राजा जगाद भो भायें मा त्वया क्रियतां च शुन् । मया दुःसङ्गयोगेन त्यक्त्वा जैन व्रतानि च ॥४५।। चके महामुनीन्द्राणां पीडा पाप प्रवायिनी । यनिमितं कर्म तत्सर्व क्षमस्वत्वमनुग्रहात ॥४६॥ अद्य प्रति चेज्जैन धर्म न पालयाम्यहम् । ततो मत्कुल भूपानां मध्ये निधो भवाम्यहम् ॥४७।। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धोपाल चरित्र नवम् परिच्छेद] प्रतः परं जिनप्रोक्त धर्म शर्माकरो महान् । समाराध्यो मया सत्यं पापं संत्यज्यते ध्रुवम् ॥४८॥ संयम मा गहाण त्वं सतीवन्द शिरोमणे। गुरोः पावं शुभे त्वं मे प्रायश्चित्तं प्रवापय ॥४६।। इत्युक्त सा प्रसन्नाभूत् सती सद्धर्मवत्सला। अहो प्रभो तदा सोऽपि श्रीकान्तः शान्त मानसः ॥५०॥ भक्त्या गत्वा तया सार्थं श्रीमत्या जिनमन्दिरम् । सुन्दरं ध्वजमालाये जिनविम्बर्मनोहरम् ॥५१॥ विपरीत्येत्य भक्त्याशु प्रविश्यान्तमहोत्सवः । पूजयित्वा जिनानुच्चैर्जलाधस्सार वस्तुभिः ॥५२॥ तत्र श्रीचरताख्यं मुनि नत्या जगौ प्रभुः। भो मुने ! पापकर्माहं परित्यज्य जिनोदितम् ॥५३॥ धर्मप्रतानि च स्वामिन कुसङ्गति वशीकृतः । पीड़ाचाऽपि मुनीन्द्राणां कृतमशान भावतः ॥५४॥ त्वं पिता बन्धुरत्रोच्चस्त्वं गुरुस्सर्वतारकः । त्वं सासर्थविद् भव्यः जनपच प्रभाकरः ॥५५॥ येन नश्यन्ति तत्पापं भवेन्मेऽत्रोत्तमा गतिः । तत् किञ्चित् त्वां वतं देहि दण्डं या शुद्धिकारणम ॥५६॥ अन्वयार्थ --(विद्याधर मराधिपः) विद्याधर राजा (सः) वह (भपाल:) नपति (श्रीकान्तः) श्रीकान्त (अपि) भी (ताम् ) उस (शोककुर्वतीम्) शोक करती ही दिखभूरिणाम ) अत्यन्त दु:खिनी (सतीम) सती को (विलोक्य) देखकर (सञ्जगाद) बोला (महादेवि ! ) हे प्रिये ! (कथम् ) कसे (शोकः) शोक (विधीयते) धारण किया है ? (स्वया) तुम्हारे द्वारा (इति) इस प्रकार (साकर्ण्य) सुनकर (सा) वह रानी (कोपिता) कुपित ही (भपतिप्रति ) राजा से (प्राह) बोली। (भो राजन्) हे नृरते ! (गृहवासेन) घर में रहने से (काचित्) कोई भी (आशा) इच्छा (न) नहीं (पूर्यते) पूरी होती है अतः (प्रातरेव) प्रात: काल ही (संयमम ) संयम (संगृहिण्यामि) धारण करूंगी (सर्वे) सम्पूर्ण (भोगाः) भोग (रोगोपमा) रोग समान (पापकारिणाम ) पाप के कारण (त्याज्यन्ते) त्यागे जाते हैं (इत्यादिकम ) आदि बातें (ममाकर्ण्य) सुनकर (तस्या) उसके (मनोगतम ) मन के भावों को (मत्वा) समझकर (राजा) भूग (जगाद) बोला (भो) हे (भायें) प्रियतमा ! (त्वया) Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद ] [४८३ भावार्थ सेवक द्वारा महादेवी की दुर्दशा और शोकनीय दशा का समाचार सुनकर राजा श्रीकान्त अविलम्ब अपनी प्राणप्रिया के सन्निकट आये। तदनुसार उसे शोकाकुलित, मलिन मुख देखकर उसे सान्त्वना देकर बोले, हे प्राणवल्लभे क्यों दु:खी हैं, मलिन दशा का क्या फरण है ? इतना सुनते ही महादेवी का कोप उग्र हो उठा। वह क्रोधित होकर बोली भो राजन् ऐसी गृहस्थी से कभी भी कोई आशा पूरी नहीं हो सकती यह जजाल है । अत: इसका त्याग कर मैं प्रातःकाल जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूंगी । सुख को देने वाला संयम ही मुझे एक मात्र सहारा है । परीकियों के भोग को है। लीगः रोगी व्यों ज्यों खुजलाता है और क्षणिक सुख को पाता है पुनः तीव्र वेदनानुभव कर व्याकुल होता है उसी प्रकार इन भोगों को भोगने में क्षणिक अल्प सुख सा दृष्टिगत होने लगता है परन्तु दूसरे ही क्षण धोर पीडा और परभव में असह्य यातनाओं को भोगना पडता है । इसलिए पापकर्मों का कारण यह गृहवास छोड़ने ही योग्य है । इनका त्यागना ही सुख का कारण है। मैं अब इसी मार्ग को अपन इस प्रकार रानी को विज्ञप्ति सुनकर और उसके मन की भावना को परख कर वह श्रीकान्त विद्याधर कहने लगा, हे प्रिये ! तुम शोक मत करो। मैंने दुष्टजनों की सङ्गति से जिनधर्म को छोडा, उन्हीं के सहयोग से अज्ञानवश अमृतसम सुखकारी खतों का परित्याग कर दिया। कुसङ्गवश ही, हे प्रिये ! पापवर्द्धक, दुःखदायी नाना प्रकार को पीडा मुनिराजों को उत्पन्न की है । इससे महापाप उपार्जन किया है भो प्राणवल्लभे तुम इन सभी कुकर्मों को क्षमा करो। मैं सत्य कहता हूँ आज से कभी भी ऐसा पापकर्म नहीं करूंगा। भो भामिनी ! यदि अब से मैं जिनधर्म का पालन न करू तो मेरी कुलपरम्परा के समस्त राजामों में मैं निध-नीच समझा जाऊँ । अर्थात् मुझे मेरे पूर्वजों की शपथ है मैं कभी भी विधर्म व कुधर्म का सेवन नहीं करूंगा। प्राज से निश्चय ही मैं सर्वमान्य जैनधर्म ही पालन करूंगा, जिनशासन का सेवन ही मेरा जीवन उद्देश्य रहेगा । हे प्राणप्रिये ! तुम संयम धारा मत करो। हे सतियों में शिरोमणि ! तुम अपने श्रीगुरु के समीप चलो। मेरे दुष्कर्मों का प्रायश्चित्त दिलवादो। हे शोभने ! मैं पाप पथ से निकल सकू वही तुम करो। इस प्रकार पति के वचन सुनकर बह रानी अत्यन्त प्रसन्न हुयी। धर्मात्माजन पाप से ग्लानि करते हैं पापी से नहीं । अत: राजा ने पापों का त्याग कर दिया बस धर्मवत्सला रानी का द्वेष भी समाप्त हो गया । उस समय वह श्रीकान्त भूपाल भी शान्त चित्त हो गया । पुनः अपनी प्रिया के साथ भक्ति से वह राजा जिनालय में गया। जिनमन्दिर भनेकों ध्वजाओं से शोभित था। घण्टानाद हो रहा था । अनेकों प्रकार की मालाएँ लटक रहीं थीं । वेदी में अत्यन्त मनोहर और विशाल जिनबिम्ब विराजमान थे। उन दोनों ने श्रद्धाभक्ति से नम्रीभूत हो तीन परिश्रमा लगायौं, महामहोत्सवों सहित अन्दर प्रवेश किया। नाना प्रकार के शुभ, सुन्दर और पवित्र अष्टद्रव्यों से पूजा की । उत्तम द्रव्यों से अर्चना कर स्तुति की। पुन: मुनिवसतिका में श्री वरबत्तनाम के मुनिराज विराजमान थे। उनके दर्शन किये, नमस्कार कर यथास्थान बैठ गये । करबद्ध राजा ने प्रार्थना की कि हे भगवन् ! भो मुने ! दुष्ट पापकर्मों के उदय से मैंने श्री जिनोदित धर्म और व्रतों को धारण कर छोड़ दिया। यही नहीं दुर्जनों की कुसङ्गति से निर्दोष वीतराग दिगम्बर मुनिराजों को अनेक प्रकार की यातनाएँ भी दी हैं । अज्ञान भाव से Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] [श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद इन दुष्कर्मों का कठोर फल मुझे भोगना न पडे इस प्रकार का मार्गदर्शन कीजिये, जिससे मेरा कल्याण हो । श्राप विश्व बन्धु हैं, आप ही पिता हैं, पालक हैं, आप ही त्राता है पाप हो सब के गुरु हैं, सर्वज्ञाता हैं, सबका हित करने वाले हैं । भव्य रूपी कमलों को प्रबुद्ध-खिलाने वाल अपूर्व सूर्य हैं । हे गुरुवर ! आप करुणा सागर हैं । आप ऐसा व्रत दीजिये जिससे कि मेरे पापों का नाश हो और उत्तमगति को प्राप्ति हो। अथवा कोई भी दण्ड दीजिये जिससे मैं दुर्गति से बच सकू। और पापों का नाश कर आत्मशुद्धि करने में समर्थ हो सकू। अब, आप ही मुझे शरण हैं, पाप पतित उधाहरण हैं ।।४१ स ५।। सोऽपि श्रीवरदत्ताख्यो मुनिः सदज्ञान लोचनः श्रायकानां व्रतान्युच्चस्तस्मै दत्त्वा पुनर्जगौ ॥५७।। श्रूयतां भो प्रभो लोके सर्वपाप प्रणाशकृत् । सिद्धचक्रवतं पतं सर्वसिद्धि विधायकम् ।।५८॥ कुरु त्वं पापनाशाय सत्सखाय च शान्तये । वतेनतेन भो राजन् जायन्ते भूरिसम्पदः ।।५।। अन्वयार्थ----श्रीकान्त नरेश की प्रार्थना सुनकर श्री मुनिराज उसे सन्मार्ग प्रदर्शित करते हैं । (सद्ज्ञानलोचन:) सम्यग्ज्ञान नेत्रधारी (सः) वे (श्रीवरदत्ताख्य) श्रीवरदस नामक (मुनिः) मुनिराज (अपि) भी (तस्मै) उसके लिए (उच्चैः) उत्तम (थाबकानाम् ) श्रावकों के (वतानि) व्रत (दवा) देकर (पुनः) पुन: (जगौ) वोले (भो प्रभो) हे राजन् (श्रूयताम् ) सुनो (लोके) संसार में (सर्वपापप्रणाशकृत्) सम्पूर्ण पापों का नाशक (सर्वसिद्धिविधायकम् । सम्पूर्ण सिद्धियों का सिद्धिकारक (सिद्धचक्रवतम) सिद्धचक्रवत (पूतम् ) पवित्र प्रत को (त्वम् ) पाप (पापनाशाय) पाप नष्ट करने को (सत्मुखाय) उत्तम सुख प्राप्त्यार्थ (च) और (शान्तये) शान्ति पाने के लिए (कुरु) करो (भो राजन्) हे राजन ! (एलेन) इस (व्रतेन) व्रत से (भूरिसम्पदः) अनेक सम्पत्तियाँ (जायन्ते) प्राप्त हो जाती हैं। भावार्थ-श्रीकान्त राजा ने निविकार बालबत् अपने समस्त अपराध, दोष गुरुदेव श्रीवरदत्त मुनिराज के समक्ष निवेदन कर दिये । श्री वरदत्त मुनिराज सम्यग्ज्ञान रूपी लोचन से उसके सरल परिणाम और यथार्थ पालोचना को समझ गये 1 वीतरागी गुरु सर्वहितैषी होते हैं । उन्होंने उसे धैर्य बंधाते हुए मार्गदर्शन किया । उन्होंने सर्वप्रथम उसे पवित्र श्रावक के व्रत धारण कराये । पुनः बोले ! हे नप ! सुनो, संसार में समस्त पापों को क्षणभर में नष्ट करने घाला तथा सकल मनोकामनाओं का पूर्ण करने वाला सिद्धचक्र विधान है। इस व्रत से भवभव के पातक उस प्रकार विलीन हो जाते हैं जैसे सूर्योदय से रात्रि जन्य सघन तिमिर विलीन हो जाता है । सम्पूर्ण मनोकामनाए स्वयमेव पूरी हो जाती हैं । सिद्धियाँ आकर्षित हो दीड प्राती हैं । इसलिए तुम पातक हर, सुख बर्द्धक, शान्तिदायक महापवित्र सिद्धचक्र व्रत को धारण करो। भो राजन्, इस व्रत से अनेकों संकट टल जाते हैं और नाना सम्पदाएं खिंची चली आती Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AREBAR reO EVANANASI SAWAla IN RIPAL HTENSITLonI ORDINAR ANORATION k RExes : AIN mer LATED A MARPALKARNIRah MAP पर --महाराजा धोकान्त के बम विरुद्ध प्रापरण से महारानी कुपित हो प्रेग्न करती हुई। गोने---श्रीकान्त महाराज एवं उनको रानी मुनिराज श्री वरदत्त जी के पास यमाताप कर पुनः वर्मानुकलत लेते हुए। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपाल चरित्र नवम परिच्छेद ] [४८ हैं । अतएब पाप निवृत्ति के लिए, सुग्न और शान्ति के लिए यह नत परमौषधि और अमोघ मन्त्र है ।। ५७ से ५६।। . चिन्तामणिः तथा कल्पतरोश्चापि सुखप्रदम् । सिद्धचक्रवत्तं पूज्यं देव देवेन्द्र सज्जनः ॥६॥ अन्वयार्य- (चिन्तामणिः) चिन्तामणिरत्न (तथा) एवं (कल्पतरो:) कल्पवृक्ष (अपि) भी (सुखप्रदम् ) सुखदायी होता है (च) और (सिद्धचक्रवतम् ) सिद्धचत्रवत तो (देव देवेन्द्रसज्जनैः) सुर असुर, इन्द्र और नरेन्द्र प्रादियों से भी (ज्यम) पूज्यनीय है। भावार्थ - चिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्ष तो सुख देने बाले ही माने जाते हैं परन्तु उनकी पूजा कोई नहीं करता । परन्तु यह सिद्धचक्रवत तो महान पूज्य है । सुरेन्द्र, नरेन्द्र क्या अहमिन्द्र सभी पूजते हैं । यह त्रैलोक्य पूज्य व्रत है ।।६011 श्रीकान्तस्तं निशम्या होत्या श्रावकवतम् । भो स्वामिस्तशतं देहि, विधिञ्चन हि मे सुधीः ।।६१॥ अन्वयार्थ--(श्रीकान्तः) नृपत्ति श्रीकान्त (तम् ) गुरुवाणो (निशम्य) सुनकर (श्रावकानतम ) श्रावक के व्रत (गृहीत्वा) धारण कर (पाह) बोला, (भो) हे (स्वामिन् ) भगवन् (तद्रुतम ) उस सिद्धचक्रवत को भी (देहि) दीजिये (च) और (मे) मुझे (चिधिम्) उसकी विधि को (सुधी:) हे ज्ञानिन् (बहि) कहिये । भावार्थ-श्री वरदत्त मुनिराज के मुखारविन्द से अपने पर्व भव का सकल वृत्तान्त सुन रहा है श्रीपाल । वे बतला रहे हैं कि राजन् उम धोकान्त महीपति ने गुरुवाणी को सुनकर पुनः शुद्धमन, वचन, काय से श्रावक के व्रत धारण किये । पुनः श्री सिद्धचक्र महावत को धारण करने की प्रार्थना की और उस व्रत की विधि पूछी । तद्नुसार करुणासागर श्रीगुरु उस दूत विधान को सविस्तार उसे समझाते हैं ।।६।। स्वामी श्री वरदत्ताख्यो मुनिस्सम्प्राह तयुतम् । प्राषाढे कातिकेमासे फाल्गुने च सिताष्टमीम् ॥१२॥ प्राद्यां कृत्वा महाभव्यः प्रातः प्रारभ्यते शुभम् । तत्र श्रीमज्जिनागारे कृत्वा शोभा ध्वजादिभिः ॥६३॥ पञ्चधारत्न संचूर्णः कृत्वा नन्दीश्वरोचितम् । मण्डलोद्वर्तनञ्चारु भय्यानां चित्तरञ्जनम् ॥६४॥ पीठं संस्थाप्य तत्रोच्चैः कृत्वा स्नपनमुत्तमम् । श्रीजिनप्रतिमानां च सारपञ्चामृतहितः ॥६५॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्रोपाल चरित्र नवम परिच्छेद तथा श्रीसिद्धचक्रस्य यन्त्रस्याऽपि महोत्सवः । सर्वसंघयुतैर्भव्य राजन् परया मुदा ॥६६॥ एवं च तद्वयं प्रीत्या स्नापयित्वा जगद्वितम् । मण्डले च चतुर्विक्षु अतम्रः प्रतिमा शुभाः।।६७।। मन्वयार्थ - (श्रीवरदत्ताम्यः) श्रीवरदसनामा (स्वामी) मुनीन्द्र (मुनिः) मुनिराज ने (तद्वतम ) वह सिद्धचक्र वृत (प्राह) उसे बतलाया, (आषाढे) आषाढ (कातितो) कार्तिक (च) और (फाल्गुने) फागुन महीने में (सिता) शुक्लपक्ष (अष्टमी) अष्टमी को (आद्याम ) प्रथम (कृत्वा) करके (महाभत्र्य:) अत्यन्तभक्त भव्यो द्वारा (प्रातः) प्रात काल (शुभम) शुभवृत (प्रारम्यते) प्रारम्भ लिया जाता है। (तात्र) उस समय सर्वप्रथम (श्रोमांज्जनागारे) श्रीजिनमन्दिर में (ध्वजादिभिः) पताका, तोरण, घण्टा, मालादि द्वारा (शोभा) शोभा (कृत्वा) करके (पम्चधारनसम्च:) पांच प्रकार के रत्नों के चगा से (नन्दीश्वरोचितम्) मन्दीश्वर द्वीपसमान (भव्यानाम ) भव्यों के चित्तरञ्जनम ) मन को हर्षित करने वाला (च) और (चार) सुन्दर (मण्डलोद्वर्तनम ) मण्डल की रचना (कृत्वा) करके (पीठम । सिंहासन संस्थाप्य स्थापित कर (तर) वही (उच्च: विशेष रूप से श्रीजिनप्रतिमानाम) श्रीजिनबिम्बों का (हित:) हित करने वाले (सार पञ्चामृतः) शुद्ध उत्तम पञ्चामृतों से (सत्तमम.) उत्तम (स्नपनम् ) महामस्तकाभिषेक (कृत्वा) करके (च) और (श्रीसिद्धचत्रस्ययन्त्रस्यानि) श्रीसिद्धचक्र यन्त्र की भी (तथा) उसो प्रकार (महोत्सव:) महा उत्सव सहित (परया) अत्यन्त (मुदा) भानन्द से (सर्वसंघयुतः) चतुर्विधसंघ सहित (भव्यः) भव्यजनों सहित (भो राजन्) हे भूपाल ! (एवं) इस प्रकार (च) और भो (जगद्धितम जगत के हितकारी (एतद्द्वयम ) इन दोनों प्रतिमा और यन्त्र को (प्रोत्या) इर्ष से ( स्नापयित्वा) अभिषेक करके (च) और (मण्डले) मण्डल पर (चतुदिक्षु) चारों दिशानों में (शुभा:) कल्याणकारी (चतस्रः) चार (प्रतिमा:) बिम्ब (स्थापयित्वा) स्थापित करके - भावार्थ---श्रीगुरु वरदत्त मनिराज ने राजा के अभिप्रायानुसार उस श्रीकान्त राजा को सिद्धचक्रवत दिया और उसकी विधि इस प्रकार बतलायो, भो राजन् यह व्रत एक वर्ष में तीन बार करना चाहिए । आषाढ, कार्तिक और फाल्गुन महीने में सुक्लपक्ष की अष्टमी से इसे प्रारम्भ करना चाहिए। सर्वप्रथम प्रात:काल श्री जिनमन्दिर की शोभा ध्वजा, कन्दनवार, घण्टा, चमर माला आदि से करें । पुन: पाँच प्रकार के रत्नों का चूर्ण लेकर भव्यों का मन हरने वाला सुन्दर नन्दीश्वर द्वीप सदृश मण्डल रचना करे । पुन: सारभूत शुद्ध उत्तम पञ्चामृतों से श्रीजिनविम्बों और यन्त्र का महा अभिषेक करें। हे राजन यह महाभिषेक परमआनन्द और भक्ति से करना चाहिए। अभिषेक हो जाने पर मण्डल के चारों ओर सारों दिशाओं में जिनविम्ब स्थापित करें। यन्त्र भी स्थापित करके पूजा करें। सर्वसङ्घ-चतुर्विधसंघ और परिजन-पुरजन सबके साथ महानन्द से भो राजन् पूजा करना चाहिए ।।६२ से ६७॥ स्थापयित्वा जिनेन्द्राणां सिद्धचक्रं च सिद्धिवम् । कपूरवासित स्वच्छतोयः पाप प्रणाशनः ॥६॥ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद ] क्रियते चन्दनः पूजा दुःख सन्ताप नाशनैः । करागुरुकाश्मीर मिश्रितैः शर्मदायिभिः ६६॥ अक्षतानां महापुजेः पुण्यपुजेरियामलेः । जाति चम्पक पद्मादिशतपत्र शतोत्करः ॥७०॥ पञ्चप्रकार पक्वान्नैनना नैवेद्यराशिभिः । व्यञ्जनं रञ्जनैश्चापि सुवासितदिगन्तः ॥ ७१it रत्नकष्णुं सद्दीचैर्जयो । धूपैः कालागरुत्पन्नैः भाग्य सौभाग्य दायकः ॥ ७२ ॥ फलैर्नारङ्ग जम्बीरैर्नालिकेराम्रमोचकैः । मातुलिङ्गादिभिः दिव्यैस्सार मुक्ति फलप्रदः ।।७३॥ पूजयित्वा जिनानुच्चेस्सिद्धांस्त्रैलोक्य सम्मदान् । अनाऽपि महाभयं समाराध्यस्सुभक्तितः ॥७४॥ स्वर्णपात्रे पुनः कृत्वा महार्घ्यं जयमालया । प्रदक्षिणा प्रदातव्या गीतवादित्रलम्भ्रमः ॥७५॥ स्तुति श्रीसिद्धचक्रस्य कृत्वा पापप्रतारिणीम् । यन्त्रस्योपरि दातव्यो भ्रष्टोत्तरशतप्रमाः ॥ ७६ ॥ जायं एकाग्रचित्तेन जाति पुष्पेण धी धनैः । अथवाश्चेतिसौगन्ध्य सुमनोभिर्मनोहरैः ॥ १७७॥ [४८७ सिद्धि देने वाले श्रभ्ययार्थ - (जिनेन्द्राणाम् ) जिनविम्बों (च) और ( सिद्धिदम् ) (सिद्धचक्रम) सिद्धचक्र को ( स्थापयित्वा ) स्थापित करके ( कपूरवासित) कपूर से सुगन्धित (पापप्रणाशन) पापों की नाशक (स्वच्छतोय:) निर्मल जल से, ( दुःख सन्ताप नाशनैः ) दुःख, दारिद्रय, पीडा नाम करने वाली, (सामदायिभिः) शान्ति प्रदायक ( क रागरू काश्मीर) कपूर, अगरु, चन्दन से (मिश्रित ) मिले हुए ( चन्दनः ) चन्दन से पूजा ( क्रियते ) की जाती है। इसी प्रकार ( पुण्यपुञ्ज) पुण्यसमूह (इव) समान (श्रमः) पवित्र ( अक्षतानाम) अक्षतों के ( महापुजे) महा गुजों से, (जाति सम्पर्क पचादि) जाति, चम्पा, कमल, गुलाब, चमेली आदि ( शतपत्र ) सौंदल वाले (शतोस्करैः ) सैकड़ों पुष्पों से ( पञ्चप्रकार ) पाँच प्रकार के (पक्वान्न) मिठाईयां (रञ्जनैः) खुरमा पुझा, वीरादि (च) और (अपि) भी ( सुवासितदिगन्तर्क) दिशाओं को सुवासित करने वाली ( नाना नैवेद्यराशिभिः) अनेकों प्रकार की नैवेद्यों ही पकौडी, खाजादि ताजाओं से, ( मनोध्वान्त) मन के मोहतम ( हरैः ) नामक Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८] [ श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद (परैः) उत्तम (रत्नक' रसद्दीपैः) रत्नमय दीप में कप्पूर ज्योतियुक्त दीपकों से (कालागरुत्पन्न) कालागरु से बनाई गई (भाग्य सौभाग्य दायक:) पुण्य और सम्पदा देने बाली (धुपैः) धूप से (मुक्तिफलप्रदः) मुक्तिफल को देने वाली (नारङ्गजम्बीरः) सन्तरा, बिजौरा, (नालिकेराममोचकं.) श्रीफल, प्राम, मोचफलों से (मातुलिङ्गादिभिः) विजौरादि (दिव्यैः) उत्तम, सुपक्व मनोहर (सारफलैः) उत्तम फलों से (जिनान्) जिन भगवान (लोक्यसम्भदान) तीनों लोकों में शान्तिकर (सिद्धान्) सिद्धों को (उच्न:) विशेषमहात्म्य से (पूजयित्वा) पूजा कर (महाभव्यैः) आसन्नमव्यों द्वारा (अध्यंनाऽपि ) अर्ध्य से भी (सुभक्तितः) अत्यन्त भक्ति से समाराध्य) आराधना करके (पुनः) फिर (स्वर्गपात्रे) सुवर्ण के पात्र में (महाध्यम ) महा अर्घ्य (कृत्वा) करके जयमालया) जयमाला पढते हुए (प्रदक्षिणा) तीन परिक्रमा (प्रदातम्या) देना चाहिए पुन: (गोरतादित्रामा गीन दवित्र सहित साल और उमङ्ग से श्री सिद्धचकस्य) श्री सिद्धचक्र की (पापप्रतारिणीम | पाप नाशक स्तितिम ) स्तति को (कृत्वा) करके (यन्त्रस्योपरि) यन्त्र के ऊपर (अष्टोत्तरशतप्रमाः) एक सौ आठ बार (एकाग्रचित्तेन) एकाग्र मन से (धी धनः) वद्धि हो है धन जिनका उनको जातिपुष्पेन) चमेली के पुष्पों से (अथवा) या (मनोहरः) चित्तरञ्जक (च) और भी (सोगध्य) सुगन्धित (सुमनोभिः) सुन्दर पुष्पों से (जाप्यम ) जाप (दातव्यम ) देना चाहिए भावार्थ---मण्डल तैयार कर जिनविम्ब और सिद्धचक्र यन्त्र का विधिवत् पञ्चामृताभिषेक करके श्री मण्डल पर प्रतिमाजी और यन्य जी को स्थापित करें। चारों और जिनविम्ब विराजमान करके पुनः निर्मल, पवित्र, सुगन्धित कप्पू र, इलायची आदि सुगन्धित द्रव्यों प्रासूक स्वच्छ जल से पूजा करे । यह जल पूजा पापों का नाश कर जन्म, जरा, मरण के दुःखां से बचाने वाली है। कपूर, अगुरु, चन्दन आदि मुवासित कारादि से श्री जिनभगवान और सिद्धयन्त्र की चन्दन से पूजा करनी चाहिए। यह गन्धपूजा दुःख, सन्ताप, पीडादि का नाश करती है । संसार ताप को नष्ट करती है। महापुण्य पुञ्ज समान, निर्मल, स्वच्छ, अखण्ड अक्षतों से, पूजा करें । अक्षत पुञ्जरूप मुट्ठीभर कर शिखराकार पर चढाना चाहिए । यह अक्षय सुख प्रदायिनी हैं । जाति, मल्लिका, जुही, शतपत्र, सप्तच्छद, पाटलादि से श्री जिनप्रभु की पजा करने से विकार और कृविषय वासनामों का नाश होता है मनोहर और सुगन्धित से पजा करना चाहिए । नाना प्रकार घतादि से निमित सुगन्धित और स्वादिष्ट मिष्टान्न एवं व्यजनों से, दिशामों को मुगन्धित करने वाला अने को शुद्ध और ताजा पक्वान्नों से श्री जिनेन्द्रादि की पजा करे, रत्नों के दीपकों में कार्पूरादि की ज्योति जगाकर मुवर्णमय दीपों से पूजा-अर्चना करना चाहिए । अगुरु, चन्दन गुगल आदि से निर्मित सुगन्धित धूप से पूजा करें। दीप पजा मोहरूपी अन्धकार को नाशक होती है उसी प्रकार धूप पूजा भाग्य-सौभाग्य की प्रदाथिनी होती है । धूप अग्नि में ही खेना चाहिए । क्योंकि धूप कर्म नो कर्म स्थानीय है और अग्नि तप स्थानीय है। ईधन को भस्म कर अग्नि स्वयं द्ध रहती है उसी प्रकार तपाग्नि कर्मादि विकार रूप ई धन को जलाकर आत्मा को शुद्ध बनाती है। सन्तरा, जम्बोर, मौसमी, विजोरा, अनार, अंगूर, केला, सेव आदि सुपक्व, ताजा, गुन्दर, सुस्वादु उत्तम फलों से, दिव्य फलों से भव्यात्मा बुद्धिमान श्रावक श्राविकाओं को जिन पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार अष्टद्रव्यों से श्री जिनेन्द्र भगवान और सिद्धचक्र की पूजा करनी चाहिए। अत्यन्त भक्ति और Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८६ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद] विनय से पूजा होने पर पुनः एक महाअयं भी चढावें । तदनतर पुनः स्वर्णथाल में अष्टद्रव्यों को संजोकर-मिलाकर महाबर्ष लें, गीतवादित्र नृत्यादि करते हुए, जयमाला पटते हुए तीन प्रदक्षिणा देखें । उत्साह और उमङ्ग से गीतादि द्वारा स्तुति पढें । पाप को नाश करने वाला श्री सिद्धचक्र का स्तवन करें। पन: १०८ जाति पुष्प लेकर यन्त्र के ऊपर १०८ जाप करना चाहिए । जातिपुष्प नहीं मिले तो अन्य, सुगन्धित, चमेली, जुही आदि कोई भी मनोहर चित्तरजक पुष्षों से जाप देना चाहिए । इस प्रकार बुद्धिमानों को प्राठों दिन श्री सिद्धचक्र विधान करना चाहिए ।।६८ से ७७॥ तथा श्रुतं जिनेन्द्रोक्तं गुरुरणां पादपङ्कजम् । समाराध्य जगत्सार सम्पदा सुखदायकम् ॥७॥ एवं विधि विधायोच्चैरष्टम्यां च दिने.दिने । पूर्णिमादिनपर्यन्त विधिरेष विधीयते ॥७६॥ अन्वयार्थ—(तथा) उसी प्रकार (जिनेन्द्रोक्तम् ) जिनदेव कथित (श्रुतम्) आगम को (जगत्सार) संसार का सारभूत (सुखदायकम् ) सुख को देने वाली (सम्पदाम् ) सम्पत्ति देने वाले (गुरुणाम ) गुरुत्रों के (पादपङ्कजम ) चरण कमलों को (समाराध्य) आराधना करके (अष्टम्यां) अष्टमी से (च) और (पूर्णिमापर्यन्तम् ) पूर्णिमा तक (दिने-दिने) प्रतिदिन (एवं) इस प्रकार (विधिम) विधि (विधाय) करके (उच्चः) विशेषरूप से (एषः) यही विधि (विधीयते) करना चाहिए । भावार्थ-इसी प्रकार सुख सम्पदा प्रदान करने वाले तथा ज्ञान के प्रकाशक श्री जिनेन्द्र भगवान का आगम और गुरु चरणारविन्द भी समाराधनीय है। इस प्रकार अष्टमी से प्रारम्भ करके पूणिमा पर्यन्त प्रति दिन उपयुक्त विधि से विधि-विधान करना चाहिए । प्रति दिवस विशेष-विशेष उत्साह और आनन्द से करना चाहिए । पुनः क्या करना चाहिए वह आगे बताते हैं ।।७८, ७६ ।। कार्य जागरणं रात्रौ पूणिमायां च सज्जनः । महा सङ्.घेन संयुक्त निभान महोत्सवः ॥१०॥ उपवासरिदं कार्यमष्टभिर्व तमुत्तमम् । एकान्तरेण वा प्रोक्तं यथाशक्ति च सूरिभिः ॥१॥ अष्टौ दिनानि संधार्य ब्रह्मचर्य सुनिर्मलम् । सचितं वजनीयं चारम्भस्त्यज्यते बुधैः ।।८२॥ प्रतिपद्दिवसे सिद्धचक्र प्रपूज्य भक्तितः । बहुद्रव्यैर्महाध्य पक्वान्नश्च मुक्तये ।।८३॥ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] [ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद पात्रदानं विधायोच्चैनिधानं सार सम्पदाम् । दीनादिभ्यस्ततो युक्त्या दातव्यं वसनादिकम् ॥ ८४ ॥ सज्जनैरसह कर्त्तव्यं भोजनं परमोदयैः । धूतं श्रीसिद्धचक्रस्य शुभमेतज्जगद्धितम् ॥ ८५॥ अन्वयार्थ - (च) और ( पूर्णिमायाम) पूनम की ( रात्री) रात में ( सज्जनैः ) सत्पुरुषों को ( महासङ्घन संयुक्त:) चतुविध संघ सहित ( जागराम ) जागरण (कार्यम ) करना चाहिए ( दान मान महोत्सव:) दान, सम्मानादि महाउत्सव पूर्वक ( इदम् ) यह व्रत ( अष्टभिः ) आठ ( उपवासः) उपवासों सहित ( उत्तमम् ) उत्तम ( व्रतम ) व्रत है (वा) अथवा ( एकान्तरेण ) एकान्तर उपवास करे ( सूरिभिः) आचार्यों ने (यथाशक्ति ) शक्ति के अनुसार करने को ( प्रोक्तम् ) कहा है। (च) और ( यष्टी ) आठों ( दिनानि ) दिनों में (सुनिर्मलम् ) महापवित्र (ब्रह्मचर्य) ब्रह्मचर्यवत ( सन्धार्यम् ) धारण करना चाहिए (बुधैः) विद्वद्जन ( सचित्तम् ) सचित वस्तु का ( वज्र्जनीयम) त्याग करें ( प्रारम्भम् ) प्रारम्भ भी ( त्यज्यते ) त्याग करते हैं (प्रतिपद्दिवसे) एकम के दिन (मुक्तये) मुक्ति के लिए ( बहुद्रव्ये :) बहुत द्रव्यों से ( महायैः ) अमूल्य वस्तुओं (च) और ( पक्वान्नैः) नानाविध सुन्दर नैवेद्यों से ( भक्तितः ) अत्यन्त भक्ति से ( सिद्धचक्रम ) सिद्धचक्र की ( प्रपूज्य ) पूजा करके, (सारसम्पदाम) उत्तम सम्पदा का ( निधानम् ) भाण्डार ( पात्रदानम् ) उत्तम सत्पात्रदान (उच्च) विधिवत ( विवाय) देकर ( ततो) पुनः ( युक्त्या ) युक्ति पूर्वक ( दीनादिभ्यः ) दोन अनाथों को यथायोग्य ( दसनादिकम) वस्त्र, भोजन प्रादि ( दातव्यम्) देना चाहिए। पुनः ( सज्जनेसह ) साधमियों के साथ (भोजनम ) भोजन - पारणा ( कर्त्तव्यम ) करना चाहिए। ( एतत् ) यह ( जगद्धितम् ) संसार का हितकारक ( शुभम ) शुभरूप ( परमोदयः) परम उदय का कर्ता ( श्रीसिद्धचक्रस्य ) श्री सिद्धचक्र विधान का ( ब्रसम ) व्रत है । भावार्थ - अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक खूब ठाट-बाट, नृत्यगान, वाद्य सहित, शुद्ध, उत्तम अनेकविध सामग्रियों से श्री जिनभगवान और श्री सिद्धचक यन्त्र की अपार भक्ति से पूजा करें। पुनः पूरणमा की रात्रि को चतुविध संघ सहित साधर्मी नर-नारियों को आमन्त्रित कर जागरण करें। इस समय भजन, कीर्तन, नृत्य आदि करें। श्रागत जनों को दान-सम्मान कर सन्तुष्ट करें । आचार्यों ने माठ दिन उपवास करना उत्तम विधि कही है, एक उपवास एक पारणा करना मध्यम रोति बतलाई है फिर भी यथाशक्ति पालन करने की अनुज्ञा दी है। आठ 'दिन एकाशन भी कर सकते हैं, आठों दिन निर्मल शुभ भावों से ब्रह्मचर्यव्रत पालन करें। विद्वानों ! को इन दिनों में सचित्त वस्तुओं का यथा कच्चा पानो, बिना उबाली तरकारी आदि का त्याग ! करना चाहिए। सर्वप्रकार के प्रारम्भ व्यापार-धन्वें का त्याग करना चाहिए । प्रतिदिन महान् भक्ति से श्रीसिद्ध विधान की पूजा करनी चाहिए। पूजा में अमूल्य रत्नादि, सुन्दर, शुद्ध प्राशुक फलादि व्यञ्जनादि एवं अनेक प्रकार उपकरणादि चढाना चाहिए । मुक्ति प्रदाता यह पूजा भव्यों को महाहितकारी और सुखकारी है । तदनन्तर प्रतिपदा के दिन श्रीसिद्धच पूजा महावैभव से करें । पुनः चार प्रकार का, उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों को प्राशुक, शुद्ध दान + 'E Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र नवम् परिच्छेद] [NEt देवें । दान लौकिका सारभूत सम्पदा को देने वाला है परम्परा से मुक्ति का दाता है । इसके बाद , अनाथ आदि जनों को भोजन, वस्त्र प्रादि देना चाहिए। तदनन्तर अपने साधर्मीजनों को, बन्ध-बान्धबों को साथ लेकर स्वयम पारणा करें । अर्थात भोजन करें। इस प्रकार महान कल्याण का करने वाला यह श्रेष्ठतम सिद्धचक्र नत महाफल देने वाला है। संसार का हितैषी है। विश्व का संरक्षक है । अनेकों विपत्तियों का नाशक है । परम्परा मोक्षलक्ष्मी का वरण कराने वाला है।८० से ५५॥ उत्कृष्टेन विधिश्चष सर्वोत्कृष्ट फलाप्तये । द्विषड्वर्षावधिर्यक्षः कर्तध्य शक्ति भक्तितः ॥८॥ वर्षे-बर्षे त्रिवारञ्च नन्दीश्वर महोत्सवे । षड़वर्षे मध्यम ज्ञेयं जघन्येनत्रिवाषिकम् ॥