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________________ २७२ ] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद तथा विधं तमालोक्य दशावस्थाध्वगामिनम् । पापिनं मन्त्रिरणोपेत्य पप्रच्छ भो वरिकपते ||८|| कि ते वपुषि कोऽप्यासीद् दुर्व्याधिरुवराविजः । किंवा हि वेदना तीव्र शिरस्तापादिसंभवा ॥६॥ श्रन्वयार्थ -- ( दशावस्थाऽध्वगामिनम् ) काम की दशमी अवस्था के मार्ग में आये ( पापिनम् ) पापी (तम ) उस धवल की ( आलोक्य) वेखकर (मन्त्रिणः ) मन्त्री ( उपेत्य ) उसके पास आकर (पप्रच्छ ) पूछने लगे ( भो ) है ( वणिक्पते ) वणिक राजा (ते) आपके ( वपुषि) शरीर में ( किम) क्या (कोन) कोई भी ( उदरादिजः ) पेटादि से उत्पन्न ( दुर्व्याधिः ) खोटीपीडा ( प्रासोत् ) हो गई ? (वा) अथवा (हि) निश्चय से ( किन ) क्या कोई ( शिरस्तापादिसंभवा ) मस्तक की पीडा से उत्पन्न ताप है ? जिससे ( तीव्र वेदना ) भयकर वेदना है क्या ? भावार्थ धवलसेट को कामातल उत्तरोत्तर बढती गयो । मदन बेदना से उसकी शक्ति, विवेक सबकुछ नष्ट हो गया । यह काम पिशाच से भी अधिक भयङ्कर है। इसके चङ्गल में बड़े-बड़े हरि-हर ब्रह्मा विष्णु भी फंस गये. साधारणजन की बात ही क्या है ? सेठ का जीवन दुर्लभ हो गया । काम की दश अवस्थाएँ नीतिकारों ने बतलाई हैं । अन्तिम दम दशा में मरणासन्न हो जाता है। उस धवलसेठ की बीमारी ने अन्तिम रूप धारण किया । इस विपरीत अवस्था को देखकर मन्त्रियों को चिन्ता हुयी। वे उसके पास आये । रोग क्या हैं ? इसका निर्णय करने के लिए उससे पूछा, हे व्यापारियों के अधिपति ! आपको क्या वीमारी है ? क्या उदरशूल है । अथवा उदर से जन्य कोई अन्य दुर्व्याधि है ? अथवा सिर दर्द है क्या ? या माथे से निकली कोई अन्य असाध्य वेदना है ? यह असह्य कष्ट क्या है ? कृपया बतायें ? क्यों कि तदनुसार औषधि उपचार ग्रादि करने का प्रयत्न किया जाय ॥६-६ ॥ I ततोऽवादीत् स पापात्मा न मे व्याधिर्न वेदना | किन्तु श्रीपालकान्तायामासक्तं मन्मनोऽभवत् ॥ १०॥ अन्वयार्थ - - ( ततः ) मन्त्रियों के पूछने पर ( स ) वह ( पापात्मा ) पापी ( आवादीत् ) बोला (मे) मुझे (न व्याधिः ) न कोई पीडा रोग है ( न वेदना ) न हो वेदना ही है ( किन्तु ) परन्तु (श्रीपालकान्तायाम् ) श्रीपाल की प्रिया में ( मत्) मेरा ( मनः ) मन ( आसक्तम ) आसक्त (अभवत् ) हुआ है । भावार्थ – विषयान्ध को न लज्जा रहती है न भय । वह धवल भो इसी प्रकार वेशरम और निडर होकर बोला, मन्त्रिजन हो, मुझे न कोई रोग है, न संताप व पोडा है किन्तु मेरी दुर्दशा का कारण दूसरा ही है। जिस समय मैंने श्रीपाल की अनुपमरूपसुधा स्वरूपा कामिनी को देखा उसी समय से मेरा मन उसमें आसक्त लीन हो गया है। उसे पाने का ही मात्र रोग-शोक और ताप है ||१२||
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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