७॥ पश्चाधुधापनं प्राहमुनयः परमागमे । तत्र श्रीमज्जिनेन्द्राणां मन्दिरं शर्ममन्दिरम् ॥८॥ अन्वयार्थ--(सर्वोत्कृष्टफलाप्तये) सर्वोत्तम, श्रेष्ठतम फल की प्राप्ति के लिए (उत्कृष्टेन) उत्कृष्ट रूप से (एषा) यह (विधि) विधि (दक्षः) चतुर पुरुषों द्वारा (शक्ति भक्तितः) शक्ति प्रमाण, भक्ति सहित (द्विषड्वर्षावधिः) बारह बर्ष पर्यन्त (कर्त्तव्यम )करना माहिए (वर्षे-वर्षे) प्रतिवर्ष (नन्दीश्वर महोत्सवे) नन्दीश्वर महापर्व में (कर्तव्यम ) करना चाहिए (च) और (मध्यमम ) मध्यम रूप से (षड्वर्षे) छह वर्ष (जघन्येन) जघन्यरूप से (त्रिवार्षिकम ) तीनवर्ष का (जयम) जानना चाहिए (पश्चात् व्रत पूर्ण होने पर (पर-) मागमे) परमागम में (मुनयः) आचार्यों ने (उद्यापनम् ) उद्यापन (प्राहुः) कहा है । (तत्र) उद्यापन इस प्रकार करे (श्रीमज्जिनेन्द्राणाम ) श्रीमज्जिनेन्द्रप्रभु का (घाममन्दिरम् ) सुख शान्ति का निलय (मन्दिरम) जिनालय । कारयित्वा महाभव्यर्वजायेस्सर्वसुन्दरः । भव्यं भन्यजनानन्द बीजमुक्तिपदं प्रदम् ॥८६॥ अन्वयार्थ - (महाभव्यः) अत्यन्त मनोरम (ध्वजाय:) ध्वजादि से (सर्वसुन्दरैः) सुसज्जित (भव्यम ) रमणीक (भत्र्यजनानन्दम् ) भव्यजनों को आनन्द दायक (मुक्तिपदम् ) मोक्षपद को (प्रदम् ) देने को (बीजम्) बीज स्वरूप (कारयित्वा) बनवाकर । रत्नस्वर्णमयोश्चारु प्रतिमाश्च मनोहराः । तत्प्रतिष्ठा प्रकर्त्तव्या महत्ती शास्त्रयुक्तितः ॥१०॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२] [थोपाल चरित्र नवम् परिच्छेद अन्वयार्थ--(चार) सुन्दर, सौम्य (मनोहराः) बीतरागछवियुक्त (रत्नस्वर्णमयी) रत्नों की व सुवर्ण को (प्रतिमा) जिनविम्ब कराकर (च) और पुनः (शास्त्रयुक्तित:) शास्त्रोक्त प्रतिष्ठा विधि से (तत्प्रतिष्ठा) उनकी प्रतिष्ठा (महती) विशेषरूप से उत्सव पूर्वक (प्रकर्त्तव्या) करनी चाहिए। भावार्थ-प्राचार्य श्री इस महापर्व में किये जाने वाले महान सिद्धचक्र विधान का उत्तम, मध्यम, जघन्य काल भेद से भेद बतलाते हैं । उत्कृष्ट समय बारह वर्ष तक प्रतिवा तीन-तीन बार नन्दीश्वर पर्व में उपर्युक्त विधि से करे । यह सर्वोत्तम फल को प्रदान करता है। शक्ति और भक्ति पूर्वक करना चाहिए । मध्यम छह वर्ष और जघन्य तीन वर्ष पर्यन्त करना चाहिए । यत पूर्ण होने पर यथायोग्य उत्तम विधि से पाक्तिपूर्वक सम्पादन करे । परमागम में उद्यापन की विधि इस प्रकार बतलाई है कि अत्यन्त उन्नत, मनोहर, भव्यों को मनोनयन आनन्दकर जिनालय निर्माण कराये । ध्वजा, कलश, माला, तोरणादि से उसे सुसज्जित करावे । जो वास्तव में सुख और शान्ति का निलय हो । भन्यजनों के दुःख दैन्य, ताप को हरने वाला हो । पुन: उसमें सुरम्य वेदी निर्माण करावे । रत्नों, सुवरणों के जिनबिम्ब बनवावें । जा सौम्य, चित्ताकर्षक, प्रागमोक्त विधि से वीतरागता की झलक से शोभित हों। तदनन्तर धूमधाम से पञ्चकल्याणक महाप्रतिष्ठा अत्यन्त वैभव से कराना चाहिए । आगमानुसार पञ्चकल्याण प्रतिष्ठा द्वारा अनादि मिय्यादष्टि का भी सम्यक्त्व लाभ हो सकता है । अतएव इस रीति से विधि विधान, दान सम्मान करना चाहिए कि मिथ्यात्वी लोग प्रशंसा करें, आश्चर्य कित हों और जैनधर्म के वैशिष्टय प्रभावित हो दर्शनमोह को वान्त कर सम्यक्त्व रस का पान करने में समर्थ हों जायें । वाह्य प्रभावना अङ्ग है यह, जो अन्तरङ्ग आत्म प्रभावना का समर्थ निमित्त कारण है |१८६६०॥ चतुर्विध महासड्.धै निमान शतैरपि । प्रतिष्ठान्ते जिनेन्द्राणां सारपञ्चामृतोत्करः ॥११॥ कृत्वा महाभिषेकश्च देयं दानं जगद्वितम् । चन्दनागरुकाश्मीरं स्थापयेच्च श्रीजिनालये ।।१२।। अन्वयार्थ--(प्रतिष्ठान्ते) प्रतिष्ठाकार्य होने पर (दान मानप्रतैः) सैंकडों दान सम्मान पूर्वक (चतुविधमहासङ्घः) मुनि, आर्यिका, श्रावक-श्राविका सहित (जिनेन्द्रारशाम् ) श्री जिन प्रतिमाओं का (सारपञ्चामृतोत्करः) उत्तम पञ्चामृतरसों मे (जाद्धितम् ) संसार हितकर (महाभिषेकम् ) महामस्तकाभिषेक (कृत्वा) करके (च) और (चन्दनागरुकाश्मीरम ) चन्दन, अगुरु, काश्मीरादि (स्थापयेत) स्थापित करे (अपि) पुनरपि (श्रीजिनालये) श्री जिनमन्दिर में (दानम् ) दान (देयम् ) देना चाहिए ।।६१, ६२।। भावार्थ -अपार प्रभावना ओर याश्चर्यचकित करने वाली प्रतिष्ठा विधि समाप्त हो जाने पर पुनः मुनि, आयिका श्राविका, थाइक चतुर्विधमय की उपस्थिति में नानाविध दान सम्मान पूर्वक श्री जिन बिम्बों का सुन्दर शुद्ध उत्तम महापञ्चामृत रसों-दुध, दही, घी, Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६३ भोपाल चरित्र नवम् परिच्छेद ] ! इक्षुरस, सौषधि आदि से महामस्ताभिषेक करें । पुनः गरु, चन्दन, काश्मीर आदि सुगन्धित द्रव्यों को स्थापित कर उद्वर्तन करें अर्थात् लेपन करें । सुगन्धित धूप खेवें । पुनः जलाभिषेक कर जिनबिम्बों का अङ्गपोंछनादि कर विराजमान करें। तथा श्रीजिनमन्दिर में अनेक प्रकार के उपकरण दान में देखें । क्या क्या देना चाहिए आगे उसका विवरण यथायोग्य करते हैं १९१६२। धौत बस्त्राणि चित्राणि शर्मकारिणि भरिशः । घण्टा कन्सल सत्ताल कलशचक्रचामरः ।।६३॥ भङ्गाराण्यत्रपीठानि चन्द्रोपकमुखानि च। धूपस्यदहनान्युच्चरासनानि पृथक-पृथक् ॥१४॥ द्वादशेव प्रमाणानि दीयन्ते जिनमन्दिरे । मुनिभ्यः पुस्तकरन्युच्चजनसिद्धान्तसिद्धये ॥६५॥ तथा कमण्डलूत्कृष्ट पिच्छकादीनिशमणे । तथा कालानुसारेण यथायोग्यं च दीयते ॥१६॥ वस्त्राणि ब्रह्मचारिभ्यरायिकाभ्यो विशेषतः । न पीतानि पवित्राणि सारसूक्ष्माणि शर्मरगे ॥६७: श्रावक श्राविकानां च महाविनय पूर्वकम् ।। भोजयित्वा महाभोज्यं वस्त्रताम्बूलचन्दनः ॥१८॥ कृत्वा सम्माननं तेषां याचकानां च तर्पणम् । एवं कृत्वा विधातव्यमुद्योतं जिनशासने ॥६॥ उत्कृष्टेन समादिष्टमुद्यापनमिदं शुभम् । यथाशक्ति च कर्त्तव्यं शान्तिकान्तिक मुत्तमम् ॥१०॥ स्तोत्रेणापि कृतो धर्मः स्वभावेन जगद्धितः । करोति विपुलं सौख्य तस्मात तत्कियते सदा ॥१०१॥ सर्वथा नो भवेच्छक्तिस्तदा द्विगुणमाचरेत् । अतं श्रीसिद्धचक्रस्य सर्वथा सुख कारणम् ॥१०२॥ अन्वयार्थ उद्यापन में श्रीजिनालय में (शर्मकारिणि) सुखप्रदायक, (भूरिशः) बहुत से (चित्राणि) नाना प्रकार (धोतवस्त्राणि) सफेद वस्त्र (घण्टाः) घण्टे (कंसालाः) झालर-झांझ (सत्ताला) मंजीरा (कलशाः) कलशे (चक्राः) धर्मचक्र(चामरः) वर {भृङ्गाराणि) झारियाँ (पोटानि) सिंहासन, (चन्द्रोपकमुखानि) चन्द्रोपकादि प्रमुख उपकरण (च) Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Xxx] [ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद भोर (धूपस्य ) धुप खेने के ( दहनानि ) बूषदान ( उच्चैः ) विशाल ( श्रासनानि ) आसन, पाटा चटाई यदि प्रत्येक ( पृथक्-पृथक् ) भिन्न-भिन्न ( द्वादश प्रमारणानि ) बारह-बारह संख्या में (जिनमन्दिरे) जिनालय में ( दीयन्ते) देना ( जैन सिद्धान्तसिद्धये ) जैन सिद्धान्त का पारगामी होने के लिए ( मुनिभ्यः ) मुनियों के लिए ( उच्चैः) उत्तम ( पुस्तकानि ) शास्त्र ( तथा ) इसी प्रकार (शर्मणे ) शान्ति के लिए ( उत्कृष्ट) उत्तम ( कमण्डलुः ) कमण्डलु (पिच्छिकादीनि ) पिच्छी आदि (तथा) एवं ( कालानुसारेण ) समयानुसार (विशेषतः ) विशेष रूप से ( प्रायिकाम्यो ) अजिंका माताओं को ( न पीतानि) पीत नहीं अपितु ( पवित्राणि ) शुद्ध लज्जा निवारण योग्य ( शरणे ) शान्ति के लिए (च) और ( ब्रह्मचारिभ्य) ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणियों को भी यथायोग्य (सारसूक्ष्माणि) अनुकूल योग्य सूक्ष्म (वस्त्राणि ) वस्त्र ( दीयते) देना चाहिए। (च) और ( महाविनय पूर्वकम् ) अत्यन्त नम्रता से ( श्रावक-श्राविकानाम ) श्रावक और श्राविकाओं को ( महाभोज्यम) वृहदभोज ( भोजयित्वा ) कराकर ( वस्त्र, ताम्बूल, चन्दनः ) वस्त्र, पान, चन्दनादि द्वारा ( तेषाम) उनका ( सम्माननम् ) सन्मान (च) और ( याचकानाम ) याचकजनों को तर्पणम ( कृत्वा) करके (एवम ) इस प्रकार ( कृत्वा) सर्वविधि करके (उद्योतम) उद्यापन ( विधातव्यम् ) करना चाहिए। ( जिनशासने ) जिनागम में ( इदम ) यह ( शुभम . ) शुभ ( उद्यापनम ) उद्यापन विधि ( उत्कृष्टेन ) उत्कृष्ट रूप से ( समादिष्टम ) कहा है (शान्तिकान्तिकम् ) शान्ति और कान्ति देने वाले ( उत्तमम) उत्तम उद्यापन व व्रत hi (यथाशक्ति ) शक्ति अनुसार ( कर्त्तव्यम् ) करना चाहिए (च) और ( स्वभावेन) स्वभाव से (जगद्धितः) जगत का हितकारक ( धर्मः ) धर्म (स्तोत्रेणापि ) स्तुतिमात्र भी ( कृतः ) किया गया (अपि) भी ( विपुलम् ) महान ( सौख्यम् ) सुख को ( करोति) करता है ( तस्मात् ) इसलिए (तत्) वह (सदा ) हमेशा ( क्रियते ) किया जाता है ( सर्वथा ) पूर्णतः ही ( शक्तिः ) योग्यता उद्यापन की शक्ति (नोभवत्) नहीं होवे तो ( तदा ) तब ( सर्वथा ) ( पूर्णतः ) पूर्णरूप से (सुखकारणम ) सुख के हेतु (श्रीसिद्धचक्रस्यत्रतम् ) श्रीसिद्धच व्रत को ( द्विगुणम्) दूदा (भाचरेत् ) करे | भावार्थ-नेक प्रकार के शुभ्र वस्त्र धोती, दुपट्टा, सूती, रेशमी (शुद्ध रेशम) चीनपट्ट आदि, अनेक प्रकार के घण्टा, झांझ, मंजीरा करतालादि चढावे, झालर, बँवर, कलश, धर्मचक्र, भारी, पीठ, स्वास्तिक, चंदोबा प्रधान रूप से बंधवावे, धूपदानी, उच्चासन चौकी, पाटा, वाजोटा, प्रदि उपकरण भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रत्येक बारह-बारह चढाना चाहिए | जिनालय में चढाने को देना चाहिए। इसी प्रकार मुनिराजों को जैन सिद्धान्त की सिद्धि के लिए शास्त्र दान देना चाहिये । समयानुसार उन्हें सुखकारी पिच्छी तथा कमण्डलु प्रदान करना चाहिए | आर्थिकामाताजी एवं क्षुल्लिका माताओं को उनके योग्य शुद्ध, शुभ्र, सूक्ष्म साडी, चादर श्रादि सफेद वस्त्र प्रदान करना चाहिए। इसी प्रकार ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियों को उनकी योग्यतानुसार पोत व शुभ्र वस्त्रादि से सम्मानित करे । सुखदायक, लज्जानिवारक वस्त्र देने से धर्मध्यान की वृद्धि होती है । महाविनय से श्रावक-श्राविकाओं को नानाविधि प्रीतिभोज देना चाहिए। जीमन कराकर, पान, इलायची, सुपारी, सौंफ आदि प्रदान कर चन्दनादि सुगन्धित द्रव्य देवे । इसप्रकार उनका यथोचित सम्मान कर पुनः याचकों को तृप्तिकारकं भोजन-वस्त्रादि दान करे। इसप्रकार उद्यापन करना जिनागम में उत्कृष्ट विधि कही गई है । शान्ति कान्ति प्रदायक उद्यापन करने की इतनी शक्ति न हो तो यथाशक्ति मध्यम व Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद ] [ ४e५ जघन्य रूप में उत्तम रीति से करे । श्रीजिनेन्द्र भगवान व श्री सिद्धचक्र समूह का स्तोत्रमात्र भी जगत् का हितकरने वाला अपूर्व धर्म है अतः स्वभावतः दुःखनाशक सुखकारक, आत्मशोषक स्तोत्रादि सतत करना चाहिए। यह परम्परा से विपुल सौख्य प्रदान करता है। यदि उद्यापन सर्वा ही शक्ति न हो तो द्विगुण- अर्थात् चौबीस वर्ष पर्यन्त व्रत करना चाहिए । यह श्री सिद्धच व्रत सर्वथा सुखदायी है, भव्य प्राणियों को श्रद्धा भक्ति से यथाशक्ति करना चाहिए ।।६३ से १०२ ।। देवेन्द्रादिपदं यस्माद्भव्या सम्प्राप्य निर्मलम् । लभन्ते शाश्वतं स्थानं सद्भुत प्रतिपालनात् ॥ १०३ ॥ अन्वयार्थ -- ( यस्मात् ) इस ( सलम) उत्तम व्रत को ( प्रतिपालनात् ) प्रतिपालन करने से (निर्मलम . ) पवित्र निर्दोष ( देवेन्द्रादिपदम् ) इन्द्र चक्रवर्ती यादि पदों को (सम्प्राप्य ) प्राप्त कर ( भव्याः ) भव्यजन ( प्रशाश्वतम् ) स्थायी (स्थानम् ) स्थान को ( लभन्ते ) प्राप्त करते हैं । भावार्थ इस सिद्धचक्र महाविधान का अद्भुत माहात्म्य है । यह सर्वोत्तम व्रत उत्कृष्ट, मध्यम और वन्य रीति से विधिवत् पालन करने पर इन्द्र, चक्रवर्ती, धरणेन्द्रादि उत्तम पदों को प्राप्त कराकर अक्षय अविनाशी सुखस्थान मुक्ति में पहुँचा देता है । अर्थात् भव्य श्रावक-श्राविका इस श्रेष्ठतम व्रत के प्रभाव से लौकिक सर्वोत्तम सुखों को भोगकर परमपद मुक्तिपद को भी प्राप्त करते हैं ।। १०३ ॥ व्रतेनतेन भो राजन् सिद्धचक्रस्य भूतले । अनन्तास्ते शिव प्राप्ताः प्रयास्यन्ति च भूरिशः ।। १०४ ॥ ततो भव्यैषु स पूत' समाराध्यमिदं शुभम् । शक्तितो भक्तितो नित्य ं स्वर्गमोक्षसुखप्रदम् ॥१०५॥ नन्दीश्वर विधानस्य महिमा भुवनातिगः । वरितु शक्यते नैव फणीन्द्राद्यैरपि प्रभो ।। १०६॥ एवं श्रीवरदत्तास्य मुनीन्द्रेण सुखाकरम् । व्रतं सिद्धचक्रस्य प्रोक्तं श्रुत्वा तदा हि तम् ॥१०७॥ " अन्वयार्थ - ( भो ) है ( राजन् ) नृपते ! (एतेन ) इस (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र के ( व्रतेन ) व्रत से ( भूतले ) पृथ्वीतल पर ( अनन्ता: ) अनन्तों (शिवम ) मोक्ष ( प्राप्ताः ) हो गये (च ) और ( भूरिशः) बहुत से (ते) वे व्रती ( प्रयास्यन्ति ) प्राप्त होंवेगे । (ततः) इसलिए (भव्यैः ) भव्यों द्वारा (घृतम् ) धारण किया गया (इदम्) यह ( पूतम् ) पवित्र ( शुभम् ) शुभ व्रत ( नित्यम ) नित्य ही ( स्वर्गमोक्षसुखप्रदम् ) स्वर्ग और मोक्ष सुख देने वाला (मक्तितः ) Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६] [ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद शक्ति अनुसार ( भक्तितः ) भक्तिपूर्वक ( समाराध्यम ) सम्यक् प्राराधन करने योग्य है, ( प्रभो ) हे राजन् (नन्दीश्वर विधानस्य ) नन्दीश्वर विधान की (महिमा) महिमा ( भुवनातिगः ) लोकाबीत (फणीन्द्राद्यः ) धरणेन्द्रादि द्वारा (अपि) मी ( वणितुम ) वर्णन करने में ( शक्यते ) शक्य (नेव) नहीं है ( एवं ) इस प्रकार ( श्रीवरदत्ताख्यमुनीन्द्र ग ) श्री वरदत्तनामा श्राचार्य द्वारा (सुखाकरम) सुख का सागर ( सिद्धचक्रस्यनतम ) सिद्धचक्र का व्रत ( प्रोक्तम् ) कहा गया ( तदा ) तब (हि) निश्चय ही (तम) उस व्रत को (श्रुत्वा ) सुनकर । स श्रीकान्तो महाराजो विद्याधर महीपति । श्रीमत्यासह सन्तुष्टो मुनिं नत्वा तमुत्तमम् ॥१०८॥ लात्वा व्रतं जगत्पूज्यं गृहे गत्या प्रमोदतः । विधाय विधिना श्रीमानुद्यापन समन्वितः ॥ १०६॥ ततोऽन्ते विधिनादाय सन्यासं स्वर्ग मोक्षदम् । परमेष्ठी पद ध्यानात् कृत्वा प्राण विसर्जनम् ॥ ११०॥ एकादशं नाकेऽभूद् विश्वऋद्धयेक कुलालये । श्रीकान्तसौ शतारेन्द्र सिद्धव्रत फलोदयात् ॥ १११ ॥ श्रीमती व्रतपुष्येन तस्येन्द्रस्याभवच्छुचि । दिव्यरूपा गुणैः पूर्णा पुण्य कर्मकरा परा ॥ ११२ ॥ श्रन्वयार्थ -- (सः) वह (विद्याधरमहीपतिः) विद्याधर भूपति (श्रीकान्तः) श्रीकान्त ( महाराज : ) महाराज ( सन्तुष्टः ) प्रसन्न हुआ ( श्रमत्यासह ) श्रीमतीसहित (तम् ) उन ( उत्तमम) उत्तम ( मुनि) मुनिराज को (नत्रा) नमस्कार कर ( जगत्पूज्यम् ) विश्वबंध (त) को (लाखा) लेकर ( प्रमोदतः ) आनन्द से (गृहे ) घर में ( गत्वा ) जाकर (धीमान् ) बुद्धिमान ने ( विधिना ) विधिपूर्वक (उद्यापन समन्वितः ) उद्यापन सहित (विधाय ) करके ( ततः) अनन्तर ( अन्ते) मरण काल में ( विधिना ) विधि के अनुसार ( स्वर्गमोक्षदम् ) स्वर्ग मोक्ष देने वाला (सन्यासम) समाधि ( मरण) (आदाय ) लेकर ( परमेष्ठीपदध्यानात् ) पञ्चनमस्कारमन्त्र का ध्यान करते हुए ( प्राणविसर्जनम् ) मरण ( कृत्वा) करके ( विश्वऋद्धयेककुलालये) विविध ऋद्धियों के आलयस्वरूप ( एकादशंना के) ग्यारहवें स्वर्ग में ( असौ ) वह (श्रीकान्तः) श्रीकान्तराजा (मिद्धत्रत फलोदयात् ) सिद्धबूत के फल से ( शतारेद्रः ) तारेन्द्र (अभूत्) हुया (श्रीमती) रानी श्रीमती (व्रतपुण्येन) व्रत के पुण्य प्रभाव से ( दिव्यरूपागुणैः) सुन्दर रूप गुणों से (पूर्णा) पूर्ण ( पुण्यकर्मकरा परा ) शुभकर्मों को करने में तत्परा ( तस्य ) उस शतारेन्द्र को ( राचिः) इन्द्राणी ( अभवत् ) हुयो । भावार्थ- वरदत्तमुनीश्वर बतला रहे हैं कि हे विद्याधराधिपति यह श्री सिद्धचबूत अद्वितीय महात्म्य का प्रलोक है। इसक और परलोक को सिद्धि कराने वाला है । है राजन Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बापाल चरित्र नवम परिच्छेद] [४६७ सुनों संसार में अनन्तों भध्यात्मा इसके प्रभाव से मुक्त हो चुके हैं और अनेकों ही निरन्तर शिब श्री के पात्र होंगे अतः मोक्षाभिलाषी भव्यों को शक्ति भक्ति के अनुसार इस महापवित्र, स्वर्ग, मोक्ष दायक शुभवत को आराधना यथासमय करना ही चाहिए । नन्दीश्वर महापर्व की महिमा कातीत है । मनुष्य की क्या बात इसका माहात्म्य धरणेन्द्र और साक्षात वहस्पति भी वर्णन करने में समर्थ नहीं हो सकते । इस प्रकार इस महावृत का स्वरूप, विधि और गरिमा श्रीगुरु से सुनकर वह राजा श्रीकान्त अपनी प्रिय प्रिया श्रीमती के साथ अत्यन्त हर्षित हुआ । श्रीमुनिराज वरदत्तस्वामी को नमस्कार कर श्रद्धा और भक्ति से दोनों ने शुभबूत धारण किया। सन्तुष्ट हो वतलेकर घर आये । संसार पूज्य व्रत को लाकर उन्हें अपार प्रानन्द हुआ। जिम प्रकार विधि गुरुदेव ने कही थी तदनुसार विधिवत वृतपालन कर उत्तम विधि से उद्यापन भी किया । प्रायु के अवसान समय स्वर्गमोक्ष दायक समाधि धारण की। पञ्चपरमेष्ठीवाचक महामन्त्र णमोकारमन्त्र का स्मरण करते हुए साम्यभाव से शान्ति पूर्वक प्रात्मचिन्तन करते हुए प्रारण विसर्जन किये । वत के फलोदय से महाराज श्रीकान्त महद्धिकधारी ग्यारहवें स्वर्ग में उत्तमशतारेन्द्र उत्पन्न हुए और उनकी महारानी श्रीमतोदेवी उस इन्द्रराज की महासुन्दरी, पुण्यकर्मतत्परा परमप्रिय शचि-इन्द्राणी हुई ।।१०४ से ११२।। गौमाविक बौदामा दोषलायां विशेषतः । अन्तर्मुहूर्तमात्रेण सम्पूर्ण नवयौवनः ॥११३॥ देवाझवस्त्र संयुक्तो दिव्याभरण भूषितः । लसत् किरीट माणिक्य प्रभानिजितभास्करः ॥११४॥ सुख स्वभाव निशेषो जंगमो वा सुरमः । किमिवं स्थानक विन्यं महासन्तोष दायकम् ॥११॥ कोऽहम् कस्मात् समायातो दिव्यरत्न महीतले ।। इत्यादिकं स्मरणचित्ते हर्ष निर्भर विग्रहः ॥११६।। तवा जाताअधिर्मत्वा सर्व पूचं भवार्जितम् ।। दानपूजा तपः शीलं परोपकृति संयुतम् ॥११७॥ पुनः पुनः प्रशस्योच्चश्शासनं श्रीजिनेशिनाम् । सप्तधातु विहीनस्सन् वात पित्तादिजिसः ।।११८॥ स तत्रस्थे सुधाकुण्डे स्नात्वा रोत्या प्रमोदतः । तत्रस्थ श्रीजिनेन्द्राणां स्वर्णचैत्यालयाविषु ।।११।। शाश्वतीः पञ्चरत्नानो प्रतिमाः पापनाशनाः । संकल्पमात्र सम्प्राप्तैः सार गन्धादि वस्तुभिः ।।१२०॥ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] [श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद पूजयामास पूतात्मा चकार स्तुतिमुत्तमाम । स्वर्गादि सुख सम्पत्ति दायिनी भव्य देहिनाम् ॥१२१ अन्वयार्थ—(विशेषत:) प्रातिशायीरूप से (कोमलायाम ) कोमल (प्रोपपादिक) उपपाद (शैयायाम ) शैयापर (अन्तर्मुहुर्तमात्रेण) अन्तर्मुहुर्त में ही (नवयौवनः) नवीन यौवन (सम्पूर्णः) अवस्था प्राप्त (दिव्याभरण भूषितः) दिव्य अलङ्कारों से मण्डित, (देवाङ्गवस्त्रसंयुक्तः) देवशरीर के योग्य बस्त्र सहित (माणिक्यप्रभालसत्) माणिक्यरत्न की कान्ति से शोभायमान् (निजितभास्कर:) सूर्य को जोतने वाला (किरोटः) मुकुटवाला, (सुखस्वभाव:) स्वभाव से सुखकारो (निर्दोषः) दोष रहित (वा) मानों (जङ्गमः) जीवन्त (सुरद्र मः) कल्पवृक्ष हो हो, (महासन्तोषदायकम ) अत्यन्त सन्तोष दायक (दिव्यम ) दिव्य-अपूर्व (स्थानकम् ) स्थान (इदम.) यह (किम् । कौन है ? (अहम ) मैं (कः) कौन हूँ (दिव्यरत्नमहीतले) इस अपूर्व रत्न भूमि पर (कस्मात् ) कहाँ से (समायातः) पाया हूँ ? (इत्यादिकम् ) इत्यादि (स्मरणचित्त) विचार से जातिस्मरण होने पर (तदा) तब (हर्षनिर्भरविग्रहः) हर्ष से पुलकितशरीर (जाता हआ (अवधिः) अवधि ज्ञान (जात: हो गया. (दान पजातपः। पूजा, तप (शीलम ) शीलाचार (परोपकृति) परोपकार (संयुतम ) सहित (सर्वम ) सम्पूर्ण (पूर्व भवाजितम) पूर्व भव में उपार्जन किया यह फल है (मत्वा) समझ कर (श्रीजिनेगिनाम्) श्रोजिनभगवान के (शासनम ) शासन को (पुनः पुनः) बार-बार (उच्चैः) अत्यन्त (प्रशस्य) प्रशंसा करता हुआ, (वातवित्तादिन जित:) बात पित्त कफादि विकार रहित (सप्तधातुविहीनस्सम् ) सप्तधातु रहित शरीगे होता हुआ (स:) उसने (तत्रस्थे) वहीं स्थितः (अमृतकुण्डे) अमृतभरे सरोवर में (रीत्या) विधिवत् (स्नात्वा) स्नान करके (प्रमोदतः) प्रानन्द से (तत्रस्थ) स्वर्ग में स्थित (स्वर्ण वैत्यालयादिषु) सुवर्ग के चैत्यालयों में (श्रीजिनेन्द्राणाम ) प्रोजिनभगवान को (शाश्वतीः) अकृत्रिम (पञ्चरत्नानाम ) पाँच प्रकार के रत्नों की (पापनाशनाः) पाप नाशक (प्रतिमा:) बिम्बों को (संकल्पमात्रसम्प्राप्तः) चिन्तवनमात्र से प्राप्त (सारगन्धादिभिः , उतम वस्तुओं से ( पूजयामास) पूजा को (तथा) तथा (पूतात्मा) उस पबित्रात्मा ने (भव्यदेहिनाम ) भव्य प्राणियों को (स्वर्गादिसुग्वसम्पत्तिदायिनीम) स्वर्गादि के सुख सम्पति को देने वाली (उत्तमाम ) उत्तम (स्तुतिम) स्तुति (चकार) की । भावार्थ : सन्यास मरण कर श्रीकान्तमहाराज, अत्यन्त सूकोमल उपपाद या पर अन्तर्मुहूर्त मात्र में पूर्ण यौबनवान होकर उठा । भानों निद्रा से उठा हो । उसका वक्रियिक शरीर अपूर्व सुन्दर था, अद्भुत वस्त्रालङ्कारों से सुसज्जित था । चमकता हुआ मुकुट पहने था। उसमें मरिण की प्रभा निकल रही श्रो । माणिवय प्रभा सूर्यविम्ब की कान्ति को जीत रही श्री। शरोर सौन्दर्य भास्कर को भी निरस्कार करने वाला था । स्वभाव से ही वह शरीर सुखद था, प्रिय था. दोषों ख्याधि व्याधियों से रहित था, उसे देखने से प्रतीत होता था मानों कल्पवृक्ष ही जीवन्त रूप धारण कर प्रकट हुआ है । स्वयं वह इस रूपलावण्य भरे स्थान को देखकर विचार करता है 'यह अलौकिक स्थान कीनसा है ? कितना सन्तोष दायक है ? मैं कौन है ? कहाँ से यहाँ पाया हूँ ? क्यों आया ? इस रत्नमयो भूमि पर याने का कारण क्या है ? इस प्रकार Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद] ४६६ चित्त में सोचते-सोचने उसे अपार आश्चर्य और हर्ष हो रहा था। उसी समय उस इन्द्रराज को अवविज्ञान प्रकट हो गया । पूर्वभव चलचित्र की भाँति ही उसके सामने घुमने लगा। वह विचार रहा है ठीक है मैंने पूर्वभव में सत्तात्रदान दिया. श्रीजिनभगवान की पूजा की थी, सिद्ध चक्र आराधना व्रत, उद्यापन किया, शीलपालन किया, परोपकार कुशल था, उसी सबका यह फल है। इस प्रकार निश्चय कर बह बार-बार जिनशासन के महात्म्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा । धन्य है धर्म का प्रभाव, व्रत की महिमा अपार है । यद्यपि उसका शरीर सप्तधातु विहीन था तो भी नियोगानुमार, विधिवत् वहाँ स्थित अमृत वापिका में स्नान किया । वस्त्रालङ्कार धारण किये । स्वभाव से चिन्तन मात्र से प्राप्त गन्ध, पुष्प चरु, दीप धूप आदि पूजा द्रव्यों को लेकर उस विमान में स्थित अकृत्रिम चैत्यालय में गया । वह सुवर्ण निर्मित जिनालय था। उसमें चरनों की अकृत्रिम विशाल जिनप्रतिमाएं विराजमान थी। उस नब इन्द्र ने अपार श्रद्धा भक्ति से उन तीमलोक के नाथ जिनेन्द्र भगवान की दुःख दारिद्रय, पापनाशक पूजा को । तदनन्दर भव्यप्राणियों को सुखसम्पदा की प्रदाता, स्वर्गादि देनेवाली अद्वितीय स्तुति की। वस्तुत: श्रीजिनेन्द्र भगवान की पूजा भक्ति व स्तुति अदभुत फल देने वाली होती है । भगवद् भक्ति में राग-द्वेष का शमन करने का जाद है। जिन पूजा दारिद्रय नाशक है। जिनस्तबन उच्नकुल और शुभ्र यश प्रदान करती है। भव्यजीवों को सतत पूजा, दान व्रत, और जप, तप करने में तत्पर रहना चाहिए ॥११३ से १२१।। सम्यग्दृष्टि भव्य स्वर्गादि वैभव पाकर भी उसमें प्रासक्त नहीं होता । धर्म को नहीं मुलता । भोगों में नहीं फंसता अपितु उसे धर्म का फल समझ कर और अधिक धर्म में हदबुद्धि हो जाता है । यही आगे दिखाते हैं ततः सिंहासनारूढस्सन्नतान् स्व सुरान् सुधीः । प्रीत्या सम्मानयामास स्व वाक्यामृतवर्षणः ॥१२२।। अन्ययार्थ--(ततः) श्रोजिनपूजा विधानादि कर (सिंहासनारूदः) अपने शासन सिंहासन पर स्थित होते (सन्) हुए (सुधी:) उस ज्ञानी इन्द्र ने (प्रीत्या) स्नेह से (तान्) उन (मुरान्) सभाषद देवों को (स्व) अपने (वाक्यामृत) वचन रूप अमृत (वर्षरगैः) वर्षा द्वारा (सम्मानयामास) सम्मानित किया। रूप लावण्य सन्दोह देव बृन्दैस्सहोत्तमान् । स भुक्ते स्म मलाभोगान् शब्दमात्र सुखाकरान् ॥१२३। देवी गणाधिभियुक्तः कदाचिद् निज लीलया। साररत्न विमानस्थो ध्वजाद्यैः परिमण्डितः ॥१२४॥ गत्वा शाश्वत् सुक्षेत्रभूमिषु स्वशुभोदयात् । अणिमादि गुणोपेतो महाधिभव संयुतः ॥१२५॥ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५००] श्रापाल चरित्र नवम् परिच्छेद प्रत्यक्ष केवलज्ञानभास्करान् श्रीजिनेश्वरान् । सुधीः सम्पूजयामास लोकलोक प्रकाशकान् ॥१२६।। अन्वयार्थ—(रूपलावण्यसन्दोह) रूपलावण्य की खान (देववृन्दः) देवसमूहों के द्वारा प्राप्त (उत्तमान् ) सर्वोत्तम (शब्दमात्रसुखाकरान्) शब्द सुनने मात्र से जो सुख पहुंचाने वाले हैं ऐसे (महाभोगान) महान भोगों को (स:) वह इन्द्र (भुक्त स्म) भोगने लगा (कदाचित्) कभी-कभी (देवीगणादिभिः) देवियों के समूहों (युक्तः) सहित (निजलीलया) अपने लीलामात्र से-इच्छानुसार (ध्वजाय :) ध्वजादि से (परिमण्डितः) सुशोभित (साररत्न) उत्तमरत्नों के (विमानस्थ) विमान में स्थित हो (शाश्वतसुक्षेत्रभूमिषु) अकृत्रिम अनाद्यनिधन उत्तम क्षेत्रों और भूमियों में (स्वशुभोदयात्) अपने पुण्योदय से (अणिमादि) अणिमा, महिमा लघिमादि (गुणोपेतः) गुणों सहित (महाविभवसंयुतः) महावैभवसहित (सुधीः) वह सम्यरदृष्टि भव्यात्मा (लोकालोक प्रकाशकान्) लोक और अलोक को प्रकाशित करने वाले (प्रत्यक्षकेवलज्ञानभास्करान्) प्रत्यक्ष केवलज्ञानरूपी सूर्य (थोजिनेश्वरान्) श्रीनिनेश्वर प्रभुयों को (सम्पूजयामास) पूजा करने लगा। भावार्थ:-बह शतारेन्द्र अपने अनेकों परिवार देव देवियों से यरिक्त था । देव-देवियाँ सौन्दर्य की खान थे। एक-एक का रूप, तेज गरिमा अनूठी थी सभी अपार सौन्दर्य, रूप लावण्य की वापिकाएं थीं। उसको शब्दमात्र सुनने से प्रबीचार-काम वासना शान्त हो जाती थी। इन्द्राणियों की मधुरवाणी, धुधरूओं की झङ्कार, किकिणियों का मधुर रव सुनकर ही वह मन्तुष्ट हो जाता था । अनेकों फ्रीडाए करता रत्न निर्मित विमान नाना प्रकार की ध्वजा, तोरण और क्षुद्र घण्टिकानों से सुसज्जित था । उसमें बैठकर स्वैच्छानुसार उन, उपवन, हम्य उत्तम प्रकृत्रिम भोग भमियों, क्षेत्रों में जा-जाकर क्रीडा करता था। शुभोदय से प्राप्त सुलभ भोगों में वह तल्लीन नहीं हुआ। उसने मात कर लिया था कि यह सुख सम्पदा, वैभव श्रीजिन और श्रीसिद्धचक्र पूजा, व्रत विधान का फल है । अस्तु पुन: मुझे यहाँ सम्यक्त्व पुष्टि और वृद्धि का सुपुष्ट निमित्त भूत जिनभक्ति, मुरुभक्ति करना चाहिए । अतएव वह सपरिवार मोगों में विरक्ति रखता हमा, साक्षात जिनेप्रवर भगवान विराजमान समावशरण में जाकर बन्दना करता । केवलज्ञानरूपी भास्कर की किरणों में स्नान करता अर्थात् प्रत्यक्ष केवली भगवान को दिव्य वाणो रूप अमतकरणों में डबकी लगाता था। उसे अणिमा-महिमा, लघिमा, गरिमा, ईशत्व, वशित्व प्राकाम्य आदि महाऋद्धियाँ प्राप्त थीं। वह पूर्णतः स्वतन्त्र और जिनभक्त शिरोमणि इन भोग और ऋद्धियों को पाकर भी जल तें भिन्न कमलवत् धर्मध्यान में लीन रहता था । लोकालोक को युगपत जानने वाले श्री सर्वज्ञभगवान के साक्षात् दर्शन कर परम प्रानन्द और सन्तोष धारण करता था । इस समय उसने सपरिवार प्रत्यक्ष प्रभु की पूजा की ।। १२३ से १२६ ।। श्रलोक्यस्थ जिनागारे मेर नन्दीश्वरादिषु । महा बिभ्वानि रत्नानां स स्सुधीस्सम्यगर्चयन ।।१२७॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र नवम परिच्छेद ] कदाचित् निजदेवोभिः कोडया सुरसत्तमैः । स्वयम्भूरमरण द्वीप पर्यन्तं सञ्चरन् सुधीः ॥१२॥ कल्याण पञ्चके कुर्धन सोऽर्हतां परमार्चनाम् । विभूत्या परया भक्तया नमस्कारं च योगिनाम् ।।१२।। अष्टादश समुद्रायु साद्धं त्रिकर देहभाक् । चतुर्थ्यायनि पर्यन्तावधिज्ञान विलोचनः ।।१३०॥ तत्तुल्य विक्रिययाढयो नानाविधविचित्रकृत । अष्टादश सहस्राग्दे गतेऽमत हुदाहरन् ।।१३१॥ नव मासे यतिकान्त मनागुच्छवासमाश्रयम् । सप्तधातुमलस्वेदातिग दिव्यशरीरयान् ।।१३२॥ सौधोद्यान बनाढ्यादिष्यसंख्य द्वीप याद्धिषु । प्रकुर्वन् स्वेच्छया कोडी स्वेन्द्राणोभि स्समं मुदा ॥१३३॥ रभ्यमप्स रसान् पश्यन् शृङ्गारनत्यमूज्जितम् । बुभुजे परमं सौख्यं सत्पुण्य परिपाकतः ॥१३४॥ प्रन्ययायं--(सः) वह इन्द्र (सुधीः) बुद्धिमान {त्रैलोक्यस्थ) तीन लोक स्थित {जिनागारे) जिनालयों में (मेहनन्दीश्वसदिषु ) मेरु पर्वतों और नन्दीश्वरादि द्वीपों में चिराजित जिनालयों में विराजमान (रस्नानाम ) रत्नों के (महाविम्बानि) विशाल जिनबिम्बों को (सः) वह (सुधीः) पबित्रात्मा (सम्यक) विधिवत् (अर्चयन ) पूजता हुआ (कदाचित् कभी (निजदेवीभिः) मपनी देषियों के साथ कभी (सुरसत्तमैः) उत्तम देवों के साथ (क्रीडया) खेल-कूद के लिए (स्वयम्भरमणद्वीप पर्यन्तसञ्चरन्) स्वयम्भूरभरणदीप तक संचार करता हुआ, (सुधीः) वह बिवेकी कभो (पञ्चकल्याण के ) पञ्चकल्याणक (कुर्वन् ) करता हुआ (सः) वह (परया) उत्कृष्ट (भक्त्या ) भक्ति (विभूत्या) विभूति से (अर्हताम ) जिनेश्वरों की (परमाचनाम) महापूजा (च) और (योगिनाम् ) वीतरागी साधुराजों को (नमस्कारम) नमस्कार (कुर्वन्) करता था (अष्टादशसमुद्र आयुः) उसकी आयु अठारह सागर (साईत्रिकर) साढे तीन हाथ (देहभाक्) शरीरधारी था, (चतुर्थी) चौथो (अवनि) पृथ्वी (पर्यन्त) तक (प्रवधिः) अवधिज्ञान (विलोचनः) से देखने वाला था (तत्तुल्य) उतने ही प्रमाण (विकिदयाह्यः) बिक्रियाऋद्धिधारी (नानाविधचिपकृत ) नाना प्रकार के रूप बनाने में समर्थ था, (अष्टादशसहस्राब्देगते) अठारह हजार वर्ष बीतने पर (अमृतम ) अमृत रूप (हृद्) मानसिक (आहारन्) पाहार करता हुआ, (नत्रमासै:) नवमहीने (व्यतिक्रान्तः) व्यतीत होने पर (मनाक्) बल्प (उच्छवासम ) उच्छ्वास (प्राश्रयन्) लेता हुआ, (सप्तधातुमलस्वेदातिम) Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ [ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद लगा । सात धातु, मल, मुत्रः पसीना रहित (दिव्य शरीरवान् ) दिव्य देहधारी (स्व) अपनी ( इन्द्राजोभिः ) इन्द्राणियों (समम् ) सहित ( असंख्य ) असंख्यात ( द्वीपवाद्विषु) द्वीप समुद्रों में ( सोद्य उद्यान बनायादिषु ) महल, बगीचा, बतादि में ( स्वेच्छया ) अपनी इच्छा से (मुद्रा) आनन्द से ( क्रीडाम) क्रीडा ( प्रकुर्वन ) करता हुआ (शृङ्गारनृत्यमुज्जितम) श्रृंगारनृत्य में तल्लीन हुयी ( रम्यम ) सुन्दर ( अप्सरसान) अप्सराओंों को ( पश्यन् ) देखता हुआ ( सत्पुण्यपाकतः) श्रेष्ठपुयविपाक से ( परमम् ) उत्तम ( सौख्यम् ) सुख को ( बुभुजे ) भोगने भावार्थ- वह इन्द्र तीनलोक के अकृत्रिम जिनालयों की वन्दना करता था। पाँचों hai और द्वीपों में स्थित जिनालयों के जिनबिम्बों की रत्नमयो प्रतिमाओं की कर्मनाशक पूजा, भक्ति स्तुति करता तो कभी देव देवियों के साथ स्वयम्भूरमण समुद्र तक जा जाकर अनेक प्रकार की क्रीडाएं करता, हास-विलास और आमोद-प्रमोद में मग्न हो जाता । परन्तु धर्म मावना सतत उसके हृदय में जाग्रत रहती । सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से राग-रङ्ग के साधनों के रहते हुए भी वह कभी पञ्चकल्याणक पूजा महोत्सव करता था। नन्दीश्वर द्वीप, कुण्डलगिरि द्वीप, रुद्वीप आदि में जाकर प्रतिदिन जिनविम्बों का पञ्चकल्याणक महोत्सव सहित महापूजा और महामस्तकाभिषेक करता | पाँच-पाँच सौ धनुष उतुङ्ग रत्नमयी जिनविम्बों का दर्शनकर अपने जन्म को धन्य और सफल बनाता। परम भक्ति और पूर्व सुन्दर दिव्य आकर्षक विविध सामग्री लेकर जिनाच करता हुआ सर्वत्र सचार करता था । तथा यत्र-तत्र सर्ववीतरागी, परम दिगम्बर, महातपस्वी, चारणऋद्धि सम्पन्न गुरुयों को भक्ति-भाव सफल बनाता । उसकी आयु १= (अठारह ) सागर की थी। साढ़े तीन हाथ प्रकारण दिव्यशरीर को ऊँचाई थी । चतुर्थंनरकभूमि पर्यन्त वह अपने अवधिज्ञान रूप लोचन से निहारता था उतनी ही विक्रिया करने में समर्थ था । अर्थात अधोलोक में विक्रिया से चौथानरक- पङ्कप्रभा तक गमनागमन करने को सामर्थ्य से युक्त था। विविध प्रकार की विक्रिया करने में उसका सामर्थ्य था। वह अठारह हजार वर्ष के व्यतीत होने पर मानसिक आहार करता, नौ महीने व्यतीत होने पर थोडा सा उच्छवास ग्रहण करता, सप्तधातु वजित उसका शरीर था, मल, मूत्र, पसीनादि से रहित था अर्थात शुद्ध दिव्य शरीर था। वह अपनी इन्द्राणियों सहित स्वेच्छा से मनोनुकूल, प्रासादों, उद्यानों वापिकाओंों, वन-उपवनों, असंख्यात द्वीप सागरों में जा जाकर नानाविध कोडाए-आमोद-प्रमोद करता था । कभी आनन्द से नाना हाव-भाव राग-रङ्ग नृत्यादि करतो हुयों अपनी अप्सराओं को देखता हुआ उनको नृत्य-नाट्यकलाओं का निरीक्षण करता । इस प्रकार अपने सातिशय पुण्य के फल को निरुत्सुक भाव से भोगता था। धर्म के फल को सम्यग्दष्टिजीव किसानवत् धर्म का रक्षण करता हुआ हो भोगता है। इसी प्रकार यह श्रीकान्त राजा का जोव 'इन्द्र' भी धर्मध्यान पूर्वक श्रानन्द से काल यापन करने लगा ।।१२७ १३४ ।। नमस्कार कर जन्म ततश्च्युत्वा शतारेन्द्रः सद्धर्मध्यान प्रभावतः । जातस्त्वमीह पुण्यात्मा चरमाङ्गो महावली ॥१३५॥ इति राजन् महासिद्धचक्र व्रत प्रभावतः । बहु दुर्गति पापं क्षपित्वाऽभूत्त्वमोदृशः ||१३६ ॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद] स्वत्प्रिया सा ततश्च्युत्वा, भ्रान्त्वा काश्चिद्भवान् पुनः । निदान वशतस्तेऽभूत प्रिया मदन-सुन्दरी ॥१३७॥ अन्वयार्थ - (ततः) इसके बाद (शतारेन्द्र :) वह शतारेन्द्र (श्च्युत्वा) यहाँ से चय होकर (सद्धर्मध्यान प्रभावतः) श्रष्ठ धर्मध्यान के प्रभाव से (इह) यहाँ (त्वम् ) तुम (महावली) अति बलवान (चरमाङ्गः) चरमशरीरी (पुण्यात्मा) पुण्यात्मा (जातः) हुए हो (राजन) हे राजन कोटोभट, (इति) इस प्रकार (महासिद्धचक्रवत प्रभावतः) महासिद्धचक्रवतबिधान के प्रभाव से (बहु) बहुत सी (दुर्गनिरहुतिको बोधायन) पापों को (क्षपित्वा) नाणकर (त्वम्) तुम (इदृश:) इस प्रकार शक्ति सौन्दर्य, यश के पात्र (अभूत्) हुए हो तथा (सा) वह इन्द्राणी (तत:) बहाँ से (च्युत्वा) चय होकर (पुनः) फिर (कांश्चित्) कुछ (भवान्) भवों में (भ्रान्त्वा) भ्रमण कर (ते) तुम्हारा (निदानवशत:) निदान करने से (त्वत्प्रिया) तुम्हारो प्रिया (मदन सुन्दरी) मदनसुन्दरी (प्रिया) बल्लभा (अभूत्) हुयो है । भावार्थ---मुनिराज श्रीपाल कोटीभट को सम्बोधन करते हुए कहने लगे, कि सुनो राजन् वह शनारेन्द्र अपने अनेकों अभूतपूर्व सुखों को भोगकर उत्तमसद्धर्म के प्रभाव से आयु पूर्ण कर वहाँ से च्युत होकर यहाँ तुम उत्पन्न हुए हो। तुम चरमशरीरी हो, इसी भव से मुक्तिलाभ करोगे । महापवित्र पुण्यात्मा हो, महावली हो इस सवका कारण सिद्धचक्र व्रत पालन हो है । तुमने पूर्व भत्र में अनेकों दुर्गतियों में भटकने का भयङ्कर पापार्जन किया था, उस समस्त पाप को उसो भव में हे राजन् महायत सिद्धचक्रवात के प्रभाव से नष्ट कर दिया और यहाँ इस प्रकार के पुण्यात्मा, वलिष्ट, यशस्वी और जिनचरणाम्बुज भक्त हुए हो । तुम्हारे प्रेम में आशक्त वह श्रीमती रानी का जीव निदानबन्ध कर कई भवों के बाद यह तुम्हारी प्राणप्रिया मदनसुन्दरी वल्लभा हुयी है । यह सब सिद्धचक्र व्रत का माहात्म्य है ।।१३५ से १३७।। अतोऽत्रेदं व्रतं दक्षः कर्तव्यं सर्वशक्तितः । स्वर्ग मुक्ति करं सारं विश्वविघ्नौघ धातकम् ॥१३८॥ क्षिप्तं पापं त्वया पूर्व सिद्धचक प्रपूजनात् । तथाऽपि गन्धमात्रं च किञ्चित्पापं त्वयि स्थितम् ॥१३॥ श्रीकान्तास्यभवे पूर्व श्रावकव्रत संग्रहात् । त्वया प्राप्तं पितू राज्यं लघुत्वेऽपि प्रभो शृण ॥१४०॥ सतभङ्गादाज्यभनौ मुनेः कुष्ठीति जल्पनात् । कुष्ठी त्वमपि सजातस्सेवफैस्सह भूपते ।।१४१।। घरदत्त मुनीन्द्रेण कृपायुक्त न धीमता । प्रायश्चित्तं हि से दत्तं तेन जालोसि सुन्दरः ॥१४२॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४] [श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद मुनेस्सरसि पातेन पातितस्त्वं पयोनिधौ । निष्काशितो मुनिस्तस्मातटाकाच्च त्वयायतः॥१४३॥ समुत्तीर्य समुद्रं त्वं पारे लग्नस्ततो प्रवम् । मुनेश्चाण्डाल वाक्येन चाण्डालो धोषितस्तकः ।।१४४॥ प्रन्ययार्य-(प्रतः) इसलिए (दक्षः) चतुर पुरुषों द्वारा (स्वर्गमुक्तिकरम्) स्वर्ग मोक्ष देने वाला (इदम्) यह (सारं व्रतम.) उत्तम व्रत (सर्वशक्तित:) सर्वप्रकार शक्ति प्रयत्नों से (विश्वविध्नौष) संसार के विघ्न समूहों को (घातकम् ) नाश करने वाला (कर्तव्यम् ) करना चाहिए, । (सिद्धचक्र प्रपूजनात्) सिद्धचक्र की सम्यक् पूजा करने से (पूर्वम् ) पहले ही (त्वया)तुम्हारे द्वारा (पापम् ) पाप (क्षिप्तेम नष्ट कर दिये गये (तथाऽपि ) तो भी (किञ्चित्) कुछ (गन्धमात्रम्) वासनामात्र (त्र) और (पापम्) पाप (त्वयि) तुम में (स्थितम्) रह गये । (पूर्वम्) पहले (श्रीकान्ताल्यभवे) श्रीकान्तराजा के भव में (श्रावकन्नतसंग्रहात्) श्रावक के व्रतों का पालन करने से (त्वया) तुम्हारे द्वारा (लघुत्त्रेऽपि) अल्पवय रहने पर भी (पितु:) पिता का (राज्यम.) राज्य (प्राप्तम् ) प्राप्त किया गया (प्रमो) हे राजन् (शृण ) सुनो (व्रतभङ्गन) व्रत मन करने से (राज्यभङ्गः राज्य भ्रष्ट (मुनेः) मुनि के (कुष्ठीति) कोढ़ी है इस प्रकार (जल्पनात्) बोलने से (सेवकः) सेवकों के (सह) साथ (भूपते) हे भूप (त्वम् ) तुम (अपि) भी (कुष्ठी) कोढी (सञ्जातः) हुए (कृपायुक्तेन) करुणासागर (धीमता) बुद्धिमन् (वरदत्तमुनीन्द्रन) वरदत्त मुनिराज ने (हि) निश्चय ही (ते) तुम्हें (प्रायश्चित्तम.) दण्ड (दत्तम.) दिया (तेन) उससे तुम (सुन्दरः) रूपवान (जातोसि) हुए हो । (मुनेः) मुनिराज के (सर्रास) सरोवर' में (पातेन) डालने से (त्वम् ) तुम (पयो. निधी) सागर में (पातितः) गिराये गये (सस्मात् ) उस (तटाकान्) सरोवर से (स्वया) तुम्हारे द्वारा (मुनिः) मुनिराज (निष्काशितः) निकाल लिये गये (यतः) इससे (स्वम ) तुम (समुद्रम ) समुद्र को (समुत्तीय) पार कर (पारे) किनारे पर (लम्नः ) या लगे (ततो) इस के वाद (घ्र वम.) निश्चय से (मुनेः) मुनि के प्रति चाण्डाल:) चाण्डाल (वाक्येन) वाक्य से (घोषितः) घोषित किया इसीलिए (तकैः) उन चाण्डालों द्वारा (श्वमपि) तुम भी (चाण्डालः) चाण्डाल (घोषितः) घोषित किये गये। भावार्थ:-सिद्धचक्र व्रत के महात्म्य और विशिष्ट फल को ज्ञात कर भव्यों को, चतुर प्राणियों को शक्ति भक्ति, हर प्रकार प्रयत्न करके इस महापवित्र व्रत को धारण करना चाहिए, पालन कर अशुभ पाप कर्म समूह का नाश भी करना चाहिए और सातिशय पुण्यार्जन कर स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करना चाहिए । श्रीपाल महाराज को सम्बोधन करते हुए श्रीगुरु मुनि Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद] [५०५ राज कहते हैं हे भूपेन्द्र ! पूर्वभव में तुमने इस सिद्धचक्रवत, पूजन और आराधना से बहुत से पाप को नष्ट कर दिया था। प्रभूत अधसमूह को भस्म कर दिया था तो भी कुछ छाई समान उसकी गन्ध शेष रह गई । ठोक ही है किरमिच का रङ्ग बार-बार धोने पर भी उसकी हल्की सी लाली रह ही जाती है। आपका प्रभूत पाप जिनसिद्ध भक्ति पूजा से प्रक्षालित कर दिया गया तो भी धुधला सा प्राकार मात्र तो रह ही गया । सुनिये, आपने श्रीकान्त राजा नामक पर्याय पूर्वभव में श्रावक के पवित्र व्रत धारण किये तत्फलस्वरूप आपको अतिलघुबय में पिता का राज्य प्राप्त हुआ । पुन: तुमने उन परम पावन श्रावक व्रतों को छोड़ दिया, जिसके दुर्विपाक से आपको राज्यभ्रष्ट होना पड़ा। आपने मनिराज को अपने साथियों के साथ कृष्ठी कहा था। उसी पाप से आप और आपके साथी कष्ठो हए, क्योंकि आपने वीतरागी मुनिराज मोकोली कहा पोरइन लोगों ने भी अपनी बात का समर्थन किया था। यद्यपि करुणासिन्धु, दयानिधान श्रीवरदत्तमुनिराज ने आपको प्रायश्चित्त किया था और घोर नरक-तिगोद के कारणभूत भयङ्कर पापों को लघु बना दिया था इसलिए ही तुम अतिसुन्दर रूपवान हुए हो क्योंकि “पश्चात्तापात्फलच्युतिः" पश्चात्ताप करने से पापकर्म के फल की हानि हो जाती है । आपने, भो राजन् मुनीश्वर को सरोवर में फेका तत्फल स्वरूप प्राप अथाह सागर में गिराये गये । उन निर्पराध मुनिराज को पुन: जल से निकाल लिया था इसी से प्राप सागर को भुजाओं से पार कर तीर पर आ लगे। मुनिनायक को तुमने चाण्डाल भाण्ड कहा इसी से चाण्डालों द्वारा प्राप भी चाण्डाल या भाण्ड घोषित किये गये । भो राजन् ! यह जीव जैसा-जैसा, जब जब कर्म करता है उसका फल भी उसे ही तदनुसार भोगना पडता है । संसार में मुनि भक्ति से बढकर पुण्यकर्म और मुनिनिन्दा से अधिक अन्य कोई भी पाप कर्म नहीं है । भव्यों को भूलकर भी स्वप्न में भी गुरु निन्दा व मुनिजनों का अपमानादि नहीं करना चाहिए ।।१३८ से १४४॥ प्राचार्य कहते हैं मुनिनिन्दा और प्रतभङ्ग करना महा भयङ्कर पाप है धरं हालाहलं भुक्तं वरं प्रारण विसर्जनम् । प्रसि धेनुकया राजन् अग्निपातोऽपि सुन्दरः ॥१४५।। सिंहव्याघ्रादिभिरेषो, वर तु पातनं जले। नैव निन्दा मुनीन्द्राणां शील संयम शालिनाम् ॥१४६।। हालाहलादिकं दुःखं क्षरणं प्रारपधिसर्जने । मुनीनां निन्दनं दुखं करोत्यत्र भवे भवे ॥१४७॥ तस्माद्धो भव्य राजेन्द्र श्रीपाल सुगुरणोज्वल । प्राण त्यागेऽपि कर्तव्या नैव निन्दा तपस्विनाम् ॥१४॥ अन्वयार्थ- हालाहलम्) सद्यप्राणनाशक विष (भुक्तम् ) खाना (वरम् ) अच्छा है (प्राणविसर्जनम् ) प्राण त्याग (वरम् ) अच्छा (राजन्) हे नृप ! (प्रसिधेनुकथा) गाय के Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६] [श्रीपाल चरित्र नवम, परिच्छेद खुर से प्राप्त तलवार, (सिंहव्याघ्रादिभिः) शेर, बाघादि द्वारा (प्रारबिसर्जनम्) प्राण त्यागना (वरम) श्रेष्ठ (अग्निपातः) आग में जलना (अपि) भो (सुन्दर:) अच्छा (तु) उसी प्रकार (जलेपातनम् ) जल में कूदना (वरम्) उत्तम, किन्तु (शील संयमशालिनाम्) शील संयमादि गुणों से युक्त (मुनीन्द्राणाम) मुनीराजों को (निन्दा) निन्दा (नैव) श्रेष्ठ नहीं, क्योंकि (हालाहलादिकम् ) हालाहल विषादि का (दुःखम् ) दुःख (प्राणविसर्जने ) प्राणनाग में (क्षणम्) क्षणभर को होता है (मुनीनाम् ) मुनियों की (निन्दनम् ) निन्दा (भवे-भवे) भव-भव में (दुःखम् ) दुःख (करोति) करती है (तस्मात्) इसलिए (भव्य) भो भव्य (गुरणोज्वल ! ) गुरगों से प्रकाशित (राजेन्द्र!) भूपेन्द्र (श्रीपाल) श्रीपाल ! (प्रत्र) संसार में (तपस्विनाम) तपस्वियों को (निन्दा) निन्दा (प्राणत्यागेऽपि) प्राण त्याग करने पर भी (नैव) नहीं (कर्तव्या) करना चाहिए । भावार्थ हे राजेन्द्र श्रीपाल संसार परिभ्रमण के दुःखों का मूल मुनि निन्दा है । हालाहल विष खालेना अच्छा है, गोखुर से उत्पन्न असि तलवार से आत्मघात करना कहीं अच्छा हो सकता है, सिंह व्याघ्र, सर्प व्यालादि द्वारा मारा जाय तो अच्छा है, अग्नि में जलना जल में हुमा, बर से बह मरः " मला है परन्तु शील संयम रूप धन के धारक, वीतराग दिगम्बर साधुनों गुरुओं को निन्दा करना, उन्हें दोष लगाना, उनका अवर्णवाद करना कभी भी अच्छा नहीं है । क्योंकि विषादि भक्षण कर व अग्नि, जलादि द्वारा तो एक ही बार एक ही भव में मरण दुःख देता है परन्तु मुनिनिन्दा का दुष्परिणाम तो जीव को भव-भव में महाभयङ्कुर दुःख देता है। अतः मुनिनिन्दा महाघातक नरक निगोद को कारण और सकल दुःख, सन्तापों की जननी है । इसलिए हे उज्ज्वलगुणालंकृत राजेन्द्र, कभी भी स्वप्न में भी मुनी निन्दा नहीं करना चाहिए। प्राण जाने पर भी मुनि निन्दारूप परिणाम नहीं होना चाहिए । अभिप्राय यह है कि संसार में मुनिनिन्दा महाभयंकर, पाप और अभिशाप है। धर्मभीस्मों को यति निन्दा से बचना चाहिए ।।१४५ से १४८।। पुनः श्रीजिननाथोक्त श्रावकाचार पालनात् । स्व राज्यं हि विशेषेण त्वं प्राप्थ स्मरसुन्दरीम् ॥१४६।। एवं भवावलों श्रुत्वा तदा श्रीपाल भूपतिः । श्रुतसागर नामानं मुनीन्द्रं तं प्रणम्य च ॥१५०।। महाभक्तिभरणाशु परमानन्द निर्भरः । पुनः श्रीसिद्धचक्रस्यव्रतं त्रैलोक्य तारणम् ।।१५१।। सुधीजग्राहभन्यात्मा मनोवाक्काय योगतः । दुर्गत्यावि क्षयंकारि स्वर्गमोक्षादि साधनम् ॥१५२।। तत्प्रभावं समाकर्ण्य ते सप्तशत सेवकाः । राजानश्च परे सर्वे तथा श्रीपालनन्दनाः ।।१५३॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |५०७ श्रोपाल चरित्र नवम्, परिच्छेद] कन्दर्प सुन्दरी मुख्या तस्य देव्यो मनोहराः । पौरा सर्वेऽपि ते शूरास्तथा पत्तन योषिताः ॥१५४।। चित्र विचित्र नामानौ यो कुमारौ खगात्मजौ । श्रीपालस्यालको दोसुकण्ठ श्रीकण्ठ संज्ञको ।।१५५॥ सुशीलाण्योऽथ गन्धयों यशोधन नृपनन्दनः।। विवेकशील नामानि वचसेन चतुस्सुताः ॥१५६॥ हिरण्यं संजक स्वहारमा भूपति हो। स्थान कुकुणनाथस्य सुधर्म करणोत्सुकौ ।।१५७।। राज्ञो मकरकेतो/वन्ताल्य सुन्दरात्मजौ।। पितामदनसुन्दर्याः प्रजापाल नरेश्वरः ॥१५८॥ श्रीपाल सेविनोऽन्यऽपि बहबो देशनायकाः । समेत्यान्ये नरनार्योव हवस्सुगुण शालिनः।१५६॥ सर्वे ते भूभुजा सा सिद्धचकस्य सद्वतम् । स्वीचकः परमानन्दात् यथा राजा तथा प्रजा ॥१६०।। इत्थं श्रीजिनसिद्धचक्र विलसत्पूजा प्रभावोत्तमम् । संश्रुत्य श्रुतसागरेण मुनिना प्रोक्त स्वजन्मान्तरम् ॥१६॥ सन्तुष्टो नसमस्तको गुरुजने श्रीपालनामा नृपः । लात्वा तद्वतमुत्तमं परिजनैस्संप्राप्तवान् पत्तनम् ॥१६२।। अन्वयार्थ-अत सागर प्राचार्य श्री थोपाल जी के पूर्वभब घर्णन करते हुए कहते हैं कि (पुन:) आचार्य श्रा ने पुनः कहना प्रारम्भ किया (श्रोजिननाथोक्त) श्री सर्वज्ञजिनदेव कथित (श्रावकाचारपालनात् ) श्रावक प्रत्तों का पालन करने से (हि) निश्चय से (स्वराज्यमा अपने राज्य को तथा (विशेषण) विशेषरूप से (स्मरसुन्दरीम्) मैंनासुन्दरी को (स्वम् ) तुभने (प्राप्थ) प्राप्त किया। (एवं) इस प्रकार अपनी (भवावली) भवसम्बन्ध (श्रुत्था) सुनकर (तदा) तब (ोपाल भूपतिः) श्रोपालराजा ने (तम्) उन (श्रुतसागरनामानम ) श्रुतसागर मामक (मनीन्द्रम) मनिराज को (प्रणम्ब) नमस्कार कर (च) और (महा भक्तिभरण) अत्यन्त भक्तिभाव से (परमानन्दनिर्भरः) परम प्रानन्द से परे उस राजा ने (आशु) शीघ्र ही (पूनः) फिर से (श्रीसिद्धिचस्यनतम् ) श्रीसिद्धचक के छत को जो (लोषय तारणम तीनों लोकों का तारने वाला है (मनोवाकाय योगतः) मन वचन काय से (भव्यात्मासुधी:) भव्य ज्ञानी ने (जम्राह) स्वीकार किया। (दुर्गत्यादिक्षयंकारि) दुर्गतियों का नाशक (स्वर्ग Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८] | श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद मोक्षादिसाधनम् ) स्वर्ग और मोक्षादि के साधन रूप (तत्प्रभावम् ) उस व्रत के प्रभाव को (समाकर्ण्य) सुनकर (ते) वे (सप्तशतसेवकाः) सातसौ सेवक (राजानः) राजा (च) और (परे) दुसरे (सर्वे) सभी ने (तथा) एवं (श्रीपालनन्दनाः) श्रीपाल जी के पुत्रों ने (तस्य) श्रीपाल की (मुख्या) प्रधान (कन्दर्पसुन्दरी) मदनसुन्दरी आदि (मनोहराः) सुन्दरी (देव्यः) देवियों ने (तथा) तथा (ते) वे (सर्वे) सभी (पौराः) पुरजनों (शूराः) शूरवीरों ने (तथा) एवं (पत्तनयोषिताः) नगर की नारियों ने (खगात्मजो) विद्याधरपुत्र (कुमारी) दो कुमारों (यो जो (चित्रविचित्रनामानो) चित्र विचित्र नाम वालों ने (श्रीपालस्य श्रीपाल के (सफण्ठ श्रीकण्ठ संशको) सुकण्ठ और श्रीकण्ठ नामक (द्वी) दो (स्यालको) साले (अथ) इसी प्रकार (यशोधननपनन्दनः) यशोधन राजा के सुत (सुशीलास्यः) सुशील (गन्धर्व:) गन्धर्व (विवेकाशील:) विवेकशील, (वनसेन) बज्रसेन (नामानि) नाम वाले प्रसिद्ध (चतुस्सुताः) चारों पुत्रों ने (हिरण्य संज्ञक स्नेहालुः) हिरण्यसंजक और स्नेहालु (इमौ) इन दो (भूपतिदेहजो) राजा के पुत्रों ने (सुधर्मकरणोत्सुको) उत्तम धर्म को पालन करने के लिए उत्सुक (स्थानकुकणनाथस्य) कुकरण स्थान का अधिपति के (आत्मजो) पुत्रों ने (राज्ञ:) राजा (मकरकेतोः) मकर केतू के (जीवन्तारव्य) जीवन्तनाम से प्रसिद्ध (सुन्दरात्मजो) सुन्दर पुत्रों ने (मदनसुन्दर्याः) मदनसुन्दरी के (पिता) जनक (प्रजापालनरेश्वरः) प्रजापाल राजा ने (अन्येऽपि) और भी (श्रीपाल सेविन:) श्रीपाल के आश्रित (बहवः) बहुत से (देशनायकाः) देशों के राजाओं ने, (अन्ये) दूसरे (बहवः) बहुत से (सुगुणशालिनः) उत्तम गुणवान (नरनार्याः) नर-नारियों ने (समेत्य) आकर(ते सर्वे) उन सबों ने (भूभुजा) राजा के (सार्द्धम् ) साथ(परमानन्दात्) अत्यन्त प्रानन्द से (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र के (सद्वतम् ) उत्तम व्रत को (स्वीच ऋ:) स्वीकार किया। नीति है (यथा राजा तथा प्रजा) जसा राजा हो वैसी ही प्रजा होती है। (इस्थम्) इस प्रकार (श्री जिनसिद्धचक्र विलसत् ) श्री जिन सिद्धचक्र का चमत्कार करने वाले (पूजा) पूजा के (प्रभावोत्तमम ) प्रभाव का माहात्म्य तथा श्रितसागरेण मुनिना) श्रुतसागर नामक मुनिराज द्वारा (प्रोक्तम्) कथित (स्वजन्मान्तरम् ) अपने भवान्तर (संश्रुत्य) सुनकर (सन्तुष्ट:) प्रसन्न हुआ (गुरुजनेनतमस्तक:) गुरुजनों में नतशिर हुआ (श्रीपालनामानृपः) श्रोपालनामा राजा (तद् ) उस (उत्तमम्) उत्तम (व्रतम्) व्रत को (लात्वा) लाकर (परिजनैः) परिवार सहित (पत्तनम् ) नगर को (सम्प्राप्तवान्) बापिस आये-प्राप्त हुए। भावार्थ-आचार्य श्री श्रुतसागर जी महाराज श्रीपाल नृपति को पूर्वभव का विवरण देते हुए उपदेश कर रहे हैं कि हे राजन् छोड़ने के बाद तुमने श्रीगुरु के निकट जाकर प्रायश्चित्त लिया और पुनः श्रावक के प्रत धारण कर यथायोग्य पालन भी किया। इसी के फलस्वरूप तुमने अपना राज्य पुनः प्राप्त किया और रतिसमान सुन्दरी मदनसुन्दरी जैसी परम पवित्रा शीलवती रानी मिली है। इस प्रकार अपनो भवावलो सुनकर धोपाल कोटीभट अत्यन्त हर्षित हना। उसका प्रानन्द से रोमाञ्च हो गया। महान भक्ति-भाव से नतशिर हो उन श्रतसागर गुरुराज को बारम्बार नमस्कार किया। तोनलोक का तारक भव दुःख निवारक. परम मङ्गलकारक श्रीसिद्धचक्रवत विधान पुनः त्रियोग शुद्धिपूर्वक स्वीकार किया । परमभक्ति भाव और हर्ष से व्रत धारण कर वह परमबोध को प्राप्त हुआ । वस्तुतः यह प्रत दुर्गति वा नाशक Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धोपाल चरित्र नवम् परिच्छेद ] [५.६ सा । AMBER ८स.. Dhootsp पौर स्वर्ग-मोक्ष का दायक है । उभय लोग सुखकारी इस व्रत की प्रचित्य महिमा और अपार गुणगरिमा को सुनकर भोपाल के साथी सास सौ सेवक राजारों ने तथा श्री श्रीपाल के सभी पुत्ररत्नों ने, मदनसुन्दरी को प्रमुखकर समस्त अनिद्यसुन्दरी नारियों ने एवं अन्य समस्त पुरबासिनो गुणशील मण्डिता नारियों ने भी अनेकों नागरिकों, सुभटों, वीरों ने इस व्रत को धारण किया । श्रीपाल के चित्र-विचित्र मारों ने विद्याधरीकुमारों ने, उसके साले सुकण्ठ एवं श्रीकष्ठ ने, सशील, गन्धर्व, यशोधन, विवेकशील वज्रसेन नामक राजकमारों ने, हिरण्य स्नेहाल राजपुत्रों ने, कुकुणनाथ के राजा, सुधर्म करने में उत्कण्ठिस मकर केतू जीवन्त नामक विख्यात, सुप्रसिद्ध राजपुत्रों ने, मदनसुन्दरी के पिता राजा प्रजापाल नरेश में और भी अनेकों राजाओं ने जो श्री कोठोभट के प्राधीन थे तथा अनेकों ने सिद्धचक्र व्रत को स्वीकार किया। ___इस प्रकार व्रत की गरिमा से शोभायमान, उत्तम प्रभाव से प्रभावित, सिद्धचक्र की महिमा सुनकर तथा श्रुतसागर मुनिराज द्वारा कथित अपने पूर्वभव की कथा-वृत्तान्त सुनकर, प्रमुदित महामण्डलेश्वर महाराज श्रीपाल कोटिभट, परिजन, पुरजन सहित प्रत लेकर गुरुजनों को पुनः पुन: वन्दन नमस्कार, विनय कर अपने नगर में आये ।।१६ से १६१।। इति श्री सिद्धचक्रजातिशय प्राप्ते श्रीपाल महाराज चरिते भट्टारक श्री सकल कीर्ति विरचिते श्रीपाल महाराज मदनसुन्दरी पुनर्धर्मश्रवणपूर्वकं भवान्तरच्यावर्णननाम नवम परिच्छेदः : : - - Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमः ॥ || दशम परिच्छेदः ॥ प्रदुद्भ्योऽनन्त सिद्धेभ्यो सर्व साधुभ्य एव च । धर्माया शरम्येभ्यो नमश्शरण सिद्धये ॥ १॥ अन्वयार्थ ( शरणसिद्धये ) श्राश्रयरूप शरण की सिद्धि के लिए (धर्मा) आत्मस्वभाव पाने के लिए (अद्द्भ्यः ) घरहंत परमेष्ठी के लिए (प्रनन्तसिद्ध भ्यः) अनन्त सिद्धों को (च) और (शरण्येभ्यो ) शरण देने योग्य ( सर्वसाधुभ्यः ) सम्पूर्ण साधु आचार्यः उपाध्याय और साधु (एक) ही हैं उन्हें (अत्र ) यहाँ (नमः) नमस्कार है । भावार्थ - इस संसार में भव्यात्माओं को पञ्चपरमेष्ठी हो शरण भूत हैं। क्योंकि जो स्वयं पूर्ण स्वाधीन हो गये वे ही अन्य को अपने आश्रित रखने में समर्थ होते हैं । अतएव इस श्लोक में मङ्गलाचरण करते हुए आचार्य श्री पञ्चपरमेष्ठी को नमस्कार करते हैं । अरहंत, सिद्ध और सर्वसाधु से यहाँ आचार्य, उपाध्याय को भी गर्भित समझना चाहिए क्योंकि मूल में सब वीतराग दिगम्बर यति ही हैं कार्य विशेष या कर्त्तव्य विशेषापेक्षा आचार्य और उपाध्याय पदों का आरोप किया जाता है । अस्तु साधु शब्द तीनों परमेष्ठियों का घोतक है । area कविराज ने अरहन्त, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और सर्वसाधु इन पचपरमेष्ठियों को मरण प्राप्त करने के लिए नमस्कार किया है। संसार सागर में पञ्चपरमेष्ठी ही सुद्ध नौका समान सहारे हैं । इनका माश्रय लेने वाला स्वयं स्वाश्रयी हो शरण्यभूत हो जाता है ॥ १ ॥ अथ श्रीपाल राजेन्द्रो गृहमागत्य पुष्यधीः । महापरिच्छदं सार्थ सान्तः पुरस्समन्वितः ॥ २॥ आष्टा महाप महोत्सवमकारयत् । तदा चम्पापुरी मध्ये महाशोभा ध्वजादिभिः ॥ ३ ॥ कारयित्वा सुधश्चाष्टौ दिनानि विधिपूर्वकम् । जिनेन्द्र प्रतिमानाञ्च सिद्धचक्रस्य भक्तितः ॥४॥ पञ्चामृतप्रवाहैश्च विधाय स्नपनं महत् । पूजामष्टौ दिनान्युरुचैरसञ्चकार महोत्सबैः ||५॥ अन्वयार्थ -- ( अथ ) इसके बाद ( पुण्यश्रीः ) पुण्यात्मा ( राजेन्द्रः ) महामण्डलेश्वर Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ] [ ५११ (श्रीपाल : ) श्रीपाल ( गृहम् ) घर ( ग्रागत्य ) आकर ( आष्टाकि महापर्वे) अष्टाह्निका महापर्व में (अन्तः पुरस्समन्वितः ) अपनी सर्व अन्तःपुर की रानियों सहित ( महापरिच्छेः ) महान वैभव के (सार्थम्) साथ (सः) उस राजा ने ( महोत्सवम् ) महाउत्सव (अकारयत् ) करवाया ( तदा उस समय (चम्पापुरीमध्ये ) चंम्पापुरी में ( ध्वजादिभिः) पत्ताका तोरणद्वार, गृह बाजार की ( महाशोभाम् ) अत्यन्त साज सज्जा ( कारयित्वा ) करवाकर ( सुधीः) विज्ञानी श्रीपाल ने (अष्टौदिनानि ) आठों दिन (विधिपूर्वकम् ) विधि अनुसार (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचयन्त्र की (च) और ( जिनेन्द्र प्रतिमानाम् ) श्री जिनेन्द्र विम्बों का ( भक्तितः ) भक्तिभाव से (महत्) महान ( पञ्चामृत प्रवाहैः ) पञ्चामृतों के द्वारा ( स्नपनम् ) महामस्तकाभिषेक ( विधाय ) करके ( श्रष्टोदिनानि ) प्राठ दिन पर्यन्त (उच्च) ( महान ( महोत्सव : ) उत्सवों के साथ (पूजाम् ) पूजा ( स चकारः ) की । 1 भावार्थ - श्री गुरुदेव से अपने पिछले भव श्रवण कर और पुनः श्री गुरुमुखारविन्द से धर्म श्रवण कर, महा परमपावन, त्रिलोक चूडामणि सारभूत सिद्धचकनत लेकर श्रीपाल - महामण्डलेश्वर अपनी पारी राजधानी में माया पूरी अन्तःपुर और परिजन पुरजनों के साथ उसने अष्टाका महापर्व में पुनः महामहोत्सव करने की घोषणा की । सम्पूर्ण नगरी नवोढा सी सजायो गई । घर-घर द्वारे द्वारे ध्वजा तोरण लगाये गये । मङ्गल कलश स्थापित कराये । घर, गली, बाजार सर्वत्र अनुपम शोभा करायी। जिनालयों की शोभा तो अवर्णनीय थी। कलश, ध्वजा, तोरण, माला घण्टा, झालर आदि नाना प्रकार के उपकरणों से अलंकृत किये गये । अपूर्व छवि थी जिनमन्दिरों की । आठों दिन अनेक उत्सवों सहित सिद्धचक्र और जिनबिम्बों का पञ्चामृतों के प्रवाह से विशाल कलशों से महाभिषेक किया गया । विधिपूर्वक आगमानुसार पञ्चामृताभिषेक कर ही नर-नारियाँ पूजा करती थीं। इस प्रकार आठों दिन अद्भुत वैभव से यह पर्वोत्सव मनाया ।। २-३-४-५॥ सोपवासादिकं सर्व पुनस्तद्व्रतमुत्तमम् । कृत्वाचोद्यापनं चक्रे महाविभवशक्तितः ॥ ६॥ अन्वयार्थ - (तत्) वह ( उत्तमम् ) उत्तम ( व्रतम् ) व्रत ( सोपवासादिकम् ) उपवासादि सहित ( सर्वम् ) पूर्णत: ( कृत्वा) करके (पुनः) फिर ( महाविभवशक्तितः महान वैभवप शक्ति से ( ) और ( उद्यापनम् ) उद्यापन (च) किया। भावार्थ--- श्रीपाल सम्राट ने इस सिद्धचक्रव्रत को पूर्णतः उपवास के साथ किया । अर्थात् उत्तम रीति से आठ उपवास कर पूर्ण किया । भक्ति और शक्ति से पुनः उद्यापन भी क्यों न होता ? अर्थात् पूर्ववत् पूर्ण वैभव और शक्ति से प्रानन्द से उद्यापन किया । उद्यापन का वर्णन आचार्य करते हैं। अगले प्रकरण में निम्न प्रकार देखें |१६|| तत्र श्रीमज्जिनेद्राणां प्रासादानुन्मतान् शुभान् । रहन तोरण संयुक्तान् ध्वजाद्यैः परिशोभितान् ॥१७॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२] [ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद कारयित्वा जिनेन्द्राणां प्रतिमास्सुमनोहराः । स्वर्णरत्नमयीदिव्याः परमानन्ददायकाः ॥ तत्प्रतिष्ठां गरिष्ठां च महासङ्घ ेन संयुताः कारयामास सद्भक्त्या दान मानशतैः प्रभुः ॥६॥ पूर्वोक्त कलाशाश्च रत्नस्वर्णादि निर्मितान् । ढोकयामास भूपालो भक्तितो जिनमन्दिरे ॥१०॥ अन्वयार्थ --- ( तत्र ) उपवास हो जाने पर उद्यापन में वहां ( रत्नतोरणासंयुक्तान् ) नवरत्नों के तोरणों से युक्त ( ध्वजाद्य : ) ध्वजा, कलश, मालादि से (परिशोभितान्) चारों ओर से शोभायमान ( उत्रतान् ) ऊंचे- विशाल (शुभान् ) शुभ- भव्य रूप (श्री मज्जिनेन्द्राणाम् ) श्री मज्जिनेन्द्रों के ( प्रासादान् ) मन्दिरों को ( कारयित्वा ) बनवाकर ( सुमनोहराः ) अत्यन्त मनोज (स्वर्णरत्नमयी) सुवर्ण व रत्नों से निर्मित (दिव्या) सौम्य ( परमानन्ददायकाः ) परम आह्लाद उत्पन्न करने वालो ( जिनेन्द्राणाम् ) जिनभगवान की (प्रतिमा) निम्न (कारfreat ) बनवाकर ( गरिष्ठाम् ) वृहद् ( महासङ् घेन संयुताः ) महा चतुविध संघ सहित ( प्रतिष्ठाम् ) प्रतिष्ठा ( कारयामास ) करवायी ( सद्भक्त्तया) निर्मल भक्ति से (प्रभुः ) राजा श्रीपाल ने ( दानमानशतः ) सैकड़ों दान सम्मान द्वारा (पूर्वोक्त) ऊपर कथित ( रत्नस्वर्णादिनिमितान् ) रत्न और सुवर्णादि से बने ( कलशादीन् ) कलादि को ले (भूपाल : ) वह धर्मपरायण ( भूपाल : ) राजा ( भक्तितः ) भक्ति से भरा (जिलमन्दिरे) श्री मज्जिनमन्दिर में (भक्तितः ) भक्तिभाव से भरा ( ढोकयामास ) आया चतुविध महासङ्घ वात्सल्यं सुमनोहरम् । चकार परमानन्दात् स्वयं चापि महीपतिः ।। ११ दारिद्र्यं याचकादीनां भूरि स्वर्णादि दानतः । चोदयामास भव्यात्मा जिनपूजा महोत्सवैः ॥ १२३॥ सत्यं श्रीमज्जिनेन्द्राणां प्रतिष्ठादिषु कर्मसु । सम्भवेत्पूजनं नित्यं जगज्जीवन मुसमम् ॥१३॥ इत्यादिजिनैः प्रोक्त दानपूजादि लक्षणम् । सु श्रीपाल महाराजास्सदा कुर्बन् सुखं स्थितः ।। १४|| तथा तस्य नरेन्द्रस्य संक्षेपेण निगद्यते । सम्पदः शर्मदा सर्व सज्जनानां मनः प्रियाः ।। १५ ।। अन्वयार्थ - (च) और (स्वयंम् ) स्वतः: ( महीपतिः) राजा ने (अपि) भी (सुमनी Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ] हरम्) सुन्दर (चतुर्विधमहासङ्घबात्सल्यम्) चतुर्विधमहासङवात्सल्य (चकार) किया (भूरिः) बहुत सा (स्वर्णादि दानतः) स्वर्ण प्रादि दान से (याचकादीनाम्) याचकों का (दारिदयम्) दारिद्रय (चोदयामास) दूरकर दिया (सत्यम् ) निश्चय ही (भवात्मा) भव्यजन (जिन पूजा महोत्सवैः) जिनदेवपूजनादि महोत्सत्रों द्वारा (नित्यम् ) प्रतिदिन (जगज्जीवनमु. त्तमम् ) संसारी जोत्रों को उत्तम (श्री मज्जिनेन्द्राणाम्) श्री मज्जिनेन्द्र बिम्बों की (प्रतिष्टादिषु) प्रतिष्ठा आदि (कर्मसु) कार्यों में {पूजनम् ) पूजा (संभवेत्) सम्भव होवे वो करें (इत्यादिकम्) उपर्युक्त धर्मकार्यों (जिनः) जिनप्रभु से (प्रोक्तम) उपदिष्ट (दानपूजादि लक्षणम्) दान पूजादि लक्षण भूत कार्यों को (सदा ) सतत् (कृर्वन) करता हुआ (सः) बह (श्रीपाल:) श्रीपाल (महाराज:) महाप्रभु (सुखम् ) सुखपूर्वक स्थितः) रहने लगा। (तथा) इस प्रकार (तस्य। उस (नरेन्द्रस्य नरनाथ का (शर्मदा:) शान्तिदेने वाला (सर्वसज्जनानाम् ) सभी सत्पुरुषों को (मनः प्रिया) चित्तहारी (सम्पदः) वैभव (संक्षेपेण) संक्षेप से (निगद्यते) वर्णन करा जाता है । मावार्थ--श्रीमद् कोटिभट महामण्डलेश्वर सपरिवार समस्त अन्तः पुर सहित तथा परिजन-पुरजन सहित पुन: महा परम पावन श्री सिद्ध व्रत धारण कर माया । समयानुसार आष्टाहिक पर्व आने पर पुनः उसने आठ दिन उपवास कर उत्तम विधि से अनेको महोत्सवों सहित सकल नर-नारियों से मण्डित हो यह अपूर्व ब्रत सम्पन्न किया। पूर्ववत उससे भी अधिक भक्ति, श्रद्धा वात्सल्य, प्रभावना युत उद्यापन किया।गनचम्बी अत्यन्त उच्चत समनोज. आकर्षक अनेकों जिनालयों का निर्माण कराया । उन्हें सुन्दर नानारंगों वाली अनेकों स्वर्ण रत्नमयी बाजारों से, तोरणों, मालाओं, कलशों आदि से सज्जित कराया। प्रकृत्रिम चैत्यालयों से भी प्रतिस्पर्धा करते हुए दृष्टिगत होते थे। परमानन्द विधायिनी स्वर्ण और रत्नों की अमूल्य, मन-मोहक जिन प्रतिमाएँ पञ्चकल्याण विधि से प्रतिष्ठा करवाकर विराजमान करवायो । चतुर्विध संघ की साक्षी में आषोक्त विधि से विधि-विधान कराये । स्वर्णरत्नादि निर्मित कलशारोहण व ध्वजाराहण कराया। धमत्मिा जनों का यथा योग्य भादर-सत्कार किया। स्वयं सविभूति श्री जिनालय में आया । चतुर्विध संघ से परम वात्सल्य प्रदर्शित किया। संघ की पूजा-भक्ति, धर्मश्रवण, तत्त्व चर्चा, सेवासुथ्षा, वैयावृत्ति आदि कर परमानन्द लाभ लिया। स्वयम् भूपेन्द्र ने याचक जनों को इतना दान दिया कि राज्य में दारिदय संज्ञा भी खोजने पर न मिले अर्थात् सबको धनाढ्य बना दिया । सबके दुःख, दैन्य, ताप दूर कर दिये । जिनपूजा, प्रतिष्ठा विधि-विधानों में जितना जो-जो संभव हो सकता है वह सब कुछ उस राजा ने किया। इस प्रकार महा महात्सवों सहित अत्यन्त सुख से वह महीधर श्रीपाल राजेन्द्र कालयापन करने लगा । प्रतिदिन, दानपूजादि षटकर्मों का पालन करने लगा। अपार वैभव के साथ उसकी जिन भक्ति और जिनाममनरुचि तथा गुरुभक्ति भी उत्तरोत्तर प्रगाढ होती गई । इस प्रकार उसका प्रानन्द से लौकिक जीवन व्यय होने लगा और पारलौकिक जीवन का पूर्ण विकास को आधार शिला सुरत होने लगी। आचार्य श्री १०८ सकलकोति जी पाठकों को पुण्यकार्यों में उत्साहित करने के लिए अब उस महानुभाव श्रीपाल के वैभव का संक्षिप्त वर्णन करते हैं ।।६ से १५॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४] [ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद सार्द्धं मदनसुन्दर्या मुख्यया तस्य सम्भवा । साधिका सहस्राणि देव्यो भुवि गुणोज्वलाः ॥ १६॥ अबन्ध्याश्शुभगास्सर्वा वस्त्राभरण मण्डिताः । स्वपदे शर्मंदा नित्यं सत्या कल्पलतोपमाः ।। १७॥ दान पूजाव्रतोपेताः किं वर्ण्यन्ते हि तद्गुणाः । यास्वत्यो निजपुण्येन जाता वा धर्ममूर्तयः ।। १८ ।। पुत्रा मदनसुन्दर्याश्चत्वारो गुरणभूषिताः । पृथ्वीपालोऽथ भूपालास सारधिश्चित्रको भवत् ॥ १६ ॥ तथा मदनमञ्जूषा सासू सुत सप्तकम् । भू मालायां पञ्चपुत्रास्तुविक्रमाः ||२०| द्वादशैव सहस्राणि शतान्यष्टौ च शर्मदाः । पुत्रास्तस्य कुलोद्योतकारिणः प्रविरेजिरे ॥ २१ ॥ अन्वयार्थ - - ( मुख्यया) प्रधान ( मदनसुन्दर्या ) मदनसुन्दरी सहित ( तस्य ) उसके ( सम्मदाः ) यौवन के मद से युक्त (भुवि ) संसार में (गुणोज्वलाः ) गुणों से उज्ज्वल (भ्रष्टसहस्राणि श्राठ हजार (देव्यः) देवियाँ (साधिक।) उस मदनसुन्दरी से अतिरिक्त थीं ( सर्वाः ) वे सभी (सुभगा :) सुन्दरी (वस्त्राभरणमण्डिताः ) अद्भुत वस्त्राभरणों से अलंकृत ( अबन्ध्या ) पुत्रवन्ती ( नित्यम ) नित्य ही ( स्व पदे) अपने पद में ( शर्मंदा ) शान्ति दायक (सत्या : ) निश्चय ही ( कल्पलतोपमाः) कल्पलता स्वरूप ( दानपूजा व्रतोपेताः ) दान, पूजा, व्रतों से सहित (हि) निश्चय ही ( तदगुणाः) उनके गुणों का (किं) क्या (वर्ण्यन्ते) वर्णन करें ? (या) जो (सत्याः ) सतियाँ (निजपुण्येन ) अपने-अपने पुण्य से (वा) मानों (धर्ममूर्तयः) धर्म की साकार प्रतिमा ( जाता ) अवतरित हुयो । ( मदनसुन्दर्याः) मदनसुन्दरी के ( गुणभूषिताः) गुणों से विभूषित ( चत्वार: ) चार ( पुत्राः ) पुत्र थे ( पृथ्वीपाल : ) प्रथम पृथ्वीपाल (भूपाल: ) भूपाल, (सारवि: ) सारधी ( अथ ) एवं (चित्रकः ) चित्रक ( अभवन् ) हुए (तथा) उसी प्रकार (सा) उस ( मदनमञ्जूषा ) मदनमञ्जूषा ने ( सप्तकम् ) सात ( सुत) पुत्र ( असूत) खत्पन्न किये ( गुणमालायाम) गुणमाला से ( सुविक्रमाः ) पराक्रमी ( पञ्चपुत्राः ) पाँच पुत्र ( बभूवु ) हुए (च) और अन्य ( द्वादशैव ) बारह ही (सहस्राणि ) हजार (अष्टी ) श्राठ (शतानि ) सो ( तस्य ) उसके ( कुलोद्योतकारिणः ) कुल को प्रकाशित करने वाले (शर्मदाः) सुखदायी (पुत्राः) पुत्र ( प्रविरेजिरे ) विशेषरूप से शोभित हुए । मावार्थ - श्रीपाल कोटीभट महाराज के यौवनरूपी लावण्य से भरी सुख-शान्ति देने वाली, संसार में अपने गुणों से समुज्ज्वल, मदमाती अनि सुन्दरी, रूपराशि आठ हजार श्राज्ञाकारिरगी रानियाँ थीं। इनमें प्रमुख पट्टमहिषी-पटरानी मदनसुन्दरी थी । यह गुण, रूप Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद ] [ ५१५ और चातुर्य में द्वितीय थी । साक्षात् धर्म की प्रतिमा ही थी। सभी पुत्रवन्ती थीं। कोई भी वन्ध्या नहीं थी । सभी सुन्दर, मनोहर वस्त्र और अलंकारों से शोभायमान थीं, सभी प्रपनेअपने पदानुसार कर्तव्यनिष्ठ और विनयशीला थीं । अन्योन्य के साथ प्रीति और वात्सल्य भाव संयुक्त थीं । सज धज वे प्रत्यक्ष कल्पलता सी प्रतीत होतीं थीं । दान, पूजा, व्रत, उपवास, त्याग आदि गुणों से तो वे ऐसी मालूम होती थीं मानों धर्म ही साकार रूप धारण कर आ गया है। वस्तुतः यह पुण्य का ही प्रभाव है । अपने-अपने पुण्य से वे साकार धर्म की पुतलियाँ थीं । मदनसुन्दरी के चार पुत्र अपूर्व सुन्दर और गुणज्ञ । वे क्रमशः १. पृथ्वीपाल २. भूपाल ३. सारधि और ४. चित्रक नाम वाले विख्यात हुए। इसी प्रकार मदनमञ्जूषा ने सात पुत्रों को जन्म दिया, गुणमाला ने वीरों में वीर महासुभट पाँच पुत्र उत्पन्न किये । अन्य रानियों से भी अनेक गुणमण्डिन बारह हजार आठ सौ ( १२८०० ) पुत्र हुए। ये सभी कुल के प्रकाशक सुन्दर प्रदीप थे। सभी गुण, कला, विज्ञानी और शक्तिशाली थे। प्रेम, बात्सल्य और स्नेह के प्रागार थे । पारस्परिक स्नेह से एक सूत्र में गुम्फित रत्नमाला समान शोभायमान होते थे । महाराजा श्रीपाल को अपूर्व गौरव और अपार प्रानन्द था । । १६ से २१ ॥ भूपतीनां सहस्राणि सेवन्ते स्म सुभक्तितः । श्रीपालं तु महाराजं किरीटादियुतानि च ॥२२॥ द्वादशोरू सहस्रारिंग गजाः प्रोत्तुङ्ग विग्रहाः । सर्व वस्तुशतैः पूर्णा रथाः पूर्ण मनोरथाः ॥ २३॥ नानादेश समुत्पन्नाः पञ्चवर्णे विराजिताः । श्राश्वा द्वादश लक्षाणि तस्याभवन् महीपतेः ॥ २४॥ atest द्वादश प्रोक्तास्तस्योच्चैस्सुभटोत्तमाः । शत्रूणां प्राशने तूराः क्रूराः वा यम दूतकाः ।।२५।। तथा देश सहस्राणि ग्रामकोटि युतानि च । सर्ववस्तु भृतान्युच्च निधाना नीवरेजिरे ॥ २६ ॥ सारसद् रत्न माणिक्य स्वर्णमुक्ता फलानि च । वर्ण्य ते केन तस्याऽत्र सागरस्येव पुण्यतः ॥२७॥ इत्यादि सम्पदां सारे स्सश्रीपालो महाप्रभुः । frosटकं महाराज्यं प्रकुर्वन् पालयन् प्रजाः ॥२८॥ सार भोग समान्युच्चैः प्रमदावृन्द सेवितः । भुञ्जानः पुण्यपाकेन चक्रवर्तीय निश्चलः ॥ २६ ॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद श्रीमज्जिनेन्द्र चन्द्रोक्तं पवित्र क्षेत्र सप्तकम् । सिञ्चयामास पूतात्मा सद् दानामृत वर्षरणैः ॥३०॥ इत्यादिकं जिनेतॊक्तं धर्म कुर्वन्तमुत्तमम् । तं भूपति समालोक्य तत्प्रजा च तथा करोत् ॥३१॥ अन्वयार्ग--(किरीटादियुतानि ) मुकुटबद्ध (भूपतीनां सहस्राणि) हजारों राजा (सुभक्तितः) उत्तमभक्ति से (श्रीपालं महाराजम ) श्रीपालमहाराज को (सेवन्ते स्म) सेवा करते थे च) और (प्रोत्तुङ्गविग्रहाः) उन्नत विशालकाय (द्वादशोरूसहस्राणि) बारह हजार विशाल (गजाः) हाथी, (सर्ववस्तुशतः) सैकड़ों प्रकार की अनेक वस्तुत्रों से (पूर्णा:) भरे हुए (पूर्णमनोरथाः) मनोरथ को पूर्ण करने वाले (रथाः) रथ, (पञ्चवर्णविराजिताः) पञ्चवणों वाल शोभायमान (नानादेश समूत्पन्नाः) भिन्न-भिन्न देशों में उत्पन्न (द्वादशलक्षारिण) बारह लाख (अश्वा:) घोडे (तस्म) उस (महीपते:) श्रीपाल राजा के (अभवन्) हुए । (शत्रुग्गाम् ) शों के (प्राशने) नाश करने में (तूरा:) उत्साही (वा) मानों (यमदूतका:) यम के दूत (ऋ रा.) कोर्यशाली (उच्च:) महाशक्ति से (सूभटोत्तमाः) बोरों में थेष्ठतम सुभट (तस्य) उसके योद्धा (द्वादशकोटयोः) बारह करोड (प्रोक्ताः) कहे गये हैं (तथा) उसी प्रकार (सर्ववस्तुभृतानि) नाना वस्तुओं से भरे हुए (कोटिग्राम युतानि) करोड़ों ग्रामों से सहित (देशसहस्राणि हजारों देश थे वे (उच्चैः) महान (निधानानि) खजानों के (इव) समान /रेजिरे) शोभायमान थे। (सार सद्रत्न) उत्तम रत्न (माणिक्य) माणिक (स्वर्ग) सुवर्ण मुक्ताफलानि) मोतियाँ (च) और भी अनेकों रत्न (तस्य) राजा के (पुण्यतः) पुण्य से (अत्र) यहाँ इसके राज्य में (सागरम ) समुद्र (एव) ही हो इसको (केन) किसके द्वारा (वर्ण्यते) वर्णित किया जाय ? (इत्यादि) और भी (सम्पदाम् ) सम्पत्ति (सारै:) सारभूत वैभव द्वारा (श्रीपालः) श्रीपाल (महाप्रभुः) महीपति (निष्कण्टक) शत्रुविहीन (महागज्यम ) विशाल राज्य को (प्रकुर्वन्) करता हुआ (प्रजा:) प्रजा को (पालयन्) पालन करता हुआ (प्रमदावन्दमवित: महादेवियों से सेवित (उचैः) महान (सारभोगसमानि उत्तम भोगों को (पुण्यपाकेन) स्व पुण्योदय से (चक्रवर्ती) चक्री (दव) समान (निश्चल :) अखण्ड रूप से (भुजानः) भोगता था। (श्रोमज्जिनेन्द्रचन्द्रोक्तम ) श्रीमज्जिन भगवान द्वार: कथित (पवित्र) पावन (क्षेत्रसप्तकम् ) सात क्षेत्रों में (पूतात्मा) पवित्रात्मा राजा (सद्दानामृतवर्गणैः) उत्तमसत्पात्र दान रूपी अमृत की वर्षा द्वारा (सिञ्चयामास) सिचिन करता था (च) और (इत्यादिकम् ) दान, पूजादि कार्यों को (जिनेप्रोक्तं) जिनभाषित (उत्तमम् ) उत्तम (धर्मम् ) धर्म को (कुर्वन्तम) करते हुए (तम्) उस (भूपतिम) राजा को (समालोक्य) देख कर (तत्प्रजा) उसकी प्रजा भी (तथा) उसी प्रकार (अकरोत् ) करती थी। भावार्थ---यहाँ श्रीपाल महामण्डलेश्वर के वैभव का वर्णन किया है। हजार मकूटबद्ध राजा उसकी सेवा करते थे । अन्य राजाओं की गिनतो क्या ? सभी राजा महाराजा परम Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] [११७ भक्ति और प्रीति से उसकी आज्ञा को शेषावत् मस्तक पर धारण करते हैं । कारण कि वे धर्म प्रेम की डोर से बंधे थे । श्रीपाल का शासन प्रातङ्क रहित था । किसी को भी प्राधि-व्याधि. दैहिक ताप-सन्ताप नहीं था । वह स्वयं धर्मानुरागी था इसलिए प्रजा भी धर्मानुगामिनी थी। उसकी सेना में विशाल उन्नतकाय मदोन्मत्त बारह हजार गज (हाथी) थे । नाना प्रकार की उत्तमोत्तम वस्तुओं से भरपूर मनोरथपूर्ण करने वाले बड़े-बड़े उतने ही रथ थे । उनकी शोभा देखते ही बनती थी। क्षुद्र घण्टियों का रव मन को मुग्ध कर लेता था । अनेकों विभिन्न देशों में उत्पन्न पञ्चवर्णनीय सुन्दर तीव्रगतिबाले, चञ्चल, हींसते हुए बारह लक्ष उम महीपति के घोड़े थे । सुन्दर, सुडौल, युद्धकला में प्रवीण नाना क्रीडाओं में निपुण ये अब अत्ति मनोहर और आकर्षक थे । जिनके नाम श्रवण मात्र से शत्रु दल कांप उठे, ऐसे यमराज के समान पराक्रमी थे। विजयपताका फहराने वाले महापराक्रमी, शत्रुओं के लिए महा ऋर और भयङ्कर संहारक बारह करोड़ उत्तमोत्तम सुभट थे । हजारों देश इसके प्राधीन थे । एक-एक देश के करोड़ोंकरोड़ों ग्राम.शे । ये सभी गारनूल - पाटि पता ने भरपूर थे । कुवेर का खजाना ही मानों भूतल पर आ गया है । बाजारों, सड़कों दूकानों में हीरा, माणिक, पन्ना, मोती, सुवरण, लाल, मणियों के ढेर के ढेर लगे रहते मानों सागर ने ही उसके पुण्य से अपना सारा वैभव उसके चरणों में अर्पण कर दिया है। सर्वत्र सख-शान्ति और निर्भयता की त्रिवेणी बहती थी। किसी को भी किसी प्रकार का प्रभाव नहीं था। याचक संज्ञा ही मानों वहां नहीं थी। दाताओं का ही तांता था । द दा ही सुनाई पड़ता ल ला का कोई नाम लेने वाला नहीं था। इस प्रकार अपूर्व वैभव, अपार जन समूह पाकर बह श्रीपाल कोटिभट पूर्ण निष्कण्टक राजशासन करता अमनन से प्रजा का पालन करता था । प्रजा के लिए वह राजा ही नहीं था, अपितु पिता, बन्धु, स्वामी, ईश्वर और गुरु भी था । वह सबका श्रद्धा और प्रेम का पात्र था । उसका अन्तः पुर अलकापुरी को मात करता था । रानियाँ एक-से-एक मुन्दर, गुणवती, पतिभक्ता, स्नेहालु और धर्मज्ञा थीं। उनके साथ नाना प्रकार के मनोवाञ्छित भोगों को चक्रवती समान भोगता था। परन्तु काम पुरुषार्थ की सिद्धि धर्मपुरुषार्थ की सिद्धिपूर्वक ही करता था । श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्र भगवान ने दान देने के लिए सप्तक्षेत्रों का उल्लेख किया है (इनका विवरण पहले प्रा चुका है) वह धर्मनोतिज अपने सम्यक् बानरूप मेघामृत से इनका निरन्तर सिञ्चन करता रहता था । आर्ष परम्परानुसार समस्त लौकिक क्रियाओं का सम्पादन करता था । फलत: उसकी प्रजा के लोक-आबाल वृद्ध सभी नर-नारी तदनुसार उसका अनुकरण करते थे। क्योंकि नीति है राज्ञि मिणि मिष्ठा: पापे पापा: समे समाः । लोकास्तनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा. ।। अर्थात् राजा के धर्मात्मा होने पर प्रजा भी धर्मपरायण होती है, पापी राजा को प्रजा भी अन्यायी पापात्मा हो जाती है । समानरूप-पाप पुण्य दोनों रूप प्रवर्तन करने वाले राजा की प्रजा भी उसी समान होती है क्योंकि लोक अनुकरणशील होते हैं । जैसा राजा वैसी प्रजा यह सर्व साधारण नियम है । तद्नुसार श्रीपाल का राज्य था ।।२२ से ३१।। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८] [ थोपाल चरित्र दसम परिच्छेद ब्राह्मणा क्षत्रियाः वैश्यास्त्रयो व द्विजातयः । तस्य राज्ये तदा सर्वे चक्र : धर्म दयायुतम् ॥३२॥ सद्धर्म विजयी राजा श्रीपालो जिनधर्मभृत् । दान पूजादिकं कुर्वन् परोपकृति तत्परः ॥३३॥ विधाय सुचिरं राज्यं प्राज्यं गम्भीर मानसः । प्रतापनिजितारातिस्सज्जननां सुवत्सलः ॥३४॥ इत्याद्याप्त सुसामग्र या भुजानः परमं सुखम् । कालं बहुतरं पुण्यात् सोऽनयत् सुखलोलया ॥३५॥ एकदा च बने दोक्ष्य स, दयालुः प्रभावतः । तंटाके कर्दमे मनं मृतं मातङ्गमुन्नतम् ॥३६॥ अन्वयार्थ-(तस्य ) उस श्रीपाल के (राज्ये ) राज्य में (तदा) उस समय (ब्राह्मणा.) बाह्मण, (क्षत्रियाः) क्षत्रिय (वश्या:) वैश्य ये (त्रयः) तीनों (वर्णा) वर्णवाले (द्वजातयः) विनाति (स, सर्वचन याः) क्ष्यारी (धर्मम) धर्म को (चक्र :) पालन करते थे (जिनधर्मभत) जित धर्म को धारण करने वाला (सद्धर्मविजयी) सम्यक् धर्म पर विजय पाने वाला (श्रीपालः) श्रीपाल (राजा) भूप (परोपकृतितत्परः) परोपकार में तत्पर (दानपूजादिकम ) दान, पूजादि (कुर्वन् ) करता हुआ (गम्भीरमानसः) गम्भीर आशयी (प्रतापनिजिताराति) प्रभुत्व से पात्र समूह को जीतने वाला, (सज्जनानाम् सुवत्सलः) सज्जनों का प्रोतिपात्र (सुचिरम् ) बहुतकाल (प्राज्यम ) विशाल (राज्यम) राज्य को (विधाय) पालन करते हुए (इत्यादि) उपर्युक्त (सामग्रया) उत्तम सामग्री (आप्तः) पाने वाला (परमम् ) उत्तम (सुखम.) सुख (भुजानः) भोगता हुअा (स) उसने (पुण्यात्) पुण्य से (बहुतरम् ) बहुत सा (कालम् ) समय (सुखलीलया) सुख मे लीला करते हुए (अनयत्) य्यतीत किया (च) और फिर (एकदा) एक समय (बने) वन में (प्रभावतः) स्वभाव से (दयालुः) कृपालु (सः) वह (तटाके) सरोवर तट पर (कर्दमेः) कीचड़ में (मग्नम ) फंसकर (मृतम ) मरे (उन्नतम,) विशाल (मातङ्गम) हाथी को (वीक्ष्य) देखकर ।।३२ से ३६।। सुधो सं-चिन्तयामास स्वचित्ते भव्यसत्तमः । अहो महागजेन्द्रोऽयं यथा मग्नोऽत्र कर्दमे ॥३७॥ तथा सर्वो जनो मूढो निर्मग्नो मोहकदमे । मे मे कुर्वन् तथा मूढो मग्नः स्त्रीकायकर्दमे ॥३८॥ कामज्वराति संतप्ता यास्यन्ति यममन्दिरम् । यमः स एव हन्तव्यो यो नयत्यङ्गिनो बलात् ।।३६।। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] [५१६ अन्वयार्थ--(सुधीः) बुद्धिमान भूपति (भव्यसत्तमः) भव्यात्मा (स्वचित्ते) अपने मन में (सं-चिन्तयामास) बार-बार विचारने लगा (अहो) पाश्चर्य है (यथा) जिस प्रकार (अत्र) यहाँ (कर्दमे) कीचड में (अयम् ) यह (महागजेन्द्र:) विशालकाय हाथी (मग्नः) दुब गया (तथा) उसी प्रकार (मोहकर्दमे) मोहरूपी कीचड़ में (सर्वः) सर्व (मूत्र:) मूर्ख (जनः) लोग (निर्मग्नः) डूब गये, (तथा) उसी प्रकार (कामज्वरातिसन्तप्ता) कामज्वर की दाह से सन्तप्त (मूढः) अज्ञानी (मे मे कुर्वन्) मेरा-मेरा करते हुए (स्त्रीकायकर्दमे) स्त्रीके शरीररूपी कीचड़ में (मग्नः) फंस (यममन्दिरम् ) मृत्युमहल को (यास्यन्ति) चले जायेगे अत: (यः) जो (अङ्गिनः) प्राणियों को (बलात्) बलपूर्वक (नयति) ले जाता है (स: एव) वही (यमः) यमराज-मृत्यु ( हन्तव्य:) नष्ट करनी चाहिए। भावार्थ----उस श्रीपाल महास्वामी के राज्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये द्विजातीय उसी के समान दयाधर्म का पूर्णतः सावधानी से रालन करते थे । ब्राह्मण, क्षत्रिय योर वश्य का दो बार संस्कार होता है इसलिए ये द्विजातीय कहलाते हैं। प्रथम इनका जन्म संस्कार होता है तथा पुनः आठ वर्ष, ११ वर्ष में पुनः यज्ञोपवीत संस्कार होता है । अतः ये तीनों वर्ण द्विज को हो,: द्विवे द्विजाती। इन है . मी अहिंसाधर्म का यत्नतः पालन करते थे। जिनधर्म धारी राजा स्वयं जिनधर्म की ध्वजा धारण कर दयाधर्म विजयी हो दान, दया, पूजा करता हुआ परोपकार में संलग्न रहता था। उसने अपने तेज और प्रताप से समस्त मात्रुओं को मित्र बना लिया था। सर्वत्र विजय पताका फहरा विशाल साम्राज्य का अधिकारी हुमा सजनजनचित्तवल्लभ वह नाना सुखोपभोग की सामग्री प्राप्त कर बहुत काल तक सुख ..... -- - .. . AITHI 3 . 111 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२०] [ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद पर्वक राज्य करता रहा। तीव्र पुण्योदय से मखमग्न उसका समय लीलामात्र में गुर गुजर गया। कितना समय व्यतीत हो गया यह विचार ही नहीं पाया । एक दिन वह वन विहार को गये। वहाँ क्या देखा ? एक सुन्दर विशाल सरोवर के किनारे एक महा विशालकाय हाथी पडू में फसा और मर गया । अचानक इस घटना को देखकर महाराज श्रीपाल का हृदय भयभीत हो गया। संसार की क्षणभंगुरता उनके समक्ष साकार हो उठो । वह अपने मन में चिन्तवन करने लगे, "अहो यह महाशक्तिशाली गजराज जिस प्रकार भीषण पंक में फंस कर यमराज का ग्रास बन गया, उसी प्रकार संसार मूर प्राणी कामज्वर की दाह से सन्तप्त हो स्त्रियों के अशुभ रूप शारीर रूपी कीचड में फंसकर जीवन को खो देते हैं। मोहरूपी कर्दम में निमग्न प्रज्ञानी जन 'मेरा मेरा' का राग अलापते हुए यमराज के शिकार हो जाते हैं । यह यम महा निर्दय है । कामज्वर सन्तप्त जन उस ज्वाला की शान्ति के लिए नारोशरीर कर्दम में प्रविष्ट होते हैं और यह घातक यम अपना दाब पूरा कर लेता है अर्थात् ये सब उसके यहाँ जायगे मैं अब ऐसा उपाय करू कि इस सर्वभक्षी यम को ही समाप्त कर दूं। "अभिप्राय यह है कि श्रीपाल को वैराग्य जाग्रत हुआ और उसने यह मृत्यु ही मारने योग्य इसे ही मारना चाहिए ऐमा निर्णय किया। मरण ही जीवग का और जीवन-जन्म ही मृत्यु का कारण है । मृत्यु की मृत्यु करने से जन्म का नाश स्वाभाविक है। इसलिए धर्मात्मा सत्पुरुषों को मृत्यु पर विजय करना चाहिए ॥३२ से ३६।। यह मृत्यु-यम वलात् जीवों को ले जाता है इसी को परास्त करनाशाश्वत सुख का उपाय है। उसके लिए-- रत्नत्रयेषु सन्धानैस्तपश्चापाङ्कित बधः । निर्वाणद्वीप सम्प्राप्त्य झारोहन्तु शिवार्थिनः ॥४०॥ अस्मिन् अनादि संसारे धन्यास्ते पुरुषोत्तमाः । | मोह शत्रु विनिजित्य ये प्रापुः परमं पदम् ।।४१।। अध्र व रश्यते सर्व यत्किञ्चित् परमार्थतः । धन धान्यं सुवर्ण च मणि मुक्ताफलादिकम् ॥४२।। अन्वयार्थ - (शिवाथिनः) मुक्ति मौध के चाहने वाले (बुधः) भव्यज्ञानी जनों द्वारा (रत्नत्रये) रलत्रय में (तपश्चापाङ्कित:) तपश्चरण रूप धनुष से अङ्कित (सन्धानः) वाणों से (हि निश्चय से (अारोहन्तु) पारोहण करें (अस्मिन् ) इस (अनादिसंसारे) अनादि संसार में (ते) a (परुषोत्तमाः) उत्तम पूरुष धन्य हैं (ये) जिन्होंने (मोहशत्र) मोहरूप अरिको (विनिजित्य) जोतकर (परमम् ) उत्तम (पदम ) पद मोक्ष को (प्रापु:) प्राप्त कर लिया, (अत्र) यहाँ संसार में (धनम ) गौ, अश्व गजादि (धान्यम ) गेहूं, जौ मूग मटरादि (सुबर्गम ) रुपया, गिन्नी साना चाँदो प्रभृति (मणिमुक्ताफलादि) मणि, मोती आदि (यत् किचित्) जो कुछ है (परमार्थतः) निश्चयनय से (सर्वम्) वह सब (अध्र वम् ) नश्वर (दृश्यते) दृष्टिगत होता है । भावार्ग---श्रीपालमहाराज संसार की नश्वरता का चिन्तबन करते हैं कि यह असार Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२] [श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद गर्गदर्शक सतिमिसाज पुनः वे अशरण भावना-द्वितीय भावना का चिन्तन करते हैं-- शरणं नास्ति संसारे जन्तूनां दुःखसागरे । इन्द्रो वा धरणेन्द्रो वा चक्की वा कः परो नरः ॥४६॥ सम्प्राप्ते मरणे घोरे विद्यमाने च सज्जने । लोहं वा चम्बकं कर्म जीवं नीत्या प्रयान्त्यलम् ॥४७॥ सिंहस्याग्नं मृगस्येव पति तस्यापि कानने । संसृतौ शरणं नास्ति जीवानां सरतां परम् ॥४॥ वर्शन ज्ञानचारित्रं पवित्रं भुवनत्रये । केवलं शरणं जन्तोर्नान्यं मान्यं बुधोत्तमैः ॥४६।। अन्वयार्थ... (दुःखसागरे) दुख का समुद्र रूप (संसारे) इस संसार में (जन्तुनाम ) प्राणियों का (इन्द्र.) इन्द्र (वा) अथवा (धरणेन्द्रः) धरपेन्द्र (वा) अथवा (चक्री:) चक्र वर्ती भी (शरणम्) रक्षक (नास्ति) नहीं है (पूरः नरः) दूसरे आदमी का (क:) क्या Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ] ( ५२३ कहना ? ( सज्जने विद्यमाने ) बड़े-बड़े सत्पुरुषों के विद्यमान रहने पर भी ( घोरे ) भयङ्कर ( मरगो) मरण के ( सम्प्राप्ते ) उपस्थित होने पर (कर्म) कर्म राजा ( चुम्बकम् ) चुम्बक (वा) जिस प्रकार ( लोहम ) लोह को खींचता है उसी प्रकार ( जीवम ) जीव प्राणी को ( fear ) लेकर ( प्रयान्ति) चले जाते है (असम) इससे अधिक क्या ? ( कानने) वन में ( सिंहस्य ) शेर के ( अ ) आगे ( पतितः ) गिरे हुए ( मृगस्य ) हरिण का ( इव) जिस प्रकार कोई (अपि) भी ( शरणम् ) बचाने वाला ( नास्ति) नहीं है तथा ( संसरताम ) जन्म मरण करते संसारी जीवों का ( संसृतौ ) संसार में (परम ) दूसरा कोई भी ( शरणम् ) शरण- रक्षक ( नास्ति) नहीं है (दुधोत्तः ) भेद विज्ञानियों के द्वारा (भुवनत्रये) तीनों लोकों में ( जन्तोः) प्राणो का ( केवलम् ) एकमात्र ( पवित्रम) निर्मल ( दर्शनज्ञानवारित्रम् ) सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र ही ( शरणम ) रक्षकशरणभूत (मान्यम ) माना गया है (अन्य ) अन्य कोई ( न ) नहीं है। भावार्थ - यहाँ विरक्त श्रीपाल भूपेन्द्र संसार में कोई शरण नहीं है। मरण से कोई नहीं बचा सकता, इस प्रकार प्रशारण भावना का चिन्तवन कर रहे हैं। ये महान वैभवशाली इन्द्र अनेकों विभूतियों का अधिपति धरणेन्द्र, सुर-असुर, पटवण्डाधिपति चक्रवर्ती क्या किसी को मरण से बचा कर रख सकते हैं ? ओह स्वयं ही ये बेचारे कर्माधीन हैं, आयुष्य पूर्ण होते ही उस यमराज के ही चङ्गल में फंसने वाले हैं, फिर अन्य की तो बात ही क्या ? जो स्वयं श्ररक्षित है वह दूसरे का प्रतिपालक भला कैसे हो सकता है ? इस दुःख सागर संसार में जीव का कोई शरण नहीं हैं । जिस प्रकार भीषण सघन - गहन- निर्जन वन में सिंह के आगे पड़े हरिण को बचाने में कोई समर्थ नहीं होता उसी प्रकार मृत्यु के सर्वभक्षी विशाल फटे मुख में प्राये प्राणियों को संसार में कोई भी बचाने वाला नहीं है । मरण समय श्राने पर कितने ही मरिणमन्त्र तन्त्र रहें, वैद्य, डाक्टर, सर्जन, सज्जनन्दु नि, शत्रु-मित्र, प्रियबन्धुवान्धवों का समूह क्यों न इकट्ठा हो, परन्तु सबके देखते-देखते कर्मराज प्राणियों को उसी प्रकार खींच ले जाता है, जिस प्रकार चुम्बक लोहे को बरबस खींच लेता है। मरण से बचाने वाला इस संसार में गति से गत्यन्तर जाते हुए भ्रमण करते हुए जीवों को कोई शरणदाता नहीं है । कारण कि संसारी समस्त जीव स्वयं शरणागत हैं शरण्य कौन किसका हो ? आगे श्रीपाल निर्णयात्मक दृष्टिकोण उपस्थित करते हैं कि तीनों लोकों (ऊर्ध्व मध्य और प्रधोलोक ) में यदि कोई शरण हैं तो रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और मम्यक् चारित्र ही है । यही आत्मा का स्वरूप । यही धर्म है। इसी को भेदविज्ञानियों ने मोक्ष मार्ग कहा है। इसके अतिरिक्त कोई भी मृत्यु से बचाने वाला नहीं है । यह आत्मा का स्वरूप ही ध्यातव्य है अब मैं इसी की शरण लूँगा । आत्मा हो आत्मा का प्रतिपालक - रक्षक है, किन्तु इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए वीतरागी गुरु ही सच्चे मार्गदर्शक हैं, वे स्वयं इस विकराल अजेय मृत्यु पर विजय पाने को बद्धकच्छ हैं और अन्य भव्या ओं को भी समर्थ बनाने में सफल समर्थ निमित्त कारण हैं अतः उन्हीं की शरण में जाना चाहिए । यही सनातन समीचीन मार्ग है --- ||४६ से ४६ ।। अब तीसरी संसार भावना का ध्यान करते हुए श्रीपाल नरेश - इस संसार का नक्शा उतारते हैं । यह संसार सर्वत्र असहनीय यातनाओं में खचाखच भरा हुआ है । तिलःतुष मात्र भी इसमें शान्ति का स्थान नहीं- Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४] [ोपाल चरित्र दसम परिच्छेद संसारो दुःसहो ज्ञयश्चतुर्गति समन्वितः । यत्र जीवाः स्व कृत्येन संसरन्ति निरन्तरम् ॥५०॥ छेदनं भेदनं शूलारोहणं ताडनादिकम् । नारकाणां महादुःखंकविधाचामगोचरम् ॥५१॥ पशूनां वध बन्धादि दुःख संवतत्तं सदा । शुधा पोषणशीतो गतः पापरकम् ॥५२॥ इष्टानां च वियोगेन दुष्ट संयोगतस्तथा । रोगशोकादिकं दुःखं मनुष्याणां विशेषतः ॥५३॥ देवानामपि संसारे जायते दुःख मुत्कटम । इन्द्रादीनां समालोक्य विभूति मानसं दुःखम् ॥५४॥ अन्वयार्थ--(चतुर्गतिसमन्वितः) चार गतिस्वरूप (संसारः) संसार (दुःसहो) असहनीय (जयः) जाना गया है (यत्र) जहाँ संसार में (जीवाः) प्राणिगण (स्वकृत्येन) स्वोपाजित कर्मानुसार (निरन्तरम् । सतत (संमरन्ति) घूमते रहते हैं (नारकाणाम् ) नरक में उत्पन्न नारकियों के (छेदन-भेदन ) विशूल कांटों से छेदना तलवारादि से भेदन-चीरना (शुलारोहणम् ) फाँसी पर चढाना, शूली चढाना (ताडनादिकम् ) कोडे डण्डे आदि से पीटनादि (कविबाचामगोचरम् ) कवियों के द्वारा भी जिनका वर्णन न किया जा सके ऐसे (महादूःखम) भहान् दुःखों को (पशूनाम्) तिर्यञ्चों के (बध) कोडे आदि से मारना (बन्धादि) रस्सी, सिकडी लोहे की चैनादि से बाँधा जाना (क्षुधातृपोष्णशीतोत्थम्) भूख, प्यास, गर्मी, सर्दी से उत्पन्न (पापतः) पापोदय से (परबश्यकम् ) पराधीनता के कारण (सदा) हमेशा (दुःखम् ) दुःख (संवर्तते) होता ही रहता है (मनुष्यागाम्) मनुष्यों के (विशेषतः) विशेष रूप से (इष्टानाम्) इष्टजनों का (वियोगेन) वियोग होने से (च) और (दृष्टसंयोगत:) दुर्जन या अनिष्ट वस्तु के संयोग से (तथा) उसी प्रकार (रोग शोकादिकम् ) रोग-शोक आदि (दुःस्त्रम्) दुःख (जायते) होता है (संसारे) संसार में) (देवानामपि) देवों के भी (उत्कटम् ) उत्कृष्ट (दुःखम् ) दुःख (इन्द्रादिनाम् ) इन्द्र आदि की (विभूतिम) विभूति को (समालोक्य ) देख-देख कर (मानसंदुःखम्) मानसिक पीडा (जायते) होती है। भावार्थ-संसार भावना का प्राश्रय लेकर श्रीपाल भूपेन्द्र विचार कर रहे हैं। "यह संसार चारों गतियों से निर्मित है संशारी प्राणी वार्माधीन हो इन चारों गतियों में विविध दु-खों को भोगता हुआ निरन्तर परिभ्रमण करता रहता है। पापकर्म के तीव्र उदय से नरक गति में जाकर पडता है वहाँ काँटों से छिदना, यन्त्रों से चिरना, फटना, भेदन किया जाना, शूली पर चढ़ना, फाँसी पर लटकना, घना से पिटना, ताडनादि अनेकों भीषण, दुर्दान्त, घोर दु खों को सहन करता है, आँखें फोडना जिह्वा Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ] [५२५ च्छेदना. गरम-गरम जलली पुतलियों से चिपटाया जाना आदि कवियों की वाणी से भी अगोचर दुखों को सहता है। संसार में कहावत है "जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुँचे कवि" अर्थात् जिस विषय-पदार्थ को रवि रश्मियाँ भी प्रकाशित नहीं कर सकती उनका भी निरूपण कविजन अपनी सूक्ष्म प्रतिभा से कर देते हैं" वे कविराज भी नरकों की असीम यातनाओं का वर्णन करने में समर्थ नहीं होते । ऐसे दुःसह कष्टों को यह जीव सहन करता है नरकों में । इसी प्रकार तिर्यञ्च गति के दुख हैं जो प्रत्यक्ष देखने में आते हैं बध-बन्धन के कष्ट तो है ही नाक-कान छेदन, नाल ठोकना, वधिया करना आदि मर्मभेदी यातनाएं सहनी पड़ती हैं। शीत-उष्ण की कितनी भयङ्कुर बेदना सहते हैं। ग्रीष्मकाल में चिलचिलाती धूप में बंधे हैं, काम कर रहे हैं, हल चलाना गाड़ी खींचनामादि कार्य में बलात् जोते जाते हैं। समय पर न पानी का ठिकाना है म चारा का । इसी प्रकार शीतकाल में खले मैदान में रहना आदि काट उठाते हैं । भाषा न होने से अपनो पीडा, दुःख भूख-प्यास आदि को अभिव्यक्त भी नहीं कर सकते । मूक होने से भयंकर मानसिक पीड़ा होती है और विचारे पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, लट-पिपील, सिंह-व्याघ्रादि सभी निरन्तर दुःखानुभव करते रहते हैं। पाप बाहुल्य होने से हर समय ये पीड़ित रहते हैं। इसी प्रकार मनुष्य गति में भी दारुण कष्ट होते हैं । इष्ट अनुकूल सामग्नी नहीं मिलने पर अथवा प्राप्त वस्तु का वियोग हो जाने पर मनुष्य को तज्जन्य कष्ट सहन करना पड़ता है इसी प्रकार अनिष्ट वस्तु, जिसे मानव नहीं चाहता और बलात् वह प्राकर चिपट जाये, प्राप्त हो जाये तो भी मन आकुल-व्याकुल होकर क्षण भर भी विपनान्ति नहीं पा सकता ? अर्थात् मानव जीवन के गुथे हुए (इष्ट पदार्थ) अभिलसित पदार्थों के चले जाने पर अनिष्ट संयोजक पात-पीड़ा होती है । इस सबको जीव भोगता है और यथायोग्य फल भी भोगना ही पड़ता है । इसके अतिरिक्त रोग, शोक, आधि व्याधि, दैन्य तापादि जीव को भोगने ही पडते हैं । विशेष रूप से ये मानव पर्याय के कष्ट हैं। कभी पूण्य बिशेष किया तो स्वर्गधाम पा जाता है । वहाँ क्या है ? यहाँ सञ्चित किया पुण्य और पाप । पुण्य विशेष कल्पवासी भी देव हो गया तो भी इन्द्रादि को विभूति देख कर हाय-हाय कर-कर रोता है। मरणकाल में प्रात परिणाम कर स्वयं ही स्वयं के पापों के सञ्चय का उपाय कर बैठता है । इस अवसर पर कौन रक्षा करे ? और किसे दुःख का साथी बनायें । मन्दारमाला मुर्भाने पर मरणकाल निकट जान हाय-हाय करता है । ये सुख छटने वाले हैं अब क्या करूं? इस प्रकार पश्चात्ताप कार रोता है ? और पुन: यहाँ आ टपकता है। अधिक क्या ? देवपर्याय से एकेन्द्री तक हो जाता है । इस प्रकार चारों ही गतियाँ विविध प्रकार के दुःखों से संकीर्ण हैं। यह संसार दुःख ही है। इस प्रकार विचार कर मुमुक्षुप्राणी को पञ्चमगति-मोक्ष पाने का सतत उपाय करना चाहिए। इस प्रकार संसार भावना का चिन्तवन करने में श्रीपाल पृथ्वीपति तल्लीन हो गये ।।५० से ५४।। पूनः एकत्व भावना का विचार करते हैं। उसका स्वरूप निम्न प्रकार समझना चाहिए - एको जीवोऽत्र पापेन दुःखमग्नाति नित्यशः । एक स्वर्गादिकं सौख्यं स्वपुण्य परिपाकतः ॥५५॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६] योपाल रिसालम परिमोद गत्यन्तरं प्रयात्येको जीवत्ये कोऽपि हिचित् । नापरः कोऽपि तस्यास्ति निश्चयेन द्वितीयकः ॥५६॥ रत्नत्रयं समासाद्य कोऽपि भव्यमल्लिका। कर्मक्षयं विधायोच्चैरेको यात्येव तत्पदम् ॥५७।। अन्वयार्थ-(अत्र) संसार में (पापेन) पापकर्म के उदय से (एकः) अकेला (जीव:) जीव (नित्यशः) निरन्तर (अति) अत्यन्त (दुःखमग्न) दुःख में डुबता है (स्वपुण्यपाकत.) अपने पुण्योदय से (एकः) अकेला ही (स्वर्गादिकम् सौख्यम्) स्वर्गादि के सुख को पाता है (एक:) अकेला (गत्यन्तर) एक गति से दूसरी गति को (प्रयाति) जाता है (कहिचित) कोई (अपि) भी जीव (एक:) अकेला ही ( जीवति) जीता है (निश्चयेन) निश्चय से (कोऽपि ) कोई भी (अपर:) दूसरा (तस्य) उसका (न) नहीं (अस्ति) है (द्वितीयकः) दूसरा (कोऽपि) कोई भो (भव्यः) भव्य (मतल्लिा ) श्रेष्ठजोव (एक:) अकेला (एव) ही (रत्नत्रयं) रत्नत्रय को (समासाध्य ) प्राप्त कर (कर्मक्षयं विधाय) कमों का क्षय करके (उच्चः) परमीस्कृष्ट (सत्पदम् ) उस मोक्ष पद को (याति:) प्राप्त करता है-जाता है । भावार्थ---जिनशासन में प्रत्येक जीव सम शक्तियुक्त है। प्रत्येक भव्यात्मा अपने अपने कर्मानुसार और पुरुषार्थानुसार दुःख-सुख अकेला ही भोगता है । अकेला शुभाशुभ कर्म करता है और अकेला ही उसका फल भी भोगता है। पापकों में रत होकर अशुभ कर्म उपाजित करता है उसका फल नरक-निगोदादि के दुःख भी स्वयं वही एक पाता है । स्वयं ही जीव पुण्य कर्मों का सम्पादन करता है पुन: उनका फल स्वर्गादि विभूति का भोगोपभोग भी वही स्वयं अकेला भोगता है। कोई भी अन्य साथी-सङ्गी बँटा नहीं सकता । स्वयं ही यह जीव अपने सत्पुरुषार्थ के बल पर पुण्य-पाप का नाश करने वाले सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को धारण कर वीतराग भावना के बल से सकल कर्म नाश कर सर्वोत्कृष्ट, शाश्वत परमपद मोक्ष स्थान को पाकर सदा को अनन्त चतुष्टय-अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य का धारी हो जाता है । चिरसुखभागी अकेला ही बनता है। संसार और मोक्ष का अधिकारी अकेला ही जीव है। अत: मैं स्वयं ही अपने बन्धन और मोक्ष का पूर्ण जिम्मेदार हूँ । अब मुझे मुक्तिमार्ग ही प्राश्चयनीय है। इस प्रकार श्रीपाल अपने वैराग्यभाव का पोषण करने लगे। पुनः वे अन्यत्त्व भावना का चिन्तन करते हैं ।१५५ से ५७।। अन्यो जीवो यमत्युच्च सर्वत्र भिलितोऽपि च । नीचोच्चसर्वदेहेषु पाषाण स्थित हेमवत् ॥५॥ स्व शक्त्या चेति जानीते भच्यात्मा जिनभाषितम् । संसाराम्बुधिमुत्तीर्य स प्रयाति शिवास्पदम् ।।५।। अन्यत्वं चात्मनो नित्यं ततो भन्यजिनोत्तमैः ।। सावधानविरागेण चिन्तनीयं स्व चेतसि ॥६॥ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ] [ ५२७ अन्वयार्थ--(नीचोच्चसईदेहेष) नीच और ऊँच कुलों में प्राप्त शरीरों में (सर्वत्र सब जगह (मिलितोऽपि) मिलने पर भो (जीव:) आत्मा (पाषाणस्थित हेमवत) पाषाण में स्थित सुवर्ण के समान (उच्चैः) पूर्णतः (अन्यः) भिन्न ही (यमति) स्थित रहता है (इति) इस प्रकार (भव्यात्मा) भव्यजीव (जिनभाषितम्) जिनेन्द्र कथित तत्व को (स्वशत्रत्या) अपनी शक्ति के अनुसार (जानीते) जानता है (सः) वह (संसाराम्बुधिमुत्तीर्य) संसार सागर को पार कर (च) और (शिवास्पदम्) मुक्तिस्थान (प्रयाति ) प्रयाण करता है (ततो) इसलिए (जिनोत्तमैः) जितेन्द्रिय (भव्यैः) भव्य द्वारा (सावधानः) सावधानी से (च) और (विरागरण) विरक्तभाव से (नित्यम्) निरन्तर (आत्मनः) आत्मा का (अन्यत्वम्) अन्यत्वाना (स्व) अपने (चेतसि ) मन में (चिन्तनोयम् ) चिन्तवन करना चाहिए। भावार्थ---यहाँ श्रीपाल मपति अन्यत्व भावना भा रहे हैं । यह यात्मा निरनिराला है । जल में रहकर भी कमल उसमें भिन्न रहता है । खान में पड़ा किटिकालिमा से सनामिला हुआ भी सुबर्ग अपने स्वभाव का त्याग नहीं करता। स्वयं उस (षाणादि) से भिन्न रहता है उसी प्रकार पह स्वभाबसिद्ध अनादि अात्मा कर्मकालिमा के तथा ऊंच नीच वृलों में प्राप्त विभिन्न सुन्दर-असुन्दर शरीरों में जा जाकर उनमें घुल-मिलकर भा स्वयं अपने स्वभाव में स्थित रहता है। अर्थात् चेतनत्व स्वभाव को-ज्ञानदर्शन गुण को नहीं छोड़ता है। यह जिनागम का सार है। जो भव्यात्मा जिनकथित इस तथ्य को पूर्ण सावधानी से जान लेता है और अपने को तद् प (शुद्धरूप) में चिन्तयन करता है वह भव्यज्ञानो-भेदविज्ञानी शीघ्र हो उस अचिन्त्य, अखण्ड, चिद्र प, नित्यस्वरूप उस प्रात्मा को प्राप्त कर लेते हैं । इसलिए भव्य, बुद्धिमान प्राणियों को सतत् सावधानी से प्रात्मा के अन्यत्व स्त्रभाव का पुन: पुन: चिन्तबन करना चाहिए । जैसाकि कहा है पनवतत्वगतेवऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति" अर्थात् नब तत्वों के बीच धूम कर भी अपने एकात्व स्व-स्वभाव को नहीं छोड़ता है। परमारण मात्र भी मेरा नहीं यानि प्रात्मा का नहीं और आत्मा भी परमाणूमात्र का नहीं । आत्मा अपने स्वभाव में अपने स्वरूप स्थित रहता है। यही बार-बार चिन्तेवन करना अन्यत्व भावना है। इसके चिन्तवन से निजस्वभाव में स्थर्य होता है ।। ५.८ से ६०|| अशुचित्त्वं शरीरस्य भावयामास शुद्धधीः । सप्तधातुमलयुक्त' शरीरं तापकं सदा ।।६१॥ चन्दनागरुकप्रधौलवस्त्रादिक शुभम् । पुष्पदामाविकं शीघ्र यत्सङ्गात्ताशं भवेत् ॥६२॥ कथं सन्तः प्रकुर्वन्ति प्रीतिमत्र शरीरके । चर्मास्थि संभवे नित्यं चाण्डालगृह सन्निभे ॥६३।। अन्वयार्थ---(शुद्ध धी:) पवित्र बुद्धिधारी (सदा) निरन्तर (सप्तधातुमलैः) सात धातुरूप मला ते (युक्तम | भरा हुआ (शरीरम् ) शरीर (तापकम् ) कष्टदायी (शरीरस्य) Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८] [श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद शरीर का स्वभाब (अशुचित्वम्) अपवित्रता ही है (भावयामास) चिन्तवन करें (यत्सङ्गात्) जिसके साहचर्य से (चन्दनागुरु कपूरधौलवस्त्रादिकम् ) मलयागिर चन्दन, अगरू, कपूर, सफेद सुन्दर वस्त्रादि (शुभम् ) शोभायमान (पुष्पदामादिकम्) पुष्पमाला, गन्ध, इत्र आदि सुगन्धित उत्तम बस्तुएं भीघ्रम् ) तत्काल (तादृशम्) उस शरीर के समान अपवित्र धिनावनी । भवेत्) हो जाबे (अवशरीरके) ऐसे इस शरीर में (चर्मास्थिसंभवे) चमड़ा, हड्डियों से निर्मित (नित्यम् ) नित्य ही (चाण्डालगृहसनिमे) चाण्डाल-मातङ्ग के घर के समान शरीर में (सन्त:) सत्पुरुष (कथम्) कैसे (प्रोतिम्) राग (प्रकुर्वन्ति) करते हैं ? अर्थात् नहीं करते। भावार्थ - महाप्रभु वैराग्य से युक्त श्रीपाल छठवीं अशुचि भावना भाते हैं । "यह शरीर मल में उत्पन्न मल से ही निर्मित है। हाड़, माँस, चाम, मज्जा, कालेय, पीवादि सात धातुओं से भरा है। इन्हीं से निर्मित है निरन्तर ये ही मल मूत्रादि अपवित्र पदार्थ सब भोर से बहते रहते हैं । हमेशा ही यह रोगादि का पिटारा होने से दुःस्व और संताप का कारण बना रहता है । महादुःखदाता है । इस प्रकार मुमुक्षुत्रों को निरन्तर भावना करनी चाहिए । इतना ही नहीं बह शरीर महादुर्जन समान है इसे कितनी ही सुन्दर-सुरभित, अमूल्य अमर-तगर, कपूर, मलयागिर चन्दन, केसर आदि से लिप्त करो परन्तु अपनी गन्दगी को नहीं छोड़ता इसके विपरीत इन पदार्थों को भी अपने रूप परिणमा लेता है । पुष्पमाला, सुरभित पुष्प, स्वच्छ, बस्त्र. नवीन-नवीन चमकदार पोशाक, प्राभूषण प्रादि उत्तम वस्तुओं को अल्प समय में ही मलोन कर डालता है । दुर्गन्धयुत बना देता है । इस प्रकार के निकृष्ट-तुच्छ शरीर में भला सन्तपुरुष प्रीति कर साते हैं क्या ? यह सज्जनों को प्रिय हो सकता है ? सभी नदी पदाधि नहीं। वे इसे भङ्गी मातङ्ग के घर के ममान अश्पृश्य, हेय और त्याज्य समझते हैं । साथ ही नाना जीवां और रोगों से भी यह संकल-भरा है। अतः भेदविज्ञानी हितक्ष, प्रात्मार्थी भव्य इम कृतघ्न गरोर में कैसे प्रीति करे ? अर्थात् नहीं करते। इस प्रकार चिन्तवन करने से वैराग्य पुष्ट होता है । महाराज श्रीपाल भी अपने गरीर मोह त्याग को परिपक्व करने के लिए बारम्बार इस अशुचि भावना का चिन्त वन कर रहे हैं ।।६१ से ६॥ प्रासवाः कर्मणां जन्तोर्जायन्ते दुःखवायकाः । मिथ्यात्वपञ्चकः कण्टरवतैदिश प्रमैः ॥६४।। कषायः पञ्चविंशत्या योगः पञ्चदशात्मकः । भग्न नौरिव जीवोऽसौ नीयते ते रसातलम् ।।६।। अन्वयार्थ (मिथ्यात्वपञ्चक:) पांच प्रकार के मिथ्यात्वों द्वारा (द्वाद प्राप्रमः) बार प्रकार के (कष्ट:) कष्टदायक (अवतः) अविरतियों से (पञ्चविशत्याकषायै:) पच्चीस कपायों से पञ्चशात्मकः) पन्द्रह प्रकार के (योगः) योगों द्वारा (जन्तोः) जीव के (कर्मपणाम कमी का (पानवाः) मात्रय (जायन्त) होते रहते हैं (असो) यह (जीव:) प्राणी ति उन प्रासबों से (भग्नौः) सछिद्र नौका के (इव) समान (रसातलम् ) संसार सागर के मध्य रसातल में (नीपते) ले जाया जाता है। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] [५२६ भावार्थ-यहाँ आस्रव भावना का स्वरूप कहते हैं । आस्रव का अर्थ है पाना अर्थात् पात्मा में कमों का प्रविष्ट होना । कारणपूर्वक ही कार्य होता है। प्रास्रब के भी पाँच कारण हैं-१. मिथ्यात्व २. अविरति ३. कषाय ४, योग और ५. प्रमाद । यहाँ कषाय में प्रमाद को अन्तर्भूत कर चार ही मुख्य कारण लिए हैं। मिथ्यात्व के पांच भेद हैं--- १. एकान्त-अनेक धर्मात्मक वस्तु को किसी एक धर्म से युक्त ही कहना यथा वस्तु क्षणिक ही है । नित्य ही है। सामान्य ही है। विशेष ही है। भेदरूप ही है । अभेदरूप ही है इत्यादि । चूकि वस्तु में अपेक्षाकृत उपर्युक्त सभी धर्म विद्यमान है, किन्तु एकान्तवादी किसी एक रूप ही कथन करते हैं यही एकान्त मिथ्यात्व है। २. विपरीत मिथ्यात्व हिंसा में धर्म मानना । परमात्मा का अवतार मानना । प्रदेव को देव, कुशास्त्र को शास्त्र, कुगुरु को गुरु मानना इत्यादि विपरीत मान्यता विपरीत मिथ्यात्व है। ३. विनय मिथ्यात्व-खरे-खोटे, सत्य-असत्य, हेय उपादेय का विचार न कर सभी धर्मों, धर्मात्माओं आदि का समान रूप से आदर-सत्कार करना अर्थात् मिथ्यात्वो गुरु प्रादि और सम्यग्दृष्टियों का एक समान विनय करना बिनय मिथ्यात्व है । ४. संशयमिथ्यात्व -जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित तत्व सही हैं या नहीं । सूक्ष्मतत्त्व समझ में नहीं पाता। परलोक, प्रात्मा, परमात्मा, स्वर्ग-मोक्ष प्रादि हैं या नहीं इस प्रकार की बुद्धि का होना संशय मिथ्यात्व है। ५, अज्ञान मिथ्यात्त्र—प्रात्मा को अज्ञान रूप मानने, अथवा अज्ञान ही सुख का कारण है । अजान से ही मोक्ष होता है इत्यादि मस्करीपूर्ण का सिद्धान्त अज्ञान मिथ्यात्व है। ये पाँचों प्रकार के मिथ्यात्व संसारबर्द्धक खोटे प्रास्रव के कारण हैं। दूसरा प्रास्रव का हेतु अविरति है । इसके १२ भेद हैं । षट्काय जीवों के रक्षा नहीं करना ये ६ प्रकार और पांच इन्द्रियों और मन को वश नहीं करना ये ६, इस प्रकार सब १२ भेद हो जाते हैं। जो प्रात्मा को कषै-पीडा दें ये कषायें हैं । इनके २५ भेद हैं । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार । अप्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार, प्रत्याख्यामि-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार, सज्वलन-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार । इस प्रकार सर्व १६ कषाय तथा, हास्य, रति, अरति, खोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद, और नपुसक वेद, ये नव कषाय हैं । इस प्रकार २५ कषाएँ प्रास्त्रव के कारण हैं । __ योग के १५ भेद हैं । मम के चार-सत्य, अमत्य. उभय और अनुभय । वचन - सत्य, अनत्य, भय और अनूभय । काय योग के ७ भेद है--औदारिक काय, योग, बैक्रियक काय योग, साहारक काय योग, औदारिक मिश्र योग, वैयिक मिश्र, माहारक मिश्च और कार्माण काय योग इस प्रकार सब १५ योग हैं ये भी कमग्निव के कारण हैं । ये शुभरूप परिण Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३०] [श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद हते हैं तो शान है औ, शुभ । परिणामत करें तो अशुभ मानब होता है । इस प्रकार विचार करना कि ये आस्रव ही संसार के वर्द्धक हैं, दुःख के हेतू हैं, दुःख स्वरूप हैं इस प्रकार विचार कर आस्रव के कारणों से विरक्त होना चाहिए। यह प्रास्त्रव भावना है। इसके चिन्तवन से मन संयमित-स्थिर होता है। जिस प्रकार नाब में छिद्र हो जाने से नाव में पानी भर जाता है और · धीरे-धीरे वह नाव को डुबो देगा। उसी प्रकार उपर्युक्त मिथ्यात्वादि ५:७ आत्मा रूपी नौका के छिद्र हैं । इन छोदों से कर्मास्रव-कर्म जल भर कर आत्मा को संसार सागर में डुबो देते हैं । अत: बुद्धिमानों को इन छिद्रों को बन्द करने का प्रवास करना चाहिए ।।६४-६५।। संवरोऽपि भवेन्नित्यं भव्यानां शर्मकारणम् । निजितेषु तथा तेषु मिथ्यात्वादिकशत्रुषु ।।६६।। तस्मात्सर्व प्रयत्नेन जैन तत्त्व विदाम्बरैः । जित्वा नानासवानाशु संवरः संविधीयते ॥६७।। अन्वयार्थ---(तेषु ) उन (मिथ्यात्वादिक शत्रुप) मिथ्यात्व आदि शत्रुओं के (निजितेषु) सम्यक प्रकार जीत लेने पर (भव्यानाम् ) भव्य जीवों के (नित्यम्) निरंतर (णमकारणम्) सुख-शान्ति दायक (संवरः) संवर (अपि) भी ( भवेत्) होता है (तस्मात् ) इसलिए (जनतत्त्वविदाम्बरः) जनतत्व के जाताओं को (आशु ) शीघ्र ही (तथा) उस प्रकार के (नाना) अनेकरूप (प्रास्रवान् ) आत्रवों को (जित्वा) जीतकर (संवरः) संवर (संविधीयते) का विधान करना चाहिए। भावार्थ-उपयुक्त प्रासय के हेतु मिथ्यात्वादि का नाण करने से संवर होता है। आते हुए कर्मों का रोक देना ही संबर है । कारण के अभाव में कार्य स्वयं रुक जाता है। नाव में छिद्र होने से पानी आने लगा. छिद्र बन्द कर यिा जाय तो जल प्रवेश रूक जायेगा तथा नाव यथा स्थित रह सकेगी । इसी प्रकार पासव के रूकने पर आत्मा का भार अधिक नहीं होगा मुख और शान्ति की अनुभूति जागृत हो सगी । अत: तत्त्वज्ञ पुरुषों को सुरुद्ध प्रयत्न पूर्वक संवरतत्व को अपनाने को चेष्टा करना चाहिए । शीघ्र ही संवर द्वारा नबीन कर्मास्रवों को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए । इस प्रकार संबर भावना भावे ।।६६-६७।। निर्जरा कर्मणः कार्या तपोभिर्वादशात्मकः। वाद्याभ्यन्तर भेदाभ्यां जिनोक्त: शर्मकारिभिः ।।६।। पञ्चेन्द्रियाणि निजित्य ये कुर्वन्ति जिनोदितम् । तपस्ते संसृतौ धन्या मनुष्याः परमार्थिनः ॥६६।। अब निर्जरा भावना का स्वरूप देखिये - प्रन्ययार्थ—(जिमोक्त :) जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित (वाह्याभ्यन्तरभेदाभ्याम् ) - -- Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३१ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] बाह्य और प्राभ्यन्तर भेद बाले (द्वादशात्मकः) वारह प्रकार के (शर्मकारिभिः) शान्ति, सुख दायक (तपोभिः) तपों द्वारा (कर्मण:) कर्म (निर्जरा) निर्जरा (कार्या) करना चाहिए (थे) जो मानव (पञ्चेन्द्रियाणि) पाँचों इन्द्रियों को (निर्जित्य) जीत कर (जिनोदितम्) जिन भगवान द्वार। कथित (तपः) तपश्चरण को (कुर्वन्ति) करते हैं (संमृती) संसार में (ते) ने (परमार्थिनः मनुध्याः) मानव मोक्षाभिलाषी (धन्याः) धन्य हैं । भावार्थ --- अरहंत, सर्वज्ञ जिनभगवान ने निर्जरा का हेतु तप कहा है। वह तप दो प्रकार का बाया है १ बाह्य और २ प्राभ्यन्तर । पुन: प्रत्येक के ६-६ भेद हैं । इस प्रकार बारह प्रकार का तप कहा है । जो वाह्य में देखने में पा सके वह बाह्य तप हैं "अनशनावमोदर्यवत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविशय्यासनकायक्लशा बाद्य तपः । (१) शनअनः-चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन तप है। (२) अवमौदर्य तप:- अर्द्धपेट या 'यूरस र कम माना नामक तम है । (३) वृत्तिपरिसंख्यान:-चर्या (आहार) के लिए जाते समय अवग्रह करके निकलना और उस नियमानुसार भिक्षा याहार मिलने पर ही श्राहार लेना वृत्तिपरिसंख्यान (४) रसपरित्याग तपः-दुग्ध, दही, घी, नमक, तेल और मीठा ये छः रस कहे जाते हैं। इनका त्याग करना अथवा इनमें से यथाशक्ति एक, दो, चार, पांच आदि रसों को छोड़कर आहार ग्रहण करना रसपरित्याग तप है । (५) विविक्त शय्यासन:- तपश्चरण, साधना, मनोबल पीर धैर्य की वृद्धि के लिए तथा कर्मों को निर्जरा हेतू इस विविक्त शय्यासन तप को करते हैं । अर्थात् एकान्त, निरापद वन, गुफा, पर्वत, जिनालय आदि में सोना, बैठना, ध्यान, अध्ययन वारना विविक्त शव्यासन तप है। (६) कायरलेश: मामा प्रकार आसन लगाना, मुद्राएँ बनाना, घण्टों एक ही आसन से बैठकर आत्मस्वरूप चिन्तन करना, एक पैर पर खडे रहना आदि करना कायक्लेश है। नाना प्रकार प्रतिमास्थानं, शरीर को स्थिर करना, आतापनादि तप करना ये सब काय क्लेश तप है । इसा प्रकार प्राभ्यन्तर तप के भी छः भेद हैं.-यथा ' प्रायश्चित्त बिनयबयाबृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ।।२० त. सू. अ. ६ ।। (१) प्रायश्चित्त-(अपराध होने पर गुरुसाक्षी में उनका निराकरण करना।) (२)विनय - मानसिक, बायनिक, कायिक और औपचारिक इन चार प्रकार के विनयों का पालन करना । तप, सम्यग्दर्शन, सम्यग्नान और सम्यक् चारित्र के प्रति भक्ति, श्रद्धा रखना विनय ता है। (३) बैयावृति तप: ..."आचार्योपाध्यायतपस्विीक्ष्यग्लान गानसद्ध साधुमनो Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ज्ञानाम् ।।२४।।" अर्थात् १. प्राचार्य २. उपाध्याय, ३. तपस्वी ४. शैक्ष ५. ग्लान, ६, गए ७. कुल, ८. सङ्घ, ६. साधु, और १०. मनोज्ञ ये १० प्रकार के साधु हैं इनकी यथावसर, यथायोग्य सेवा सुथुषा परिचर्या करना वैयावृत्ति तप है। (१) पाँच प्रकार प्राचारों का जो स्वयं आचरण करें और शिष्यों को भी करावे तथा शिक्षा दीक्षा देकर शिष्यों का अनुग्रह, निग्रह करें वे प्राचार्य कहलाते हैं । (२) जिनके सान्निध्य में साधुगण प्रागम का अध्ययन करते है वे उपाध्याय हैं। (३) जो मासोपवास, पक्षोपवास, अष्टोपवास, तेला वेला, षष्ठोपवासादि करने में संलग्न रहते हैं वे तपस्वी कहलाते हैं । (४) जो निरन्तर धत की आराधना में तत्पर रहते हैं सतत बतभाबना निपुण होते हैं अर्थात् आत्मज्ञान की वृद्धि में सदा तत्पर रहें वे शैक्ष्य कहलाते हैं । (५) असाता कर्मोदय से जो प्रायः ऋग्न-रोगी रहते हैं पर प्रात्मबल से युक्त हों वे ग्लान कहलाते हैं 1 (६) गण-स्थविरों की संतति को गण कहते हैं । (७) कुल--दीक्षा देने वाले प्राचार्य की शिष्यपरम्परा के साधु समूह 'कुल' कहलाते हैं। (८) सङ्घ--यति, मुनि, ऋषि और अनगार इन चारों प्रकार के साधुनों के समूह को सङ्घ कहते हैं। (६) साधु-बहुत समय के दीक्षित साधु कहलाते हैं । (१०) मनोज्ञ--सुन्दर रूपलावण्य सहित-सर्वप्रिय सन्त मनोज्ञ कहलाते हैं। इस प्रकार इन दस प्रकार के साधुओं का रोगादि, जीत जाणादि परीषह आदि आने पर यथायोग्य सेवादि करना वैयावृत्ति तप है। अन्तरङ्गभक्ति, त्याग भावना होने पर ही यह तप होना संभव है । अत: यह भी अन्तरङ्ग तप है। (४) स्वाध्याग-पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना--१. वाचना २. पृच्छना ३. अनुप्रेक्षा ४. पाम्नाय ५. धर्मोपदेश ये स्वाध्याय के पाँच भेद हैं । इनका निरन्तर अभ्यास करना स्वाध्यायतप है। (५) व्युत्सर्ग-शरीर से ममत्व त्यागना ध्युत्सर्गतप है। (६) ध्यान-- आस्मस्वरूप का एकाग्रचित्त से चिन्तन करना ध्यान है। अर्थात एकाग्रचिन्तानिरोध ध्यान कहलाता है। ये छहों तप अन्तरङ्ग हैं। ये तप कर्म निर्जरा के हेतू .ru Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद हैं । इनकी सिद्धि पांचों इन्द्रियों के दमन करने से होती है। विषय-कषायों के त्याग से होती है। इस प्रकार बार-बार विचार करना निर्जराभावना है। ऐसा जिनदेव ने कहा है। जो भव्यात्मा सांसारिक विषय कवाओं को त्याग भात्मकल्याण के मार्ग पर रह होकर चलते हैं व हो धन्य है ।।६८.६६ ।। आगे लोक भावना का स्वरूप कहते हैं लोकोऽयं पुरुषाकारो वर्तते शाश्वतस्सदा । न केनाऽपि कृतश्चास्य हन्तानव कदाचन ॥७०॥ सप्तरज्जुरधोभागे मध्ये रज्जुप्रमप्रथुः । ब्रह्मान्ते पञ्चरज्जुश्च मस्तके रज्जुमानभाक् ॥७१॥ पूर्दापर विभागेन भेदोऽयं समुदाहृतः । दक्षिणोत्तरयो रज्जु सप्तकसर्वतोमतः ॥७२॥ चतुर्दशभिरुत्सेधो रज्जुभिः परिकीर्तितः । षडभिः जीवादिभिः द्रव्यसंभृतश्चाष्ट भूमिभाक् ॥७३॥ त्रिचत्वारिंशतासाधं रज्जनां च शतत्रयम् । घनाकारेण संज्ञेयस्त्रिभिः वातैश्चयेष्टितः ॥७४॥ सप्तश्वभ्रषु पापेन पच्यन्ते नारकास्सदा । सन्तिमध्ये मनुष्यायाः स्वर्गेषु सुरसत्तमः ॥७॥ मस्तकेतस्य तिष्ठन्ति सिद्धास्त्रलोक्य मङ्गलाः । दुष्टाष्टकर्मनिमुक्ता प्रसिद्धाष्ट गुणोज्ज्वलाः ॥७६॥ येषां स्मरणमात्रेण पाप सन्ताप सञ्चयः । तमो वा भास्करेगोच्चः क्षयं यान्ति क्षणार्द्धतः ।।७७।। प्रातः परमलोकश्च सर्व शून्य स्वभावकः । अनन्तानन्तको वीरस्वामिना सम्प्रकीर्तितः ॥७॥ अन्वयार्थ--(सदा सतत (शास्तम्) चिरस्थायी (यम) यह (लोक) लोक (पुरुषाकारो) पुरुषाकार (वर्तते ) रहता है (अस्य) इस लोक का (के नाऽपि) कोई भी (कृतः) करने वाला (न) नहीं (च) और (न) नहीं (एब) ही (कदाचन) कोई भी (हन्ता) चाश करने वाला है। यह (अधोभागे) अघोभाग में (सप्तरज्जूः) सात राजू है (मध्ये) मध्य Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ ] [ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद लोक में ( रज्जुप्रमप्रधु ) एक राजू प्रमाण चाँड़ा (ब्रह्मान्ते) ब्रह्मलोक के अन्त में (पञ्च रज्जुः ) पाँच राजू (च) ओर ( मस्तके ) अन्त में ( रज्जुमानभाक् ) एक राजू प्रमाण है (अयम्) यह ( भेदः) मापभेद ( पूर्वापर ) पूर्व-पश्चिम ( विभागत) विभाग की अपेक्षा ( समुदाहृतः ) उद्धृत किया है (दक्षिण-उत्तर प्रपेक्षा ( सर्वतः ) सर्वत्र ( रज्जुसप्तक: ) सात रज्जु प्रमाण (मल) माना गया है ( उत्सेधः ) ऊँचाई ( चतुर्दशभिः ) चौदह ( रज्जुमि: ) राजू ( परिकीर्तितः ) कहा गया है (अष्टभूमिभाक् ) प्राठ भूमि वाला यह (च) और (भि) छन् (जीवादिभिः) जीवादि ( द्रव्यैः ) द्रव्यों से ( सम्भृतः ) भरा हुआ ( त्रिचत्वारिंशत) तेतालीस (सार्द्धम् ) सहित ( शतत्रयम् ) तीन सौ ( रज्जूनाम ) राजू का ( घनाकारेण ) घनाकार रूप से (च) और (त्रिभिः) तीन (वार्तः) वायुओं से (वेष्टितः ) घिरा हुआ ( संज्ञोपः ) जानना चाहिए (च) और (सप्तश्वभ्रंषु) सात नरकों में (नारकाः) नारकी जीव ( सदा ) हमेशा (पापेन) पाप द्वारा ( पच्यन्ते) पकते हैं - दुःखी होते हैं (मध्य) मध्यलोक में ( मनुष्याध्याः) मनुष्य एवं निर्यञ्च (स्वर्गषु) स्वर्गो में (सुरसत्तमः) श्रेष्ठ देव ( तस्य ) उस लोक के ( मस्तके) प्रभाग पर (दुष्टाष्टक निरमुकाः) दुष्ट आठ कर्मों से रहित (प्रसिद्धाष्टगुणोउज्वलाः) नित्य प्रसिद्ध आठ गुणों से शोभायमान (त्रैलोक्य मङ्गलाः ) तीनों लोकों में मङ्गल स्वरूप (सिद्धा:) सिद्ध भगवान ( तिष्ठन्ति ) निवास करते हैं ( येषाम) जिनके ( स्मरण: मात्रेण) स्मरणमात्र से ( पापसन्तापसञ्चयः ) पाप और संताप का समूह ( क्षणार्द्धतः) निमिष मात्र में (बा) जिस प्रकार ( भास्करेण ) सूर्य द्वारा (उच्च) घोर (तमः) अन्धकार (क्षयम् ) नाश को प्राप्त (यान्ति) हो जाते हैं (अतः परम् ) इस लोक के बाहर ( सर्वशुन्य स्वभावक : ) पूर्णशून्य स्वभाव वाला (च) और ( अनन्तानन्तकः) अनन्त विस्तार वाला (अलोक: ) अलो काका ( वीरस्वामिना ) महावीर भगवान द्वारा ( सम्प्रकीर्तितः) सम्यक् निरूपण किया गया है । सावार्थ - लोक भावना में ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक का स्वरूप आकारादि का विचार करना चाहिए। यह लोक अधोभाग में पूर्व - पश्चिम में सात राजू चौड़ा है, कम होता हुआ मध्यलोक में एक राजू प्रमाण रह जाता है पुनः विस्तृत होता हुआ ब्रह्मलोक के अन्त में पाँच राजू हो गया है, पुनः घटकर लोकाग्र भाग में मात्र एक राजू रह गया | मोटाई सर्वत्र सात राजू है । ऊँचाई चौदह राजू है । इस प्रकार इसका श्राकार पुरुषाकार हो जाता है । अर्थात् दोनों पाँव माजू-बाजू फैला कर दोनों हाथों को मोड़ कर कटिप्रदेश पर रक्खे, इस प्रकार पुरुष का जो आकार प्राकृति होगी वही तीन लोक का आकार जानना चाहिए । संयंत्र यह चनाकार है । अत: ७ राजू चौड़ा, सर्वत्र ७ राजू मोटा और चौदह राजू ऊंचा है । अतः घनाकार ७ × ७ × ७ = ३४३ राजू प्रमाण है । यह लोकस्वभाव सिद्ध है। अनादि अनिधन है । अकृत्रिम है | इसका न कोई कर्ता है और न कोई संहारक है। इसमें जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्रकाश और काल छहों द्रव्य भरे हैं। सर्वत्र इन द्रव्यों का वास है । प्रधोलोक में सात नरक भूमियाँ हैं । ये पापियां को पापकर्म का कटुफल भोगने को जेलखाने स्वरूप हैं । भयंकर दुःखों से व्याप्त हैं। पाप से जीब यहाँ नरकों में पचते रहते हैं अर्थात् अनेकविध भीषण दुःख भोगते हैं । मध्यलोक में मनुष्य और तिर्यच्त्रों का वास है। स्वर्गों में उत्तम देवगण अपने पुण्य के फल का उपभोग करते हैं। लोक शिखर पर अष्टकर्मो के नाश करने वाले सिद्ध परमात्मा Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद ] [ ५३५ अनन्त सुख का अनुभव करते हुए अनन्तकाल निवास करते हैं। दुष्ट भ्रष्टकर्मों के उच्छेद से परमोज्ज्वल आठ गुण प्रकट हो जाते हैं। उन सम्मत्त, णाण दंसण आदि गुरणों के प्रकट हो जाने से सिद्धपरमात्मा परमानन्दस्वरूप वितन्य में निन्न रहते हैं । इनका स्मरण-ध्यान करने से पाप और संताप का श्रनन्तपुञ्ज क्षणमात्र में उस प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार घनघोर तमतोम रवि के उदय होने के साथ ही विलीन हो जाता है। इस लोकाकाश के परे बाहर सर्वत्र श्रलोकाकाश है वहाँ अनन्त शून्यस्वरूप श्राकाश ही आकाश हैं। इसका प्रमाण अनन्तानन्त हैं | इस प्रकार लोक और अलोक का विभाग कर उनका स्वरूप श्री जिनेन्द्र - सर्वज्ञ भगवान वीर प्रभु ने निपित किया है । यद्यपि यह लोकालोक अनादि है अनन्तकाल से प्रनन्त तीर्थङ्करों ने इसी रूप में इसका स्वरूप वर्णन किया है परन्तु वर्तमान काल में श्री वीर भगवान का शासन चल रहा है। इसी से वीर प्रभु ने बताया ऐसा कहा है। इस प्रकार लोक स्वरूप का वर्णन चित्तवन करना लोकभावना है। पृथक् पृथक् घनफल निकालने पर निम्न प्रकार होता है । प्रधालोक का प्रमाण लोक के नीचे ७ राजू है भूमि = ऊपर जाकर १ राजू है - मुख "भूमि जोगदपदगुणिडे" इत्यादि सूत्रानुसार– ७+१८२४ पद दक्षित्र उत्तर ७ राजू है सर्वत्र । अतः ४x७ - २५ व. रा. क्षेत्रफल हुआ। इसे अधोलोक की ऊँचाई ७ राजू से गुणा करना - २८४७ १६६ घन राजू अधोलोक का घनफल हुआ । इसी नियम से इसी प्रकार ऊर्ध्वलोक का घनफल निकालना चाहिए। उर्व्वलोक के दो भाग हो जाते हैं। अत: प्रथम आधे ऊर्ध्वलोक का घनफल निकालना -- मुख - १ राजू भूमि - ५ राजू १ + ५ = ६ ÷ २ - ३ इसको पद ७ राजू से गुणा करो ३ x ७ २१ वर्ग राजू क्षेत्रफल हुआ। ऊँचाई ३ राजू है है गुनना अर्थात् २१४५ - - धन राजू इसको दूना १४७ २ १ ४७ २ x २ १४७ घन राजू ऊर्ध्व लोक का घन फल है। दोनों का योग १९६ करना घ. रा. + १४७ घ. रा. = ३४३ घन राज़ हुआ । तीनों लोकों का विभाग द्वादशानुप्रेक्षा में निम्न प्रकार किया है मेस हिभाए सत्त वि रज्जू हवेड अह-लोभो । उम्म उड्न लोभो मेरु समो मज्झिमो लोभो ।। १२० ।। अर्थ- मेरुपर्वत के नीचे ७ राजू अधोलोक है। ऊपर अर्थात् मेरु के ऊपर उ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद लोक है । मेरु प्रमाण अर्थात् १ लाख ४० योजन प्रमाण मध्यलोक है। सातवों पृथ्वी के नीचे १ राजू में निगोद है। मेरुपर्वत १००० योजन पृथ्वी के अन्दर है एवं १६ हजार बाहर है तथा ४० योजन की चूलिका है। चूलिका के ऊपर एक बाल प्रमाण अन्तर छोड़कर सौधर्म स्वर्ग है। यहाँ प्रश्न होता है कि लोक की ऊँचाई १४ राजू है। उसमें से सात राजू प्रमाण अधोलोक बतलाया है और सात राज प्रमाण हो ऊर्बलोक बतलाया है, इस दशा में मध्यलोक की ऊँचाई १ लाख ४० योजन अधोलोक में सम्मिलित है या ऊर्ध्वलोक में अथवा दोनों से भिन्न है ? इसका उत्तर निम्न प्रकार है मेरुपर्वत के तल से नीचे सात राजू प्रमाण अधोलोक है और तल से ऊपर सात राजू ऊर्ध्वलोक है । अत: मध्यलोक की ऊँचाई ऊर्बलोक में ही सम्मिलित है । सात राजू की तुलना में १ लाख ४० योजन प्रमाण तो पर्वत के सामने राई के बराबर है। अतः ऊर्ध्वलोक की ऊँचाई १ लाख ४० योजन कम सात राजू है। सम्पुर्ण लोक ३४३ धन राजू प्रमाण ५ प्रकार के स्थावर एकेन्द्रिय जीवों से सर्वत्र भरा है परन्तु त्रस जीव असनाली के अन्दर ही होते हैं। प्रसनाली का प्राकार छाल लपेटी लकड़ी के समान बताया है । इसी में त्रस जीव रहते हैं। ___ यहाँ शङ्का-क्या असनाली में सर्वत्र जीव रहते हैं ? उत्तर--सामान्यापेक्षा यह कथन है। तिलोयपण्णत्ति में विशेष रूप से कथन किया है - लोय बहुमझ देसे तम्मि सारं ब रज्जूपदर जुदा । तेरस रज्जूस्सेहा किंचूणा होदि तसणाली ।।६।। द्वि. अधि. ।। अर्थ-वृक्ष में उसके सार की तरह लोक के ठोक मध्य एक राज लम्बी एक राजू चौड़ी और कुछ कम १३ राजू ऊँची त्रसणाली है। शङ्का-बसणाली को कुछ कम १३ राजू कैसे कहा ? अर्थ–सातवीं पृथ्वी ८ हजार योजन मोटी है (त्रि. सा. गा. १७४) उसके ठीक मध्य में नारकियों के विले बने हुए हैं । उन विलों की मोटाई । यो. है । इस मोटाई को समच्छेद कर पृथ्वी को मोटाई में से घटाने पर २४००० - ४ - २३६९६ योजन शेष बचा । २३६६६. इसको ग्राधा कि 'योजन इसके कोष बनाना इसको अाधा किया तो २३६१६ - २ - २३६९६ ४ ३ - १९६८ योजन इसके कोष बनाना Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] [५३७ १९९६८ -४ - ४७६९२कोश पुनः धनुष बनाना ४७६९२ x २००० = ६५९८४००० - ३१६६४५६६३ धनुष कम हुआ । यह अधोलोक सम्बन्धी हिसाब हुआ । अब उर्वलोक के विषय में विचार करें। सर्वार्थसिद्धि विमान से ऊपर १२ योजन पर ईप्रत् प्राग्भार नाम की ८वों पृथ्वी है। यह ८ योजन मोटी है । सर्वार्थसिद्धि के ऊपर १२ यो. है। १२४४ - ४८ कोश, ४८४ २०००५-६६००० धनुष हुए। ८ योजन मोटी आठवों भूमि है = Ex ४ = ३२ कोश X २००० - ६४००० धनुष नोदधि वातवलब का बाहुल्य २ कोश४२००० = ४००० धनुष बनवात बलय का बाहल्य है १ कोश x २००० = २००० धनुष तनुवातवलय का बाहुल्य १५७५ धनुष । सबको धनुष जोड़ने पर ६६०००+ ६४०००+४००० + २००० - १५७५ - १६७५७५ धनुष ऊवलोक सम्बन्धी । अधोलोक सम्बन्धी ३१६६४६६६-२ धनुष दोनों का योग १६७५७५ + ३१६६४६६६२ - ३२१६२२४१३. धनुष कम करने से शेष त्रसनाली में त्रसजीव रहते हैं इस प्रकार विवेचन करने पर ३२१६२२४१ २ धनुष कम १३ राजू प्रमाण सनाली में असजीब रहते हैं । __ इस प्रकार लोक म्वरूप का चिन्तन करना लोक भावना है ।। ७० से ७८ || अब बोधि दुर्लभ भावना का वर्णन सुनिये श्रीपाल भूपाल भा रहे हैं बोधि स्याएशन ज्ञान चारित्रप्राप्तिरञ्जसा । सा दुर्लभाऽत्र संसारसागरे सरतां नृणाम् ।।७।। यथा चिन्तामणेः प्राप्तिश्शर्म सन्दोहदायिनी। मत्वेति च समाराध्यं रत्नत्रयमखण्डितम् ।।२०।। अन्वयार्थ-(दर्शनज्ञानचारित्रप्राप्तिः) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का पाना (बोधिः) बोधि (स्यात्) है (अत्र) यहाँ (संसारे) संसार में (सरताम् ) भ्रमण करते हुए (नणाम) मनुष्यों को (अजसा) सहसा (सा) वह बोधि (दुर्लभा) कठिन साध्य है (यथा) जिस प्रकार (शर्मसन्दोहदायिनी) सुरन समूह को देने वाली (चिन्तामणे:) चिन्तामणि रत्न का पाना (इति) इस प्रकार (मत्वा) समझकर (च) और (अखण्डितम्) अखण्ड ( रत्नत्रयम् ) रत्नत्रय (समाराध्यम्) आराधने योग्य है । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८] [श्रीपाल चरित्र दराम परिच्छेद भावार्थ-जिस प्रकार संसार में चिन्तामणि रत्न पत्र होना दुर्लभ है। उसी प्रकार संसार में परिभ्रमण करते हुए मनुष्यों को रत्नत्रयरूप बोधि की प्राप्ति महान कठिन है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की प्राप्ति का नाम चोधि है । यह सहसा जीव को प्राप्त नहीं होती। महान प्रयत्नों से और अत्यन्त कठिनता से प्राप्त होती है । अत:भव्यात्माओं को निरन्तर यथाशक्ति यथानुरूप उसे पाने का प्रयत्न करना चाहिए ।।७६.८०।। आगे अन्तिम धर्मभावना का विवेचन करते हुए प्राचार्य श्री कहते हैं कि बराग्य जाग्रत श्रीपाल विचारते हैं धर्मश्चापि जिनेन्द्राणां दुर्लभो भुवनत्रये । क्षमावि दशधा नित्यं सुरासुर समर्चितः ॥१॥ योददात्युत्तमं सौख्य लोकदय हितंकरः। सोऽत्र भव्यैस्समाराध्यो भाविमुक्तिबधूवरैः ॥८२।। । रत्नत्रय भवेद्धर्मो धर्मोऽपि दशधा स्मृताः । | धर्मो वस्तुस्वभावश्च जीवानां रक्षणं च सः ।।३।। अन्वयार्थ --- (नित्यम् ) निरन्तर (सुरासुरसमचितः) सुर और असुरों से पूज्य (दशधाः) दशप्रकार का (क्षमादि) उत्तम क्षमादि रूप (जिनेन्द्राणाम्) जिनेन्द्र कथित (धर्म:) धर्म (अपि) भी (भुवन्त्रये) तीनों लोकों में (दुर्लभ:) दुर्लभ है (यः ) जो धर्म (लोकद्वय हितकर:) उभय लोक में हितकारी (उत्तमम) सर्वोत्तम (सौख्यम्) सुख को (ददाति) देता है (स:) वह धर्म (अत्र) संसार में (भाविमुक्ति वधूवरैः) भविष्य में मुक्तिरूपी वधू-कन्या को वरण करने वाले (भन्यैः) भव्य मनुष्यों द्वारा (समाराध्यः) याराधने योग्य है । (रत्नत्रयम्) रत्नत्रय (धर्मः) धर्म (भवेत् ) होता है, (दशघा:) दश प्रकार का (अपि) भी (धर्म:) धर्म (स्मृतः) स्मरणीय है, (च) और (वस्तुस्वभाव:) वस्तु का स्वभाव (धर्मः) धर्म है (च) और (जीवानाम् ) जीवों का ( रक्षणम्) रक्षण करना (सः) वह भी धर्म है। मावार्थ-जिस प्रकार बोधि का पाना अतिशय कठिन है उसी प्रकार उत्तमक्षमा, मार्दव, प्रार्जव, शोच, सत्य, संवम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य इन उत्तम धर्मों का पाना भी दुस्साध्य है। यह धर्म देव असुर, नागेन्द्रादि से सतत पूज्यनीय, सेवनीय और अाराधनीय है। उभय लोक में अर्थात इस लोक में और परलाक में भी यह धर्म ही एक मात्र जीव को सुख-शान्ति देने वाला है । सर्वोत्तम-आत्मोत्थ मुक्ति सुख देने में यही-धर्म ही समर्थ है। तीनों लोकों में इसका पाना और पाकर तदनुरूप प्राचरण करना उत्तरोत्तर दुर्लभतर है। भविष्य में जो भव्यात्मा पुरुष मुक्तिवधू को बरण करना चाहते हैं उन्हें सम्यक् प्रकार इस सच्चे धर्म की आराधना, उपासना और भक्ति करना चाहिए । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् वारित्र धर्म है, उत्तम क्षमादि भेद से दश भेद वाला धर्म है, वस्तु का स्वभाव भी धर्म Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] है और प्राणियों का रक्षण करना धर्म है। ये सभी परिभाषाएँ आत्म-स्वभाव में ही अन्तर्गत हो जाती हैं। रत्नत्रय आत्मा का स्वभाव है उसी प्रकार उत्तम क्षमादि भी प्रात्मा के ही गुण हैं । जीवन रक्षण अहिसा है और प्रमाद रहित आत्मा ही प्रारिणबध से रहित होता है इसलिए "अत्तामेव अहिंसा" कहा है। इससे जीवानां रक्षणं यह भी यात्म-स्वभाव ही हुमा । इससे सिद्ध होता है कि ये सभी परिभाषाएँ आत्म-स्वभाव के ही द्योतक हैं। इस प्रकार धर्म स्वरूप का चिन्तन करना धर्म भावना है ।।८१-८२-८३।। और भी संसार शरीर भोगों की निस्सारता का विचार करता है ज्ञानी यायदायुः क्षयं नागादिन्द्रियाणि पटु नै भो। जरा न प्रसते कालं सोधमोस्ति शुभामतिः ।। ८४ ।। तादनमोहमद मुस्ता लोक्ययिनं खलम् । दक्षैवैराग्य खड्गेन दीक्षारया यमापहा ।।८५॥ अन्वयार्थ-(वावत्) जब तक (पायुः) आयुष्य (क्षयम्) नाश को (न आगात्) प्राप्त न हो (इन्द्रियाणि) पांचों इन्द्रियां (पटुः) अपने-अपने विषय मे दक्ष-समर्थ हैं (जरा) वृद्धावस्था (न) नहीं हुयी (कालम्) मृत्यु (नग्रसते) नहीं निगलती (भो) हे आत्मन् ! (तावत् ) तब तक (लोक्य-जयिनम्) तीनों लोकों को जीतने वाले (खलम्) दुष्ट (मोहम्) मोह रूपी (भटम् ) सुभट को (दक्षः) भेद विज्ञानी जनों द्वारा (वैराग्य खड्गेन) वैराग्य रूपी तलवार से (हत्वा) नाश कर (सोद्यमः) उद्यमपूर्वक (शुभमतिः) सम्यग्ज्ञानी पुरुष को (यमापहा) यमराज नाशक (दीक्षा) दगम्बरी दीक्षा (आदेया) ग्रहण करना अर्थात् दीक्षा ग्रहण करना योग्य (अस्ति) है। ___ भावार्थ जन तक आयु पूर्ण न हो, इन्द्रियाँ स्वस्थ हैं अर्थात् पांचों इन्द्रियाँ अपनाअपना कार्य करने में समर्थ हैं, जरा-वृद्धावस्था रूपी-डायन जब तक जर्जरित नहीं बनाती, यह निर्दयी काल नहीं निगलता, तब तक उद्यमशील शुभम ति-सम्यग्ज्ञानी पुरुष को मोह रूपी महासुभट को मारने का सत्प्रयत्न करना चाहिए। यह मोहमद महादुर्जेय है । तीनों लोक इसने अपने वशी बना रखे हैं । अतएव चतुर पुरुष को वैराग्य रूपी खड्ग से मोह शत्रु के नाश के लिए जनेश्वरी दीक्षा धारण करना चाहिए । तथा-- देहोऽयं शस्यते क्याहो सप्तधातुमयोऽशुभः । रोगोरग निवासोऽत्र सर्वदुःख निबन्धनः ॥८६॥ क्षुत्तडक काम कोपाग्नयो ज्वलन्ति निरन्तरम् । यत्रकायकुटीरेऽस्मिस्तत्र कः स्थातुमिच्छति ।।७।। ज्ञात्वाऽविधंकायं तन्ममत्वं विहाय भो। कुर्वन्ति सत्तपोदक्षाः अकायपद सिद्धये ।।८।। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ] [ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद श्रन्वयार्थ -- ( अहो ) आश्चर्य ! ( श्रयम् ) यह (देह) शरीर (सप्तधातुमय : ) सात धातुओं से निर्मित (अशुभ) अशुभ रूप ( रोगोरगनिवासः ) रोगरूपी सपों का वासस्थान घर ( यत्र) संसार में ( सर्वदुःखनिबन्धनः ) समस्त दुःखों का बीज इसे ( क्व ) किस प्रकार (शस्यते) प्रशंसा योग्य कहा जाये ? यह निद्य है ( यत्र ) जहाँ (काय कुटीरे । इस शरीर रूपी कुटी में ( क्षुत्तृकामको पाग्नयो ) भूख, प्यास, रोग, विषय-वासना, क्रोधादिकषायें रूप अग्नियाँ ( निरन्तरम् ) सतत (ज्वलन्धि ) जला रही हैं ( अस्मिन) इस ( काय कुटीरे ) शरीर रूपी पड़ी में (तत्र ) वहाँ ( स्थातुम् ) ठहरने को (क) कौन ( इच्छति ) चाहता है ? कोई नहीं ( दशविधम् ) इस प्रकार स्वभावी ( कायम् ) शरीर को ( ज्ञात्वा ) जानकर (दक्षा : ) चतुर पुरुष ( भो ) हे आत्मन् ( अत्र ) इस शरीर में ( ममत्वम् ) ममकार बुद्धि को ( विहाय ) छोड़कर ( अकाय पदसिद्धये ) शरीर रहित पद सिद्धि के लिए ( सत्तपः ) सम्यक् तप ( कुर्वन्ति ) करते हैं । मावार्थ—शरीर वैराग्य को सुदृढ बनाने के लिए अशुचिकर दुर्जन शरीर क स्वरूप विचारना आवश्यक है । यह शरीर अतिशय प्रावन है क्योंकि इसकी रचना अपवित्र सात धातुओं से हुयी है। रोग रूपी व्यालों (सर्पों) की यह वामी घर है। एक आंख के जितने स्थान में ९६ वें रोग हैं। पूरे शरीर में पांच करोड़, अडसठ लाख, निन्यानवें हजार पाँच से चौरासी (५६८६६५८४) रोग शरीर में होते हैं । सारा शरीर चलनी के छेदों समान रोगों के घरों से भरा है । संसार में जितने इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग जन्य दुःख हैं उन सबका हेतू कारण यह शरीर ही है। इस प्रकार के निकृष्ट शरीर की कौन प्रशंसा करेगा ? अर्थात् कोई भी सत्पुरुष इसे अच्छा नहीं कह सकता । प्रीति भी नहीं कर सकता। यही नहीं पुरानी झोंपड़ी है शरोर । इसमें चारों ओर क्षत्रा (भूख ) तथा ( प्यास ) रोग-पीडा, आदि, व्यादि संताप, विषयवासना, क्रोध, मानादि अग्नियाँ निरन्तर धांय धांय जला रही हैं ऐसी ज्वालाओं के मध्य भला कौन विवेकी ठहरना चाहेगा ? अर्थात् एक क्षणमात्र भी स्थित रहना नहीं चाहेगा । इस प्रकार संसार भीरु विवेकशील पुरुष शरीर के स्वभाव को पहिचान कर समझ कर इससे मोह ममता छोड़कर कायरहित - अशरीरी सिद्धपद पाने के लिए कठोर, उत्तम सम्यक तप तपते हैं । अर्थात् निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण कर आत्मशुद्धि का प्रयत्न करते हैं सिद्ध होने का उपाय करते हैं । ८६ से ८८ ॥ श्रामे भोग्य-भोग वैराग्य की वृद्ध्यर्थं प्रसार भोगों का चिन्तवन करते हैं कामज्वर प्रकोपोत्थ ये भोगाः पापवर्तिनः वपुः कदर्थिनाज्जाता धीमांस्तान्कस्समीहते ६६ ॥ श्रन्ययार्थ- - ( ये ) जो ( भोगाः ) भोग ( कामज्वरप्रकोपोत्थ) कामरूपी ज्वर की दाहवेदमारूप क्रोध से उत्पन्न हैं । (पापवर्तिनः ) पाप में परवर्तन कराने वाले ( वपुः ) शरीर ( कथनात ) मन - पीड़ा से ( जाता: ) उत्पन्न होते हैं ( तान् ) उम वीभत्स दुःखदायी भोगों को (क) कौन ( धीमान् ) बुद्धिमान ( समीहते ) चाहता है ? भावार्थ भोगों की उत्पत्ति का कारण काम है। कामज्वर है । इसकी वेदना के Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वडाने श्रोपाल चरित्र दसम परिच्छेद] [५४१ प्रतिकाररूप में भोगेच्छा जागृत होती है, पापवर्द्धन की कारण है, इसके उपशमन को उत्पन्न भोग चाह की दाह पैदा करते हैं। शरोर पीडन से ये उत्पन्न होते हैं । भला ये भोग कभी सुखदाता हो सकते हैं ? कभी नहीं। फिर भला ऐसे अथिर, कष्टदायी भोगों-की कौन बुद्धिमान आकांक्षा करेगा ? कोई नहीं । कहा भी है “भोग बुरे भव रोग बढावें, वरी हैं जग जीके । वेरस होय विपाक समय अति सेवन लामैं नीकें ।" अर्थात् भोग भयङ्कर शत्रु हैं, संसार रोग ले हैं. देखने में भी जगप्सा के कारण हैं। यह भोग भोगते समय इन्द्रावण फलके सदृश रम्य प्रतीत होते हैं किन्तु विपाक समय-फलकाल में सद्य प्राणहरा, नीरस हो जाते हैं । इस प्रकार प्रत्यक्ष ठगने वाले इन आत्मघातक वञ्चकों को कौन बिबेकी चाहेगा ? अर्थात् ज्ञानीजन इन्हें दूर ही से त्याग देते हैं । वस्तुतः ये सर्वथा त्याज्य ही है ।।६।। और भी कहते हैं - य गवस्तुभिमुक्तस्तृप्ति त्मति जातु भो। वर्धतेऽस्यातितरां तृष्णा कि साध्यन्ते सतामिह ॥१०॥ विज्ञायेति द्रुतं त्यक्त्वा भोगान् शत्रूनिवाखिलान् । भार्यादि वस्तुभिस्साधं गृहणन्ति संयम बुधाः ॥११॥ इत्यादि चिन्तनादाप्य वैराग्यं द्विगुणं नृपः । त्यक्तु राज्यादिलक्ष्मींचावातुं संयममुद्ययो ।।२।। अन्वयार्थ – (यः) जिन (भोगवस्तुभिः) भोग सामग्रियों से (भक्तः भोगने से (प्रात्मा) पुरुष (जातु) कभी भी (तृप्तिः) सन्तोष (न) नहीं (ऐति) पाता है (भौ) हे जीव ! इसके विपरीत (अतितराम्] अत्यन्त (अस्य) इस जीव के (तष्णा) लोलुपता (वर्धते) बढती है (सताम्) सज्जन (इह) संसार में (किम् ) क्या (साध्यन्त) सिद्ध करते है ? कुछ नहीं (इति) इस प्रकार (विज्ञाय:) ज्ञालकर (श त्रून) शत्रु (इव) समान (अखिलान्। समस्त (भोगान) भोगों को (भार्यादि वस्तुभिः) स्त्री आदि वस्तुओं के (सार्धम्) साथ (द्र तम्) शीघ्र ही (त्यक्वा) छोड़कर (बुधाः) बिद्वानजन (संयमम्) संयम (गृह्णन्ति) धारण करते हैं। (इत्यादि) उपर्युक्त प्रकार (चिन्तनात्) चिन्तवन करने से (नृपः) नृपति श्रीपाल (द्विगुणम्) दूना (वराग्यम्) वैराग्य (प्राय) प्राप्त कर (राज्यादिलक्ष्मी) राजवैभबादि को (त्यक्तुम्) छोड़ने (च) और (संयमम् ) संयम को (आदातुम् ) ग्रहण करने को (उद्ययौ) उद्यत हुए । सन्नद्ध हुए । भावार्थ- उत्तमोत्तम, रमणीय कहे जाने वाले भोगों को बार-बार भोग लेने पर भी मानव की कभी भी किसी प्रकार तृप्ति नहीं होती. संतोष की छाया भी नहीं पा सकता अपितु उत्तरोत्तर तष्णा ही बढ़ती जाती है । भला उन निस्सार भोगों से सत्पुरुष क्या सिद्ध करते हैं ? अर्थात् कुछ नहीं। उन्हें सारविहीन और द खदायक समझ कर सर्वथा छोड़ ही देते हैं, ये त्याज्य और हेय ही हैं । इस प्रकार सम्यक् ज्ञातकर प्रवल शत्रु समान जान वर इन घातक Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ [श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद भोगों को विज्ञानी महापुरुष स्त्री, पुत्र, परिवार के साथ-साथ अतिशीघ्र त्याग कर उत्तम हितकारी संयम को ग्रहण करते हैं । अर्थात् वाह्याभ्यन्तर परिग्रहों को आमूलचूल त्याग परमपावन दीक्षा धारण करते हैं। इस प्रकार तुच्छ भोगों का बार-बार चिन्तवन करते हुए महाराज श्रीपाल का बरमय द्विगुणित हो गया। सोपोरने वह राज्य सम्पदा का सर्वथा त्यागकर संयम धारण करने को पूर्ण सन्नद्ध-कटिबद्ध हो गया। हद निश्चय राजा प्रात्म-कल्याण में तत्पर हुआ ।। ६०-६१-६२ ।। ततो दत्त्वा महीपालः तुजे राज्यं श्रियासमम् । जगाम तपसे भूपस्सुवताचार्य सन्निधिम् ।।३।। अन्वयार्थ—(ततो ) रिपक्व वैराग्य होने पर (धयासमम् ) लक्ष्मी के साथ (राज्यम) राज्य को (महीपालतुजे) महीपाल पुत्र को (दत्त्वा) देकर (भूप:) श्रीपाल राजा (तपसे) तपश्चरण करने के लिए (सुव्रताचार्यसन्निधिम्) श्री १०८ सुव्रत आचार्य थो के सान्निध्य में (जमाम) चला गया । भावार्थ - द्वादश भावनाओं का चिन्तवन कर, संसार, भरीर और भोगों को असारता को ज्ञात कर राजा श्रीपाल का वैराग्य अन्तिम सीमा को प्राप्त हो गया। उसी समय USal MAHTELETTHALI FIRSAATINIH MAHILA . IINALLL ल .. Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] [५४३ उसने अपना ममस्त राज्य वैभव, सम्पदा का भार अपने सुयोग्य ज्येष्ठ पुत्र महीपाल को प्रदान कर दिया। स्वयंप होस यो नुनम यानी के सानिध्य में संयम लेकर तपश्चरण करने को जा पहुंचा। वस्तुतः वैराग्य ही अभय है। महामण्डलेश्वर राज्य वैभव को तृगवत् छोड़कर दुर्द्धर तप की शरण में प्रा गया ।।१३।। प्रणम्य तं गुरु भक्त्याऽशिव ध्वस्तं जगद्धितम् । त्यक्त्वा वाह्याभ्यन्तरान् सङ्गान त्रिशुद्धचा शिवसिद्धये ॥१४॥ जग्राह परमां दीक्षां बहुभिर्भूमिपैस्समम् । संवेग धारिभिर्दक्षस्स श्रीपालनरेश्वरः ॥५॥ अन्वयार्थ (शिवश्वस्तम्) संसार के नाशक (जगद्धितम्) जग का हित करने वाले (तम) उस-उन (गुरुम्) गुरु श्री १०८ सुव्रताचार्य को (भक्त्या) भक्तभाव से (प्रणम्य) नमस्कार करके (त्रशुद्धया) मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक (वाह्याभ्यन्तरान्) बाह्य और प्राभ्यन्तर (सङ्गान्) परिग्रहों को (त्यक्त्वा) छोड़कर (संवेगधारिनिर्दक्षः) वैराग्य धारण करने में चतुर-संसारभीत (बहुभिः) बहुत से (भूमिपैः) राजाओं के (समम् ) साथ (शिवसिद्धय ) मुक्ति की सिद्धि के लिए. (श्रीपालनरेपबरः) श्रीपाल भूपेन्द्र ने (परमाम् ) परमाज्ज्वल उत्तम (दीक्षाम् ) वीतराग, भगबती दोक्षा (जग्राह) धारण की। भावार्य -महामण्डलेपवर पृथिवीपति राजा श्रीपाल राज्यकार्य का भार पुत्र को समर्पण कर निगकुल हो गये। वे उद्यान में विराजे श्री १०८ सुव्रताचार्य श्री के पदपङ्कजों में भ्रमरवत् जा पहुंचे । वे आचार्य परमेष्ठी ममस्त सांसारिक अकल्याणों को विध्वंस करने में तसर थे, समस्त संसार का हित चाहने वाले समदर्शी थे। महान वीतर गी परमगृह का सान्निध्य प्राप्त कर संवेग और वैराग्य से ओत-प्रोत श्रीपाल महाराज हर्ष से विभोर हो गये । परमभक्ति से सविनय नमस्कार कर उनकी चरणरज मस्तक चढायो । तदनन्तर १० प्रकार के बाह्य परिग्रह का त्याग किया। वे परिग्रह है--धन, धान्य, दासी-दास, क्षेत्र-वास्तु, हिरण्यसुवर्ण, कुण्य-भाण्ड ! इनके साथ ही अन्तरङ्ग परिग्रह. मिथ्यात्व, (राग-द्वेष) कषाय, हास्य, रति, मरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीडेद, पुरुषवेद पोर नपुंसक वेद । तीनों वेद एक साथ ग्रहण करने पर राग-द्वेष दो भेद नहण करना चाहिए अन्यथा उन्हें मिथ्यात्व में ही समाहित समझना इस प्रकार १०. बाह्म और १४ अन्तरङ्ग कुल २४ प्रकार के अशेष परिग्रह का नत्र कोटि-मन, वचन, काय • कृत. कारित, अनुमोदना से त्याग कर दिया । संसार से भयभीतसंवेग युक्त, वैराग्यभाव परिगत अनेकों भुपों के साथ प्रात्मसिद्धि के लिए अर्थात् शिव की प्राप्ति के अर्थ परम विशुद्ध परमेश्वरी दीक्षा धारण की। पुर्ण संयमी वन दिगम्बर भेषधारी हो गये.॥४-६५/ राश्यो मदनसुन्दर्याद्याभव्योः भूभुजा समम् । एक शाटों बिना संगांस्त्यक्त्वाददुस्तपोद्भुतम् ।।१६।। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४[ थोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद अनुशीला महासती मदनसुन्दरी आदि रानियों ने भी दीक्षा घारण की। अन्वयार्य-(भव्यो) भव्यात्मा (राग्यो) रानियाँ (मदनसुन्दर्याद्या) मदनसुन्दरी, मदनमजला गुगामाला आदि ने भी (एकशाटीम) एकमात्र साडी के (बिना) बिना मेष (मङ्गान) परिग्रहों को (त्यक्त्वा) छोड़कर (अद्भुतम्) आश्चर्यकारी (तपः) तपश्चरण (भूभुजा) राजा के (समम् ) साथ (आददु:) धारण किया। भावार्थ-पतिदेव के सकन संयमी होने पर अर्थात् दिगम्बर दीक्षा धारण करने पर उनको परमप्रिया, भोगलालिता ललनानों ने भी एक साडो मात्र परिग्रह रख समस्त बा ह्या 176 TTI WE ---- भ्यन्तर परिग्रहों का सर्वया त्याग कर आर्यिका दीक्षा धारण को । पतिपथ का अनुकरण कर भारतीय वीराङ्गनाओं ने धर्मध्वजा के साथ आत्मकल्याण को वजा को फहराया । धादर्श महिलारत्नों का यही धर्म है जितनी भोग के क्षेत्र में सूकुमारी, कोमलाङ्गी होती हैं उतनी ही संयम के पथ पर कठोर भी । अतः अद्भुत तप धारण कर श्रमणी हो गई ।।६।। सत्यं विधाकराणामा प्रभातस्थ्यापि नित्यशः । कि त्यजन्ति न लोकेस्मिन् भव्याश्चासन्तमूर्तयः ॥७॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र दशम परिच्छेद] [५४५ अन्वयार्थ--(सत्यम्) सत्य ही (दिवाकराणाम् ) सूर्यो की (प्रभा) कान्ति (नत्यशः) सतत (तस्थ्यापि) उसी में ही रहती है उसी प्रकार (अस्मिन्लोके) इस संसार में (अासन्न भन्यामूर्तय:) निकट भव्यजन (किम् ) क्या (त्यज्यन्ति) स्वस्वभाव छोड़ते हैं। (न) नहीं त्यामते। मावार्थ---ठीक ही है । आचार्य कहते हैं कि सूर्य निरन्तर ही अपनी प्रभा को अपने ही में समेट कर रखता है। कभी नहीं छोडता उसी प्रकार प्रासन्नभव्य मानव अपने भव्यत्वस्वभाव को क्या त्याग सकते हैं ? नहीं । महारानियों जिस प्रकार राज्यावस्था में राजा के साथ भोगों में साथ-साथ रहीं उसी प्रकार इस समय वैराग्य पथ पर पाने पर भी उसी का अनुशरण कर प्रवज्या मे विभूषित हो तपश्चरण में लीन हो गई । भला भव्यजन अपना स्वभाव क्यों तजे ? अर्थात् निरन्तर निजस्वभाव में ही रहते हैं ।।६।। कुर्वस्तपश्चिरं कालं श्रीपालो मुनिसत्तमः । यथा राज्यं कृतं पूर्व मुक्तिराज्यं कृतोद्यमः ।।१८।। साररत्नत्रयं धृत्वा शक्तियनानुत्तरम् । मोहाराति निराकतुं स स्वामी सुभटो यथा ॥६६॥ धर्मध्यानं चतुर्भेदं महासैन्यं चकार च । पक्षमासोपवासादि तपन्नाह्वमुद्रह्न ॥१०॥ अन्वयार्थ—(यथा) जिस प्रकार (पूर्व) पहले गृहस्थावस्था में (राज्यम् ) राज्य शासन (कृतम्) किया था उसी प्रकार (मुक्तिराज्यम्) मोक्षरूपी राज्य को (कृतोद्यमः) करने में उद्यमशील हो (श्रीपाल:) श्रीपाल (मुनिसत्तम:) मुनिपुङ्गव (चिरंकालम्) बहुत काल (तपः । तपश्चरण (बुबन्) करते हुए (हि) निश्चय से (यत्र) जिसमें (अनुत्तरमशक्तिः) अलौकिक शक्ति है उस (साररत्नत्रयम्) सारभूतरत्नत्रय को (धृत्वा) धारण कर (राः) उस श्रीपाल स्वामी मुनिराज ने (मोहारातिम्) मोह शत्रु को (निराकत म्) नाश करने के लिए (च) और (पक्षमासोपवासादितपन्) पन्द्रह व एकमास के उपवासों को करते हुए तपोजन्य (आह्वम्) संग्रामभूमि को (उहह्न) वहन करते हुए (चतुविधम् ) चार प्रकार धर्मध्यानम् ) धर्मपान म्प (महासन्यम्) विशाल सेना को (चकार) तैयार की (सुभटो यथा) एक महावीर योद्धा के समान (महासन्यम ) वृहद् सेना (चकार) तैयार की। सायार्थ परमपावन जिनदोक्षा धारण कर अब श्रीपाल कोटिभट महामुनीश्वर हो गये। जिस प्रकार श्रावक अवस्था में राज्य शासन को व्यवस्थापूर्ण-वीरता और न्याय से की थी उसी प्रकार अब मोक्षराजधानी के शासक बनने को भी उद्यमशोल हो घोर तप तपने लगे। पक्षोपबास, मासोपवादि कर घोर तप में संलग्न हुए। जिस प्रकार समराङ्गण में एका शूरवीर विशाल सेना लेकर सन्नद्ध हो युद्ध करता है शत्रु को परास्त करता है उसी प्रकार मोहरूपो सेना को परास्त करने के लिए ये मुनिपुङ्गव तपश्चरणरूप संग्रामभूमि में चार प्रकार के धर्मध्यानमयी Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६] [श्रीपाल चरिय दशम् परिच्छेद पताकिनी सेना तैयार की। जिममें अलौकिक शक्ति है ऐसे रत्नत्रय कवच को धारण किया। वे पूर्ण दलबल के साथ कर्मारातियों से युद्ध करने लगे। लोकोजर राज्य करने के अभिलाषी वे धीर–वीर मुनि प्रात्मशक्ति को विकसित करने में पूर्ण सन्नद्ध हुए 1६८ से १००।। त्रिकाल योगमालम्ब्य महामन्त्राणुगो महान् । संजातः स्व-पोलतः दशातलिपिशा. अन्वयार्थ -- (महान् ) महात्मा श्रीपाल मुनि (त्रिकालयोगम्) तीनों ऋतुओं के योग को (मालम्ब्य ) धारण कर (महामन्त्राण गः ) महामन्त्र णमोकार का अनुचिन्तन करने वाला (व्यक्तः) प्रत्यक्ष रूप से (स्व परः) अपने और पर के प्रति (दयादत्तिविशारदः) दयादान दाता सञ्जातः) हुआ। भावार्थ ---श्रीपाल महामुनिराज घोर तपारुढ हो गये । वर्षाऋतु में वृक्ष मूल योग धारण करते, शरदऋतु में शुभ्रावकाश योग अर्थात् खुले चौपट-स्थान में खुले-निर्मल आकाश ले ध्यान लगाते, गरमो में पर्वतीय चट्टानों पर सर्य की ओर मख का ग्रातापनयोग धारण कर आत्मध्यान करने में तल्लीन होते । इस प्रकार तीनों कालों में स्थिर हो एकाग्रचित्त से दुर्द्धर तप तपते थे । स्पष्ट प्रतीत होता था कि वाह्य क्रियानों-आवागमन अधिक का त्याग कर वे जीवसंघात का त्याग कर दिये और आत्मलीनता से विषय-कषायों से प्रात्मा की रक्षा कर रहे थे । अर्थात् स्व अपनी दया और परजीवों को भी दया में ततार हुए । निश्चय ही जो अपने पर दया करता है वह पर का रक्षक होता हो है । वे निरन्तर महामन्त्र णमोकार का अनुसरण करते थे । अर्थात् स्त्रशुद्ध स्वभाव से च्युत होने पर पञ्चपरमेष्ट्री स्वरूप चिन्तन में आरूढ हो जाते । ध्यान उनसे दूर भाग चुके थे। शुभध्यान में ही सतत प्रवृत्त हो रहे थे ।।१०१।। महाप्रतानि पञ्चोचैः कृत्वा सामन्तसत्तमान् । विधाय समितीः पञ्च सज्जनानां च सङ्गतिम् ।।१०२।। पञ्चेन्द्रिय मनोऽन्तस्थ वैरि षडवर्गसञ्चयम् । ति स्रोगुप्तीः सुगुप्तीश्च स चक्रे मुनिपुङ्गवः ॥१०३॥ षडावश्यक कृद्कर्म, वस्त्रं दृढं यतीश्वरः । परमागम शस्त्रोघमलसन कर्मशत्रुके ।।१०४॥ तथा लोचमचेलत्वमस्नानं भूमिनिद्रया । अदन्तधावनं नाम स्थिति भोजनमेककः ।।१०५।। अन्वयार्थ-- (सः) वह श्रीपाल (मुनिपुङ्गव:) मुनि श्रेष्ठ ने (पञ्च ) पाँच (महाव्रतानि) महाव्रतरूपी (सामान्तसत्तमान्) उत्तम सामन्तों को (उच्चैः) पूर्णरूप से ( करवा) Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र दशम् परिच्छेद ] [५४७ धारण कर, (पञ्च) पांच (समिती:) समितियाँ रूपी (सज्जनानाम् ) सत्पुरुषों की (मङ्गतिम्) सङ्गति, मित्रता (विधाय) करवे (च) और (पञ्चेन्द्रियमनः) पांचों इन्द्रियों और मन इन (वैरिपड्वर्गसञ्चयम) छ वैरियों के समूह का (अन्तस्थ) वशीकर (च) और (तिनोगुप्तीः) तीनों गुप्तियों को (सुगृप्तीः) सम्यकप्रकार गुप्त कर (षडावश्यककृतवर्म) छह आवश्यक कृत कर्मो रूप (वस्त्रम ) वस्त्र को (इटम ) मजबूत (कृत्वा) करके (यतीश्वर:) उनयतापजन ने गद सन! अमावस्याग कि . मी शत्र के विनाज के लिए (परमागमशस्त्रौष) परमागमकथित शस्त्र समूह को (नथा) एवं (लोचम्) केशोत्पाटन (अचेलत्वम ) वस्त्रत्याग (अस्नानम ) स्नानत्याग (भूमिनिद्रया) भ शयन (अदन्तधावन) दातून नहीं करना (स्थितिभाजनम् । एक जगह खड़े हो आहार लेना (तथंव) उसी प्रकार (एककः नाम) एक ही बार भोजन आहार लेना इन शस्त्रों को (चक्र) तैयार किया। भावार्थ उन मुनि पुङ्गव श्रीपाल महाराज ने अपने अनादिकाल से पीछे लगे कर्मशत्र को आमूल नाण करने का दृढ़ निश्चय किया । संघमरूपी संग्रामभूमि में युद्ध करने के लिए उन्होंने अठाईस (२८) भूलगुणों को मुह सेना और शस्त्र तैयार किये । विजय का इच्छक सुभट मालस्य का त्याग कर सतत सावधानी से शत्र पर वार कर अपनी रक्षा करता हमा उसे परास्त कराता है। इसी प्रकार श्री १०८ धोपाल यतीश्वर जी ने प्रमाद का त्यागकर आगमानुसार अपनो सेना और शस्त्र एवं कवच तैयार किये । उन्होंने महान्, श्रष्ठतम सुबहसुभट स्वरूप पञ्चमहाव्रत रूपी सामन्तों को तैयार किया। पाँच समितियाँ-१ ईयर्यासमिति (चार हाथ आगे देखकर जीवरक्षा करते हुए साधारण गमन करना २. भाषा-(प्रिय, हित, मिन वचन बोलना) ३. एषणा (छियालीस दोष टाल कर शुद्ध कूल में यथाविधि पाहार करना) ४. आदाननिक्षेपण रामिति (भूमि और वस्तु को देख शोधकर रखना या उठाना-पिच्छिका से परिमार्जन कर धरना-लेना) ५, व्युत्सर्ग (निशिच्छद्र, जीव जन्तु रहित, प्रकाशयुक्त, भूमि में मल मुत्रादि क्षेपण करना) । इन पांच समितियों को साथी बनाया । अर्थात् इनकी सङ्गति की । सज्जन की सङ्गति से दुस्साव्य भी कार्य सुसाध्य हो जाते हैं । अत: समितिरूपी सज्जनों का साथ लिया। राज्य के षड्वर्ग शत्रु होते हैं उसी प्रकार मुक्तिराज्य भी छह शत्र है ५. इन्द्रियाँ और ६. मन । उन भोपाल मूनी पवर ने इन छहों शत्रुओं का पूर्णत: दमन किया अपने प्राधीन कर लिया। तीनों-मन, वचन, काय को सम्यक् प्रकार वश कर तीनगुप्तियों को प्राप्त किया । पडावश्यक क्रियारूपी वस्त्र धारण किये। पांच महाव्रत, पाँचसमिति और तीनगुप्ति ये कृतिकर्म कहलाते हैं इनको धारण पालन और संबमन किया । तथा शेषगुण १. लौच करना-अपने हाथों से मस्तक के केश, दाढी-मूछ के केशों को उखाडना) २. अचेलत्व-वस्त्रमात्र का सर्वथा त्याग-नग्न रहना) ३. अस्नान (स्नान नहीं करना) ४. भूमिशयन (पिछली रात्रि में एक ही करबट से भूमि में सोना)५. अदन्तधावन-(दातुन नहीं करना-दन्त धावन नहीं करना) ६. स्थितिभोजन--(एक ही स्थान पर खड़े होकर आहार ग्रहण करना) ७. एक भुक्तिदिन (एक ही बार निरन्तराय पाहार ग्रहण करना) । इस प्रकार परमागम में कर्मसंहार के लिए ये २८ मूलगुण हो परमपने शस्त्रसमूह कहे गये हैं । इन मुनिराज ने इनको प्रमाद हित होकर रात्परता से सञ्चित किया और पूर्ण वीरत्व के साथ कर्मशत्रुओं का संहार करने लगे ।।१०२ से १०५॥ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ] [ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छे सर्वान् शीलगुणान्युच्च परीषह्जयैस्सह । महासुभट सन्दोहान् विधाय विधि पूर्वकम् ।। १०६ ॥ महासत्त्वगजारूढ स्सद्धर्मातपवारणः । सद्यशश्चामरोपेतो विजयी दोष सञ्चये ॥ १०७ ॥ सम्यक्त्वघातिघा सप्त प्रकृतिः प्रकृतीरिव | प्रास्त्रयेण संयुक्ता मिथ्यात्वादिक संज्ञकाः ॥ १०८॥ विनिर्जित्य महाशूर सत्तमोमुनिनायकः । are funreat मुक्त ेश्च श्रेणिकामिव ॥ १०६ ॥ अन्वयार्थ – (उच्चः ) महा ( परोषहजर्थः ) परोषहों के जय के ( सह ) साथ ( सर्वान् ) सम्पूर्ण ( शीलगुणानि ) शीलगुणों रूपों (महासुभटसन्दोहान् ) महासुभट समूहों को ( विधिपूर्वकम) विधिवत ( विधाय ) धारण कर अर्थात् प्राप्तकर ( महासत्वगजारूढः ) विशिष्ट धैर्य रूपी राज पर सवार हुआ (सद्धमतिपवारणः) उत्तमम्यक् धर्मरूपी खाता लगाये (सद्यशपत्रा मरोपेतः) निष्कलङ्क यशरूप चामरों से युत ( दोषसञ्चये) दोषसमूह को ( विजयो ) विजय करने वाला ( प्रकृती:) स्वभाव से ( इव) ही ( प्रायुस्त्रयेण ) आयु लोन के (संयुक्ता ) महित (मिध्यात्वादिसंज्ञकाः) मिथ्यात्व आदि नाम वाली ( सम्यक्त्वघातिषाः ) सम्यग्दर्शन को चातक ( सप्तप्रकृतिः) सात प्रकृतियों को (विनिर्जित्य ) पूर्णतः जीतकर ( महशूरसत्तमः) महान बोर ( मुनिनायकः ) मुनियों के अधिपति ने (मुक्त) मोक्ष की (श्रेणिकामिव ) नसेनी के समान ( क्षपकश्रेणिमारूढः ) क्षपकश्रेणी पर श्रारोहण किया । भावार्थ -- उन दीरातिबीर उग्रोग्र तपस्वी श्रीपाल महामुनिराज ने बाईसपरीयहों१. क्षुधा २. तृषा, ३. गीत ४. उष्ण ५. डंसमशक ६. नग्न ७. अरति ८. स्त्रीपरीषह ६. चर्या १०. शैया ११. श्रासन १२. आक्रोश, १३. बध, १४. याचना १५. अलाभ ९६. रोग १७. तृणस्पर्श १८. मल १६. सत्कार - पुरस्कार २०. प्रज्ञा २१ अज्ञान और अदर्शन को विजय किया । अर्थात् परीषहरूपी सेना को परास्त कर दिया । फलतः उनके १८००० शील के गुण प्रकाशित प्रकटित होने लगे । उन गुणों से शोभित त्रे अतिवीर सुभट की भांति प्रतीत हो रहे थे । उनके गुणसमूहरूप सुभट विधिवत् समद्ध होने लगे। वे धीर-वीर सत्नगज पर आरूढ हुए । सम्यक् -सत्यधर्मरूपछत्र धारण किया। निर्मल- निर्दोष चामर हुलने लगे, दोष समूह पर विजय हो विजय पताका फहराने लगी । उन्होंने सम्यग्दर्शन को घातक मिथ्यात्व आदि नामवाली सात प्रकृतियों को जडमूल से नष्ट कर दिया । अयत्नसाध्य तीन आयुमों को भी उडा दिया । क्षायिक सम्यग्वष्टि हो अप्रमत्त दशा में जा विराजे । निर्विकल्प दशा प्राप्त कर अपने में अविचल होते ही चारित्र मोहनीय को भो क्षय करने वाली क्षपक श्रेणी पर श्रारोहन किया मानों मुक्तिनगरी में चढ़ने के लिए ही सिढियाँ ही हों । अर्थात् अधः प्रवृत्त परिणामों द्वारा दुर्द्ध र कर्मों की शक्तियां क्षीण होने लगी। ठीक है सूर्योदय होने पर तमोराशि कहाँ रह सकती Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोपास चरित्र दसम् परिच्छेद] [५४१ है ? नही ठहर सकती । उसी प्रकार घ्यानानल की ज्वाला में कर्मरूप ईधन कैसे बच सकता है ? नहीं बच सकता । पुनः क्या हुआ ? सुनिये, फिस प्रकार कर्मयष्टियाँ भस्महु यीं ॥१६ से १०६।। ततोऽसौ नवमे स्थित्वा गुणस्थाने महामुनिः । षत्रिंशतिः निकडा शुलवाने पूर्णता १०॥ गुणस्थाने तथा सूक्ष्मसाम्पराये यतीश्वरः । लोभं संज्वलनं हत्वा ततोऽसौ निर्मलाय सः ॥११॥ गत्वा क्षीणकषायोरू भूमिभागे समुन्नतम् । शुक्ल ध्यानाश्रिताशीध्र द्वितीयेन पराक्रमी ॥११२॥ मोहनीय रिपु जित्वा धातित्रितय संयुतम् । केवलज्ञान साम्राज्यं सम्प्राप्तः परमोदयम् ।।११३॥ त्रिषष्ठी प्रकृतिरेवं निराकृत्य मुनिश्वरः । सजात केवलज्ञानी स श्रीपालो जगद्धितः ॥११४॥ अन्वयार्थ-(ततो) इसके बाद (असौ) यह (महामुनिः) योगीराज (नवमे) नीमे (गुणस्थाने:) गुणस्थान में स्थित्वा) स्थित होकर (शक्लध्यानेन) शक्ल ध्यान से (षटत्रिपात्प्रकृतिः) : ६-प्रकृतियों को (पूर्णत:) आमूलचूल (क्षिप्त्वा) क्षय कर, तथा उसी प्रकार (सूक्ष्मसाम्पराये) सूक्ष्मसाम्षाय (गुणस्थाने) गुणस्थान में (यतीश्वरः) मुनोश्वर (सज्वलन) संज्वलन (लोभम् ) लोभ को (हत्वा) नाशकर (असो) यह (ततो) पुनः (निर्मलाय) निर्मलता के लिए (स:) वह मुनिराज (समुन्नतम ) अति उन्नत (ऊरु:) विस्तृत (क्षीणकषाय:) क्षीण कषाय बारहवें गुणस्थान रूपा(शुक्लध्यानाश्रिता) शुक्लध्यान के प्राश्रित (भूमिभागे भूमिप्रदेश में (गत्वा) जाकर (पराक्रमी) पराक्रमी ने (द्वितीयेन) दूसरे शुक्लध्यान से (घातित्रितय संयुतम् ) घातिया तीनों के साथ (मोहनीय रिपुम ) मोहनीय शत्रु को (जित्वा) जीतकर (परमोदयम् ) उदय की असीम सीमाधारी (केवलज्ञानसाम्राज्यम ) केवलज्ञान साम्राज्य को (सम्प्राप्तः) प्राप्त कर लिया (एवं) इस प्रकार (त्रिषष्ठीप्रकृतिनिराकृत्य) प्रेसठ प्रकृतियों को नष्ट कर (सः) वह (श्रीपाल:) श्रापाल (मुनिश्वर:) मुनिराज (जगद्धितः) विश्वहितकारी (केवलज्ञानी) केवली भगवान (सजात:) हो गये । भावार्थ महामुनि श्री श्रीपाल स्वामी आठवें गुणस्थान को पार कर नवमें गुरणस्थान अनिवृतिकरण क्षपक में जा विराजे यहाँ अन्तमुहूर्त में ३६ प्रकृतियों को सत्ता से नष्ट कर दिया। इस गुणस्थान के ह भाग है उनमें से प्रथम भाग में १६ प्रकृतियों को- (१. नरक गति. २. नरकगत्यानपी, ३.तिर्यञ्च गति, ४, तिर्यञ्चगत्याननी.३ विकलत्रय ८, स्त्यानगद्ध. ६. निद्रानिद्रा, १०. प्रचना-प्रचला, ११. उद्योत, १२. प्रातम, १३. एकेन्द्रिय, १४. स्थावर, १५. साधारण, १६. सूक्ष्म) सत्ता व्युच्छिति की ।। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५०] [श्रोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद दूसरे भाग में ८ (अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ और प्रत्याख्यान भोधादि ४) तीसरे भाग में १ नपुसकवेद। चौथे भाग में १ स्त्रीब्रेद । पाँचवे भाग में ६ (हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा परि शोक ) । छठवें भाग में १-पुरुषवेद । सातवें भाग में १ संज्वलन क्रोध । ८ वें भाग में १ संज्वलन मान और नवमें भाग में १ संज्वलन माया। इस प्रकार ५६ + ८+१+१+ १+१+१+१ - ३६ प्रकृतियों का समूल नाश किया । शुक्लध्यान की शक्ति हो अलोकिक है। तदनन्तर चे महाव्यानी १०वं सूक्ष्मसाम्यपराय गुणस्थान में प्रबिष्ट हुए। यहाँ १ मात्र लोभ का संहार किया । क्षपकराज निवन्द बढ़ रहे थे प्रस्तु सूक्ष्मसंज्वलन लोभ के नष्ट होते ही सीधे १२ वें गुणस्थान में जा पहुँचे । क्ष पकथेणी प्रारोहक ग्यारहवें गुणस्थान में नहीं जाता । यह नियम है क्योंकि यहाँ से नियमपूर्वक पतन होता है। क्षपक श्रेणि वाला गिरता नहीं । उपशम श्रेणी में पतन अवश्यम्भावी है। प्रतः क्षाणकपाय बारहवें गुरुस्थान में पदार्पण कर उन यतीश्वर ने १६ प्रकृतियों की सत्ता व्युच्छिति कर डाली--५ ज्ञानावरणी ४ दर्शनावरणी, ५ अन्तराय की और निद्रा, प्रचला = १६ । इस प्रकार चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान पर्यन्त ६३ प्रकृतियों का आमुल नाश किया---चौथे में १ (नरकायू) + पाँचवें में १ (तिर्यञ्चायु)+सातवें में ८ (अनन्तानुबन्दी ४ देवायु, दर्शन, मोहनीय की ३ ) + आठवें में कुछ नहीं + नवमें में ३६+१+१६ - ६३ प्रकृतियाँ नाश कर अन्तर्महतमात्र समय में सयोग केवली १३ वें गुणस्थान में जा बिराजे । उपर्युक्त ६३ प्रकृतियों का नाश और केवल ज्ञानरूपी भास्कर का उदय एक साथ हमा। अतः श्रा १०८ श्रीपाल मनिराज केवली भगवान हो गये । उन्हें आर्हत् अवस्था प्राप्त हुयी । संसार का हित करने वाला पूर्णज्ञान प्रकट हो गया ।।११० से ११४॥ तत्प्रभावमहायात कम्पित्तासन सञ्चयाः । देवेन्द्राधास्सुरास्सर्वे समागत्य प्रमोदतः ।।११५॥ योग्यगन्धकुटी कृत्वा सिंहासन समन्वितः । छत्रमेकं तथा दिव्यचामर द्वयमुज्यलम् ॥११६।। विद्याधरनरस्सार्द्ध जय कोलाहलस्वनः । पुष्पवृष्टिं विधायोच्च पूजयन्तिस्म भक्तितः ।।११७।। प्रन्वयार्थ- (तत्) उस केवल ज्ञान के (प्रभावमहावात) प्रभुत्वरूपी प्रचण्ड पवन मे (कम्पितासन) वाम्पायमान हुए प्रासन वाले (देबेन्द्रादि) इन्द्र आदि (मर्वे) सम्पूर्ण (मरा। देवता (संचयाः) समूह (प्रमोदतः) प्रानन्दातिरेक से (समागत्यः) आकर (सिंहासनरामन्वितः) सिंहासन सहित (योग्य गन्धाटों) योग्य गन्धकुटी को (कृत्या) बना कर (एकम । एक छत्रम) छत्र (तथा) एवं (उज्वलम) स्वच्छ (द्वयम ) दो (दिव्य चामर) दिव्य चामर (कृत्वा) लगाकर (विद्याधरः) विद्याधर नरैः) मनुष्यों के (साईम ) साथ । जयकोलाहलस्वनैः) जय जय ध्वनि, (पुष्पवृष्टिम) पुष्पवर्षा (विधाय) करके (उच्चैः) विशिष्ट (भक्तितः) भक्ति से (पूजयन्तिस्म) पूजा की । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - / " ... . F ASupp MSHS ST AM INE asi R -:-: -: : T - श्रीपाल चरित्र दसम् परि २ TA DिI TRI Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२] | श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद • भावार्थ - परम केवली हो गये श्री श्रीपाल मुनि । केवलज्ञान रूपी तूफानी वायुवेग से चारों निकाय के देवों के ग्रासन कम्पायमान हो गये। सभी सुरासुर देवेन्द्रों ने अपने-अपने अवधिज्ञान से ज्ञात कर लिया कि श्री श्रीपालजी केवल जानी - सर्वज्ञ हो गये हैं । हमें अपने कर्त्तव्य की सूचना के लिए ही यह हमारा आसन चलायमान हुआ है। ज्ञानपवन का यह माहात्म्य है । बस क्या था तत्क्षण सभी देव - देवियों सुधर्मा सभा में आकर समन्वित हो गये । सौधर्मेन्द्र ने जुलुस बढने की आज्ञा घोषित की। स्वयं आगे चला । जलक मारते यथायोग्य मन्त्रकुटी - भव्यजनों का सभामण्डप तैयार हो गया । उनके सिर पर एक छत्र शोभित हुआ । परमोज्वल दिव्य दोनों और दो चंवर दुराये गये । मध्य सिंहासन पर केवलीप्रभु विराजमान हुए । विद्याधर नृपों के साथ देवी देवताओं ने जय-जय ध्वनि करते हुए महाभक्ति और हर्ष से अनेक प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की दृष्टि की। इस प्रकार सुर, नर, इन्द्रों ने उनकी भक्तिभाव से पूजा को। नोट -- सामान्य केवलो का समवशरण नहीं होता, तोन छत्र और चौसठ चँवर नहीं होते । ये तीर्थंकर केवली का विशिष्ट बंभव होता है । अतः श्रीपाल जो सामान्य केवली थे इसलिए उनके एक ही छत्र और दो ही चमर थे । गन्धकुटी थी । ( इसमें १२ सभाएँ थीं। सभी अपनो - प्रपनी शक्ति-भक्ति अनुसार पूजा कर घमापदेश श्रवण कर संसार ताप के नाश का उपाय करते हैं ।। ११५ से ११७ ।। घातिकर्म क्षये स्वामी पश्यति स चराचरम् । घनहाये यथा भानुर्भवेत् स्वपर भाषकः ।। ११८।। तदाऽसौ सर्वभव्यानां केवलज्ञान भास्करः । सञ्जगाद द्विधा धर्मं मुनिश्च श्रावकोचितम् ।। ११६।। अन्वयार्थ --- (घातिकर्मक्षये) घातिया कर्मों के क्षय होने पर (सः) वह (स्वामी) श्रीपाल केवली ( चराचरम ) चर और अचर लोक को ( पश्यति) देखता है ( यथा ) जैसे (धनाहाये) बादलों के हटने पर (भानु) सूर्य (स्व-पर भाषक: ) स्वयं को और जगत के पदार्थों का भी प्रकाशक ( भवेत् ) होता है ( तदा) सर्वजता पाने पर (सौ) वह (केवलज्ञानभास्करः ) केवलज्ञानसूर्य ( सर्वभव्यानाम ) सम्पूर्ण भव्यों का हितकारी (धर्म) धर्म को ( मुनिः ) यति (च) और ( श्रावकोचित् ) श्रावक के भेद से ( द्विधा ) दो प्रकार का ( सज्जगाद ) निरूपित किया । भावाथ -- चारों घातिया कर्मों के नाश होने पर सम्पूर्ण चराचर जगत उन्हें प्रतिभाषित हो रहा है । जिस प्रकार सूर्य पर आच्छादित मेघसमूह दूर होने पर वह भास्कर स्व और पर पदार्थों को सम्यक् प्रकार प्रकाशित करता है उसी प्रकार उन केवलीस्वामी ने समस्त विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों को अनन्तपर्यायों सहित एक साथ ज्ञात कर प्रकाशित किया। उन्होंने समस्त भव्यजीवों को द्विविध धर्म का स्वरूप बतलाया । धर्म दो प्रकार है -१. यति या मुनिधर्म और २. श्रावक धर्म । इनका स्वरूप पूर्व परिच्छेद में विशदरूप से वणित हो चुका है । पुनः उनका उपदेश आगे प्रकार हुआ ।। ११६-११६ ।। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद ] [ ५५३ जीवादिसप्त तत्त्वानि पुण्यं पापं च तत्फलम् । षद्रव्याणि तथा कालत्रयं प्राह जगद्धितम् ॥ १२० ॥ कर्मणां प्रकृतिश्चापि चतस्त्राऽपिगतिजिनः । पञ्चास्तिकाय भेदोद्यान् जगो लेस्याश्च षड्विधा ॥ १२१ ॥ त्रैलोक्यस्य स्वरूपं च सम्प्रकाश्य स्वभावतः । सम्बोध्य सकलान् भव्यान् साररत्नत्रयोदितान् ॥ १२२ ॥ दीर्घकालञ्च नानाश्च मोहजालं निहत्य सः नानादेशान्विवहरत्योचैस्सुरासुर समचतः ॥ १२३ ॥ दशनज्ञानचारित्रं मोक्षमार्ग सुखास्पदम् । aafer स्व बोधेन पुनश्चान्ते जिनेश्वरः ॥ १२४॥ चतुर्दशगुणस्थानप्रान्ते च समय द्वये । चतुर्थ्येन तथा शुक्ल ध्यानेनैव सुनिश्चलः ।। १२५ ।। श्रघाति कर्मणां पञ्चाशीति प्रकृति सञ्चयम् । हत्वा सम्प्राप्तवान् मोक्षं जरामरण वर्जितम् ॥ १२६॥ अन्वयार्थ - ( जगद्धितम् ) विश्व हितकर ( जीवादिसप्त तत्त्वानि ) जीव आदि मात तत्त्व ( पुण्यम् ) पुण्य (पापम् ) पाप (च) और ( तत्फलम ) पुण्य-पाप का फल ( षड्द्रव्याणि ) ग्रह द्रव्य (तथा) एवं ( कालत्रयम) भूत, वर्तमान, भविष्य तीन काल ( प्राह ) कहे (च) और (कर्मणाम) कर्मों की ( प्रकृतिः) प्रकृतियाँ (अपि) भी ( चतस्रोऽपिगतिः ) चारों गतियाँ भी, तथा (पञ्चास्तिकाय) पाँच अस्तिकाय के ( भेदोघानू ) भेदों का समूह (च) और ( पड्लेश्याः ) छह लेश्याए (जग) वणित की ( स्वभावतः ) स्वयंसिद्ध (त्रैलोक्यस्यस्वरूपम् ) तीन लोक का स्वरूप ( सम्प्रकाश्य ) सम्यक् प्रकार प्रकाशित कर (साररत्नत्रयीदितान् ) उत्तम रत्नत्रययुक्त (सकलान् भव्यान् ) सम्पूर्ण भव्यों को (सम्बोध्य ) सम्बोधित कर ( दीर्घकालम् ) बहुत समय तक ( नानादेशान् ) अनेकों देशों में ( विहरत्य ) बिहार कर (नानामोहजालम ) भों के नानाविध मोह जाल को ( निहत्य) नष्ट कार ( स ) यह ( सुरासुरसमचितः) सुर और असुरों के पूजित (जिनः ) जिनदेव ( स्वबोधेन ) अपने केवल ज्ञान द्वारा ( सुखास्पदं ) सुख के स्थान (दर्शनज्ञानचारित्रं मोक्षमार्गम) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्ग को ( द्योतयित्वा ) प्रकाशित करके (च ) और (पुनः) फिर ( जिनेश्वरः ) जिन भगवान ने ( चतुर्दशगुणस्थानप्रान्ते) चौदहवे गुणस्थान के अन्त में ( चतुथ्येन ) चौथे ( शुक्लध्यानेन ) शुक्लध्यान द्वारा (एव) ही ( समयद्वये ) ( द्विचरम और चरम इन दो समयों में (अधातिकर्मणाम ) अघातिया कर्मों की 'पञ्चाशीति) पचासी ( प्रकृतिसञ्चयम) प्रकृति समूह को ( हत्वा ) नाश कर (च) श्रीर Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ ] [ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद ( निश्चल: ) निश्चल ( जरामरणवर्जितम् ) वृद्धापन, मरण रहित (मोक्षम् ) मुक्ति की ( सम्प्राप्तवान् ) प्राप्त किया । भावार्थ-सकलज्ञ परम वीतरागी श्रीपाल जिनको देशना प्रारम्भ हुयी । गन्धकुटी में विराजमान जिनने षट्प्रकार द्रव्यों के साथ सप्त तत्वों का निरूपण किया। जीब अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व, पुण्य-पाप और उनका शुभाशुभ फल, जीव, पुद्गल, धर्म, धर्म, आकाश और काल मे छह द्रव्य हैं। तथा भूत, वर्तमान और भविष्य ये तीन काल इन सबका विस्तृत रूप से निरूपण किया । भव्य प्राणियों के हितार्थ आठ कर्म और उत्तर १४८ प्रकृतियों को निरूपित किया। चार प्रकार की गतियों का तथा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच अस्तिकाय, छह लेश्याएं + कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल इन छह को उन जिनेन्द्र ने सम्यक् प्रकार उपदिष्ट किया। इस प्रकार उन प्रभु ने तीनों लोकों का स्पष्ट और विस्तृत वर्णन कर रत्नत्रय का स्वरूप बतलाया । रत्नत्रयधारी भव्यात्माओं को सम्बोधित करते हुए चिरकाल तक नाना दिग्देशों में बिहार क्रिया तथा भव्यो के भयङ्कर मोह और श्रज्ञान जाल को नाश करते हुए सुरासुरों से पूजित हुए । रत्नत्रयमयी मोक्षमार्ग को बतलाया । अचल, चिरसुख देने वाला मुक्तिमार्ग प्रकाशित करते हुए वे प्रभु चौदहवें गुणस्थान में जा पहुंचे । अपने ज्ञान का प्रसार कर यहाँ शुक्लध्यान के चौथे पाये व्युfore क्रियाप्रतिपाति को लेकर अघातिया कर्मों की पच्चासी (८५) प्रकृतियों का सफाया किया । द्विचरम समय में ७२ और चरम समय १३ प्रकृतियों को विध्वस्त कर शिवालय में पदार्पण किया जहाँ न जरा है न मरण क्योंकि इनके कारण है कर्म और कर्मों को जड़ से जला कर भस्म कर दिया फिर बिना कारण कार्य कहाँ से हो ? कारण के प्रभाव में कार्य भी नहीं होता । द्विचरम समय में विनष्ट होने वाली प्रकृतियाँ -- ५ शरीर, ५ बंधन, ५ सङ्घात, ६ संहनन, ३ श्राङ्गोपाङ्ग, ६ संस्थान, ५ व २ गन्ध, ५ रस, स्पर्श, स्थिरअस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर - दुःस्वर, देवगति- देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त प्रप्रशस्त-विहायोगति, दुभंग निर्माण, अयशस्कीति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, मगुरुलघु, उपघात, परघात उच्छ हास, साता या श्रमाला में से कोई एक और मीच गोत्र । चरम समय में नष्ट होने वाली १३ प्राकृतिथाँ - साता साता में कोई एक मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय, सुभग, श्रस, वादर, पर्याप्त आदेय, यशस्कीर्ति, तीर्थङ्कर, मनुष्यायु, उच्च गोत्र और मनुष्यागत्यानुपूर्वी । इन ८५ प्रकृतियों का नाश कर जीव, अचल, अविनाशी, अनन्त सुखरूप स्थान शिवपुर में वास करता है। वहीं जा पहुँचे कर्मयोगी श्रीपाल ज्ञानयोगी बन कर द्रव्यकर्म भाव और नो कर्म समूह को मूलोमुन्लन कर | १२० से १२६ ।। एकेन समयेनोच्चैरुर्ध्वगामी स्वभावतः । सम्यक्त्वादि गुणोपेतस्त्रैलोक्य शिखरे स्थितः ।। १२७ ।। तत्र भुंक्त निराबाधं सौख्यं वाचामगोचरम् । अनन्तं शाश्वतं स्वात्मजं वृद्धिहासदूरगम् ॥ १२८ ॥ संसिद्धो मे समाराध्यो विशुद्धो विश्ववन्दितः । पारंप्राप्तेभवाम्बोधः प्रदद्यात् सिद्धिमुत्तमम् ॥ १२६॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ] [५५५ अन्वयार्थ-(ऊबंगामोस्वभावतः) स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला वह विशुद्वात्मा (एके नसमयेन) एक ही समय में (सम्यक्त्वादिगुणोपेतः) सभ्यक्त्व आदि गुणों से युक्त (बैलोक्यशिखरे) तीन लोक के शिखर पर (स्थितः) विराजमान हो गये । (तत्र) यहाँ शिवलोक में (निराबाधम्) अव्याबाघ (वाचामगोचरम्) वचन के अगोचर (अनन्तम्) अनन्त शाश्वतम) चिरस्थायी/म्बात्मजम प्रात्मोत्थ चितिहासदरगम ) कमी-वेशी रहित (सौस्यम ) सुख का (भृक्त ) भोगने लगे। (संसिद्धः) सिद्धि प्राप्त (समाराध्यः) अाराधनीय (विशुद्धः) कर्म कलङ्क रहित (विपत्रबन्दित:) संसार से नमस्करणीय (भवाम्भाधे) संसार सागर के (पारंप्राप्ते) तट को प्राप्त हुए श्रीपाल सिद्धात्मा (में) मेरे लिए (उत्तमम् ) उत्तम (मिद्धिम ) सिद्धि को (प्रदद्यात्) प्रदान करें । भावार्थ-सर्वकर्म विप्रमुक्त वे केवलीभगवान १. रसम्यक्त्व २. अनन्त ज्ञान ३.अनन्तदर्शन ४.अनन्त बोर्य ५. सूक्ष्मत्व ६. अवगाहनत्वम् ७. अगुरुलघुत्व और ५.अव्याबाधत्व इन आठ गुणों से मण्डित हो एक समब मात्र में ऊर्वस्वभावी होने से तीनलोक के शिखर पर जा स्थित हए । मोहनीयकर्म का क्षय होने से परमावगाढ सम्यक्त्व प्रकट हुआ । ज्ञानावरणी कर्म के अभाव से अनन्तज्ञान । दर्शनावरणी कर्म के मंक्षय से केवलदर्शन । अन्तरायकर्म के नाश होने रो अनन्तवीर्य, नामकम के विनाश से सूक्ष्मत्व गुण । आयुक विध्वस्त होने से प्रवगाहनत्व गुरग । गोत्रकर्म संहार में अगुफल घु गुण तथा वेदनीय कर्म का सर्वथा उन्मूलन करने से अव्यावाध सुख उन्हें प्राप्त हुए । मोक्ष में जाने पर वहाँ वे वचनातीत अर्थात् जो वचनों द्वारा कथन करने में नहीं आवे. जिसका कोई प्रतिद्वन्दी नहीं है, जो अनन्त-असीम है, चिरन्तन है, आत्मोत्थ-स्वस्वभावजन्य है, एवं वृद्धि और ह्रास अर्थात् बदना-घटना जिसमें नहीं होता ऐसा सुग्व अनुभव करने लगे अर्थात् मुक्ति में इस प्रकार का सुख विशुद्धात्मा भोगता है । यहाँ प्राचार्य श्री १०८ सालकीर्तिजी महाराज उसी सुख की अभिलाषा से सिद्धपरमेष्ठी श्रीपाल जी से प्रार्थना करते हैं कि जो स्वयं सिद्ध हो चूके, संसार सागर को जिन्होंने पार कर लिया, परमविशुद्ध हो चके हैं अर्थात् त्रिविध कर्ममलकलङ्क से रहित हो गये, तीन जगत में वन्दनीयनमस्करणोय, सर्वाराध्य वे श्रीपालसिद्ध भगवन्त मुझे भी सिद्धि प्रदान करें । अर्थात उनको भक्ति पूजा आराधना से मैं भी उन्हीं के समान अपने प्रात्मगुणों को प्रकट कर उन्हीं के समान सिद्ध हो जाऊँ ।।१२७ म १२६।। तथा तपश्चिरंकृत्वा सती मदनसुन्दरी। छित्वा स्त्रीलिङ्गकाकष्टं धर्मध्यानेन पुण्यतः ।।१३०॥ महाशुक्रे सुरेन्द्रोऽभून्महाविभवसंयुतः । सुखंभुक्त्वाचिरं तत्र समागत्य महोतले ।।१३१॥ नरत्वं दिध्यमापाद्य तपः कृत्वा पुनः सुधीः । स हत्वाकृत्स्नकर्माणि क्रमाद्यास्यति नि तिम् ।।१३२॥ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६] [ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद केचिन्नृपास्त्रियः काश्चित् स्त्रोत्वंछित्वा सुदर्शनात् । जग्मुः स्वर्गं यथायोग्यं तपोभिर्जनितं शुभात् ॥१३३॥ काश्चिन्तार्यास्तपः कृत्वा तत्फलेनाभन्दिवि । सौधर्माऽच्युतान्त्येव देव्यो रुषादि भूषिताः ।। १३४।। अन्वयार्थ - ( तथा ) श्रीपाल जी के समान ( सती मदनसुन्दरी) शीलव्रती मदन सुन्दरी ने ( चिरम) बहुत काल ( तपः ) तपश्चरण ( कृत्वा) करके ( धर्म ध्यानेन ) धर्म ध्यान से उत्पन्न (पुण्यतः ) पुण्य से (स्त्रीलिङ्गिकाकष्टम् ) स्त्रीपर्यायजन्य कष्ट को ( छित्वा ) छेदकर ( महाविभवसंयुतः ) महान् वैभव सम्पन्न ( महाशुक) महाशुक्र नाम के स्वर्ग में ( सुरेन्द्रः ) इन्द्र (अमृत) हुयी (तत्र ) वहाँ (चिरम् ) दीर्घकाल ( सुखम) सुख ( भुक्त्वा ) भोगकर (महीतले ) मध्यलोक में (समागत्य ) आकर ( दिव्यम ) उत्तम (नरत्वम् ) नरपयर्याय ( आपाद्य ) प्राप्त कर (पुनः) फिर (तपः ) तप ( कृत्वा) करके ( सुधीः) बुद्धिमान (सः) बह ( क्रमात् ) क्रम से ( कृत्स्नकर्माणि) सम्पूर्ण कर्मों को ( हत्वा ) नाश कर (निर्वृतिम ) निर्वाण ( यास्यति ) जायेगी ( काश्चित् ) कुछ ( स्त्रियः ) रानियाँ या अन्य ( स्त्रीत्वम् ) स्त्रीपर्याय को ( सुदर्शनात् ) सम्यग्दर्शन से ( छित्वा ) नाश कर (च) और (केचित) कुछ (नृपाः ) राजा-तपस्वी (तपोभिजनितम) अपने-अपने तप उत्पन्न (शुभात्) पुण्यकर्म से ( यथायोग्यम् ) यथायोग्य ( स्वगंम ) स्वर्ग को ( जग्मुः ) गये ( काश्चित् ) कुछ ( नार्याः ) तपस्विनियां (तपः ) तपश्चरण ( कृत्वा) करके ( तत्फलेन ) उस तप के फल से ( सौधर्माद्यच्युतान्त्यैव ) सौधर्म स्वर्ग से ले श्रच्युतस्वर्य पर्यन्त ही यथायोग्य स्वर्ग में ( रूपादिभूषिता ) रूप लावण्य से सुशोभित ( देव्याः ) देवियाँ (अभवन् ) हुयी । मावार्थ - महासती मदनसुन्दरी आर्यिका दीक्षाधारण कर निर्वाञ्छ तप तपने लगीं । जिस प्रकार एक विशिष्ट श्राविका धर्म का पालन किया उसी प्रकार अब यति धर्म पालन में पूर्ण सन्नद्ध हुयी। बहुत काल सम्यक्त्वपूर्वक उग्रतपश्चरण किया । अन्त कषाय और शरीर सल्लेखना पूर्वक पार्थिव शरीर का त्याग किया। भयङ्कर कष्टदायिनी निद्य स्त्रीपर्याय स्त्रीलिङ्ग का छेदन कर धर्मध्यान पूर्वक महाशुकनामा दशवें स्वर्ग में 'इन्द्र' उत्पन्न हुयी । उपपाद जन्म से अन्तर्मुहूर्त काल में ही सौम्य, सर्वाङ्ग सुन्दर, सर्वाभूषण सज्जित मनोहर इन्द्र हो गई । कुछ अधिक १६ सागर प्रमाण आयु पर्यन्त स्वभाव से प्राप्त विषय सुखों को भोगकर वहाँ च्युत हो मर्त्यलोक में यहाँ पुरुष पर्याय धारण कर संसार शरीर, भोगों से विरक्त हो मुनिदोक्षा धारण करेगी । घोर तपबल से कर्मारातियों को नष्ट कर मुक्ति प्राप्त करेगी। क्रमशः शिवपद पावेगी । श्रीपाल के साथ दीक्षित कुछ राजा-महाराजा, और कुछ रानी - महारानी (स्त्रीलिङ्ग च्छेदन कर ) सम्यग्दर्शन पूर्वक तपश्चरण कर तपानुसार अपने-अपने पुरुषार्थ के अनुसार यथायोग्य स्वर्गों में देव हुए। तप से उत्पन्न कर्मफल भोगने लगे। कुछ दीक्षित महिलाएँ अल्प तप बल से प्राप्त पुण्यानुसार सुन्दर रूप लावण्यमयो, दिव्याभरणभूषिता मनोहरा देवियाँ हुयी । जिनागम में प्रत्येक प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार अपने-अपने सुख-दुःख का कर्ता-भोक्ता होता है और स्वयं ही मोक्ष पुरुषार्थ कर शिवालय में जा विराजमान होता है ।। १३० से १३४ ।। S Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |५५७ श्रोपास चरित्र दसम् परिच्छेद ] यथा श्रीपालराजोऽयं सिद्धचक्रव्रतोत्तमम् । कृत्त्वाक्रमेण सम्प्राप्तो मोक्षं सौख्यनिकेतनम् ॥१३॥ तथाभन्याः करिष्यन्ति ये सिद्धवतचक्रजम् । तेऽपि राज्यादिकं प्राप्य मुक्ति यास्यन्ति शाश्वतीम् ॥१३६॥ एबमुक्त्वा बुधैनित्यं जैनधर्म परायणः । एतद्वतं जगत्सारं समाराध्य सुयत्नतः ॥१३७।। सर्थसिद्धिकरं पूतं सिद्धचक्रार्चनं व्रतम् । सेवितं सर्वभव्यानां कुर्यात्सारश्रियं शुभम् ॥१३८॥ अन्वयार्थ- (यथा) जिस प्रकार (अयम् ) यह (श्रीपाल राजा) श्रीपाल भूपति (उत्तमम्) उत्तम (सिद्धचक्रव्रतम्) सिद्धचक्र व्रत को (कृत्वा) करके (क्रमशः) क्रम से (सौख्यनिकेतनम्) सुख का धाम (मोक्षम् ) मोक्ष को (सम्प्राप्तः) प्राप्त हुए । (तथा) उसी प्रकार (ये) जो (भव्याः ) भव्यजन (सिद्धचक्रजम् ) सिद्धचक्र से उत्पन्न (वतम्) व्रत को (करिष्यन्ति) करेंगे (ते) वे (अपि) भी (राज्यादिकम्) राज्यादिसम्पदा (प्राप्य ) प्राप्तकर (शाश्वतीम) चिरस्थायी (मुक्तिम्) मोक्ष को (यास्यन्ति) जायेंगे । (एवम् ) इस प्रकार (उवत्वा) कथनकर (जैनधर्मपरायण:) जैनधर्म में जस्पर (बुधैः) विद्वानों द्वारा (जगत्सारम् ) संसार में सार भूत (एतत्) यह (ब्रतम्) व्रत (सुयत्नतः) सम्यक् प्रयत्न से (समाराध्यम) पीय है।(सर्वभव्यानाम। सर्ब भक्ष्यों से (सेवितम) सेवित (सर्वसिद्धिकरम ) सम्पूर्ण सिद्धियों को करने वाला (पूतम ) पवित्र (सिद्धचक्रार्चनं व्रतम ) सिद्ध समूह की पूजनयुतव्रत (शुभम् ) कल्याणकारी (सारश्रियम) उत्तम मोक्ष लक्ष्मी को (कुर्यात्) प्रदान करे। भावार्थ--इस महापवित्र, पुण्यवद्धंक, पाप प्रणाशक, मुक्तिसाधक शास्त्र को परिसमाप्ति करते हुए आचार्य श्री आशीर्वादात्मक अन्त्यमङ्गल करते हैं तथा यह ग्रन्थ सर्वहितकारी और लोकप्रिय हो यह भावना प्रकट करते हैं । जिस श्रीपालकोटीभट महामण्डलेश्वर नृपति ने परम पवित्र, महा अतिशयवान, चमत्कारी श्रोसिद्धचक्रवत को विधिवत् श्रद्धाभक्ति से स्वीकार कर एवं पूर्णपवित्र भावों से पालन कर क्रमशः दिगम्बर हो. तपश्चरण कर अनन्तसुख का परमस्थानमोक्ष प्राप्त किया। उसी प्रकार अन्य भव्यजन भी इसी प्रकार यथाविधि धारण पालन, उद्यापन करने में प्रवृत्त होंगे वे भी अनन्तचतुष्टय रूप सारभूत शाश्वत लक्ष्मी एवं सुख प्राप्त करेंगे । अर्थात् मोक्ष जायेंगे। सांसारिक चक्रवादि पद, देवेन्द्रादि पदों के सुख भोग ऋमपा: वह सुख पायेंगे "यत्रनासुखम " जहाँ से फिर दुःख होगा ही नहीं । इस प्रकार वर्णनकर आचार्य श्री कहते है कि जनधर्मपरायण विद्वदजन विश्वविख्यात और सारभूत इस सिद्धचक्रमहावत की सभ्यक प्रकार प्रयत्न पूर्वक अाराधना करने में तत्पर हों। सम्पर्ण सिद्धियों को करने वाला, परमपावन, सर्वभब्यात्मानों से सेचित यह सिद्धचक्रवत परम पावन, सारभूत अक्षयलक्ष्मी प्रदान करें । अर्थात् मुक्तिश्री देवे ।।१३५-१३६-१३७-१३८।। इत्यादि कोमलैक्यिः पूर्वाचार्यक्रमेण च । तुच्छ बुद्धयावबोधार्थ श्रीपालनपतेहितम् ॥१३॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद चरितं सर्व भव्य तां मया चके स्वशक्तितः। यन्नयूनं जिनवाग्देवी, क्षमा कर्तुं त्वमर्हसि ।।१४०।। अन्वयार्थ-(इत्यादि) उपर्युक्त प्रकार (कोमलः) सरल (वाक्यः) वाक्यों द्वारा (च) और (पूर्वाचार्यक्रमेण) पूर्व प्राचार्यों की परम्परानुसार (सर्वभव्यानाम्) सम्पूर्ण भव्यों के (अवबोधार्थम् ) ज्ञान कराने के लिए (तुच्छ बुद्धया) अल्पबुद्धि वाले (मया) मेरे द्वारा (श्रीपालनपते:) श्रीपालराजा के (हितम् चरित्रग) हितकारी चरित्र को (स्वशक्तित:) अपनी शक्ति के अनसार (चके) वणित किया गया (यल) इसमें जो (न्यनम) कमो होतो (जिनवाग्देवो) जिनवाणीमाता (स्त्रम् ) ग्राप (क्षमा) क्षमा (कर्तुम् ) करने को (अर्हसि) समर्थ हो, योग्य हो । भावार्थ-यहाँ प्राचार्य श्री अपनी उदारता, मम्रता और अल्पज्ञता प्रकट करते हैं। है जिनवाणी माँ, मैंने (सकलकीति प्राचार्य ने) ' मधर वाक्यों में इस महान चरित्र को रचने का प्रयास किया है । यह श्रीपालकोटोभट का चरित्र सागरवत् विस्तृत है और मेरी अल्पवृद्धि बिन्दु समान है । मैंने जो कुछ भी भव्यात्मानों को इस चरित्र से अवगत कराने का प्रयास किया है वह सब पुर्वाचार्यों की महती कृपा का फल है । अर्थात् पूर्वाचार्यपरम्परानुसार यह लिखा है मेरी तरफ से कुछ नहीं है। इस प्रयास में शब्द, अक्षर, मात्रा, व्यञ्जन, अर्थसङ्गति में यदि कोई त्रुटि हो गई हो तो सरस्वती शारदादेवी, जिनवाणी मां क्षमा प्रदान करें। मां सर्व कल्याणकारिणो, हितकारिणी होती है । अत: वागेश्वरी क्षमामूति क्षमा कारने योग्य है । यहाँ प्राचार्यपरम्परा कहने से यह सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ मूल है, प्रामाणिक और यथार्थ है। जिनवाणी माता से क्षमा याचना कर आचार्य श्री ने सम्यग्ज्ञान की गरिमा प्रदर्शित की है और अपनी छमस्थ अवस्था बतला कर अहंभाव का निषेध किया है। निश्छल और सरल भाव प्रदर्शित किया है ।। १३ , १४०।। ये पठन्ति महाभन्यास्शास्त्रमेत्सुखप्रदम् । पाठयन्ति परानुच्चर्ये लिखन्ति विवेकिनः ।।१४१॥ लेखयन्ति धनं दत्वा पात्रेभ्यो वितरन्ति च । संभावयन्ति ये चित्ते तेषां सिद्धि पदे-पवे ॥१४२॥ अन्वयार्थ-(ये) जो (महाभव्या) महान भव्यात्मा (एतत्) इस (सुखप्रदम ) सुखदायका (शास्त्रम् ) शास्त्र को (पठन्ति ) पढ़ते हैं (परान्) दूसरों को (पाठयन्ति) पढ़ाते हैं (ये) जो (विवेकिनः) विवेकी (उच्चः) सावधानी से (लिवन्ति) लिखते हैं (च) और (धनम ) धन (दत्त्वा) देकर (लेखयन्ति) लिखवाते हैं (पात्रेभ्यो) मुनिआयिका, श्रावकश्राविकाओं को (बितरन्ति) बितरण करते हैं (च) और (ये) जी (सिन) मन में (सम्भावयन्ति) सम्यक भावना करते हैं (तेषाम ) उनकी (सिद्धिः) कार्य सिद्धि (पदे--पदे) पग-पग पर (भवति ; होती है। भावार्थ-प्राचार्य श्री इस परमपावन महाग्रन्थ का महत्व प्रकट करते हए कहते हैं। जो भव्य नर-नारी इस सुख-शान्ति प्रदायक ग्रन्थ को पड़ते हैं-पढ़ाते हैं अर्थात् दूसरों को पढ़कर Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] [५५६ सुनाते हैं, विशेष भक्ति से लिखते हैं, यथाशक्ति द्रव्य खर्च कर लिखवाते हैं-प्रकाशित करवाते हैं, प्रकाशित कर भव्यपात्रों को वितरण करते हैं. करवाते हैं एवं पुनः पुन: मन में इस चरित्र का चिन्तन करते हैं-स्मरण करते हैं उनकी वाञ्छित सिद्धियाँ सतत होती रहती हैं । सिद्धपरमेष्ठी का ध्यान चिन्तन सकल विघ्नों का नाशक और समस्त कार्यों की सिद्धिकारक होता है । इस पवित्र चरित्र का इसलिए लोकोत्तर महत्व है क्योंकि इसमें सिद्धभक्ति का अपूर्व प्रभुत्व और फल निरूपित है ।।१४१, १४२।। । इत्थं श्रीजिनधर्मकर्म निरतः श्रीपालनामानुपः । कृत्वेदं व्रतमुत्तमं शुभकरं रोगापहं शर्मदम् ॥ सम्प्राप्य प्रभुतां जिनेन्द्र तपसाकृत्वा क्षयं कर्मणाम्। येनाप्तं परमपदं जिनपतिः कुर्यात् सदा मङ्गलम् ॥१४३॥ अन्वयार्थ-(येन) जिसके द्वारा (शुभकरम ) कल्याणकारी (रोगापहम् ) भीषण रोगनाशक (शर्मदम.) सुखकारक (उत्तमम् ) उत्तम (इदं) यह सिद्धचक्रवत (कृत्वा) करके (तपसा) तप द्वारा (कर्मणाम ) कर्मों का (क्षयम् ) क्षय (कृत्वा) करके (जिनेन्द्र) जिन भगवान की (प्रभुताम) महात्म्य को (सम्प्राप्य) प्राप्त कर (परमम् ) श्रेष्ठतम मुक्तिपद (प्राप्तः) प्राप्त किया गया (म:) वह (थोजिनधर्मकर्मनिरत:) श्री जिनप्रणीत धर्मकर्म में तल्लीन (श्रीपालनृपः) श्रीपाल राजा (जिनपत्तिः) जिन भगवान (सदा) सदैव (मङ्गलम्) मङ्गल (कुर्यात्) कर। भावार्थ-- ऋमिक विकास करने वाले श्रीपाल भूपाल शिवरमणी भरतार हो गये। प्रथम श्रावकधर्म का सम्यक् प्रकार पालन किया । जिनधर्म-कर्म में निरत रहे । उत्तम शुभकारक, भीषण, असाध्य रोगनाशक, सुख-शान्तिदायक इस परमोत्कृष्ठ सिद्धचक्रव्रत को असीम श्रद्धा और भक्ति से धारण-पालन किया। राज्य बैभव भोग भोगे पुन: संसार, शर र, भागों, से विरक्त हो घोर दीक्षा-दिगम्बर वेष धारण किया । जनतपश्चरण किया । ठीक ही है 'जे क.म्मे शूरः ते धम्मे शूरः" उन महामनीषी ने राजकीय आरातियों को जिस प्रकार परास्त किया था उसी प्रकार अब पूर्ण साधना और परमध्यान के बल पर कर्मारातियों पर विजय प्राप्त की । सकलकर्मों का संहार कर डाला । परमपद मुक्तिराज्य में विजय पताका जा फहराई । चिरन्तन मुख प्राप्त कर अनन्तज्ञानादि गुणों का धारी वना । इस प्रकार अतोन्द्रिय, अलौकिक सम्पत्ति के धनी जिनपति श्रीपाल भूपाल जिनप्रभु सदैव मङ्गल कर ।।१४३।। मन्वेतीह बुधाः कुरुध्यममलं श्रीसिद्धचक्रवतम् । ह्यतीति गुणार्णवं निरूपम विश्वक शर्माकरम् ॥ रोगाद्येष पिशाच चोर कुनृपारात्यग्नि दुष्टात्मभिः। सन्तप्ताखिल दुःखनाश जनकं सर्वार्थ संसिद्धये ॥१४४॥ अन्वयार्थ-- (हि) निश्चय से (इति) उपर्युक्त यह व्रत (अति) अत्यन्त (निरूपम) अनुपम (गुणार्णवम ) गुणों का सागर (विश्वक) संसार में एकमात्र (शर्माकरम्) शान्ति Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ] [ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद कारक (एषः) यह (रोदादिपिशाचचोरकुनपारात्यग्निदुष्टात्मभिः) कुष्टादिरोग-पिशाच, डाकू. चोर. अन्यायी दुष्ट राजा, शत्रु, अग्नि, दुर्जनादि द्वारा (सन्तप्ताखिलदुःखनाशजनकम् ) पीडित किये जाने से उत्पन्न सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने वाला (इइ) इस लोक में (सर्वार्थसंसिद्धये) सम्पूर्ण अर्थों की सिद्धि करने के लिए (अमलम ) निर्मल (श्रीसद्धचक्रवतम् ) श्रीसिद्धचक्रवत है (इति) ऐसा (मत्वा) मानकर (बुधाः) विवेकीजन इसे (कुरुध्वम् ) करें। भावार्थ---आचार्य श्री सांसारी भव्य मानवों को कष्टापहारी, चिरसुखकारी सिद्धचक्र विधान व्रत अनुष्ठान करने की प्रेरणा दे रहे हैं । यह पाबन व्रत गुणों का आकर, अनुपम, एकमात्र शान्ति और सुख का उत्पादक है । इससे कुष्ठादि रोग नष्ट हो जाते हैं यह प्रत्यक्ष कोटीभट के जीवन से स्पष्ट है । भयङ्कर रोगों की रामबाण औषधि है। भूत, पिशाच, शाकिन्यादि से उत्पन्न बाधा इससे क्षणभर में विलीन हो जाती हैं । चोर, डाकू अन्यायी दष्ट राजा, शत्रु, अग्नि, दुर्जन आदि द्वारा प्रदत्त सन्ताप नष्ट हो जाते हैं । अर्थात् तस्कर भय नहीं होता । डाकू भी इसके प्रभाव से करता छोड़कर भाग जाते हैं । अन्यायी राजा भी परास्त हो जाता है, शत्रु मित्र बन जाते हैं । अग्नि शीतल हो जाती है। दुर्जन सज्जन हो जाते हैं । ये समस्त घटनाएं महानुभाव श्रीपालजी के जीवन में घटित हुयीं यह इस ग्रन्थ के अध्येतामों को स्वयं अवगत है । राज्य त्याग, बननिवास, गलितकुष्ट, दस्युओं से युद्ध, बरबरों से संग्राम, सागर की लहरी से खिलवाड, शूलारोपण, भाडावगावा, आदि घटनाप्रो-कष्टों का निवत्ति का कारण क्या था? एकमात्र सिद्धचक्र अाराधना । कञ्चन सी काया होना, तस्करों को अके ही परास्त करना, स्थिगित जहाजों को निमिष मात्र में चला देना, जलदेवी को वश करना, अथाह-असीम सागर को भुजाओं से पार करना, सहस्रकूट चैत्यालय के वज़ कपाट खुलना, शुली आरोहन का संकट टरना, आदि चमत्कारी घटनाओं से इस व्रत का माहत्म्य स्पष्ट हो जाता है । यह महान पवित्र और जीवन शोधक व्रत है। यही नहीं समस्त संकटों से छ टकारा दिलाकर यह मोक्षसुख को प्रदान कराता है। परम कल्याणकारी चारों पुरुषार्थों का क्रमिक विकाश कर सिद्धिप्रदान करने वाला यह व्रत समस्त भव्य जीवों को धारण करना चाहिए ।।१४४॥ एवं सर्वसुरासुरेन्द्रहितः श्रीवर्द्धमाननतम् । प्राहेत्थं च जगद्धितं शुचितरं श्रीपालभूपालकम् ॥ श्रुत्वा श्रेणिकभूपतिश्च ससभ सन्तुष्टचित्तो महान् । नत्वातजिनपं मुनीन्द्रसहितं सम्प्राप्तवान् स्वं पुरम् ॥१४५।। अन्वयार्थ--(एवम् ) इस प्रकार (जगत् + हितम) संसार का हितकर (शुचितरम् ) पवित्रतर (श्रीपालभूपालकम्) श्रीपालमहाराज का (व्रतम् ) सिद्धचक्रवत (सर्वसुरासुरेन्द्रमहितः) समस्त सुर और असुरों से वन्दनीय,-पूजनीय (श्रीवर्द्धमानः) श्री महावीर भगबान ने (प्राह) कहा । (च) और (इत्थम् ) इसको (ससभम्) सभासहित (श्रेणिकभपतिः) श्रेणिकमहाराज (श्रुत्वा) सुनकर (महान् सन्तुष्टचित्तः) महान प्रानन्द से प्रफुल्ल चित्त (मुनीन्द्रसहितम) गणधरादि सहित (तम ) उन (जिनपम.) जिनेन्द्र वीर प्रभु को (नत्वा) नमस्कार कर (स्वम ) अपने (पुरम ) पुर का (सम्प्राप्तवान् ) माये । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ] भावार्थ--श्रेणिक महाराज ने श्रीवर्द्धमान भगवान से पाप और विघ्नौघ विनाशक महापरमपावन "श्रीपाल चरित्र" पूछा था। सर्वभूत हितकर परमदेव ने अपनी दिव्यबर्बान से सकलवृत्तान्त यथावत् निरूपण किया। समस्त सुर-असुर नागेन्द्र-नरेन्द्रादि १०० इन्द्रों से पूजनीय सर्वज्ञ प्रभु ने समस्त भव्यप्राणियों का हित करने वाला पवित्र यह श्रीपाल भुपाल का उत्तम चरित्र बतलाया। समस्त सभा हर्षोल्लास से झम उठी । इस वरद चरित्र को श्रवणकर श्रेणिक महाराज परमानन्द को प्राप्त हुए जैसे असाध्य रोगमुक्त हुआ रोगी सुखानुभव करता है। इस प्रकार समवशरण स्थित समस्त भव्यजन परम प्रमोद भरे अपने अपने स्थान को गये । महाराज श्रेणिक भी मोदभरे सपरिजन-पुरजन अपनी विशाल श्रद्धाभक्ति से गणधरादि सहित श्री वीरजिनेन्द्र को पुनः नमस्कार कर अपनी राजधानी में वापिस पागये ||१४५|| सिद्धोऽनन्त सुखाकरो निरूपम स्सिद्धं श्रितायोगिनः । सिद्धेनैव विलीयतेऽघ निचयस्सिद्धाय सिद्धय नमः ॥ सिद्धान्नास्त्यपरस्सुसिद्धिजनक स्सिद्यस्य शुद्धाः गुणाः । सिद्धं में बधतोमनः प्रतिदिनं हे सिद्ध सिद्धिं कुरु ॥१४६॥ अन्वयार्थ यहाँ आचार्य श्री अन्तमङ्गलरूप सिद्ध परमेष्ठी भगवान की महिमा प्रदशित कर उनके गुणों का स्मरण करते हुए स्वयं सिद्धि पाने की अभिलाषा से नमस्कार करते हैं । आठों विभक्तियों का प्रयोग कर यह श्लोक चमत्कारी शक्तिशाली बना दिया है । (सिद्धः) सिद्धपरमेष्ठी (अनन्तसुखाकरः) अनन्तसुख के सागर (अनुपमः) उपमातीत हैं (योगिनः) योगीजन (सिद्धम् ) सिद्धों को (ग्राश्रिताः) आश्रय लेते हैं (सिद्धेन) सिद्ध द्वारा (एव) ही (अघनिचय:) पाप समूह (विलीयते) नष्ट किया जाता है (सिद्धय) सिद्धिप्राप्ति के लिए (सिद्धाय) सिद्ध परमेष्टी को (नमः) नमस्कार है (सिद्धात्) सिद्ध से (अपरः) बढकर दूसरा (सुसिद्धिजनकः) सम्यक् सिद्धिकर्ता (नास्ति) नहीं है (सिद्धस्य), सिद्ध के (गुणाः) समस्तगुण (शुद्धाः) विशुद्ध है (मे) मेरा (मन:) मन (सिद्धे) सिद्ध में (दधत:) लगा रहे (हे सिद्ध) भो सिद्धपरमेष्ठिन् (प्रतिदिनम् ) प्रतिदिवस (सिद्धिम् ) सिद्धि (कुरु) करो। भावार्थ-सिद्धभक्ति का वैभव इस ग्रन्थ में परिणत है । सिद्ध समूह की पूजा का कितना प्रभाव किस प्रकार होता है इस शास्त्र से सम्यक विदित हो जाता है। अस्तु आचार्य श्री अन्त में सिद्धसमूह को नमस्कार कर अपनी कृति को समाप्त करने जा रहे हैं । अपनी आत्मसिद्धि के लिए सिद्धों को पाराधना परमावश्यक है। सिद्ध परमेष्ठी अनन्तसुख अनुपम सिद्धि के खजाना है। यह प्रथमा विभक्ति कर्ताकारक हुआ। योगीजन सिद्ध को पाश्रय बना अपनी आत्मसिद्ध करते हैं। यह कर्म कारक (सिद्ध को) है । सिद्ध भगवान द्वारा सम्पूरण पापपुञ्ज नष्ट कर दिया गया। यह (सिद्ध भगवान द्वारा) तृतीया-करण कारक है। सिद्धि पाने के लिए सिद्धों को-सिद्ध प्रभु के लिए (यह चौथी सम्प्रदाय कारक है) नमस्कार है। सिद्ध से बढ़कर अन्य कोई भी सम्यक् सिद्धि करने वाला नहीं है। यह सिद्धसे-अपादान कारक है । सिद्ध भगवान के अनन्त गुण सभी परम शुद्ध और पवित्र हैं । यहाँ "सिद्ध के" यह सम्बन्ध कारक है। मेरा मन भ्रमर के समान सदा सिद्धि में ही लगा रहे । सिद्ध में-यह प्राधिकरण Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562] [धीपाल चरित्र दसम परिच्छेद कारक हुा / भी सिद्ध-प्रभो ! प्रतिदिन मुझे सिद्धि प्रदान करिये / 'भो सिद्ध" सम्बोधन है / इस प्रकार इस श्लोक से सभी कारकों का प्रयोग्य कविराज लेखक आचार्य श्री के सूक्ष्म गम्भोर और सरल प्रतिभा का परिचायक है / प्रात्मोपलब्धि के पिपासु आपने अभेद कारक रूप प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप का भेद-व्यवहार रूप में बड़ा ही मार्मिक एवं यथायोग्य वर्णन किया है। इस प्रकार स्वयं अपनी आत्मा में सिद्ध स्वरूप का आरोप कर विचार करने से भेद से अभेद रूपता की प्राप्ति सरलता से उपलब्ध हो जाती है / अत: भेद और अभेद रूप कारकों द्वारा सिद्ध स्वरूप का चिन्तवन करना चाहिए। क्रमशः अभ्यास द्वारा भेद से अभेद प्राप्त करना चाहिए // 146 / / इदं पवित्र व्रतमाचरन्ति ये दृष्टिशुद्धा नृसुरादि सौख्यम् / भुक्त्वाचिरात् सिद्धिपदं व्रजन्ति श्रीपालवच्चाखिलकोतिमत्ताम् // 147 // अन्वयार्थ-(ये) जो मानव (दृष्टिशुद्धा) निमंल सम्यग्दृष्टि (इदम् ) इस (पविश्रम ) पुनीत (व्रतम) व्रत को (पाचरन्ति) पालन करते हैं (ते) वे (अखिलकीतिमत्ताम) सम्पूर्णयशस्वी (नसुरादि साँस्यम) मनुष्य, देवादि के सुख को (भुक्त्वा) भोगकर (श्रीपाल वत् ) श्रीपाल नृपति के समान (अचिरात) शीघ्र ही (सिद्धिपदम ) मुक्तिपद को (जन्ति) प्राप्त करते हैं। भावार्थ----जो भव्य श्रावक-श्राविका शुद्ध-निर्दोष अर्थात् पच्चीस दोष रहित और अष्ट अङ्ग सहित सम्यग्दर्शन धारण कर इस परम पवित्र सिद्धचक्रवत को यथायोग्य विधिवत् धारण कर पालन करते हैं वे भव्यात्मा मनुष्य और देवादि उत्तमगतियों के सारभूत सुखों को भोग शीन ही श्रीपाल भूपाल की भांति अजर-अमर मुक्तिपद को प्राप्त हो जाते हैं / जहाँ अनन्त काल तक अनन्त आत्मोत्थ आनन्द-सुख में लीन रहेंगे / अत: संसार भीत भव्य जीवों को यह व्रत परम श्रद्धा, भक्ति से यथाशक्ति आचरणीय हैं ऐसा आचार्य श्री का आदेश है / यह व्रतप्राणीमात्र का कल्याए। करने वाला है / सर्वोपकारी है // 147 // “इति श्रीपालभूपालचरितेभट्टारक श्री सकलकीति विरचिते श्री सिद्धचक्र पूजातिशय सम्प्राप्ते श्री परिनिर्वाणगमन वर्णन नाम दशम् परिच्छेदः / " / / / इति श्री मुनिसुव्रततीर्थसन्तानकालोत्पन्न श्रीपालनृपवर चरितं सम्पूर्णम् // शुभमस्तु / / श्री पञ्चगुरुम्यो नमः // भाद्रपदमास कृष्णपक्ष एकादशी, रविबार ता० 27-8-86 दिन हिन्दी टीका सम्पूर्ण हुयी। स्थान-श्री 1008 महावीर जिनालय, इचलकरंजी / अनन्तसिद्धों की जय, परमपूज्य तपोधन 108 प्राचार्य श्री आदिसागर, महावीर कीतिजो महाराज (शिक्षागुरुराज) की जय, श्री 108 आ० श्री विमलसागरजी (दीक्षागुरुमहाराज) की जय / परम्पराचार्य श्री 108 प्राचार्य सन्मतिसागरजी महाराज की जय / २०वीं शताब्दी में सर्वप्रथम गणिनीपदालङ्कृता ग. पा. 105 विजयामती माताजी द्वारा हिन्दी टीका रचना सम्पूर्ण हुयी।